Wednesday, December 2, 2015

ऐसा ईश्वर केवल आपका है हमारा नहीं



कई दिनों से शबरीमाला की खबर वायरल है। खूब पोस्ट भी लिखीं जा रही हैं। वैसे यह नई बात नहीं। दशकों पहले कभी जानकर क्षोभ हुआ था कि वहां दर्शनार्थी स्त्रियों की आयु का हिसाब रखा जाता है ताकि मन्दिर को "अशुभ" होने से बचाया जा सके। जो लोग दक्षिण के लोगों को करीब से जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि वहां लड़की के "बड़े" हो जाने को एक उत्सव की तरह मनाने की प्रथा है और वहीं से शुरू होती उन खास दिनों में उसे अलग थलग रखने की कवायद। मेरी एक तमिल सहकर्मी ने बताया था, सामान्य मन्दिर प्रवेश तो छोड़िये, रजस्वला स्त्री को किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने की अनुमति नहीं और इसमें विवाह भी शामिल है। मतलब वह ऐसी दशा में किसी के वैवाहिक आयोजन का भी हिस्सा नहीं बन सकती। बेशक़ आज चीज़ें बदल रही हैं किन्तु दक्षिण भारतीय मान्यताओं के अनुसार इन दिनों स्त्री को अलग बैठना होता था, वह किसी भी चीज़ को छू नहीं सकती थी। किन्ही खास बर्तनों में उसे खाना वहीं दे दिया जाता था। खुद मेरे परिवार में मेरी ननद के यहाँ जब तक उनकी सास जीवित रहीं इसी प्रथा का पालन किया जाता रहा। मेरी सहकर्मी ने बताया था कि औरतें इस शर्मनाक निर्वासन से बचने के लिए डॉक्टरी मदद तक लेती हैं। मने पारिवारिक आयोजन से पहले दवाइयों के सहारे उन खास तारीखों को पोस्टपोन करने की कोशिश करती हैं बाद में चाहे उन्हें इसके साइड इफेक्ट ही क्यों न झेलने पड़े।

 वैसे मुझे लगता है परिवारों के सिकुड़ने का प्रभाव ऐसी तमाम अजीबोगरीब प्रथाओं पर भी पड़ा है जबकि संयुक्त परिवार ऐसी तमाम प्रथाओं,कुप्रथाओं का पोषक होता है। पापड़ों पर छाया पड़े तो वे लाल पड़ जाएंगे, तुलसी मुरझा जाएगी, अचार सड़ जाएगा और भी न जाने क्या-क्या। खुद हिंदुओं में भी ऐसे में मन्दिर प्रवेश और पूजा पाठ की मनाही होती है। जिसके विरुद्ध दबी ढकी आवाज़ें हमेशा उठती रही हैं। हमारी पीढ़ी ने तमाम छूने न छूने या अलग थलग बैठने जैसी अजीबोगरीब प्रथाओं को जमकर नकारा है, रूढ़ियों को धता बताई है, पर पूजा पाठ या मन्दिर प्रवेश हमारी पीढ़ी की प्राथमिकता कभी नहीं रहा। यही कारण रहा होगा कि इसके विरुद्ध आवाज़ें हमने बुलन्द नहीं की। जरूरत ही महसूस नहीं हुई। पर शबरीमाला में सेंसर करने के लिए मशीन लगाने जैसी बात इतनी हास्यास्पद है कि उनकी सोच पर हंसी आती है। रखिये अपने पास अपना मन्दिर, जो ईश्वर स्त्री को कमतर समझता है, जो ईश्वर अपने ही बनाए स्त्री पुरुष में भेद करता है, जो स्त्री की जीवनदायी शक्ति को उसकी कमजोरी या अशुद्धत्ता समझता है, जो ईश्वर एक को ब्राह्मण और दूसरे को दलित मानता है, ऐसा ईश्वर केवल आपका है हमारा नहीं। अव्वल तो हमें ऐसे ईश्वर की जरूरत ही नहीं, जरूरत हुई तो हम अपना ईश्वर आप गढ़ लेंगे, हमारे टाइप का बिंदास, लोकतान्त्रिक और पूर्वग्रहों से मुक्त ईश्वर.....

Tuesday, November 24, 2015

एक खुला खत आमिर खान के नाम





एक खुला खत आमिर खान के नाम
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प्रिय आमिर खान
सलाम वालेकुम
सत्रह वर्ष की उम्र में आपको पहली दफा पर्दे पर देखा था, 'क़यामत से क़यामत तक' फिल्म में! फिल्म हिट हुई, आप हरदिल अजीज़ कलाकार बन गए थे! इस मुल्क आपके करोड़ों चाहने वाले पैदा हो गए! आपके नाम के आगे जो सरनेम लगता है न, "खान", मुझे नहीं लगता कि इसके होने या न होने का आपकी एक्टिंग, स्टारडम या हमारी चाहत पर कोई असर पड़ा होगा या पड़ता होगा! इस देश की जनता को उससे कहीं बढ़कर मोहब्बत और इज्जत अता फरमाई, जितनी कि आपके चचा मरहूम नासिर हुसैन साहब, आपके वालिद मरहूम ताहिर हुसैन साहब और आपके चचेरे भाई मंसूर खान साहब को दी थी! मेरा ख्याल है, इसकी वजह भी उनकी शानदार फिल्मे, इंडस्ट्री में उनका यादगार काम और बाकमाल शख्सियत रही, उनका सरनेम या उनका धर्म नहीं! आपके खानदान के छोटे साहबजादे आपके भाई फैज़ल खान को नकारते समय भी कारण उनकी ख़राब एक्टिंग रही उनका धर्म नही! आपके भांजे इमरान खान को भी इस मुल्क ने सर आँखों पर बिठाया इसलिए नही कि उनके वालिद हिन्दू थे, बल्कि इसलिए उनकी पहली फिल्म लोगों को पसंद आई थी और बाद में उनके चयन और एक्टिंग में कुछ नया न कर पाने के कारण वे उतना नहीं चल पाए!
हम लोग आमिर खान की फिल्म देखने इसीलिए थिएटर पर जाते हैं कि आमिर खान एक कमाल का अभिनेता है, जो हर किरदार में जान फूंक देता है, जो इस बात की फूलप्रूफ गारंटी है कि फिल्म यकीनन शानदार और कुछ खास ही होगी, इसलिए नहीं कि दूसरे खानों की तरह आपकी पहली बीवी रीना दत्त और दूसरी बीवी किरण राव हिन्दू है! यकीन कीजिये वे अगर राहेला या कुलसुम होतीं तो भी इससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ता! पर हाँ इतना जरुर है कि आपकी निजी जिन्दगी से हमेशा यह ज़ाहिर हुआ कि आप भी धर्म से ऊपर उठकर सोचते हैं और फैसले लेते हैं! आपकी निजी जिंदगी में भी कम उथल पुथल नहीं रही, चाहे वो रीना से आपका तलाक हो, दूसरी हीरोइनों के साथ आपके रिश्तों की खबरें हों, फैज़ल की मानसिक स्थिति बिगड़ने पर आपके ऊपर लगाये गए भयानक आरोप हों या फिर दूसरे खानों के साथ आपकी तनातनी की खबरें हों, न तो हमारा प्यार ही आपके लिए कम हुआ और न ही आपने कभी यह ज़ाहिर किया कि आप इस मुल्क में खुश नहीं हैं! आप को कहीं, किसी किस्म का खतरा है, आप सुरक्षित हैं!
बात फिल्मों की हो, सत्यमेव जयते की हो या विज्ञापनों और दूसरी गतिविधियों की हो, यह मुल्क आपकी हर अदा पर कुर्बान रहा! आपने गाया, "पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा..." और हमने साथ में सुर मिलाया, जरुर करेगा, आपने गाया, "परदेसी, परदेसी, जाना नहीं...." हम साथ में सुर मिलाकर आपके साथ रोये, आपने कहा, सत्यमेव जयते, और पूरा देश ताल से ताल मिलाकर आपके साथ खड़ा हो गया, आपके कार्यक्रम की बहसें देशव्यापी अभियान बन गयीं! आप अरबों रुपयों की बारिश में नहाते रहे और हम आप पर दिलों-जान निसार करते रहे! पर कभी कहीं, किसी एक पल नहीं लगा कि इस देश में आप दुखी हैं, असुरक्षित हैं, इतने असुरक्षित कि आपकी पत्नी किरण राव को लगता है कि आपको यह देश छोड़ देना चाहिए!!!! वो भी असहिष्णुता के चलते????? असहिष्णुता का मतलब समझते हैं आप???? एक आम मुस्लिम की पीड़ा समझते हैं आप????? वह अपने ही मजहबी गुमराह भाई-बंधुओं की वजह से कितना कुछ झेलता है, जानते हैं आप????
मैं पूछती हूँ, और इस मुल्क की जनता, जो शुक्रवार को टिकट खिड़की पर आपके नाम पर अपनी खून पसीने की कमाई से नोटों का अम्बार लगा देती है, आपसे पूछती है कि आपने बदले में आजतक उनके लिए क्या किया???? उनके लिए जो किया क्या वह संतोषजनक है??? क्या आपका इस मुल्क की जनता के लिए कोई फ़र्ज़ नहीं बनता था???????? आप इस मुल्क को छोड़कर जाने पर विचार करना चाहते हैं, क्यों न करें, कीडे-मकोड़ों से रेंगते इस मुल्क के मूर्ख वाशिंदों को उनका तोहफा मिलना ही चाहिए, जो आप जैसो को इसीलिए भगवान बना पूजता है कि किसी एक दिन आप खड़े हों, एक भरपूर अंगड़ाई लेकर दायें-बाएं नज़र घुमाएँ और आपको अपना मुस्लिम होना याद आये, आप एकाएक हिस्टीरियाई अंदाज़ में चीखें, कि
याखुदा, मुझे इस मुल्क में खतरा है!!!!!!
ओह, मैं यहाँ असुरक्षित हूँ!!!!!!!!!!!
अल्लाह, मैं अपने "अल्पसंख्यक" होने की सज़ा भुगत रहा हूँ!!!!!!!!

जाइए, शौक़ से जाइये, किसी ऐसे मुल्क में जाइये जहाँ आपको मुहाजिर कहकर चार फुट दूर रखा जाये, किसी ऐसे मुल्क में जाइये जहाँ नस्लवाद के तहत आप सडक पर मार दिए जाएँ, यकीन मानिये, न तो आप पहले हैं और न ही आखिरी होंगे, इस अभागे मुल्क को ऐसी नाशुक्रों को झेलने की आदत , जनाब भरपूर आदत है! मुबारक हो आप भी उस भीड़ में शामिल हुए जो अपने आलीशान अपार्टमेंट और नोटों के ढेर पर खड़े हो चिल्लाती है, "मुझे बचाओ, मैं अल्पसंख्यक हूँ!!!!!"
----अंजू शर्मा

Thursday, October 8, 2015

किनारे की चट्टान : पहाड़ का दर्द और सामाजिक सरोकार की कवितायें







सुदूर हिमाचल प्रदेश से कोई कवि जब अपनी किताब भेजता है, तो उसका आनंद कुछ और ही होता है और फिर उस काव्य संग्रह की कविताएं बेहतरीन हों तो यह आनंद द्विगुणित हो जाता है। युवा कवि पवन चौहान के काव्य संग्रह ''किनारे की चट्टान'' जब मेरे हाथ में आया तो मेरा यही अनुभव था। पवन चौहान से मेरा परिचय सोशल साइट की वजह से है और यह इस माध्यम की एक खूबसूरत उपलब्धि कही जा सकती है। 

बहरहाल जिस दिन यह संग्रह हाथ में आया, मैं एक बैठक में ३२ पेज पढ़ गई, लेकिन बाद में ऐसा संयोग नहीं हो पाया और शेष पृष्ठ पढ़ने में एक हफ्ता लग गया, लेकिन वह एक हफ्ता न पढ़ पाने की बेचैनी से भरा था। कविताऐं या कोई भी पुस्तक पढ़ने में लेखक से परिचय/अपरिचय मायने नहीं रखता किन्तु इस संग्रह को पढ़ते समय कवि के वातावरण से अपरिचय का भान जरूर हुआ। फिर भी कविताओं ने आकर्षित किया और बांधे रखा , मेरे विचार से इस संग्रह की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है!

प्रस्तुत संग्रह पढ़ते हुए एक बात ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। अनेक कविताओं में रिश्ता प्रमुख तत्व के रूप में उभरकर आया है। पवन ग्रामीण परिवेश से हैं और शायद यही वजह है कि वे रिश्तों को ज्यादा तवज्जो देते हैं। यह बहुत सुखकर भी है। पहली ही कविता ''बाड़'' में कवि को संयुक्त परिवार में माता-पिता का होना सुरक्षा का अहसास कराता है ----

''माँ की ममता
और पिता के हौंसले ने
संभाल रखा है सब लकड़ियों को एक साथ
जैसे ताउम्र संभाला उन्होंने अपना परिवार ''

इसके तुरंत बाद आई कविता में कवि पुत्र के प्रति चिंता जाहिर करता है। अपनी कविता ''जाने कब'' में पवन कहते हैं ---

''झुर्रियां लटकाए
नम आँखों से देख रहा हूं
एक एक पल को खिसकता
सदियां समेटता''

''खांसते पिता'' किसी के लिए नींद में खलल का कारण बन सकते हैं, पर संवेदनशील और रिश्तों के प्रति जागरूक कवि को पिता की रात बेरात उठनेवाली खांसी में घर की सुरक्षा निहित दिखाई देती है। अपने माता पिता की वृद्धावस्था के प्रति संवेदनशीलता यह एक नायाब उदाहरण है

रिश्तों के अलावा कवि पवन चौहान सामाजिक सरोकार की कविताएं लिखते हैं। उन्हें पर्यावरण की चिंता है. पहाड़ी क्षेत्र में निवास के कारण पहाड़ों से एक स्वाभाविक लगाव है। ''पहाड़ का दर्द'' में पर्यटकों की पहाड़ों के प्रति बेरुखी और वहां कबाड़ छोड़ जाने की वेदना छुपी है, जिसे कोई पहाड़ी ही समझ सकता है। सामाजिक सरोकार की सबसे बेहतरीन कविता ''कभी कभी'' है. इसमें कवि तमाम परिस्थित्तियों के प्रति अपना दुख, पीड़ा,क्षोभ व्यक्त करता है और अंत में

''आईने पर नजर पड़ते ही
मेरा सारा गुस्सा,सारी पीड़ाएं
हो जाती हैं धराशायी
और मैं ढूंढने लगता हूँ
अपने छुपने का स्थान''

यह विवशता,असहायता हर संवेदनशील व्यक्ति की है, जिसे पवन ने शब्दों में ढाला है। यों तो पूरा संग्रह ही पठनीय है,पर कुछ कविताएं अंतर्मन में हमारा पीछा करती हैं, इनमें ''सेब का पेड़'',शहर और मैं, खिलौना,बचपन की चाहत,किराए का मकान,मैं अभी आदि हैं। ''किराए का मकान'' अद्भुत है. इस मकान में अनेक लोग आते-जाते हैं और उस मकान को लगता है कि ---

''मैंने बहुत कुछ देखा,सुना,महसूस किया
ढेर सारा अनुभव पाया
पर अफ़सोस
मैं कभी घर नहीं बन पाया''

सभी कविताएं मुक्त छंद में हैं और सरल,सहज,प्रवाही हैं फिर भी क्षेत्रीय शब्दों की भरमार खटकती है। यद्यपि कई जगह उनके अर्थ दिए गए हैं,तब भी वे रुकावट तो बनते हैं। यह सही है कि इस तरह के प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है,पर व्यापकता के लिए, खास तौर पर कविताओं में , यथा संभव स्थानीय भाषा से बचा जाना चाहिए। बोधि प्रकाशन जैसे प्रतिष्ठान से पहला ही संग्रह प्रकाशित होना मायने रखता है, इस हेतु पवन चौहान बधाई के हक़दार हैं। प्रूफ की गलतियां न के बराबर हैं। चित्रकला के बारे में मैं बहुत ज्यादा नहीं जानती, पर संग्रह के शीर्षक से मुख पृष्ठ का तालमेल नजर नहीं आया। मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है , आसानी से खरीदा जा सकता है और यह संग्रह खरीदे जाने योग्य है।


-अलकनंदा साने, इंदौर

(वरिष्ठ कवयित्री, लेखिका, अनुवादक और एक्टिविस्ट)  
  

Friday, August 7, 2015

पार उतरना धीरे से:स्पष्ट पक्षधरता और बदलती ग्रामीण चेतना की मार्मिक कहानियाँ







"पार उतरना धीरे से" विवेक मिश्र का दूसरा कहानी-संग्रह है जो विश्व पुस्तक मेला 2014 में सामयिक प्रकाशन से आया है। विवेक की कहानियों से मेरी पहचान कई साल, या कहें कि कई कहानियों पुरानी है। उनकी कहानियाँ उनके पहले कहानी संग्रह ‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ से ही अपने विशिष्ट कहन और यथार्थपरकता के चलते अपनी ओर ध्यान खींचती रही हैं। उनके इस नए संग्रह में कुल दस कहानियाँ है जिनमें से अधिकांश कहानियाँ विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित हो चुकी हैं। आज विवेक मिश्र का शहरों से लेकर गाँव-कसबों तक फैला एक बड़ा पाठक वर्ग है और उसका कारण है उनकी कहानियों का परिवेश, जो तेज़ी से शहरों में बदलते गाँव और मन में बसे गाँव के साथ विकिसित होते शहरों के बीच कहानी में एक जीवित चरित्र-सा धड़कता है। 


उनकी कहानियाँ अपने आस-पास के परिवेश और समय की कहानियाँ है। अपनी कहानियों के परिवेश के प्रति उनकी यह सजगता, उससे गहरे तक जुड़े सरोकार और स्पष्ट पक्षधरता उनकी रचनाशीलता की पहचान है। उनकी कहानियों का यथार्थ सतही नहीं है बल्कि वह जड़ और ज़मीन से जुड़ा है। यही कारण है कि ‘हनिया’, ‘घड़ा’ आदि कहानियों से लेकर ‘दोपहर’, ‘पार उतरना धीरे से’ और ‘खण्डित प्रतिमाएं’ जैसी कई कहानियों ने आज कथा-जगत में अपनी अलग पहचान बनाई है। विवेक बुंदेलखंड से आते हैं और वे वहाँ कि भाषा, लोक संस्कृति के साथ वहाँ के आदमी के सुख-दुख भी अपनी कहानियों में साथ लेकर आते है। विवेक की कहानियों की ग्रामीण चेतना में वहाँ के निरन्तर बदलते भयावह यथार्थ की कठोरता और लोक की कोमलता और कच्चापन एक साथ दिखाई देता है। उनकी कहानियों में आंचलिक शब्दों का प्रयोग कथ्य और शिल्प की रोचकता इस क़दर बढ़ा देता है कि आप कहानी के परिवेश को जीने लगते हैं।


संग्रह की पहली कहानी 'दोपहर’ जो ‘हंस’ में प्रकाशित हुई थी और खासी चर्चित रही थी इस संग्रह की हासिल कहानी है। ठेठ बुलेन्दखंडी पृष्ठभूमि के चलते इस कहानी का आंचलिक परिवेश ताज़गी लिए हुये है। ये दोपहर हर उस बच्चे की दोपहर हो सकती है, जिसने नाना-मामा के यहाँ गाँव में गर्मी की छुट्टियाँ काटते हुए ऐसी दोपहरें बिताईं है। इस कहानी को पढ़ते हुए लगता है कि विवेक के पास स्मृतियों, अनुभवों और शब्दों का अनूठा खज़ाना तो है ही पर उसके साथ ही उनमें एक बुज़ुर्ग किस्सागो की सलाहियत भी है। ग्रामीण परिवेश की व्याख्या करते हुए विवेक एक के बाद एक शब्द-चित्र खींचते चलते हैं। वह समय और हालात बयां करते हुए एक आख्यान रचते हैं। आप कहानी के पात्रों की खुशी और दुख के साथ जुड़ते हुए आगे बढ़ते हैं। उनकी व्याख्या पाठक को ठीक उसी परिवेश के बीचों-बीच ले जाकर खड़ा कर देती है जहां कभी आप दोपहर के उस सन्नाटे को अपने इर्द-गिर्द पाते हैं तो कभी 'तपती जमीन पर पानी के पड़ते ही उमस का भभका हवा में तैरता' महसूस करते हैं। कहानी का वह रोमांचक टर्निंग पॉइंट, जो पाठकों को, रोमांच के शिखर तक ले जाता है, के आने तक कहानी पाठक का मन बांधे रखने में पूर्णत: सक्षम है। ये कहानी भ्रष्टाचार की कोख से जन्में उसकी अवैध संतान, ऐसे नव-धनाढ्य वर्ग की परतें उधेड़कर नंगा करती है जिसके कारण कितने ही ईमानदार जीवन गर्क हो जाते हैं।


इस संग्रह की दूसरी मह्त्वपूर्ण कहानी है- 'तन मछरी-मन नीर' जो आंचलिक परिवेश की होते हुए भी एक अलग रह्स्मयी सामंती दुनिया में ले जाती है। जहां बिगड़ा-दिल राजा नाहरसिंह है, उसकी नई नवेली दुल्हिन रानी सुवासिनी है और उसका निर्धन प्रेमी बिसन है। राजसी ठाठ-बाठ में कैद बिनु जल मीन सी तड़पती रानी को अपनी पीर से निजात अपने प्रेमी की बाहों में ही मिलती है जिसके लिए वह एक हृदय है, प्रेम है, मात्र देह नही। जो उसकी देह नहीं उसके मन का राजा है। उसका प्रेम सोने के पिंजरे में नहीं उन्मुक्त हवाओं में है जहां मन को मन से राह होती है। किसी लोककथा-सी राजसी परिवेश में रची गई ये कहानी अपने अनोखे अंत को लेकर संग्रह में खास जगह बनाती है।


'खंडित प्रतिमाएँ' सुनसान बीहड़ों की उस दुनिया में ले जाती है जहां इंसान की कीमत चाँदी के टुकड़ों से ज्यादा नहीं है। यहाँ सुनसान बीहड़ हैं, खूंखार डकैत हैं, गोली-बारूद है, अपहरण और फिरौती है। डाकुओं की भयावह दुनिया में पत्ते की मानिंद काँपते एक अपहृत व्यक्ति की विवशता का ताना बना रचती ये कहानी एक खास मोड पर जाकर छोड़ देती है जहां आगे जीवन एक बड़े प्रश्न के रूप में ठहर जाता है। यह कहानी बिना किसी फर्मूले में बंधे विमर्श मे जाए एक बड़े वर्ग संघर्ष और उससे उपजे विमर्श की ओर इशारा करती है। कहानी पढ़ने के बाद भी इस वर्ग संघर्ष में चलती गोलियाँ कानों में गूँजती रहती हैं और एक साथ धूँ-धूँ करके जलती झोपड़ियों का दृश्य आँखों के सामने घूमता रहता है।


'दीया' कहानी धर्म-गुरु के चोले में छिपे एक वहशी दरिंदे की कहानी है जिसकी गंदी नज़र कमसिन निर्धन लड़की पर है। धर्म के नाम पर कुरीतियाँ कैसे अबोध बचपन को अपनी हवस का शिकार बनाती हैं ये कहानी उसका सटीक उदाहरण है। कभी धर्म के नाम पर, कभी सेवा के नाम पर तो कभी देवदासियों के नाम पर जब जब धर्म के शिकंजे किसी कमसिन कुँवारे जिस्म की ओर बढ़े हैं बिलिया जैसी जाने कितनी अबोध लड़कियां इसका शिकार बनी हैं। किन्तु 'दीया' में अंत विशिष्ट है वहाँ कुरीति है, कुकर्म की लिप्सा भी है पर आगे कहानी समाधान की ओर बढ़ती है जहां लड़की की दादी उसे विद्रोह के रास्ते को दिखा इस नर्क से निजात दिलाने में विशेष भूमिका निभाती है।


धर्म, आस्था और यथार्थ के बीच डोलते बालक 'ज्ञान' की कहानी है 'दुर्गा’। यहाँ कहानीकार ने दुर्गा-पूजा के माध्यम से आस्था और अंधविश्वास के दोराहे पर खड़े एक मासूम के अन्तर्मन का चित्र साकार किया है। यहाँ चारों ओर गुंजायमान जयजयकार के बीच गहरी होती आस्था की जड़ें हैं वहीं अंधविश्वास में बदलती आस्थाओं में डोलता बालमन है जिसका एक सिरा थामे है वो चिर-विश्वास जो आस्था को टूटने से, डूबने से अंतिम क्षणों में रोक ही लेता है।


'तितली' विवेक मिश्र की काफी चर्चित और लंबी कहानी है। सुगठित कथा-विन्यास में रची यह कहानी शहरी जीवन की रंगीनियाँ और उसकी आड़ में छिपे घिनौने अँधेरों का पर्दाफाश करती है। यहाँ आधुनिकता और प्रेम का मुखौटा पहने दरिंदे हैं जो किसी भी तितली के युवा होते ही उसे फँसाने की तिकड़म में लग जाते है। इक्कीसवी सदी की बन्दिशें युवा पीढ़ी को कैद मालूम होती हैं और आधुनिकता की ओर बढ़ते कदम कब सैयाद के बिछाए जाल की ओर बढ़ जाते हैं ये तभी मालूम होता है जब यौवन पार्टियों की चकाचौंध, लंबी गाड़ियों, फैशन, ऐशों-आराम की भूल-भुलैया में सब गंवा बैठता है। बचता है तो केवल चिरे हुए पर और घायल तन-मन।


'थर्टी मिनट्स' आज की कहानी है जहां युवा पीढ़ी का जीने का नया अंदाज़ है, थ्रिल है, उब से बचने के सारे उपक्रम हैं और अपनी ही बनाई चुनौतियों से संघर्ष है जहां जीवन भी मात्र एक चुनौती ही है। कुल मिलाकर यह कहानी महानगरीय आधुनिक युवा का खाका खींचती है जिसके लिए जिंदगी वो खेल है जहां एक मिनट की भी देरी जीवन को मृत्यु में बदल देती है। 'सपना' एक छोटी कहानी है जो नींद और सपने के रिश्ते की तहें खोलती है। 'बसंत' भी ऐसी ही एक छोटी कहानी है जहां बचपन से जुड़ी यादें सँजोये एक जिंदगी है जो यादों का सिरा खोने नहीं देती।


और अन्त में ‘पार उतरना धीरे से’ की बात जो इस संग्रह की शीर्षक कहानी है। धर्म, अंधविश्वास, नारी की गहन संवेदनाओं के बीच से उठती बांझ होने की पीड़ा और संतान पाने की चाह और जीवन में बने रहने की जीजिविषा के तारों से बनी यह कहानी अपनी मार्मिकता के चलते किसी भी हृदय में हमेशा के लिए बस जाने वाली कहानी है। यह समाज में बांझ करार दी गई एक ऐसी महिला, रातना कमैती की कहानी है जो गोद भरने पर भी अपनी गोद को अपने ही हाथों सूना कर देती हैं क्योंकि उसकी ममता जितनी उसके शिशु के लिए है उतनी ही उस जीव के लिए भी है जिसकी उसके बच्चे के लिए बलि दी गई है। इस ममत्व की कितनी बड़ी कीमत उसे चुकानी होती है यही इस कहानी का मर्म भी है और संवेदनात्मक आधार भी।


यूँ तो संग्रह की सभी कहानियों में शिल्प की बुनावट इतनी सुदृढ़ और कसी हुई है कि आप कहानी को एक ही बार में अन्त तक पढ़ते चले जाते हैं पर इसके चलते विवेक कहीं कोई संदर्भ जल्दी में समेटते नहीं दिखते, यहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म संदर्भ भी पूरा विस्तार पाते है जिससे एक के बाद एक दृश्य चलचित्र से सामने साकार होते चलते हैं और इसी कारण अंत तक रुचि की डोर पाठकों का मन थामे रहती है। यथार्थ-परकता के चलते कहीं कहीं संवादों में मुखरता अपनी जगह बनाती हुई कहानी को आगे बढाते हुए मन को आहत और चोटिल करती है तो वहीं देशज शब्दों की शीतलता 'लोकगीतों' का मरहम भी लगा देती है। कथाकार विवेक शब्दों के प्रयोग को लेकर बहुत सजग तो हैं ही, साथ ही कथ्य के सारे सिरों को बखूबी समेट कर रोचक अंत तक पहुंचाने की उनकी क्षमता विशेष रूप से प्रभावित करती है। उम्मीद है कि उनकी यह रचना-यात्रा ऐसे ही जारी रहेगी और आने वाले समय में उनकी प्रतिभाशाली कलम से ऐसी अनगिनत कहानियाँ निकलेंगी जो उनके कथा-जगत के शीर्ष तक पहुँचने का रास्ता बनाएंगी।

-- अंजू शर्मा


पार उतरना धीरे से (कहानी संग्रह); लेखक-विवेक मिश्र; सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2, मूल्य- 200/-

Monday, June 1, 2015

डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी : मेरी नज़र से






डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी...आप कहेंगे मुझे इतने दिनों बाद इस फ़िल्म का ज़िक्र क्यों सूझा।  दरअसल मैं रिलीज के समय चाहकर भी इसे नहीं देख पाई थी और कल इसे टीवी पर देखा।  इस फ़िल्म को मैं कई वजहों से देखना चाहती थी।  सबसे पहली और अहम वजह थी कि ब्योमकेश बक्शी पर बना सीरियल मुझे खासा पसंद था। यूँ भी मर्डर मिस्ट्रिस में मेरी दिलचस्पी हमेशा से रही है। फिर पीरियड फ़िल्में मेरी कमजोरी हैं और अगर उनकी पृष्ठभूमि कलकत्ता या बंगाल हो तो मिस करना बहुत खलता है।  दिबाकर बनर्जी का नाम ही काफी है और ब्योमकेश बक्शी के रोल में सुशांत सिंह राजपूत को देखने का मोह भी था।  सुशांत टीवी सीरियल्स के दिनों से ही मुझे बहुत शर्मीले और बुझे-बुझे नज़र आते हैं पर एक डांस बेस्ड रियलिटी शो में उन्हें देखने के बाद उनकी क्षमताओं को लेकर बनी तयशुदा इमेज टूट गई।

अब सीरियल की बात करूँ तो फ़िल्म और सीरियल की तुलना करने से खुद को रोकना चाहकर भी संभव न हुआ। सीरियल में ब्योमकेश एक मंजे हुए जासूस हैं जो अपने पत्ते अंत में खोलते हैं जबकि फ़िल्म में उनके जासूसी कैरिअर का शुरुआती दौर है, एक कलकतिया युवा जो अभी खुद को लेकर उतना मुतमईन नहीं। जो गलतियां करता ही नहीं उन्हें मानता भी है।  बेहद उत्साही और जल्दबाज़ भी है।  रजित कपूर का चेहरा उनके इंटेलेक्चुअल होने की ताकीद करते हुए एक अनुभवी और चतुर जासूस की भूमिका में फिट बैठता है जबकि सुशांत पूरी फिल्म में कन्फ्यूजियाए पर बड़े प्यारे लगते हैं!  उनके चेहरे पर बक्शी वाले शांत पर ह्यूमरस भाव कुछ अलग तरह से दिखते हैं! फिल्म में उनकी और अजित की जबरदस्त केमिस्ट्री मिसिंग थी जो सीरियल की जान थी।  याद कीजिये तेज़ गति से चलते, गहरे सोच में डूबे ब्योमकेश और उनके साथ दौड़ते हुए उन्हें समझने की कोशिश में परेशान अजित बाबू!   फ़िल्म देखते हुए रजित कपूर और रैना की वो केमिस्ट्री जेहन से जाती ही नहीं थीं क्योंकि यही वो केस है जहाँ अजित के पिता की हत्या की गुत्थी सुलझाते हुए दोनों करीब आते हैं और वो बैकग्राउंड सिग्नेचर ट्यून, उसके बिना ब्योमकेश बक्शी देखने का मज़ा अधूरा रहा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अफीम की तस्करी और उसके लिए हुई गैंगवार से शुरू हुई फिल्म एकाएक  साधारण मर्डर केस की छानबीन से गति पकड़ती है जो कतई साधारण नहीं और जिसके तार न केवल तस्करी, गैंगवार बल्कि जापान के संभावित हमले तक से जुड़ते हैं!  इसी मर्डर की तहकीकात के दौरान ब्योमकेश एक के बाद एक राज से पर्दा उठाता जाता है!

फ़िल्म में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए स्वस्तिका मुख़र्जी से बेहतर क्या हो सकता था, इसके लिए उन्हें और उनका सटीक उपयोग करने के लिए दिबाकर को पूरे अंक दूंगी।  उनका गहरे मेकअप से सजा दिलकश चेहरा और कामुक अदाएं उनके रोल के लिए परफेक्ट थीं वहीं सत्यवती के रोल में दिव्या मेनन भी खूब जमी हैं हालाँकि ये लव वाला एंगल न भी होता तो फिल्म ज्यादा विश्वसनीय लगती!  च्यांग ने अपना रोल निभा भर दिया, उनके पास करने के लिए कुछ था भी नहीं!  खलनायक डॉ गुहा के रोल में नीरज कबी ने पूरी फिल्म में अपने अभिनय से प्रभावित किया पर अतिरंजित नाटकीय अंत पूरी फिल्म की सहजता पर हावी हो गया!  फिल्म का अंत पूरी फिल्म से अलग दिखा!  जिस सनसनी से दिबाकर पूरी फिल्म में बचने में कामयाब रहे वही अंत में उन पर हावी हो गई!  कुल मिलाकर इस फिल्म के नायाब सेट्स और फिल्मांकन और दिबाकर के चुस्त निर्देशन के कारण ये फिल्म वक़्त की बर्बादी नहीं लगी तो भी ये जरूर कहना चाहूंगी कि इसे यादगार फिल्मों में शुमार करने से पहले रुककर सोचना पड़ता है!  मैं इसे दोबारा देखने की बजाय यू ट्यूब पर ब्योमकेश बक्शी सीरियल ढूंढना ज्यादा पसंद करुँगी!

Friday, May 29, 2015

चीनी मिट्टी- रेशम पानी (कहानी) - अनघ शर्मा








युवा कथाकार अनघ शर्मा की यह कहानी धर्म की चमकीली दुनिया के परदे के पीछे के काले  अंधेरों की शिनाख्त ही नहीं करती बल्कि तमाम परतों को उघाड़कर उसे सच का आइना भी दिखाती है!  अनघ की किस्सागोई का अंदाज़ मुझे पसंद आया! आप भी पढ़कर देखिये…… 


1.

"आह्लाद की रेशमी डोरी हो या विषाद का सूती बिछौना, स्मृति में बंद पहले प्यार का सूखा गुलाब दोनों में बराबर ही महकता है ,उसने कहीं सुना था ये।" पर उसकी स्मृति में सिर्फ़ गुलाब ही नहीं तमाम संसार बंद था और जिसकी महक उसके अंदर हर पल ठाठें मारती रहती थीं। कितनी बड़ी चौखट थी उस घर की जैसे किसी ने बुलंद दरवाज़े की नकल उतार के जड़ दी हो।  धूप-छाँव बिना उसे पार किये दालान में उतर नहीं सकते थे। वो बेल-बूटे, लकड़ी के फूल अब उसकी यादों में कुलबुलाते हैं। अजब-गज़ब सी आवाज़ें अंदर गूंजती रहती हैं जैसे खाली मैदान में हवा की सनसनाहटें। और यहाँ हॉस्टल के बंद कमरे में उसका दम घुटता था।

"कौन? कौन है वहाँ ?" उसने चीखना चाहा पर बोल नहीं निकले।

अवचेतन में से एक आवाज़ गूंजी।

"मृत्यु, मृत्यु अवश्यम्भावी है, जन्म टाला जा सकता है पर मृत्यु नहीं। हर हाल में आने वाली घड़ी है ये,किसी युक्ति से नहीं रोकी जा सकती। "

"कौन है खिड़की पर?तुम हो क्या चक्कूमल?हाँ तुम ही तो हो तुम्हारी अंगूठियां दीख रही हैं मुझे। उसने बुदबुदाहट में कहा। बुखार की झोंक उसे फिर अतीत में बहा ले गयी।

"अच्छा सुनो!तुम भी मुझे औरों की तरह पंडित जी बुलाया करो चक्कूमल नहीं।"

और तुम क्या बुलाओगे मुझे?"

"कीर्ति "

ऊँहूँ …… मिस सरकार बुलाओ …पता है पिछली दफ़ा इसी नाम से फ्रॉड किया था मैंने, और फिर पकड़ी भी गयी थी, उसने कहा।

वो हँस पड़ा ये सुन के।

पर बुखार की दवाईयों ने उसमें हंसने की ताक़त भी नहीं छोड़ी थी। उसने करवट ले खिड़की की तरफ़ पीठ कर ली और वापस औंघासूती में डूब गयी।

चक्कूमल शुगर वल्द नानकमल शुगर वल्द मानकमल शुगर हाज़िर हों………वो चौंक कर जाग गयी। चौक की घड़ी ने तीन बजाये,चाँद बादल में सरक गया, प्यास ने गले में दस्तक दी।
उसने पानी से एक गोली निगली और साथ ही चक्कूमल की याद भी।

पर कौन थे ये दोनों ? पखावज से निकली कोई ताल? समय के बाहुपाश से छूटे कोई अजब किरदार? कोई नहीं जानता था कि ये दोनों कौन थे?

ये समय के अद्भुत दस्तावेज़ थे। वो वरक़ थे जिन पर जीवन का लिट्मस टेस्ट होना था।  खुली खिड़की में से किसी गाने की अस्प्ष्ट धुन तैरती हुई कमरे के भीतर चली आ रही थी। "याद अगर वो आये,ऐसे कटे तन्हाई।"

"सुनो ज़रा ये खिड़की बंद कर दो हवा आ रही है अंदर।" उसने साथ सोती हुई लड़की से कहा और नींद की नाव डूबने से पहले किसी की याद को दस्तक देते हुए सुना।

"शिरीष के फूल पढ़ी है?"
"मैक्सिम गोर्की को?"
"रागनियाँ सुनी हैं कभी तुमने?"
"तुमने कुछ पढ़ा-सुना है कभी पंडित जी ?"
"हाँ तुम्हें सुना है और तुम्हारी लक़ीरें पढ़ी हैं। "

"चुप रहो "उसने बनावटी क्रोध जताते हुए कहा।
"अच्छा ये बताओ हम कौन हैं ?" चक्कूमल ने पूछा।
"हम! हम फ्रॉड हैं यार …… तुम लोगों की झूठी लकीरें बाँचते हो, और मैं तो ज़िंदगी को अब तक ख्वाबफ़रोशी का जरिया ही मानती रही हूँ।"

 " अच्छा जानते हो फ्रॉड करना क्या होता है ?'


"हम जितनी लफ्फ़ाज़ी, जितना भरम, जितना धोखा दूसरे को देते हैं, उससे कुछ ज्यादा उसी वक़्त ख़ुद के साथ कर रहे होते हैं। हम अपनी ज़िंदगी के साथ सी-सॉ खेल रहे हैं पंडित जी।"

"और ज़िंदगी को ख्वाबफ़रोशी का ज़रिया मानने की कोई वज़ह?"

"कोई वजह नहीं,और यूँ भी दुनिया में जितनी भी वज़हें हैं सब फ़ज़ूल हैं और सलाहियतें तो बोझ हैं। मुझे बेवजह मरना है और सलाहियतों बिन जीना है, एकदम रॉ, बिन तराशे पत्थर की तरह।  वैसे भी हम बिखरे हुए वरक़ हैं, कल को कोई ज़िल्दसाज़ आयेगा हमें एक के ऊपर एक रखेगा, फिर हमें पाँव से, दायें-बायें से,सर से ठोंक-ठोंक कर अपनी जाने दुरुस्त करेगा। उसके बाद हमसे बिना पूछे हमें अपनी मनमर्ज़ी आड़ा-टेड़ा सिल देगा।ज़िंदगी सिलने से पहले पूछने का मौक़ा नहीं देती। अग़र मौका दे तो दुनिया भर की किताबों के दो-तिहाई वरक़ कहेंगे की हमें आज़ाद रहने दो, उड़ने दो। पर कुछ वरक़ ढीठ होते हैं ये इतनी ज़ोर से अपने कंधे फड़फड़ाते हैं कि ज़िल्द का धागा टूट जाए …………हाँ तुम कह सकते हो की उन्होंने खुदकुशी कर ली। मैं इसी तरह का वरक़ हूँ पंडित जी जिसे आज़ाद रहना है। मैं कल को चाहूँ तो तुम्हें भी छोड़ के जा सकती हूँ। "

वो अवाक उसके चेहरे को देखता रह गया।

2

माई की जै, माई की जै ……… हर ओर से उठती आवाज़ें उसके अंदर सिरहन पैदा कर रही थीं। उसने अपनी पसीजी हथेलियों को देखा फिर एक दूसरे में यूँ चिपका दिया जैसे सामने बैठी भीड़ को नमस्कार किया हो। पंडाल में दूर-दूर तक औरतें क़तार की क़तार दम साधे माई को सुनने के लिए बैठी थीं।

इतनी भीड़ देख कर वो सकपका गई,सोचा कि भाग जाए पर दुनिया को ठगने वाली यूँ ज़रा सी भीड़ देख भाग जाये तो उसकी बरसों की ट्रेनिंग पर लानत होगी।

काली किनारी की सफ़ेद तांत में उसने खुद को सामान्य से अलग दिखने का एक प्रयास किया था और जिसमें वह सफल भी हो गयी थी। कम उम्र सी एक अद्भुत चमक थी उसके चेहरे पर ,जैसे शांत निर्मल ईश्वर की छाया पड़ गयी हो। पर वो जानती थी ये कमाल उसके प्रसाधन भोगी हाथों का है।

ऊंचे तख़्त पर बैठ कर उसने एक नज़र सामने डाली,एक हुजूम को अपने सामने नतमस्तक देख उसके आत्मविश्वास की पतवार वापस तन गयी। उसने सधी आवाज़ में कहना शुरू किया।

"प्रेम हर मस्तिष्क में एक गर्भाशय रोप देता है। इस गर्भाशय में अनगिनत यादें संतति के रूप में पनपती रहती हैं। प्रेम सफल तो अच्छी,सुखद यादों की संतान जन्म लेती है और अगर असफल तो बुरी, दुखद यादों की संतान जन्म लेती है। प्रेम में संतति का जन्म निश्चित है और संतति कैसी हो ये प्रेम की सफलता-असफलता पर निर्भर करता है।"

भीड़ दम साधे सुनती रही उसे। कहीं पत्ता भी खड़कने की आवाज़ नहीं थी। गूँज रही थी तो बस माई की आवाज़। उसने देखा उसके शब्दों का जादू चल गया और सब मंत्रमुग्ध से जड़ हो गए हैं।

वो झटके से उठी और मुड़ कर वापस अंदर चली गयी। ये नयी अदा सीखी थी आजकल उसने,  एक रहस्य का माहौल तैयार करो और फिर सबको उस आवरण में छोड़ कर निकल जाओ। पीछे जय-जयकार की आवाज़ गूंजती रहे।

अंदर कमरे में उसने देखा कि चक्कूमल मेज़ पर चढ़ कर बैठा हुआ है।

"आओ! बहुत बढ़िया बोला तुमने। जै-जै की आवाज़ यहाँ तक आ रही है। "

"थक गयीं।"

"अच्छा, आओ यहाँ बैठो मेरे पास। "उसने मेज़ पर एक तरफ खिसकते हुए कहा।

"नहीं ठीक है, पहले ज़रा ये मेकअप उतार लूं। "

"एक सलाह दूं। "

"यूँ ही प्रेम का पथ दिखाती जाओ लोगों को,भला होगा का।"

बालों में से जूड़ा पिन निकालते-निकालते हाथ एक दम रुक गए उसके,चेहरे पर हल्की विद्रूप की लहर आई और आँखों में ठहर गई।

"क्या बचता है बाद में बवंडरों के,आँधियों के,बगूलों के  …… ? कुछ भी नहीं सिवाय होठों पर रेत और हलक़ में चटकती प्यास के  ….... खुलूस के नाम पर पंडित जी आप लोगों को प्यार की सीख बांटते हैं यानि की बवंडर बांटते हैं,आंधी बांटते हैं,बगूले बांटते हैं,प्यास बांटते हैं। मुझे इसलिए आप की दो कौड़ी की नसीहतों में राई-रत्ती भी इंट्रेस्ट नहीं पंडित जी।"

जानते हो ये प्रेम हल्की डोरियों की तरह पीठ पर कसा होता है। धीरे-धीरे ये डोरियाँ घिस जाती हैं, बदरंग हो जाती हैं,टूट जाती हैं ....... एक बार ये टूटीं तो कोई भी दर्ज़ी इनका टांका नहीं जोड़ सकता।इनके टूटने से पीठ और छाती दोनों का नंगापन चमकने लगता है। कोई बिरला ही अपनी पीठ पर ये डोरियां कसी रख पता है। कोई बिरला ही प्रेम निभा पाता है चक्कूमल। 

लाउड स्पीकर से आता शोर अब थम गया था।  नेपथ्य का जय-जयकार भीड़ के साथ विदा ले चुका था। अब यूँ लगता था मानो वो दोनों ही अकेले छूट गए हो यहाँ और बाकी सब परिधि लांघ गए हों।

"ज़रा चारमिस तो पकड़ाना।" उसने कहा।

"तो फिर हम साथ क्यों हैं?उसने क्रीम पकड़ाते हुए पूछा।

"प्यार के लिए। "

"मतलब?"

"मतलब कि हम अपनी ज़रूरतों को प्यार का नाम पहना देते हैं। हम अपनी सुविधा के लिए अलग-अलग चीज़ों को एक दूसरे पर आरोपित कर देते हैं।"       

"कैसी ज़रूरतें ?"

"देह की, पैसों की,हंसने-बोलने की, कपडे-लत्तों की,खाने-पीने की। एब्सकोंडर हैं हम तुम, भगोड़े हैं अपने-अपने जीवन से। मैं एक शादीशुदा लड़की जो अपनी नीरस उबाऊ शादी से भाग आई धोखाधड़ी करके, वो तो भले लोग थे कि कोई तमाशा नहीं किया उन्होंने। और तुम गणित के मास्टर जो चार ट्यूशन भी नहीं जुटा पाया अपने लिए। अब थक-हार के पिता की पंडिताई को ही आगे बढ़ा रहे हो न। बोगनबेलिया के कई-कई रंग वाले फूलों को एक साथ सजाने से कहीं इंद्रधनुष बनता है,उसके लिए धूप-पानी की ज़रुरत होती है। मैं और तुम खेत-मंडवे की मिट्टी और पोखर का पानी हैं जिन्हें अपने ऊपर,अपने असली रंग-रूप पर बेतरह शर्म है,इसलिए जो अपने ऊपर 'चीनी मिट्टी-रेशम पानी ' का मुलम्मा चढ़ाये रखते हैं। हमारी ज़िंदगी मेटाफ़र पर टिकी है। हम हर बीतते क्षण,बीतते पल जीवन के पुराने बीते हुए या बीतने वाले बदरंग हिस्से को किसी न किसी काल्पनिक सुंदर चीज़ से बदल देते हैं। तुम मेरे झुर्रियों वाले चेहरे को चाँद कहते हो और मैं तुम्हारी साँसों को आग की लपट। पर जानते हो चक्कूमल मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया कि तुम्हारी सांसें कितनी ठंडी हैं और तुम कितने बुरे खर्राटे लेते हो। पता है मैं जब जब तुम्हारे रुकी एक दिन भी इन आवाज़ों की वजह से सो नहीं पाई। न ही तुम ने ही कभी कहा कि ये झुर्रियां मुझे बदसूरत बना रही हैं। "

"हम फ्रॉड हैं बेहतर हो एक-दूसरे को छोड़ दुनिया को ठगें …… ये चाँद-वाँद छोडो और असल ज़िंदगी में लौट आओ पंडित जी। "

"अच्छा !तुम्हारा लेक्चर ख़त्म हो गया हो तो सोने चलें।"

"नहीं, थक गई हूँ ,आज यहीं अपने कमरे में सोऊँगी। चलो बाय , गुड नाइट। "

"बाय। "

एक सुबह वो भाग गई, सब ले कर फ़रार, उसके सर पंडाल और होटल का खर्च और बटुए में सात हज़ार रुपये छोड़ कर। अब चाहे वो घर जाये या चीज़ों का बिल चुकाए।

3

जून के नौ तपे के बाद भी अब तक रातें अब तक लू के असर से दहक रही थीं। ऐसी ही एक गर्म और अँधेरी रात में वो पराये,अंजान शहर में भटक रहे थे,जैसे अज्ञातवास में छुपे पांडवों को ढूंढ रहे हों। रिक्शे पर बैठे नानकमल शुगर ने इधर-उधर देखा,माथे पर आया हल्का पसीना कुर्ते की बांह से पोंछा और आँखें अँधेरे में यूँ गड़ा दीं मानो समय के पार झाँक रहे हो।

रात के निविड़ अँधेरे में निस्पंदित चुप्पी कभी-कभी किसी जुगनू की चमक से स्पंदित हो उठती थी। थोड़ी देर बाद ही सही पर नानकमल शुगर की आँखें उस अँधेरे में चीज़ें देखने की अभ्यस्त हो गयीं।  कुछ दूर ईंटों की एक लम्बी मीनारनुमा चिमनी के पास एक बल्ब टिमटिमा रहा था, और कहीं पास से पानी के तेज बहने की आवाज़ आ रही थी। परिवेश से परिचित होने के बाद उन्होंने एक बड़े दरवाज़े के पास रिक्शा रुकवा लिया।

"क्यों भैया तेलमील कम्पाउंड का लड़कियों का हॉस्टल ये ही है?"

"है तो ये ही, पर किससे मिलना है पंडित जी?" चौकीदार ने पूछा।

"हमाई बिटिया है यहाँ।"

"नाम?"

"कीर्ति  ....... कीर्ति शुगर नाम है। ज़रा बुलवा देओ भैया। "

"पंडित जी इतनी रात में तो लड़कियों से कोई मिल नहीं सकता, सुबह मिलना अब।"

"तो अब रात में कहाँ वापस जाईं हम ?"

"कहुएं नाईं, यहीं बैठो हमाई बेंच पे। "

"अच्छा ये इतनी जोर का पानी कहाँ बह रहा है भैया?”

"ये सामने जो देख रहे हो पंडित जी ये गत्ता फैक्ट्री है, गत्ता गलाया जाता है यहाँ,सो वाई का

गन्दा,सड़ा पानी बहता रहता है। "

"काम तो इहाँ अच्छा है तुम्हारे शहर में। "

"तुम कहाँ के रहने वाए हो पंडित जी?"

"मुज़फ्फ़र नगर।”

"ह्म्म्म्म्म्म्म, तम्बाकू खाओ पंडित जी ?"                

 नहीं,तुम्ही खाओ, हमने तो सालों हुए छोड़ दी। "

"खायलो पंडित जी मैनपुरी की कपूरी है,अच्छे-अच्छे तरसते हैं इसके लिए। "

"अच्छा लाओ चुटकी भर खिला दो फिर। "

"एक बात बताओ पंडित जी ?"

"ये शुगर कौन पंडित होते हैं ?पहली बार सुन रहे हैं। "

"नईं भई वो तो हमाए बाप शुगर मिल में मुलाजिम थे तो गाँव-खेड़ा में शुगर के नाम के नाम से बुलाये जाने लगे। "

"अच्छा, राजेश पायलट की तरह....हीहीही। "

"सुनो क्या हम सो लें इस बेंच पर?"

"सोओ-सोओ पंडित जी हम तो वैसे भी राउंड लगाने जा रहे हैं। "

अगली सुबह का सूरज बड़ी देर से निकला या पंडित नानकमल शुगर देर तक सोते रहे। देर गए जब उठे तो पूरा हॉस्टल लड़कियों के रंग-रूप से गुलज़ार था,पर एक वो ही नदारद थी जिसे ढूंढने वो बड़ी दूर से इस देहरी पर आ खड़े थे। दिन से दोपहर हुई,और अब तो दोपहर भी साँझ में ढलने को तत्पर दीख रही थी। बैठे-बैठे पंडित जी अब ऊबने लगे थे, और यूँ भी सुबह से लेकर अब तक उनकी कई बार पड़ताल की जा चुकी थी।

वो अनमने से बैठे थे कि एक लड़की उनके सामने आ खड़ी हुई।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा और बीच में आये समय के लम्बे आठ सालों के अंतराल को पार कर के लड़की ही पहले बोली।

"बड़े पंडित जी आप?"

"पहचान लिया बिटिया, हम तो सोचे थे कि जेन इतने सालों बाद पहचानोगी भी या नहीं। "

"कहिये, कैसे आना हुआ?"

"तुम्हारी मदद चाहिए।"

"कैसी ?"

"तुम चलो हमारे साथ वापस और चल कर पुराना काम संभाल लो। "

"तो मेरे पास क्यों आये हैं ? चक्कूमल से कहिये, वो तो पहले ही संभाल रहे थे काम को,या साध्वी के आने से ग्लैमर आ जायेगा प्रवचनों में। "

"वो कहाँ रहा अब। "

"मतलब "

"तीन साल हुए पीलिया बिगड़ गया था। बचा नहीं पाये। "

दुःख की एक छाया चेहरे पर ज़रा देर रुक कर वापस लौट गयी। पल भर में ही वो अपने रंग में लौट आयी।

"ये तो आज पहली बार देख रही हूँ बड़े पंडित जी, कि बछड़ा मर जाये तो गैया खुद मेमने को दूध पिलाने चली आये। "

वो सकपका गए।

"चल के गद्दी सम्भाल लो तुम।"

"मैं ऐसे नहीं जा सकती पंडित जी।" कुछ देर चुप रह कर वो बोली। "क्यों?"

"यहाँ मुझ पर एक केस चल रहा है। पुलिस को सत्तर हज़ार चाहिए उसे रफ़ा-दफ़ा करने को।  आप इंतज़ाम कर दो तो मैं इससे फ़ारिग हो कर साथ चल लूंगी, और हाँ आगे इसके बाद जो मुनाफ़ा वो फ़िफ्टी-फ़िफ्टी।ये सत्तर हज़ार अगल है पंडित जी, ये वापस नहीं होगा।"

4

समय की चकफेरियों में जो सामान्य हो गए उन्होंने अपने लिए गंगा के तट तलाश लिए………

जो विलक्षण बचे रह गए उन्होंने अपने लिए आकाशगंगाऐं चुनी उनके उदगम-समागम के छोर ढूंढने को। फिर वो चाहे शेक्सपीयर की कोई नायिका हो,कामू का कालिगुला या दिनकर का कर्ण.......... ये बचे रहे अपने सामान्यीकरण के होने से।ये विवश रहे जीवन के बजाय समय की प्रतिच्छायाऐं जीने को। ये समय के आगे थे इसलिए इतिहास में बदल दिए गए। इन्होने प्रेम माँगा था सो पीड़ा के भागी बने। पर हमारा क्या ? जो इस सामान्य और विलक्षणता के बीच के खाने में आ पड़े। जिन्हें न ही कभी गंगा का तट ही मिला और ना ही कोई आकाश गंगा। हम शिव की तरह गरलपान को बाध्य रहे। हम साधनहीन लक्ष्य रहे, ऐसे पड़ाव रहे रहे जिन्होंने बीच रेगिस्तान में लोगों को सुस्ताने के लिए छाँव तो दी पर कभी नख्लिस्तान बनने की हिम्मत नहीं जुटा पाये।

डायरी लिखते-लिखते जाने कब उसकी आँख लग गयी। आजकल उस पर ऐसी थकान बड़ी तारी रहती थी। उठते-बैठते,चलते-फिरते उसे ऐसा लगता था मानो शरीर की सारी ताक़त किसी अंजाने-अदृश्य रास्ते से बाहर जा रही हो। देर गए जब वो जागी तो देखा सामने एक नौजवान बैठा हुआ है।

"आ गए तुम,समय के बड़े पाबन्द हो। "

"जी शुक्रिया। बुख़ार कैसा है अब आपका ?"

"अब तो ठीक है काफ़ी। बुख़ार की वज़ह से तुम्हारा काम काफ़ी डिले हो गया न। वैसे क्या
करोगे मेरा इंटरव्यू छाप कर?,एक सलाह मानो छोड़ दो ये आईडिया, पचड़े में फंस जाओगे। "

" क्या नहीं पता लगना चाहिए लोगों को आपके बारे में ? कब तक गुमनाम रहेंगी।"

"किसी झंझट में मत फंसा देना मुझे ये सब छाप के। "

“निश्चिन्त रहिए।”

"फिर क्या हुआ?”

"किसमें ?"

"आपकी जीवन यात्रा में। "

"बस यात्रा थी,अब समाप्ति की ओर पहुँच रही है। अगले अक्टूबर में बासठ की हो जाऊँगी।

समय है बीत ही जाता है। "

"फिर भी बताइये तो।"

"पंडित जी आये वापस?"

"हाँ पंद्रह दिन बाद नानकमल वापस आए सत्तर हज़ार ले कर और मुझे साथ ले गए। आश्रम भी अब पहले जैसा नहीं रह गया था। हालांकि पुराना पक्का हिस्सा अब तक काफी कुछ वैसा ही था,जिसमें कहीं-कहीं खुली जगहों को बांस और कनातों से ढंक कर छोटे पंडाल जैसे रूप में बदल दिया गया था।"

"फिर?"

"आश्रम वापस जा कर कई महीनों तक गीता के पाठ सुनाया करती थी मैं। भीड़ तो जुट रही थी पर उतनी नहीं जो नानकमल को संतुष्टि दे सके। फिर एक दिन वो एक नए आईडिया के साथ आ "यही कि मुझे गीता पाठ की आवृत्तियाँ छोड़ कर आने वाली औरतों को होमसाइंस टाइप के लेक्चर देने चाहिए मसलन शादी सम्बंधि, पति को खुश रखने सम्बंधि,सेक्स सम्बंधि।कई बार मुझे यूँ भी लगता था कि चक्कूमल के इलाज में जान बूझकर ढीलाई बरती गई होगी, पर मैंने कभी जांच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की।

"पैसा!! यूँ भी उसके होने न होने से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था,और फिर आश्रम में कोई तक़लीफ़ भी नहीं थी। मज़े से गुज़र रही थी ज़िंदगी। और वो कोई ट्रैप नहीं था जहाँ मुझे
छटपटाहट होती। मैंने खुद चुना था वहाँ रहना,पहले भी जब छुटमलपुर से आई थी तब भी रही थी उसी आश्रम में चक्कूमल के साथ। "

"छुटमलपुर?"

"हाँ सहारनपुर के पास एक छोटा सा गाँव था तब तो। चक्कूमल की ननिहाल थी वहाँ।"

"और आप?"

"मैंने शादी की थी वहाँ। पर जाने कैसे पता लग गया उन्हें की ये धोखा-धड़ी की शादी है। वहीँ पहली बार चक्कूमल से मिलना हुआ, तब तक तो उसे भी नहीं मालूम था कि सब माजरा क्या है।फिर एक दिन में उसके संग चली आई।"

"कुल कितने समय आप आश्रम में रहीं?"

"सत्रह साल। पहले तीन और दूसरी बार लगभग चौदह साल। "

"तो आप लौट क्यों आयीं वापस?"

"पहले जब आई थी तो बंधन से आज़ादी चाहिए थी और दूसरी बार घृणा, ग्लानि। ये ग्लानि, जुगुप्सा, घृणा कभी भी घेर सकते हैं आपको। जब नानकमल आश्रम के महंत बने तो तो थोड़ी निराशा हुई थी मुझे, काश मैं बन पाती।पॉवर का बड़ा चार्म लग रहा था। पर बाद में जब सोचा तो लगा अच्छा ही हुआ जो नहीं बनी। आश्रम के महंत को बाद में समाधि लेनी पड़ती है।

जब वो भी नहीं रहे तो इस पूरे खेल,पूरी प्रक्रिया की प्रति जाने क्यों मन में एक जुगुप्सा का भाव पैदा हो गया। और यूँ भी ये गॉडमैन से गॉड बनने का खेल बड़ा यंत्रणापूर्ण होता है। वो हिम्मत नहीं बची थी।"

"और यहाँ?”

"यहाँ तो अभी तीन साल की नौकरी और बची है,फिर ये हॉस्टल भी है। आड़े वक़्त बड़ा काम आता रहा है ये हॉस्टल मेरे। "

'अच्छा चलूँ मैं अब।"

"हाँ,भई जाओ। अच्छा-अच्छा लिखना,छापना सब। जब छप जाए तो पढ़वाना भी मुझे, वर्ना इतनी बार यहाँ आने का क्या फायदा।"

"जी ज़रूर।"

"अच्छा सुनो जाते हुए पर्दा गिरा जाना, और हाँ ज़रा वहाँ टेबल से चारमिस भी पकड़ा देना। "


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Anagh Sharma

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Sunday, May 17, 2015

बॉम्बे वेलवेट यानि उम्मीदों के धराशायी होने की हृदय विदारक दास्तान















बॉम्बे वेलवेट  यानि उम्मीदों के धराशायी  होने की हृदय विदारक दास्तान!  फिल्म इतनी भी बुरी नहीं पर उम्मीदों का वजन इतना ज्यादा था कि उफ़, जरा भी सहन न कर सकी!  मेरे लिए फिल्म में कई आकर्षण थे!  अनुराग कश्यप का निर्देशन, अनुष्का-रणबीर की कैमिस्ट्री, रेट्रो थीम और जबरदस्त पब्लिसिटी! गोवा से शुरू हुई फिल्म ने शुरू में इस उम्मीद पर बांधे रखा कि शायद आगे कुछ कहानी बनेगी! पर नहीं साहब .... फैशन, स्टाइल, सेट्स और लगातार ब्लड शेड के जंजाल में कहानी को सिसकते, दम तोड़ते देखना दुखद अनुभव रहा!  अनुराग के निर्देशन से बहुत निराशा हुई!  उस एरा को क्रिएट करने में वे 200 प्रतिशत सफल रहे पर सिर्फ यही फिल्म मेकिंग होती तो फिल्म वाकई सफल और पैसा वसूल शाहकार कहलाती!  रणबीर और अनुष्का की केमेस्ट्री तो खूब जमी पर हर सीन के अंत में मैंने सेंसर की कैंची की आवाज़ बखूबी सुनी, ये और बात है कि उस शोर में अक्सर डायलॉग्स टोन को दबा दिया गया!  

 सुना था अनुष्का ने सिंगर की भूमिका निभाने के लिए म्यूजिक सीखा, सिंगर्स की कॉपी की, यहाँ तक कि लिप-जॉब करवाया!  पर मैडम अनुष्का सिर्फ पॉउट बनाने से ही कोई सिंगर नहीं बन जाता!  माना कि शुरुआत में  एक्सप्रेशनलेस फेस कहानी की डिमांड था!  एक बच्ची जो चाइल्डएब्यूज की शिकार बनती है, उसके चेहरे पर ये भावहीनता उसके जीवन से मेल खाती है पर बाद में गाते समय की ओवर-एक्टिंग बर्दाश्त के बाहर थी!  अरे सिक्सटीज की हिंदी फिल्मों में ऐसे क्लब सिंगर्स के सीन और गाने बहुत थे!  मैं नहीं समझती कि अनुष्का ने हमारी वीनस क्वीन मधुबाला को 'आइये मेहरबाँ.... " पर गाने का अभिनय करते देखा होगा, अगर देखती तो बॉम्बे वेलवेट में उनका ये हश्र न होता!  अनुष्का को थोड़ी और मेहनत अपने उच्चारण पर करनी चाहिए थी जो 'बैंड बाजा बारात' से लेकर अब तक वही है!   रणबीर ने भी अपने लुक्स पर ही मेहनत की! पर उन्होंने भी खुद को दोहराया भर है!  उनका चेहरा, उनके एक्सप्रेशंस, उनके इंटेलेक्चुअल न होने की चुगली खाते हैं पर ये तो हम अजब प्रेम की गज़ब कहानी में देख चुके हैं!  तो भी वे अनुष्का से बेहतर रहे!  कई दृश्यों में उन्होंने छरहरे शम्मी कपूर की याद दिलाई!  केके मेरे आलटाइम फेवरेट हैं, यहाँ भी पुलिस अफसर के रोल में वे खूब जमे पर उनके पास करने के लिए कुछ खास नही था!  बाकि किरदार भी ठीकठाक ही थे!  

सबसे अधिक मुझे दो चीज़ों ने रुलाया, पहली विलेन के रूप में 'द करन जौहर' की कास्टिंग और दूसरी फिल्म के गाने!  जनाब करन जौहर खुद को टीवी पर इतना एक्सपोज़ कर चुके हैं कि उनके सामने आते ही उनकी तमाम उल्टी-सीधी हरकतें याद आती हैं!  उनकी फिजिक, उनका चेहरा और उनके एक्सप्रेशन कुछ भी रेट्रो विलेन से मेल नहीं खाता!  मेरी सलाह है, करन जौहर टीवी पर उलजुलूल नाचें, नए नए निर्देशक ढूंढकर फिल्में बनवाएं, ओवर-एक्टिंग की दुकान चलायें पर खुदा के वास्ते दोबारा एक्टिंग न करें!  अरे, जिन लोगों ने रेट्रो एरा में अजीत, जीवन, के एन सिंह और प्राण साहब को खूंखार विलेन बनते देखा है वो कहाँ हज़म कर पाएंगे ये खिलवाड़!  हमें बक्श दो करन जौहर, हमारा साथ इतना ही था!  अब आते हैं दूसरी चीज़ पर, यानि म्यूजिक!  सच बताइये आपने धड़ाम धड़ाम दिल सुनकर सर पीटा या नहीं!  उस पर बार बार गीता दत्त का नाम लिया जाना कोफ़्त से भर देता है!  अरे सुनिए तो गीता दत्त को!  वो दौर इतना भी पुराना नहीं हुआ कि लोग गीता दत्त की आवाज़ की शोखी और अदाओं को भूल गए हों!  अजीबोगरीब लिरिक्स पर चीख कर गाती और अजीब शक्लें बनाती गायिका को देखने-सुनने कौन क्लब में आना चाहेगा?  कुछ गानों का म्यूजिक अच्छा है, पर मोहब्बत बुरी बीमारी के अलावा कोई भी मुंह पर नहीं चढ़ा, जबकि क्लब सांग्स  की ये खासियत होती है कि वे लम्बे समय तक जेहन पर काबिज़ रहते हैं!  मोहब्बत बुरी बीमारी में कुछ देर और बीते दिनों की नायिका रवीना टंडन को देखने का मन था पर ये गाना जल्दी ही बैकग्राउंड स्कोर में बदल गया!  

तो कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि बेसिरपैर की कहानी, लाउड म्यूजिक, अनुष्का की ओवर एक्टिंग और उद्देश्यहीन हिंसा को दरकिनार करने का जिगर रखते हैं तो शानदार लोकेशन, साठ के दशक का मुंबई, रेट्रो एरा से लगाव और उस समय की फिल्मों को लेकर अपने नॉस्टैल्जिया के लिए आप ये फिल्म अपने रिस्क पर देख सकते हैं!

Monday, May 11, 2015

वो बड़ा अफ़सानानिग़ार है या ख़ुदा - सआदत हसन मंटो : प्रेमचंद गांधी

यूँ मंटो को गए ज़माना हुआ पर कुछ तो बात है उसमें कि ज़माने के साथ बीतता ही नहीं!  आपके-हमारे दिलों पर उसकी हुकूमत आज भी बदस्तूर जारी है!  आज मंटो की सालगिरह पर उसी सदाबहार मंटो को सिलसिलेवार याद कर रहे हैं अपने इस दिलचस्प लेख में कवि-कहानीकार-लेखक मित्र प्रेमचंद गांधी....

मंटो जैसे लेखक को मैंने कैसे पढ़ा, इसका एक खाका कैफ़ी आज़मी ने अपने एक संस्‍मरण में जो लिखा है, उससे मिलता-जुलता है। उर्दू में ‘अंगारे’ का आग़ाज एक बहुत बड़ी घटना रही। लखनऊ में ‘अंगारे’ के एक सामूहिक पाठ का जि़क्र करते हुए कैफ़ी आज़मी ने लिखा है कि एक बंद कमरे में मौलाना किस्‍म के कुछ लोग और उनके दोस्‍त एक किताब पढ़ रहे थे और हम जैसे छात्र खिड़की-दरवाजों की दरारों से देखा करते थे कि वे कौनसे रहस्‍यमयी काम को अंजाम दे रहे थे। यह भेद तो खैर बाद में खुला कि वे सब ‘अंगारे’ पढ़ रहे थे। मैंने भी मंटो को शुरुआत में ऐसे ही एक छोटी-सी दुछत्‍ती में इतनी चोरी-चकारी के साथ पढ़ा था कि आज शेल्‍फ़ में ‘दस्‍तावेज़ : मंटो’ के पांच खंड उन बेवकूफियों पर मुस्‍कुराते नज़र आते हैं। हतक, ठंडा गोश्‍त, काली सलवार और खोल दो, जैसी कहानियों के साथ मंटो का मुकदमा जैसी किताबें शायद सोलह बरस की उम्र में बिगाड़ने के लिए काफ़ी थी। इस तरह मंटो से पहली सनसनीखेज और चोर-मुलाकातें हुईं। मुझे यह मालूम नहीं था कि मंटो मेरे जन्‍म से 12 बरस पहले ही दुनिया से कूच कर गया था और वो भी उस लाहौर में जिसे मेरे दादा मरहूम मंटो के जीते-जी 1946 में बंटवारे से पहले ही छोड़ आए थे। जब दादाजी लाहौर से वापस आये तो उन दिनों मंटो बॉम्‍बे की फिल्‍मी दुनिया और कहानियों की दुनिया में जद्दोजहद कर रहा था।
बहरहाल, मंटो से मोहब्‍बत का जो सिलसिला शुरु हुआ वो आज तक कायम है। इसमें एक मोहब्‍बत का जिक्र और जरूरी लगता है, जिसके बिना मंटो और मेरी मोहब्‍बत का अफसाना शायद अधूरा रह जाएगा। मेरी एक दोस्‍त है, जो मंटो को मुझसे ज्‍यादा मोहब्‍बत करती है। करीब बीस बरस पहले की बात है यह, जब मेरी उस दोस्‍त को मुझमें मंटो नज़र आता था। वो अक्‍सर कहती थी कि तुम्‍हारी शक्‍ल मंटो से ना मिलती होती तो तुमसे दोस्‍ती का सवाल ही नहीं था। मुझे आज तक पता नहीं चला कि कंबख्‍त मंटो और मेरी शक्‍ल में ऐसी क्‍या चीज है जो एक-दूसरे से मिलती है। बाद के दिनों में हम दोनों ने मंटो की बहुत-सी कहानियों पर बातचीत की और इस तरह मंटो हम दोनों के प्रेम या कि दोस्‍ती के त्रिकोण में मुस्‍कुराता रहा।
बात दिसंबर, 2005 की है, जब मैंने पहली बार पाकिस्‍तान की यात्रा की। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्‍थापक सज्‍जाद ज़हीर की जन्‍मशती का अवसर था, जिसमें भारत से 25 लेखक-कलाकारों का प्रतिनिधि मंडल पाकिस्‍तान गया था। जाने से पहले जब मैंने अपनी दोस्‍त को यह बताया तो उसने कहा तुम मंटो के घर और उसकी कब्र पर ज़रूर जाना, वो तुम्‍हें देखकर वापस जिंदा हो जाएगा। मेरे लिए पाकिस्‍तान की यात्रा सज्‍जाद ज़हीर की कर्मस्‍थली की जियारत करना तो था ही, मंटो की जियारत करना भी था। उस सफ़र में मिला हर किरदार यूं लगता था जैसे मंटो की कहानी से निकलकर आया हो या कि अगर मंटो होता तो इसे कैसे बयान करता। 22 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में जब हम लाहौर पहुंचे तो हमें एक प्रेस कांफ्रेंस से सीधे रेल्‍वे स्‍टेशन जाना था, जहां से गाड़ी पकड़कर कराची पहुंचना था। रास्‍ते में लक्ष्‍मी चौक आया। अरे यहीं कहीं तो है मंटो का घर। हमारे एक मेज़बान दोस्‍त ने कहा कि वापसी में आप मंटो के घर जा सकते हैं। लाहौर स्‍टेशन पर भारतीय रेल की तरह देरी से चल रही पाकिस्‍तानी रेल का जब हम इंतजार कर रहे थे, तो मुझे लगा मंटो वहीं प्‍लेटफॉर्म पर ठहाके लगा रहा है कि सालों तुमने वतन बांट कर क्‍या हासिल किया...। इधर भी देर है, उधर भी देर है, दोनों तरफ़ एक-सा अंधेर है। अल्‍लाह के नाम पर भीख मांगते लोगों को देखा तो लगा कि मंटो इनके पीछे चल रहा है, किरदार की तलाश में। लंबे इंतज़ार के बाद जब रेल आई तो मंटो हमारे साथ ही सवार था बेटिकट...। मुझे पूरे सफ़र के दौरान लगता रहा कि मंटो हमारे साथ चलते हुए जैसे किसी बड़े नाविल की तैयारी कर रहा है। कमबख्‍त चुपचाप लिखे जा रहा था और हमारी वोदका में से पिये जा रहा था। उसकी ख़ामोश मौजूदगी ने उस एसी कंपार्टमेंट में वो दरियादिली पैदा कर दी थी कि सुबह होने तक पाकिस्‍तानी मुसाफिरों के कटोरदान हिंदुस्‍तानी मुसाफिरों के लिए खुल गये थे। और मंटो नदारद था। सिंध में सुबह हुई तो दरिया-ए-सिंध से आती सदाओं ने पैग़ाम दिया कि मंटो लाहौर में ही कहीं उतर गया था। उसे शायद बहुत चढ़ गई थी। वो वापस लाहौर के कब्रिस्‍तान में अपनी कब्र में सोने चला गया था।
कराची से मोहंजोदड़ो, लरकाना और लाहौर वापस आने तक मंटो की याद बराबर बनी रही। उसके किरदार जैसे कहीं पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पहले दिन जब एक मजलिस के बाद लाहौर दिखाते हुए हमारे दोस्‍त जब फूड स्‍ट्रीट ले जा रहे थे, तो नजदीक ही टकसाली गेट के पास हीरा मंडी के शाही मोहल्‍ले की ओर नजरें चली गईं। यह लाहौर का सबसे बदनाम रेडलाइट इलाका है। फौजिया सईद ने यहां की वेश्‍याओं पर एक किताब लिखी है और किताब में छपी तस्‍वीरों से इसकी तुरंत पहचान हो गई। एक गली के नुक्‍कड़ पर ‘हतक’ की सुगंधी की याद दिलाता खाज-मारा कुत्‍ता दिखाई दिया। वहीं मंटो भी घूमता नजर आया। भीड़ में उससे नज़रें नहीं मिलीं, वरना वो किसी नए अफसाने के लिए बुलाता और कहता कि दो देखो कितनी तरक्‍की कर ली है इस मुल्‍क ने। अब यहां की रंडियों पर लड़की ने किताब लिख डाली है, लेकिन सुगंधी जैसी औरतें आज भी बदतर हालात में जीने के लिए मजबूर हैं।
इस सफ़र में दोस्तियां इतनी मजबूत हो चुकी थीं कि हमें लगता ही नहीं था कि इस मुल्‍क में हम परदेसी हैं। इसीलिये बेख़याली में मैंने अपना बैग फूड स्‍ट्रीट के उस रेस्‍टोरेंट में छोड़ दिया, जहां हमारे मेजबान ने खाना खिलाया था। सुगंधी को याद करता हुआ मैं अपने दोस्‍तों के साथ शराब पीने चला गया। रात के करीब तीन बजे तक हम पीते रहे और सुबह जब आंख खुली तो याद आया कि पासपोर्ट और तमाम कागजात उसी बैग में रह गये हैं। मंटो मुस्‍कुरा रहा था, अब मेरे साथ मेरी ही कब्र में आ जाना। मुझे बहुत गुस्‍सा आ रहा था, लेकिन क्‍या कर सकता था। बहुत खोजने पर मालूम हुआ कि एक दोस्‍त ने बैग सम्‍हालकर रख लिया है। अब मंटो हंस रहा था, तो तुम मुझसे बिना मिले चले जाओगे।
बैग की अफरातफरी में मैं भूल गया या कि दोस्‍त भूल गये, मैं मंटो के घर और उसकी कब्र पर नहीं जा सका। जाने से पहले वाली शाम देर रात जब मैं एक नौजवान शायरा से उसकी गुजारिश पर अंग्रेजी में उससे बातचीत कर रहा था, शाहिद जमाल ने बताया कि वे और कुछ दोस्‍त मंटो के घर और कब्र की जियारत कर आये हैं। बाद में उस खूबसूरत नौजवान शायरा से बात करने का लुत्‍फ़ ही जैसे ख़त्‍म हो गया। उसने बड़ी दर्द-भरी एक नज्‍म सुनाई थी, उसका चेहरा आज भी याद आता है, बिल्‍कुल शहजादियों जैसा। मंटो वहीं अल हमरा आर्ट सेंटर की सीढियों पर बैठा था और मुझे देख जैसे मुस्‍कुरा रहा था। ...मारे गये गुलफाम... अंग्रेजी में शहजादी से बात करने का लुत्‍फ ले रहे हो, लगे रहो, कोई अफसाना बन ही जाएगा... अगर तुम्‍हारा पासपोर्ट और वीजा नहीं मिलता तो कसम से, तुम मेरी ही कब्र में दफ़न कर दिये जाते... कि दुनिया को एक मंटो ही मंजूर नहीं था, हमशक्‍ल तो अफसानों में हमेशा मरते ही आये हैं।... मैंने कहा, कल सुबह तुम्‍हारी कब्र पर आउंगा। वो मुस्‍कुराते हुए बोला, देखते हैं... यह हिंदुस्‍तान नहीं है प्‍यारे... अगर मैं मर नहीं गया होता तो ये मुझे कैद में डाल देते, तसल्‍ली है कि ये माटी मारे अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते...मैं इनकी दुनिया को इतना बिगाड़ चुका हूं कि ये अब इसे कभी ठीक नहीं कर सकते।
मैंने सुबह बहुत कोशिश की कि कोई दोस्‍त मुझे एक बार मंटो की कब्र तक जियारत करवा लाए, लेकिन नहीं... मंटो रात बहुत पी चुका था, इसलिए अपनी कब्र में आराम से सो रहा था। शनिवार का दिन था और बॉर्डर शनीचर को जल्‍दी बंद हो जाती है, जैसे बैंकों का हाफ-डे यहां भी चल रहा था। दस बजे बॉर्डर पहुंचने की जल्‍दी में हम जैसे-तैसे भागे। जब हम पाकिस्‍तानी इमिग्रेशन से गुज़र कर भारतीय सीमा की ओर बढ़ रहे थे, नो मैन्‍स लैंड पर मंटो जैसे पागलों की तरह ठहाके मार रहा था। मेरा टोबा टेकसिंह कहां है माटी मारों... मैं बड़े भारी मन से उसे देखता हुआ चुपचाप आगे की ओर जा रहा था। भारतीय सीमा से कुछ कदम पहले मंटो आया और कंधे पर हाथ रखकर बोला, जाओ अगली बार मिलेंगे।...सरहद पर परिंदे बिना किसी रोक-टोक के आ जा रहे थे...चींटियां तक आराम से पैदल सरहद पार कर रही थीं। बस इंसान ही थे, जिन्‍हें आने-जाने में कानूनी पेचीदगियां थीं।
तो मैं मंटो से मुलाकात किये बिना वापस आ गया। इसका दर्द बहुत सालता रहा। लेकिन डेढ़ बरस बाद ही फिर एक अवसर मिला मंटो से मुलाकात का। पत्‍तन मुनारा इंटरनेशनल कांफ्रेंस में शिरकत करने जाना था, साथ में जयपुर से पत्रकार ईशमधु तलवार, सुनीता चतुर्वेदी, आनंद अग्रवाल, कवि ओमेंद्र और शायर फारूख़ इंजीनियर थे। दिल्‍ली से राजकुमार मलिक और कुछ दोस्‍त थे। इस बार लाहौर के वरिष्‍ठ पत्रकार साथी इरशाद अमीन ने बुलाया था, जो मूलत: बीकानेर के पास के हैं और पत्‍तन मुनारा जैसी पुरातात्विक और ऐतिहासिक जगह को लेकर बहुत संजीदगी से संरक्षण में लगे हुए हैं। पत्‍तन मुनारा सरस्‍वती के बहाव क्षेत्र में कालीबंगा के बाद आने वाली महत्‍वपूर्ण साइट है, जिस पर बहुत कम काम हुआ है। इस दूसरी यात्रा में राजस्‍थान और सीमावर्ती पाकिस्‍तान की सामाजिक-सांस्‍कृतिक परंपराओं को जानने की जिज्ञासा थी तो दूसरी ओर मंटो से मुलाकात की भी।
मेरे साथ ईशमधु तलवार और ओमेंद्र की भी मंटो का घर देखने की बेहद इच्‍छा थी। इरशाद अमीन ने कहा कि कांफ्रेंस से वापसी के बाद जब लाहौर में दो-तीन दिन रहना होगा तो मंटो से मुलाकात होगी। मैंने इस बार मंटो को ना सड़क पर देखा ना अपने साथ किसी सफ़र में। लगता है वो किसी मेंटल हास्पिटल में भर्ती था। पाकिस्‍तान में जम्‍हूरियत की बहाली के लिए बड़ी जद्दोजहद चल रही थी। वकीलों के साथ अवाम भी सड़कों पर उतर आई थी। परवेज मुशर्रफ की सरकार बुरी तरह हिली हुई थी। मुझे लगा जागी हुई जनता को देखकर मंटो सच में पगला गया होगा। हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान दोनों ही जगह जो भी थोड़ा बहुत संवेदनशील ढंग से सोचने-विचारने वाला इंसान होगा, उसके लिए पागलखाना ही सबसे महफूज जगह मानी जाती है। जब पाकिस्‍तानी पुलिस कार्टूनिस्‍ट फीका के कार्टूनों से भड़क जाती है तो मुसलमान होकर शराब पीने के जुर्म में फीका को सलाखों में बंद कर देती है। ममता बनर्जी का बस चले तो वो भी पाकिस्‍तानी पुलिस वाला आचरण देर-सवेर अपना ही लेंगी।
मंटो मुझे पिछली बार की तरह हर जगह नहीं मिला तो इसका मतलब यह नहीं कि उससे मुलाकात ही नहीं हुई। दरअसल इस बार मंटो अपने किरदारों में मिला। इक्‍के-तांगे तो खत्‍म हो ही चुके थे, सो कोचवान और सईसों में वो कहां दिखाई देता। अलबत्‍ता वो कदम-कदम पर मिलने वाले उन लोगों के किरदार में नुमायां हो रहा था, जो उसकी कलम की तहरीर बनने पर रजामंद थे। ऐसा ही एक किरदार सुलेमान था, जिससे मैं 2005 में पहली बार मिला था। उसके हाथों में खाना पकाने का ग़ज़ब का हुनर है और हम जैसे मंटो के दोस्‍तों की खातिरदारी में हरवक्‍त जुटा रहता है। दरमियाना कदकाठी के मस्‍तमौला सुलेमान को देखकर आप अंदाज भी नहीं लगा सकते कि कलमकारों की सोहबत में वो ख़ुद कितना कलमकार हो चुका है। मंटो सुलेमान पर जरूर एक अफसाना लिखता और उसमें हम जैसे दोस्‍त किसी अमीरजादे के दोस्‍तों में बदल जाते और फिर वो उनकी बदतमीजियों का रेजा-रेजा बिखेरता जाता। उसके अफसाने में सुलेमान ज़रूर उसका हीरो होता और ख़ुद अपनी कहानी बयान करता।
नौजवान शायर साहिर में भी मुझे मंटो का एक जबर्दस्‍त किरदार नज़र आया। दिलफेंक, लेकिन निहायत ही शरीफ़, मस्‍त इतना कि शराब, स्‍मैक, सिगरेट और चरस जैसे सारे नशे समान भाव से करता जाए। लाहौर प्रेस क्‍लब में जब हमारे एक मुस्लिम दोस्‍त से पाकिस्‍तानी पत्रकारों ने पूछा कि वहां मुसलमानों के हालात कैसे हैं, तो वह मंटो के किरदार जैसा साहिर उठा और पूछ बैठा कि पहले पाकिस्‍तान के मुसलमानों के हालात की फि़क्र कर लो मियां। साहिर जैसे किरदार आज भी पाकिस्‍तान में अपने मंटो की तलाश कर रहे हैं।
मंटो के किरदार पर किरदार मिलते जा रहे थे, लेकिन वो खुद नदारद था। रहीमयार खां में हमसे मिलने एक बड़ी अम्‍मी आईं। उनका बेटा उस इंटेलिजेंस टीम में था, जो हमारी सुरक्षा में लगी थी। उनके चेहरे का नूर बता रहा था और उनकी बूढ़ी आंखों से झरते आंसू बता रहे थे कि बंटवारे के वक्‍त वो कितने बड़े खेत और बाग-बगीचों वाला घर छोड़कर आईं थीं। उनके पास हमारे लिए दुआएं थीं, आशीर्वाद था और स्‍नेह का कभी ना खत्‍म होने वाला निर्झर। मंटो अगर पागलखाने में न होता तो उस बूढ़ी अम्‍मी पर एक जबर्दस्‍त हिला कर रख देने वाला अफसाना लिखता और सरहद के दोनों तरफ़ के लोगों की जुबानें खामोश कर देता।... रहीमयार खां के रास्‍ते में मिले वो गांव वाले तो जैसे मंटो ने ही भेजे थे, जो एक पेट्रोल पंप पर हम भारतीयों को देखकर इतने खुश हो गये थे, जैसे उन्‍होंने कोई खुदाई चीज देख ली हो।... खानपुर में हमें देखने बहुत से बच्‍चे और नौजवान ही नहीं औरतें भी आईं... उन सबके मन में यह जिज्ञासा थी कि हिंदुस्‍तान के लोग क्‍या वाकई मौलवियों और मदरसों की किताबों में बताए गए चोटीधारी जिन्‍न जैसे होते हैं। उन्‍हें बहुत अफसोस हुआ होगा कि ना तो हमारे सिरों पर चोटियां थीं और ना ही सींग... न हमने पीले-भगवा कपड़े ही पहन रखे थे। ... मंटो पागलखाने में चुपचाप रो रहा था और उसकी सदा सुनने वाले उसके किरदार बने दुनिया में घूम रहे थे।
आखिरकार हमारा इंतजार खत्‍म हुआ। भारत आने से पहले वाले दिन एकबारगी हमें मौका मिल ही गया कि हम मंटो के घर होकर आ सकें। हमें पता था कि मंटो तो वहां नहीं मिलेगा। लेकिन उसके घर को देखने की तमन्‍ना इतनी बेताब थी कि हम सोचते थे कि माल रोड के लक्ष्‍मी चौक पर किसी से भी पूछो, मंटो के घर का रास्‍ता बता देगा। हमारे साथ कौन था, ठीक से याद नहीं, शायद सुलेमान या कोई और या कि हम छह राजस्‍थानी ही... हम लोगों से पूछ रहे थे कि किसी ने बताया, इस गली में चले जाइये, आगे मिल जाएगा। बिना मकान नंबर के मकान तलाशने के ऐसे मौके जिंदगी में बहुत कम मिलते हैं और जिसका मकान तलाश रहे हों, वो अगर पचासों बरस पहले ही दुनिया से कूच कर गया हो तो कौन बताएगा, इस उपमहाद्वीप में उसका घर, अगर वो टैगोर ना हो तो... हमारी किस्‍मत अच्‍छी थी कि हमें बहुत भटकना नहीं पड़ा और दो-एक जगह पूछने के बाद हम उस घर के दरवाजे पर थे, जिसके बाहर अंग्रेजी और उर्दू में लिखा था, सआदत हसन मंटो, शॉर्ट स्‍टोरी राइटर (1912-1955)।
काफ़ी देर डोरबेल बजाने के बाद कुछ हरकत हुई और दरवाज़ा खुला, एक नौजवान-से शख्‍स की शक्‍ल दिखी, उसे बताया गया कि हम हिंदुस्‍तान से आए हैं और मंटो साहब का घर देखने आए हैं। उसने कहा कि घर में कोई नहीं हैं, निक़हत आपा बाहर गई हैं... हमने बहुत इसरार किया तो वो शख्‍स वापस भीतर गया और बड़ी देर बाद लौटा। उसने कहा आइये और हम उसके पीछे-पीछे मंटो के घर में दाखिल हुए जैसे उसके बहुत पुराने दोस्‍त हों, हमप्‍याला और हमनिवाला। घर में दाखिल होते ही लगा, मंटो जैसी दुनिया बनाना चाहता था, वो तो तामीर नहीं हुई, लेकिन उसके आखिरी दिनों के घर को सबसे बड़ी बेटी निक़हत ने वैसा जरूर बना दिया है, मंटो की रूह को कुछ तो चैन मिला होगा शायद। सफि़या बी की बहुत खूबसूरत तस्‍वीरें थीं और मंटो की भी। मंटो अपनी आवारगी में भी बला का खूबसूरत लगता होगा, यह उसकी तस्‍वीरें देखने से अंदाज होता है। लेकिन सफिया से वो बेपनाह मोहब्‍बत करता था। निक़हत ने किसी इंटरव्‍यू में बताया है कि अब्‍बा, अम्‍मी की साड़ी पर खुद इस्‍तरी करते थे और फिर बहुत खूबसूरत अंदाज में उनकी तस्‍वीर लेते थे। सफिया बी की तस्‍वीरें सच में उस मोहब्‍बत को बयां करती हैं। उस बैठक में तस्‍वीरों के अलावा उर्दू और अंग्रेजी में छपी कुछ किताबें थीं मंटो की और पाकिस्‍तान डाक विभाग का वो शानदार और एकमात्र डाक टिकट भी जो मंटो पर किसी बरस जारी किया गया था। चीनी-मिट्टी के प्‍यालों में करीने से सजे कई सुंदर रंग-बिरंगे पत्‍थर और कांच के टुकड़े थे। सफ़ेद परदों और चमकती रोशनी के बीच यह मंटो का घर था, जिसमें वो बैठकर लिखने वाली तख्‍ती नहीं दिख रही थी, जिसमें सफिया से छुपाकर मंटो अपनी शराब रखता था।
यह घर निक़हत ने कुछ बरस पहले ही ठीक करवाया और उसमें रहने लगीं। मंटो ने यहां बहुत कम दिन गुजारे। पाकिस्‍तान आने के बाद वो जिंदा ही कितना रहा। बहरहाल, बहुत देर तक जब हम उस बैठक में रहने के बाद जाने लगे तो मालूम हुआ कि मंटो के दामाद और निक़हत के खाविंद पटेल साहब आ रहे हैं। बेहद बुजुर्ग और बीमारी से लाचार निक़हत के पतिदेव गुजरात में जूनागढ़ के रहने वाले हैं। उन्‍हें बोलने में भी बहुत तकलीफ हो रही थी, उनकी आंखों का कोई ऑपरेशन हाल ही में हुआ था। उनकी आंखों से पानी झर रहा था। उन्‍हें इस बात पर बहुत तकलीफ हो रही थी कि हिंदुस्‍तान से चलकर लोग मंटो का घर देखने कई बार आते हैं, लेकिन पाकिस्‍तान से शायद ही कोई आता है, उनकी जुबान में कहें तो कोई नहीं आता। हमसे उनकी तकलीफ देखी नहीं जा रही थी, उन्‍होंने हमें चाय-नाश्‍ते की दावत भी दी, लेकिन हमने मना कर दिया। पटेल साहब को जब मालूम हुआ कि हम राजस्‍थान से आये हैं तो उन्‍होंने बताया कि उनकी दो बहनों की शादी कोटा में हुई हैं और वे दोनों वहीं पुराने कोटा शहर में रहती हैं। ‍नौकर ने पानी पिलाया। बुजुर्गवार ने कहा कि निक़हत आ जाएंगी, आप मिलकर जाइयेगा, लेकिन हम उन्‍हें गर्मी की उस तकरीबन दोपहरी में बहुत परेशान नहीं करना चाहते थे, इसलिए जल्‍द ही वहां से रुख्‍सत हो लिये। लौटते हुए बहुत गुस्‍सा था दिल में कि दोनों मुल्‍कों में दो कौड़ी के नेताओं के नाम पर मोहल्‍ले और सड़कें रख दी जाती हैं, लेकिन उस गली का नाम मंटो स्‍ट्रीट नहीं रखा जाता, उस जगह को गुलशन-ए-मंटो जैसी कॉलोनी नहीं किया जाता। हमने अपने महान कलमकारों के साथ क्‍या सुलूक किया है...शर्म आती है।
बहुत मन था कि मंटो से मिलने उसकी कब्र तक जाएं, लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी संभव नहीं हुआ। लेकिन सोचता हूं कि नहीं जाने से एक दुख तो कम हुआ... कम से कम मैं मंटो की कब्र पर लिखे उसके अपने कतबे को बदलकर कुछ और करने का तरफ़दार तो नहीं हो सकता था। हम बरसों से पढ़ते-सुनते आए हैं कि मंटो ने अपनी कब्र के लिए यह कतबा लिखा था -
यहां सआदत हसन मंटो दफ़्न है
उसके सीने में फ़न्‍ने-अफ़सानानिग़ारी के
सारे असरारो-रूमूज़ दफ़्न हैं  
वो अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि
वो बड़ा अफ़सानानिग़ार है या ख़ुदा
- सआदत हसन मंटो, 18 अगस्‍त, 1954
बेटी निक़हत के मुताबिक उनकी फूफू ने मंटो के कतबे को बदलवा दिया था। अब लाहौर के मियानी साहब कब्रिस्‍तान में आपको मंटो की कब्र पर उर्दू में यह कतबा दिखाई देगा -
सआदत हसन मंटो की
कब्र की कब्र है यहां
जो आज भी ये समझता है कि
वो लौहे-जहां पर हर्फे-मुकद्दर नहीं था
मुझे पूरा यकीन है कि मंटो अपने कतबे के साथ इस बदतमीजी से बेहद नाराज़ हुआ होगा और इसीलिये अपनी कब्र से बाहर निकल कहीं गुम हो गया होगा। वो मुझे अब तक नहीं मिला  और ना ही मैं उसकी कब्र पर जा सका... मंटो की कब्र पर जाने की मेरी जियारत अधूरी ही रही... पांच बरस पहले की इन बातों को सोचता हूं तो लगता है कि मंटो की जियारत न उसके घर जाने में है और ना ही उसकी कब्र पर... उसकी असली जियारत तो उसके लिखे से गुजरने में ही मुमकिन है।
---प्रेमचंद गांधी

Tuesday, May 5, 2015

वंदना ग्रोवर की कवितायें





वंदना ग्रोवर हिंदी और पंजाबी में कवितायें लिखती हैं!  उन्हें पढ़ने के लिए कविताओं के प्रचलित फार्मूले से इतर एक सजग पाठक बनना होगा, इतना सजग कि किसी एक पल जिस्म को झनझना देने वाली संवेदना के करेंट को साधकर आगे बढ़ने का हौंसला हो!  यहाँ रूककर सांस लेता स्त्री-मन है, जिसकी नज़र आगे मंज़िल पर हैं!  वंदना की कविताओं में आहिस्ते से अपनी बात रखने का सलीका भी है और हुनर भी!  ये कविताएँ पांच दरियाओं की रवानी हैं, शीतलता है और वहीँ इनमें पानी के ठीक नीचे की बेचैनी भी हैं जो गिरेबान पकड़कर आँखों में आँखे डालकर कह उठती हैं, "वे/सुण/एस तरां चल नी होणी".... आइए पढ़ते हैं वंदना ग्रोवर की हिंदी और पंजाबी कवितायें.... 





हिंदी कवितायें


1 . 
एक दिन ऐसा भी
निर्विकार
निर्लिप्त .निसंग
ढल गया
रात थी जश्न की
आज़ादी की
कोलाहल की
ढल गई
आएगी सुबह
आएगी रात
ढल जायेगी
उम्र भी
ढलते ढलते
पहुंचेगी
ज़िन्दगी की शाम
अपने अंतिम पड़ाव पर
तन्हा ...


2 . 
तुम तक पहुंचू मैं
या पहुंचू खुद तक मैं
ये एक कदम आगे
और दो कदम
पीछे का सिलसिला
गोया मुसलसल चलता
ऐसा तमाशा हुआ
कि ज़िन्दगी रहे न रहे
तमाशा जारी रहे


3.

घूमती हूँ तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम सूर्य नहीं
मैं पृथ्वी नहीं
खींचती हैं चुम्बकीय शक्तियां
अदृश्य हो जाते हैं रात-दिन
खो जाती हैं ध्वनियाँ
आँखें मूंदे
चली चली जाती हूँ दूर तक
तुम्हारे पीछे
तय करती हूँ
हज़ारों मील के फासले
रोज़ मरती हूँ
जन्म लेती  हूँ रोज़
हर जनम में
चलती हूँ तुम्हारे पीछे
नहीं
कोई मुक्ति नहीं
इस बंधन से
पिछले हर जनम  के कर्मों ने
बाँध दिया है
अगले कई जन्मों के लिए
तुम्हारे साथ


4.
उफ़ !


कह भी दो न चुप रहो
कि सहना अब मुहाल है

मैं रहूँ कि न रहूँ
कुछ कहूं कि  न कहूं
तुम हो तो हर सवाल है

जो रुक गई तो रुक गई
गर चल पड़ी तो चल  पड़ी
ये सांस भी कमाल है

आह कहूँ  कि  वाह कहूँ
आबाद कि  तबाह कहूँ
ये जीस्त भी  बवाल है


5.
बादल के नीचे घर था
सूरज का वहीं बसर था
चमकती आँखों में
धूप थी या पानी

या कोई कहानी


6. 
सफ़ेद चादरों
और नीले कम्बलों के बीच
विजातीय तत्वों को परे धकेलती
चार छिद्रों के आस पास
बूँद बूँद टपकती ऊर्जा
फिर
लौट आना जीवन के प्रवाह में
कुछ दर्द लाजिमी हैं
पर लाइलाज नहीं
कुछ ताक़ीद हैं
मसलन
लेना है आहार में
आज थोड़ा प्यार तरल
कल एक स्पर्श नरम
और फिर ठोस अवस्था में
इतनी तवज़्ज़ो ,उतना दुलार
नींद पूरी
कुछ ज़िन्दगी

हर आहार से पहले और बाद में
चुटकी भर तुम




पंजाबी कवितायें
 
1. 
सुण
बड़ा रिस्की ज्या हो गिया ऐ
सारा मामला
हाल माड़ा ऐ मिरा
जित्थे वेखां
तूं दिसदा एं
गड्डी दे ड्रेवर विच
होटल दे बैरे विच
दफ्तर दे चपरासी विच

वे
सुण
एस तरां चल नी होणी
जे आणा है ते आ फेर
कदे लफ्जां दा सौदागर बण के
उडीक रईं आं
कदे  पढ़ेंगा ते कहेंगा फखर नाल
जिस्म औरत दा
नीयत इंसान दी ते ज़हन कुदरत दा
लेके जम्मी सी
हक दे नां ते ज़ुल्म नई कीत्ता
फ़र्ज़ दे नां ते ज़ुल्म सिहा नई

वे
सुण
ना कवीं कदे जिस्म मैनू
ना कवीं कदे  हुस्न
ना रुबाई ना ग़ज़ल कवीं
बण जावांगी कुज वी तेरी खातिर

वे
सुण
तेरे वजूद नू अपना मनया
इश्क़  लई इश्क़ करना सिखया
घुटदे  साहां नाल
क़ुबूल करना सिखया
ते पत्थर हिक्क रखना सिखया

वे
सुण
तू मैंनू मगरूर कैन्ना एं
मैं तैंनू  इश्क़ कैंनी आं 

2. 
इक दिन ओ सी 
जद तूं ही तूं   सी 
इक दिन ए   है 
जद तूं ही तूं  है 
ना तेरे आन दा पता 
ना तेरे जान दी खबर 
की ते मैं सोग मनावा 
की मैं खिड़ खिड़ हस्सां 

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परिचय 
 
नाम :      वंदना ग्रोवर
शिक्षा :     एम ए., बी एड,  पी एच डी   
पैदाइश :  हाथरस 
रिहाइश : गाज़ियाबाद                                 
कविता संग्रह 'मेरे पास पंख नहीं हैं ' बोधि प्रकाशन से  2013 में प्रकाशित  
सम्प्रति :  लोक सभा सचिवालय में बतौर क्लास -वन अधिकारी कार्यरत 

ब्लॉग :  (एक थी सोन चिरैया)  groverv12.blogspot.com