Monday, March 30, 2015

राजेश्वर वशिष्ठ की कविताएँ



आज राजेश्वर वशिष्ठ जी का जन्मदिन है।  इन दिनों एक कवि के रूप में उनकी सक्रियता बराबर कविताओं के माध्यम से चिन्हित की जा रही है।  आधुनिकता की अंधी दौड़ में बिसरा दिए जाने वाले रिश्ते उनकी कविताओं में सांस लेते हैं। वहीं स्त्रियों के पक्ष में वे बिना किसी लाग-लपेट के, बहुत मुखरता से अपनी बात रखने की कोशिश करते हैं।  पिछले दिनों मिथकों को लेकर उन्होंने कविता में कई शानदार और सफल प्रयोग किये जिन्हें ख़ासा पसन्द किया गया। इनका कविता-संकलन 'सुनो वाल्मीकि' किताबनामा प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, उनके पाठकों सहित मुझे भी इसका शिद्दत से इंतेज़ार है। राजेश्वर जी को संग्रह और जन्मदिन की हार्दिक बधाई और अनवरत सृजनात्मकता की शुभकामनाओं के साथ उनकी कुछ कविताएँ आज यहाँ आप लोगों के लिए साझा कर रही हूँ....



बहनें

बहनें मुझे रोज़ याद नहीं आतीं
जैसे याद नहीं आता दुनिया में अपना होना
जीवन और मृत्यु के बीच
एक पुल बनाए रखने के लिए
लगातार साँस लेना

बहनें मुझे याद आती हैं त्यौहारों पर
देवियों और देवताओं की तरह
सुबह सुबह एक अनुष्ठान की तरह
उनसे पूछता हूँ उनके हाल चाल
दोहराता हूँ कुछ बहुत घिसे-पिटे वाक्य

प्रणाम, नमस्कार होता है उनके परिवारजनों से
और बहनें फूल कर कुप्पा हो जाती हैं

हर प्रश्न के उत्तर में
सुनाई देती है उनकी खिलखिलाहट
वे कोई शिकायत नहीं करतीं
अपने घर परिवार और ज़िंदगी के बारे में
 वे जानती हैं सूर्य से अलग होने के बाद
सबको घूमना ही होता है अपनी परिक्रमा में
अपनी अपनी धुरी पर घूमते हुए

वे बड़े-बड़े आग्रह नहीं करती भाई से
बार बार मना करती हैं कुछ भी लेने से
वे नहीं चाहतीं
कोई भी जान पाए यह राज़
कि भाई की झोली में
 देने को कुछ भी नहीं है
मीठे बोलों के सिवाय

वे नहीं चाहतीं भाई की आँखों में दिखें
विवशता के आँसू
उन क्षणों में उनमें प्रवेश कर जाती है
माँ की आत्मा
भाई और उसके परिवार पर
लुटाते हुए असंख्य आशीर्वाद

वे बदल कर भूमिका
चुपचाप सँभाल आती हैं
 बूढ़े माता पिता को
झूठमूठ सुना देती हैं
उन्हें भाई की व्यस्तता की कहानियाँ
वे घर के किसी कोने में
ढूंढती हैं अपना अतीत
जिसे वे रख कर भूल गयी थीं
स्वर्ण-मुद्राओं की तरह
उन क्षणों में
भगीरथी हो जाती हैं बहनें

बहनों,
आज स्नेह और सम्मान से
याद कर रहा हूँ तुम्हे
साथ में लिए हुए उस विश्वास को
 जो तुमने चुपके से डाल दिया था
मेरी खाली जेब में
कीमती सिक्के की तरह

तुम्हारा होना ही आश्वस्ति है
सूर्य और आकाश गंगा के सम्बंधों की!



 एक पगले नास्तिक की प्रार्थना

 मुझे क्षमा करना ईश्वर
मुझे नहीं मालूम कि तुम हो या नहीं
कितने ही धर्मग्रंथों में
कितनी ही आकृतियों और वेशभूषाओं में
नज़र आते हो तुम
यहाँ तक कि कुछ का कहना है
नहीं है तुम्हारा शरीर

अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ईश्वर
अगर तुम्हारा शरीर ही नहीं है
तो तुम कर ही नहीं पाओगे प्रेम
और अगर तुम्हारा शरीर है
तो बहुत सारे लोग तुम्हें करेंगे प्रेम
वे तुम्हें लेकर महानता से भरी
कहानियाँ गढ़ लेंगे
और कहेंगे कि तुम
उनके स्वप्न पूरे करते हो

पर ईश्वर, तुम फिर भी
किसी से प्रेम नहीं कर पाओगे
क्योंकि प्रेम के लिए
शरीर में स्पंदन भी ज़रूरी है
और कोई धर्म अपने ईश्वर के शरीर में
स्पंदन बर्दाश्त नहीं कर सकता
उन्हें तो सलीब पर लटका
बाँसुरी बजाता
या निराकार ईश्वर चाहिए
जो बस ईश्वर होने भर की पुष्टि करे

आज मुझे
तुम्हारी ज़रूरत महसूस हो रही है ईश्वर
आज सुबह तुम्हारे हर रूप को
प्रणाम किया है मैंने
हर बार दोहराई है एक छोटी-सी प्रार्थना
अगर वह स्वीकार हो जाती है
तो मैं इन सभी तर्कों के विरुद्ध कहूँगा
मुझे तुम पर भरोसा है

तुम्हारे होने या न होने से
मुझे क्या फर्क पड़ना है!


पश्चाताप

 विश्वास को उसने
किसी किले की दीवार की तरह खड़ा किया था

मैंने भी कितने ही क़िस्से सुनाएं थे
उसे अपनी कुशल राजगीरी के
 मैंने ज़रूर कहा होगा ताजमहल से लेकर
कुतुब मीनार तक का निर्माण
मेरी ही प्रजाति ने किया है
मैंने ज़रूर कहा होगा, तुम निश्चिंत रहो
इस दीवार की मजबूती के लिए
इसके भीतर रखा
एक एक कोहिनूर सुरक्षित है

वह आश्वस्त थी
उसदीवार की मजबूती के लिए
जैसे सभी होते हैं
किसी पर विश्वास करने के बाद

उस दीवार में सब कुछ था
मसलन पत्थर, लोहा और सीमेंट
उसकी भावनाएं थीं, स्वाभिमान था
 और मेरा आश्वासन भी
बस पानी में ही कुछ नमक ज़्यादा था
पता नहीं यह नमक उसके आँसुओं से आया
या मेरे आँसुओं में था

हुआ यह कि पहली ही बरसात में दीवार बदरंग हो गई
बड़े शौक से बनाई गई खिड़कियाँ
दीवानी हो कर चिल्लाने लगीं
कि उनके बिना साँस भी नहीं ले सकती यह दीवार
उन खिड़कियों को पता नहीं किस बढ़ई ने बनाया था

मैं जानता हूँ, मौसम पर किसी का नियंत्रण नहीं
बरसात को रोका नहीं जा सकता
खिड़कियों को भी हर वक्त बंद नहीं रखा जा सकता
पर मुझे इस दीवार को बचाना ही होगा
 यह मेरे लिए दायित्व भी है और नैतिकता भी

अब मैं उस दीवार पर
अपनी चमड़ी मढ़ देना चाहता हूँ
ताकि ढ़का जा सके एक आहत स्त्री का विश्वास
पुरुष की चमड़ी से ज़्यादा ढीठ और बेशर्म
किसी पदार्थ की जानकारी नहीं है मुझे
इससे बेहतर पश्चाताप और कैसे करूँ?


छेदी राम

हम दोनों तीस साल पहले मिले थे
छेदी राम की इस छोटी सी दुकान पर
इंडिया एक्सचेंज के पास वाली गली में
मुझे नहीं पता था कलकत्ते की बारिश में
दिल्ली के बने जूतों के सोल
किसी नाव की तरह बह जाते हैं
मुझे आश्चर्य था
बालूजा का नया जूता पहली ही बारिश में
जनता के विश्वास की तरह बिखर गया
उन दिनों लोगों के पास
दर्ज़न भर जूते भी नहीं हुआ करते थे
मेरे पास तो दूसरा भी नहीं था
कराहते जूते लिए
प्रवीर ने मुझे छेदी से मिलवाया
और हम दोस्त बन गए
तब मैं और छेदी दोनों ही जवान थे
मैंने बताया, भाई बिल्कुल नया जूता है
पता नहीं क्यों सोल निकल रहा है
और पानी अंदर घुस रहा है;
छेदी ने जूते का मुआयना किया और बताया बाबू,
यह जूता बंगाल के हिसाब से नहीं बना है
मुझे अचम्भा हुआ
जूतों में भी प्रांतीयता सर्वोपरी है!
छेदी ने कहा
यहाँ चमड़े के सोल के ऊपर
रबड़ का सोल भी ज़रूरी है
क्या आप नहीं जानते
ज्योति बाबू की इंदिरा जी से अच्छी दोस्ती है
इसी दोस्ती के चलते उन्होंने बंगाल में
कांगेस को सोल विहीन कर दिया है
अब काँग्रेस के जूते में भी हुगली बहती है बाबू साहेब!
 मैं इस गूढ़ दर्शन को समझ नहीं पाया
छेदी ने समझाया ------
तो आपके इस दिल्ली वाले जूते पर
हम कलकत्ता का रबड़ सोल जड़ देते हैं
यहाँ के मशहूर चीनी जूता कारीगर
इसे ही लगाते हैं
कामरेड इसी को पहन कर दिन भर
दफ्तरों के बाहर
लाल सलाम, लाल सलाम कर कदमताल करते हैं
मैं छेदी की कलाकारी पर मुग्ध हो गया
हर नए जूते का यज्ञोपवीत संस्कार
छेदी राम ही करवाते
कुछ ऐसे इंतज़ाम करते
जो जूता बनाने वाली कम्पनियाँ
जान-बूझ कर नहीं करती थीं
वह एड़ियों पर
हवाई जहाज़ के टायर का रबड़ चिपका देता
तो मुझे वैसा ही लगता जैसे लाखोटिया जी ने
कोई टैक्स चोरी का नुस्खा बता दिया हो
जूता ठीक हो गया
यहाँ तक कि दौड़ने लगा
जिस दिन इंदिरा जी की हत्या हुई
आगजनी, लूट-पाट
और बम-बाज़ी से आतंकित शहर में
जूता, डलहौज़ी से
साल्टलेक, करुणामयी तक पैदल ही दौड़ा
उस दिन मुझे समझ आया
जूता पहनने के लिए पाँव ही नहीं
अक्ल भी ज़रूरी है।

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Saturday, March 28, 2015

अनुपमा तिवाड़ी की कवितायें





अनुपमा तिवाड़ी की कवितायें अपने समय का सजग पाठ हैं, एकालाप नहीं, जो तमाम विसंगतियों के भंवर में भी जीवन के बचे रहने और निर्बाध बढ़ते रहने की सम्भावना को रेखांकित करती हैं!  उनकी कवितायें उम्मीद का सिरा थामे हुए आगंतुक समय का स्वागत करती है, बढ़ती उम्र का भी और तयशुदा परिधि को तोड़ती महिलाओं का भी, जो अपने होने का उत्सव मनाती हैं!   ये कवितायें लगातार अपनी सार्थकता को परिभाषित करती हुई नए प्रश्नों के उत्तर तलाशती हैं, चाहे वह लिखने का कारण ही क्यों न हो!  आइये पढ़ते हैं अनुपमा जी की कुछ ऐसी ही कवितायें………




स्त्रियाँ कभी बूढी नहीं होतीं

स्त्रियाँ कभी बूढी नहीं होतीं
हर दिन टांची लगते रहने से
उनकी देह मूर्ती बनने लगती है
दिन - ब - दिन.
बढती उम्र,
के साथ देह का सारा प्रेम
सिमट कर आ जाता है आँखों में
फिर फैलता है
सारी देह में.
छलकता है देह से रंग - रंग.
बढती उम्र,
की स्त्रियों की अंटी में
बिना टके भी होता है खजाना.
बढती उम्र,
की स्त्रियों के आँचल में होता है
भरपूर अमलतास और पलाश.
बढती उम्र,
की स्त्रियाँ
वसंत से पकते हुए बनती हैं फागुन
बढती उम्र,
की स्त्रियाँ
निखरती जाती हैं
दिन - ब - दिन
खूबसूरत होती जाती हैं
ठीक मेरी तरह !
 

जो किनारे पर खड़े हैं ....

जो किनारे पर खड़े हैं
वही सबसे पहले डूबेंगे ।
सबसे पहले उनकी नौकरियाँ जाएँगी
सबसे पहले उन्हीं की बस्तियाँ,
आग के हवाले होंगी ।
सबसे पहले वही विस्थापन के नाम पर
धकेले जाएँगे
यहाँ - वहाँ, वहाँ - यहाँ पर कहीं नहीं।
सबसे पहले उन्हीं की गलतियाँ अक्षम्य होंगीं
सबसे पहले उन्हीं की माँ - बहन बलात्कार की शिकार होंगी
रोंदी जाएँगी, कुचली जाएँगी और अंततः मार दी जाएँगी
ये किनारों पर खड़े आदमी
नहीं डरते हैं,
प्राकृतिक विपदाओं से
नहीं डरते हैं
किसी अज्ञात ताकत से
इन्हें डर है,
आदमी की ताकत का ।
कितना डर है, एक आदमी को, एक आदमी से ।
क्या तुम भी किसी से डरते हो ?
यदि डरते हो
तो वह आदमी नहीं है
जिससे तुम डरते हो ।




जुमला तोड़ती औरतें

दर्द के समंदर
में डूबी
औरतें,
स्वागत करती हैं
हर उस नई
औरत का
जो डूबने आती है
इस नए समंदर में ।
चाहे वैश्यालय में
आई कोई नवयौवना हो
या घर से दूर
कामकाजी कोई स्त्री हो।
वह गहरे से जी चुकी होती हैं
उस दर्द को
जिस में डूब कर वो बनी हैं फौलाद
जिनके आँसू भी हो चुके हैं
अब गाढे
जो दिखते नहीं कच्चे आंसुओं से
वो तोड़ती हैं
जुमला कि
" औरत ही औरत कि दुश्मन होती है” ।

कोई क्यों लिखता है कविता ?

कि, मैं क्यों लिखती हूँ कविता ?
किसी ने काम तो नहीं दिया कविता लिखने का
पर फिर भी मैं लिखती हूँ कविता.
कविता ने ही सिखाया
उगते सूरज से ही नहीं,
स्लेटी रूई के फाहों जैसे बादलों की पीछे ढलते सूरज से भी प्यार करना.
कविता ने ही सिखाया,
चिड़ियों को भी शुभकामनाएं देना
कि चिड़ियों, तुम उडो उन्मुक्त आकाश में,
अनंत काल तक,
तुम इतनी ही खुश रहना,
जितनी कि आज हो.
कविता ने ही उगते पेड़ों को देख,
जीवन में संभावनाएं देखना सिखाया
कभी कविता पैदा हुई,
बाहरी पीड़ा के प्रसव से
तो कभी,
भीतर बह रहे झरने की झर - झर से.
जब कभी मन हारा
तो कविता ही सिरहाने आ,
झिंझोड़ कर बोली
" पागल समूचा समाज एक हो जाता है
तो क्या सुकरात गलत हो जाता है ?
क्या ईसा गलत हो जाता है ?
कविता है, तो तू है
कविता नहीं, तो तू भी नहीं !
तुम दोनों पर्याय हो एकदूसरे के".
शायद इसलिये लिखती हूँ
मैं कविता,
शायद इसलिए लिखता है
कोई कविता !
यूँ ही नहीं लिखता कोई कविता,
यूँ ही नहीं लिखता कोई कविता ........





 
सर्वश्रेष्ठ तो हो चुका

रोको उन्हें,
जो नित नए चित्र / कार्टून बना रहे हैं
रोको उन्हें,
जो नित नए तरीके की कविता / गीत रच रहे हैं
रोको उन्हें,
जो सुन्दर दिख रहे हैं
रोको उन्हें,
जो प्रेम कर रहे हैं
और रोको उन्हें,
जो नया - नया सोच रहे हैं
नई - नई बात कर रहे हैं
रोको उन्हें भी,
जो चौराहों पर तुम्हें नंगा कर रहे हैं
रोको - रोको ,
सबको रोको ......
ये सब तुम्हारे धर्म के खिलाफ हैं
तुम्हारी संस्कृति के विरोध में हैं
ये सब तुम्हारी चूलें हिला रहे हैं
इन सबको रोकने से पहले
बस ये जान लेना कि
ये कभी रुकते नहीं
ये कभी मरते नहीं
और अगर
ये रुक गए
तो मानवों की एक नई पीढी पैदा होगी
जिसका रक्त नसों में दौड़ेगा नहीं,
नसों में रक्त रुका होगा !


******


परिचय

नाम – अनुपमा तिवाड़ी
जन्मतिथि – 30 जुलाई 1966
जन्मस्थान – बांदीकुई ( दौसा ), राजस्थान
माता – पिता – मायारानी तिवाड़ी एवं विजय कुमार तिवाड़ी
शिक्षा – हिंदी और समाजशास्त्र में एम. ए तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक.
कार्यानुभव – 1989 से शिक्षा जगत में बच्चों और राजकीय शिक्षकों के साथ अकादमिक संबलन के कार्य से जुडी रही हूँ साथ ही बाल अपचारी गृह के बच्चों, घर से निकले रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहने वाले बच्चों, देह व्यापार में लिप्त परिवारों व शौचालयों में काम करने वाले परिवारों के बच्चों, तथा कामकाजी बच्चों के साथ उनकी शिक्षा व वंचितता पर काम करती रही हूँ वर्तमान में वर्ष 2011 से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन राजस्थान में
हिंदी विषय की सन्दर्भ व्यक्ति के रूप में कार्यरत हूँ.

संलग्न – लेखन, पर्यावरण और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में.

रचनाकर्म – 1997 से लेखन की शुरूआत की. आस – पास के लोग, मुद्दों और स्वयं के जीवन ने लिखने के लिए प्रेरित किया. अभी तक पचास से अधिक देश भर की बीस से अधिक पत्र – पत्रिकाओं व पांच ई – मेगज़ीन में कविताएं और कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं.

एक कविता संग्रह “आइना भीगता है“ 2011 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित.
पिछले कुछ वर्षों से आकाशवाणी, दूरदर्शन और कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करती रही हूँ

पता – ए -  108, रामनगरिया जे डी ए स्कीम, एस के आई टी कॉलेज के पास, जगतपुरा, जयपुर 302017

फोन : 7742191212, 9413337759
Mail – anupamatiwari91@gmail.com

(सभी चित्र गूगल से लिए गए हैं)

Monday, March 23, 2015

भगतसिंह पर मोहन श्रोत्रिय जी की कवितायें


आज 23 मार्च है, अमर शहीदों राजगुरु, सुखदेव भगतसिंह का शहीदी दिवस।  अमर शहीदों को शत शत नमन।  आज ही के दिन अंग्रेजी हुक़ूमत ने उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था।  आज के दिन मोहन श्रोत्रिय जी की लिखी ये कविताएँ याद आती हैं जिन्हें आप सभी से साझा कर 'स्वयंसिद्धा' में संजो रही हूँ।




क्या कहूं, भगत सिंह !?

क्या कहूं, भगत सिंह
सिवा इसके कि मैं क्षमा-प्रार्थी हूं
उन सबकी ओर से
जो ज़ोर-ज़ोर से कहते थे
हर जलसे-जुलूस में
इंकिलाब ज़िंदाबाद
ज़िंदाबाद इंकिलाब.
बड़े होते थे इनके जलसे,
और उनसे भी बड़े होते थे जुलूस
बेहद अनुशासित/ मर्यादित.

अनुयायी कहते थे ख़ुद को ये सब
उसी क्रांतिकारी का
जिससे* बात कर रहे थे तुम फांसी के ऐन पहले
हम ही नहीं भूले हैं तो तुम कैसे
भूल गए हो सकते हो
किताब पढ़ रहे थे तुम जब
जेलर तुम्हें ले जाने आया था 'वध-स्थल तक की
यात्रा के लिए. तुमने सही ही आदेश दिया
उसको ठहर कर प्रतीक्षा का
क्योंकि तुम्हारे ही शब्दों में
"एक क्रांतिकारी कर रहा है बात
दूसरे क्रांतिकारी से." रौंगटे आज भी
खड़े हो जाते हैं, भगत सिंह इन
शब्दों की याद आते ही. हम कितने ही निकम्मे
सिद्ध हो गए हों, फिर भी.

जिससे तुम बात कर रहे थे
वह क्रांतिकारी गांधी से एक बरस छोटा था
पर गांधी से तीस बरस पहले ही
पा लिया था अपना लक्ष्य,
उसने पूरा कर लिया था अपना 'मिशन'.
गांधी को तो तीस बरस
बाद भी करना पड़ा था संतोष
खंडित लक्ष्य-प्राप्ति से ही.

उस क्रांतिकारी की तेजस्विता का प्रमाण ही था यह
कि ये अनुयायी आज़ादी के बाद
वोट के ज़रिये दूसरी सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरे थे
पहली ही लोक सभा में. चलते रहते
उसी रास्ते पर संकल्प की प्रचंडता के साथ
तो यक़ीन मानो, भगत सिंह , नहीं देखने पड़ते
ये दिन, जिन्हें 'दुर्दिनों' के अलावा किसी और नाम से
पुकारना नासमझी होगी या चालाकी
जो मैं करना नहीं चाहता.
आज हम वहां खड़े हैं, भगत सिंह
जहां जनता बस कहना ही चाहती है कि
ऐसा राज अब और बर्दाश्त नहीं होगा हमें,
और सत्ता भी निकम्मेपन और
हालात पर नियंत्रण खो चुकने
के कारण यह महसूस कर ही लेने वाली है
कि शासन इस तरह नहीं चलाया जा सकता.
उस क्रांतिकारी विचारक
और दुनिया की पहली सफल क्रांति के नायक ने
"क्रांति की अनिवार्य स्थिति कहा था" ऐसी
ही परिस्थिति को.
लानत फेंको
'अपनी और तुम्हारी प्रतिश्रुति' से दग़ा
करने वाले हम सब पर. कितनी ही बार
सार्वजनिक शर्मिंदगी भी राह भूल भटक गए हैं जो
उन्हें सही रास्ते पर ले आती है
मंज़िल की ओर फिर से
चल पड़ने को प्रेरित/ विवश कर देती है.
कुछ भी ठीक नहीं है, भगत सिंह इस समय तो
ऐसा जो तुम्हें तनिक भी खुश कर सके.
आज बस इतना ही, शेष फिर.

*लेनिन
                                       -मोहन श्रोत्रिय

 

 

 

 

सुनो, भगत सिंह, सुनो !






मैंने कहा था
कुछ नहीं है इस समय ऐसा
जो तुम्हें ख़ुशी दे सके. मुझे
और बहुत कुछ बता देना चाहिए था
तभी एक सांस में , बिना रुके...
यानी वह सब जो तुम्हारे पीछे से
हुआ है इस देश में. यह देश
बदल देना चाहते थे तुम
जिसकी तकदीर, जिसका मुस्तक़बिल
लिख देना चाहते थे अपने नए अंदाज़ में,
सच कहूं यह देश तुम्हारे लायक था ही नहीं.
क्यों आखि़र? सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है
कि तुम्हारी शहादत को रुकवा सकते थे जो
वे मन से चाहते ही
नहीं थे कि आज़ादी का/ क्रांति का रास्ता
अपनाया था तुमने जिसे
वह सम्मान पा जाए
हक़दार था जिसका वह
भरपूर. यानी ग़ुलामी की ज़ंजीरों
को तोड़ कर एक नया भारत
बनाने का श्रेय तुम्हारे विचारों और
तरीक़ों को न मिल जाए यह
दिली ख्‍़वाहिश थी उनकी. विनम्रताओं
के पीछे भी
छुपी होती हैं कैसी महत्वाकांक्षाएं !
कैसे अहंकार !

और फिर जब तुम नहीं रहे
कम-से-कम देह के स्तर पर तो नहीं ही
(रूहानी मौजूदगी
तो बनी ही हुई है अभी तक,
उसे कौन कर सकता था ख़त्म? )
तो हिंसा/अहिंसा की चालाकी भरी
व्याख्याएं चल निकलीं
सुनियोजित तरीक़े से
ऐसे कि विरुदावली तो
'गाई जाती' लगे, पर 'किंतु-परंतुओं' की
झड़ी भी लग जाए.

तुमने विचार के सूत्र लिए थे
जहां से अपने यशस्वी जीवन
के आखिरी वर्षों में
उनके जो असल ध्वज-वाहक थे तुम्हारी शहादत
के बाद, उनको लेकर
तो कर ही चुका हूं
क्षमा-याचना पहले ही.
तुम्हारी 'नायक' की छवि
इतनी सम्मोहक थी
तुम्हारी आकर्षण-क्षमता
बन गई थी जैसे एक असरदार पर्याय
चुम्बक का,
कि 'लाल' को 'गेरुआ' में तब्दील करने को आतुर
एक खास तरह की 'देशभक्ति' ने
शुरू कर दिया अहर्निश जाप
तुम्हारे नाम का. बिना कोशिश किए
समझने की तुम्हारे विचारों की दुनिया को
तुम्हारे 'लिखे-पढ़े-किए' की
पड़ताल तक किए बिना
वैसे सच तो यह है कि
ऐसा कर पाने की सामर्थ्य भी
अर्जित नहीं कर पाए थे वे. आज तक नहीं
कर पाए हैं. जैसे- जैसे
और जब-जब उन्हें पता लगने लगा
अन्य स्रोतों से
कि तुम तो अग्नि-पिंड हो
कभी दिखावटी अनुराग से मुक्त होते
और फिर कभी
फ़ासला रखते हुए अपनाने का छल करते रहे.
ग़नीमत है अब तुम्हारी तस्वीर
लगती है सिर्फ़ प्रतीक के तौर पर
उनके सम्मेलनों- अधिवेशनों में.

मज़ा यह है भगत सिंह
कि तुम्हारे नाम का दोहन
सर्वाधिक किया है उन्होंने जिन्हें
बिना संकोच-झिझक तुम घोषित
कर देते अपना 'वर्ग शत्रु'
पूंजी पर टिके
फिल्म व्यवसाइयों ने.
पर यह तो मानना ही होगा
तुम्हें भी कि उन्होंने तुम्हारे नायकत्व
की 'कमाऊ' क्षमता को सबसे
पहले पहचान लिया था. सब से ज़्यादा भी.
तुम्हें 'बेचा' उन्होंने
'ब्रांड' बनाकर
एक-दो बार नहीं, कई-कई बार.
यह अलग बात है कि
उनमें से कोई भी तुम्हारे क्रांति-कर्म
के मर्म को छू तक नहीं पाया
उसे आत्मसात करने की
तो कौन कहे.

बहुत अनुसंधान हुआ भगत सिंह
जीवन और जगत से जुड़े
तुम्हारे विचारों, लड़ाई के तरीक़ों
और अपना निज़ाम कैसा होगा
आदि सवालों के इर्द गिर्द. बड़ा काम
जो नहीं हुआ होता
जब वह हुआ था
तो आज की जवान पीढ़ी
तुम्हारे नाम तक से परिचित नहीं होती.
पर जैसा कि होता आया है यहां
न जाने कब से
तुम भी बन गए एक 'वस्तु'
उनके लिए.
शोध तो हुआ पर जैसे
प्रतिशोध भी निहित था इसमें
प्रतिशोध जो लगता है
एकदम 'घिनौना'
कम-से-कम तुम्हारे संदर्भ में.
डायरी हो या
दूसरे दस्तावेज़
शीर्षक/ शक्ल/ आकार
और हां 'कीमत' में भी आता रहा बदलाव
छपे ये कभी यहां से
कभी वहां से
क्योंकि तुम फिर
लगने लगे थे 'कमाऊ'.
एक 'कभी न बिक सकने वाली शख्सियत' को
आसानी से
इन्होंने बना दिया था 'बिकाऊ'
ज़्यादातर इनमें से दिखते रहे
'झंडाबरदार' तुम्हारे.
यह कडुवा यथार्थ है, भगत सिंह
जिसे मैं कहने से बच रहा था
पर फिर सोचा कि
कह ही दूं
कि यह राष्ट्र अख़बारी ख़बर में ही
'कृतज्ञ' होता है-
बशर्ते ख़बर छप जाए
'कि कृतज्ञ राष्ट्र ने फलां-फलां को
श्रद्धा-सुमन अर्पित किए'-
उसके आगे-पीछे तो यह निरा कृतघ्न
ही बना रहता है
निर्लज्जता के साथ
जो जितना संपन्न वो उतना ही ख़ुदगर्ज़
आत्म-केंद्रित और
आज़ादी की जड़ों में
किसका खून बना था खाद
और किसने संजीवनी भर दी थी
इन जड़ों में - इस सबसे बेख़बर.

संघर्ष तो चल रहे हैं
भगत सिंह
यहां-वहां
पर एका नहीं है उनके बीच
कोई तालमेल नहीं
संघर्ष तो उतने ही अहम हैं
जितना होते हैं जीने-मरने के संघर्ष
बहुसंख्यक जनता पिस रही है
वंचनाओं की चक्की में और अर्थशास्त्री
कर रहे हैं बहस कि
बत्तीस रुपया या छत्तीस (?)
क्या उचित है ग़रीब न कहे जाने के लिए.
घिन आती है, भगत सिंह
कितनी चौड़ी होती जा रही है खाई
मनुष्य और मनुष्य के बीच.
महाश्वेता की एक कहानी में
बैलों का रखवाला
'बैल' बन जाना चाहता है क्योंकि
उसकी नज़र में
बेहतर होता है सलूक
'बैल' के साथ, खुद उसकी तुलना में.
कहीं रेत में ढंकी-दबी है आग
और कहीं सुलग भी रही है
नहीं दिखती वह शक्ति
संगठित जन शक्ति,
नहीं दिखता दूर- दूर तक
एक और भगत सिंह जो
दिशा दे सके असंतोष को
बदल सके इस असंतोष को
विध्वंस और नए सृजन की
नियामक-नियंत्रक ऊर्जा
के रूप में.

बाजीगर आ रहे हैं
मजमेबाज़ भी
और उन्हें पीछे से कठपुतलियों
की तरह नचाने वाले लोग
भेस बदल-बदल कर.
और मज़ा यह है कि
क्रांतिवादी मानते हैं जो ख़ुद को
वे भी अलग-थलग
न पड़ जाएं, ऐसी
जुगत बिठाने में लगे हैं
पूंजी के चेहरे पर रंग-रोगन पोतने वालों
के साथ खड़ा होना अटपटा लगता होगा
बेशक उन्हें भी,
खोज लाते हैं कोई न कोई तर्क
अपने पक्ष में.
ज़ाहिर है, बुरा समय है यह
भगत सिंह
पर बुरे समय में ही तो 'अपने'
याद आते हैं बहुत- बहुत.
और इसीलिए शायद
मैंने अपने मन की
तमाम पीड़ा, सारी चिंताएं,
मन का सारा अवसाद --सब कुछ ही
उंडेल दिया है
तुम्हारे सामने
कि जी हल्का हो सके.
स्वार्थी भी दिख सकता हूं मैं.
पर सुनाना भी तो तुम्हीं को था !

                                 -मोहन श्रोत्रिय

Thursday, March 19, 2015

योगिता यादव की कवितायें




कथाकार योगिता यादव की कवितायें चौंकाती हैं!  इन दिनों वे कवितायें क़म लिखती हैं पर मुझे उनकी कवितायें पढ़ने का अवसर मिलता रहता है!  ये कवितायेँ दरअसल एक स्त्री की अन्तःचेतना का विस्तार हैं!  उनके भीतर कुछ तरल है, कुछ कारुणिक है जो लगातार बहता है और एक बेचैनी है जिसकी परिणीति कविताओं के माध्यम से होती है!  भूमि अधिग्रहण के आलोक में उनकी कविता 'दिल्ली' आज भी प्रासंगिक है जो कई जगह खराश लगाती है!  वहीं अन्य कविताओं के माध्यम से एक स्त्री द्वारा उठाये कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर मिलना अभी भी बाकी है!  उनकी कहानी तो हम यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं, आज पढ़िए योगिता की कुछ कवितायें........ 

 


दिल्ली

मां
मोहम्मद पुर को याद करती
और शकूर पुर जाने से कतरा जाती

मां-बाप के रहते भी
उसे मायका कहां लगता था
50 गज का वह प्लॉट
और अब तो संकरी गलियों
और देह तौलती नजरों से तंग
उसकी राखी भी नहीं पहुंचती थी वहां तक

फर्क दक्षिणी से पश्चिमी दिल्ली का नहीं
उसकी यादों का था-
जामुनों से सनी फ्रॉक की झोलियों का था
अंगुलियों में चुभे झरबेरियों के कांटों का था

उसे भला लगता था वह गांव भी
जहां कालेज था बड़ी सड़क के पार
और लड़कियां अमूमन
नहीं करतीं थीं बड़ी सड़क को पार

47 से पहले
इन्कलाबी नारे लगाता
रेल की पटरियां उखाड़ता
47 के बाद
जिसे ईनाम में मिली थी सरकारी नौकरी
उसी विलायती पिस्तौलों और
काले घोड़ों के शौकीन
16 गायों वाले ग्वाले की बेटी थी वो

जाटनियों और गूजरियों की सहेली
पंजाबियों का कौशल कहां सीख पाई थी
कहां जान पाई थी कि बिक सकता है-
सरसों का साग भी
कमरक और
टीट का अचार भी
सुहाग गीतों की मीठी तान भी
कढ़ाईदार तकियों के गुलाब भी
पत्थर पर घिसी मेहंदी के डिजाइन भी

और उस कुएं का पानी भी
जो आधा बच गया था लाल डोरे की गिरफ्त से
लाल डोरे ने ही तो बांध दिया था सब कुछ
जैसे कच्चा घड़ा कट जाता है
घूमते चाक से
कट गई थी वह भी
एक डोरे की धार से

अफवाहें खूब थीं
खुशहाल होगी राजधानी
लोग पहचान नहीं पाएंगे
ऐसा बदलेगा दिल्ली का नक्शा
नया.. नया...
सब नया सा होगा
जगह बड़े मौके की है
मुंह मांगे मिलेंगे
पुराने पड़ चुके घरों के दाम

चिंता नहीं
घरवालों को भी बसाएंगे कहीं
यहां न सही, कहीं और सही
'बेच बाच'  देना काले घोड़े
और गाय सभी
सरपट दौड़ती दिल्ली में
क्या करेंगे तभी

सचमुच बदला तो है
ह्यात रिजेंसी की शान पर
मोहम्मद पुर जमींदोज है
चौधरियों के हुक्के
और किवाड़ों की सांकलें
दिल्ली हाट के
डेकोरेटिव आइटम हैं
दिल्ली पर उमड़ पड़ा है बाजार
जामुन अब ठेके पर टूटते हैं
सफदरजंग के खंडहर अपना पता पूछते हैं

बढिय़ा है जीवन की चक्की
चकाचक चल रही है
मां अब भी जी रही है
पर बीमारी
दक्षिणी से बाहरी दिल्ली
की ओर बढ़ रही है

जगह बड़े मौके की है
मुंह मांगे मिलेंगे दाम

फिर से दिल्ली
मास्टर प्लानों की गिरफ्त में है
फिर से खेतों से हल जुदा हो रहे हैं
फिर से खलिहानों के मार्केट रेट लग रहे हैं
फिर से चौपालों में मल्टीप्लेक्स बन रहे हैं
फिर से.........

आह्वान

मैं सिंचूंगी तब तक
जब तक तुम
वटवृक्ष से छतनार नहीं हो जाते

मैं चलूंगी तब तक
जब तक तुम
अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते

मैं गाउंगी तब तक
जब तक तुम्हें
सरगम कंठस्थ नहीं हो जाती

आओ मेरी पीढिय़ों
और उनकी पीढिय़ों
मेरे केशों पर हो कर सवार
चलो उस प्रज्ञा शिखर तक

तोड़ डालो
लोहे के वो पिंजड़े
जो बादशाहों ने कस दिए थे
अविकसित खोपडिय़ों पर
और पिघला डालों
वो सब सांचे
जो इंसान को बांटते हैं
औरत और मर्द के खोल में


वाम अंग

तुम्हें पता था
तुम जानते थे

प्रथम प्रवेश पर
मेरे पांव से
अक्षत कलश
ढुलकाते हुए भी
तुमने निर्देश तो दिया था

....कि दाहिना ही पहले उठेगा

उठता ही है
उठना ही चाहिए

क्या इसलिए
तुमने मेरा स्थान वाम अंग रखा?

 



अरसे बाद

तुम्हारे ब्लॉग पर
इठलाती तुम्हारी तस्वीर
मेरे मन के भीतर
सकुचाती तुम्हारी याद

कुछ भी तो नहीं बदला

सितार की तार सा लयबद्ध
मेरे होने पर तुम्हारा व्याख्यान
भी तो नहीं बदला

तुम पूछते हो यूं ही हाल चाल
मैं बताती जाती हूं सब हाल
अच्छा, सीधा-सच्चा
फिर छुपा जाती हूं
एक अध्याय

....कि शायद तुम्हें अप्रिय लगे
एक रत्ती सिंदूर मेरी मांग का

*******


पेंटिंग : मुरलीधर सहदेव जोशी और अभिजीत दास 

योगिता यादव की कहानी यहाँ पढ़ी जा सकती है   नागपाश (कहानी) -योगिता यादव

Tuesday, March 17, 2015

मिसफ़िट - सुशांत सुप्रिय की कहानी



इस दुनिया के कुछ अलग दस्तूर हैं, कुछ अलग कायदे!  जो इन कायदों की राह पर चल पड़ा वही सफल कहलाता है, वरना 'मिसफिट' है!  एक ऐसे ही व्यक्ति के जीवन के इर्द-गिर्द बुनी गई है सुशांत सुप्रिय की नई कहानी 'मिसफिट', पढ़कर देखिये कहीं वो आप तो नहीं.......  


उसका सिर तेज़ दर्द से फटा जा रहा था।  उसने पटरी से कान लगा कर रेलगाड़ी की आवाज़ सुननी चाही। कहीं कुछ नहीं था । उसने जब-जब जो-जो चाहा, उसे नहीं मिला । फिर आज उसकी इच्छा कैसे पूरी हो सकती थी । पटरी  पर लेटे-लेटे उसने कलाई-घड़ी देखी । आधा घंटा ऊपर हो चुका था पर इंटरसिटी एक्सप्रेस का कोई अता-पता नहीं था । इंटरसिटी एक्सप्रेस न सही , कोई पैसेंजर गाड़ी ही सही । कोई मालगाड़ी ही सही । मरने वाले को इससे क्या लेना-देना कि वह किस गाड़ी के नीचे कट कर मरेगा ।

उसके सिर के भीतर कोई हथौड़े चला रहा था । ट्रेन उसे क्या मारेगी, यह सिर-दर्द ही उसकी जान ले लेगा -- उसने सोचा । शोर भरी गली में एक लंबे सिर-दर्द का नाम ज़िंदगी है । इस ख़्याल से ही उसके मुँह में एक कसैला स्वाद भर गया । मरने के समय मैं भी स्साला फ़िलाॅस्फ़र हो गया हूँ -- सोचकर वह पटरी पर लेटे-लेटे ही मुस्कराया ।

उसका हाथ उसके पतलून की बाईं जेब में गया । एक अंतिम सिगरेट सुलगा लूँ । हाथ विल्स का पैकेट लिए बाहर आया पर पैकेट ख़ाली था । दफ़्तर से चलने से पहले ही उसने पैकेट की अंतिम सिगरेट पी ली थी -- उसे याद आया । उसके होठों पर गाली आते-आते रह गई ।



             

 आज सुबह से ही दिन जैसे उसका बैरी हो गया था ।सुबह पहले पत्नी से खट-पट हुई । फिर किसी बात पर उसने बेटे को पीट दिया । दफ़्तर के लिए निकला तो बस छूट गई । किसी तरह दफ़्तर पहुँचा तो देर से आने पर बाॅस ने मेमो दे दिया । पे-स्लिप आई तो उसने पाया कि आधा से ज़्यादा वेतन इन्कम-टैक्स में कट गया था ।
फिर शुक्ला ने सबके सामने उसे ज़लील किया । गाली-गलौज हुई । नौबत हाथा-पाई तक पहुँची । और शुक्ला ने उसे कुर्सी दे मारी ।
                 पटरी पर लेटे-लेटे उसका बायाँ हाथ उसके दाहिने घुटने को सहलाने लगा जहाँ शुक्ला की मारी कुर्सी उसे लगी थी । दर्द फिर हरा हो गया ।
                 असल में यह नौकरी उसके लायक थी ही नहीं -- उसने सोचा । आॅफ़िस में ऊपर से नीचे तक गधे भरे हुए थे । हर सुबह बैग और टिफ़िन लिए दफ़्तर आ जाते थे । दोपहर का खाना खा कर ताश खेलते थे । काम के समय आॅफ़िस में सीट पर ऊँघते थे या सीट से ग़ायब रहते थे । दिन में कई बार कैंटीन में चाय-काॅफ़ी पीते थे । और बाक़ी बचे समय में एक-दूसरे की जड़ काटते थे । इसको उससे लड़ाना । उसको इसकी नज़रों में गिराना । इसका-उसका पत्ता काटना । बाॅस की चमचागिरी में प्रागैतिहासिक काल में पूर्वजों के पास पाई जाने वाली अपनी लुप्त पूँछ हिलाना । और महिला सहकर्मियों को देख कर लार टपकाना ।
               उसका दम यहाँ घुटता था । वह इन चीज़ों के लिए नहीं बना था । यहाँ 'टेलेंट ' की कोई क़दर नहीं थी । आपके गुण यहाँ अवगुण थे , अवगुण ही गुण थे -- उसने सोचा ।
               बचपन में माँ ने सिखाया था -- बेटा, झूठ बोलना बुरी बात होती है । पर सारी दुनिया धड़ल्ले से झूठ बोलती थी और ऐश करती थी । पिताजी कहते थे -- रिश्वत लेने और देने वाले, दोनों ही अपनी नज़रों में गिर जाते हैं ।पर यहाँ दोनों मज़े में थे । स्कूल में टीचर कहते थे -- शराब आदमी का पतन करती है । पर यहाँ दारू पीने और पिलाने वाले, दोनों का ही उत्थान होता था । पिताजी कहते थे -- दफ़्तर में चुगली-निंदा से दूर रहना , बेटा । पर यहाँ चुगली-निंदा समूचे दफ़्तर का टाॅनिक थी । दादाजी कहते थे -- मेहनती और ईमानदार आदमी का भगवान होता है । पर यहाँ भगवान मेहनती और ईमानदार को शैतान की कृपा पर छोड़कर न जाने कहाँ गुम हो गया था । आप लोगों ने मुझे यह क्या सिखाया -- उसने पटरी पर लेटे-लेटे सोचा । वह यहाँ ' मिसफ़िट ' था । दफ़्तर में ही नहीं, घर में भी ।
             वह चाहता था कि पत्नी उसका सुख-दुख बाँटे । पर पत्नी को पैसा चाहिए था और पैसे से ख़रीदे जाने वाले सभी ऐशो-आराम ।
             दत्ताजी भी तो आपके साथ काम करते हैं -- वह कहती । उनके पास टाटा-सफ़ारी है । दत्ताजी ही क्यों, शुक्लाजी , सिंह साहब , खान साहब -- सबके यहाँ गाड़ियाँ हैं । और आप ' हमारा बजाज ' से ऊपर ही नहीं उठ पाते । ऐसी ईमानदारी का मैं क्या अचार डालूँ -- वह कहती । आज की दुनिया में रिश्वत नाम की कोई चीज़ नहीं होती । गिफ़्ट्स होते हैं । लोगों का काम करो और उनसे गिफ़्ट्स लो -- उसका कहना था ।
            क्या पापा , मेरे सब दोस्त नई-नई गाड़ियों में स्कूल आते हैं । उन सबके पास उनका अपना मोबाइल फ़ोन होता है । उन्हें डेली कम-से-कम सौ रुपए जेब-ख़र्च मिलता है । इन सबके बिना स्कूल में आपके बेटे की इमेज ख़राब होती है -- बेटा शिकायत करता । उधर पत्नी ताना मारती -- इनसे कुछ नहीं होगा । ये तो राजा हरिश्चन्द्र हैं ।
           पूरी दुनिया में एक भी आदमी नहीं था जो उसे समझता । बचपन में पिताजी उसे बहुत प्यार करते थे । माँ उसे बहुत चाहती थी । वह दादाजी का लाड़ला था । स्कूल में उसके टीचर कक्षा में फ़र्स्ट आने पर हमेशा उसकी पीठ ठोकते थे । पर शायद वे सब उसे इस दुनिया के लायक नहीं बना सके -- उसने सोचा । उसने किस-किस के लिए क्या-क्या नहीं किया । पर अपना मतलब निकाल कर सब उसे ठेंगा दिखा गए ।
           शायद इसी को ' प्रैक्टिकल ' होना कहते हैं । वह आज भी ' प्रैक्टिकल ' नहीं हो पाया । के. के. कह रहा था -- ''तुम्हारी समस्या यह है कि तुम दिमाग़ से नहीं, दिल से जीते हो । इसलिए तुम यहाँ ' मिसफ़िट ' हो ।'' क्या इस दुनिया में दिल से जीना गुनाह है -- उसने सोचा । दिमाग़ से जीने वालों ने इस दुनिया को क्या बना दिया है ।लोग सुबह पीठ पीछे किसी को गाली देते थे । दोपहर में उसी के साथ ' हें-हें ' करते हुए खाना खाते थे ।लोग अपना काम निकालने के लिए गधे को बाप कहते थे । और बाप को गधा । वह ऐसा नहीं कर पाता था । इसलिए ' सीधा ' था । ' मिसफ़िट ' था । मंदिर में पुजारी भगवान के नाम पर लूटते थे । सड़कों पर भिखारी इंसानियत के नाम पर लूटते थे । आज़ाद भारत में चारों ओर अँधेरगर्दी मची थी । ईमानदार सस्पेंड होते जा रहे थे । कामचोर प्रोमोशन पा रहे थे । धर्म और जाति के नाम पर नेता देश को लूट कर खा रहे थे । हर ओर चोर और बेईमान भरे हुए थे । फ़र्क सिर्फ इतना था कि कोई सौ रुपए की चोरी कर रहा था , कोई हज़ार की , कोई लाख की और कोई करोड़ की । इन सबके बीच वह एक लुप्तप्राय अजनबी था ।
             दूर कहीं से रेलगाड़ी के इंजन की मद्धिम आवाज़ सुनाई दी । उसने पटरी से कान लगाया । पटरियों में रेलगाड़ी के पहियों का संगीत बजने लगा था ।
             तो इसे ऐसे ख़त्म होना था । जीवन को पटरियों पर । रेलगाड़ी के पहियों से कट कर । अच्छा है, इस जीवन से मुक्ति मिलेगी । हैरानी की बात यह थी कि उसका सिर-दर्द अचानक ठीक हो गया । वह रहे या न रहे , किसी को क्या फ़र्क पड़ेगा । उसकी मौत कल अख़बार के भीतरी पन्ने में एक छोटी-सी हेडलाइन होगी । या शायद वह भी नहीं -- उसने सोचा ।
            वह पैर फैला कर पटरी पर पीठ के बल लेट गया । ऊपर हाइ-टेंशन वायरों से घिरा मटमैला आकाश था । उनसे ऊपर , नीचे उड़ रही एक चील को चार-पाँच कौए सता रहे थे । इंजन की आवाज़ अब क़रीब आती जा रही थी । उसने आँखें बंद कर लीं । इंजन की आवाज़ अब बहुत पास आ गई थी । पास । और पास । पटरी और पहियों के बीच का संगीत अब कर्कश और बेसुरा लगने लगा था । उसने एक लंबी साँस ली । पल भर और । इंजन उसके ऊपर से गुज़रने वाला था । हैरानी की बात यह थी कि उसे डर नहीं लग रहा था ।
          एक पल के लिए जैसे उसका वजूद इंजन के शोर में डूब गया । सैकड़ों टन लोहा जैसे उसके ऊपर से गुज़र गया । उसकी आँखें खुल गईं । क्या मैं जीवित हूँ --
उसके दिमाग़ में कौंधा।
          उसने सिर मोड़ कर देखा -- साथ वाली पटरी पर एक अकेला इंजन उससे दूर जा रहा था। दूर...और दूर।
          एक पल के लिए उसे विश्वास नहीं हुआ । मौत उसे क़रीब से सूँघ कर जा चुकी थी । अभी उसे जीना था । कहीं कोई था जो चाहता था कि वह अभी रहे ।
          लड़खड़ाता हुआ वह पटरी से उठ खड़ा हुआ । उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रहा हो । इंजन अब क्षितिज पर एक घटता हुआ धब्बा रह गया था । मौत उसे छू कर निकल गई थी । पहली बार उसे कँपकँपी-सी महसूस हुई । उसे लगा जैसे उसके हाथ-पैरों में जान नहीं रही । संयत होने में उसे कुछ समय लग गया । आख़िर कपड़ों से धूल झाड़ कर वह घर की ओर चल दिया ।
         रास्ते में उसे कई लोग मिले । वह उन्हें बताना चाहता था कि आज उसने मौत को कितने क़रीब से देखा था । पर किसी ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया । सब अपनी दुनिया में मस्त थे । चौक पर ट्रैफ़िक-लाइट नहीं थी , और दो ट्रैफ़िक पुलिसवाले यातायात को भाग्य-भरोसे छोड़कर एक ट्रकवाले को डरा-धमका कर उससे कुछ रुपए ऐंठने में व्यस्त थे । घर के पास नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर कुछ शोहदेनुमा लड़के आती-जाती लड़कियों  को छेड़कर मज़े ले रहे थे । उसने बगल के पानवाले से एक पैकेट सिगरेट ख़रीदी और एक सिगरेट सुलगा ली । आराम मिला ।
       बड़ी जल्दी आ गए आज -- घर में घुसते ही टी. वी. पर ' सास-बहू ' सीरियल देख रही पत्नी ने व्यंग्य कसा । वह चाहता था कि पत्नी को बताए कि आज वह मरते-मरते बचा । वह उसे बाँहों में भर कर चूमना चाहता था । वह कम्प्यूटर पर ' गेम ' खेल रहे बेटे के सिर पर हाथ फेर कर उसे पुचकारना चाहता था । वह चिल्ला कर उन्हें बताना चाहता था कि आज वह बाल-बाल बचा । पर पत्नी टी. वी. सीरियल में और बेटा कम्प्यूटर-गेम में व्यस्त थे । उनकी रुचि उसके जीवन में नहीं थी ।
       खाना डाइनिंग-टेबल पर पड़ा है -- टी. वी. सीरियल में आए ब्रेक के समय पत्नी ने सूचना दी ।
       नहा-धो कर उसने खाना खाया और टी.वी. पर कोई क्राइम-सीरियल देख रही पत्नी से ' टहल कर अभी आता हूँ ' कह कर वह घर से बाहर निकल गया । उसने सिगरेट सुलगा कर कुछ गहरे कश लिए और टहलता हुआ वह एक बार फिर रेलवे-लाइन की ओर निकल पड़ा ।
       यह क्या? पटरियों के बीचों-बीच कोई बैठा हुआ था । वहाँ रोशनी कुछ कम थी ।
ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था ।
       तभी दूर से रेलगाड़ी की सीटी सुनाई दी । और इंजन का जाना-पहचाना शोर क़रीब आने लगा । उसके शरीर में एक बार फिर कँपकँपी-सी दौड़ गई । क्या कोई और उसकी तरह आत्महत्या करना चाह रहा है? वह अब क्या करे?
       अचानक वह हाथ में पकड़ी सिगरेट फेंक कर पटरियों के बीचों-बीच बैठी आकृति की ओर चिल्लाते हुए दौड़ने लगा । गाड़ी के इंजन की रोशनी क़रीब आती जा रही थी । फटे-पुराने कपड़े पहने बिखरे बालों वाली एक नारी आकृति पटरियों के बीचों-बीच सिर झुकाए बैठी थी । पटरियाँ लाँघता वह बेतहाशा दौड़ा । रेलगाड़ी और क़रीब आ गई थी। उसे लगा, वह उस युवती को नहीं बचा पाएगा । उसने पूरी जान लगा दी और इंजन के ठीक मुँह में से युवती को दूर खींच लिया । रेलगाड़ी धड़ा-धड़, धड़ा-धड़ करती हुई पटरी पर निकलती जा रही थी ।
       मरना चाहती थी ? गाड़ी गुज़र जाने के बाद उसने युवती को झकझोर कर पूछा।
       युवती के मुँह से एक अस्पष्ट-सी ध्वनि निकली । वह केवल फटी हुई आँखों से उसे देखती रही ।
       कोई भिखारन है । शायद गूँगी-बहरी -- युवती के फटे-पुराने कपड़े देख कर उसने सोचा । अब मैं क्या करूँ ?
       नारी-निकेतन वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं था । पर उसे सुबह के अख़बार के मुख-पृष्ठ पर छपी ख़बर याद आई -- " नारी-निकेतन या देह-व्यापार का अड्डा ? " और उसने युवती को नारी-निकेतन ले जाने का विचार त्याग दिया ।
        इसे पुलिस-स्टेशन ले चलूँ क्या ? उसने सोचा । पर पुलिसवाले आज तक उसमें विश्वास नहीं जगा पाए थे । वे मुझ ही से सौ तरह के सवाल पूछने लगेंगे । कहाँ मिली ? कब मिली ? तुम उस समय वहाँ क्या कर रहे थे ? वग़ैरह -- उसने सोचा । और अगर पुलिसवाले मुझ ही पर शक करने लगे तो ? मुझ ही से रिश्वत माँगने लगे तो ?
       आख़िर वह उस भिखारन को पास के पार्क में बनी एक बेंच पर बिठाकर आगे बढ़ गया । अमावस का आकाश तारों से ढँका हुआ था । बीच-बीच में कोई टूटता हुआ तारा कुछ देर चमकता और फिर ग़ायब हो जाता ।
        सड़क पर आ कर उसने राहत की साँस ली । और तब उसे ख़्याल आया कि आज दूसरी बार वह मरते-मरते बचा था । वह भिखारन उसकी कौन थी ? उसे बचाते हुए अगर वह रेलगाड़ी के नीचे आ जाता तो ?
        " तो क्या ? दुनिया में एक अदद ' मिसफ़िट ' कम हो जाता ।" उसने मुस्करा कर ज़ोर से कहा और कोई भूला हुआ गीत गुनगुनाता हुआ घर की ओर चल पड़ा ।

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परिचय
                             
 नाम : सुशांत सुप्रिय ( कवि , कथाकार व अनुवादक )
जन्म : 28 मार्च , 1968 ( पटना )
शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ : हत्यारे , हे राम ( कथा-संग्रह )
                        एक बूँद यह भी ( काव्य-संग्रह )
सम्मान : भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ पुरस्कृत ।
              कमलेश्वर - कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार ।  
अन्य प्राप्तियाँ : कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, उड़िया,असमिया, मराठी, कन्नड़ व मलयालम
                     आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित ।
                     कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल ।
                     कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल ।
                     कहानियों पर आगरा वि.वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. व गुरु नानक देव
                     वि.वि. , अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह " इन गाँधीज़ कंट्री " प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह " द फ़िफ़्थ डायरेक्शन " प्रकाशनाधीन ।
# सम्पर्क : मो - 8512070086
           ई-मेल: sushant1968@gmail.com
 

Sunday, March 15, 2015

आसावरी काकड़े की कवितायें



अभी कुछ दिन पूर्व ही सेतु प्रकाशन से प्रकाशित वरिष्ठ मराठी कवयित्री आसावरी काकड़े का हिंदी कविताओं का संग्रह "इसीलिए शायद" मुझे डाक से मिला!   इन सुन्दर सहज कविताओं के द्वारा दुनिया को एक अनुभवी स्त्री की नज़र देखने का अवसर मिला!   दो कवितायें यहाँ  आप लोगों के लिए संजो रही हूँ। 








वह औरत


सहमी हुई
वह औरत
रास्ता लांघ रही है…

दोनों हाथों से
उसने अपने
दो बच्चों को
कसकर पकड़ा है

यातायात में
फंसी है वह
भर आई है उसकी आँखें

कुछ अलग ही
दिख रहा है
उसके चेहरे पर
छाया हुआ भय!

एक संदिग्धता का भाव
मिला हुआ है उस में!
शायद वह समझ नहीं
 कि उसे
किससे डरना है
मृत्यु से?
या जीवन से?






कुछ क्षणों के लिए

कुछ क्षणों के लिए
मैं भूल जाना चाहती हूँ
अपना आत्मचरित्र,
अपने देश की वास्तविकता
और
 इस पृथ्वी के  भविष्य की चिंता

मैं भूल जाना चाहती हूँ
कंप्यूटर युग की
इस भयंकर गति को
जो मनुष्य को
अपने साथ
घसीटती ले जा रही है.… 

सिर्फ कुछ क्षणों के लिए
मैं भूल जाना चाहती हूँ
यह भीड़ … प्रदूषण … गन्दगी.... हवस
फैलती हुई आग
हिंसा की
और उदासी का
बढ़ता हुआ अँधेरा …

मुझे याद करनी है सिर्फ
गहरे एकांत में
विश्वकवि की एक कविता
जिसमें
ढलते हुए सूरज को
आश्वस्त करती है
एक नन्ही-सी ज्योति
कि सूरज की अनुपस्थिति में
रात भर
रोशनी फैलाती हुई
वह जलती रहेगी  ....

मुझे
सिर्फ
इतनी ही याद
ताज़ा करनी है
कुछ क्षणों के लिए

**********

परिचय 

आसावरी काकड़े
बीकॉम, एम ए (मराठी) एम ए (तत्वज्ञान)

प्रकाशित कविता संग्रह 

मराठी - (7) आरसा, आकाश, लाहो, मी एक दर्शनबिंदु, रहाटाला, पुन्हा गति दिलीय मी, स्त्री असण्याचा अर्थ और उत्तरार्ध
हिंदी (2) - मौन क्षणों का अनुवाद और इसीलिए शायद
 अनुवाद - मेरे हिस्से की यात्रा (खुद की मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद) और बोल माधवी (चंद्रप्रकाश देवल जी के हिंदी कविता संग्रह 'बोलो माधवी'  का मराठी अनुवाद)
 बालगीत संग्रह - (4) टिक टॉक ट्रिंग, अनु मनु शिरू, जंगल जंगल जंगलात काय? (इसाप गाणी) और भिगोन्या भिंग




Friday, March 13, 2015

समकालीन कविता के संकट का यथार्थ - डाॅ. नलिन रंजन सिंह

जहाँ एक ओर इतनी कविता लिखी और पढ़ी जा रही है, विगत कई वर्षों से 'कविता एक मरती हुई विधा है' का जुमला बार बार किसी  रूप में सामने आता रहा है!  समकालीन कविता के संकट के प्रति ज़ाहिर की रही तमाम चिंताओं के बीच डॉ. नलिन रंजन सिंह का यह सामयिक लेख पढ़े जाने की मांग करता है!  इस लेख को  प्रसिद्द कवयित्री  सुशीला पुरी जी ने उपलब्ध कराया है इसके लिए उनका हार्दिक आभार!





                            कुछ देर के लिए मैं कवि था
                            फटी.पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
                            सोचता हुआ कविता की जरूरत किसे है?1

                मंगलेश डबराल की यह चिन्ता आज कविता की आलोचना के केन्द्र में है। 'कविता की जरूरत किसे है? यह प्रश्न कविता के संकट की ओर संकेत करता है। क्या कविता अपने अर्थ खो चुकी है?  क्या वह असंभव हो गयी है?  क्या वह हाशिए की विधा हो गयी है?  क्या वह दुग्र्राह्य हो गयी है?  क्या वह एकरस हो गयी है?  क्या वह गतिहीन हो गयी है?  क्या कविता के सामने अब पहचान का संकट आ गया है?
                समकालीन कविता को लेकर इस तरह के तमाम प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इन प्रश्नों पर बहस जारी है और कवि.आलोचक अपने.अपने तरीके से इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने की कोशिश कर रहे हैं।

                नंदकिशोर नवल की एक पुस्तक है, 'कविताः पहचान का संकट।2 कविता के पहचान के संकट के बारे में पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार हैं . 'वैसे तो पहचान के संकट की शिकार साहित्य की सभी विधाएँ हैंए लेकिन कविता की आलोचना में वह सर्वाधिक प्रत्यक्ष है। कारण यह है कि और विधाएँ जहाँ किसी हद तक मात्र वस्तु विश्लेषण को बर्दाश्त कर सकती हैंए कविता नहीं कर सकती क्योंकि रसए सौन्दर्य या कवित्व वह आधार हैए जिससे उसका वजूद अलग नहीं हो सकता। आज हिन्दी में काव्यालोचन रचना के सौन्दर्य निरूपण को रूपवाद मानता है और अपने को उसके सामाजिक संदर्भ या वैचारिक अभिप्राय तक सीमित रखने का आसान रास्ता चुन लेता है।'3 पुस्तक में जिस आसान रास्ते के चुनाव की बात की गयी है वह रास्ता भी आसान नहीं है। सामाजिक संदर्भों को कभी खारिज नहीं किया जा सकता। सामाजिक संदर्भ कविता में न हों तो कविता कोरी कल्पना होगी। जड़ों से कटी हुई वायवीय कल्पना कब तक टिक पाएगी?  सूक्ष्म के विरुद्ध स्थूल का विद्रोह होकर रहेगा। स्वच्छन्दता अतिचारी होकर शास्त्रीयता की माँग कर बैठती है जिससे अभिजात्यता का पोषण होता है। इसलिए संवेदनशील सामाजिक संदर्भ सपाट शब्दों में भी महत्वपूर्ण रहेंगे। वैसे भी नयी कविता के दौर में ही सपाट बयानी को एक प्रमुख प्रतिमान माना जा चुका है। रहा सवाल वैचारिक अभिप्राय का तो वह ज़ेरे बहस है।

               नंदकिशोर नवल यह मानते हैं कि 'कवित्त एक गतिशील वस्तु तो है ही, दुग्र्राह्य भी है...!4 प्रश्न उठता है, कविता दुग्र्राह्य कब होती है?  दुग्र्राह्यता का यह प्रश्न रूपवाद की ओर ले जाता है। सौन्दर्य निरूपण जब.जब अतिशय आलंकारिक हुआ है, कविता कठिन हुई है और 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई'5 का भाव जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कठिन काव्य के प्रेत 'हृदयहीन कवि'6 भी मिलते हैं। ऐसा जब.जब हुआ है, कविता ने धारा बदली है। नवल जी स्वयं मानते हैं कि 'कवित्त एक गतिशील वस्तु है।'7
 
                दरअसल कविता की गतिशीलता ही उसकी ताकत है। जो गतिशील होगा उसमें परिवर्तन भी होगा। कविता में  जब.जब यह परिवर्तन ध्वनित हुआ है तब.तब नए.पुराने के द्वन्द्व में कविता के सामने संकट खड़ा किया गया है। कभी 'कवित्त को खेल'8 मान लिया गया और 'सुकवियों के रीझने को कविताई।' 'कभी उपमान मैले हुए'9 और तमाम 'प्रतीकों के देवता कूच कर गए'।10  कभी 'कविता का शव लादकर'11  कविता के मरने की घोषणा की गई। कविताए अकविता हो गई, लेकिन उसके एक दशक बाद ही 1980 को कविता की वापसी का वर्ष कहा गया। जिन कवियों के कविता संग्रहों ने 1980 को कविता की वापसी का वर्ष बनाया था उनमें से राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश आदि अब भी सक्रिय हैं। स्पष्ट है कि तमाम किन्तु.परन्तु और परिवर्तनों के बाद भी कविता सुरसरि सम बहती रही। कवि कविताएँ लिखते रहे, सुनाते रहे और पढ़ने.सुनने वाले उन्हें पढ़ते.सुनते रहे। फिर अचानक यह कविता का संकट कहाँ से उठ खड़ा हुआ?
                वास्तव में कविता के संकट के प्रश्न में कवि के संकट का प्रश्न भी समाहित है। आज कविता पर यह आरोप है कि लोग कवियों को जानते हैं, कविताओं को नहीं। यद्यपि यह बात पूरी तरह सच्ची नहीं है। अच्छी कविताएँ लोग जरूर याद रखते हैं। फिर भी कविता के संकट में कवि का संकट बड़ा है। भविष्यवाद से ग्रस्त कवि, कविता के सहारे जब जीवन जीने का भविष्य तलाशने लगता है तब संकट जरूर आता है। यह कविता के दरबारीकरण का रुपान्तरण है। इससे पिछलग्गूपन, जुगाड़, भाई.भतीजावाद, चारण परम्परा, संपादक.कवि, आलोचक.कवि, प्रशासन.कवि जैसे तमाम अद्भुत संबंध फूलते.फलते हैं। इन संबंधों के सहारे 'कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।'12  इससे कविता के सामने संकट आना लाजिमी है। कविता के इस संकट में बाज़ारवाद और शिल्पगत एकरसता आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। हाल के वर्षों में देखें तो बाजार में जगह पा लेने के लिए सतही संवेदना के सहारे तमाम कविताएँ लिखी गयीं। बिकने, छपने और चमकने की अभिलाषा में इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के सामने सायास रचनाएँ करता कवियों का एक झुण्ड सामने आया। चारण परम्परा के ये कवि बहुत दिनों तक टिक नहीं सके। वे या तो कुण्ठा के शिकार हो गए या भोंडे विदूषकों में तब्दील हो गए लेकिन सच्ची संवेदना वाले कवियों और कविता विधा को धक्का देने में जरूर सफल रहे। मंगलेश डबराल को शायद इसीलिए यह पीड़ा सालती है, वे बाज़ार में निश्शब्द हैं
 .
                 'बाजारों में घूमता हूँ निश्शब्द/डिब्बों में बंद हो रहा है पूरा देश
                 पूरा जीवन बिक्री के लिए/एक नयी रंगीन किताब है जो मेरी कविता के
                 विरोध में आई है/जिसमें छपे सुन्दर चेहरों को कोई कष्ट नहीं
                 जगह.जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले
                 जनाब एक पूरी फ़िल्म है लंबी/आप खरीद लें और भरपूर आनंद उठाएँ
                 शेष जो कुछ है अभिनय है/चारों ओर आवाजें आ रही हैं
                 मेकअप बदलने का भी समय नहीं है
                 हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहनकर चला आया है
                 वह जिसे अपने पर गर्व था/एक खुशामदी की आवाज़ में गिरगिरा रहा है
                 टेªजेडी है संक्षिप्त लंबा प्रहसन/हरेक चाहता है किस तरह झपट लूँ
                 सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार।'13

                निश्शब्दता, बाज़ार का शोर और पुरस्कार झपट लेने की चाहत रखने वालों की भीड़ का यह परिवेश कविता के सामने बड़ा संकट है। आज के दौर में कविता को कहानी ने पीछे छोड़ दिया है। उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाएँ भी आगे निकल रही हैं। यद्यपि कविता लिखी सबसे अधिक जा रही है। लगभग हर साहित्यिक पत्र.पत्रिका में कविताएँ छप रही हैं, नये.नये संग्रह आ रहे हैं, उन पर समीक्षाएँ लिखी जा रही हैं लेकिन आज की कविता सामान्य जन से नहीं जुड़ पा रही है, इसीलिए कम पढ़ी जा रही है। यह चिन्ताजनक अवश्य है किन्तु निराशाजनक नहीं क्योंकि कविता का सबसे अधिक लिखा जाना उम्मीद जगाता है। कविता इसी रास्ते फिर वापसी करेगी क्योंकि जो रचेगा वह बचेगा। 'कविता में संवेदना सघन रूप से होती हैए इसलिए बाज़ारवाद के लिए इसे भेदना और माल बनाकर बेचना मुश्किल हो जाता है। बाज़ार सभी कवियांे को अपने भीतर नहीं समेट सकता।'14 वैसे भी कविता वर्तमान समय की सबसे अधिक अव्यावसायिक विधा है और सब कुछ के बावजूद संवेदनशील कविता की पहचान का संकट संभव नहीं है क्योंकि विरेचन की संभावना कविता में ही सर्वाधिक होती हैए उसका स्थान कोई नहीं ले सकता।
                जहाँ तक शिल्पगत एकरसता का सवाल है उसके जवाब में ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एकरसता टिकाऊ नहीं होती है, उससे विविधता और निरंतरता दोनों बाधित होते हैं। इससे उबरने का उपाय डाॅ. नामवर सिंह बताते हैं. 'कविता में जब कवियों को नया मार्ग नहीं सूझता, नई दिशाएँ मेघाच्छन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी चहारदीवारी से निकलने का उपाय नहीं सूझता तो लोकशक्ति ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है ……  अंधकार को चीरती है, कुहरे को छाँटती हैए मार्ग को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की संज्ञा में प्राण.वायु का संचार करती है।'15
                नामवर जी के इस उपाय को लेकर तमाम कवियों ने कविता में लोक.संस्कृति और जातीय पहचान को विशेष महत्व दिया है। लोक.संस्कृति के शब्द लेकर लोक.संवेदना से जुड़े कवि अपनी अलग पहचान बना रहे हैं। कवि बोधिसत्व इसके बड़े उदाहरण हैं। केशव तिवारी और अशोक पांडे में भी लोक संवेदना गहरे पैठी है। बोधिसत्व को पता है कि .

'मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ, समझ रहा हूँ, मौसम कुछ ठीक.ठाक नहीं है।'16

                शायद इसीलिए वे उदास मौसम के खिलाफ़ गाँव की अमराइयों में घूमते हैं। गाँव से रंग लेकर निराला, नागार्जुन पर कविताएँ ही नहीं लिखते बल्कि कविता में चित्र बनाते हैं। मुम्बई में रहकर भी उन्हें 'भदोही में टायर की चप्पल पहना आदमी'17 नहीं भूलता। हाँलाकि कुछ कवियों को जब सच सुने हुए बहुत दिन हो जाते हैं तो वे बनावटी लोक.संवेदना के शिकार होकर क्षेत्रीयता और देशज आग्रहों में कविता को गड्ड.मड्ड कर देते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि जितना जल्दी हो वे सच सुनें और सायासता से बचें। सहजता अपनाएँ। शब्दों के मोह में 'बारहमासा'18 नहीं रचें तो भी चलेगा क्योंकि 'सिर्फ भाषा से कविता संभव नहीं है। कवि के पास अनुभव, विचार और संवेदना की एक मिली.जुली थाती होती है। लोक संवेदना से कवि का जुड़ाव हो, मगर कोरे शब्दों के स्तर पर नहीं!'19  आसान लिखना कठिन होता है। सहज भाषा में अपनी संवेदना को रखते हुए कविता को देखना हो तो जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ देखिए .

                              तुम हो यहीं आस.पास/जैसे रहती हो घर में
                              घर से दूर/यह एक अकेला कमरा
                              भरा है तुम्हारे होने के अहसास से/होना
                              सिर्फ़ देह का होना कहाँ होता है!20

                संवेदना और अनुभव की समझ से ही जितेन्द्र श्रीवास्तव को पता है कि गाँवों में भी सब कुछ ठीक.ठाक नहीं है। तभी वे 'अंधेरा' जैसी कविता लिखते हैं। यही अनुभव बोधिसत्व से 'ऐसा ही होता है' और केशव तिवारी से 'बहुत कुछ सूखा है' एवं कई अन्य कविताएँ लिखाता है। जितेन्द्र की सहज भाषा की कविताएँ पाठकों को खूब फँसाती हैं, लगता है कविता लिखना कितना आसान है। जैसे कभी अमरकान्त की कहानियों के लिए कमलेश्वर ने कहा था।21

                इतनी समर्थ युवा पीढ़ी होने के बाद भी समकालीन कविता के संकट में उसकी पहचान को लेकर हो.हल्ला मचाने वाले कविता की संरचना में उस तुक या कटाव पर बार.बार सवाल खड़ा करते हैं जो कविता को गद्य से अलग करता है। यह प्रश्न भी कमजोर कविताओं को लेकर अधिक है। कोई यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हो जाता। ज्ञानेन्द्रपति यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हैं। कविता को लय कैसे दी जाती है यहाँ देखिए .

                          चेतना पारीक कैसी हो/पहले जैसी हो?
                          कुछ.कुछ खुश/कुछ.कुछ उदास
                          कभी देखती तारे/कभी देखती घास
                          चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?/अब भी कविता लिखती हो?/22

                आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है. 'प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि.कर्म का मुख्य अंग है। ज्यों.ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों.त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जाएगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखने वाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों.ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए.नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों.त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि.कर्म कठिन होता जाएगा।'23

                इस पूरे संदर्भ में अगर अन्तिम वाक्य पर ध्यान दें तो कविता की आवश्यकता और कवि.कर्म की कठिनता पर शुक्ल जी आज भी प्रासंगिक लगते हैं। कविता करना भाषा की सायास या अनायास कोशिश नहीं है। दोनों के मिश्रण की क्रीड़ा भी नहीं है। बिना संवेदना के कविता अधूरी है। संवेदनहीन होते जा रहे वर्तमान समाज में संवेदनशील कविता की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, ऐसे में संवेदन शून्य सायास रचनाकारों के बस की बात नहीं है कि वे इस आवश्यकता को पूरा कर सकें। स्पष्ट है कि सभ्यता के मौजूदा दबाव में कवि.कर्म कठिन हो चला है। फिर भी संवेदनशील कवियों की कमी नहीं है। जहाँ संवेदना है वहाँ कविता पूरी ताकत से खड़ी है। इसीलिए मुक्तिबोध, पाश और राजेश जोशी की कविताओं के पोस्टर बनते हैं। करती होगी कहानी छोटे मुँह बड़ी बात, पर जो असर छोटे मुँह कविता करती है, वह कोई विधा नहीं कर सकती। राजेश जोशी की कविता है .

                        कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
                        सुबह.सुबह/बच्चे काम पर जा रहे हैं
                        हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
                        भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
                        लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
                        काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे/
                        क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
                        क्या दीमकों ने खा लिया है/सारी रंग.बिरंगी किताबों को
                        क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
                        क्या किसी भूकम्प में ढह गई हैं/सारे मदरसों की इमारतें
                        क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन खत्म हो गए हैं एकाएक
                        तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में/
                        कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
                        भयानक है लेकिन इससे भी ज्यादा यह
                        कि हैं सारी चीजें हस्बमामूल
                        पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजरते हुए
                        बच्चे, बहुत छोटे.छोटे बच्चे/काम पर जा रहे हैं।24

                कविता की आरम्भ की पंक्तियों को पढ़ने के बाद हम ठहरकर सोचने लगते हैं और फिर अगले ही पल पूरी कविता पढ़ जाते हैं। कविता में व्यवस्था.विद्रूप की भयावहता चरम रूप में सामने आती है। सीधे.सपाट शब्दों में कवि सब कुछ कह देता है और हम कविता पढ़ते हुए सिहर उठते हैं। हाशिए पर पड़े समाज के एक हिस्से का यह अद्भुत वर्णन है। हाशिए के समाज से आज दलित और स्त्रियाँ कविता के केन्द्र में हैं। जाहिर है कि कविता उत्तरशती के विमर्शों से रूबरू है। अब तो हाशिए के समाज से ही नये सौन्दर्य.शास्त्र की माँग आने लगी है। कहना न होगा कि यह सौन्दर्य.शास्त्र भी सहज भाषा, सपाटबयानी और संवेदना की त्रयी से ही बन सकेगा। अनुभूति की प्रामाणिकता वेदना और निराशा को आक्रोशजन्य विद्रोही स्वर में रूपान्तरित करेगी। अहम् निर्दिष्ट व्यक्तिवाद आंचलिक चेतना के साथ आ सकता है और इसमें मिथकीय प्रतीकों का माखौल उड़ाते हुए नवीन बिम्बों, नवीन उपादान विधानों को लेकर लय और मुक्त छंद में कविता की जा सकती है। औरए अगर मैं गलत न होऊँ तो इसकी शुरुआत भी हो चुकी है।

                कविता के संकट को लेकर काव्य प्रयोजनए विचारधारा और नियमों की बातें उठाई जाती हैं जिनको लेकर कवियों में ही संकट है। प्रफुल्ल कोलख्यान काव्य प्रयोजन का खो जाना या काव्येतर प्रयोजन से उसका विस्थापित हो जाना, कविता में प्राणत्व के अभाव का बड़ा कारण मानते हैं।25 'भूमंडलीकरण' जैसी कविता लिखने वाले प्रफुल्ल समकालीनता के संकट को पहचानते हैं और कविता के प्रयोजन पर जोर देते हैं। कवि एवं समालोचक अशोक वाजपेयी कहते हैं. 'अगर कवि ने अपने को विचारों से, ख़ासकर राजनीतिक विचारों से, जो आज की दुनिया में इतने प्रभावशाली हैं, अपने को काट लिया है या अलग रखा है तो फिर नये कवि का यह दावा कि समकालीन सच्चाई का साक्षात्कार करने की कोशिश कर रहा हैए व्यर्थ हो जाएगा। राजनीति को दरकिनार रखकर समकालीन सच्चाई का कोई साक्षात्कार और प्रासंगिक नहीं हो सकता।'26 साहित्य में कोई विचारधारा होनी चाहिए कि नहीं, इस प्रश्न को व्यास सम्मान से सम्मानित कवि, आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी विवादास्पद मानते हैं। उनका कहना है कि 'वास्तव में साहित्य में विचारधारा की जगह संवेदना होनी चाहिए। बिना विचारधारा के साहित्य हो सकता है मगर बिना संवेदना के साहित्य नहीं लिखा जा सकता। साहित्य शब्द से मतलब है क्रिएटिव साहित्य।'27

                दरअसल विचारधारा और नियमों को लेकर मतैक्य नहीं है। आज विधाओं में तोड़.फोड़ का सिलसिला चल पड़ा है। काशीनाथ सिंह का 'संतों, असंतों और घोंघा बसन्तों का अस्सी' जब कथादेश में छपा तो एक संत वाणी से उसकी शुरुआत हुई थी, 'नियम विज्ञान के होते हैं, जिन्दगी के नहीं, जो जिन्दगी को नियम से चलाते हैं वे चूतिया हैं।'28 यह नियम भंग का अनिवार्य हिस्सा है। यही उसकी 'निराला' शैली है। मुक्ति, सारे बंधनों से मुक्ति। नियम से चलते तो बोधिसत्व को भी इलाहाबाद में ही रुकना था। संन्यासिन के पीछे.पीछे चित्रकूट नहीं चल देते। चित्रकूट नहीं जाते तो कविताएँ कहाँ बनतीं? ज्ञानेन्द्रपति की यह कविता महत्वपूर्ण कैसे होती?

                         सारे आदमी जब / एक से ही आदमी हैं
                         जल और स्थल पर एक साथ चलकर ही
                         बने हैं इतने आदमी/तो एक आदमी अमीर
                         एक आदमी गरीब क्यों है/एक आदमी तो आदमी है।
                         दूसरा जैसे आदमी ही नहीं है।29

                एक आदमी अमीर और एक आदमी गरीब क्यों है, इसका उत्तर नियम.सिद्धान्त पढ़ाने वाला विज्ञान शिक्षक नहीं दे सकता। विनय दुबे ने ठीक ही लिखा है .

                       मैं जब कविता लिखता हूँ/और कविता में स्त्री लिखता हूँ/
                       तो स्त्री को स्त्री लिखता हूँ/विचार या विचारधारा नहीं लिखता हूँ/
                       विचार या विचारधारा के बारे में आप/कमला प्रसाद जी से बात करें/
                       मैं तो कविता लिखता हूँ।30

                इन बातों को समझने की जरूरत है। कविता होगी तो विचार भी होंगे और संवेदना भी होगी। हाँ, कविता को विचारों से बँधकर ही होना चाहिएए इस पर बहस चलती रहेगी। आजकल कुछ लोग इसी बहस के कारण कविता में 'देह' को लेकर परेशान रहते हैं। 'नव साम्राज्यवाद और संस्कृति' में सुधीश पचौरी 'मुक्त देह का आखेट' देखते हैं। कवि भला इस युगीन सत्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकता है? यहाँ भी संकट नहीं है। जिन्हें कविता में 'चार महानगरों का तापमान'31 मापना हो वे पवन करण का कविता संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर'32 पढ़ें। संकट दूर हो जाएगा।

                स्पष्ट है कि समकालीन कविता के संकट को लेकर शोर अधिक है, सच्चाई कम है। यही समकालीन कविता के संकट का यथार्थ है। इस शोर को समर्थ कवि अनसुना करके कहता है .

                       मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी अड़चनों के बारे में
                       अभी तक आलोचना में/विचार नहीं किया गया
                       ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
                       कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों और
                       दिक्कतों के बारे में भी सोचें
                       जिन पर आलोचना के खाँचे के भीतर सोचना
                       निषिद्ध है/एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
                       बार.बार यह ही कहता है/बचो, बचो, बचो
                       ऐसे क्लास रूम के अगल.बगल से भी मत गुजरो
                       जहाँ हिन्दी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
                       और कविता के बारे में राजेन्द्र यादव की बात तो
                       बिल्कुल मत सुनो।33


संदर्भः
1.     मंगलेश डबराल, कुछ देर के लिए, हम जो देखते हैं ;कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन) नयी दिल्ली, 1997
2.     नंदकिशोर नवल, कविताः पहचान का संकट, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली 2006
3.     वही।
4.     वही।
5.     तुलसीदास कृत श्री रामचरित मानस की एक चौपाई की अर्द्धाली।
6.     'केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी जो एक कवि में होनी चाहिए।' 
       आचार्य रामचंद्र शुक्लए हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010
7.     संदर्भ सं.2
8.     'लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।' रीतिमुक्त कवि ठाकुर की उक्ति।
9.     अज्ञेय की कविता 'कलगी बाजरे की' पंक्ति।
10.    वही।
11.    धर्मवीर भारती की एक कविता की पंक्ति।
12.    'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है/कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है', मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत की
       पंक्तियाँ।
13.    मंगलेश डबराल, अभिनय, हम जो देखते हैं ;कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन) नई दिल्ली, 1997
14.    राखी राॅय हल्दर, समकालीन हिन्दी कविता की चुनौतियाँ, वागर्थ, अगस्त 2009, पृ. 29
15.    डाॅ. नामवर सिंह, इतिहास और आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पाँचवीं आवृत्ति, 2011, पृ. 87
16.    बोधिसत्व, सिर्फ कवि नहीं, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008
17.    बोधिसत्व, दुःखतंत्र, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005
18.    बारहमासा। कवि बद्रीनारायण की एक कविता।
19.    चंद्रेश्वर, समकालीन हिन्दी कविता और लोक संवेदना, उद्भावना, अंक.90, पृ. 43
20.    जितेन्द्र श्रीवास्तव, बिल्कुल तुम्हारी तरह ;कविता संग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ) प्रथम संस्करण 2011, पृ. 24
21.    आधारशिलाएँ-1, जो मैंने जिया। कमलेश्वर, राजपाल एण्ड सन्ज़, 1992
22.    ज्ञानेन्द्रपति, ट्राम में एक याद, कवि ने कहा ;कविता संग्रह (किताबघर प्रकाशन) 2007
23.    आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कविता क्या है? चिन्तामणि पहला भाग, इण्डियन प्रेस (पब्लिकेशंस) प्रा.लि. इलाहाबाद,
       1999, पृ. 99
24.    राजेश जोशी, बच्चे काम पर जा रहे हैं, नेपथ्य में हँसी ;कविता संग्रह, (राजकमल प्रकाशन) नई दिल्ली 1994
25.    प्रफुल्ल कोलख्यान, कविता क्या संभव है, आलोचना अंक.30, पृ. 96
26.    उद्धृत, सुमित पी.वी., समकालीनता और कविता, समकालीन भारतीय साहित्य, अंक.147, पृ. 137
27.    विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से महेन्द्र तिवारी की बातचीत, दैनिक हिन्दुस्तान, 15 मार्च, 2011
28.    काशीनाथ सिंह, संतों, असंतों और घोंघा बसंतों का अस्सी, कथादेश, सितम्बर.2001
29.    ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'विज्ञान शिक्षक से छोटी लड़की का एक सवाल' की पंक्तियाँ।
30.    विनय दुबे, भीड़ के भवसागर में (कविता संग्रह) उद्धृत, वागर्थ, अगस्त 2009 पृ. 3
31.    कमलेश्वर की एक कहानी।
32.    पवन करण, स्त्री मेरे भीतर (कविता संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2004
33.    राजेश जोशी की कविता 'एक कवि कहता है' की पंक्तियाँ।



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डाॅ. नलिन रंजन सिंह
वरिष्ठ प्रवक्ता,
जेएनपीजी कालेज,
स्टेशन रोड, लखनऊ।