Thursday, May 29, 2014

डॉ. अमरजीत कौंके की कवितायें


अभी कुछ पहले ही डाक द्वारा 'प्रतिमान पंजाबी' की लेखकीय प्रति के साथ हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध कवि और संपादक डॉ अमरजीत कौंके का कविता-संग्रह 'अंतहीन दौड़' भी था!  यह डॉ. कौंके का हिन्दी में तीसरा कविता संग्रह है जो कुछ साल पहले प्रकाशित हुआ है!  इस संग्रह से गुजरना बेहद रोचक रहा और साथ ही रोचक लगी मेरे आत्मीय वरिष्ठ कवि अरुण कमल द्वारा लिखा इसका ब्लर्ब!  आप सभी के लिए उसे साझा कर रही हूँ, ताकि इन कविताओं से एक दोस्ताना रिश्ता कायम हो सके!


"पंजाबी और हिन्दी के विख्यात कवि डॉ। अमरजीत कौंके की कविताओं का यह संग्रह अपने सर्वथा अनूठे अंदाज़ और स्वाद के लिए हिन्दी पाठकों के बीच सराहा जाएगा!  यहाँ एक साथ गहरी रूमानियत है (मन की थाली में पानी बहुत तिलमिलाया) और यथार्थ का ठोसपन (खूंटे पर बंधे हुये जिद्दी घोड़े की तरह अपने पाँव तले की जमीन उखाड़ता हूँ)!  कौंके ने बिल्कुल नई निगाह से प्रकृति और जीवन को देखा है!  यहाँ 'जामुनी नदियां' हैं और 'सुर्ख पवन' है और अनुभव की बारीकी को मूर्त करता यह तीखा बिम्ब -'पर यूं रेगे साथ सदा जैसे जिस्म में खंजर घुसता'!  कौंके की कवितायें कई बार हमें भीतर से झिंझोड़ती हैं! 'जीवन जिया मैंने' एक ऐसी ही कविता है!  दुर्लभ! 
 अमरजीत कौंके की कविता जीवन की आलोचना तो है ही, एक साथ स्वयं अपनी भी यानि प्रत्येक व्यक्ति की भी आत्म आलोचना है!  कौंके कविता की खोजबत्ती को अपनी ओर भी घुमाते हैं : 'मुझे मुट्ठी भर अनाज क्या मिला कि मैं सब को मोर्चों पर लड़ता छोडकर दूर भाग आया हूँ'!  कौंके की कविता हमारी सांझी स्मृतियों की भी कविता है : 'कितने हमारे आँसू साझे, हमने एक दूसरे के पोरों से पोंछे' और भाईचारे और प्रेम की कविता, और संघर्ष करते जाने की कूबत की कविता - 'वह उन पुलों को लानत बोलती जो कहते पानी तो पुलों के नीचे से ही गुजरना'!
ये कवितायें आधुनिक जीवन के यथार्थ को यथार्थक भाषा में ही रूपायत करती हैं!  इन कविताओं में अंधी, अंतहीन दौड़ में फंसे मानव के खंडित अस्तित्व का विलाप सुना जा सकता है!  पीछे छूट चुका घर, बिक रहा गाँव, टूटते रिश्तों का दर्द, इस संग्रह की कविताओं में बार-बार प्रकट होता है!
इस संग्रह को पढ़ना एक बेचैन दिल की धड़कनों को सुनना है! यहाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की भी कुछ अद्भुत कवितायें हैं, जैसे 'पता नहीं'!  यहाँ उद्वेग है, संघर्ष है और सपने देखने का माद्दा भी - 'हमने भी उस मिट्टी में कुछ सपने बोये'!  कौंके की कविता गहन करुणा की कविता है, घर-गाँव-परिवार के लोप पर विलाप की कविता और उद्दाम आशा की कविता - 'हम यहीं रहेंगे सदा यह पृथ्वी हमारी है'!
हिन्दी पाठकों को इस संग्रह में हिन्दी भाषा का भी एक नया सम्भार मिलेगे, पंजाबियत के सांद्र रस से पेबस्त एक ख़ास मिठास!"
-- अरुण कमल (पटना)



डॉ. अमरजीत कौंके की कवितायें 

(1)

लालटेन 

कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर

कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी

तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई

इन सुलगती हुई निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ़ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं

लेकिन टिकी रात के
ख़ौफ़नाक अंधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे क़ब्रिस्तान की परिक्रमा करता।

और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
रोशन करता।


(2)


पता नहीं


पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता

पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनू बन जाता


पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका-मात्र रह जाता


पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती

पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भाँति
गिरता और सूख जाता

पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे बहुत बड़ा तैराक होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।


(3)


उत्तर आधुनिक आलोचक 


जब मैंने
भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा

जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा

परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!



Saturday, May 17, 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं

बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंज़र दिल कचोटते हैं
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है

मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छांट दी गई उन बाहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पायी गईं

नहीं यह महज़ खब्त नहीं है
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ

कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टंगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है

मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ
अच्छे दिनों के आने का संदेश

ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुये
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट
पर कान बंद कर लेने की

कैसा समय है
कि वह एक मुस्कान के आने पर
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं.............



(शुक्रवार, 16-22, मई 2104 में प्रकाशित)

चालीस साला औरतें

इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गयी 
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक़्त
तय हुआ होगा शायद

अभी नन्ही उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नयी दास्तान,
संभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आंचल
अब बनने को ही है परचम

कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर

बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से 
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से 
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज़ की आहट के साइड एफ़ेक्ट्स से   
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है खवाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हंसी से पहरे  
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,

ये जो फैली हुई कमर का घेरा है  न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में
ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नयी दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं 
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं 
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूंटे है
जिसके कडवेपन से बंधी हैं कई अकेली रातें,   

ये उपवास के दिनों का वक़्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं 
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है 

अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूंढती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हे
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफ़ाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,
जी हाँ,  वे फ़ेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं................



(बिंदिया अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, May 14, 2014

काश ऐसा होता/लीना टिब्बी



काश ऐसा होता
कि ईश्वर
मेरे बिस्तर के पास रखे
पानी भरे गिलास के अन्दर से
बैंगनी प्रकाश पुंज-सा अचानक प्रकट हो जाता...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
शाम की अजान बन कर
हमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
आसूँ की एक बूंद बन जाता
जिसके लुढ़कने का अफ़सोस
हम मनाते रहते पूरे-पूरे दिन...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
रूप धर लेता एक ऐसे पाप का
हम कभी न थकते
जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
शाम तक मुरझा जाने वाला गुलाब होता
तो हर नई सुबह
हम नया फूल ढूंढ कर ले आया करते...

काश ऐसा होता...

--लीना टिब्बी

मूल कविता : अरबी

अंग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेन्द्र
साभार : कविता कोश