Sunday, August 31, 2014

मैं तुझे फिर मिलूँगी - अमृता प्रीतम



आज अमृता प्रीतम जी का जन्मदिन है। संयोग ही है कि पिछले कई दिनों से मैं उनकी कहानियाँ पढ़ रही हूँ। इन कहानियों से गुजरने का अहसास अद्भुत है, बस गूंगे का गुड़ जानिए। अमृता जी की एक कविता मुझे बेहद पसंद है। आज फिर से इसे पढ़ रही हूँ, आप भी पढ़िये.......





मैं तुझे फिर मिलूँगी

मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
 
इसे पंजाबी में पढ़ने के बाद मालूम होता है कि अपनी मादरे-ज़बान में अमृता का कोई सानी नहीं........

मैं तैनू फ़िर मिलांगी
कित्थे ? किस तरह पता नई
शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के
तेरे केनवास ते उतरांगी
जा खोरे तेरे केनवास दे उत्ते
इक रह्स्म्यी लकीर बण के
खामोश तैनू तक्दी रवांगी
जा खोरे सूरज दी लौ बण के
तेरे रंगा विच घुलांगी
जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के
तेरे केनवास नु वलांगी
पता नही किस तरह कित्थे
पर तेनु जरुर मिलांगी
जा खोरे इक चश्मा बनी होवांगी
ते जिवें झर्नियाँ दा पानी उड्दा
मैं पानी दियां बूंदा
तेरे पिंडे ते मलांगी
ते इक ठंडक जेहि बण के
तेरी छाती दे नाल लगांगी
मैं होर कुच्छ नही जानदी
पर इणा जानदी हां
कि वक्त जो वी करेगा
एक जनम मेरे नाल तुरेगा
एह जिस्म मुक्दा है
ता सब कुछ मूक जांदा हैं
पर चेतना दे धागे
कायनती कण हुन्दे ने
मैं ओना कणा नु चुगांगी
ते तेनु फ़िर मिलांगी
(पंजाबी)

Friday, August 8, 2014

बलिदान (कहानी) - सुशांत प्रिय








सुशांत सुप्रिय की सक्रियता बरबस ध्यान खींचती हैं।  वे लगातार लिख रहे हैं, कवितायें और कहानियों के बाद इन दिनों वे अनुवाद के क्षेत्र में लगातार विश्व साहित्य की अच्छी कहानियों से हिन्दी के पाठकों को परिचित करा रहे हैं।  उनकी एक कहानी मुझे मेल से मिली है।  किस्से के अंदाज़ में गढ़ी गई ये कहानी स्वयंसिद्धा के पाठकों से साझा करते हुए उनकी किस्सागोई की सराहना करना चाहूंगी।  आप भी पढ़िये :


मेरे परदादा बड़े ज़मींदार थे । वे कई गाँवों के स्वामी थे । उन्होंने कई मंदिर बनवाए थे।  कई कुएँ और तालाब खुदवाए थे । कई-कई कोस तक उनका राज चलता था । वे अपनी वीरता के लिए भी विख्यात थे । एक बार ' लाट साहब ' के साथ जब वे घने जंगल में शिकार पर गए थे तब एक खूँखार नरभक्षी बाघ ने पीछे से ' लाट साहब ' पर अचानक हमला कर दिया था । तब परदादा जी ने अकेले ही बाघ से मल्ल-युद्ध किया ।हालाँकि इस दौरान वे घायल भी हो गए पर इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने बाघ के मुँह में अपने हाथ डाल कर उसका जबड़ा फाड़ दिया था और उस बाघ को मार डाला था । परदादाजी की वीरता से अंग्रेज़ बहादुर बहुत ख़ुश हुआ था।  अपनी जान बचाने के एवज़ में ' लाट साहब ' ने उन्हें ' रायबहादुर ' की उपाधि भी दी थी ।


             हालाँकि आज जो सच्ची घटना मैं आपको बताने जा रहा हूँ उसका सीधे तौर पर इस सबसे कुछ लेना-देना नहीं है । हमारे गाँव चैनपुर के बगल में एक और गाँव था--- धरहरवा । वहाँ साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता था । हमारे गाँव और आस-पास के सभी गाँवों के लोग उस मेले की प्रतीक्षा साल भर करते थे। मेले वाले दिन सब लोग नहा-धो कर तैयार हो जाते और जल-पान करके मेला देखने निकल पड़ते । हमारे गाँव में से जो कोई मेला देखने नहीं जा पाता उसे बहुत बदक़िस्मत माना जाता । हमारे गाँव चैनपुर और धरहरवा गाँव के बीच भैरवी नदी बहती थी ।साल भर तो वह रिबन जैसी एक पतली धारा भर होती थी । पर बारिश के मौसम में कभी-कभी यह नदी प्रचण्ड रूप धारण कर लेती थी । तब कई छोटी-छोटी सहायक नदियों और नालों का पानी भी इसमें आ मिलता था । बाढ़ के ऐसे मौसम में भैरवी नदी सब कुछ निगल जाने को आतुर रहती थी । यह कहानी भैरवी नदी में आई ऐसी ही भयावह बाढ़ से जुड़ी है ।

               यह बात तब की है जब मेरी परदादी के पेट में मेरे दादाजी थे । उस बार जब धरहरवा गाँव में मेला लगने वाला था तो मेरी परदादी ने परदादाजी से कहा कि इस बार वह भी मेला देखने जाएँगी । यह सुन कर परदादा जी मुश्किल में फँस गए ।

वैसे तो कई-कई कोस तक किसी भी बात के लिए उनका हुक्म अंतिम शब्द माना जाता था पर वे मेरी परदादी से बहुत प्यार करते थे । उन्होंने परदादी जी को मनाना चाहा कि ऐसी अवस्था में उनका मेला देखने जाना उचित नहीं होगा । पर परदादी थीं कि टस-से-मस नहीं हुईं । परदादाजी प्रकाण्ड विद्वान् भी थे । उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था । किन्तु उनकी सारी विद्वत्ता परदादी जी के आगे धरी-की-धरी रह गई । वे किसी भी भाषा में परदादी जी को नहीं मना पाए । परदादी जी की देखा-देखी या शायद उनकी शह पर घर-परिवार की सारी औरतों ने मेला देखने जाने की ज़िद ठान ली ।  हार कर परदादाजी और घर के अन्य पुरुषों को घर की औरतों की बात माननी पड़ी ।

                पुराना ज़माना था । ज़मींदार साहब की घर की औरतों के लिए पालकी वाले बुलाए गए । भैरवी नदी के इस किनारे पर एक बड़ी-सी नाव का बंदोबस्त किया गया । लेकिन उस सुबह नदी में अचानक कहीं से बह कर बहुत ज़्यादा पानी आ गया था । नदी चौड़ी, गहरी और तेज़ हो गई थी । बाढ़ जैसी स्थिति की वजह से उसने ख़तरनाक रूप ले लिया था । पर मेला भी साल में एक ही बार लगता था । अंत में घर के सब लोग , कुछ नौकर-नौकरानियाँ , पालकियाँ और पालकी वाले भी उस डगमगाती नाव पर सवार हुए । राम-राम करते हुए किसी तरह नदी पार की गई । इस तरह नदी के उस पार उतर कर सब लोग धरहरवा गाँव में मेला देखने पहुँचे।

         
      मेला पूरे शराब पर था । चारो ओर धूम मची हुई थी । तरह-तरह के खेल-तमाशे थे । नट और नटनियों के ऐसे करतब थे कि आदमी दाँतों तले उँगली दबा ले । एक ओर गाय , भैंसें , और बैल बिक ़रहे थे । दूसरी ओर हाथी और घोड़े बेचे और खरीदेजा रहे थे । दूसरे इलाक़ों के ज़मींदार लोग भी मेले में पहुँचे हुए थे । कहीं ढाके का मलमल बिक रहा था तो कहीं कन्नौज का इत्र बेचा जा रहा था । कहीं बरेली का सुरमा बिक रहा था तो कहीं फ़िरोज़ाबाद की चूड़ियाँ बिक रही थीं । ख़ूब रौनक़ लगी हुई थी ।

               सूरज जब पश्चिमी क्षितिज की ओर खिसकने लगा तो मेला भी उठने लगा ।  दुकानदार अँधेरा होने से पहले सामान समेट कर वापस लौट जाना चाहते थे । परदादाजी ने ख़ास अरबी घोड़ा ख़रीदा । घर-परिवार की औरतों ने भी अपने-अपने मन का बहुत कुछ ख़रीदा । परदादाजी तीन भाई थे । वे सबसे बड़े थे । उनके बाद मँझले परदादाजी थे । फिर छोटे परदादाजी थे । शाम ढलने लगी थी । सब लोग उस बड़ी-सी नाव पर सवार हो गए । नदी का पानी पूरे उफान पर था । हालात और ख़राब हो गए थे।


दूर-दूर तक नदी का दूसरा किनारा नज़र नहीं आ रहा था । मल्लाहों ने परदादाजी से विनती की कि इस बाढ़ में नाव से नदी पार करना बड़े जोख़िम का काम था । पर परदादाजी के हुक्म के आगे उनकी क्या बिसात थी । सब लोग उस डगमगाती नाव में सवार हो गए । परदादाजी ने अपने अरबी घोड़े को भी नाव पर चढ़ा दिया । घर-परिवार की सभी औरतें, नौकर-चाकर , पालकियाँ और पालकी वाले--सब नाव पर आ गए ।

                 नदी किसी राक्षसी की तरह मुँह बाएँ हुए थी । उफनती नदी में वह नाव किसी खिलौने-सी डगमगाती जा रही थी । नदी के बीच में पहुँच कर नाव एक ओर झुक कर डूबने लगी । औरतों ने रोना-चीख़ना शुरू कर दिया । मल्लाहों ने चिल्ला कर परदादाजी से कहा कि नाव पर बहुत ज़्यादा भार था । उन्होंने कहा कि नाव को हल्का करने के लिए कुछ सामान नदी में फेंकना पड़ेगा ।

                 
 परदादाजी ने सामान से भरे कुछ बोरे नदी में फिंकवा दिए । नाव कुछ देर के लिए सम्भली पर बाढ़ के पानी के प्रचण्ड वेग से एक बार फिर संतुलन खो कर एक ओर झुकने लगी । फिर से चीख़-पुकार मच गई । अब और सामान नदी में फेंक दिया गया । पर नाव थी कि सम्भलने का नाम ही नहीं ले रही थी और एक ओर झुकती जा रही थी । मल्लाह लगातार भार हल्का करने के लिए चिल्ला रहे थे ।

                    आख़िर परदादाजी ने दिल पर पत्थर रख कर अपने अरबी घोड़े को उफनती धाराओं के हवाले कर दिया । उन्हें देख कर लगा जैसे वे अपने जिगर का टुकड़ा क्रुद्ध भैरवी मैया के हवाले कर रहे हों । नाव ने फिर कुछ दूरी तय की । लेकिन कुछ ही देर बाद वह दोबारा भयानक हिचकोले खाने लगी । नाव को चारों ओर से इतने झटके लग रहे थे कि नाव में बैठी परदादीजी की तबीयत ख़राब होने लगी थी । जब नाव ज़्यादा झुकने लगी तो मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे । परदादाजी के मना करने के बावजूद अबकी बार कुछ नौकर-चाकर और पालकी वाले जिन्हें तैरना आता था, नदी में कूद गए । नाव उफनती धारा में तिनके-सी बहती चली जा रही थी । मल्लाह नियंत्रण खोते जा रहे थे ।

                     अंत में नाव में केवल चार मल्लाह, घर-परिवार के सदस्य और कुछ नौकरानियाँ ही बचे रह गए । लग रहा था जैसे उस दिन सभी उसी नदी में जल-समाधि लेने वाले थे । सब की नसों में प्रलय का शोर था । शिराओंं में भँवर बन रहे थे । साँसें चक्रवात में बदल गई थीं । परदादाजी को कुछ समझ नहीं आ रहा था । उनकी बुद्धि के सूर्य को जैसे ग्रहण लग गया था । मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे थे ।

                     परदादाजी , मँझले परदादाजी और छोटे परदादाजी -- तीनों अच्छे तैराक थे । लेकिन बाढ़ से उफनती सब कुछ लील लेने वाली प्रलयंकारी नदी में तैरना किसी शांत तालाब में तैरने से बिलकुल उलट था । एक बार फिर फ़ैसले की घड़ी आ पहुँची । किसी ने सलाह दी कि नौकरानियाें को नदी में धकेल दिया जाए । लेकिन तीनों परदादाओं ने यह सलाह देने वाले को ही डाँट दिया । बल्कि पहले छोटे परदादा , फिर मँझले परदादा परदादाजी से गले लगे और उनके लाख रोकने के बावजूद दोनों उस बाढ़ से हहराती , उफनती नदी में कूद गए । घर की औरतें रोने-बिलखने लगीं । लेकिन नाव थोड़ी सीधी हो गई ।

                      अब दूसरा किनारा दिखने लगा था । लगा जैसे नाव किसी तरह उस पार पहुँच जाएगी । तभी बाढ़ के पानी का समूचा वेग लिए कुछ तेज लहरें आईं और नाव को बुरी तरह झकझोरने लगीं । उस झटके से चार में से दो मल्लाह उफनती नदी में गिर कर बह गए । नाव अब बुरी तरह डगमगा रही थी । दोनों मल्लाह पूरी कोशिश कर रहे थे पर नाव एक ओर झुक कर बेक़ाबू हुई जा रही थी । दोनों मल्लाह फिर चिल्लाने लगे थे । किनारा अब थोड़ी ही दूर था लेकिन नाव लगातार एक ओर झुकती चली जा रही थी । वह किसी भी पल पलट कर डूब सकती थी ।

                        औरतें एक बार फिर डर कर चीख़ने लगी थीं ।  दोनों मल्लाह भी चिल्ला रहे थे । और उसी पल परदादाजी ने आकाश की ओर देख कर शायद कुल-देवता को प्रणाम किया और नदी की उफनती धारा में कूद गए । औरतें एक बार फिर विलाप करने लगीं ।

                         परदादाजी के नदी में कूदते ही एक ओर लगभग पूरी झुक गई नाव कुछ सीधी हो गई । औरतों के विलाप और भैरवी नदी की उफनती धारा के शोर के बीच ही दोनों मल्लाह किसी तरह उस नाव को किनारे पर ले आए ।

                         परदादाजी किनारे कभी नहीं पहुँच पाए । मँझले परदादा और छोटे परदादा का भी कुछ पता नहीं चला । उस शाम नाव से नदी में कूदने वाले हर आदमी को भैरवी नदी की उफनती धाराओं ने साबुत निगल लिया ।

                        तीनों परदादाओं और अन्य सभी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया । बाढ़ और मातम के बीच उसी रात परदादी ने दादाजी को जन्म दिया , वर्षों बाद जिन्हें आज़ाद भारत की सरकार ने स्वाधीनता-संग्राम में उनके योगदान के लिए शाॅल और ताम्र-पत्र दे कर सम्मानित किया ।

                        लेकिन इस बलिदान से जुड़ी असली बात तो मैं आपको बताना भूल ही गया । बाढ़ के उस क़हर की त्रासद घटना के बाद से आज तक , पिछले नब्बे सालों में भैरवी नदी में फिर कभी कोई डूब कर नहीं मरा है । इलाक़े के लोगों का कहना है कि हर डूबते हुए आदमी को बचाने के लिए नदी के गर्भ से कई जोड़ी हाथ निकल आते हैं जो हर डूबते हुए आदमी को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा जाते हैं । इलाक़े के लोगों का मानना है कि परदादाजी, मँझले परदादाजी , छोटे परदादाजी और नौकरों-चाकरों की रूहें आज भी उस नदी में डूब रहे हर आदमी की हिफाज़त करती हैं ।

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सुशान्त सुप्रिय ( परिचय)
                        
 जन्म २८ मार्च, १९६८  पटना में
शिक्षा-दीक्षा अमृतसर , पंजाब तथा दिल्ली में
पंद्रह वर्षों से संसदीय सचिवालय में अधिकारी
दिल्ली में रिहाइश
प्रकाशन : दो कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं: 'हत्यारे' (२०१०) तथा 'हे राम' (२०१२)।
पहला काव्य-संग्रह ' एक बूँद यह भी ' 2014 में  प्रकाशित
अनुवाद की एक पुस्तक ' विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ' प्रकाशनाधीन है ।
सभी पुस्तकें नेशनल पब्लिशिंग हाउस , जयपुर से प्रकाशित
कई भाषाओं में कहानियाँ और कवितायें अनूदित, सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

कविता " इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं " पूना वि. वि. के बी. ए.    (द्वितीय वर्ष ) पाठ्यक्रम में शामिल। दो कहानियाँ , " पिता के नाम " तथा " एक हिला हुआ आदमी " हिन्दी के पाठ्यक्रम के तहत कई राज्यों के स्कूलों में क्रमश: कक्षा सात और कक्षा नौ में पढ़ाई जा रही हैं। आगरा वि. वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. तथा गुरु नानक देव वि.वि., अमृतसर के हिंदी विभागों में कहानियों पर शोध।
       
 'हंस' में 2008 में प्रकाशित कहानी " मेरा जुर्म क्या है ? " पर short film बनी है ।  अंग्रेज़ी काव्य-संग्रह ' इन गाँधीज़ कंट्री ' हाल ही में प्रकाशित हुआ है।  अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ डायरेक्शन' प्रकाशाधीन।
        

          

Wednesday, August 6, 2014

कार्टूनिस्ट प्राण के साथ कॉमिक्स का दौर अब खत्म हुआ






"कार्टूनिस्ट प्राण" यह नाम  80 या नब्बे के दशक के बचपन से कुछ इस तरह वाबस्ता है कि इसके बिना बचपन की कल्पना काफी हद तक नीरस और बेरंगी मालूम होती है।  चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू, पिंकी, रमन, श्रीमतीजी जैसे चर्चित कार्टूनों के जरिए घर-घर में मशहूर हुए कार्टूनिस्ट प्राण का 76 साल की उम्र में निधन हो गया। वह पिछले कई साल से कैंसर से पीड़ित थे। पिछले 10 दिनों से वह अस्पताल के इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में भर्ती थे, जहां मंगलवार रात उन्होंने अंतिम सांस ली।  उनके साथ ही मानों कॉमिक्स की दुनिया का एक सुनहरा दौर भी खत्म हो गया। 



प्राण का जन्म 15 अगस्त, 1938 को लाहौर में हुआ था। पूरा नाम प्राण कुमार शर्मा था, लेकिन वह प्राण के नाम से ही मशहूर हुए।   1960 में उन्होने दिल्ली से छपने वाले अखबार 'मिलाप' में बतौर कार्टूनिस्ट अपने करियर की शुरुआत की थी।  कॉमिक्स की दुनिया के चर्चित किरदार चाचा चौधरी को उन्होंने सबसे पहले हिंदी बाल पत्रिका 'लोटपोट' के लिए बनाया था। इसके बाद वह भारतीय कॉमिक जगत के सबसे सफल कार्टूनिस्टों में से गिने जाने लगे।   चाचा चौधरी और साबू के अलावा भी डायमंड कॉमिक्स के लिए प्राण ने कई अन्य कामयाब किरदारों को जन्म दिया। इनमें रमन, बिल्लू और श्रीमतीजी जैसे कॉमिक चरित्र शामिल थे।


राजनीति विज्ञान के स्नातक और फाइन आर्ट्स के छात्र रहे प्राण ने जब 1960 के दशक में कॉमिक स्ट्रिप बनाना शुरू किया, जो उस वक्त भारत में इस लिहाज से बिल्कुल नया था और कोई देसी किरदार मौजूद नहीं था।  अगर 1960 के दशक से पहले की बात करें तो प्राण साहब से पहले शायद ही किसी ने ऐसी कोशिश की होगी। उनकी कोशिश पूरी तरह कामयाब भी रही।  विशुद्ध भारतीय कॉमिक कैरक्टर पहली बार अस्तित्व में आए जिन्हे हाथोंहाथ लिया गया।  ये एक तरह से भारतीय बच्चों की दुनिया पर काबिज मिकी, डोनाल्ड, स्पाईडरमैन, मेंड्रेक आदि के समानान्तर एक ऐसी सीरीज़ का गठन था जो बेहद अपनी सी लगती थी और सहज ही बालमन पर अपनी छाप छोड़ जाती थी।  भारतीय कॉमिक चरित्र, पर्फेक्ट कॉमिक टाइमिंग और समसमयिक विषयों पर पकड़ जैसी कुछ बातों ने उन्हे न केवल बच्चों बल्कि कई पीढ़ियों के पसंदीदा कार्टूनिस्ट के तौर पर स्थापित कर दिया।  शायद ही किसी अन्य कार्टूनिस्ट को इतनी कामयाबी मिली होगी जो प्राण साहब को मिली।  


बीबीसी को दिये एक इंटरव्यू में प्राण साहब ने बताया था,  "ऐसा नहीं है कि कार्टूनिस्ट नहीं थे. मुझसे बेहतर थे मेरे सीनियर जैसे शंकर, कुट्टी और अहमद लेकिन वे सब राजनीतिक कार्टून बनाते थे. मुझे लगा कि राजनीति तो वक्त के साथ पुरानी पड़ जाएगी क्यों न ऐसे सामाजिक क़िरदार बनाऊं जो हम जैसे हों. मेरी समझ से कार्टून पत्रकारिता की एक शाखा है."
 

आगे वे कहते हैं,  "उस वक्त जितनी भी कॉमिक्स बाज़ार में मौजूद थीं उन सब में विदेशी चरित्र थे जैसे मेंड्रेक, ब्लॉंडी वगैरह. हालांकि जब मैंने माता-पिता को बताया तो सबने कहा कि क्या मिलेगा तुम्हें, कोई लड़की तुमसे शादी नहीं करेगी. लेकिन मैंने कहा कि मैं तय कर चुका हूं. अब तो यही करना है."

 
 उनके कार्टून कैरक्टर्स की लोकप्रियता का यह आलम रहा कि पिछली कई पीढ़ियों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी आदि से परिचित न हो।  ये वह वक़्त था जब कॉमिक्स की दुनिया का स्वर्णिम दौर था, इस दौर से कितनी मदद प्राण साहब को मिली या प्राण साहब से कितनी मदद इस दौर के उत्थान को मिली ये कहना जरा मुश्किल है।  दरअसल दोनों एक दूसरे के पूरक साबित हुए।  वह दूरदशन और आकाशवाणी का जमाना था।  केबल टीवी नेटवर्क और इंटरनेट से ठीक पहले का दौर था।  तब बच्चों के लिए कॉमिक्स ठंडी हवा के उस झोंके के तरह था जो कुछ घंटों के लिए उन्हे पढ़ाई से निजात दिलाता था, माँ-बाप भी खुश थे कि किसी न किसी रूप में बच्चे किताबों से खुद को जोड़ रहे थे।  डायमंड कॉमिक्स की सीरीज़ ने ऐसे समय को भुनाया और बच्चों को अपना मुरीद बना लिया और इसमें प्राण साहब का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। स्थानीय विषयों का चुनाव, चुटीला व्यंग्य और अपने ही घर-बाहर के आस पास दिखनेवाले किरदार बाज़ार पर इस कदर छा गए कि जल्दी ही डायमंड कॉमिक्स हर घर में होना जरूरी हो गया।   


प्राण साहब में कामयाबी का एक लंबा दौर देखा है और वे अंतिम समय तक काम करते रहे।  सक्रियता का तो ये आलम था कि अंतिम समय तक वे काम कर रहे थे।  उन्होंने पाठकों के लिए आगे तक का काफी कॉमिक्स पहले से ही बना दिया था। 


आज का बचपन किताबों से नाता तोड़कर फिर से केबल टीवी और इंटरनेट की शरण में हैं।  भारतीय चरित्रों पर ज्यादा प्रयोग हो नहीं रहे हैं और छोटा भीम जैसे इक्का-दुक्का  कार्टून को छोडकर  एक बार फिर, शिनचैन, डोरेमोन, निंजा हथोड़ी जैसे विदेशी कार्टूनों का दौर है।  हिन्दी या इंग्लिश में डब किए गए इन कार्टूनों में चुंबन लेते छोटे बच्चे हैं जिनके गाल बड़ी उम्र की लड़की तक को देखकर लाल हो जाते है।  हर बच्चे के पास एक पर्फेक्ट क्रश भी है जिसे रिझाने का कोई मौका वह छोडना नहीं चाहता।  अंत में यदि कोई संदेश मिलता भी है तो तमाम तरह की फूहडताओं से गुजरने के बाद।  सोचने का समय है आखिर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को किया दिखा रहे हैं।   

 
तमाम तरह के एनिमेशन कोर्सेस के युग में  कार्टूनों के संदर्भ में देखा जाए तो कॉमिक्स में अब बच्चों की रुचि नहीं और यूं भी कार्टून बनाना आज खतरे से खाली नहीं है।  खुद प्राण साहब कई बार ये चिंता जाहिर कर चुके थे कि किसी भी कार्टूनिस्ट को आज पहले जैसी  स्वतन्त्रता नहीं है। फतवे और जुलूस के साथ साथ तमाम तरह की नाराज़गियाँ मोल लेने के बाद भी आज कितने कार्टूनिस्ट हैं जिन्हे कामयाबी मिल रही है।  जो हैं वो किसी भी तरह के नए प्रयोगों से बचना चाहते हैं  ऐसे में प्राण साहब का चले जाना कार्टून्स की दुनिया में उस स्थान का खाली होना है जिसे शायद ही कभी भरा जा सके।   उन्हे भावभीनी श्रद्धांजलि।