Friday, July 26, 2013

एड्रिएन रिच की कविता

अमेरिकी नारीवादी कवयित्री एड्रिएन सिसिल रिच (16 मई, 1929) अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता व प्रगतिशीलता के लिए विख्यात रही हैं। पिछले  वर्ष 27 मार्च 2012 को उनका देहांत हो गया।

एड्रीएन रिच की एक कविता
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चूंकि हम युवा नहीं हैं, एक-दूसरे से न मिल पाने के वर्षों खोये समय को
पूरना होगा हफ्तों में।
इस पर भी सिर्फ
समय का यह अजीब मोड़
बतलाता है मुझे हम युवा नहीं हैं।
क्या जब मैं बीस की थी सुबह की सड़कों पर कभी घूमती थी,
मेरा शरीर परम आनंद से सराबोर?
क्या कभी मैंने ऊपर से झांक कर देखा था किसी खिड़की से शहर को
भविष्य के लिए सुनते हुए
जैसे कि मैं सुन रही हूं यहां तंत्रियां तुम्हारी घंटी पर लगीं?
और तुम मेरी ओर बढ़ती हो उसी गति से।
तुम्हारी आंखें नित्य हैं,
शुरुआती ग्रीष्म की नीली आंखोंवाली घास की हरी कौंध
हरा-नीला जंगली क्रेस1 वसंत से धुला।
बीसवें वर्ष में , हां : हमने सोचा था हम सदा रहेंगे।
पैंतालिसवें वर्ष में, मैं जानना चाहती हूं, यहां तक कि हमारी सीमाएं।
मैं तुम्हें छूती हूं जानते हुए कि हम कल नहीं जन्मेंगे
और किसी तरह, हम में एक-दूसरे की जिंदगी में काम आएंगे
और कहीं, हम में से हर एक को मदद करनी होगी
दूसरे की मृत्यु के वरण में।

साभार : समयान्तर 

Thursday, July 25, 2013

ब्रेख्त की एक कविता

मेरा छोटा लड़का मुझसे पूछता हैः क्या मैं गणित सीखूँ?
क्या फायदा है, मैं कहने को होता हूँ
कि रोटी के दो कौर एक से अधिक होते हैं
यह तुम जान ही लोगे।

मेरा छोटा लड़का मुझसे पूछता हैः क्या मैं फ्रांसिसी सीखूँ?
क्या फायदा है, मैं कहने को होता हूँ
यह देश नेस्तनाबूद होने को है
और यदि तुम अपने पेट को हाथों से मसलते हुए
कराह भरो, बिना तकलीफ़ के झट समझ लोगे।

मेरा छोटा लड़का मुझसे पूछता हैः क्या मैं इतिहास पढूँ?
क्या फायदा है, मैं कहने को होता हूँ
अपने सिर को जमीन पर धँसाए रखना सीखो
तब शायद तुम जिन्दा रह सको।

-----ब्रेख्त
साभार : तत्सम

स्वयंसिद्धा - मेरा नया ठिकाना

पिछले दिनो कई तकनीकी समस्याओं से जूझते हुये मन में एक भय जागा, कहीं अपना प्रोफ़ाइल न खो दूँ!  वैसे ये दु:स्वप्न भी डरा देता है कि कभी किसी रोज़ सुबह लॉगिन करने लगूँ और पासवर्ड ही भूल जाऊँ!  कुछ जरूरी स्टेटस अब से यहाँ भी सेव रखना चाहूंगी!  आप लोग चाहें तो मुझे यहाँ फॉलो कर सकते हैं!  यह मेरा नया पता है!


---- अंजू शर्मा