Monday, April 27, 2015

नवनीत पाण्डे की कवितायें



नवनीत पाण्डे हमारे समय के सजग कवि हैं!  उनकी कवितायें लगातार मूल्यहीनता और अवसरवादिता पर प्रहार करती चलती हैं!  वे लोक के प्रबल पक्षधर हैं।  उनका मानना हैं कि सामान्य से विशेष बनता है  अर्थात्  हाशिए, सामान्य ही मुख पृष्ठ को मुख पृष्ठ बनाते हैं!  पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में उनका हिंदी कविता का तीसरा संग्रह 'जैसे जिनके धनुष' लोकार्पित हुआ!  यह संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है!  इसी संग्रह से अपनी पसंद की कुछ कवितायें कवि के आत्म-कथ्य के साथ साझा कर रही हूँ!  ये कवितायें उनकी कविताओं के मिज़ाज़ से पूर्ण परिचय कराने में सक्षम है .... 





आत्म-कथ्य

पेड़ और रचनाकार में कुछ बातें समान होती है.. दोनो में हरापन होता है, दोनों ही समाज को कुछ न कुछ देते हैं लेकिन दोनों की जड़ों की गहरायी और फैलाव छिपा रहता है..पेड़ और रचनाकार को देख कोई नहीं बता सकता उसकी जड़ें कितनी गहरी और किस किस दिशा कहां तक किस रूप में फैली है। मुझे लगता है अपने समय के यथार्थ बीज से अपनी ज़मीन परिवेश में पल्लवित मैं भी एक शब्द-वृक्ष हूं। अपने दौर- दायरे में जो कुछ महसूस करता हूं... मेरे पास मेरे शब्द ही एक मात्र साधन, हथियार है जो उद्वेलित कर मेरे भीतर की सारी गूंजों-अनुगूंजों, उथल- पुथल सारी झंझावतों को बाहर कागज़ों पर उलीचते हैं, अभिव्यक्त करते हैं। बचपन से लेकर अब तक जीवन के हर पड़ाव ने जो कुछ भी मुझे दिखाया, सिखाया है और दिखा, सिखा रहा है अपने समय का वह निजी, प्रकृतिक, प्राकृतिक, सामाजिक-असामाजिक, राजनैतिक सम- विषम, नियत- नीतियां, आचार-विचार, चरित्रों के कटु- मृदु रिश्तों के सारे उलझाव- सुलझाव, कचोटने वाले यथार्थ हंसी, रुदन, पीड़ाएं मुझे स्तब्ध करती हैं, इन सबसे लोहा लेने की ताकत मुझे मेरी कलम ही देती है, अपने इस एक मात्र हथियार को मैं जन कवि हरीश भादानी के शब्द उधार लूं तो पल- पल की छैनी से धार करता रहता हूं, कभी जीत- कभी हार सब कुछ स्वीकार कर अपने भीतर के आदमी और उसकी आदमियत को ज़िंदा रखने की कोशिश करता रहता हूं सफल हूं कि नहीं.. यह कूंतने का ज़िम्मा वक्त पर छोड़ रखा है। अपने अग्रज पुरोधा कवि माखन लाल चतुर्वेदी की एक कविता से प्रेरित कभी लिखी एक साहित्य पैरोडी यहां साझा करना चाहूंगा …

चाह नहीं पुरस्कारों- सम्मानों से तौला जाऊं
चाह नहीं बड़े आलोचकों, आलोचना से मौला जाऊं
चाह नहीं झूठी तारीफों, प्रशंसाओं से फूला जाऊं
चाह नहीं आसमानी झूलों पर झूले खाऊं

पाठक मेरे कर पाओ तो काम ये करना नेक
जहां जहां हो संघर्ष
आदमियत और हकों के
शब्द मेरे तुम देना फेंक

- नवनीत पाण्डे



'जैसे जिनके धनुष' (काव्य संग्रह-नवनीत पाण्डॆ) से  कुछ कविताएं

 (1)
ऐसे डसता है कि सांप भी....


सांप को
सब जानते, पहचानते हैं
सांप है
उस में जहर है
सब बचते हैं
सांप
खुद डरते हैं
सब से बचते हैं
कभी
चलाकर नहीं डसते
आदमी तो
सांप का भी बाप है
सारी जान- पहचान धरी रह जाती है
इतना चुपचाप
इतने प्रेम से
ऐसे डसता है कि सांप भी.......



(2)
कहां खड़ा रहूं

कहां खड़ा रहूं
जहां भी दिखती है ज़मीन
अपने खड़े रहने माफिक
करता हूं जतन
कदमों को टिकाने की

पर जानते ही
खोखलापन-हकीकतें
ज़मीन की
कांपने लगते हैं कदम
टूट जाते हैं सारे स्वप्न
अपने पैरों पर खड़े होने के

सच!
अब सचमुच ही होगा कठिन
खड़े रह पाना
अपनी ज़मीन पर
बची ही कहां
और कितनी
एक अदद आदमी के
खड़े रहने के लिए
एक अदद
ठोस ज़मीन...



(3)
हाशिए ही तो.....

बहुत से मुखपृष्ठ
हाशियो से घबराते हैं
मुखपृष्ठी अपने दंभ में
हाशिये ही नहीं लगाते हैं
जहां कहीं
दिखायी देने लगते हैं हाशिए
उन्हें हटाने,
मिटाने की जुगत में लग जाते हैं
उन्हें कौन समझाए
हाशिए ही तो.....
मुख-पृष्ठ को
मुख-पृष्ठ बनाते हैं
 (4)
सबके यहां घराने है........

जब मैं कुछ कहूं-
तुम तालियां बजाना, बजवाना
जब तुम कुछ कहोगे-
मैं तालियां बजाऊंगा, बजवाऊंगा
तुम मुझ से यूं ही निभाते रहना
मैं तुम से यूं ही निभाता रहूंगा.....

मेरे बेसुरों पर तुम ताल ठोंकना
तुम्हारे बेसुरों पर मैं ताल ठोंकूंगा
मेरी असंगत को
तुम संगत देते रहना
तुम्हारी असंगत को
मैं संगत देता रहूंगा......

याद रहे! गीत हमें,
अपने- अपनों ही के गाने हैं
अकेला चना भाड़ नहीं झौंक सकता,
सबके यहां घराने है
तुम मुझे दरबार भिजवाते रहना
मैं तुम्हें दरबार भिजवाता रहूंगा।



(5)
अच्छे कवि- अच्छी कविताएं


अच्छे कवि वे होते हैं
जो अच्छी कविताएं लिखते हैं
अच्छी कविताएं वे होती हैं
जिनकी
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र
अच्छा होने की
उद्घोषणाएं  करते हैं

जो अच्छी पत्रिकाओं में
जो अच्छे  और
ऐसे प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में छपें
जिन में
अच्छी कविताओं के
अच्छे कवि के बारे में
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र
अच्छी- अच्छी
विस्तार से समीक्षाएं
अच्छे- अच्छे
आलोचनात्मक आलेख छपें

अच्छी पत्रिकाएं वें
जिन में
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र हों
और जो
प्रतिष्ठित पुरस्कारों के पैनलों की
सलेबस- कोर्स बुक हों

अच्छे - प्रतिष्ठित पुरस्कार वे
जो
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्रों के
निर्णायक मण्डल द्वारा
केवल अच्छे कवि
अच्छी कविताओं को दिए जाते हैं

तो मित्रो!
भले आप
अच्छे कवि न हों
अच्छी कविताएं न लिख पा रहे हों
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र बनाइए
और अच्छी कविताओं के
अच्छे कवि होने की
जारी की जानेवाली सूचियों में
जितनी जल्दी हो सके
अपने को नामज़द करें!

Tuesday, April 21, 2015

अम्रिखान के लमडे (कहानी) - प्रज्ञा

पिछले दिनों प्रज्ञा जी की कई कहानियां पढ़ी!  खास बात यह है हर कहानी पिछली  से बिलकुल अलग है!  यूँ तो अपने अनुभवों को कहानियों में पिरोने में प्रज्ञा सिद्धहस्त हैं पर कहानीकार प्रज्ञा की यह कहानी अपनी दिलचस्प  किस्सागोई के कारण  बरबस ही ध्यान खींचती है!  ये किस्सागोई अब कहानियों से लुप्त होती जा रही है!  ऐसे में कथ्य पर आधारित ऐसी कोई अतीतजीवी कहानी पढ़ने में आती है तो स्मृतियों में अपनी जगह बना ही लेती है!  आप भी पढ़िए प्रज्ञा जी की कहानी - अम्रिखान के लमडे.......


                  



दिल्ली में रहते हुए भी भाई-भाभियों से बात हुए अर्सा बीत जाता है। सब मसरूफ हैं अपनी ज़िदगियों में और मैं खुद भी तो ...फुर्सत ही कहाँ है मुझे घर, नौकरी और बाल- बच्चों से । इधर  मंझले भैया से भी लगातार बात हो जाने की वजह ये है कि मां आजकल उन्हीं के घर हैं। इसलिए कभी फोन पर  बात हो जाती है और महीने में दो -एक बार घर हो ही आता हूं । मां की आदत है कि मोबाइल रखती नहीं और अपने से फोन भी नहीं करतीं। हम खुद ही उनके हाल-चाल पूछ लेते हैं। हां देर से फोन करने पर आज भी बचपन वाली सख्त डांट का डर बना रहता है। मैं ये सोच ही रहा था कि कल-परसों में मां से मिलने जरूर जाना है कि इतने में भैया का फोन आ गया। 
‘‘कैसा है ?’’ मां की आवाज से मैं चौंक  गया। कोई खास बात ही है जो मां फोन कर रही हैं। मां ने ज्यादा इंतज़ार न कराते हुए सूचना दी ‘‘ तेरे टिल्लू भैया भी गुजर गए राजकुमार। सब चले गए एक- एक करके। लगता है मैं ही सबके नाम की उमर लिखवाकर आई हूं। महीना भर हो गया उसे गुजरे। मुझे भी कल ही पता चला सोचा तुझे बता दूं। उसके  लड़के ने  सेवा तो बहुत की  पर शराब से बिगड़े शरीर को आखिर कब तक संभालता?’’ मां देर तक उनकी बातें करती रही और मैं चुपचाप सुनता रहा। अभी उम्र ही क्या थीं उनकी ? होंगे मुझसे कोई सात – आठ साल बड़े । बचपन से लेकर आज तक के जीवन के बारे में सोचते हुए मेरे दिमाग में यही घुमड़ता रहा कि एक इंसान विदा हो गया और किसी को खबर भी नहीं हुई। मैं तो व्यस्तता के बहाने उनकी तरफ से निश्चिन्त था।  
                 हनुमान को तो मैंने नहीं  देखा पर टिल्लू भैया के रूप में मैंने सच्चे सेवक को देखा था  और मेरे मन में उनके लिए गहरा आदर था। अफसोस तो मुझे प्रेमी चाचाजी के गुजरने का भी हुआ था पर टिल्लू भैया के न रहने पर एक टीस-सी उठ रही थी। चंद साल पहले की एक मुलाकात में उन्होंने मेरा सारा बचपन मुझे याद दिला दिया था। एक इंसान जिसे किसी समय रोज घर-गली में देखने की आदत थी, जिसके न दिखने पर एक बेचैनी- सी महसूस होती थी और दिन पूरा नहीं होता था। वो इंसान जिसने हमारे घर को हमेशा अपना समझा आज हमें बताए बिना चल दिया। तो अब भाईजी की तिकड़ी का आखिरी सिरा भी खत्म हुआ। जैसे एक युग का अंत हो गया । भाईजी, प्रेमी चाचाजी और टिल्लू भैया की तिकड़ी जान थी हमारे मोहल्ले की। राजकपूर, देवानंद और दिलीप साहब की तिकड़ी की तरह, जिन्होंने एक साथ काम करते हुए राज किया था मुम्बई पर। हां ये जरूर है कि इन सितारों के आपसी संबंध भाईजी की तिकड़ी की तरह नहीं थे और फिर भाईजी की तिकड़ी ही कहां इन रौशन सितारों की  मानिंद जगमगाती थी पर हमारे लिए तो ये साक्षात सितारों से कम नहीं थे और तिकड़ी में सबसे ऊपर थे भाईजी खुद।
 
                वैसे तो भाईजी रिश्ते में मेरे ताऊजी लगते थे पर चूंकि संयुक्त परिवारों में बच्चे अधिकतर वही संबोधन आसानी से स्वीकार कर लेते हैं जिनका प्रयोग मां-पिता करते हैं तो मेरे भाईयों और मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। पिताजी उन्हें भाईजी बुलाया करते थे। बड़े भाईयों ने भी यही संबोधन अपना लिया और मैंने भी एक फर्माबरदार बेटे और भाई की तरह इस विरासत का दामन थाम लिया। भाईजी को कोई आपत्ति भी नहीं थी। होती भी कैसे आखिर हम उन्हें एक नयी पीढ़ी से जोड़े हुए थे और उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं करते थे। पर असली बात थी भाईजी की ठसक, अगर उसे ठेस लगती तो भाईजी का पारा चढ़ जाता और फिर किसी की खैर नहीं। केवल घर में ही नहीं पूरी गली और उसके विस्तार में जाएं तो पूरे मोहल्ले में भाईजी का धाक जमी हुई थी। शरीर भले ही नाटा था पर एकदम गठा हुआ। अपने नाटेपन को वो अपनी ठसक अपने तेवरपहनने ओढ़ने के ढंग रूआब और मजबूत आवाज से संतुलित किया करते थे। रूपया-पैसा भी ठीक जोड़ा था उन्होंने और आय के साधन स्वरूप एक अच्छी  चलती दुकान थी ही जिस पर दो-तीन नौकर खादी भण्डार से लाये कपडे धोने प्रेस करने के काम को सँभालते थे । आगे प्रेस का काम चलता और पीछे धुलाई ,कलफ वगैरह । इस समृद्धि के जरिए उनका रौब-दाब कायम था। ऐसे में हमारे हीरो भाईजी के निकट जो भी होता उसकी तकदीर और इज्जत भाईजी रूपी पारस का स्पर्श पाकर जगमगाने लगती। यों उनकी नजदीकी पाना कोई हंसी-खेल नहीं था। भाईजी बड़ी पारखी नजर रखते थे। ऐरों-गैरों को  पास फटकने भी नहीं देते थे और गली में रूपए धेले से कोई उनकी बराबरी कर ही नहीं सकता था । ज्यादा बोलने वाले उन्हें सख्त नापसंद थे। तेजी दिखाने वाले का पत्ता तो पहली दफा में ही कटा समझो। इस तरह  बरसों की आजमाईश के बाद ये मौका दो ही लोगों को मिला--टिल्लू भैया उर्फ प्रेमकुमार शर्मा और प्रेमी चाचाजी जो सिर्फ प्रेमी ही थे पर केवल नाम के। दोनों के नाम में प्रेम का होना महज़ एक इत्तेफाक है भाईजी की कहानी में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता ।  उम्र और अक्ल में तिकड़ी का हिस्सा न होते हुए भी मैं तिकड़ी के बेहद करीब था । वो इसलिए कि दिखने में आकर्षक, पढ़ने-लिखने में तेज और सेवा-टहल का पक्का था मैं। वैसे मेरा विनीत और आज्ञाकारी होना ही वो असली मानदंड था जिसके कारण मैं भाईजी के नजदीक था और उनका दुलारा भी।  इसका एक कारण मेरा स्कूल भी था जो दोपहर की पाली में लगता था। सुबह जब मेरे भाई और कई बच्चे स्कूल जाते मैं अकेला होता। इस अकेलेपन को भरने का सबसे बढि़या उपाय भाईजी की दुकान थी जिस पर हरदम मजमा -सा जुटा रहता। मैं समय बिताने के चक्कर में उनके करीब आ गया। कहने का आशय केवल इतना है  कि मुझे भी पारस का स्पर्श मिला गया था  जो न मेंरे भाईयों को मिला था  न ही भाईजी के दोनों बेटों को।
         
       आज जब याद करने बैठा हूं तो फिल्म की तरह सारी रील अपने सम्पूर्ण दृश्यों और किरदारों को लिए मेंरी आंखों के सामने है। अपने भरे-पूरे संयुक्त परिवार में भाईजी का डंका पिटता था। भाई-बहन न भी समझें पर भाईजी खुद को उनका खुदा ही समझते थे और जो उनकी राय के विरूद्ध गया वो समझो गया। भाईजी का उससे छत्तीस का आंकड़ा हो जाता। इस मामले में वे बड़े ही समाजवादी थे। सबको एक ही निगाह से तौलते चाहे आदमी घर का हो या बाहर का। भाईजी के दाहिनें हाथ थे टिल्लू भैया। उनके सामने एकदम बच्चा पर शरीफ और गजब के मेहनती। उनमें वे सारी खूबियां शामिल थीं जिनके चलते उम्र में बहुत छोटे होने पर भी उन्होंने भाईजी के दिल में जगह बनाई थी। हम उन्हें भाईजी का डिप्टी कहा करते थे। प्रेमी चाचाजी  टिल्लू भैया की तरह तो नहीं थे पर उनका सा स्वांग रचने में माहिर थे। बतरस उन्हें खूब था और लगाने-बुझाने की आदत भी कम न थी। यों भाईजी भी खरे-खोटे का फर्क बखूबी जानते थे पर प्रेमी चाचाजी  सभी खोटों में सबसे कम खोटे थे और फिर भाईजी को भी अपनी ठसक दिखाने के लिए अपने दो -एक खास लोगों की जरूरत भी थी। इस तरह ये तिकड़ी निर्मित हुईं जरूर हुई पर समानता के सिद्धांत पर नहीं भाईजी के मालिकाना हक के मातहत। तिकड़ी के बावजूद वो दोनों भाईजी के चाकर ही थे। इस तिकड़ी मे सेंध लगाने की भरसक कोशिश करने वाला एक और शख्स था --नानक। नानक को भाईजी का परमानेंट प्रशंसक समझ लीजिए। पर शायद भाईजी को शेर याद था-हुए तुम दोस्त जिसके  दुश्मन उसका आसमां क्यों  हो--तो वो नानक को जरा दूर ही रखा करते।
                भाईजी के रौब-दाब की मुख्य वजह उनकी दुकान भी थी। दुकान बहुत मौके की जगह पर थी। गली से एकदम सटी हुई और मोहल्ले  के नुक्कड़ पर। तीन तरफ का पूरा नजारा वहां बैठकर लिया जा सकता था और गली में आने-जाने वालों, सबपर नजर रहती थी। दुकान के साथ ही एक पेड़ लगा था और उसके नीचे चबूतरा था। इस तरह अड्डेबाजी का पूरा प्रबंध था वहां। सुबह का अखबार बांचने से लेकर देर रात दुकान की ओट में नशा करने तक के बीच दोस्तियां, दुश्मनियां निभाना, पारिवारिक समस्याओं से लेकर समाज और देश-विदेश की समस्याओं पर बेबाक टिप्पणियों, हंसी-ठठ्ठे से लेकर मार-कुटाई और  गाली-गलौच की उपयुक्त जगह। आज सोचता हूँ गली मोहल्ले में दुकाने तो कई हैं पर उनपर ऐसे रौनकदार मजमे कहाँ? नौकरों को आदेश देकर दुकान के बाहर बैठे भाईजी एक तरफ दुकान की निगरानी भी करते रहते और दूसरी तरफ पूरे दिन बतरस का आनंद भी लेते। टिल्लू भैया अपना खोमचा वहीं दुकान के आगे लगा लिया करते। चटपटी मटर और मोठ बनाने में उनकी मास्टरी थी। प्याज़ ,टमाटर हरा धनिया काटकर, मसाले और नींबू का रस डालकर जब दो-चार बार दोने में सबको उछालते  तब मटर और मोठ को दिव्य बना देते ।अक्सर दोपहर में अपने पसंद की सब्जी न बनने पर लोग कहा करते-‘‘ जा भाग के टिल्लू से एक दोना मटर ले आ ,खाने का मजा तो आए।’’ प्रेमी चाचाजी किसी दुकान पर काम करते थे। सुबह देर से जाते थे इसलिए सुबह का उनका समय दुकान पर ही बीतता।
मुझे अच्छी तरह याद है वो दिन। भाईजी आज उपदेश के पूरे मूड में थे। ‘‘देख भाई टिल्लू मो ठ-मटर बनाने का तुर्जुबा तुझे है ही और सबको पसंद भी आता है तो ऐसा कर ले दुकान के एक कोने में छोले-भठूरे की दुकान कर लेते हैं। अरे जब वो मुकंदी का छोकरा चला रा है तो क्या हम उससे भी गए-गुजरे हैं? फिर दुकान मौके की जगह है। बिजनिस अच्छा चलेगा।...गधे की तरह चुप क्यों है? बोल न।’’
अच्छे भले  इंसान को पशु -पक्षी बनाने में उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता था । टिल्लू भैया कोई रिस्क लेना नहीं चाहते थे। अपने खोमचे और आमदनी से वे  पूरी तरह संतुष्ट थे। पर भाईजी का स्वभाव वह  जानते थे। भाईजी बड़े ही उद्यमशील इंसान थे। एक मर्तबा जो सोच लिया वो पत्थर की लकीर। अनमने अंदाज में कह ही दिया-‘‘ देख लो ठाकुर जी फिर कोई ऊंच-नीच न हो जाए। तुम भी नाहक परेशान होओ और मैं भी पुराने धंधे से हाथ धो बैठूं ।’’ टिल्लू भैया के बेमन से कही हां को भाईजी ने सहर्ष समर्थन वाले भाव की तरह लिया और लगे योजना बनाने में। 
‘‘यार टिल्लू छोले तरी वाले बनने हैं। मसाला जरा जमके  गेरिओ। छोले तेल में तैंरे और मिर्च का छौंक ऊपर से छोडि़यो। अदरक, आलू, मिर्च सजा दीयो  कि सूरत देखते ही मन ललचाए। रंगत जबरदस्त हो। ’’ भाईजी को खाने में रोनी सूरत वाली कोई भी चीज पसंद नहीं थी। स्वाद चटपटा और रंगत आला,  खाने को लेकर ये दो कसौटियां उनकी तय थीं। उस शाम प्रेमी चाचाजी ने भी छोलों के संदर्भ में अपना सारा ज्ञान उंडेलकर रख दिया। छोले कितनी आंच पर उबलेंगे, काबुली या कौन- सी किस्म बेहतर रहेगी। छोले बनाने की विधि को लेकर भी खासी रिसर्च की गयी। सब कुछ तय करने के बाद दुकान का सामान सरकाकर एक कोना खाली किया गया। दो-एक दिन में उस कोने में लोहे का एक स्टैंड फिट कराया गया जिसपर एक तरफ अंगीठी और दूसरी तरफ छोलों का पतीला रखा गया। बीच में मैदे की परात और बेलने की जगह थी। एक छोटी सी अचार की बरनी भी रख दी गयी थी ।दुकान शुरू करने से पहले एक और निर्णय भी भाईजी ने किया--‘‘देख टिल्लू ! छोले-भठूरे का काम तो दो-तीन बजे तक चलता है। क्यों न शाम को यहां गर्मागरम समोसे भी बनें तो काम खूब चलेगा। अरे फुर्सत नहीं मिलेगी कमाई से।’’ भाईजी को अपने निर्णय पर अगाध विश्वास था। नए प्रयोगों के धुनी भी थे तो काम शुरू हो गया। टिल्लू भैया को छोले उबालने का खासा अनुभव था पर तरी वाले छोले उन्होंने कभी बनाए नहीं थे। राम-राम करके छोले तो बना डाले पर रंगत के चक्कर में ढेर सारी मिर्च झौंक दी। इधर छोले के जोड़ीदार भठूरे की हालत भी बुरी थी। जो भी भठूरा बेलकर तलते  वही पलटते ही सिकुड़ जाता और कढ़ाई का तेल न जाने किस रास्ते उसके पेट में समा जाता। हर भठूरा तलते हुए आस जगती ‘‘अब फूला तब फूला’’ पर सबका एक- सा अंजाम। पहला दिन था तो शर्मा-शर्मी में लोगों ने पैसा दे दिया और बेस्वाद छोले और तेलपिए  भठूरे खा लिए। जैसे- तैसे  दिन गुजरा शाम का समय निकट था और टिल्लू भैया अपने जीवन के पहले समोसे बनाने को तैयार थे। भाईजी निरंतर उत्साह बढ़ा रहे थे--‘‘देखियो टिल्लू ! आज से तू टिल्लू समोसेवाले के नाम से मशहूर होने वाला है। लोग समोसों के साथ उंगलियां खा जाएंगे बस चटनी ऐसी बना दे कि स्वाद रह जाए जबान पर।’’ न जाने उस घड़ी सरस्वती विराजमान थीं भाईजी की जबान पर। टिल्लू भैया ने अपना सारा ध्यान वाक्य के दूसरे अंश पर लगाकर चटनी में प्राण फूंक दिए। चटनी लाजवाब थी पर समोसे जो उन्हें ऑन द जॉब  सीखने थे, उनका हाल भठूरों से भी बुरा हो गया। सारे समोसे न केवल तेल पी गए बल्कि फट भी गए। आलू ज्यादा मसलने के कारण समोसा फटते ही  अन्दर का आलू भागने लगा और थोड़ी देर बाद काला होकर  तेल में नाचने लगा फिर हांफकर बाकी समोसों और कढ़ाई पर चिपक गया। भाईजी की भविष्यवाणी सच हुई । टिल्लू भैया वाकई  टिल्लू समोसेवाले के रूप में ख्यात हो गए अंतर केवल यही था कि नकारात्मक अर्थ में। ख्यात का तो कुछ नहीं बिगड़ा पर उसके आगे ‘कु’ लग गया।
                भाईजी ने जल्दी हार नहीं मानी। कैसे मानते कोई खेल नहीं था उन्हें हराना। फिर दुकान चलती जगह पर थी। ट्रक वाले, पनवाड़ी, कारीगर, मोटर सुधारने वाले कितने ही लोगों की आमदरफ्त थी उस रस्ते पर । पहला दिन खराब जाने का मतलब सब धंधा चौपट हो जाना नहीं था। भाईजी टिल्लू भैया का मनोबल बढ़ाते रहते और शाम को प्रेमी चाचाजी भी कुछ मुर्गे फांस लाते। पर वो मजा नहीं आ सका जिसकी भाईजी ने कल्पना की थी। टिल्लू भैया हर दिन नई कोशिश करते। छोले-भठूरों में तो फिर भी सुधार था पर समोसे के तेल के गर्म होने का अंदाज न लगा पाने के कारण तेल में छोड़ते ही समोसे लाल और काली रंगत के से हो जाते। फिर उन्हें जल्दी निकालने के चक्कर में समोसों की चमड़ी ठोस होकर अजीब- सी हो जाया करती और भीतर के मसाला स्वादहीन। एक दिन समोसों को रोज की तरह परात में सजाकर रखा ही गया था कि न जाने कहां से नानक आ गया। ‘‘वाह ठाकुरजी आज तो पूरी गली महक रही है समोसों से। क्या समोसे हैं तुम्हारे।’’ समोसों की असलियत से वाकिफ भाईजी सोचने लगे “ शायद  मैं ही अपने माल को कमतर आंक रहा हूं।’’ और ये सुनते ही नए जोश में भरकर भाईजी ने नानक को बड़े सम्मान से बिठाया और कहा--‘‘नानक आ बैठ। आज तू खा समोसे जितना तेरा मन चाहे।’’ भाईजी जानते थे दो-तीन से ज्यादा कोई खाने से रहा और बाद में फेंकने से अच्छा है इसके पेट में ही चले जाएं। प्लेट साफ कर नानक फिर से समोसों की शान में कसीदे पढ़कर चला गया। मैं गली के अंदर दोस्तों के साथ खेल रहा था। मैंने उसे पड़ोसी से कहते हुए सुना ‘‘ ऐसे समोसे हैं कि कुत्ते के  आगे धर दो तो वो भी मुंह न मारे।’ ’मन तो किया सारी असलियत खोल डालूं पर भाईजी के दुख को और बढ़ाने की मेरी इच्छा न थी।
                खाने की दुकान से धीरे-धीरे मायूस होकर जब मुफ्त में गली के घरों में भेजे गए समोसे भी ठुकराए जाने लगे या बेआबरू होकर  कूड़ेदान में पड़े दिखाई दिए तो भाईजी का मन उचाट हो गया। टिल्लू भैया ढूंढ-ढांढकर अपना खोमचा ले आए और भाईजी ने प्रेमी चाचाजी की मदद से एक मेज रखवाकर चाय का काम भी उनके लिए शुरू करवा दिया। कुछ दिन बाद सब अपनी जिंदगियों में रम गए पर भाईजी की टीस न मिट सकी । एक दुकान के भीतर दो सफल दुकानों को चला पाने का उनका मंसूबा अधूरा था। एक दिन नशे में टिल्लू भैया को एक तमाचा रसीद कर दिया--‘‘साले तूने कर दी धंधे की ऐसी-तैसी। पैसा डुबो दिया और नाम भी। जरा मन नहीं लगाया काम में। खर्चा करवाया सो अलग। नालायक, गलती की कि तुझपे भरोसा किया।’’ टिल्लू भैया ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। बस मां के आगे ही रोए-‘‘चाची क्या मैंने जानबूझकर किया? तुम बताओ मेरी गलती? बिना गलती के मार लगाई उनने मुझे।’’ मां ने तब भी भाईजी की तरफ से उनका मन मैला नहीं होने दिया जबकि लंबी बीमारी और  छोटी उम्र में  मेरे पिताजी के गुजर जाने से भाईजी का व्यवहार मां से ठीक नहीं था। मां के दुख को समझे बिना भाईजी ने मेरे सभी भाईयों को दिहाड़ी पर रूपया कमाने की सलाह दी थी। शायद कहीं बात भी पक्की कर ली थी पर मां हमें पढ़ाना चाहती थी । पिताजी खुद दिहाड़ी मजदूर थे इसलिए मां को ताना मारते हुए भाईजी ने कह भी दिया था -‘‘ चूहे के जाये भिट्ट खोदेगें लाट-अफसर नहीं बनेंगे।’   
                अगले दिन भाईजी काफी देर तक अपनी सफल और असफल दोनों दुकानों के आगे बैठे रहे। दरअसल वो बैठे नहीं थे टिल्लू भैया का इंतजार कर रहे थे। आज टिल्लू भैया तय समय गुजर जाने के बाद भी नहीं आए। भाईजी की बैचेनी बढ़ती ही जा रही थी। प्रेमी चाचाजी की लाई पांच सौ दो नम्बर की कितनी बीढि़यां उन्होंने राख कर दी थीं और अब नई सुलगाकर तेजी से चहलकदमी करते हुए कश  पे कश फूंक रहे थे। जब बात बर्दाश्त के बाहर हो गई तो उन्होंने अपने बेटों को दहाड़ते हुए पुकारा-‘‘ सूअर के बच्चों, सालों सोते रहोगे ? जाओ लपक के टिल्लू के घर और उसे यहां लाकर ही मरना।’’ प्रेमी चाचाजी ने चुप रहने में ही भलाई समझी। जब तक टिल्लू भैया नहीं आए हम सब दम साधे रहे। उनके आने पर भाईजी का स्वर एकदम बदल गया--‘‘ आ गया तू...अरे नाराज मत हो भइया। हो जाता है कभी-कभी। और तू मुझसे नाराज हो गया...मुझसे। चल अब औरतों की तरह रूसना छोड़।’’ प्रेमी चाचाजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। यारी दोस्ती का हवाला दिया और भाईजी ने भी आगे बढ़कर बिना माफी मांगे उन्हें गले लगाया। अभी मामला ठंडा हुआ ही था कि भाईजी ने नया बम फोड़ दिया--‘‘ देख बे टिल्लू! जो बीती वो बात गयी। मेरे दिमाग में नयी बात आई है। दुकान के इस हिस्से में मसाला पीसने की मशीन लगाते हैं। खूब चलेगी देख लियो।’’ टिल्लू भैया की जान सांसत में आ गयी। अभी जख्म ताज़ा थे और उनके शरीर में नए घाव झेलने की ताकत न थी। वो इंकार कर ही देते कि न जाने कहां से नानक प्रकट हो गया और उसने भाईजी की बात सुनकर उस आइडिया की दाद दे डाली --‘‘ वाह ठाकुरजी क्या दिमाग पाया है आपने। खाली तो आप बैठ नहीं सकते न। मोहल्ले में एक कालिया की ही दुकान है मसाले की ,एक आपकी भी हो जाएगी। बीस ही ठहरेगी कालिया से लिखवा लो। हर घर में रोज मसालों की जरूरत है। और मसाला पीसना कौन-सा मुश्किल काम है? समोसे तलने से तो आसान ही है।’’ प्रशंसा के रैपर में जी जलाने वाली गोली  को चुपके से लपेटना नानक को बखूबी आता था। पर भाईजी आज किसी और ही मूड में थे। ‘‘चल टिल्लू चलके बात करते हैं साजिद से। मशीन बन ही जाएगी और जल्दी काम शुरू हो जाएगा। देखियो तेरे मटर-मोठ से ज्यादा नफे का होगा और चाय की दुकान की खिटपिट भी बंद हो जाएगी।’’
                टिल्लू भैया बेमन से साथ तो हो लिए पर शंका उनके साथ चली। साजिद खरादिये ने दूर से ही भाईजी को देखकर एक भद्दी सी गाली दे डाली और पास आते ही सत्कार में लग गया। भाईजी का प्रस्ताव सुनकर साजिद के मन ने कड़ाई से ‘ ना ’ कहा। उसने कहां बनाई थी ऐसी मशीन । कुछ ऊंच-नीच हो गई तो कौन खाए भाईजी की डांट और मार, पर उसे भाईजी की उधारी  भी चुकानी थी। पैसे थे नहीं पर एक पुरानी मोटर कब से उसके यहां धूल फांक रही थी। उसका ध्यान आते ही साजिद की न हां में बदल गई। जैसे-तैसे करके मशीन तैयार हो गई। इधर इस बार भाईजी ने ढेर सारा खड़ा मसाला खरीद लिया। साबुत लाल मिर्च, धनिया, हल्दी, काली मिर्च, सौंफ। कुछ थैलों में बड़ी इलायची, तेज पत्ता, लौंग, दालचीनी जैसे मसाले भी झांक रहे थे। कुछ दिन बाद  ठीक समय पर साजिद रिक्शे में मशीन को बड़े प्यार से बिठाए ले आया। प्रेमी चाचाजी ने दुकान को फिर से संवार दिया था। पतीला, अंगीठी, परात, चकला-बेलन, कड़ाही ,अचार की बरनी  और वो हर मनहूस सामान जिसने पुरानी दुकान बंद करवा दी थी उसे बाहर निकाल दिया गया जिसे भाईजी की छोटी बहू समेटकर ले गई थी। इस बार भाईजी ने विधि-विधान के टोटके भी कर डाले। मशीन पर गैंदे के फूल की माला चढ़ाई गई। गली के तमाशबीन लोगों को लड्डू भी बंटे। और नारियल टिल्लू भैया ने फोड़ा।
                अब बारी आयी मशीन चलाने की। तो कौन करे ये शुभ काम? ये काम तो भाई जी के ही जिम्मे था। उनके दोनों बेलदारों ने अपने काम कर डाले थे अब मिस्त्री का काम तो भाईजी ही करेंगे। और करना भी क्या था एक मामूली स्विच ही तो ऑन करना था। मशीन के ऊपर मसाला डालने वाले हिस्से को टिल्लू भैया ने साबुत मिर्चों से ठसाठस भर दिया था। निकासी की जगह पर चमचमाता , स्टील का ड्रम रख दिया गया। सभी लोग गली के इस नए काम पर निगाहें जमाए थे। कुछ काम पर देरी होने के बावजूद भाईजी के लिहाज से रूके हुए थे। मांओ के साथ उनके लाडले  भी चिपके-चिमटे खड़े थे। आस-पास के राहगीरों और दुकानदारों के लिए तमाशा शुरू होने वाला था तो कुछ नदीरे बचे हुए लड्डुओं पर निगाहें लगाए हुए थे। आखिर इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं और भाई जी ने मशीन चला दी। घड्ड-घड्ड की आवाज से मशीन शुरू हो गयी तो साजिद की जान में जान आई। मसाला पिसना शुरू हो गया अब मिर्च को पाउडर रूप लेकर निकलना था। पर ये क्या? निकासी की जगह से भप्प-भप्प की एक अजीब सी आवाज हुई और तेज मिर्चों का पाउडर मसाला डालने की ऊपर वाली जगह से और ऊपर उठकर हवा में बिखरने  लगा। आस-पास खड़े लोगों की आंखें खुशी से नहीं मसाला लगने से पनियाने लगीं। नाक और मुंह के जरिए मसाला की धसक भीतर जाते ही चारों तरफ से छींकने, खांसने की आवाजें एकताल से होती हुईं तिगुन तक पहुँच  गई। चारों तरफ हाहाकार मच गया--‘‘ अरे बंद करो इसने...मशीन को रोको कोई।’’ इस दृश्य से सन्न और हक्के-बक्के भाईजी कैसे एकदम से स्विच को बंद कर पाते। उनकी तो सारी इंद्रियां गहरे सन्नाटे में  कैद हो रही थीं। कुछ भी समझ न पाने की स्थिति में खांसते हुए कुछ शब्द ही निकल पाए उनके रूंधे गले से जिसका अर्थ था--‘‘अबे टिल्लू बंद कर इस ससुरी को।’’ उम्मीद का आईना आंखों के आगे चूर-चूर होता देख भी टिल्लू भैया आंखों  को मिचमिचाते और नाक- मुंह को हाथ से दबाते किसी तरह मशीन के पास पहुंच ही गए और स्विच बंद कर दिया। एक बार फिर घड्ड-घड्ड का स्वर गूंजा और मशीन रूकी। उसके रूकने से पहले ही लोग जल्दी-जल्दी भाग चुके थे। कुछ मिर्चीले धुंए से बचने के लिए दरवाजों की ओट में समा गए थे। माएं अपने लाडलों के साथ भाग खड़ी हुईं थीं पर किसी चमत्कार की आस में भाईजी, टिल्लू भैया और प्रेमी चाचाजी ही न भाग सके और मशीन का शिकार बन गए। 
                उस दिन भाईजी ने जितनी गालियां मशीन को दीं उससे ज्यादा साजिद को दे डालीं। पर पूरे मोहल्ले में आंख , गले, नाक की जलन से बौराए लोग भाईजी को इससे भी चौगुनी गालियों से नवाज रहे थे। धीरे-धीरे जलन दूर होने पर लोगों का गुस्सा भाईजी के नए प्रयोग की छीछालेदर करने वाली हंसी और बाद में मजेदार ठहाकों में बदल गया। नानक तो हर सेकेंड में दस-दस ताली मारकर भाईजी की हंसी उड़ाने वालों का सरताज बना हुआ था। हंसी तो प्रेमी चाचाजी की भी नहीं रूक रही थी। मेरा मन किया सर फोड़ दूं  नानक का। कैसा भक्त बनता है भाईजी का! शाम को मशीन के रिव्यू की एक गंभीर बैठक हुई। मेरा काम रोज की तरह अड्डे पर पानी का  छिड़काव करना था। भाईजी की तिकड़ी गमगीन थी-‘‘अरे साजिद कह रहा था  कि मशीन तो फस्सकिलास है तो फिर गड़बड़ कहां हुई? ’’ भाईजी की बात का जवाब देते हुए प्रेमी चाचाजी ने कहा भी--‘‘बात तो सही है । मिर्चे तो पीसीं थीं मशीन ने पर वो बिखरी क्यों?’’ सुबह से निष्कर्ष की उधेड़बुन में लगे भाईजी को जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने कहा-‘‘जाइयो टिल्लू जरा कालिये की दुकान पर और देख के आ उसकी मशीन कैसे काम करती है?’’टिल्लू भैया के लौटने पर साजिद और मशीन दोनों निर्दोष पाये गए। मशीन में कोई एब नहीं था पर एक भयानक गलती कर दी थी भाईजी ने। ‘‘भाईजी मसाला निकालने की जगह पर कपड़ा तो हमने लगाया ही नहीं। कालिये के यहां मारकीन का कपड़ा लगा है मशीन के मुंह पर।’’ टिल्लू भैया के कहते ही भाईजी को अपनी गलती समझ में आ गई । वे तो समझ रहे थे कि मशीन नलके की तरह काम करेगी ।ऊपर से मसाला पिसेगा और निकासी की जगह से होता हुआ झरझर करता ड्रम के पेट में समा जाएगा। भाईजी गलती का एहसास कर ही रहे थे कि सामने से नानक के दर्शन हो गए--‘‘उल्लू के पट्ठे तू तो कालिया की मशीन देखके आया था बता नहीं सकता था कि कपड़ा चढ़ाना होता है उसपर।’’ ऊपर से भोले बनने का नाटक करते हुए और अपना अपराध कुबूलने के दौरान भी नानक का मन कह रहा था--‘‘बता ही देता तो बरसों बरस याद रहने वाला ये किस्सा कहां से बनता ठाकुर जी!’’
                अगले दिन टिल्लू भैया मारकीन भी ले आए पर इतनी जगहंसाई के बाद भाईजी का मन स्थिर न हो सका। मशीन का बटन दबते ही उस दिन का समूचा दृश्य उनके रौंगटे खड़े कर देता। फिर श्रीगणेश गलत होने को अपशकुन मानकर लोग कालिया के मसाले ही लाने लगे। कुल मिलाकर कालिया का एक दिन का भी नुकसान नहीं हुआ। कुछ दिन के बाद लोगों ने देखा भाईजी मशीन को रिक्शे पर लादकर कहीं ले जा रहे थे। पता चला साजिद को औने- पौने या मुफ्त में ही वो मशीन लौटानी पड़ी। चांदी साजिद ने ही काटी।
इस हादसे के बाद भाईजी अपनी गिरती साख के प्रति चिंतित हो गए। उन्हें लगा अगर ऐसे ही चला तो गली-मोहल्ले में बरसों-बरस बनाई इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। जो लोग पीठ पीछे हंसी-ठट्ठा कर रहे हैं वे सामने भी लिहाज नहीं करेंगे। यही सब सोचकर भाईजी अपने रौब-दाब को लौटाने-बनाने की कवायद में लग गए। सबसे पहले तो उन्होंने पहले से चली आ रही कमेटी के सदस्यों की संख्या बढ़ाई। वैसे भी हमारे मोहल्ला धन की दृष्टि से पिछड़ा ही था फिर सौ रूपये मासिक की कमेटी पर लोगों की आस लगी रहती। इसके चलते उनके बहुत से काम संवर जाते और आड़े वक्त में मदद हो जाती। चूंकि कमेटी के सर्वेसर्वा भाईजी खुद थे तो पहली कमेटी पर उनका ही हक होता। पांच हजार की  बूटी वाली कमेटी के लिए बोली लगती। इसका कारण ये था कि अधिक बोली लगाने वाले की कमेटी खुल जाती पर बोली लगाने का रूपया उसकी  कमेटी के रूपयों में से काटकर अन्य सदस्यों में पैसा बाँट दिया  जाता। भाईजी इस बंदिश से मुक्त थे। महीने के जिस दिन कमेटी खुलती पूरे मोहल्ले में उत्सव का सा  माहौल होता। हम बच्चों को साफ-सफाई और कुर्सी लगाने, दरी बिछाने के इंतजाम में लगना होता। आगे एक बड़ी टेबल सजाने की जिम्मेदारी मेरी होती। चाय-पानी का इंतजाम होता। पूरी गली लोगों से और बीड़ी के धुंए से भर जाती। लगे हाथ भाईजी कमेटी के लाभ गिनाते हुए एक भाषण भी लोगों को पिला देते। वे सोच-समझकर भाषण देने का समय तय करते। कमेटी निकलने से पहले का समय उनके अनुसार एकदम सही था। कमेटी खुलने के लालच में कोई कहीं भागता नहीं था और मर्जी न मर्जी उसे भाषण सुनना ही पड़ता था। पर कमेटी के काम से भाईजी ने बड़ी ही इज्जत कमाई और सदस्यों की संख्या का आंकड़ा पचास तक पहुंचा दिया। 
                भाईजी के नाकामी के  किस्सों पर कुछ धूल- सी पड़ने लगी थी। इसी बीच तिरासी का वर्ल्ड कप शुरू हाने वाला था। टिल्लू भैया क्रिकेट के शौकीन थे और प्रेमी चाचाजी भी खेल के जरिए गली के नौजवान लड़कों में खुद को एक स्टार की तरह देखना पसंद करते थे। ‘‘ ठाकुरजी ये मौका हाथ से न जाने दो। सारे लोग मान जाएंगे तुम्हारा लोहा।’’ एक गुदगुदी भाईजी के मन में होने लगी। फिर क्या था वर्ल्ड कप फाइनल का प्रसारण भाईजी की दुकान के बाहर दिखाया जाना तय हुआ। देर रात सीधे प्रसारण के लिए दुकान के आगे टीवी, वीसीआर वाले की दुकान से कलर  टीवी किराए पर मंगवाकर एक लंबे से स्टूल पर सजाया गया। दरियां बिछीं। गली और मोहल्ले की जबरदस्त भीड़ उनकी दुकान के सामने जमा हो गई। क्या लड़के,क्या आदमी, क्या अधेड़ और क्या बूढ़े क्या बच्चे- सभी झूमने लगे। अधिकांश घरों में टीवी नहीं था, उनके लिए बकायदा मैच देखने का इंतजाम कराने के चलते भाईजी का डंका पिटने लगा। टिल्लू भैया और प्रेमी चाचाजी ने भाईजी को सुपरहिट करा दिया। इधर इंडिया की टीम ने भी  जीतकर उनकी किस्मत चमका दी। हर किसी की जुबान पर भाईजी की मेहरबानी से इंडिया का मैच और शानदार जीत का किस्सा था। भाई जी का रूपया जरूर खर्च हुआ था पर रौब पहले से भी ज्यादा चमक गया था।
                भाईजी पूरी फॉर्म में आ गए थे। गली के लड़के भविष्य में मिलने वाले मैच के मजे की सोचकर अब उनकी बड़ी पूछ करने लगे थे और भाईजी सातवें आसमान पर बैठकर झूम रहे थे। लड़कों को अपनी बादशाहत तले देखकर उन्हें नशा होता। कई बार प्यार में तो कई बार गुस्से में उन्हें बेरोक-टोक गरियाने लगे थे। नए लड़कों के फैशन उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं थे। ‘‘ अबे अम्रिखान  के लमडे...संभलकर । आधी कमीज पेंट  में और आधी  बाहर क्यों  निकल रइ है तेरी.?.. और कालर उठा रखे हैं बताऊं अभी.. बाल काढ़े नहीं हैं और सीधे तरिया क्यों नहीं चलता बे। बटन बंद करले , बहुत देखे सीने वाले तेरे जैसे कबूतर । कौन सा तीर मारा है बे तूने?’’ ‘अम्रिखान के लमडे’ यानि अमरीकी लड़कों के नकलची , उनकी नजर में तुच्छ ,आवारा, हिप्पी जैसे , जिनको सुधारने का जिम्मा उन्होंने बिना किसी के दिए ही खुद ले लिया था। इस मामले में वे पूरे तरह स्वदेशी के भक्त थे। अमरीका के बारे में ज्ञान न होने पर भी उसे लज्जित करने का कोई मौका न चूकते। शुक्र है आज ओबामा को उनकी ये अनूठी गाली  सुनने को नहीं मिली नहीं तो महाबली का सारा अभिमान चूर-चूर हो जाता। चूंकि मोहल्ले के तमाम छोकरे एसे आड़े-तिरछे फैशन में कई- कई बार दिखते तो भाई जी  की जुबान हंटर की तरह ‘अम्रिखान के लमडे’ फटकारती रहती। लड़के जो बचपन से ही भाईजी का रौब देखते पले थे इन बातों का बुरा नहीं मानते । भाईजी का आत्मविश्वास इतना बढ़ चला था कि अब तो कोई औरत-आदमी उनके कमेंट सुने बिना गली से गुजर नहीं सकता था। कई बार मुझे लगता कि वे गली की मक्खियों तक पर छींटाकशी कर रहे हैं।

                 रात में शान से गली में सोते। अधिकतर  मैं ही उनका बिस्तरा किया करता। खाट पर गद्दा-चादर लगा देता और उनका बेटा यानि बड़े भैया घिया रंग का उनका चमचमाता टेबलफैन स्टूल पर लगा देते। साथ में पानी का गिलास ढककर रखा जाता। कहना न होगा कि भाईजी के ठाठ निराले थे। गर्मी में कमरे के भीतर सोना उन्हें पसंद न था। ताई के गुजरने के बाद कई बार घर में बनी बाजरे की खिचड़ी, साग, हलवा जैसा तर माल और कम बनने वाली मटन की सब्जी मां उनके लिए भिजवा देती। चिकन-मटन के तो जबरदस्त शौकीन थे। वैसे बहुएं भी उनके बेटों की तरह उनसे दबती-डरती थीं इसलिए सेवा मे कमी नहीं छोड़ती थीं। बेटे पढ़ नहीं पाए पर भाईजी के रूपये-पैसों से अपने परिवार की गाड़ी खींच रहे थे। बड़े लड़के को तो फिर भी कहीं छोटी-मोटी नौकरी मिल गई पर छोटे को कोई काम न मिलने से भाईजी ने उन्हें दुकान पर बिठवा दिया। बिन मांगे मोती मिलने पर भी छोटे भैया ने अपनी तरफ से आगे बढ़कर न ही कोई उत्साह दिखाया न कोई लगन। हां जुआ खेलने का ऐब जरूर पाल लिया जिसके कारण बाल-बच्चेदार होने पर भी वे भाईजी से पिटा करते। ऐसे लड़के पर भी उन्हें कम गुमान नहीं था। धमधूसर और आलसी लड़के की सारी असलियत जानने वालों के सामने भी  अक्सर कहा करते थे--‘‘ऐसा लड़का है जी .. के जमीन में पैर मारे तो पानी निकाल दे।’’ उनके वफादार टिल्लू भैया इस झूठ पर भी अपना सिर हिलाते रहते। 
                काफी समय ऐसा चलने से भाईजी के जीवन में उकताहट- सी भर रही थी। वो फिर से कुछ नया करने की फिराक में थे। उनकी मौत के बाद जब मैंने उनकी इस उकताहट पर ठहरकर विचार किया तो समझ सका कि जीवन में हरदम एक नए काम की तलाश दरअसल उनके मन का एक खालीपन था । एक ऐसा खालीपन जो सही काम और सही मुकाम न मिलने के कारण पैदा हुआ था। कम पढ़े- लिखे  होने को तो उन्होंने अपने रौब और रूपये से ढंक दिया था पर उस खालीपन को कभी न भर पाए। उनके जैसे लोग अक्सर अपने हालात से समझौता कर लेते हैं पर भाईजी ने ये मिजाज पाया नहीं था। अति आत्मविश्वास और उत्साह का सागर उनके मन में छलकता  रहता  था। इसी उद्यमशीलता ने फिर से प्रेरित किया और  फिर टिल्लू भैया के धंधे  पर खतरा मंडराने लगा। हो भी क्यों नहीं अब नए खतरे उठाने से मन डरता था और मन की सुनते तो बहुत पहले ही भाईजी से अलग हो चुके होते। उम्र तो भाईजी की उनसे अधिक थी पर जोश नौजवानों का था। इस बार बहुत दिन बाद हूक उठी थी उन्हें।  सोचा कि दुकान के कोने को फिर आबाद किया जाए। पर इस बार मुंह  छोटे बेटे और बहू ने बिचकाया। कारण था कि दुकान को समेटने से छोटे बेटे का धंधा मंदा पड़ने का खतरा था। उसका परचून का शुरू किया धंधा अभी जमा नहीं था और फिर भाईजी का जोड़ा रूपया कोई कुबेर का खजाना तो था नहीं कि बढ़ता ही जाता। धंधा मंदा होने से भाई जी के नौकर  भी कबके विदा हो चले थे । दोनों भाईयों ने  पत्नियों संग सलाह की , कि भाईजी को रोका जाए पर उनकी दबंगई के आगे मुंह कौन खोले? तमाम मुसीबतों को पार करके भाईजी ने फिर टिल्लू भैया को मना लिया--‘‘ देखियो टिल्लू हमारी पिट्ठी-चटनी की दुकान खूब चलेगी। शादी-ब्याह में सबको दाल की पिट्ठी चाहिए ही। मूंग हल्वे की,  दही-वड़े की, पकौड़ों की पिट्ठी की मांग कभी खत्म न होगी। हल्वाइयों से प्रेमी बात कर रहा है। बुढ़ापे का सहारा हो जाएगा। राज करेंगे राज।’’
                दुकान का अभिशप्त कोना फिर आबाद हो गया। पैसा और दांव खेलकर मशीन आ गई। दाल की पिट्ठी बनाने की बड़ी- सी मशीन लोहे के पुराने स्टैंड पर धर दी गई। नानक और नानक जैसे कई लोग ताक में थे कि इस बार फिर से अर्से तक चटखारे लेकर सुनाने वाला किस्सा हाथ लगने वाला है। दिल तो टिल्लू भैया का रात ही से बैठ गया था जब वो सुबह पीसी जाने वाली दालें भिगो रहे थे। जाने क्या बड़बड़ा रहे थे लगता था कोई मनौती- सी मांग रहे हैं। सुबह दाल पिसी और कमाल की बात ये रही इस बार कोई गड़बड़ नहीं हुई। तमाशबीनों का दिन खाक हुआ क्योंकि दाल कुछ देर भगौनों में प्रतीक्षा करने के बाद ग्राहकों के घर भी पहुँच  गईं। भाईजी एक अचंभित हंसी हंस रहे थे। कमाई और मुनाफे का गणित आज कुछ ज्यादा न बैठा था पर संतोष और आत्मविश्वास का समीकरण हल होता दिख रहा था। इस बार भाईजी की तिकड़ी हर दिन जोश पकड़ रही थी। प्रेमी चाचाजी भी इस बार मन लगा रहे थे। कई बार पिट्ठी में कोई कमी आ भी जाती तो टिल्लू भैया अपने जीवन का पूरा अनुभव निचोड़कर उसे सुधार देते। ग्राहकों को पटाने का जिम्मा प्रेमी चाचाजी का था ही। बस भाईजी की आवाज फिर गूंज उठी। गली के लड़कों के फैशन पर फिर से छींटाकशी होने लगी और अमरीका फिर से लज्जित होने लगा। ‘अम्रिखान के लमडे’ गली में घुसते-निकलते समय भयभीत रहने लगे।

सब कुछ ठीक चलने पर भाईजी खाने की नित नई चीजें बनाने, बेचने की प्लैनिंग करने लगे। कभी मटके पर रोटी  सेंकने के निराले काम के बारे में सोचते तो कभी मटन पुलाव बनाने के बारे में। गजब का आत्मविश्वास उन्हें दृढ़ता देता कि वो जो भी बनाएंगे अव्वल दर्जे का होगा। उनकी अनंत इच्छाएं मुक्त आकाश में विचर ही रही थीं कि एक दिन पिट्ठी पीसते हुए मशीन धोखा दे गई। आवाज पूरी हो रही थी पर मशीन की बेल्ट ने घूमना बंद कर दिया। भाईजी ने फुर्ती दिखाने के चक्कर में रूकी हुई बेल्ट को अपनी उंगली से घुमाना चाहा कि अचानक बेल्ट तेजी के साथ उनकी उंगली घसीटती घिर्रीदार ब्लेड में  ले गई और खट्ट से उनकी उंगली का ऊपरी हिस्सा मशीन में कट गया। भाईजी का हाथ खून से  लथपथ हो गया। मशीन तो चल पड़ी पर भाईजी का धंधा  ठप्प हो गया। उंगली का जाना एक अभिशाप की तरह भाईजी के जीवन में उतरा। उन्हीं दिनों भाईजी की कमाई और पुराने जेवर चोरी हो गए । हमेशा लोगों से भरी गली में चोर कब आया कब गया किसीको पता ही नहीं चला पर बाद में पूरी गली में ये चर्चा गर्म रही कि छोटे भैया ने जुए में बहुत कुछ गवां दिया है । 
                ये भाईजी के बुरे दिनों की शुरूआत थी। पूरे जी-जान से जिस शान को बढ़ाते-बचाते रहे थे अब उसकी मिट्टी पलीद होने के दिन थे। पूंजी और दुकान हाथ से निकल जाने पर सबने रंग दिखाना शुरू कर दिया। मैं बी.ए. में पढ़ रहा था उन दिनों जब देखा भाईजी खाने को तरस रहे हैं। ‘‘ देख ले बेटा सूअर के बच्चों ने गत बना दी तेरे भाईजी की। क्या नहीं किया इन सुसरों के लिए। पानी को नहीं पूछते दोनों। ’’ मां से सुना करता था कि समय साथ न हो तो साया भी साथ छोड़ देता है--भाईजी के केस में मैंने इस बात को सच होते देखा। उम्र ,धन और शरीर का ख़त्म होना आदमी को कितना निरीह और लाचार बना देता है भाईजी इसके प्रमाण बन चुके थे ।  हर समय बीड़ी- सिगरेट पीने की लत के चलते उन्हें भयानक दमा हो गया। बलगम वाली खांसी के लंबे दौरे जैसे ही पड़ते बहुएं गंदी गालियां देने लगतीं। राज पलट गया था। कद से नाटे भाईजी बहुत कमजोर से दिखते थे। उनको देखकर गली का नया बच्चा सोच ही नहीं सकता था कि इस आदमी से किसी जमाने में गली-मोहल्ला थर्राता था। प्रेमी चाचाजी तो ये दुर्दिन देखकर जल्दी ही छिटक गए। नानक के संग मिलकर कमेटी के सर्वसर्वा वही बन गए। सब कुछ एकसाथ ही छीन लिया गया भाईजी से । पर टिल्लू भैया आखिरी दम तक अपने खोमचे से उन्हें जैसे- तैसे  पालते रहे। वो न जाने कैसे अपना परिवार चला रहे थे । ऊपर से उनकी रोज़ पीने की लत । पर भाईजी की हुक्मऊदूली नहीं की कभी। मां दिन का खाना दे जातीं तो वो भी छोटी बहू से न देखा जाता। भाईजी को चोरी- छिपे कुछ रूपए देने वाली माँ को जब लालची और घर के भेदी का तमगा मिला तो उनकी उदारता पर ताला लग गया । ढाबे का मिर्चीला खाना भाईजी की  जुबान को बेहद  तकलीफ पहुंचाता इसीलिए  रोज खाने की रस्म निभाने के बाद बचा हुआ खाना टिल्लू भैया से कूड़े में फिकवा देते ।
                अपने अंतिम दिनों में भाईजी दुकान के पीछे के स्टोरनुमा कमरे में एक  ढीली-ढाली खाट पर बिछी चीकट चादर पर पड़े रहते। स्टूल पर पड़े टेबल फैन का चमकदार रंग गायब हो चुका था । कभी भव्यता की कहानी कहने वाले उसके घिया रंग को देखकर अब उबकाई -सी आती थी। भाभियों की सख्ती के बाद भी मैं कई बार लाइट जाने पर उनके कमरे में पंखा झला करता था तो मेरे हाथ को पकड़कर कहते ‘‘रहने दे भैया गर्मी की आदत हो गई है अब तो  मुझे। तू लिखने-पड़ने वाला लड़का है टैम न खराब किया कर। ’’ मैं गहरे दुख से उनका हाथ परे सरकाता और पंखा झलते हुए स्वरहीन आवाज में मेरे सवाल चिल्लाते--‘‘ क्यों पड़े हो इस गंदे ढीले बिस्तर पर? क्यों नहीं फिर से वैसे ही सोते हो गली में शान से? उठो और चीखो अपने लड़कों पर?  छीन  क्यों नहीं लेते अपनी दुकान ? फिर से गालियां क्यों नहीं देते , हडकाते क्यों नहीं  गली मोहल्ले के लोगों को ? क्यों खाते हो बहू की अपमान से दी हुई रोनी सूरत वाली खिचड़ी? उठो फिर से सोचते क्यों नहीं कोई नया काम? इस कबाड़खाने से भागते क्यों नहीं? भाईजी तुम मेरे हीरो थे, नहीं देखा जाता मुझसे कि कोई तुम्हारा अपमान करे, तरस खाए।’’  अपने ही अंतिम शब्द मेरा दिल घोंटकर रख देते और मैं मर्दानगी को लात मारता हुआ चीख- चीखकर रोता। मेरा स्वर निशब्द था पर आंखें रोने की गवाह रहतीं। पर भाईजी वैसे ही अडि़यल और ठीठ बने रहते  और मेरी एक न सुनते ।
                उनके बीमार शरीर को ढोकर कभी मैं और टिल्लू भैया किसी सरकारी अस्पताल तक ले जाते । हर बार लगता भाईजी नहीं रहेंगे पर भाईजी कुछ और सांसे खींचकर गाड़ी आगे  बढ़ाते रहे। मैं सोचता बस नौकरी लगने तक भाईजी बचे रहें सब देख लूंगा। किसी की नहीं सुनूंगा। आखिरी बार भाईजी को कुछ-कुछ पुराने भाईजी से मिलते तब देखा जब मेरा एम.ए. का रिजल्ट आया और मुझे प्रथम श्रेणी मिली। हमारे खानदान में मैं पहला एम.ए. पास था। ‘‘ अबे टिल्लू जा भागके मुकंदी के और लड्डू ला किलो भर । पहला लड़का है खानदान और गली-मोहल्ले का जो एम.ए. पास हुआ है। मजाक नहीं है, कर सके है कोई इसकी बराबरी?’’ भाईजी की कांपते से शरीर से हंसी फूटी पड़ रही थी। टिल्लू भैया से कहकर उन्होंने गली में लडडू बंटवाए और मुझे ढेर सारे आशीष दिए। मेरा विश्वास बढ़ रहा था कि मैं अपने हीरो को उसके पुराने रूप में लौटा लाउंगा पर वो बुझने से पहले की आखिरी चमक थी भाईजी के चेहरे पर। और भाईजी चले गए।  रूआब, ठसक, आवाज की मजबूती और गठा हुआ शरीर सबको बहुत पहले छोड़ चुके भाईजी जो केवल सांसें ही थामे थे... उन्हें भी छोड़ चले। वर्षों  बाद उनकी देह को साफ़ चादर नसीब हुई थी । चादर में लिपटी उनकी पोटली जैसी देह को अपना अंतिम प्रणाम और दान देने के लिए टिल्लू भैया उनके पास बैठे आंसुओं से बुदबुदा रहे थे-‘‘ मेरी भूल-चूक माफ करना तुम ...चल दिए न  ठाकुर जी मुझे छोड़कर...उठ जाओ हठ न करो अब... देखो अम्रिखान के  लमडे आज कैसे तुम्हारे सामने मूरत बने खड़े हैं। ’’
               
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परिचय

 नाम  - प्रज्ञा

प्रकाशित किताबें - राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति  वाणी से जनता के बीच : जनता की बात नुक्कड़ नाटक संग्रह , एन सी ई आर टी से तारा की अलवर यात्रा और सामाजिक विषयों पर आधारित आईने के सामने। 

प्रकाशन - कथादेश,वागर्थ,बनासजन , जनसत्ता ,पक्षधर, परिकथा, सम्प्रेषण ,अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित।
पत्र पत्रिकाओं में लेख समीक्षाएं संस्मरण।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रमों में भागीदारी।
सम्प्रति किरोड़ीमल कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर।


पुरस्कार - तारा की अलवर यात्रा के लिये सूचना प्रसारण मंत्रालय का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार।

Monday, April 20, 2015

जैसे जिनके धनुष - विजेंद्र जी की नज़र से





पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में बीकानेर निवासी कवि नवनीत पाण्डे का हिंदी कविता का तीसरा संग्रह 'जैसे जिनके धनुष' लोकार्पित हुआ!  यह संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है और वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी ने इसकी भूमिका लिखी!  विजेंद्र जी ने भूमिका में कवि के रचनाकर्म के बहाने हिंदी कविता पर विस्तार से चर्चा की है जिसे मैं आप लोगों से साझा कर रही हूँ...



नवनीत से कवि रूप में मेरा परिचय फेस बुक पर हुआ । उनकी कविताओं और सारवान टिप्पणियों ने मेरा ध्यान आकृष्ट  किया । पता लगा वह बीकानेर के है । मेरी दिलचस्पी और बढ़ी । नवनीत ने बताया वह मेरी पुस्तक ,  ’सौंन्दर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविता’ को पढ़ चुके हैं । इस दौरान उनका फरीदाबाद किसी काम से आना हुआ । मेरी पहली भेंट यही थी । उन्होंने अपना कविता संकलन दिया । मेरी एक लम्बी कविता की कुछ पंक्तियां रिकार्ड की । कविता को लेकर बात-चीत से पता लगा नवनीत कविता और कवि कर्म के बारे में काफी उत्सुक और गम्भीर है । मुझे आश्चर्य हुआ कि इतने गम्भीर और वयस्क  कवि की कविताएं समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को क्यों नहीं  मिली ?

राजस्थान मेरा अपना प्रदेश है जहां मैं सृजन कर्म में लगभग आधी सदी गुज़ार चुका हूं। प्रदेश के सभी कवियों को जानता भी हूं । नवनीत जैसे गम्भीर कवि राजस्थान में विरल हैं । नवनीत सृजन में यकीन करते हैं । अपने को जबरदस्ती स्थापित करने की जोड़-तोड़ की हिकमत उन्हें नहीं आती । उनमें  समझौते करने की दैनीय क्षमता भी नहीं है । कृतिओर के लिए भी उन्होंने मेरे बड़े आग्रह पर अपनी कविता प्रेषित की थी । मुझे ऐसे कवि सदा आकर्षित करते हैं। ऐसे कवियों का भी मूल्यांकन जरूर हेाता है जो समर्पण से सिर्फ सृजन करते है । मूल्यांकन के लिए धैर्य रखते हैं । मेरा अपना अनुभव है कि भाग - दौड़ करके जो कवि अपने को स्थापित कर लेते हैं उनकी रोशनी बहुत क्षणिक होती है । जिनको अपने सम्यक् मूल्यांकन के लिए धैर्य रखना पड़ता है - उपेक्षा भी झेलनी पड़ती है - लेकिन उनका मूल्यांकन जब भी होता है स्थाई होता है ।

मैं नवनीत के दो कविता संकलन पढ़ चुका हूं । इस संकलन की पाण्डुलिपि पढ़ने का सुअवसर मुझे मिला । मुझे प्रसन्नता है । यहां नवनीत की कविता का विकास देखा जा सकता है । उनके सामाजिक सरोकार विविध और व्यापक हुए हैं । आजकी पूजीकेद्रित व्यववस्था से उपजी मानवीय विकृतियों को नवनीत ने उजागर किया है । यह व्यवस्था हमारे कोमल रिश्तों को समाप्त करती है । घर परिवार बिखरने लगता है । नवनीत की अनेक कविताएं घर पर हैं । संकेत है कि घर समाज की इकाई है । इसका नष्ट होना मनुष्य के सांस्कृतिक विघटन से जुड़ा है । महानगर मे आदमी निर्वासित होकरजैसे अकंल हो गया है । नवनीत कवि की सबसे बड़ी ताकत शब्द को ही मानते हैं । शब्द को लेकर भी कवितायें हैं । इस संकलन में नवनीत प्रकृति के करीब भी आये हैं । हवा , वर्षा , नदी , समुद्र , वृक्ष , पहाड़, चांद, मछलियां आदि वस्तुएं होकर भी कविता में प्रतीकार्थ देती है । इसे कविता में इकेहरापन नहीं आता । अर्थ गौरव व्यापक होता है । कविता में संकेतिकता से ध्वन्यार्थ की गहराई आती है । ये बात पहले संकलनों से यहां अधिक । एक पंक्ति से यह बात लक्ष्य की जा सकती है -

                         'हर  बीज  के  गर्भ में  एक पेड़ है'

एक स्थान पर कहा है , ‘पिंजरों में जिओ ’ यानि दास और परतन्त्र कर उसे विकास की सारी सम्भावनाओं से च्युत करना । नवनीत बाज़ार के प्रतिकूल असर का भी संकेत देते हैं । जिसे परोस रहा है बाज़ार /गजब के लुक पैक में /मैं फिर उड़ूंगा से संकेत है कि चाहे जो भी प्रतिकूलता क्यों न हों आदमी का साहस परास्त नहीं किया जा सकता । मछलियों को मालूम है का संकेत है जो सक्षम होता है वही टिकता है । यहां महान वैज्ञानिक चार्ल्स डारविन का survival of the fittest सिद्धान्त याद आता है । अधूरा है दिन में विपरीत तत्वों की एक रूपता की ध्वनि सुनी जा सकती है । अर्थात् परस्पर विरोधी तत्व हाकर भी उनमें सह- अस्तित्व बना रहता है । सापेक्षता का यह एक वैज्ञानिक सिध्दान्त है । बुध्द कविता में नवनीत ससंार से पलायन का अपने स्तर से प्रतिरोध करते हैं । आज के संवेदना शून्य और हृदय विहीन समाज में मनुष्य सर्प से भी अधिक खतरनाक हो चुका है - ऐसे डंसता है कि साप भी .......। होश में तो हो कविता में कला साधना को एक कठिन कर्म बता कर नवनीत उन पर व्यंग्य करते हैं जो इसे खेल समझते हैं -

बरसों रियाज़ किया है /  तब कहीं जाकर साधा है सुर /  पाया है सम ....../ और तुम सिर्फ साज़ छूकर / चाहते हो उस्ताद होना । होश में तो हो ..... । 

'अगर सीख लेता है'  में ध्वनि है कि स्थितियों को अपने अनुकूल कैसे बनाया जाए उसके लिय सार्थक संक्रियायें जरूरी है । कोई लक्ष्य बिना दृष्टि - विज़न - के पाना सम्भव नही है । आंख के बिना धनुर्धर नहीं हुआ जा सकता । कवि इस मूल्यहीनता के समय में गोरख और मछन्दर को याद करता है । संकेत है कि बिना विद्रोही और दृष्टिवान नेतृत्व के चेतना की अग्नि नही प्रज्वलित नहीं हो सकती  कवि ने अनेक कविताओं में अंध आदर भाव , कुटिलता , दुश्चक्र , धोखा-धड़ी तथा विश्वासघात आदि मानवीय दुर्बलताओं को भी बड़ी सजगता से व्यक्त किया है । कई स्थानों पर नवनीत आधारहीनता को बतातते हैं । कई जगह विपरीत संस्थितियों के स्तर विभेद की बात करते है । कई कवितायें संकेत देती है कि आदमी अपने अस्तित्व के लिए अकेला संघर्ष कर सफल नहीं हो सकता । उसके लिए सामूहिक संघर्ष ही एक विकल्प है । 

कवि के अनुसार आज  का दौर दिशाहीनता और पराभव मानसिकता का दौर है । परस्पर छल-कपट की दुरभिसंधिया दिखई देती हैं । सामान्य मनुष्य जैसे शक्तिशाली वर्ग के हाथ की कठपुतली हो जैसे -

हम सिर्फ औज़ार भर हैं / जैसे ही पूरे होगे तुम्हारे मनसूबे / रख दिये जायेंगे संभाल कर / फिर किसी टूल बॉक्स में / फिर काम आने के लिये । 

यह आज की एक बड़ी त्रासदी है जिसकी ओर कवि ने संकेत किया है । उन्हें हरा नहीं सकते कविता में ध्वनि है कि कवि के नाशील शब्द कभी दास नहीं हो सकते

मेरे शब्द खुद ही हैं अपने ब्रह्म.......
उन्हें हरा नहीं सकते तुम  । 

मेरी आग कविता में कवि ने कवि की प्रतिबद्धता का बड़ा सार्थक प्रश्न खड़ा किया है -

 वे लोग / हर तरफ से / हर तरह से / करने को राख मेरी आग को / फिर भी मैं / करता रहता हूं जतन / उसे उजाला बनाने को /..........बहुत खिलाफ है मेरे  / हवाओं के रुख / फिर भी मैं प्रतिबध्द हूं / देती रहती है / भरोसा मुझे / मेरी आग । 

यह कवि की बड़ी ताकत है । विपरीत स्थितियों में अपनी प्रतिबद्धता को न त्यागना । आज आए दिन अवसरवाद के असर में कवि अपना चेहरा बदलते दिखते हैं । कवि ही नहीं बल्कि कमजा़ेर मन के समीक्षक भी । कवि ने सामाजिक  विषमता पर अनेक कवितायें लिखी हैं । एक वर्ग है जिसे दुनिया की सारी सम्पत्ति उपलब्ध है । उन्ही के बल से दुनिया चलती है ।  दूसरे वे हैं जो उनकी दया पर - मन मर्जी पर - खैरात पर - कीड़े मकोड़ों की तरह जीने मरने वाले हैं - हम । 

यहां प्रमुख बात है कि कवि अपने को उत्पीड़ितों के साथ रखता है । वह लोक का पक्षधर है । कवि मानता है कि सामान्य से विशेष बनता है । अर्थात्    हाशिए, सामान्य ही मुख पृष्ठ को मुख पृष्ठ बनाते हें । ध्वनि है सामान्य से विशेष महत्वपूर्ण होते हैं । कवि कविता मे अविकास, अनास्था, संशय, निरंकुश अभिव्यक्ति, अर्थ की अराजकता और लय विहीनता को उचित नहीं मानता । नवनीत ने कविता पर भी अनेक कवितायें लिखी हैं । इन कविताओं में उनकी काव्य मान्यतायें व्यक्त हुई हैं । कवि की अवधारणा है कि कविता को प्रमुखत: पहले कविता के प्रतिमान पर खरा उतरना जरूरी है 

मैं पढ़ता हूं  कविता / यह देख कर कि / कि कविता  में/ कविता है कि नहीं / कवि कोई भी हो ....। 

नवनीत उन मूल्यहीन लोगों पर व्यंग्य करते हैं जो अवसरवाद से ग्रस्त अपने हित साधने को चाहे जिस सीमा तक जा सकते है प्रकरान्तर से कवि कर्म के व्यापक सन्दर्भ में कवि आचरण का सवाल उठाता है । जो अच्छा इन्सान नहीं वह एक अच्छा कवि होगा सन्देह है । पहले एक बेहतर इन्सान ।  बाद में कवि ।  कविता भी अपने से किए गये छल को परखती है । जैसे मूल्यहीन बन कर अपने स्वार्थ साधते रहना । लोगों को धोखा देना ! कविता ऐसे लोगों से छिटककर दूर चली जाती है । कविता लिख कर भी ऐसे लोग कभी कवि नहीं हो पाते । आज ऐसे लेखक बहुत है जो स्वयं सेवी संस्थायें चलाने को धन की हेरा-फेरी करते है । पर लेखन में आदर्श बखानते हैं ।  ऐसे छद्मवेशी लेखक कभी असरदार और स्थाई सृजन नहीं कर सकते । कवि मानता है कि यथार्थ मात्र सतह का सच नहीं है । जो आसानी से आंखों को दिखता है वह छाया प्रतीति है । सार तत्व के लिय हमें वस्तु की रगों तक जाना होता है जो सबके वश का नहीं होेता । बड़ा और सिद्ध कवि ही यह कर पाता है । 

नवनीत मानते हैं कि साहित्य में मूल्येंका पतन कवि के आचण में गिरावट के कारण हुआ है । बाज़ार और पूजीवदी मनोवृत्ति के कारण साहित्य में भी लेन-देन की प्रवृत्ति बढ़ी है । यह बात कवि ने बड़ी बे-बाकी से गठ -जोड़-तोड़ कविता में तीखे व्यंग्य के माध्यम से कही है - गठजोड़   /  मैं तुम्हें चाटूं / तू मुझे चाट / गठ तोड़ / मैं तुम्हें काटूं / तू मुझे काट। 

मैं नवनीत की इस बात से सोलह आने सहमत हूं । आज अधिकांश समीक्षा इसी मनोभाूमि का दुष्परिणाम   है । मैं ने इसे अपने एक आलेख में छद्मवेशी आलोचना का कठिन दौर कहा है । दिल्ली इसका शक्ति केन्द्र है । बहररहाल , नवनीत की यह कविता मुझे नागार्जुन के तीखे व्यंग्य की याद ताज़ा करती है । कुलीन अभिरुचि वाले कवि और समीक्षक शायद इसे पसन्द न करें । क्योकि वे इसकी गिरफ्त में आते हैं । इतने साहस से लिखने वाल कवि हिन्दी में विरल होते जा रहे है । इस कवि ने कविता में चमत्कार पैदा करने वाले कवियों का भी विरोध किया है । जादूगर कमाल करते हैं कविता इस बात का साक्ष्य है  । अनेक कवि हैं दृइनमें सुनाम धन्य कवि भी - ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले कवि तक - जो शब्द क्रीड़ा और चमत्कारिक मुहावरे से आजके रिक्त मन मध्य वर्ग का सस्ता मनोरंजन कराते है । कविता चमत्कार से बड़ी नहीं होती । वह बड़ी होती है जीवन के गहन पीड़ाओं की खोज करने पर । नवनीत अपनी धरती अपने लोगों के बीच ही रहना पसन्द करते हैं । कैसे रहूं  कविता में कहा है - 

कैसे रहूं  / तुम्हारे हवाई / आसमानी किलों / आलीशान महलों में  / जिनमें सांसों की आस / हवाओं के रुख पर निर्भर है / अपने लिये तो / मेरी अपनी जमीन ही भली /जो पैर टिकाने को  / जगह तो देती है । 

हमें अपनी धरती अपने बीजों से ही कविता में काम लेना चाहिए। मंगेतू न तो वस्त्र अच्छे । न बीज । इसी को किसी कवि की जातीयता कह सकते हैं । सबके यहां घराने हैं । अर्थात् कवियों ने  निर्लज्ज समझौते करके अपने -अपने गुट बना लिए हैं।  अगर कोई संजीदा समीक्षक कोई ढंग की बात कहता है जो उनके हित में नही तो उस समीक्षक का विरोध करना शुरू कर देते  हैं। मेरे एक वरिष्ठ समीक्षक मित्र ने बड़े दुख से कहा कि जिसकी भी तारीफ न करो वह नाराज हो जाता है । अतः लिखना ही छोड़ता हूं । लेकिन कवि की तरह समीक्षक में भी साहस हो कि वह दबाव में न आए । सबके यहां घराने हैं कविता में इसी निर्लज्ज गुटबन्दी की बात कहते हैं । इसके सीधा सम्बन्ध दरबार की मानसिकता से जुड़ा है - 

सब के यहां घराने हैं 
तुम मुझे दरबार भिजवाते रहना 
मैं तुम्हें दरबार भिजवाता रहूंगा । 

अधिकांश कवियों पर पूंजी बहुत कम होती है । पर लेन-देन के समझौते कर अपनी गोटी फिट करते रहते हैं ं 
ऐसे कवि और उनकी कविता को इतिहास अपनी विशाल झाड़ू से सकेर-बुहार कर एक तरफ कचरे में फैंकता है। 

नवनीत अपनी क्षमता से कवि को जीने के लिए  एक विकल्प भी सुझाते है - 

करेगी पल्लवित मुझे 
और लहलहाऊंगा में भी  
तुम्हारे इस विराट में 
अपने बूते । 

कवि को बहुत  धैर्य है । वह समय की प्रतीक्षा में अडिग है । न वह लेन-देन कर सकता है । न आपा-धापी । 

तुम  जाओ
तलाशो  आराम से 
सम्भावनायें
लेकिन केवल अपने लिए 
मैं जहां हूं
ठीक हूं .........। 

अतः कविता कवि की क्षमता और उसके संघर्ष से जन्मती है । इसी लिए संकलन का नाम बहुत ही सार्थक बन  पड़ा है , ‘जैसे जिनके धनुष’ वैसे ही उनके तीर । जैसा कवि का कद वैसी उसकी कविता । कविता से छल नहीं किया जा सकता ।
नवनीत के संकलन में उनके पूर्व संकलनों  से अधिक विस्तार है । यहां फलक भी बड़ा है विविधता भी प्रीतिकर है।  भाषा में जैसे नई ताकत पैदा हुई हो । मुझे नवनीत से अभी और बड़ी सम्भावना की अपेक्षा है ।

                              
---विजेन्द्र

Thursday, April 16, 2015

समकालीन कविता - आस्था के प्रतिरोध में अनास्था : उमाशंकर सिंह परमार


पिछली पोस्ट में आपने गाथांतर- समकालीन कविता महा विशेषांक खण्ड-1 में प्रकाशित डॉ अजीत प्रियदर्शी का एक आलोचनात्मक लेख पढ़ा! अब इसी कड़ी में समकालीन हिंदी कविता पर इस अंक के अतिथि संपादक और युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार का शोधपरक आलेख आपके समक्ष प्रस्तुत है!




कविता को कालखंडों में  विभाजित करने के अपने खतरे होते है |कविता जिस काल  में लिखी जाती है उस काल की वस्तुस्थिति का आइना बनती है| उसकी एक लम्बी प्रवाहमान धारा बनती है वह धारा निरंतर गतिमान रहते हुए अपने युग को अपनी गति में समाहित कर लेती है| वह जिस भाषा में लिखी जाती है वह भाषा भी एक व्यक्ति या समूह की भाषा नहीं होती वह पूरे युग की भाषा होती है| कवि जिन संस्कारों को युग-बोध का  शब्द देता है वो उसे निजी नहीं रह जाते सार्वभौमिक हो जाते हैं| इसलिए कविता को कालखंडों में यदि बांटा जायेगा तो कई खतरों का सामना करना पड़ेगा अत: युग के सही मूल्यांकन के लिए इन खतरों के प्रति सचेत रहना जरूरी है |समकालीन कविता का मूल्यांकन करते समय हम परंपरा और इतिहास को दरकिनार नहीं कर सकते यदि हम परम्परा को अस्वीकार करेंगे तो समकालीन कविता को हिंदी की जातीय धारा से नहीं जोड़ सकेंगे क्यूंकि कोई भी रचना अचानक नहीं उत्पन्न होती है वो अपने से पूर्व विद्यमान किसी धारा का परिष्कृत प्रारूप होती है| यह परिष्करण समझने के लिए पूर्व परम्पराओं का सचेत मूल्यांकन अनिवार्य हो जाता है| और सच तो ये है की आजादी के बाद कविता का कथ्यात्मक परिदृश्य जितना विविधता पूर्ण रहा उतना शायद किसी अन्य विधा का नहीं इन वर्षों में कविता की टेक्निक और वस्तु में कई परिवर्तन देखे गए |आन्दोलन चले, पाठक भी विभिन्न मनोदशाओं से रूबरू हुए, कवि का व्यवस्था से मोहभंग हुआ, झूंठी राजनीति से विरक्ति का भाव भी देखा गया, मनुष्य की हित चिंता बनी रही और मनुष्य को कविता के केंद्र में रखकर लोकतान्त्रिक मूल्यांकन के नए तर्क गढ़े गए , आज भी  लिखी जा रही कविता के केंद्र में मनुष्य ही है मनुष्यता को बचाते हुए जीवन में नयी ऊष्मा का संचार करना आज की कविता का लक्ष्य बन गया है|

         काव्यबोध तात्कालिक घटनाओं से अनुस्यूत होते हुए भी तुरंत नहीं बदल जाता| कवि की अनुभूति और  विसंगतियों के बीच वैचारिक गठन की लम्बी प्रक्रिया होती है इन बदली हुई स्थितियों की दशाएं अपने समग्र बोध में तात्कालिकता का खंडन कर समकालीनता का विजन तय करती हैं समकालीन कवियों की काव्य अवधारणा कविता और कवि के बीच घटित होने वाले बदलावों से अलग नहीं है बल्कि उसी का प्रतिफल है कवि के अंतस में होने वाला बदलाव कविताओं में स्पष्ट देखा जा सकता है| कविता का समय के साथ जुड़ते जाना ,मनुष्य की नियति से एकाकार होते जाना ,और विभिन्न वर्गों के बीच चल रहे द्वंद को गहरे से रेखांकित करना एवं मनुष्य के हिस्से की यातना को खुद भोगना| समकालीन कविता का मुख्य अभिकथन बन गया है| यह अभिकथन कोई साधारण नहीं है जिसको आसानी से समय और तात्कालिकता के दायरे में कस दिया जाय क्यूंकि व्यक्ति और समाज के आपसी रिश्ते जटिल आवर्तों में लिपटे रहते रहते हैं |ऐसे आवर्तों की अभिव्यक्ति सीधी और आसान नहीं होती है |कवि ऐसी स्थितियों में अपना स्वर स्थिर मापदंडों से पृथक कर लेता है और कविता को स्वतंत्र अस्तित्व देते हुए आधुनिक आयामों से जोड़ देता है अब इसे आप नयी रचना कहिये या समकालीन स्वर दोनों एक ही है| दोनों स्थितियों में कविता अपने को पूर्ववर्ती रचना से पृथक करती है |यही अलगाव युग का बोध होता है युग की आवाज होती है| इस आवाज के अपने राजनैतिक, सांस्कृतिक आयाम होते हैं| अपने स्वप्न होतें है| अपने सृजन होते हैं|

    समकालीन कविता का मुख्य स्वर सुनाने के लिए हमें वर्ष २००० के उपरांत की परिस्थतियों को ध्यान में रखना होगा ऐसा इसलिए की नव उदारवाद ने अपना असली मनुष्यविरोधी रूप २००० के उपरांत ही दिखाया है |इस नयी विश्व व्यवस्था ने अमीरो और गरीबों के बीच गहरी खांई पैदा कर दी है |अमीर और ज्यादा अमीर होता जा रहा है व गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है |मनुष्यता और मानव के बीच दूरी लगातार बढती जा रही है| समस्त मानवीय और लोकतान्त्रिक मूल्य अपना अर्थ खोते जा रहे हैं| उनकी जगह ब्याज, मुनाफा , शोषण , लूट जैसे शब्द नैतिकता के शब्दकोष में समाहित कर दिए गए हैं |नवउदारवाद का प्रभाव भारतीय समाज में दो प्रकार से पड़ा है एक अलगाव के रूप में और दूसरा प्रतिरोध के अंत के रूप में |अलगाव से अकेलापन टूटन ,विघटन, संत्रास ,नैतिक पतन ,आत्महत्या मोहभंग, जैसी स्थितियां सामने आयीं| प्रतिरोध के अंत के लिए विश्व पूँजी ने सत्ता के साथ गठबंधन किया और जनता के बीच ये भ्रम फैलाया गया की जनता का असली हित व्यवस्था के संरक्षण में है |विरोध में नहीं पूंजीवादी सांस्कृतिक भृष्टाचार  ही लोकतंत्र का विकास कहा गया| फलत: नवउदारवाद ही हमारे समय की सामयिक पीड़ा बनकर उभरा और कविता का मुख्य स्वर बना |वैसे भूमंडलीकरण का विरोध इस व्यवस्था के आगमन से ही आरम्भ हो गया था| कवियों और लेखकों में  आरम्भ से ही इस विश्व व्यवस्था को लेकर सुगबुगाहट होने लगी |   इसके नकारात्मक प्रभावों को कविता के अलावा कहानी उपन्यासों में बखूबी दिखाया गया है| लेकिन हाल के वर्षों में ज्यों ज्यों इसके प्रभाव विकराल रूप धारण करते गए त्यों-त्यों प्रतिरोध के स्वर कविता में मुखरित होते गए | वर्ष २०१० के बाद की कविता से तो इसके नकारात्मक प्रभावों का मुकम्मल खाका खीचा जा सकता है| कवि अपनी कविता में खंडित हो चुके स्वप्नों के बीच वर्गीय संतुलन की खोज कर रहा है वह कहीं बेचैन होता है तो कहीं टूटता है कहीं दिलाशा देता है तो कहीं आक्रोश व्यक्त करता है| वह व्यवस्था के पक्ष में खड़े तंत्र से कोई आस्था नहीं रखना चाहता है| समकालीन कविता तंत्र के खिलाफ घोर अनास्था और विश्व पूँजी के खिलाफ प्रतिरोध की कविता है|यह प्रतिरोध एकांगी नहीं है  विविध आयामों को समाहित करता है |कवि सामयिक राजनीति से भी अछूता नहीं है वह राजनीती से अलग नहीं रहना चाहता है समकालीन कविता ने साहित्य और राजनीति के बीच चले आ रही निरपेक्षता का अंत कर दिया है| क्योंकि  कवि भली भांति जनता है की राजनीति आर्थिक कारकों की मुख्य जननी है| और विश्व पूँजी के संरक्षण में राजनीति की अहम् भूमिका है| सत्ता और पूँजी का गठजोड़ लोकतान्त्रिक मूल्यों को फासीवाद की और धकेल रहा है| यह राजनैतिक झटपटाहट शम्भू यादव संतोष चतुर्वेदी हरेप्रकाश उपाध्याय प्रेमनंदन  में स्पष्ट  सुनी जा सकती है| शम्भू यादव का कविता संग्रह नया एक आख्यान भूमंडली कारण के खिलाफ एक मुकम्मल बयान बन गया है | शम्भु का कहना है कि पता लग चुका है की कुछ विदेशी चूहे बिल बना रहें हैं हमारे खेतों में(नया एक आख्यान पृष्ठ ३७) हरेप्रकाश उपाध्याय की कविता अपनी भंगिमा और अनूठे गुम्फन के कारण जमीनी हकीकतों का मुहावरा बन गयी है, उनका कविता संग्रह खिलाडी दोस्त और अन्य कवितायेँ में व्यवस्था के प्रति अनास्था का स्वर बड़ी शिद्दत के साथ उभरा है |संतोष चतुर्वेदी का नया कविता संग्रह दक्खिन  का भी अपना पूरब होता है नवउदारवादी व्यवस्था का खोखलापन उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ता  है| यह संग्रह शहरीकरण अधाधुंध विकास जैसी पूंजीवादी नारों की भी कठोर समीक्षा करता है | संतोष तो नवउदारवाद के बहाने पूरी व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देतें हैं| इस संग्रह  में कवि ने तीव्र आद्द्यौगीकरण  व भूमंडली करण का प्रखर विरोध किया है। पूंजीवादी शक्तियों द्वारा नियंत्रित   विकास मानव सभ्यता के सारे उपांगों  पर जडवत बैठा है। ऐसा कोई पहलू नही है जहां आम आदमी का हित हो सारे विकास का ल{य प्रतिक्रिया वादी बुर्जुवा वर्ग  का हित साधन है। इस संग्रह  की कविता “प्रश्न वाचक चिन्ह” समूची उदारवादी व्यवस्था पर ही प्रश्न –चिन्ह  खडा कर देती है। देखिये “-दुनिया में जितने भी रहस्य उजागर  हुये/ जितने भी भेद खुले/ जितने भी आविष्कार हुये/ जितने भी भंडाफोड हुये/ जितने भी खोजे हुयी अब तक/ सब के पीछे कही न कही रहा अवाक मुंह बाये खडा/ यही प्रश्नवाचक  चिन्ह है”  (दक्खिन का भी अपना पूरब होता है) और  बाजार की अगवानी में जब पलक पांवड़े बिछाए खड़े हैं सत्ता शासक और दलाल (दक्खिन का भी अपना पूरब होता है पृष्ठ ११८) सत्ता के प्रति तीखे आक्रोश का यही स्वर राम जी तिवारी, बुद्धिलाल पाल,और आत्मरंजन ,अच्चुतानन्द मिश्र शिरीष कुमार मौर्य में में भी सुना जा सकता है|

     समकालीन कविता में एक स्वर बेचैनी का भी मिलता है | यह बेचैनी भी वर्गीय वर्चस्ववाद की उपज है| नवउदारवादी नीतियों ने इस बेचैनी को और बढ़ा दिया है| टूटते हुए पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा में असफल व्यक्ति का जीवन, निजी संघर्ष के दायरे से बाहर निकलकर व्यापक सामाजिक आधार ग्रहण कर लेता है | कवि उन सभी कारकों की आलोचना करता है जो इस विघटन के लिए उत्तरदायी हैं | यहाँ कवि की बेचैनी समूची व्यवस्था को लेकर है उस व्यवस्था को लेकर जिसमे मनुष्य घुट रहा है मनुष्यता खंडित हो रही है| बेचैनी का स्वरूप अनास्थापूर्ण ही है ,समकालीन कविता व्यवस्था के पक्ष में खड़े समूचे तंत्र के प्रति अनास्था रखती है   |विजेंद्र , केशव ,निलय उपाध्याय , रामजी तिवारी ,हरेप्रकाश उपाध्याय , जीतेन्द्र श्रीवास्तव , बली सिंह , अविनाश मिश्रा , अंजू शर्मा ,मनीषा जैन, की कविताओं में बेचैनी का घुटन भरा माहौल स्पष्ट देखा जा सकता है  |कमलजीत चैधरी की कविताओं में एक विशिष्ट अंदाज में व्यक्त हुई है|  कुंवर रवीन्द्र, बुद्धिलाल पाल ,मोहन कुमार नागर ,की कवितायेँ अपने अपने अंदाज में बेचैनी का ही विस्तार हैं| यह बेचैनी महिला रचनाकारों में सामंतवादी जड़ताओं के खिलाफ है| मनीषा जैन , सोनी पाण्डेय, मृदुला शुक्ल की कवितायेँ स्त्रीविमर्श के परम्परागत एकांगी दृष्टि का खंडन भी करती हैं |यह जनपक्षीय कविता के लिए शुभ संकेत है | पहलीबार, सिताब दियारा, लोकविमर्श जैसे ब्लॉगों में प्रकाशित हो चुके रवीन्द्र के. दास की कवितायेँ इसी सामयिक बेचैनी का बहुआयामी उदाहरण है | रवीन्द्र की बेचैनी जीवन के विभिन्न कोणों को लेकर अभिव्यक्त हुई है शायद ही कोई ऐसा कवि हो जिसने सामयिक बेचनी को नजरंदाज किया हो |अभी तक मैंने जिस प्रतिबद्ध कवि को पढ़ा है उसमे वर्तमान के प्रति अनास्थापूर्ण बेचैनी ही दिखी है |इस बेचनी के कारण वो सब-कुछ बदल देने के लिए आवाहन भी करता है |वह बेचैनी को ताकत बनाकर बुर्जुवा शक्तियों से लड़ना चाहता है| यह बेचैनी परिवर्तन के खिलाफ नहीं है |परिवर्तन के लिए है |कवि द्वंदों के बीच संतुलन की खोज कर रहा है |विजेंद्र की नयी कवितायेँ संतुलन की खोज को प्रमाणित करती हैं उनका संग्रह बेघर का बना देश संतुलन की खोज का उम्दा उदाहरण है |विजेंद्र तो संतुलन की खोज में नवउदारवादी नीतियों और आम आदमी की वस्तुस्थिति का सीधा सम्बन्ध जोड़ देतें हैं संसद में बढ़ी विकास दर की घोसणा और आत्महत्या करने वाले किसानों में क्या  रिश्ता है” बनते मिटते पाँव रेत में पृष्ठ ३४) | सत्ता और पूँजी का यही रिश्ता जब लोकतान्त्रिक मूल्य बनकर एक अकाट्य तर्क के रूप में प्रस्तुत होता है तो जनपक्षीय कवि का आक्रोशित होना वाजिब ही है | 

   इधर कई संग्रहों में यही बेचैनी आक्रोश के रूप में दिखाई देती है | सामान्य रूप से भी बेचैनी व अनास्था के वातावरण में आक्रोश का जन्म होना कोई नयी बात नहीं है| यदि जड़ता की टूटन नहीं होगी तो कविता पलायनवाद का शिकार हो सकती है| समकालीन कविता इस दोष से रहित है आज का कवि यथास्थितिवाद को अस्वीकार करता है जितनी बेचैनी वह परिवेश के प्रति रखता है उतनी ही बेचैनी जड़ता के टूटन के प्रति भी रखता है |यही कारण है की कवि समकालीन बिखराव को सजग ढंग से देखता है और उसके खिलाफ आवाज भी उठाता है| कहीं जनतंत्र के खोखलेपन के विरुद्ध आवाज है तो कहीं सामाजिक कुरूपताओं के प्रति| तो कहीं वर्गीय उत्पीडन के विरुद्ध सर्वहारा की आक्रोशपूर्ण रणनीति है |कहीं कवि युद्धक मुद्रा में है तो कहीं कविता जूझ रही है| आज की कविता केवल आज की कविता है ,न कल की न भूतकाल की, बिलकुल इसी क्षण की कविता है| स्वाधीन भारत में भोगी गयीं यातनाओं का आम आदमी के द्वारा प्रस्तुत हलफनामा है| हरीशचंद्र  पाण्डेय , विजेंद्र, शम्भू यादव, केशव ,महेश पुनेठा रामजी तिवारी ,जितेन्द्र श्रीवास्तव ,हरेप्रकाश उपाध्याय , अविनाश मिश्र, कुंवर रवीन्द्र, रतीनाथ योगेश्वर, की कविताओं में आक्रोश की रेखाओं को स्पष्ट पहचाना जा सकता है| संतोष और शम्भू में तो यह आक्रोश ध्वंस के स्तर पर पहुँच गया है| विजेंद्र में खुले आम क्रांति का आवाहन है तो निलय उपाध्याय अपनी जमीन और संस्कृति के लिए नवउदारवाद से टकराने को तैयार हैं | कमलजीत चैधरी , बली सिंह  ,आत्म्रंजन ,अच्च्युता नन्द मिश्र  की कवितायेँ विसंगतियों के विरुद्ध आक्रोश का ही सृजन करती हैं |आत्म रंजन तो मरे हुए आदमी में भी आक्रोश खोज  लेते हैं उनका कहना है की चीखता है जब भी मरा  हुआ आदमी/ जीवित   से हो जाता है/ज्यादा ताकतवर  (पगडंडियाँ गवाह हैं पृष्ठ ३३) महिला रचनाकारों में यह आक्रोश और भी तीखा है उनका आक्रोश पुरुषप्रधान समाज की वर्जनाओं के विरुद्ध है वर्जनाओं को तोड़ने की झटपटाहट और सामन्ती पारिवारिक ढांचे की आलोचना इन कविताओं में देखा जा सकता है |एक स्त्री द्वारा समानता और स्वतंत्रता जैसी लोकतान्त्रिक अधिकारों की मांग करना और वर्चस्ववादी समाज द्वारा उसे मर्यादा का हनन कहना यही इस आक्रोश का मूल कारण है | सम्पूर्ण व्यवस्था में काबिज  पुरषों का सामन्ती वर्चस्व भला कैसे स्वीकार करेगा की स्त्री को भी लोकतान्त्रिक अधिकारों की जरुरत  है यही कारण है की लैंगिक समानता के तमाम आदर्शवादी नारों की सार्थकता हकीकत में कुछ नहीं है |सारे आदर्श पुरुष एकाधिकार में बदल जाते हैं  |जब हक नहीं तो हक की मांग उठना स्वाभाविक है  |आज का महिला लेखन केवल अपने वजूद का मालिकाना हक  मांगकर संतुष्ट नहीं है वह सामंती परम्पराओं की जकडन से  खुद को मुक्त भी करना चाहती है |वह अपने  जीवन अपनी आजादी के लिए पुरुष   वर्चस्ववाद से दो-दो हाथ करने को तैयार है|अंजू शर्मा , वसुंधरा पाण्डेय की कवितायें इसी मालिकाना हक की पीठिका हैं|  लीना मल्होत्रा, शैलजा पाठक की कविताओं में अपने अपने तरीके से वर्जनाओं की टूटन ही है, वंदना देव शुक्ल ने यह कहकर स्त्री की जगह अजीबोगरीब शब्द लिख जाती हूँ” यह उनका निजी बयान नहीं है अपितु समाज पर एक तीखा प्रहार है परिवेश की हत्यारी परम्पराओं पर सीधे चोट है पूंजीवादी समाजों में स्त्री की दुर्दाशा का संकेत है| वंदना की कवितायें सपाट हैं कोई उलझाव नहीं है यही कारण है की उनमे बेचैनी और आक्रोश और भी स्पष्ट हो जाता है अलका सिंह में भी यही बेचैनी देखी जा सकती है | अलका की कवितायें पूंजीवादी वर्चस्ववाद को पुरुष सत्ता शक्ति से जोड़कर देखती हैं अतः उनमे आक्रोश का विध्वंसक पक्ष अधिक मुखर है | पुरुषों की दुनिया का हाँ की हर आँख में नाखून दीखते हैं “(अलका सिंह)एक स्त्री द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी कविता में आक्रोश का इससे बेहतर उदाहरण कहाँ मिलेगा लेकिन ध्यान रहे यह प्रतिकार हवा में नहीं है| जमीनी है | माध्यम वर्गीय  पारिवारिक जड़ताओं का देखा समझा स्वरूप है | यह आक्रोश अंजू शर्मा, सोनी पाण्डेय, मृदुला शुक्ल, मनीषा जैन,वसुंधरा पाण्डेय,में इसी पृष्ठभूमि से जुडा है |स्त्री-विमर्श सम्बन्धी कविताओं में आक्रोश का स्वरूप ध्वंसात्मक  है लेकिन जब वो अलगाव का शिकार होती है या अपनी पारिवारिक सीमाओं को समेटकर जीने की लालसा व्यक्त करती है तो एक अलग रोमांटिक भंगिमा के साथ कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति करती है अंजू शर्मा और सोनी पाण्डेय की कविताओं में इस भंगिमा को देखा जा सकता है| मृदुला शुक्ल(उम्मीदों के पाँव भारी  हैं) की कवितायेँ ध्वंस और सृजन के बीच का मार्ग खोज रही हैं | आक्रोश के सम्बन्ध में विशेष बात यह रही की नवउदारवादी कुप्रभाव ज्यों ज्यों हमारी व्यवस्था में काबिज होते गए त्यों त्यों कविता भी बुनियादी तौर पर यथातथ्यवाद  से ऊपर उठती गयी  | रचनाकार अच्छी तरह समझता है की कविता अखबार का कालम नहीं है कुछ और है आक्रोश और गुस्से में सृजन की संभावनाएं तभी हो सकती है जब जमीनी तौर पर व्यापक बदलाव किये जाएँ यह काम जल्दबाजी में संभव नहीं है इसके लिए ठहराव जरूरी है |इसलिए समकालीन कवि अपने आक्रोश को सकारात्मक आधार देने के लिए सचेष्ट वर्गचेतन परिवर्तन की बात भी करता है | महिला रचनाकारों ने सचेष्ट वर्ग-परिवर्तन की बात तो नहीं की लेकिन उन्होंने स्त्री को ही एक वर्ग के स्वरूप में जरूर देखा है और पुरुष सत्ता के विरुद्ध (न की पुरुष के विरुद्ध) व्यापक बदलाव की मांग करती हैं | इस बदलाव के लिए उनकी अपनी अपनी टेक्निक है जैसे शैलजा पाठक भावुक मूर्तन  के द्वारा वही कहना चाहती है जो भावना मिश्रा अमूर्तन द्वारा दोनों की कविताओं में मूर्तन और अमूर्तन का प्रगतिशील पक्ष देखा जा सकता है जहां तथ्यवाद से अलग हटकर आक्रोश को एक अपील के खांचे में फिट कर दिया गया है | स्त्री की वर्ग चेतना का सबसे मुखर स्वर सोनी पाण्डेय और मृदुला शुक्ल में मिलता है | मृदुला ने तो यहाँ तक कह दिया है मैं एक मरा हुआ आदमी हूँ /मरे हुए आदमी की दुनियां हमेशा बेहतर होती है/ जिन्दा लोगों की दुनिया से/ यह विमुक्ति चेतना की पराकाष्ठा है सोनी पांडेय की स्त्री विषयक कवितायेँ जनवादी चेतना संवलित एक लोकधर्मी दृष्टि का खूबसूरत उदाहरण है । ये कवितायेँ अब तक के बयानों के आलोक में सबसे अलहदा बयान लेकर उपस्थित होंती हैं। इन कविताओ में कही भी “देह भाषा देह विमर्स जैसी एकांगी संकल्पनाओं के दर्शन नहीं होते स्त्री की समस्त पीडाओं का मूल उसकी वर्ग स्थिति में खोजा गया है।जैसे देखिये हर रोज की घटनाओं का एक प्रतिबिम्ब चैराहे पर पान/ की पीच की तरह/ थूकी और निगली जाती है/ औरत की आबरू” (सोनी पाण्डेय )  |यह एक प्रकार का अस्वीकार है समाज के प्रति  |व्यक्ति के प्रति ,बंधनों के खिलाफ ,| 

अस्वीकार का सबसे चेतन स्वर अंजू शर्मा में मिलता है वो तो एक शिरे से वर्जनाओं को नकार रहीं हैं अंजू शर्मा की बेबाकी मुझे बहुत प्रिय है व्यक्ति केन्द्रित होने वावजूद भी व्यापक सामाजिक पृष्ठभूमि का स्पर्श करती है अंजू ने अपनी कविताओं में स्त्री से जुडी पुरुष समाज की हर एक मूल्यहीनता की ओर ध्यान खींचा है और उनसे मुक्त होने के लिए अस्वीकार का एक मुकम्मल स्वर भी है मैं नकारती हूँ /उस विवशता को जहां सदियाँ गुजर जाती हैं /एक राम की प्रतीक्षा में” (अंजू शर्मा)| इन सबसे अलग एक स्त्री और है जिसे हम सच्चे अर्थों में आधी - आबादी कह सकते हैं  |वह है गाँव की मेहनत-कश नारी | खेतों में दिन भर पसीना बहाने वाली नारी साहूकार के ताने सुनकर पेट भरने  |वाली नारी मिटटी खोदकर घर बनाने वाली नारी  जिसे न तो आधुनिक स्त्री विमर्श की कोई खबर है न ही उसके अन्दर क्रांति की कोई चेतना है | वो पारिवारिक दायरे में रहकर ही अपने अधिकारों का चिंतन करना जानती है |यह नारी पुरुष समाज से ज्यादा वैयक्तिक पूँजी से  त्रस्त है | ऐसी स्त्री के चित्र मनीषा जैन और सोनी पाण्डेय में खूब मिलते है इस प्रकार के लोकधर्मी जनपक्षीय स्त्री विमर्श की आज महती आवश्यकता है जब तक गाँव की नारी सामंती शोषण के दायरे  मुक्त नहीं हो सकती तब तक हम पुरुष सत्ता से विमुक्ति की कामना नहीं कर सकते हैं मनीषा जैन ने ग्रामीण नारी  के यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत करने में बड़ी सफलता हासिल की है आज का महिला लेखन  पूंजीवादी सडांध से उपजी घृणा और वेदना का मुकम्मल विमर्श हैं। आज की नारी इस जडवत पूंजीवादी साजिस से दो दो हाथ करने को तैयार है। समकालीन कविताओं में बड़ी खासियत है की वो केवल परिवेश का विवेचन करके ही संतुष्ट नहीं होती वह अपनी पूरी ताकत के साथ पुरुष वादी मानसिकता के दायरे से बहार आना चाहती है। अपने अधिकारों को छीनना चाहती है |  यही क्रांतिकारी विमर्श  पम्परागत स्त्री विमर्श से सबको  अलहदा कर देता है। स्वाभाविक है की जिस दिन स्त्री क्रांति चेतस हो गयी उस दिन वह अपने बंधनों और वर्जनाओं को अपने हाथ से ही तोड़ देगी वर्चस्ववादी शक्तियाँ नहीं चाहती की स्त्री क्रांति चेतस हो इसिलिये वो तमाम उपागमों के सहारे साजिशों के सहारे स्त्री को वर्जनाओं की कैद में रखने का प्रयास करता है।

 विश्व-पूँजी के हस्तक्षेप से कस्बों, और गांवों में भी बुनियादी परिवर्तन हुए हैं| कस्बे शहर बने जा रहें हैं और गांव आर्थिक साम्राज्यवाद की सबसे छोटी इकाई बनकर रह गएँ है| गांव के हस्तशिल्प और कृषि आधारित व्यवसायों पर इस नयी व्यवस्था का बुरा असर पड़ा है छोटे उद्योग नष्ट हो चुके हैं किसान कर्ज के जल में उलझ चूका है| वह आत्महत्या कर रहा है |जंगल काटकर कारखाने लगाये जा रहे हैं बेरोजगारी इतनी बढ़ गयी है की गांव के गांव खाली होकर मजदूरी के लिए शहर पलायन कर रहे हैं| जिस हिंदुस्तान का नक्सा खुशहाल और आत्मनिर्भर गांवों की कहानी कहता था वही गांव अब विकलांग हो चुके हैं | समकालीन कवियों से गाँव की जमीनी सवाल छूटे नहीं है उसने बड़ी शिद्दत के साथ बुनियादी समस्याओं को उठाया है |विजेंद्र, केशव, निलय , महेश पुनेठा, विजय सिंह, बुद्धिलाल पाल,आत्म रंजन, संतोष चतुर्वेदी, रामजी तिवारी,शम्भू यादव ,कमलजीत चैधरी ,जीतेन्द्र श्रीवास्तव,हरीशचंद्र पाण्डेय  की कवितायेँ लोक संवेदी चेतना को लेकर अपना अलहदा बयान रखती हैं ,विजेंद्र की लम्बी कवितायेँ गांवों के बनते बिगड़ते रिश्तों को लेकर गांवों की आत्मकथा बन गयीं हैं | हरीश चन्द्र पाण्डेय का कविता संग्रह कुछ भी मिथ्या नहीं भूमिकाएं खत्म नहीं होतीं कविता संग्रह आम आदमी के जीवन को रूपायित करने वाले जमीनी दस्तावेज हैं | केशव का अभी हाल में प्रकाशित कविता संग्रह तो काहे का मैं लोकसंस्कृति, लोकवेदना, का लोकधर्मी बयान है गाँव की स्वाभाविक ,सहज संस्कृतिक  सौन्दर्य को लील रही व्यवस्था पर टीका करते हुए केशव पूंजीवादी मूल्यों पर तंज भी कसते हैं  हैं उनका कहना है की मेरा सौन्दर्य-बोध/ मेंरी जेब में पड़ा पैसा/ तय करता है(तो काहे का मैं पृष्ठ २६)   |निलय उपाध्याय के कविता संग्रह अकेला घर हुसैन का और कटौती लोकधर्मी परंपरा का खूबसूरत निर्वहन हैं |निलय की कविताओं का आधार इतिहास ,भूगोल, और लोकधर्मी परम्पराओं की प्रगतिशील पक्षधरता है | इस संग्रह में प्रकाशित निलय की कविताओं में महानगरीय लोकविमर्श के साए में मेहनत-कश स्त्रियों  की जिंदगी का क्रूरतम सच देखा जा सकता है यह सच किसी से छिपा नहीं है |नव उदारवादी व्यवस्था ने गाँव के गाँव खत्म कर दिए हैं गांवों में खेती  करके जीवन बसर करने वाले किसान शहरों में मजदूर बन गएँ हैं मुंबई लोकल की ट्रेन में सवार मेहनत- कश नारी का चित्रण व्यवस्था का अमानवीय चेहरा प्रस्तुत करता है  महेश पुनेठा का कविता संग्रह भय अतल में पहाड़ी लोकजीवन और पहाड़ी जनजीवन पर मंडरा रहे खतरों के प्रति आगाह करता है महेश पुनेठा की कवितायेँ बगैर किसी कलात्मक दाँव-पेंच के बड़े सहज ढंग से नवउदारवादी विश्वव्यवस्था की मुखालफत करती  हैं |विजय सिंह अपने खाश अंदाज में अपनी जमीन और अपनी माटी का को लेकर कवितायेँ लिख रहें हैं इनकी कवितायेँ भले ही नवउदारवाद के नकारात्मक पक्ष का आक्रोश-पूर्ण चित्र न उपस्थित करती हों पर आम जन जीवन के किसी पक्ष को इन्होने नकारा नहीं हैं | नित्यानंद गायेन, का कविता संग्रह अपने हिस्से का प्रेम”  एक नए मेकेनिज्म की तलाश है |शम्भू की कविताओं में गांव पूंजीवादी मकडजाल में उलझा घोर विसंगतियों का शिकार है इन समस्यों को लेकर शम्भू पाठक के जेहन में कई सवाल खड़े कर देते हैं |जितेन्द्र श्रीवास्तव की अनभै कथा औरबिलकुल तुम्हारी तरह की कवितायेँ हाशिये पर पड़े मूल्यों के बिखराव की कथा कहतीं हैं उनकी कविता कायांतरण एक देह का बदलाव ही नहीं समूची सभ्यता का बदलाव है |आत्म रंजन का कविता संग्रह पगडंडियाँ गवाह हैंपहाड़ी अंचल में हुए व्यापक आद्यौगीकरण व नवउदारवादी परिवर्तनों के फलस्वरूप संकटग्रस्त मनुष्यता का रचा गया वितान है |रतीनाथ योगेश्वर का कविता संग्रह थैंक्यू मरजीना एक सुगठित  शिल्प एवं   अनोखे अंदाज में भाषाई कारीगरी से चमत्कृत नवउदारवाद का प्रतिरोध गान है| बली सिंह मिथक और यथार्थ दोनों के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं |दोनों शैल्पिक खांचे में वो जमीनी संवेदना ही लेकर चलते हैं इस नयी विश्व –व्यवस्था में कामगार ,मजदूरों, शोषितों, वंचितों के वस्तुपरक हालात का उन्होंने बखूबी जायजा लिया है |बली सिंह की कविता “बेटी चुप बैठी है” (अष्टाक्षर पृष्ठ ८८) इस मायने में एक बेहतर कविता है जिसमे नवउदारवादी व्यवस्था में शोषित जन की उपस्थिति दिखाई गयी है | शिरीष कुमार मौर्या की कवितायेँ कल्पित सामंती आदर्शों में यथार्थ का प्रहार है|यहाँ टूटन भी है , बिखराव भी है ,प्रतिरोध भी है ,| 

   आज की कविता में व्यवस्था के खिलाफ अनास्था का स्वर आज के कवि की सजगता है |तकनीकी अविष्कारों ने उत्पादन  बढाया है बाजार भी विश्वव्यापी कर दिया है |लेकिन मनुष्य को मनुष्यता से रहित कर दिया है |आर्थिक कारकों को तकनीकी के भरोसे छोड़ देने का ही ये प्रतिफल है की आज मनुष्य इंसान की जगह उपभोक्ता बन चूका है| हर्बर्ट मार्क्यूज ने कहा है की उपभोक्तावाद मनुष्य के अनंत आयामों को निगल जाने के लिए काफी है कीन्स ने बहुत पहले उपभोक्तावाद से आगाह कर दिया था |समृद्ध समाजों द्वारा उत्पादित वस्तु का व्यापार ही लोकतंत्र की रीढ़ बन जाती है| यह संस्कृति क्रांति चेतना का नाश करती है| और मानव सुख साधनों का गुलाम होकर वर्गीय पीड़ा को भूल जाता है मानवीय संस्कृति के इस पाशवीकारण के पीछे उत्तर आधुनिकतावादी चिंतन का हाथ है | यह चिंतन यूरोप के लूट-तंत्र के औचित्य  को साबित करने के लिए गढ़ा गया है | इस चिंतन ने पूँजीवाद साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, को पोषित करने वाला दर्शन है इसी दर्शन का नतीजा है की हमारे देश की सरकारों ने  व्यापक जनहित को ताक में रखकर विश्व पूँजी के जाल  में फसाकर हर व्यक्ति को उपभोक्ता बना दिया है| प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक के आलेख “नवउदारवाद और सांप्रदायिक फासीवाद” (साझा संस्कृति संगम इलाहबाद २००१४ के दस्तावेजो में संकलित )  में नवउदारवादी अर्थ् नीतियों के भयावह परिणाम पढ़े जा सकते हैं| इस बाज़ारवाद का एक चित्र आत्म रंजन  के यहाँ देखिये जिससे बाजार के प्रति कवियों में व्याप्त चिंता को समझा जा सकता है | उनकी कविताओं में बाजार के विरूद्ध  सात्विक आक्रोरिलक्षित  होता है वो बार - बार स्मार्ट जाब व स्मार्ट मनी का जिक्र करके बाजार वादी व्यवस्था में उत्पन्न नये मजदूर वर्ग  पर व्यंग  कसते हैं उनकी कविता “इस बाजार समय में “ में बाजारवाद का पूरा सच सामने रख देते हैं –“चमक का कमाल है सारा/चमक की व्यख्या का/ कमाल ही कमाल/ इस समय बाजार में/ सब लाजावाब चकाचक झकाझक “(पगडंडियाँ गवाह हैं )यहां चमक का आय है उपभोक्ता को उत्पाद की ओर आकर्षित करने के लिये थोथे दावों से युक्त विज्ञापन। यही चमक उत्पाद बेचती है उपभोक्ता तय करती है उत्पाद का लाभ तय करती है। इस नवउदारवाद ने सबसे ज्यादा किसानों को लूटा है स्वाभाविक है किसानों को लेकर व्यवस्था के प्रति कवियों में आक्रोश  होगा  और किसानो के बहाने व्यवस्था पर  प्रहार भी होंगें किसानो को लेकर कुछ कवियों ने उम्दा प्रतिरोध मूलक कवितायें लिखी हैं हरीश्चंद्र पाण्डेय  प्रतिरोध को बुनियादी जीवन सन्दर्भो से जोड कर देखते हैं।  हरी जी अपने चारो ओर व्याप्त भ्रष्टाचारी  आतंककारी अस्त - व्यस्त परिवेश  को कचोटते हुये मुखर प्रतिरोध का सृजन करते हैं। प्रतिरोध का स्वर उनकी कविताओं में इस हद तक मुखर है कि उनकी कवितायेां वर्गीय  चेतना से संविलित आम जन का आत्म कथ्य प्रतीत होती हैं। समस्त सामाजिक, राजनैतिक परिपाटियों की परमपरात मूर्त जडता को तार तार करते हुये सम्भावित खतरो का स्पष्ट  संकेत कर देते हैं। किसान और आत्महत्या कविता में किसानो की आत्महत्या को हत्या कहकर सम्पूर्ण  व्यवस्था को मुजरिम के कटघरे में खडा करके नवउदारवादी नीतियों का काला चिठ्ठा खोल कर रख देते हैं।  कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना /और दुर्नीति को नीति  (किसान और आत्महत्या)किसानो की दुर्दशा  का क वेदनामय बिम्ब महेचन्द्र पुनेठा की कविताओं में मिलता है। महे पुनेठा लोक धर्मिता के कवि हैं। उनकी कवितायें विभिन्न भाव-भूमियों का स्पर्श  करती हुयी तमाम दावों व वादो का खोखला पन उजार करती हैं। पहाडी लोक संस्कृति पहाडी जीवन, पहाडी जीवन की जिजीविषा  , दुसाध्य जीवन शैलियां व स्त्री-विमर्श का प्रमाणिक खाका खींचने वाले एक सशक्त  हस्ताक्षर हैं। उनकी कवितायें नवउदारवादी व्यवस्था का प्रतिरोध करती हुयी मानव समुदाय पर इसके बहुआयामी प्रभावो का खौफनाक मंजर उपस्थित करती हैं। इनकी कवितयों विकास और प्रकृति के द्वन्द से भी प्रभावित हैं। उत्तराखंड  की पहाडी वादियों में तथाकथित विकास का विनाश पूर्ण चेहरा   महे पुनेठा की कविताओं में स्पष्ट  देखा जा सकता है।  उनको बाजार वादी हथकन्डों की पहचान बहुखूबी है वे जानते हैं कि किसान की रीबी का कारण सरकार दवारा दिया या कुर्तक नही कुछ और है। रीबी के इसी पूंजीवादी कुर्तक का खंडन  वो अपनी कविता निर्धनता का कारण और अकर्मण्यता में करते हैंखेतो में सडता आलू /बीज खाद का उधार /सिर चढा जोग्या के/ कौन सा कर्म करे कौन सा उपाय/ उतार सके उधार/ गरीबी का कारण अकर्मण्यता   को बताते हो तुम/ कैसे विश्वास किया जाये तुम्हारे इस तर्क पर | अकाल और आभाव की दोहरी मार से त्रस्त  बुन्देली किसानो का जीवन भली-भांति परखने वाले केशव ने  किसान की दुर्दशा का चित्र   इस प्रकार खींचा है कि वो  समूची वितरण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खडा कर देता है। क ओर उत्पादन के लिये किसान दिन रात परिश्रम कर रहा है और दूसरी ओर काला बाजारी और मुनाफाखोरी के लिये पूंजीपति सरकारो के साथ सांठ-गाँठ  करके किसानो के मुंह का निवाला छीन रहे हैं। तीव्र अपराध बोध का भाव उत्पन्न करती केशव  की यह कविता देखिये –मैं उनको ही जानता हूँ/ जो  इन खेतो के साथ - साथ जा  रहे हैं /और उनको भी जो लगातार सडते हुये आनाज पर गलत बयानी करते जा रहे हैं।“ (तो काहे का मैं )”खेत जगाये   जा रहे हैं कविता का यह अंश  सुविधा भोगियों द्वारा  अपहत व्यवस्था का खूबसूरत उदाहरन है | लोक और किसानो की चर्चा हो विजेंद्र को रेखांकित न किया जाय तो वह चर्चा अधूरी है |विजेंद्र जी आज भी भी उतने ही सक्रिय है जितना पहले हुआ  करते थे उन्होंने समय और परिस्थिति  के अनुसार खुद को परिवर्तित भी किया है उनकी नयी कविताओं में नवउदारवादी पीड़ा को स्पष्ट देखा  जा सकता है उनका नया संग्रह बेघर का बना देश” की कवितायें मानवीय वेदना के साथ-साथ व्यवस्था के वर्गीय चरित्र के विरुद्ध  तीव्र आक्रो का सृजन कर रही है। यह आक्रोश  केवल बद्धिक जुगाली  नही है अपितु व्यवस्था के समक्ष  सामान्य मनुष्य  की उपस्थिति दर्ज कराकर मुक्ति की कामना भी है। विजेन्द्र के आक्रो  को उनकी इस कविता से भली-भाँति परखा जा सकता है। जहाँ पर वे सत्ता के पूँजीवादी चरित्र  का खुलासा करते है।सत्ताधी  खुस होता है/ बटे हु रीबों को  दुःखी देख/ भूखे भेड़ियें, टपकाते है आँसू/ आतडियां चबाने को( पृष्ठ संख्या २३ )इस कविता में केवल सत्ता का मानव विरोधी रवैया ही नही देखा जा रहा है वरन रीबों के दुःख का कारण भी वे बड़े सज ढं से कह जाते है ”बंटे हु रीबों को दुःखी देख अर्थात सत्ताधी के सुख का क कारण रीबों का बंटा होना या असंठित होना भी है। इस असंठन के कारण ही पूँजीवादी क्तियाँ सत्ता तक पहुँचती है, व्यवस्था पर काधिकार करती हैं। कानून और अदालतों को जनता के विरूद्ध  खड़ा करती हैशोषण और अत्याचार की साजिशें  इसी असंठन की कोख से उत्पन्न होती है। विजेन्द्र जी की कवितायें क्रान्तिचेतस हैं आम आदमी की कठिनाईयों और उनमे   निहित अलगाववादी स्वार्थ चेंतना की उन्हें बखूबी पहचान है  वे बार-बार फासीवादी क्तियों से उलझते है ललकारते है टकराते हैं। यह टकराव केवल जमीनी संकट ही नही अभिव्यक्ति के मौलिक खतरों को भी व्यक्त करता है बाजारवाद  मानव इतिहास का सबसे खतरनाक निर्णय है जीवन के मौलिक अधिकारों  को बाधित कर नियति के कुचक्र में फंसाकार मजबूर करने वाली साजिश है अत: विश्व-पूँजी एवं इससे उत्पन्न नई शोषण तकनीक का प्रतिरोध होना आज का लेखकीय सरोकार बन चुका है|   

इस प्रकार समकालीन कविता विभिन्न भावभूमियों में, विभिन्न शिल्पों, शैलियों, में लिखी जा रही है| इतना सभी कुछ होने के वावजूद भी सभी का मूल स्वर एक ही है| मूलस्वर एक होने का मूल कारण है आज का कवि न तो स्वप्न खोजता है न ही स्वप्नों का संसार रचता है वो केवल वर्तमान को जीता है इसी क्षण को जीता है ,वह लड़ता है, टकराता है, हारता है   फिर भी प्रतिरोध के साथ जीता है| वह वर्तमान के प्रति अनास्था तो रखता है| लेकिन समय को नकारता नहीं वह अनास्था के लिए आक्रोश का सृजन करता है और पूंजीवादी, वर्चस्ववादी शक्तियों के खिलाफ खड़े होकर प्रतिरोध की आवाज बुलंद करता है| सही अर्थों में  समकालीन कविता घोर अनास्था और प्रतिरोध की कविता है|          

      मेरा यह अभिमत समूचे समकालीन जगत को मूल्यांकित  करके नहीं दिया गया अपितु उन कवियों और  कविताओं के आधार पर दिया गया है जिन्हें मैं इस संग्रह में सम्मिलित कर रहा हूँ |इसमें संग्रहीत कवियों के समूचे साहित्य को लेकर ही एक सामान्य आइडिया खोजा जा सकता है| हर एक कविता और कवि का स्वर अलग अलग होता है | द्वंदात्मक भौतिकवाद की पृष्ठभूमि में युग-बोध की विवेचना करने पर संभव है की मेरे निष्कर्षों को खोजा सकता है| फिर भी मैं सम्पूर्णता का दावा नहीं करता दावा केवल दृष्टि का कर सकता हूँ और कर रहा हूँ |

  इस संग्रह को कल्पना से निकालकर यथार्थ तक पहुँचाने का सारा उत्तरदायित्व बहन सोनी का है जिन्होंने मुझ आलसी को यह बड़ा काम सौंप कर लगातार सचेत करती रहीं| उनसे यदि कोई कमी रह गयी तो मृदुला बहन ने सही मार्गदर्शन किया | राम जी तिवारी भाई साहब , संतोष चतुर्वेदी , केशव तिवारी भाई साहब ने हमेशा संपर्क बनाए रखा जहाँ भी मैं उलझा उन्होंने ही मुझे सुलझाया | विजेन्द जी को  मैं बार बार प्रणाम करते हुए उनके स्नेह आशीष के प्रति आभार प्रकट करता हूँ| हरेप्रकाश उपाध्याय , महेश पुनेठा , आत्म रंजन, अंजू शर्मा जी ,का भी आभारी हूँ जिन्होंने इस संग्रह को व्यापक बनाने में भरपूर सहयोग दिया , अग्रज, शम्भु यादव ,अच्चुतानंद मिश्र भाई ,अविनाश मिश्र ,हरीश्चन्द्र पांडेय जी ने मेरे एक ही आग्रह पर अपनी रचनाये भेज दी उनका इस  सहयोग पूर्ण रवैये का भी मैं आभारी हूँ | भाई कमलजीत चैधरी ,बुद्धिलाल पाल, रवीन्द्र भाई साहब का भी मैं आभारी हूँ| जिन्होंने मुझे हर स्तर का सहयोग दिया , जितेन्द्र श्रीवास्तव , रवीन्द्र के. दास, रतीनाथ योगेश्वर ,जी का विशेष सहयोग मेरे प्रति रहा उनका भी मैं आभार प्रकट करता हूँ |निलय उपाध्याय जी  अपनी व्यस्तता के बीच समय निकाल कर अक्सर इस अंक बारे में जानकारी लेते रहे और अपने अमूल्य सुझाव देकर मेरा काम भी हल्का कर देते रहे उनको प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता हूँ |साथी विजय सिंह ने भी इस अंक की बराबर खोज खबर रखी मैं उनका भी आभार प्रकट करता हूँ |,अपने मित्र अजीत प्रियदर्शी और आलोचक अमीरचंद्र वैश्य का भी आभारी हूँ जिन्होंने समकालीन कविता की परत -दर परत समीक्षा करके मेरा काम हल्का कर दिया उन सभी कवि मित्रों का भी आभार जिन्होंने अपनी रचनाये भेजकर गाथांतर के इस अंक की सफलता में अपना योगदान दिया |

---उमाशंकर सिंह परमार
    बबेरू जनपद बाँदा