Monday, June 16, 2014

कल्पनाओं से परे का समय


यह कह पाना दरअसल उतना ही दुखद है
जितना कि ये विचार,
कि यह समय कुंद विचारों से जूझती
मानसिकताओं का है
हालांकि इसे सीमित समझ का नाम देकर
खारिज करना आसान है,
पर हमारी कल्पनाओं से परे,  बहुत परे है
आज के समय की तमाम जटिलताएँ,

पहाड़ से दुखों तले मृत्यु से जूझते हजारों शरीर
और हृदयहीनता के क्रूर मंज़र से भयभीत,
विचलित आत्माएं
आधुनिक जीवन के पर्व, उल्लास और उत्सव
और पल पल मृत संख्याओं में
बदलने को अभिशप्त जिजीविषाएं,
यदि यह दु:स्वप्न नहीं तो यह  किस युग का सच हैं
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे, 

बहुत परे है ..........

मौत अब  पल भर भी हमें ठिठकाती नहीं
और बुद्धू बक्से पर कड़वी खबरों के
हर वीभत्स दृश्य के साथ गले से निर्बाध
उतरते हैं लज़ीज़ डिनर के निवाले,
जब तब सनसनी के झटको से बोझिल
मृतप्राय संवेदनाएं
सहज ही ओढ़ लेती हैं उदासीनता का दुशाला
और सोच के वृत में
चक्कर लगाता है ये विचार
आखिर हम किस बात से चौंकते हैं,
 
सुन्न पड़ी शिराएँ,
धीमा होता रक्तचाप,
शिथिल चेतनाएं
अगर हमारा आज है तो चेत ही जाइए 
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे, 
बहुत परे है ..........

(उत्तराखंड  त्रासदी को  एक बरस बीत गया!  उस भीषण त्रासदी के बाद टीवी देखते हुए पिछले साल यह कविता जन्मी थी जो मेरे कविता-संग्रह में "यह समय हमारी कल्पनाओं से परे है" शीर्षक से संगृहीत है, बाद में मेरे कविता-संग्रह का शीर्षक भी बनी)