ये उन दिनों की बात है जब दिन कुछ अधिक लम्बे हो चले थे और रातें मानों सिकुड़-सी गईं थीं! उनके बड़े हिस्से पर अब दिन का अख्तियार था! ये उन्हीं गुनगुने दिनों में एक बड़े महानगर की एक अलसाई-सी शाम थी जो धीमे-धीमे चलकर अपने होने का अहसास कराने आई थी! दिन था कि खत्म होने पर नहीं आता था और थका-मांदा सूरज दिन भर गरमी बरसा कर ओवर टाइम से ऊब चुका, अस्तांचल की ओर बढ़ने की तैयारी में था! सुनहरी आसमानी चादर आकाश को अपने रंग में रंगने लगी थी! कुदरत के कुशल चितेरे ने जैसे आसमान के कटोरे में अपना सुनहरे रंग में रंगा ब्रश घोल दिया था! वहीँ आकाश के एक कोने से सुरमई रंग की एक लहर धीमे-धीमे केसरिया चादर पर छा जाने की जुगत थी! फिर कुछ पल और बीते कि सतरंगी आसमान की रंगत कुछ यूँ होती गई, जैसे किसी सुंदर चेहरे पर कजरारी आँखों से बेख्याली में सुरमा फ़ैल गया हो! हिलते पत्तों में सरसराती हवा में शीतलता का हल्का-सा अंश घुलने लगा था और दिन भर तपन में डूबे शहर की सरगोशियाँ बढ़ने लगीं!
उस अलसाई-सी शाम शहर के एक आलीशान मॉल में
"आज बड़ी जल्दी आ गईं आप ?"
एक महीन शांत स्वर ने जैसे धीमे से थपथपाया तो शॉपिंग मॉल के गेट पर खड़ी रेवा ने आवाज़ की दिशा में मुड़कर देखा। सामने मिसेज वशिष्ठ थीं, उसके सामने वाले फ्लैट में रहने वाली गृहिणी, जिनसे कभी उसका कोई संवाद का रिश्ता कायम नहीं हुआ था और जिनके बारे में रेवा केवल दो बातें जानती थी पहली ये कि वे “नालंदा अपार्टमेंट” के सी-थ्री यानि ठीक सामने के फ्लैट में रहती थीं और दूसरी ये कि उनका नाम मिसेज वशिष्ठ था। ये दूसरी जानकारी शायद अनजाने, अनचाहे कानों में पड़ी किसी अन्य महिला की पुकार का नतीजा थी, जो उसी तरह अनजाने, अनचाहे स्मृतियों में दर्ज हो गई थी! ये स्मृतियाँ भी न, कितना कुछ स्टोर कर लेती हैं! जरूरी भी, गैरजरूरी भी! फिर जब तक उनकी एक्सपायरी डेट न आये ढोते रहो! रेवा को लगता था ये गैरजरूरी स्टोरेज जितनी कम हो उतना अच्छा, उतना ही सुकून ज्यादा और तनाव उतना ही कम!
खैर तो एक खास तरह के ठहराव से भरी थी यह आवाज़ जैसे शांत बहता पानी, जिसे कहीं, किसी मुकाम पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं। इस अनजानी आवाज़ का यह प्रश्न रेवा के लिए अप्रत्याशित था। लगभग तीन महीने हुए रेवा को नालंदा अपार्टमेंट में शिफ्ट हुए पर अपनी निजी जिंदगी में ताकझाँक उसे जरा भी पसंद नहीं थी। दिल्ली में बिताए पिछले बारह सालों में कितनी तरह के अच्छे-बुरे, खट्टे-मीठे अनुभव उसकी पोटली में समा चुके थे। एक वक़्त वह भी था जब वह इस अजनबी शहर में दोस्त ढूंढती थी, रिश्ते तलाशती थी, अपनेपन की खोज में पागलों की तरह भटकती थी, पर आज उसे अपने एकांत, अपनी निजता से बेपनाह मुहब्बत हो चली थी! कल के जिन अनुभवों से गुज़रकर उसने अपने आज को पाया था उन्होंने उसकी सोच को खासा प्रभावित किया था और व्यवहार को भी! फिर करियर पर जैसे-जैसे पकड़ मजबूत होती गई, पांव जमते गये और इन दिनों जीवन में किसी के दखल का हल्का-सा भी संकेत उसकी छठी इन्द्रिय को सचेत कर देता! अपने खोल में कछुए की मानिंद सिमट जाती रेवा! और खोल की पीठ पर ‘डू नॉट डिस्टर्ब’ का टैग बेसाख्ता लहराने लगता!
उस शांत बहते पानी के ठीक विपरीत रेवा भास्कर, अल्हड, चंचल, मदमस्त पहाड़ी नदी, अपनी जिंदगी अपने तरह से जीने के अपने सपने को पूरी तरह साकार कर चुकी थी! इस अलग-थलग पर मस्त जिंदगी का कंफ़र्ट भला रेवा कैसे गंवा सकती थी। ओह नो, पिछले फ्लैट की पड़ोसी फैमिली की झिक-झिक चिक-चिक और अनावश्यक दखलंदाजी से ही तो रेवा को वो अच्छा-खासा फ्लैट छोड़ना पड़ा था। यहाँ नालंदा अपार्टमेंट में ऐसी कोई टेंशन नहीं थी! फिर आज, मिसेस वशिष्ठ का यूँ टोकना, इस तरह? न बाबा न, अब अपनी लाइफ में और झिक झिक की उसे बिल्कुल जरूरत नहीं थी! कितने ही खट्टे-मीठे, कडवे-तीते अनुभव उसकी स्मृतियों में एक साथ लहरा गये!
"हाँ। ......"रेवा ने पीछा छुड़ाने की कोशिश में मुंह पर एक सख्ती का आवरण ओढ़ते हुए टका-सा जवाब सरकाया।
"मैं.... स्वरा वशिष्ठ, आपके ठीक सामने वाले फ्लैट में रहती हूँ।" मुस्कुराते हुए चेहरे की ठहरी हुई आवाज़ मे तैरते परिचय के एक अनामंत्रित क्षण ने उसे फिर से छुआ।
एक फीकी-सी मुस्कान को अपने चेहरे पर लाने की नाकाम कोशिश ने झुँझला दिया था रेवा को। फिर भी अगर एक मुस्कान से ही पीछा छूट जाए तो? “नॉट बैड...” ये सौदा बुरा नहीं था।
"अजीब चिपकू औरत है, पीछे ही पड़ गई।" रेवा ने सोचते हुए दोनों हाथ उठाकर चैकिंग में महिलाकर्मी की मदद की और आगे बढ़ गई! दोनों ने एक साथ मॉल में प्रवेश किया था! रेवा ने ट्रॉली ली और जल्दी से वुमन सेक्शन की ओर बढ़ गई। पिछले कई दिनों से इतनी बिज़ी थी कि बाज़ार आना नहीं हो पाया और आज भी ज्यादा समय नहीं था उसके पास! काफी कुछ निपटा देना चाहती थी इस एक घंटे में रेवा! इधर स्वरा बर्तन वाले सेक्शन की बढ़ते हुए क्रॉकरी चेक करने लगी। कोई आधे घंटे के बाद रेवा बिलिंग काउंटर पर थी।
तभी मोबाइल बजा उसका ध्यान बंट गया। अमन का फोन था वो फ्लैट पर पहुँचने ही वाला था।
"कमिंग बेबी!!!!" बिल लेते हुए फोन बंद किया, बिल चेक किया तो बस इसी एक मिनट के वक्फे के दौरान गलती से वहीं काउंटर पर रखा एक कॉफी मग का सेट भी बिल में शामिल हो चुका था, जिसे शायद पिछले ग्राहक ने बिल ज्यादा होने पर वहाँ छोड़ दिया होगा।
"ओ एम जी!! हेलो, लुक वॉट हैव यू डन, मेरे सामान में ये मग्स नहीं थे।" रेवा ने शॉपिंग बैग खोलकर मग्स दिखाते हुए थोड़ा गुस्से से कहा और वो सेट वहीं काउंटर पर पटक दिया।
"ओह, सॉरी मैम, अब तो बिल में शामिल हो गया हैं। मैं नया हूँ। एक काम कीजिये..... आ-आ-आप प्लीज़ कस्टमर केयर सेंटर पर जाकर इसे वापस कर दीजिये। " लगभग हकलाते हुए बिलिंग करने वाले लड़के ने कहा! रेवा इतनी झल्लाई थी कि उस लड़के के चेहरे पर अनुनय और असमंजस के मिले जुले भावों का रेवा की खीज पर कोई असर नहीं हुआ!
"नया हूँ का मतलब??? अरे मेरे पास इतना टाइम नहीं है। आप खुद कीजिये, आइ एम गेटिंग लेट।" मोबाइल देखते और झुँझलाते हुए रेवा ने फिर से गुस्सा जताया।
"उफ़्फ़, क्या मुसीबत है? आज आना क्या जरूरी था! पता था, अमन आ रहा है, फिर भी आ गई?" रेवा ने खुद से झुंझलाते हुए कहा!
"ले लीजिये, बहुत प्यारे मग है! मुझे बिल्कुल ऐसे ही, लाइम कलर के, सेम डिज़ाइन वाले चाहिए थे पर मिले नहीं। आप बिलिंग करा लीजिए, मैं आपको पे कर दूँगी।" रेवा ने आवाज़ की दिशा में पीछे मुड़कर देखा तो मग्स के पैकेट को निहारती स्वरा वशिष्ठ उसकी परेशानी का हल लिए सामने खड़ी थी।
रेवा को जल्दी नहीं होती तो वह मॉल के बिलिंग कर्मचारियों की ईंट से ईंट बजा देती पर अभी स्वरा का ऑफर कबूलने में ही समझदारी थी। फ्लैट पर ताला लगा था और अमन अभी पहुंच भी गया होगा। मजबूरन सहमति में सिर हिलाते हुए रेवा ने बिलिंग कराई और बेचैनी से बार-बार मोबाइल देखते हुए वहीँ साइड में खड़े होकर स्वरा का इंतज़ार करने लगी।
"आप जल्दी में हैं! जाइये, मैं बाद में ले लूँगी।" स्वरा के इस वाक्य के साथ मिली आश्वस्ति ने होले से रेवा के चेहरे पर खींची तनाव की लकीरों को कुछ हल्का कर दिया था।
"ओके, थैंक्स डियर! सी यू लेटर!" कहकर वह तीर की तरह गेट की ओर भागी हालांकि हाथ के सामान ने गति पर अवरोध लगा दिया। गेट पर बिल पंच कराया और जल्दी से बाहर निकल गई! घर कुछ ही दूरी पर था! कोई और दिन होता तो आराम से टहलते हुए घर जाती पर आज जल्दी थी और सामान भी अच्छा खासा था तो रेवा ने पास से गुज़रते रिक्शे को आवाज़ दे दी!
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देर रात.... टेबल पर रखी खाली बोतल, दो खाली गिलास, खाने की जूठी प्लेटें, बिस्तर की सलवटें और सिगरेट के धुएं के साथ पूरे कमरे में सुवासित मदमाती उसकी प्रिय पुरुष-गंध.... ये सब ख़ामोशी से बीते लम्हों की कहानी कह रहे थे! उस तूफ़ान की कहानी जो कुछ देर पहले ही इस कमरे से होकर गुज़रा था! अमन जा चुका था! अपनी संतृप्त देह से फूटती उस गंध को महसूसती रेवा ने एक बार खुद को अपनी ही बाँहों में कसकर, सहलाया तो चेहरे पर धीमी से मुस्कान आ गयी! अलसाया जिस्म आराम चाहता था! सब समेटना था पर बिस्तर से उठने का मन न किया तो चादर खींचकर ऊपर की और अधलेटे ही उसने साइड टेबल पर रखे डीवीडी प्लेयर पर धीमे स्वर में राग दरबारी की एक धुन लगा दी, एक सिगरेट जलाई और टेबल की ड्राअर से डायरी निकालकर धुआँ उड़ाते-उड़ाते लिखा....
उस मदहोश रात को रेवा की डायरी में
“यह मायने नहीं रखता कि हमारे पास कितना है, यह मायने रखता है कि हम कितना एन्जॉय करते हैं, यही हमें खुशहाल बनाता है!” -- चार्ल्स स्पुर्गेओन
“तुम्हारे करीब होना जीवन के करीब होना है,
खुशियों के करीब,
चरम के करीब
सच कहूँ तो अपने बेहद करीब।
चाहत है, जिंदगी है, सुकून है
अगर तुम हो!
---रेवा”
जिंदगी के दूसरे पहलू के बारे में सोचते हुए उसे मिसेज वशिष्ठ की याद हो आईं!
“हम्म.....स्वराssss वशिष्ठ..... शायद यही नाम बताया था।“ एक लम्बा कश खींचते हुए रेवा ने सोच रही थी!
“पूरा दिन फॅमिली, बच्चे, घर, किचन, किच-किच, किच-किच..... आई मीन साली क्या लाइफ है। पितृसत्ता के हाथों की कठपुतली बनना कब छोड़ेंगी ये मूर्ख औरतें। तरस आता है इन पर। इतने धुआंधार लेख लिखती हूँ इन मूढ़मगज औरतों के लिए और ये नासमझ उसे पढ़ती तक नहीं। जानती हूँ, इनकी दुनिया में शब्द बच्चों के होमवर्क की जद से निकलकर बमुश्किल 'गृहआभा' तक ही चहलकदमी में पस्त हो जाते होंगे। जस्ट हैल... पता नहीं लोग ऐसे कैसे जी लेते हैं?“ सिगरेट फूंकते हुए रेवा खुद से ही बडबडा उठी! सिगरेट के धुंए की कड़वाहट होठों पर ही नहीं उसके जेहन पर भी उतरते हुए अब पूरे कमरे में अपने पाँव पसार चुकी थी!
“न बाबा न, ना तो मैं ऐसे जी सकती हूँ और न ही दूसरों को अपनी लाइफ का रिमोट कण्ट्रोल दे सकती हूँ! ये करो, वो मत करो, साली मेरी लाइफ है, मेरी मर्ज़ी इसे कैसे भी जियूं। रेवा को कोई डोमिनेट नहीं कर सकता। दिस इस नॉट रेवा'ज कप ऑफ टी। इस स्वरा वशिष्ठ से थोड़ा संभल कर रहना होगा रेवा डार्लिंग!!! वैसे तो स्वीट सी है पर बड़ी चिपकू टाइप्स है। पता नहीं कब मेरे घर में, फिर मेरी जिंदगी में घुसपैठ कर ले। फिर शुरू हो जाएगा ये करो, ये मत करो! शादी करो, बच्चे पैदा करो! ओह नो!!!!! आई एम डिटरमाइंड, मेरी प्राइवसी के दायरे में कोई अनवांटेड कैरक्टर एंट्री नहीं कर सकता। छोड़ो मैं भी न क्या ले बैठी! सुबह उठना भी है!”
रेवा ने डायरी में 'आई एम डिटरमाइंड' लिखा और उस पर फिर से पेन चलाकर उसे 'बोल्ड और अंडरलाइन" किया, डायरी बंद करके सिगरेट एशट्रे में मसली और लाइट ऑफ कर दी।
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उधर स्वरा की सोच में दिन कहीं नहीं था। लौटते ही शाम की दिया-बत्ती से लेकर चकरघिन्नी-सी बनी स्वरा की दशा रात डिनर के बाद डायनिंग टेबल और किचन समेटते-समेटते उस पस्त खिलाड़ी की सी हो चुकी थी जो सामने सीमा-रेखा को देखते हुए बस किसी तरह अपनी दौड़ पूरी कर रहा हो। बायोलॉजिकल क्लॉक बार बार कह रही थी कि दिन बीत चुका है, पर रात की तमाम दस्तकों के बावजूद, दिन था कि खत्म होने का नाम नहीं लेता था। सावी के सॉक्स नहीं मिल रहे थे और उसका ब्लैक मार्कर गायब था! सावी का ऑब्जरवेशन कहता था कि इस घर में न, कोई शरारती भूत रहता था जो सब चीज़ें कहीं छुपा देता था! कभी ये नहीं मिल रहा तो कभी वो गायब है! पर दादी को लगता था, उसी घर में एक जादूगरनी भी थी, जो जादू की छड़ी घुमाकर सब ढूंढ लाती थी! बहरहाल सब वहीं था, उसी घर में! सॉक्स स्टडी टेबल के नीचे मिले और मार्कर वहीं ड्रॉअर के कोने में। सब निपटा कर जब तक बेडरूम में आई स्वरा, शिशिर सो चुके थे।
साइड टेबल पर रखे मॉल के बिल ने उलझनों को थोड़ा सा ठेलकर दिन की स्मृतियों के लिए जगह बना ही ली। एकाएक रेवा का चेहरा स्वरा के स्मृति पटल पर कौंधा और दिन के उस हिस्से के तमाम लम्हे, एक फिल्म की शक्ल में आगे सरकने लगे, जो उसने शॉपिंग मॉल में बिताए थे। तन थका था और मन था कि उमड़-घुमड़ से बाज नहीं आ रहा था! आज हफ्तों बाद थोड़ा समय अपने लिए मांग रहा था। स्वरा ने साइड टेबल के ड्रॉअर से अपनी डायरी निकाली और लिखने लगी-
उस तारों भरी उनींदी रात में स्वरा की डायरी में
"जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
---बच्चन"
"रेवा भास्कर.... यही नाम लिखा है उसकी नेम प्लेट पर। लड़की नहीं तूफान है, जब से आई है सबकी गोस्सिप का केंद्र वही है। कितनी तो बिंदास है बाबा। कोई डर नहीं, एकदम अकेली रहती है। पहले एक लड़का आता था, लंबा सा, सांवला-सा, दढियल, शायद कोई पेंटर था! इधर दो महीने से दूसरा आ रहा है, लंबा-चौड़ा तंदुरुस्त, पूरा हीरो टाइप। रात भर रुकता है। न किसी से हाय-हेलो न राम-श्याम और न ही किसी की कोई फिक्र। शादी भी नहीं की, पैंतीस से कम नहीं होगी। मतलब मेरी ही उम्र की, चलो कुछ कम ही सही। मिसेज गुप्ता बता रही थीं पूरी पियक्कड़ है, चेन स्मोकर भी, किसी अखबार में नौकरी करती है शायद। कमली ने बताया था उन्हे। इतना अव्यवस्थित रूटीन कि मालूम ही नहीं, कब आती है कब जाती है, न सोने का पता है, न खाने की खबर। ये भी कोई जिंदगी है। पता नहीं ऐसे कैसे जी लेते हैं लोग। छोड़ो, मुझे क्या, मैं भी न क्या लेके बैठ गई। सुबह जल्दी उठाना है!”
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दो दिन बाद रेवा के ऑफिस से लौटने के तुरंत बाद की एक भागती दौड़ती रात
"पीं पींsssssssss" डोरबेल ने बाहर पसरे अंधेरे के साम्राज्य में अपनी मुखरता की घोषणा की तो किचन से निकलकर स्वरा ने दरवाजा खोला, सामने रेवा थी।
"आपके मग्स, मिसेज वशिष्ठ।"
"ओह रेवा, अंदर आओ न प्लीज़।" रेवा आना तो नहीं चाहती थी वीकेंड पर इस मग्स के सेट से पीछा छुड़ाना जरूरी था वरना इस डर के साथ जीना दुश्वार था कि इसी के बहाने किसी भी वक़्त मिसेज वशिष्ठ उसके फ्लैट पर आ धमकेंगी। रविवार की छुट्टी इस डर के बगैर मज़े में गुजारना चाहती थी रेवा। चारों ओर नज़र दौड़ाई तो लगा ये सुसज्जित ड्राइंग रूम कितना भरा-भरा सा था, ढेर सारा अनावश्यक सामान। पर इतना व्यवस्थित कि ऊब होने लगी!
"डिसगस्टिंग!!!! पता नहीं लोग अपने ड्राइंग रूप को इतना भरकर क्यों रखते हैं। उस पर इतनी भीड़-भाड़, हर समय। पति, बेटी, और एक वृद्धा, शायद सीनियर मिसेज वशिष्ठ होंगी।" मन में आये भावों को चेहरे पर लाने से बचने की एक भरपूर कोशिश की रेवा ने!
"आओ बेटा, बैठो। " उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए, आँखों ही आँखों में तौलती सीनियर मिसेज वशिष्ठ ने मुस्कुरा कर कहा। रेवा ने खड़े-खड़े ही औपचारिकतावश सबको नमस्ते कहा। कितनी घुटन थी उस माहौल में, जाने मन कैसा तो होने लगा था। वह बस भाग जाना चाहती थी।
किचन से आ रहे खुशबू के एक झोंके ने उसे छुआ और स्मृतियों की सोयी हुई झील में एक लहर यहाँ से वहाँ तक लहरा कर हलचल मचा गई। मन के किसी कोने में एक ख्याल ने दस्तक दी... माँ...घर...!!!! कसक उठा तनमन! सुषुप्त इन्द्रियां मानो उसी दिशा में केन्द्रित होने लगीं!
'”जी नहीं, थैंक्यू आंटी! मैं जरा जल्दी में हूँ। कहीं जाना है।" लगभग नींद से जागते हुए रेवा ने उत्तर दिया!
रेवा ने मग्स आगे बढ़ाए। स्वरा ने मग्स लेकर उसे पैसे देने के लिए ड्राअर से अपना पर्स निकाला और पैसे रेवा के हाथ में आने तक रेवा कनखियों से उस फ्लैट का पूरा जायजा ले चुकी थी। लौटते हुए उसे बीना मौसी का घर याद आया ऐसा ही है बीना मौसी का घर भी। इतना ही भरा-भरा, गैर जरूरी सामान का गोदाम, जहां दिन भर गैर-जरूरी काम निपटाती थकी-थकी निस्तेज चुप्पा औरतें हैं और सामंतवादी मूल्यों के दर्प से भरे गर्वीले पुरुष। बीना मौसी कितनी बार कहती हैं, एक ही शहर में हो! छुट्टी यहाँ बिताया करो पर दम घुटता है वहाँ रेवा का। नहीं बनना उसे माँ और मौसी जैसी अच्छी लड़की, प्यार करने वाली अच्छी बीवी, फ़र्माबरदार अच्छी बहू, चौबीस घंटे सुई के कांटे की तरह नाचती अच्छी माँ, सलीकेदार भाभी, बहन, चाची, मौसी, ताई, मामी!!!!! उफ़्फ़, सब कुछ, साला सब कुछ, बस रेवा नहीं। कुछ नहीं बनना उसे, वह रेवा बनकर ही खुश है, बहुत खुश।
फिर कुछ दिन फितरतन यूँ ही गुज़रते रहे कि उनका गुजरना लाज़िमी था! इसके बाद कई बार, कई मौकों पर उनका आमना-सामना हुआ, अपार्टमेंट के गेट पर, शॉपिंग मॉल में, दिवाली सेलेब्रेशन में या बस यूँ ही सीढ़ियों पर आते जाते। रेवा सोसाइटी में ज्यादा सोशल नहीं थी तो बस हेलो-हाय से ज्यादा की गुंजाइश कभी नहीं रही। दोनों मानों अपने खोल में समाई सीप-सी एक दूसरे से दूरी बनाए रहीं। हाँ, पर कभी कभी नीचे पार्क में शाम को सावी के साथ खेलती, बतियाती, शिशिर के साथ सैर करती स्वरा अक्सर रेवा का ध्यान चुरा लेती। अजीब से खलिश से भर जाता मन का कोना, क्या थी वह खलिश कभी नहीं जान पाई रेवा! अजीब सा खालीपन उसे घेरता और वह गरदन को एक जुम्बिश दे उसे दूर कर देती!
वहीँ पूरा दिन बंधी बंधाई दिनचर्या पर पांव जमाकर चलती स्वरा का
ध्यान खिड़की के बाहर पार्किंग में फोन पर या किसी के साथ चलते बिंदास खिलखिलाती, मस्त और आत्मविश्वास से भरपूर, रेवा की आवाज़ से भंग हो
जाता तो मन में मानों एक विशाल इन्द्रधनुष सा लहरा जाता! इतना विशाल कि
जिसे ताकती वह बेहद छोटी महसूस करती खुद को! पता नहीं ये क्या और कैसा भाव
था, ईर्ष्या, हीनभावना या कोई कसक कुछ भी
तो तय नहीं कर पाई थी स्वरा! कुछ देर निर्वात में यूँ ताकती कि जीवन भी अपनी गति
भूल वहीं ठिठक जाया करता! ऐसे ही छह महीने बीत गए और एक दिन .....
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शहर में एक नर्सिंग होम के एक रूम में एक उदास शाम
नर्स ने ड्रिप लगाई तो आँखें छलछला आईं स्वरा की। पता नहीं ये दर्द उस ड्रिप की वजह से था या उस टीस की वजह से कल से वजूद को छलनी किए हुए थी। लम्हा-लम्हा टीसता वो दर्द आँखों का रास्ता ढूंढ चुका था और स्वरा ने आँखें बंद कर उसे गुमराह करने की एक और कोशिश की। तभी अहसास हुआ दरवाजे से कोई दो जोड़ी कदमों की पदचाप दूसरे बेड के करीब आकर रुक गई। आँखें खोली तो सामने नर्स के साथ जो चेहरा था वो आज अपने सारे स्थायी भावों के विपरीत बदला हुआ था।
हाँ, वह रेवा ही थी। रेवा भास्कर।
स्वरा की पलकों के कोरों पर चमकते जुगनू रेवा से छुप न सके। अगले कुछ क्षण रूम में नर्स की आवाज़ और ड्रिप लगाने के अतिरिक्त किसी आवाज़ ने दस्तक नहीं दी।
कमरे में पिन ड्रॉप साइलेंस था। सन्नाटे में गूँजती नर्स की ठक-ठक, खिट-खिट जैसे उन दो जोड़ी कानों तक पहुँच ही नहीं रही थी। माहौल लगातार बोझिल होता रहा और आज फिर वे दोनों अपने-अपने खोल में सिमटी खामोशियाँ बुनती रही। इस मन से उस मन तक खामोशियों के उस पुल पर शब्दों की आवाजाही की प्रतीक्षा उस दिन शायद किसी को नहीं थी।
"अबॉरशन?" आखिर इस बार भी स्वरा ने चुप्पी में सेंध लगा ही दी। अपने भीतर की टीस से लड़ते-लड़ते इतना थक चुकी थी स्वरा कि जैसे यह शब्द उबल कर होठों पर आ ही गया। शायद रेवा को सामने देखकर उसकी पीड़ा तसदीक करना चाहती थी कि इस दर्द के सफर में वह अकेली नहीं है।
"हम्म और आप?"
"अबॉरशन, ट्वेल्व वीक्स प्रेग्नंसी। "
"क्यों"
"पति को दूसरा बच्चा बेटी नहीं चाहिए। "
"और आपको? आप क्या चाहती है?"
"क्या फर्क पड़ता है। "
ठंडी सांस लेकर स्वरा ने मुंह घुमा लिया। आंसुओं ने फिर रास्ता ढूंढ लिया था और इस बार उन्हे रोकने में स्वरा पूरी तरह विफल रही। कितनी मिन्नतें की थी उसने शिशिर की जब वह अपने नार्थ ईस्ट के टूर से लौटा था, उसे अबॉरशन नहीं करवाना पर वो अपनी जिद पर अड़ा रहा।
"फिर से बेटी ? नहीं स्वरा, दिमाग से काम लो! लोग इडियट कहेंगे हमें।"
"लोगों का क्या है शिशिर, कुछ भी कहते हैं। ट्वेल्व वीक हो चुके हैं शिशिर , देखो न कैसे हिलती है यह! मैं महसूस करती हूँ इसे और इसकी हरकतों को! ये हमारी बेटी है शिशिर! सुनो, मैं इसे जन्म देना चाहती हूँ। मुझे कोई प्रोब्लम नहीं। वैसे भी ये एबॉर्शन इलीगल है! प्लीज़ मान जाओ न। प्लीज़ शिशिर।" उसके गले लगकर रो पड़ी थी स्वरा।
"क्या ड्रामा लगा रखा है स्वरा ? नो...मैंने एक बार नो कहा न स्वरा, नो मतलब नो। मुझे लीगल-इलीगल मत सिखाओ ! एक तो तुम्हें मेरे आने की वेट करनी ही नहीं चाहिए थी। गॉट इट, मुझे दूसरी लड़की नहीं चाहिए, मतलब नहीं चाहिए! मुझे ना सुनने की आदत नहीं है। फिर से लड़की है, आज सोनोग्राफी हुई न। अरे एक बहुत है , बेटा होता तो दुनिया जहान की खुशियां तुम्हारे क़दमों में डाल देता यार...... मैंने डॉ भटनागर से एपोइंटमेंट ले लिया है, कुछ नहीं होगा तुम्हें, हम कल चल रहे हैं। तुम्हे छोड़कर मैं फ्लाइट के लिए निकल जाऊँगा! कैब से निकल जाना! आई हॉप यू विल मैनेज एंड दिस इज फ़ाइनल। यूँ भी सारा दिन घर में करती क्या हो तुम?" शिशिर ने अपना फैसला सुनाया था या अपना गुस्सा उस पर उतारा था तय नही कर पाई स्वरा! अंतिम शब्दों को लगभग चबाते हुए चिल्लाया था शिशिर!
ताउम्र सालती आईं असहमतियों के कितने ही वारों ने आज एक साथ उसके मन को जख्मी कर दिया था। मेरा घर, मेरा पति, मेरे बच्चे, मेरा सुख-संसार, मानों सब परछाइयाँ हैं, भ्रम की धूप की साथी। मन के अँधेरों में इनका कोई अस्तित्व नहीं, सब भ्रम है, सब छलावा। अब तो उसे लगने लगा था उसका वजूद ही छलावा है, सबसे बड़ा छलावा तो वह खुद है। सफल पत्नी, एक पढ़ी लिखी गृहस्वामिनी, कहने को घर की मालकिन के भ्रम में जीती आई एक कमजोर, बेहद कमजोर औरत जिसकी कोख तक पर उसका वश नहीं। जिसके फैसले सदा दूसरे ही लेते आयें हैं, चाहे उसकी देह से ही क्यों न जुड़े हों!
उसे तो दूसरा बच्चा चाहिए ही नहीं था, पर दूसरे बच्चे के लिए कई साल से दबाव झेल रही थी! सावी सात बरस की हो चली थी! इस बीच दो बार प्रेग्नेंट हुई पर मिसकैरेज हो गया! सास को भी वंश चलाने वाला पोता ही चाहिए, उनसे किसी तरह के सहयोग की उम्मीद बेमानी थी! और अब जब पेट में पल रहे अंश से एक लगाव सा हो गया तो बेटे-बेटी वाला मसला आन खड़ा हुआ!
"और तुम?"
"मैं?"
"हाँ तुम, तुम तो अपनी मालिक खुद हो, तुम्हें अबॉरशन के लिए क्यों आना पड़ा?" स्वरा की आवाज़ की तल्खी और व्यंग्य दोनों आज रेवा के लिए बेअसर थे। ये रेवा वो रेवा कहाँ थी!
"पिछले दिनों इतनी बिज़ी थी कि कई दिन सारा रूटीन गड़बड़ रहा। गलती मेरी ही थी, शायद पिल्स ....। कलेंडर आगे सरका तो लगा गड़बड़ हो गई। अमन भी नहीं चाहता। फिर बेबी की ज़िम्मेदारी कैसे उठा सकती हूँ मैं? मैं ...मैं तो ...." अंतिम पंक्ति कहते-कहते रेवा की आवाज़ भरभरा गई, इतनी धीमी जैसे खुद से कह हो। लगा कहीं विश्वास की इमारत जर्जर हो गिरी हो। दर्द जब बेवफ़ाई कर आँखों में छलकने से बाज नहीं आया तो रेवा ने मुंह फेर लिया।
अमन की याद आते ही एक कड़वाहट रेवा के जेहन में घुल गई। प्रेम के उन अंतरग लम्हों की याद उसे अनगिनत काँटों पर होने का अहसास करा रही थी कभी जिसे याद कर वह फूल से भी हल्की हो जाया करती थी। कहीं कोई बाध्यता नहीं थी, बंधन नहीं था! जीभर जिया था उसने प्रेम को! अपने जिस्म के हर हिस्से पर प्रेम की निशानियाँ महसूसती रेवा भूल गई थी कि उसकी कोख का मिजाज़ बिल्कुल अलग था! उसे तो कोई निशानी चाहिए ही नहीं थी! और अमन.....प्रेग्नेंसी के जिक्र भर से ऐसे उछला था जैसे सैकड़ों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो।
अरे कहाँ रेवा शादी के लिए कहती है, कहाँ कहती है कि वह बच्चे को जन्म देगी। कहाँ कोई कमिटमेंट मांगती है, उस पर कोई भी, कैसी भी, निर्भरता भी तो कभी नहीं चाही रेवा ने। वह तो बस प्रेम चाहती थी, शर्तहीन प्रेम। पर कैसे भूल सकती है वह अमन का रिएक्शन।
"प्रेग्नंट? मतलब बच्चा??? आई मीन, आर यू क्रेज़ी रेवा? अजीब बेवकूफ़ हो तुम, तुमसे नहीं होता तो मुझे कह देती। ओह... माय... गॉड .....आइ वुड हेव डन समथिंग। तुमने तो कहा था, पिल्स ले रही हो। कहाँ से पाल ली ये मुसीबत। डिस्गस्टिंग, मुझे दूर रखो इस सब से। यू सिली गर्ल।"
"अमनssss ???"
"मैं बोल देता हूँ रेवा, न तो मुझे शादी पचड़े में फंसना है और न ही इस बच्चे से मेरा कोई वास्ता। मुझे बक्शो.... अजीब मुसीबत है, कहाँ फंस गया यार।" सिगरेट को एड़ी तले बेरहमी से मसलते हुए चीख रहा था अमन!
वह थी, अमन था और प्रेम? लगा जैसे जमीन पर गिरकर किरचा-किरचा हो गया है प्रेम। आईने के टुकड़ों के से इतने किरचे कि हर किरचे में उसे एक रेवा दिखाई पड़ थी! स्तब्ध रेवा, जैसे किसी ने आकाश से सीधे जमीन पर ला पटका हो, अपमान की आंच से झुलस गया था रेवा का प्रेमिल मन! अमन का गिरेबान पकड़ लगभग लटक गई थी रेवा।
"साले, कमीने, तुझसे कुछ मांगा है मैंने? आ गया न अपनी औकात पर। तू तो कहता था रेवा, तुम मेरी जिंदगी का केंद्र हो। प्रेम कवितायें लिखता था ना मुझ पर। कोई जरूरत नहीं है रेवा को तेरी। सुना तूने? कोई भी जरूरत नहीं है! रेवा अपनी जिंदगी जीना जानती है, मुझे पता है कैसे इस मुसीबत से बाहर निकलना है। पहले तू इस घर से और मेरी लाइफ बाहर निकल, साले @$%#। आउट, जस्ट गेट द हेल आउट ऑफ हियर यूsss बास्टर्ड $%#@ ...... यूउउउउ ..… गेट आउट।"
इन तमाम सालों में जितनी गालियाँ सीख पाई थी रेवा सब बाहर आ गईं! पता नहीं रेवा ज़ोर से चीखी थी या अमन की पीठ पर बंद हुए दरवाजे के धमक थी जो अब तक रेवा के कानों में गूंज रही है। इसके बाद गुस्से से थर-थर काँपती रेवा आंसुओं के सैलाब में बह जाने के लिए उस फ्लैट में नितांत अकेली थी, जिसकी नेमप्लेट पर लिखा था "रेवा भास्कर"।
शाम होने वाली थी। वे दोनों अब मुक्त हो चुकी थीं, अपने जिस्म के भीतर पल रहे अपने ही वजूद से। अपने भीतर के इस रीतेपन से जूझती, वे दोनों एक दूसरे से आँखें नहीं मिला रही थी। अपने सही होने के गुमान में डूबी दो औरतें आज टूटन में अपने होने का अर्थ ढूंढती अपने ही टुकड़ों को समेटते हुए जैसे एक दूसरे के सामने निर्वस्त्र हो गईं थीं। रास्ता चाहे कुछ भी रहा पर दोनों जैसे अलग अलग कश्तियों में सवार एक मुकाम पर खुद को एक जगह पा रही थीं और सोच रही थीं कब, कहाँ गलती हुई। आश्चर्यजनक रूप से इस बार मौन रेवा ने तोड़ा।
"मैं हमेशा सोचती रही, मैंने खुद को पा लिया है। मुझे गर्व रहा है सदा खुद पर, सारी बेड़ियों को तोड़ने का गर्व, मनमाना कर पाने का गर्व, वर्जनाओं के पाखंड को पीछे छोड़ देने का गर्व, शुचिता के ढोंग को ठेंगा चिढ़ाने का गर्व। मैंने कभी किसी को खुद पर हावी नहीं होने दिया। कभी भी नहीं। मैं हमेशा एक टिपिकल स्त्री बनने से बचती रही! मुझे मेरी माँ नहीं बनना था, दादी या बुआ भी नहीं बनना था! दिन और रात के फर्क से परे, घड़ी की सुईयों से बंधी शुचिता के टिक-टिक अलार्म से परे, देह और आत्मा के फर्क से परे, हर उस चीज़ को नकारना चाहती थी जो मुझे विवशता के पर्याय 'स्त्रीत्व' से जोड़ता था। तथाकथित, तयशुदा स्त्रीत्व को नकारने में ही मैंने मुक्ति को देखा, मुक्त जीवन, पुरुषों जैसा मुक्त जीवन। “
एक पल ठिठकने के बाद रेवा ने फिर कहना शुरू किया.....“जानती हैं आप, थोपी गई नियमितता से परे स्वाधीनता एक अद्भुत अहसास है स्वरा जी। मैं अपने घुटनभरे पारंपरिक अतीत से मुक्त हो गई थी और स्वयं में परिपूर्ण और दृढ़निश्चयी अनुभव करती थी। मैंने अपने जीवन में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी, मेरी अपनी सत्ता.... उससे मुझे अब कोई वंचित नहीं कर सकता था। लेकिन ...."
"लेकिन क्या रेवा?" रेवा आज एक ऐसी दुनिया की खिड़की खोल रही थी जो स्वरा के लिए सर्वथा अलग थी। रेवा के रुक जाने से उसे लगा जैसे किसी ने खिड़की तो खोल दी पर पर्दा अभी भी सामने है।
"ठहराव्, नियमितता, कमिटमेंट जैसे शब्दों के मोहपाश सदा जंजाल लगते रहे मुझे! बंधना कहाँ सीख पाई मैं और क्यों बंधती! साहिल को भी तो कमिटमेंट चाहिए था! प्रेम, विवाह, समर्पण..... बंधन में बांध लेने का उसका सुख इकतरफा था मेरे लिए! शायद इसीलिए पांच साल का लिव-इन रिश्ता भी मेरी आज़ादी को बांध न सका! न उसे अपना पायी न उसके अंश को और अब लगता है, सब खोकर जिस सुख के पीछे भाग रही थी वह तो उसकी छाया मात्र ही थी! सुख तो बहुत पीछे छूट चुका था मुझसे, स्वरा जी!”
“लेकिन मन हो या देह, नियमितता से परे, जीवन कब सधता है। सोच कर देखिये, संबंधों की अंतरंगता कहिए या देह से मुक्ति, दोनों स्त्री-जीवन को पुरुष के मुकाबले अधिक गहराई से प्रभावित करते हैं। ये दूसरा अबॉरशन है। बीपी हाइ रहता है, शुगर लेवेल की भी चिंता है। बीएमआई डराने लगा है। मन थकने लगा है। घर लौट कर एकांत की चादर ओढ़ती हूँ तो मन ऊबता है, अवसाद घेर लेता है पर अपने दर्प का टूटना तो क्या, उसका दरकना भी मंजूर नहीं मुझे। जीवन क्या ठहराव से परे कुछ भी नहीं? शादी नहीं करना चाहती पर मातृत्व का अहसास कचोटता है। एक पूरे परिवार को देखती हूँ तो कुढ़ने लगती हूँ, दूर भागती हूँ। सारी कठोरताओं, सारी उछृंखलताओं के तले दबा कहीं स्त्री-मन ठहरना चाहता है, और मैं खुद से झूठ बोलती हूँ, खुद से दूर भागती हूँ। दुनिया भर के सामने चट्टान-सी तनी मैं तीन साल से घर नहीं गई। साहिल आज भी किसी मोड़ पर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा है पर मैं उससे दूर भागती रही....माँ-पापा से दूर भागती हूँ, कहीं उनके आगे टूटकर बिखर न जाऊँ। समझ नहीं पाती कि जीवन की कौन सी दिशा तय कर पाई हूँ।"
"तो अब?" सूने कमरे में स्वरा का प्रश्न एक पंछी की तरह फड़फड़ाकर, एक चक्कर लगाकर रेवा के सामने आ खड़ा हुआ!
खाली-खाली निगाहों को खिड़की पर आसरा मिला तो शब्द फिर उसी की राह पर चल पड़े,
“कुछ दिन माँ-पापा के साथ बिताने का सोचा है! कब से आने को बोल रहे हैं! उसके बाद जीवन का रुख तय करुँगी! पता नहीं जिन्दगी कहाँ ले जाएगी...किसी नए रास्ते पर या साहिल के पास....नहीं....पता नहीं....." भर्राए गले और डबडबाई आँखों के भंवर में डूब गये थे आगे के शब्द!
उसे ताकती स्वरा के चेहरे पर कुछ पल हैरानी के छलके और जल्दी ही विषाद में खो गए जो अब उसके चेहरे पर नाच रहा था!
"रेवा, मैं भी कहाँ साध पाई जीवन को। माँ-बाप ने शिशिर को चुना, शिशिर ने मेरा घर रहना चुना। उनकी हर सफलता को अपना मान बस घर-संसार में मगन रहने को जीवन की सार्थकता मानती रही। हर कदम पर मेरे सामने एक चुनाव था, कहीं कोई विकल्प नहीं, कहीं कुछ मुश्किल नहीं था रेवा, ज़िदगी बहुत आसान थी। तमाम सहूलियतों से भरी, बस खामोशी से आगे बढ़कर उस चुनाव को ओढ़ लेना था। सब कुछ कितना सरल रहा। मुझसे सुखी कोई नहीं है, कोई भी नहीं। अच्छा घर-परिवार, चाहने वाला पति, प्यारी-सी बिटिया, गहने-कपड़े, सुख-सुविधा का हर साधन। सब कुछ तो है।"
आज जाने कैसे भावनाओं के मंथन से शब्दों का आना जारी रहा, चुप रहने वाली स्वरा के पास इतने शब्द थे, वह खुद नहीं जानती थी। कुछ देर रुककर स्वरा ने फिर से कहना शुरू किया,
"शादी के बाद जयपुर गई थी, लकड़ी के कई खिलौने खरीदे, प्यारे-प्यारे, तब से रखे हैं शोकेस में। एक गुड़िया भी थी, सिर हिलाने वाली। जानती हो रेवा, आजकल मैं उसमें खुद को देखने लगी हूँ। शांत, सुंदर, सुशील, इतनी सुशील कि अपनी पसंद के कपड़े तक नहीं पहन सकती। मेरा फेवरेट है हरा रंग, पर बरसों से नहीं पहना जानती हो क्यों? क्योंकि शिशिर को पसंद नहीं! बेटी चटख रंगों से दूर भागती है! सास को काला रंग पहनना अशुभ लगता है! मेरे चुनाव की सुई यहाँ कभी नहीं रूकती! शिशिर मुझे हमेशा साड़ी में देखना पसंद करते हैं, साड़ी खूब फबती है न मुझ पर, क्या फर्क पड़ता है कि मैं क्या चाहती हूँ। इसकी पसंद का खाना, उसकी पसंद के कपड़े, सबकी पसंद, मेरी पसंद। पर किसी ने कभी मुझसे नहीं पूछा, बोलो स्वरा, तुम्हें क्या पसंद है?"
छलकती आँखें संयम का बांध तोड़ अब बहने लगीं थीं, गला रुँधने लगा था....
"हर समय भागती-दौड़ती दिखती हूँ पर मन में कहीं कुछ रुक गया है रेवा। कई बार सोफ़े पर बैठकर मैं देर तक निचेष्ट पड़ी रहती हूँ, मुझे भ्रम होता है जैसे मैं भी ड्राइंग रूम में रखा फ़र्निचर हूँ, जयपुर वाली गुड़िया हूँ और वो खूबसूरत-सा वास हूँ जिसे शिशिर चाइना से लाये थे जो चुपचाप कोने में रखा रहता है, कभी कुछ कहता ही नहीं, कोई शिकायत भी नहीं करता। शांत, स्थिर, सभ्य ,बेआवाज़। डरकर दौड़ने लगती हूँ अकारण ही इधर-उधर कि सचमुच कहीं जड़ न हो जाऊं!"
रेवा की निगाहें खिड़की से परे अब उस आवाज़ की दिशा में केन्द्रित हो चुकी थीं जो अपने ठहराव से ऊब कर मुखर हो चुकी थी!
"जानती हो रेवा, मुझे हमेशा तुमसे ईर्ष्या होती थी, लगा तुम सही थी और मैं गलत। लगा जैसे मिसेज वशिष्ठ बनते-बनते तमाम तयशुदा नेकनामियों के साये में स्वरा कहीं गुम हो गई अरसा पहले। स्वरा कहीं नहीं हैं! पर मैं भी स्वरा होना चाहती थी, कुछ समय के लिए ही सिर्फ स्वरा, स्वरा होना तो जैसे एक अरसे पहले भूल चुकी हूँ। मैं स्वरा नहीं उसकी परछाई हूँ जिसके पाँव घड़ी की सुइयों पर बांध दिये गए हैं और मन....मन का खालीपन है...मन है कहाँ...आज मुझे भी परछाई में सुख ढूँढना छोड़कर अपनी खोई हुई सूरत तलाशनी है! मुझे जानना है मैं कौन हूँ??"
“तो क्या करेंगी आप?” अनमने मन से अपनी ही गुंजलकों में उलझी रेवा बेसाख्ता पूछ बैठी!
“कुछ खास नहीं! बस थोडा-सा खुद के लिए जीना सीखूंगी! आटे में नमक जितनी खुदगर्ज़ी सीखूंगी! जीवन के एक छोटे से हिस्से पर अपना नाम लिखने की कोशिश करुँगी कि कहीं खोयी हुई स्वरा से मिल पाऊं! ढूंढने निकलूंगी उस स्वरा को जो फैसलें सुनना ही नहीं, सुनाना भी सीख ले!”
और दोनों एक दूसरे की ओर देखकर हलके से मुस्कुराईं! हालाँकि विचारों के झंझावात में उलझी ये मुस्कराहट कितनी बनावटी थी और कितनी असली ये तो वो दोनों ही जानती थीं!
उस शाम खिड़कियाँ ही नहीं खुलीं, सारे पर्दे भी उठ चुके थे, कहीं कुछ छिपा नहीं था। आंसुओं का गुबार बह चुका था और अपने बहाव में तमाम घुटन को रास्ता दिखा गया था। उस दिन शब्दों ने पूरा साथ दिया, मन के भीतर के उतार-चढ़ाव को परोसने में वे कहीं पीछे न रहे। लगभग आधे घंटे कमरे में गहन उदासी यहाँ-वहाँ टहलती रही। फिर ऊब कर खिड़की से बाहर चली गई जब नर्स ने आकर कहा कि वे दोनों अब घर जा सकतीं हैं। विपरीत ध्रुवों पर बसी दो जिंदगियाँ जो कभी खुद को सम्पूर्ण मानती रहीं, अपने विचारों के चरम पर आधी-अधूरी ज़िंदगी को ढोने के अतिरिक्त क्या कर पाई थीं। सब पाकर भी बहुत कुछ था जो कभी हुआ ही नहीं, जीवन की गाड़ी पटरी से उतर कर मोहभंग की पगडंडियों पर खड़ी जाने किसके इंतज़ार में थी।
नर्सिंग होम से बाहर सामने सड़क पर तीन रास्ते थे। सदा से सर्वथा अलग रास्तों की राही रही वे दोनों उस दिन भी, अलग-अलग रास्तों से वहाँ पहुंची थी पर शाम के धुंधलके में डूबते शहर में भी वे आज अपनी राह ढूँढ़ चुकी थीं! कहीं कोई संशय यदि था तो उसे वे नर्सिंग होम के उसी कमरे में छोड़ आई थीं! लौटते समय दोनों ने बीच का रास्ता चुना। न दायें, न बाएं, न इधर न उधर, बस बीच का रास्ता, जो शायद खुद भी इन दो स्त्रियों की प्रतीक्षा में था!
ठीक एक हफ्ते बाद की एक खुशनुमा सुबह
एक वृद्ध दंपत्ति ने नालंदा अपार्टमेंट के उस फ्लैट की डोरबेल बजाई जहां नेमप्लेट पर लिखा था "रेवा भास्कर"! रेवा ने मुस्कुराते हुए फोन पर कहा, “बाय साहिल, लगता है माँ-पापा पहुंच गये हैं, आज थोड़ा थकान उतार लें तो कल सुबह हम सब बीना मौसी के यहाँ जायेंगे! तुम शाम को आओगे तो उन्हें अच्छा लगेगा!” और फोन रखकर वह उल्लसित मन से दरवाज़े की ओर बढ़ गई! उधर महरी ठीक सामने वाले फ्लैट में हरे रंग के बड़े-बड़े फूलों वाले पर्दे लगा रही थी जहां मिसेज वशिष्ठ, नहीं...नहीं... स्वरा रहती थी। वही स्वरा जिसने नाश्ता डायनिंग टेबल पर लगाकर सबको पुकारा और कुछ गुनगुनाते हुए अपनी डिग्रियों और सर्टिफिकेट्स को बड़े करीने से एक फाइल में लगाने लगी! वहीं टेबल पर पास के ही एक स्कूल से आया इंटरव्यू लेटर रखा था जिस पर लिखा था “स्वरा कौशिक, नालंदा अपार्टमेंट, सी-तीन....”!
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(हंस के अक्तूबर २०१७ अंक में प्रकाशित)
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शहर में एक नर्सिंग होम के एक रूम में एक उदास शाम
नर्स ने ड्रिप लगाई तो आँखें छलछला आईं स्वरा की। पता नहीं ये दर्द उस ड्रिप की वजह से था या उस टीस की वजह से कल से वजूद को छलनी किए हुए थी। लम्हा-लम्हा टीसता वो दर्द आँखों का रास्ता ढूंढ चुका था और स्वरा ने आँखें बंद कर उसे गुमराह करने की एक और कोशिश की। तभी अहसास हुआ दरवाजे से कोई दो जोड़ी कदमों की पदचाप दूसरे बेड के करीब आकर रुक गई। आँखें खोली तो सामने नर्स के साथ जो चेहरा था वो आज अपने सारे स्थायी भावों के विपरीत बदला हुआ था।
हाँ, वह रेवा ही थी। रेवा भास्कर।
स्वरा की पलकों के कोरों पर चमकते जुगनू रेवा से छुप न सके। अगले कुछ क्षण रूम में नर्स की आवाज़ और ड्रिप लगाने के अतिरिक्त किसी आवाज़ ने दस्तक नहीं दी।
कमरे में पिन ड्रॉप साइलेंस था। सन्नाटे में गूँजती नर्स की ठक-ठक, खिट-खिट जैसे उन दो जोड़ी कानों तक पहुँच ही नहीं रही थी। माहौल लगातार बोझिल होता रहा और आज फिर वे दोनों अपने-अपने खोल में सिमटी खामोशियाँ बुनती रही। इस मन से उस मन तक खामोशियों के उस पुल पर शब्दों की आवाजाही की प्रतीक्षा उस दिन शायद किसी को नहीं थी।
"अबॉरशन?" आखिर इस बार भी स्वरा ने चुप्पी में सेंध लगा ही दी। अपने भीतर की टीस से लड़ते-लड़ते इतना थक चुकी थी स्वरा कि जैसे यह शब्द उबल कर होठों पर आ ही गया। शायद रेवा को सामने देखकर उसकी पीड़ा तसदीक करना चाहती थी कि इस दर्द के सफर में वह अकेली नहीं है।
"हम्म और आप?"
"अबॉरशन, ट्वेल्व वीक्स प्रेग्नंसी। "
"क्यों"
"पति को दूसरा बच्चा बेटी नहीं चाहिए। "
"और आपको? आप क्या चाहती है?"
"क्या फर्क पड़ता है। "
ठंडी सांस लेकर स्वरा ने मुंह घुमा लिया। आंसुओं ने फिर रास्ता ढूंढ लिया था और इस बार उन्हे रोकने में स्वरा पूरी तरह विफल रही। कितनी मिन्नतें की थी उसने शिशिर की जब वह अपने नार्थ ईस्ट के टूर से लौटा था, उसे अबॉरशन नहीं करवाना पर वो अपनी जिद पर अड़ा रहा।
"फिर से बेटी ? नहीं स्वरा, दिमाग से काम लो! लोग इडियट कहेंगे हमें।"
"लोगों का क्या है शिशिर, कुछ भी कहते हैं। ट्वेल्व वीक हो चुके हैं शिशिर , देखो न कैसे हिलती है यह! मैं महसूस करती हूँ इसे और इसकी हरकतों को! ये हमारी बेटी है शिशिर! सुनो, मैं इसे जन्म देना चाहती हूँ। मुझे कोई प्रोब्लम नहीं। वैसे भी ये एबॉर्शन इलीगल है! प्लीज़ मान जाओ न। प्लीज़ शिशिर।" उसके गले लगकर रो पड़ी थी स्वरा।
"क्या ड्रामा लगा रखा है स्वरा ? नो...मैंने एक बार नो कहा न स्वरा, नो मतलब नो। मुझे लीगल-इलीगल मत सिखाओ ! एक तो तुम्हें मेरे आने की वेट करनी ही नहीं चाहिए थी। गॉट इट, मुझे दूसरी लड़की नहीं चाहिए, मतलब नहीं चाहिए! मुझे ना सुनने की आदत नहीं है। फिर से लड़की है, आज सोनोग्राफी हुई न। अरे एक बहुत है , बेटा होता तो दुनिया जहान की खुशियां तुम्हारे क़दमों में डाल देता यार...... मैंने डॉ भटनागर से एपोइंटमेंट ले लिया है, कुछ नहीं होगा तुम्हें, हम कल चल रहे हैं। तुम्हे छोड़कर मैं फ्लाइट के लिए निकल जाऊँगा! कैब से निकल जाना! आई हॉप यू विल मैनेज एंड दिस इज फ़ाइनल। यूँ भी सारा दिन घर में करती क्या हो तुम?" शिशिर ने अपना फैसला सुनाया था या अपना गुस्सा उस पर उतारा था तय नही कर पाई स्वरा! अंतिम शब्दों को लगभग चबाते हुए चिल्लाया था शिशिर!
ताउम्र सालती आईं असहमतियों के कितने ही वारों ने आज एक साथ उसके मन को जख्मी कर दिया था। मेरा घर, मेरा पति, मेरे बच्चे, मेरा सुख-संसार, मानों सब परछाइयाँ हैं, भ्रम की धूप की साथी। मन के अँधेरों में इनका कोई अस्तित्व नहीं, सब भ्रम है, सब छलावा। अब तो उसे लगने लगा था उसका वजूद ही छलावा है, सबसे बड़ा छलावा तो वह खुद है। सफल पत्नी, एक पढ़ी लिखी गृहस्वामिनी, कहने को घर की मालकिन के भ्रम में जीती आई एक कमजोर, बेहद कमजोर औरत जिसकी कोख तक पर उसका वश नहीं। जिसके फैसले सदा दूसरे ही लेते आयें हैं, चाहे उसकी देह से ही क्यों न जुड़े हों!
उसे तो दूसरा बच्चा चाहिए ही नहीं था, पर दूसरे बच्चे के लिए कई साल से दबाव झेल रही थी! सावी सात बरस की हो चली थी! इस बीच दो बार प्रेग्नेंट हुई पर मिसकैरेज हो गया! सास को भी वंश चलाने वाला पोता ही चाहिए, उनसे किसी तरह के सहयोग की उम्मीद बेमानी थी! और अब जब पेट में पल रहे अंश से एक लगाव सा हो गया तो बेटे-बेटी वाला मसला आन खड़ा हुआ!
"और तुम?"
"मैं?"
"हाँ तुम, तुम तो अपनी मालिक खुद हो, तुम्हें अबॉरशन के लिए क्यों आना पड़ा?" स्वरा की आवाज़ की तल्खी और व्यंग्य दोनों आज रेवा के लिए बेअसर थे। ये रेवा वो रेवा कहाँ थी!
"पिछले दिनों इतनी बिज़ी थी कि कई दिन सारा रूटीन गड़बड़ रहा। गलती मेरी ही थी, शायद पिल्स ....। कलेंडर आगे सरका तो लगा गड़बड़ हो गई। अमन भी नहीं चाहता। फिर बेबी की ज़िम्मेदारी कैसे उठा सकती हूँ मैं? मैं ...मैं तो ...." अंतिम पंक्ति कहते-कहते रेवा की आवाज़ भरभरा गई, इतनी धीमी जैसे खुद से कह हो। लगा कहीं विश्वास की इमारत जर्जर हो गिरी हो। दर्द जब बेवफ़ाई कर आँखों में छलकने से बाज नहीं आया तो रेवा ने मुंह फेर लिया।
अमन की याद आते ही एक कड़वाहट रेवा के जेहन में घुल गई। प्रेम के उन अंतरग लम्हों की याद उसे अनगिनत काँटों पर होने का अहसास करा रही थी कभी जिसे याद कर वह फूल से भी हल्की हो जाया करती थी। कहीं कोई बाध्यता नहीं थी, बंधन नहीं था! जीभर जिया था उसने प्रेम को! अपने जिस्म के हर हिस्से पर प्रेम की निशानियाँ महसूसती रेवा भूल गई थी कि उसकी कोख का मिजाज़ बिल्कुल अलग था! उसे तो कोई निशानी चाहिए ही नहीं थी! और अमन.....प्रेग्नेंसी के जिक्र भर से ऐसे उछला था जैसे सैकड़ों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो।
अरे कहाँ रेवा शादी के लिए कहती है, कहाँ कहती है कि वह बच्चे को जन्म देगी। कहाँ कोई कमिटमेंट मांगती है, उस पर कोई भी, कैसी भी, निर्भरता भी तो कभी नहीं चाही रेवा ने। वह तो बस प्रेम चाहती थी, शर्तहीन प्रेम। पर कैसे भूल सकती है वह अमन का रिएक्शन।
"प्रेग्नंट? मतलब बच्चा??? आई मीन, आर यू क्रेज़ी रेवा? अजीब बेवकूफ़ हो तुम, तुमसे नहीं होता तो मुझे कह देती। ओह... माय... गॉड .....आइ वुड हेव डन समथिंग। तुमने तो कहा था, पिल्स ले रही हो। कहाँ से पाल ली ये मुसीबत। डिस्गस्टिंग, मुझे दूर रखो इस सब से। यू सिली गर्ल।"
"अमनssss ???"
"मैं बोल देता हूँ रेवा, न तो मुझे शादी पचड़े में फंसना है और न ही इस बच्चे से मेरा कोई वास्ता। मुझे बक्शो.... अजीब मुसीबत है, कहाँ फंस गया यार।" सिगरेट को एड़ी तले बेरहमी से मसलते हुए चीख रहा था अमन!
वह थी, अमन था और प्रेम? लगा जैसे जमीन पर गिरकर किरचा-किरचा हो गया है प्रेम। आईने के टुकड़ों के से इतने किरचे कि हर किरचे में उसे एक रेवा दिखाई पड़ थी! स्तब्ध रेवा, जैसे किसी ने आकाश से सीधे जमीन पर ला पटका हो, अपमान की आंच से झुलस गया था रेवा का प्रेमिल मन! अमन का गिरेबान पकड़ लगभग लटक गई थी रेवा।
"साले, कमीने, तुझसे कुछ मांगा है मैंने? आ गया न अपनी औकात पर। तू तो कहता था रेवा, तुम मेरी जिंदगी का केंद्र हो। प्रेम कवितायें लिखता था ना मुझ पर। कोई जरूरत नहीं है रेवा को तेरी। सुना तूने? कोई भी जरूरत नहीं है! रेवा अपनी जिंदगी जीना जानती है, मुझे पता है कैसे इस मुसीबत से बाहर निकलना है। पहले तू इस घर से और मेरी लाइफ बाहर निकल, साले @$%#। आउट, जस्ट गेट द हेल आउट ऑफ हियर यूsss बास्टर्ड $%#@ ...... यूउउउउ ..… गेट आउट।"
इन तमाम सालों में जितनी गालियाँ सीख पाई थी रेवा सब बाहर आ गईं! पता नहीं रेवा ज़ोर से चीखी थी या अमन की पीठ पर बंद हुए दरवाजे के धमक थी जो अब तक रेवा के कानों में गूंज रही है। इसके बाद गुस्से से थर-थर काँपती रेवा आंसुओं के सैलाब में बह जाने के लिए उस फ्लैट में नितांत अकेली थी, जिसकी नेमप्लेट पर लिखा था "रेवा भास्कर"।
शाम होने वाली थी। वे दोनों अब मुक्त हो चुकी थीं, अपने जिस्म के भीतर पल रहे अपने ही वजूद से। अपने भीतर के इस रीतेपन से जूझती, वे दोनों एक दूसरे से आँखें नहीं मिला रही थी। अपने सही होने के गुमान में डूबी दो औरतें आज टूटन में अपने होने का अर्थ ढूंढती अपने ही टुकड़ों को समेटते हुए जैसे एक दूसरे के सामने निर्वस्त्र हो गईं थीं। रास्ता चाहे कुछ भी रहा पर दोनों जैसे अलग अलग कश्तियों में सवार एक मुकाम पर खुद को एक जगह पा रही थीं और सोच रही थीं कब, कहाँ गलती हुई। आश्चर्यजनक रूप से इस बार मौन रेवा ने तोड़ा।
"मैं हमेशा सोचती रही, मैंने खुद को पा लिया है। मुझे गर्व रहा है सदा खुद पर, सारी बेड़ियों को तोड़ने का गर्व, मनमाना कर पाने का गर्व, वर्जनाओं के पाखंड को पीछे छोड़ देने का गर्व, शुचिता के ढोंग को ठेंगा चिढ़ाने का गर्व। मैंने कभी किसी को खुद पर हावी नहीं होने दिया। कभी भी नहीं। मैं हमेशा एक टिपिकल स्त्री बनने से बचती रही! मुझे मेरी माँ नहीं बनना था, दादी या बुआ भी नहीं बनना था! दिन और रात के फर्क से परे, घड़ी की सुईयों से बंधी शुचिता के टिक-टिक अलार्म से परे, देह और आत्मा के फर्क से परे, हर उस चीज़ को नकारना चाहती थी जो मुझे विवशता के पर्याय 'स्त्रीत्व' से जोड़ता था। तथाकथित, तयशुदा स्त्रीत्व को नकारने में ही मैंने मुक्ति को देखा, मुक्त जीवन, पुरुषों जैसा मुक्त जीवन। “
एक पल ठिठकने के बाद रेवा ने फिर कहना शुरू किया.....“जानती हैं आप, थोपी गई नियमितता से परे स्वाधीनता एक अद्भुत अहसास है स्वरा जी। मैं अपने घुटनभरे पारंपरिक अतीत से मुक्त हो गई थी और स्वयं में परिपूर्ण और दृढ़निश्चयी अनुभव करती थी। मैंने अपने जीवन में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी, मेरी अपनी सत्ता.... उससे मुझे अब कोई वंचित नहीं कर सकता था। लेकिन ...."
"लेकिन क्या रेवा?" रेवा आज एक ऐसी दुनिया की खिड़की खोल रही थी जो स्वरा के लिए सर्वथा अलग थी। रेवा के रुक जाने से उसे लगा जैसे किसी ने खिड़की तो खोल दी पर पर्दा अभी भी सामने है।
"ठहराव्, नियमितता, कमिटमेंट जैसे शब्दों के मोहपाश सदा जंजाल लगते रहे मुझे! बंधना कहाँ सीख पाई मैं और क्यों बंधती! साहिल को भी तो कमिटमेंट चाहिए था! प्रेम, विवाह, समर्पण..... बंधन में बांध लेने का उसका सुख इकतरफा था मेरे लिए! शायद इसीलिए पांच साल का लिव-इन रिश्ता भी मेरी आज़ादी को बांध न सका! न उसे अपना पायी न उसके अंश को और अब लगता है, सब खोकर जिस सुख के पीछे भाग रही थी वह तो उसकी छाया मात्र ही थी! सुख तो बहुत पीछे छूट चुका था मुझसे, स्वरा जी!”
“लेकिन मन हो या देह, नियमितता से परे, जीवन कब सधता है। सोच कर देखिये, संबंधों की अंतरंगता कहिए या देह से मुक्ति, दोनों स्त्री-जीवन को पुरुष के मुकाबले अधिक गहराई से प्रभावित करते हैं। ये दूसरा अबॉरशन है। बीपी हाइ रहता है, शुगर लेवेल की भी चिंता है। बीएमआई डराने लगा है। मन थकने लगा है। घर लौट कर एकांत की चादर ओढ़ती हूँ तो मन ऊबता है, अवसाद घेर लेता है पर अपने दर्प का टूटना तो क्या, उसका दरकना भी मंजूर नहीं मुझे। जीवन क्या ठहराव से परे कुछ भी नहीं? शादी नहीं करना चाहती पर मातृत्व का अहसास कचोटता है। एक पूरे परिवार को देखती हूँ तो कुढ़ने लगती हूँ, दूर भागती हूँ। सारी कठोरताओं, सारी उछृंखलताओं के तले दबा कहीं स्त्री-मन ठहरना चाहता है, और मैं खुद से झूठ बोलती हूँ, खुद से दूर भागती हूँ। दुनिया भर के सामने चट्टान-सी तनी मैं तीन साल से घर नहीं गई। साहिल आज भी किसी मोड़ पर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा है पर मैं उससे दूर भागती रही....माँ-पापा से दूर भागती हूँ, कहीं उनके आगे टूटकर बिखर न जाऊँ। समझ नहीं पाती कि जीवन की कौन सी दिशा तय कर पाई हूँ।"
"तो अब?" सूने कमरे में स्वरा का प्रश्न एक पंछी की तरह फड़फड़ाकर, एक चक्कर लगाकर रेवा के सामने आ खड़ा हुआ!
खाली-खाली निगाहों को खिड़की पर आसरा मिला तो शब्द फिर उसी की राह पर चल पड़े,
“कुछ दिन माँ-पापा के साथ बिताने का सोचा है! कब से आने को बोल रहे हैं! उसके बाद जीवन का रुख तय करुँगी! पता नहीं जिन्दगी कहाँ ले जाएगी...किसी नए रास्ते पर या साहिल के पास....नहीं....पता नहीं....." भर्राए गले और डबडबाई आँखों के भंवर में डूब गये थे आगे के शब्द!
उसे ताकती स्वरा के चेहरे पर कुछ पल हैरानी के छलके और जल्दी ही विषाद में खो गए जो अब उसके चेहरे पर नाच रहा था!
"रेवा, मैं भी कहाँ साध पाई जीवन को। माँ-बाप ने शिशिर को चुना, शिशिर ने मेरा घर रहना चुना। उनकी हर सफलता को अपना मान बस घर-संसार में मगन रहने को जीवन की सार्थकता मानती रही। हर कदम पर मेरे सामने एक चुनाव था, कहीं कोई विकल्प नहीं, कहीं कुछ मुश्किल नहीं था रेवा, ज़िदगी बहुत आसान थी। तमाम सहूलियतों से भरी, बस खामोशी से आगे बढ़कर उस चुनाव को ओढ़ लेना था। सब कुछ कितना सरल रहा। मुझसे सुखी कोई नहीं है, कोई भी नहीं। अच्छा घर-परिवार, चाहने वाला पति, प्यारी-सी बिटिया, गहने-कपड़े, सुख-सुविधा का हर साधन। सब कुछ तो है।"
आज जाने कैसे भावनाओं के मंथन से शब्दों का आना जारी रहा, चुप रहने वाली स्वरा के पास इतने शब्द थे, वह खुद नहीं जानती थी। कुछ देर रुककर स्वरा ने फिर से कहना शुरू किया,
"शादी के बाद जयपुर गई थी, लकड़ी के कई खिलौने खरीदे, प्यारे-प्यारे, तब से रखे हैं शोकेस में। एक गुड़िया भी थी, सिर हिलाने वाली। जानती हो रेवा, आजकल मैं उसमें खुद को देखने लगी हूँ। शांत, सुंदर, सुशील, इतनी सुशील कि अपनी पसंद के कपड़े तक नहीं पहन सकती। मेरा फेवरेट है हरा रंग, पर बरसों से नहीं पहना जानती हो क्यों? क्योंकि शिशिर को पसंद नहीं! बेटी चटख रंगों से दूर भागती है! सास को काला रंग पहनना अशुभ लगता है! मेरे चुनाव की सुई यहाँ कभी नहीं रूकती! शिशिर मुझे हमेशा साड़ी में देखना पसंद करते हैं, साड़ी खूब फबती है न मुझ पर, क्या फर्क पड़ता है कि मैं क्या चाहती हूँ। इसकी पसंद का खाना, उसकी पसंद के कपड़े, सबकी पसंद, मेरी पसंद। पर किसी ने कभी मुझसे नहीं पूछा, बोलो स्वरा, तुम्हें क्या पसंद है?"
छलकती आँखें संयम का बांध तोड़ अब बहने लगीं थीं, गला रुँधने लगा था....
"हर समय भागती-दौड़ती दिखती हूँ पर मन में कहीं कुछ रुक गया है रेवा। कई बार सोफ़े पर बैठकर मैं देर तक निचेष्ट पड़ी रहती हूँ, मुझे भ्रम होता है जैसे मैं भी ड्राइंग रूम में रखा फ़र्निचर हूँ, जयपुर वाली गुड़िया हूँ और वो खूबसूरत-सा वास हूँ जिसे शिशिर चाइना से लाये थे जो चुपचाप कोने में रखा रहता है, कभी कुछ कहता ही नहीं, कोई शिकायत भी नहीं करता। शांत, स्थिर, सभ्य ,बेआवाज़। डरकर दौड़ने लगती हूँ अकारण ही इधर-उधर कि सचमुच कहीं जड़ न हो जाऊं!"
रेवा की निगाहें खिड़की से परे अब उस आवाज़ की दिशा में केन्द्रित हो चुकी थीं जो अपने ठहराव से ऊब कर मुखर हो चुकी थी!
"जानती हो रेवा, मुझे हमेशा तुमसे ईर्ष्या होती थी, लगा तुम सही थी और मैं गलत। लगा जैसे मिसेज वशिष्ठ बनते-बनते तमाम तयशुदा नेकनामियों के साये में स्वरा कहीं गुम हो गई अरसा पहले। स्वरा कहीं नहीं हैं! पर मैं भी स्वरा होना चाहती थी, कुछ समय के लिए ही सिर्फ स्वरा, स्वरा होना तो जैसे एक अरसे पहले भूल चुकी हूँ। मैं स्वरा नहीं उसकी परछाई हूँ जिसके पाँव घड़ी की सुइयों पर बांध दिये गए हैं और मन....मन का खालीपन है...मन है कहाँ...आज मुझे भी परछाई में सुख ढूँढना छोड़कर अपनी खोई हुई सूरत तलाशनी है! मुझे जानना है मैं कौन हूँ??"
“तो क्या करेंगी आप?” अनमने मन से अपनी ही गुंजलकों में उलझी रेवा बेसाख्ता पूछ बैठी!
“कुछ खास नहीं! बस थोडा-सा खुद के लिए जीना सीखूंगी! आटे में नमक जितनी खुदगर्ज़ी सीखूंगी! जीवन के एक छोटे से हिस्से पर अपना नाम लिखने की कोशिश करुँगी कि कहीं खोयी हुई स्वरा से मिल पाऊं! ढूंढने निकलूंगी उस स्वरा को जो फैसलें सुनना ही नहीं, सुनाना भी सीख ले!”
और दोनों एक दूसरे की ओर देखकर हलके से मुस्कुराईं! हालाँकि विचारों के झंझावात में उलझी ये मुस्कराहट कितनी बनावटी थी और कितनी असली ये तो वो दोनों ही जानती थीं!
उस शाम खिड़कियाँ ही नहीं खुलीं, सारे पर्दे भी उठ चुके थे, कहीं कुछ छिपा नहीं था। आंसुओं का गुबार बह चुका था और अपने बहाव में तमाम घुटन को रास्ता दिखा गया था। उस दिन शब्दों ने पूरा साथ दिया, मन के भीतर के उतार-चढ़ाव को परोसने में वे कहीं पीछे न रहे। लगभग आधे घंटे कमरे में गहन उदासी यहाँ-वहाँ टहलती रही। फिर ऊब कर खिड़की से बाहर चली गई जब नर्स ने आकर कहा कि वे दोनों अब घर जा सकतीं हैं। विपरीत ध्रुवों पर बसी दो जिंदगियाँ जो कभी खुद को सम्पूर्ण मानती रहीं, अपने विचारों के चरम पर आधी-अधूरी ज़िंदगी को ढोने के अतिरिक्त क्या कर पाई थीं। सब पाकर भी बहुत कुछ था जो कभी हुआ ही नहीं, जीवन की गाड़ी पटरी से उतर कर मोहभंग की पगडंडियों पर खड़ी जाने किसके इंतज़ार में थी।
नर्सिंग होम से बाहर सामने सड़क पर तीन रास्ते थे। सदा से सर्वथा अलग रास्तों की राही रही वे दोनों उस दिन भी, अलग-अलग रास्तों से वहाँ पहुंची थी पर शाम के धुंधलके में डूबते शहर में भी वे आज अपनी राह ढूँढ़ चुकी थीं! कहीं कोई संशय यदि था तो उसे वे नर्सिंग होम के उसी कमरे में छोड़ आई थीं! लौटते समय दोनों ने बीच का रास्ता चुना। न दायें, न बाएं, न इधर न उधर, बस बीच का रास्ता, जो शायद खुद भी इन दो स्त्रियों की प्रतीक्षा में था!
ठीक एक हफ्ते बाद की एक खुशनुमा सुबह
एक वृद्ध दंपत्ति ने नालंदा अपार्टमेंट के उस फ्लैट की डोरबेल बजाई जहां नेमप्लेट पर लिखा था "रेवा भास्कर"! रेवा ने मुस्कुराते हुए फोन पर कहा, “बाय साहिल, लगता है माँ-पापा पहुंच गये हैं, आज थोड़ा थकान उतार लें तो कल सुबह हम सब बीना मौसी के यहाँ जायेंगे! तुम शाम को आओगे तो उन्हें अच्छा लगेगा!” और फोन रखकर वह उल्लसित मन से दरवाज़े की ओर बढ़ गई! उधर महरी ठीक सामने वाले फ्लैट में हरे रंग के बड़े-बड़े फूलों वाले पर्दे लगा रही थी जहां मिसेज वशिष्ठ, नहीं...नहीं... स्वरा रहती थी। वही स्वरा जिसने नाश्ता डायनिंग टेबल पर लगाकर सबको पुकारा और कुछ गुनगुनाते हुए अपनी डिग्रियों और सर्टिफिकेट्स को बड़े करीने से एक फाइल में लगाने लगी! वहीं टेबल पर पास के ही एक स्कूल से आया इंटरव्यू लेटर रखा था जिस पर लिखा था “स्वरा कौशिक, नालंदा अपार्टमेंट, सी-तीन....”!
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(हंस के अक्तूबर २०१७ अंक में प्रकाशित)