Friday, October 10, 2014

अगर इच्छाओं के पंख होते (कहानी) : अचला बंसल



एक आयोजन में वरिष्ठ कहानीकार अचला जी से परिचय कराते हुए मित्र आकांक्षा पारे ने इस कहानी का जिक्र किया।  उनका कहना था कि इस कहानी को पढ़ना बेहद जरूरी है।  तभी से इस कहानी को पढ़ने की इच्छा जागी जो गुजरते समय के साथ तीव्र होती गई।  पिछले दिनों आकांक्षा के सौजन्य से 'रचनाकार' में इस कहानी का प्रियदर्शन जी द्वारा किया बेहतरीन हिन्दी अनुवाद पढ़ने को मिला तो लगा आकांक्षा का कहा लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं था।  यकीनन इस कहानी को पढ़ा जाना जरूरी है।  आप भी पढ़ेंगे तो जरूर सहमत होंगे.....






राहुल को अपनी पीठ झुलसती हुई महसूस हो रही थी। उस झुर्रियाए, सख्त चेहरे की डूबी आंखों में इतना तीखापन था कि उसकी हिम्मत नहीं हुई कि मुड़ कर उनका सामना करे,कहीं उनकी लपट उसे लील न जाएं।

वे क्या चाहती थीं? क्यों उनकी आंखें लगातार उसका पीछा करती रहती थीं- बेरहमी से, ख़ामोशी से। नहीं वे ख़ामोश नहीं थीं। सिर्फ होंठ चुप थे, आंखें नहीं। वे याचना कर रही थीं, चुनौती दे रही थीं, आरोप लगा रही थीं। किस बात का? क्या किया है उसने? या क्या नहीं किया है? जैसे ही उसे अपनी घबराई पत्नी विभा का फ़ोन आया, वह ज़रूरी मीटिंग छोड़कर, उन्हें डॉक्टर को ले कर घर चला आया था। उनकी ‘उच्च ज़िंदगी’ से परिचित डॉक्टर ने- भले ही वे सब उसके आउटडेटेड होने को लेकर उसक मज़ाक बनाते थे-उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी थी। वह तैयार हो गया था, कुछ ज़्यादा ही व्यग्रता से। डॉक्टर ने उस पर एक तीखी निगाह डाल कर कहा था,‘आपको फिर भी उनका ख़याल रखना होगा। नर्सें सबकुछ नहीं कर सकतीं।‘

‘हां, हां, विभा छुट्टी ले सकती है...हम दोनों मिलकर मैनेज कर लेंगे,’ उसने डॉक्टर की चुभती निगाहों से बचते हुए जल्दी से कहा था।

लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। लाख मान-मनुहार के बाद भी तैयार नहीं हुई थीं। उसकी सीधी-सादी मां, जिसे वह बचपन से जानता था, उसके दबंग पिता के सामने हमेशा घुटने टेक देती थीं, कब उनके भीतर जिद्दीपन की यह टेक पैदा हो गई? वह हमेशा उसकी बात सुना करती थीं, उससे कुछ डरती भी थी, क्योंकि उनके मुताबिक, वह, अपने पापा जैसा ही था। अक्सर वे उसकी पत्नी को चेतावनी देती थीं कि उसे उकसाया न करे, लेकिन वह हंस कर उड़ा देती थी। ‘चिंता मत कीजिए मांजी, मेरा मिज़ाज भी इतना ही तेज़ है,’ विभा पलट कर कहती थी। वाकई था, लेकिन मां? क्या वह होश खो बैठी हैं कि उसकी इच्छा, उसका आदेश मानने से इनकार कर रही हैं?

आख़िर उसे मुड़ कर उनकी जलती आंखों का सामना करना पड़ा। उनके बगल में बैठकर, उसने उनके बर्फ जैसे उजले बाल सहलाए, ‘मां, तुम्हें अस्पताल जाना होगा। मैं कह रहा हूं न...डॉक्टर कहता है...’।

‘नहीं,’ वे बुदबुदाईं।

’नहीं का मतलब?’ उसने झल्ला कर पूछा।

‘मैं नहीं जाऊंगी। मैं यहीं मरूंगी।‘

’तुम मर नहीं रही हो, यहाँ पड़ी नहीं रही तो नहीं मरोगी।‘

’मैं मर रही हूं, लेकिन उसके पहले मैं उड़ूंगी, ऊपर बादलों में।‘

बहुत देर हो गई, उसने हताशा से सोचा, उन्हें अस्पताल पहले भर्ती करवाना चाहिए था।

उनका अंत आ चुका था। आख़िरकार वे काफी बूढ़ी थीं। ७० पार। उनकी सही उम्र उसे मालूम नहीं थी। पिता जीवित होते तो शायद उन्हैं पता होता मगर उसमें संदेह था।शायद ही वे अपनी आज्ञाकारी और घरेलू पत्नी के बारे में कुछ जानते थे।

’जाओ, दो टिकट ले आओ,वे बुदबुदाईं।

‘क्या?’अपनी बेसब्री पर क़ाबू रखने की कोशिश करते हुए उसने पूछा। काश वह अस्पताल जाने को तैयार हो जाएं। वह उनके लिए २४ घंटे की नर्सों का इंतज़ाम कर देगा। वह पैसा खर्च कर सकता था। पर समय? समय कहीं ज़्यादा क़ीमती था। काश विभा समझ पाती। लेकिन वह आपसी बराबरी में यक़ीन करती थी। उसके पास भी हासिल करने को मक़सद थे, पूरे करने को वादे थे। उसके बावजूद वह घर की देखरेख करती थी। उसके घर पर न रहने पर भी घर नियम से चलता था न। कम से कम वह अपनी मां का ख़याल तो रख सकता था। ‘आख़िरकार यह तुम्हारी ज़िम्मेवारी हैं,‘ उसने दो टूक कहा, और उसे उनकी बड़बड़ाहट सुनने को छोड़ गई।

‘विमान के दो टिकट ले आओ। मरने से पहले... मैं एक बार उड़ना चाहती हूं।‘

’लेकिन तुम कहीं नहीं जा सकती। अभी नहीं। जब ठीक हो जाओगी तो मैं तुम्हें ले जाऊंगा। अगर तुम अस्पताल जाने को राज़ी हो गईं तो मैं वादा करता हूं, जैसे ही लौटोगी, मैं तुम्हें ले जाऊंगा।

‘अगर मैं कहीं जाऊंगी तो प्लेन में, यह मेरी आख़िरी इच्छा है।‘

बेबस राहुल उन्हें तकता रहा, वह भी उसे घूरती रहीं, उनकी आंखें उसे भेद रही थीं, होंठ सख्ती से कसे थे। वह जानता था, अब वे नहीं बोलेंगी। जब से उसने उन्हें जाना है, चुप्पी उनका इकलौता हथियार रहा है। कोई उससे लोहा नहीं ले सकता था। उसके पिता भी नहीं।

क्या वह...नहीं वह पागलपन होगा। इस हाल में उन्हें कहीं नहीं ले जाया जा सकता। वे रास्ते में मर जाएंगी। वह इस खयाल से सिहर गया कि उसके हाथों में एक शव होगा, कितना अभद्र दिखेगा। वह, जिसने अब तक खूबसूरत एयरहोस्टेज़ेज की आंखों में अपने लिए तारीफ़ के अलावा कुछ नहीं देखा था। इस उम्र में भी, अपने उड़ते बालों और हल्की उभरी तोंद के बावजूद, वह मर्दानगी की मिसाल था। उसे औरतों को ख़ुश रखने का राज़ जो मालूम था। नई पीढ़ी, स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार के आकर्षण के बारे में नहीं जानती।  वह ख़ुद उसमें भरपूर यक़ीन रखता था और उसके इस्तेमाल में पारंगत था। इस हद तक कि उसकी आज़ाद ख़याल पत्नी भी झल्ला जाती थी। वह अंदाज़ और अदाएं थकाने वाली  ज़रूर थीं पर आख़िर हर चीज़ की क़ीमत अदा करनी पड़ती है न। तारीफ़ का ईनाम भी तो मिलता है।

उसने गहरी सांस ली। काश अपनी सनक के बारे में उन्होंने पहले बतलाया होता। पर क्या सचमुच उसे मालूम नहीं था? जब वह छोटा था, वे ऊपर से गुजरते हवाई जहाज़ को तब तक देखती रहती थीं जब तक वह दूर आसमान में लक़ीर न बन जाता। तब भी मोहपाश में बंधी वे उसे ताकती रहती।

उसे धुंधला सा याद था कि वे टैरेस पर खड़े होकर ऊपर देखती रहती थीं। उसने कभी पूछने की ज़रूरत नहीं समझी कि वे क्या देख रही थीं। वह उनकी पुरानी आदत थी, वह बचपन से उसका अभ्यस्त था। जब भी वह विमान से सफ़र करता, वह ‘बेवकूफ़ाना’ सवाल किया करतीं, जिसके जवाब देने का न उसके पास वक्त था, न सब्र। "तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं चांद से हो कर आया हूं," वह एक बार फट पड़ा था। उन्होंने दुबारा उससे नहीं पूछा था पर उनकी आंखें उसका तब तक पीछा करती रहतीं, जब तक वह अपने कमरे में शरण नहीं ले लेता, जहां उसे मालूम था, वे नहीं आएंगी।

उसने उन्हें सख्ती से देखा। आंखें अब भी उसी पर टिकी थीं। तीखी, झुलसाती हुईं। वह कमरे से बाहर निकल गया।

दरवाज़े पर खड़े हो कर उसने कहा, ‘मां, मैं दफ़्तर जा रहा हूं। अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो घण्टी दबा देना। रामदीन यहां है। मैं तुम्हारे लिए एक नर्स का इंतज़ाम कर दूंगा।‘ उनकी ओर देखे बिना, वह बाहर निकल गया।



‘गुड मॉर्निंग सर’, जैसे ही वह अपनी कुर्सी पर बैठा, हाथ में भाप फेंकती कॉफी का कप लिये, उसकी ख़ूबसूरत सेक्रेटरी दाखिल हुई।सावधानी से उसे उसके सामने रख दिया। ‘थैंक्यू’, उसकी ओर देखे बिना वह बुदबुदाया। कुछ हैरान, वह एक लम्हे के लिए खड़ी रही, फिर चुपचाप चली गई। वह खिसिया कर मुस्कुराया, उसे अहसास था, वह अपनी मशहूर मुस्कान उसकी तरफ़ फेंकने से चूक गया था। इतना अभद्र व्यवहार?

उसने सुरुचि से सजे कमरे को देखा। खुला, आरामदेह। घर के उसके कमरे की तरह नहीं, जिसे उसकी पत्नी जब-तब ‘सजाने’ में लगी रहती है और जिससे उसे झल्लाहट होती है।



उसे तभी समझ जाना चाहिए था कि वह किस चक्कर में पड़ने वाला है, जब उसकी  होने वाली पत्नी ने गर्व के साथ बतलाया था कि उसने इंटीरियर डिज़ाइनिंग की है। वह गर्व से चहकती अपनी होने वाली पत्नी को देख कर लगाव से मुस्कुराया था। हर किसी के शौक होते हैं। उसकी मां के भी हैं। क्या वाकई? खाना पकाना, सीना-बुनना, क्या वे शौक थे? या ऐसे काम, जिन्हें वह आदतन- भले उनकी जरूरत न रह गई हो- मशीनी ढंग से करती रहती थीं? क्या उन्हें उनमें लुत्फ़ आता था? जब वह छोटा था, तभी उसने उनके असल रोमांच को महसूस कर लिया था...अनुभव तब किया, जब अपनी पहली हवाई ट्रिप पर गया। बादलों के पार...।

उसने फाइल बंद कर दी। काम में ध्यान लगाना असंभव हो गया था। पहले कभी उसका मन इस तरह नहीं भटका। वह धुन का पक्का और कामकाजी आदमी था। वह उठ गया।

‘वह डेढ़ बजे गॉल्फ़ क्लब में है, सर.’उसकी सेक्रेटरी उसके सामने खड़ी थी।

‘क्या?’

’मिस्टर रॉय के साथ लंच’।

‘कैंसिल कर दो।‘

’लेकिन सर...’

उसने ब्रीफ़केस उठाया तो वह उसे ताकती रह गई।

’मैं वापस नहीं आऊंगा,‘ कह, उसके कुछ समझ पाने से पहले वह बाहर निकल गया।



‘कहां चले गए थे तुम?’ जैसे ही घर में दाखिल हुआ, विभा ने पूछा। "रामदीन ने तुमसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन तुम दफ़्तर में नहीं थे। फिर उसने मुझे फोन किया और मुझे दौड़ कर घर आना पड़ा। तुम उनके साथ एक दिन रह नहीं सकते थे? वह मर रही हैं और...।‘

वह उसे पीछे छोड़ दौड़ता हुआ मां के कमरे में पहुँचा।उनकी बंद आंखें देख उसका दिल बैठ गया। क्या वे मर गईं? उसने उनकी नब्ज़ देखी। नब्ज चल रही थी पर कुछ मद्धिम। उन्हें करना ही होगा। ज़्यादा वक्त नहीं था। उसे जल्दी करनी होगी।

‘मां,’ वह फुसफुसाया।

उनकी आंखें खुल गईं, ‘टिकट ले आए?’

’वे अनर्गल बड़बड़ा रही हैं,’ विभा दरवाज़े पर खड़ी थी।

’मां, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।’

वे ना में सिर हिलाने लगीं।

‘तुम पछताओगी नहीं’, वह उनके कानों में फुसफुसाया, "अपने तमाम ऊनी कपड़े रख लो। बाहर बहुत ठंड है। चल पाओगी न? मैं तुम्हें उठाकर ले चलूंगा।‘

’मैं चल सकती हूं,’ उन्होंने दृढ़ता से कहा। ‘लेकिन...’

’रास्ते में बतलाऊंगा। अगर तुम्हें ठीक नहीं लगा तो हम लौट आएंगे। मैं वादा करता हूं।‘उन्हें अपनी तरफ संदेह से देखते पा कर उसने जोड़ा।

’उनकी कुछ चीज़ें पैक कर दो।‘उसने विभा से कहा। ‘बस, ज़रूरत भर सामान।‘

’तुम उन्हें कहां ले जा रहे हो? कौन से अस्पताल? मैं चलूं साथ?’

’नहीं, मैं रहूंगा उनके साथ। बाद में तुम्हें बतला दूंगा, हम कहां हैं।‘

कुछ राहत महसूस करते हुए कि उसे साथ चलने को नहीं कह रहा, वह पैकिंग में जुट गई। उसे अस्पतालों से घिन्न आती थी...ऐंटीसेप्टिक की गंध, घिनौने मरीज़, सपाट चेहरे वाली नर्सें, डिटर्जेंट की गंध, सबसे।

‘टैक्सी के लिए फोन कर दो,‘अपने सामान एक ओवरनाइटर में ठूंसते हुए उसने हड़बड़ा कर कहा।

‘मैं तुम्हें छोड़ दूंगी,’ कुछ अपराधबोध अनुभव करते हुए उसने कहा।

’नहीं, नहीं, हम कैब ले लेंगे। जल्दी पहुंच जाएंगे।" उसने अविश्वास से उसे देखा तो उसने जोड़ा," मैं नहीं चाहता, तुम तेज़ ड्राइव करो।"

कंधे झटक कर उसने रिसीवर उठा लिया।



उन्हें घर छोड़े चार दिन हो गए थे। हैरानी की बात यह थी कि उसने फोन नहीं किया था, न घर, न दफ़्तर। उसकी परेशान सेक्रेटरी के कई फ़ोन आए थे। बेवकूफ लड़की, इतनी घबराई, इतनी परेशान। विभा ने उससे कहा कि वह उसके सारे अप्वाइंटमेंट रद्द कर दे- एक हफ़्ते के लिए, एक महीने के लिए या जब तक ठीक समझे, तब तक। वह इसी लायक है! उसने यह बतलाने की भी जहमत नहीं की कि वह है कहां? ठीक है, उसे अस्पताल नापसंद थे, लेकिन कम-से-कम एक बार जाकर उन्हें देख तो आती। ज़रूरत पड़ जाती तो शायद साथ भी रह लेती। क्या वे मर चुकीं? नहीं, कदापि नहीं। तब वह उन्हें घर ले आता- यानी उनके शव को। उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। उसे शवों से और ज्यादा नफ़रत थी।

ठीक है, अभी वह अपने दोस्तों के साथ लंच के लिए जा रही थी। तो बुरी बातों का खयाल क्यों करे, गाड़ी की चाबी उठाते हुए उसने सोचा। वह अपनी छुट्टियों का पूरा इस्तेमाल करेगी। कौन जानता है, कब उसे शोक मनाना पड़ जाए। वह खयाल ही दिल डुबाने वाला था। तभी घंटी बजी। उसे किसी के आने का इंतज़ार नहीं था। ठीक है, जो होगा, जल्दी विदा कर देगी। वह तेज़ी से दरवाज़े की तरफ बढ़ी...और अचंभित खड़ी रह गई, जब सामने हंसते रोहित को खड़े देखा।



‘आखिर तुम थे कहां?’ हड़बड़ाई सी वह बोली।

’मैंने उड़ान भरी...बर्फ भी पड़ रही थी। क्या तुम मानोगी, मैंने वाकई बर्फ देखी’, पीछे से बूढ़ी औरत चहचहा रही थी।

हैरान, उसने अपनी सास को घूरा। हे भगवान! बीमार सास काफ़ी नहीं थी क्या जो अब एक खिसकी बूढ़ी औरत से भी निबटना पड़ेगा।

’क्या तुमने कभी बर्फ देखी है, बहू?’

’हां, कई बार,’ विभा ने सर्द आवाज़ में कहा, "मैं शिमला में पढ़ी हूँ।"

‘लो, मैं भूल ही गई थी। क्या वहाँ हर साल बर्फ पड़ती है? तब अगली सर्दी में हम सब चलेंगे,‘ वे खुशी से हंस रही थीं।

रोहित ने कुछ शर्मिन्दगी से पत्नी को देखा। बूढी औरत खुशी-खुशी अपने कमरे की तरफ़ जा चुकी थी।

‘तुम उन्हें यहां क्यों ले आए?’ विभा फट पड़ी, ‘क्या तुम सोचते हो, मैं एक पागल के साथ रहूंगी?’

’वे पागल नहीं हैं विभा। उन्होंने वाकई बर्फ देखी है। हम श्रीनगर गए थे। मेरा इरादा अगले दिन लौट आने का था, लेकिन हम फंस गए...‘

’वाकई? जाते वक़्त मुझे बतला कर नहीं जा सकते थे? टिकट तो पहले से ले रखे होंगे न?" उसने तंज़ से कहा।

‘पहले कोई योजना नहीं थी। वह मर रही थीं और हवाई जहाज़ में बैठना उनकी आख़िरी इच्छा थी। मैं- मैं बस, यों ही, अंतःप्रेरणा पर टिकट ले आया- बतलाने का वक़्त नहीं था।‘ उसने बेबसी से पत्नी के खीझे चेहरे को देखा। उसे नाराज़ होने का हक है। कम से कम...

’पर श्रीनगर क्यों? बर्फ, वाह! करिश्मा ही समझो कि वे मरी नहीं।‘

’वे बेहद ख़ुश थीं। हवाई जहाज़ में बैठते ही उन पर जादू हो गया। और बर्फ...वे सातवें आसमान पर थीं। मैंने उन्हें कभी, एक बार भी इतना खुश नहीं देखा। वे तो बर्फ पर चलना भी चाहती थीं,‘ वह हंसा।

बर्फ पर चलना! लंबे समय से भूली बचपन की तमन्ना लौटी और विभा का दिल जोर से धड़क उठा। हर जाड़े में जब शिमला में बर्फ पड़ती और स्कूल की लंबी छुट्टी में वह अपने मम्मी-पापा के साथ मैदान में होती तो बर्फ के लिए मचलती। कुछ दिन ठहर कर पहली बर्फ देखने के उसके सहमे सुझाव को उसके पिता ‘बेतुका’ बतला कर ख़ारिज कर देते। "उस खाली बोर्डिंग हाउस में तुम ठिठुर कर मर जाओगी," उसकी मां का फैसला होता।

एक बार उन्होंने उसकी इच्छा के आगे हार मानी थी और उसे बर्फबारी दिखाने ले गए थे। जब वे पहुंचे थे, तो धूप खिली मिली थी और संतुष्ट पिता ने उसका पूरा फ़ायदा उठाते हुए अपनी मॉर्निंग वॉक ज़ारी रखी थी। ‘बर्फ पड़े या नहीं, चार दिन में हम लौट जाएंगे’, उनका अकाट्य फैसला था। आख़िरी सुबह जब वह जगी तो पिता बेचैन टहल रहे थे और मां धीरे-धीरे कुछ बुदबुदा रही थी। बाहर बर्फ पड़ रही थी। उसने दरवाज़े की तरफ ज़ोरदार दौड़ लगाई, लेकिन मां ने बेरुख़ी से उसे वापस खींच लिया। खिड़की से नाक सटाए, वह बर्फबारी देखती रही और उसके मां-पापा जल्द से जल्द वहाँ से निकलने की गुंजाइश पर बहस करते रहे।

‘इस बार मैं मफ़लर ले चलूंगी- बर्फ में घूमने के लिए ज़रूरी है। मेरे पास कुछ ऊन पड़ी है...एक तुम्हारे लिए भी बुन दूंगी, रोहित। और तुम्हारे लिए भी बहू, अगर तुम साथ चलो," वे वहां खड़ी चहक रही थीं।

हैरान विभा ने एक झुर्रियाए चेहरे को अपनी तरफ़ उम्मीद से देखते पाया। पहली बार, उसने वाक़ई उन्हें देखा, उनसे अजीब-सा लगाव महसूस किया। उसे हैरानी हो रही थी कि वह, ऊँचाई पर पहुँची, कामयाब करिअर वूमन, एक सीधी-सादी अनपढ़, घर में बंद औरत के साथ, अरसे से संजोया सपना, साझा कर सकती है। हां, वे एक जैसी हैं, वे दोनों, बर्फ से जुड़ी हुईं।

’कौन सा रंग पसंद करोगी?’ बर्फ-सी उजली आवाज़ पूछ रही थी।

‘सारे ... इंद्रधनुष जितने रंग,‘ उसने खुशी खुशी जवाब दिया।

‘मुझे नहीं लगता, मेरे पास उतने रंग हैं,‘ बूढे़ चेहरे ने याद करने की कोशिश की।

‘फिक्र मत कीजिए। मैं ला दूंगी।‘अपना बैग उठाते हुए विभा हंसी। उसे देर हो रही थी, उसके दोस्त इंतज़ार कर रहे होंगे।

‘तुम जा कहां रही हो?’ एक हंसते चेहरे से दूसरे हंसते चेहरे को देखते हुए, हैरान  रोहित ने पूछा।

‘ऊन लाने के लिए।‘उसकी मां हंसी।

मूल अंग्रेज़ी से अनुवादः प्रियदर्शन

Sunday, August 31, 2014

मैं तुझे फिर मिलूँगी - अमृता प्रीतम



आज अमृता प्रीतम जी का जन्मदिन है। संयोग ही है कि पिछले कई दिनों से मैं उनकी कहानियाँ पढ़ रही हूँ। इन कहानियों से गुजरने का अहसास अद्भुत है, बस गूंगे का गुड़ जानिए। अमृता जी की एक कविता मुझे बेहद पसंद है। आज फिर से इसे पढ़ रही हूँ, आप भी पढ़िये.......





मैं तुझे फिर मिलूँगी

मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
 
इसे पंजाबी में पढ़ने के बाद मालूम होता है कि अपनी मादरे-ज़बान में अमृता का कोई सानी नहीं........

मैं तैनू फ़िर मिलांगी
कित्थे ? किस तरह पता नई
शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के
तेरे केनवास ते उतरांगी
जा खोरे तेरे केनवास दे उत्ते
इक रह्स्म्यी लकीर बण के
खामोश तैनू तक्दी रवांगी
जा खोरे सूरज दी लौ बण के
तेरे रंगा विच घुलांगी
जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के
तेरे केनवास नु वलांगी
पता नही किस तरह कित्थे
पर तेनु जरुर मिलांगी
जा खोरे इक चश्मा बनी होवांगी
ते जिवें झर्नियाँ दा पानी उड्दा
मैं पानी दियां बूंदा
तेरे पिंडे ते मलांगी
ते इक ठंडक जेहि बण के
तेरी छाती दे नाल लगांगी
मैं होर कुच्छ नही जानदी
पर इणा जानदी हां
कि वक्त जो वी करेगा
एक जनम मेरे नाल तुरेगा
एह जिस्म मुक्दा है
ता सब कुछ मूक जांदा हैं
पर चेतना दे धागे
कायनती कण हुन्दे ने
मैं ओना कणा नु चुगांगी
ते तेनु फ़िर मिलांगी
(पंजाबी)

Friday, August 8, 2014

बलिदान (कहानी) - सुशांत प्रिय








सुशांत सुप्रिय की सक्रियता बरबस ध्यान खींचती हैं।  वे लगातार लिख रहे हैं, कवितायें और कहानियों के बाद इन दिनों वे अनुवाद के क्षेत्र में लगातार विश्व साहित्य की अच्छी कहानियों से हिन्दी के पाठकों को परिचित करा रहे हैं।  उनकी एक कहानी मुझे मेल से मिली है।  किस्से के अंदाज़ में गढ़ी गई ये कहानी स्वयंसिद्धा के पाठकों से साझा करते हुए उनकी किस्सागोई की सराहना करना चाहूंगी।  आप भी पढ़िये :


मेरे परदादा बड़े ज़मींदार थे । वे कई गाँवों के स्वामी थे । उन्होंने कई मंदिर बनवाए थे।  कई कुएँ और तालाब खुदवाए थे । कई-कई कोस तक उनका राज चलता था । वे अपनी वीरता के लिए भी विख्यात थे । एक बार ' लाट साहब ' के साथ जब वे घने जंगल में शिकार पर गए थे तब एक खूँखार नरभक्षी बाघ ने पीछे से ' लाट साहब ' पर अचानक हमला कर दिया था । तब परदादा जी ने अकेले ही बाघ से मल्ल-युद्ध किया ।हालाँकि इस दौरान वे घायल भी हो गए पर इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने बाघ के मुँह में अपने हाथ डाल कर उसका जबड़ा फाड़ दिया था और उस बाघ को मार डाला था । परदादाजी की वीरता से अंग्रेज़ बहादुर बहुत ख़ुश हुआ था।  अपनी जान बचाने के एवज़ में ' लाट साहब ' ने उन्हें ' रायबहादुर ' की उपाधि भी दी थी ।


             हालाँकि आज जो सच्ची घटना मैं आपको बताने जा रहा हूँ उसका सीधे तौर पर इस सबसे कुछ लेना-देना नहीं है । हमारे गाँव चैनपुर के बगल में एक और गाँव था--- धरहरवा । वहाँ साल में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता था । हमारे गाँव और आस-पास के सभी गाँवों के लोग उस मेले की प्रतीक्षा साल भर करते थे। मेले वाले दिन सब लोग नहा-धो कर तैयार हो जाते और जल-पान करके मेला देखने निकल पड़ते । हमारे गाँव में से जो कोई मेला देखने नहीं जा पाता उसे बहुत बदक़िस्मत माना जाता । हमारे गाँव चैनपुर और धरहरवा गाँव के बीच भैरवी नदी बहती थी ।साल भर तो वह रिबन जैसी एक पतली धारा भर होती थी । पर बारिश के मौसम में कभी-कभी यह नदी प्रचण्ड रूप धारण कर लेती थी । तब कई छोटी-छोटी सहायक नदियों और नालों का पानी भी इसमें आ मिलता था । बाढ़ के ऐसे मौसम में भैरवी नदी सब कुछ निगल जाने को आतुर रहती थी । यह कहानी भैरवी नदी में आई ऐसी ही भयावह बाढ़ से जुड़ी है ।

               यह बात तब की है जब मेरी परदादी के पेट में मेरे दादाजी थे । उस बार जब धरहरवा गाँव में मेला लगने वाला था तो मेरी परदादी ने परदादाजी से कहा कि इस बार वह भी मेला देखने जाएँगी । यह सुन कर परदादा जी मुश्किल में फँस गए ।

वैसे तो कई-कई कोस तक किसी भी बात के लिए उनका हुक्म अंतिम शब्द माना जाता था पर वे मेरी परदादी से बहुत प्यार करते थे । उन्होंने परदादी जी को मनाना चाहा कि ऐसी अवस्था में उनका मेला देखने जाना उचित नहीं होगा । पर परदादी थीं कि टस-से-मस नहीं हुईं । परदादाजी प्रकाण्ड विद्वान् भी थे । उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था । किन्तु उनकी सारी विद्वत्ता परदादी जी के आगे धरी-की-धरी रह गई । वे किसी भी भाषा में परदादी जी को नहीं मना पाए । परदादी जी की देखा-देखी या शायद उनकी शह पर घर-परिवार की सारी औरतों ने मेला देखने जाने की ज़िद ठान ली ।  हार कर परदादाजी और घर के अन्य पुरुषों को घर की औरतों की बात माननी पड़ी ।

                पुराना ज़माना था । ज़मींदार साहब की घर की औरतों के लिए पालकी वाले बुलाए गए । भैरवी नदी के इस किनारे पर एक बड़ी-सी नाव का बंदोबस्त किया गया । लेकिन उस सुबह नदी में अचानक कहीं से बह कर बहुत ज़्यादा पानी आ गया था । नदी चौड़ी, गहरी और तेज़ हो गई थी । बाढ़ जैसी स्थिति की वजह से उसने ख़तरनाक रूप ले लिया था । पर मेला भी साल में एक ही बार लगता था । अंत में घर के सब लोग , कुछ नौकर-नौकरानियाँ , पालकियाँ और पालकी वाले भी उस डगमगाती नाव पर सवार हुए । राम-राम करते हुए किसी तरह नदी पार की गई । इस तरह नदी के उस पार उतर कर सब लोग धरहरवा गाँव में मेला देखने पहुँचे।

         
      मेला पूरे शराब पर था । चारो ओर धूम मची हुई थी । तरह-तरह के खेल-तमाशे थे । नट और नटनियों के ऐसे करतब थे कि आदमी दाँतों तले उँगली दबा ले । एक ओर गाय , भैंसें , और बैल बिक ़रहे थे । दूसरी ओर हाथी और घोड़े बेचे और खरीदेजा रहे थे । दूसरे इलाक़ों के ज़मींदार लोग भी मेले में पहुँचे हुए थे । कहीं ढाके का मलमल बिक रहा था तो कहीं कन्नौज का इत्र बेचा जा रहा था । कहीं बरेली का सुरमा बिक रहा था तो कहीं फ़िरोज़ाबाद की चूड़ियाँ बिक रही थीं । ख़ूब रौनक़ लगी हुई थी ।

               सूरज जब पश्चिमी क्षितिज की ओर खिसकने लगा तो मेला भी उठने लगा ।  दुकानदार अँधेरा होने से पहले सामान समेट कर वापस लौट जाना चाहते थे । परदादाजी ने ख़ास अरबी घोड़ा ख़रीदा । घर-परिवार की औरतों ने भी अपने-अपने मन का बहुत कुछ ख़रीदा । परदादाजी तीन भाई थे । वे सबसे बड़े थे । उनके बाद मँझले परदादाजी थे । फिर छोटे परदादाजी थे । शाम ढलने लगी थी । सब लोग उस बड़ी-सी नाव पर सवार हो गए । नदी का पानी पूरे उफान पर था । हालात और ख़राब हो गए थे।


दूर-दूर तक नदी का दूसरा किनारा नज़र नहीं आ रहा था । मल्लाहों ने परदादाजी से विनती की कि इस बाढ़ में नाव से नदी पार करना बड़े जोख़िम का काम था । पर परदादाजी के हुक्म के आगे उनकी क्या बिसात थी । सब लोग उस डगमगाती नाव में सवार हो गए । परदादाजी ने अपने अरबी घोड़े को भी नाव पर चढ़ा दिया । घर-परिवार की सभी औरतें, नौकर-चाकर , पालकियाँ और पालकी वाले--सब नाव पर आ गए ।

                 नदी किसी राक्षसी की तरह मुँह बाएँ हुए थी । उफनती नदी में वह नाव किसी खिलौने-सी डगमगाती जा रही थी । नदी के बीच में पहुँच कर नाव एक ओर झुक कर डूबने लगी । औरतों ने रोना-चीख़ना शुरू कर दिया । मल्लाहों ने चिल्ला कर परदादाजी से कहा कि नाव पर बहुत ज़्यादा भार था । उन्होंने कहा कि नाव को हल्का करने के लिए कुछ सामान नदी में फेंकना पड़ेगा ।

                 
 परदादाजी ने सामान से भरे कुछ बोरे नदी में फिंकवा दिए । नाव कुछ देर के लिए सम्भली पर बाढ़ के पानी के प्रचण्ड वेग से एक बार फिर संतुलन खो कर एक ओर झुकने लगी । फिर से चीख़-पुकार मच गई । अब और सामान नदी में फेंक दिया गया । पर नाव थी कि सम्भलने का नाम ही नहीं ले रही थी और एक ओर झुकती जा रही थी । मल्लाह लगातार भार हल्का करने के लिए चिल्ला रहे थे ।

                    आख़िर परदादाजी ने दिल पर पत्थर रख कर अपने अरबी घोड़े को उफनती धाराओं के हवाले कर दिया । उन्हें देख कर लगा जैसे वे अपने जिगर का टुकड़ा क्रुद्ध भैरवी मैया के हवाले कर रहे हों । नाव ने फिर कुछ दूरी तय की । लेकिन कुछ ही देर बाद वह दोबारा भयानक हिचकोले खाने लगी । नाव को चारों ओर से इतने झटके लग रहे थे कि नाव में बैठी परदादीजी की तबीयत ख़राब होने लगी थी । जब नाव ज़्यादा झुकने लगी तो मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे । परदादाजी के मना करने के बावजूद अबकी बार कुछ नौकर-चाकर और पालकी वाले जिन्हें तैरना आता था, नदी में कूद गए । नाव उफनती धारा में तिनके-सी बहती चली जा रही थी । मल्लाह नियंत्रण खोते जा रहे थे ।

                     अंत में नाव में केवल चार मल्लाह, घर-परिवार के सदस्य और कुछ नौकरानियाँ ही बचे रह गए । लग रहा था जैसे उस दिन सभी उसी नदी में जल-समाधि लेने वाले थे । सब की नसों में प्रलय का शोर था । शिराओंं में भँवर बन रहे थे । साँसें चक्रवात में बदल गई थीं । परदादाजी को कुछ समझ नहीं आ रहा था । उनकी बुद्धि के सूर्य को जैसे ग्रहण लग गया था । मल्लाह एक बार फिर चिल्लाने लगे थे ।

                     परदादाजी , मँझले परदादाजी और छोटे परदादाजी -- तीनों अच्छे तैराक थे । लेकिन बाढ़ से उफनती सब कुछ लील लेने वाली प्रलयंकारी नदी में तैरना किसी शांत तालाब में तैरने से बिलकुल उलट था । एक बार फिर फ़ैसले की घड़ी आ पहुँची । किसी ने सलाह दी कि नौकरानियाें को नदी में धकेल दिया जाए । लेकिन तीनों परदादाओं ने यह सलाह देने वाले को ही डाँट दिया । बल्कि पहले छोटे परदादा , फिर मँझले परदादा परदादाजी से गले लगे और उनके लाख रोकने के बावजूद दोनों उस बाढ़ से हहराती , उफनती नदी में कूद गए । घर की औरतें रोने-बिलखने लगीं । लेकिन नाव थोड़ी सीधी हो गई ।

                      अब दूसरा किनारा दिखने लगा था । लगा जैसे नाव किसी तरह उस पार पहुँच जाएगी । तभी बाढ़ के पानी का समूचा वेग लिए कुछ तेज लहरें आईं और नाव को बुरी तरह झकझोरने लगीं । उस झटके से चार में से दो मल्लाह उफनती नदी में गिर कर बह गए । नाव अब बुरी तरह डगमगा रही थी । दोनों मल्लाह पूरी कोशिश कर रहे थे पर नाव एक ओर झुक कर बेक़ाबू हुई जा रही थी । दोनों मल्लाह फिर चिल्लाने लगे थे । किनारा अब थोड़ी ही दूर था लेकिन नाव लगातार एक ओर झुकती चली जा रही थी । वह किसी भी पल पलट कर डूब सकती थी ।

                        औरतें एक बार फिर डर कर चीख़ने लगी थीं ।  दोनों मल्लाह भी चिल्ला रहे थे । और उसी पल परदादाजी ने आकाश की ओर देख कर शायद कुल-देवता को प्रणाम किया और नदी की उफनती धारा में कूद गए । औरतें एक बार फिर विलाप करने लगीं ।

                         परदादाजी के नदी में कूदते ही एक ओर लगभग पूरी झुक गई नाव कुछ सीधी हो गई । औरतों के विलाप और भैरवी नदी की उफनती धारा के शोर के बीच ही दोनों मल्लाह किसी तरह उस नाव को किनारे पर ले आए ।

                         परदादाजी किनारे कभी नहीं पहुँच पाए । मँझले परदादा और छोटे परदादा का भी कुछ पता नहीं चला । उस शाम नाव से नदी में कूदने वाले हर आदमी को भैरवी नदी की उफनती धाराओं ने साबुत निगल लिया ।

                        तीनों परदादाओं और अन्य सभी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया । बाढ़ और मातम के बीच उसी रात परदादी ने दादाजी को जन्म दिया , वर्षों बाद जिन्हें आज़ाद भारत की सरकार ने स्वाधीनता-संग्राम में उनके योगदान के लिए शाॅल और ताम्र-पत्र दे कर सम्मानित किया ।

                        लेकिन इस बलिदान से जुड़ी असली बात तो मैं आपको बताना भूल ही गया । बाढ़ के उस क़हर की त्रासद घटना के बाद से आज तक , पिछले नब्बे सालों में भैरवी नदी में फिर कभी कोई डूब कर नहीं मरा है । इलाक़े के लोगों का कहना है कि हर डूबते हुए आदमी को बचाने के लिए नदी के गर्भ से कई जोड़ी हाथ निकल आते हैं जो हर डूबते हुए आदमी को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा जाते हैं । इलाक़े के लोगों का मानना है कि परदादाजी, मँझले परदादाजी , छोटे परदादाजी और नौकरों-चाकरों की रूहें आज भी उस नदी में डूब रहे हर आदमी की हिफाज़त करती हैं ।

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सुशान्त सुप्रिय ( परिचय)
                        
 जन्म २८ मार्च, १९६८  पटना में
शिक्षा-दीक्षा अमृतसर , पंजाब तथा दिल्ली में
पंद्रह वर्षों से संसदीय सचिवालय में अधिकारी
दिल्ली में रिहाइश
प्रकाशन : दो कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं: 'हत्यारे' (२०१०) तथा 'हे राम' (२०१२)।
पहला काव्य-संग्रह ' एक बूँद यह भी ' 2014 में  प्रकाशित
अनुवाद की एक पुस्तक ' विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ' प्रकाशनाधीन है ।
सभी पुस्तकें नेशनल पब्लिशिंग हाउस , जयपुर से प्रकाशित
कई भाषाओं में कहानियाँ और कवितायें अनूदित, सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन

कविता " इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं " पूना वि. वि. के बी. ए.    (द्वितीय वर्ष ) पाठ्यक्रम में शामिल। दो कहानियाँ , " पिता के नाम " तथा " एक हिला हुआ आदमी " हिन्दी के पाठ्यक्रम के तहत कई राज्यों के स्कूलों में क्रमश: कक्षा सात और कक्षा नौ में पढ़ाई जा रही हैं। आगरा वि. वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. तथा गुरु नानक देव वि.वि., अमृतसर के हिंदी विभागों में कहानियों पर शोध।
       
 'हंस' में 2008 में प्रकाशित कहानी " मेरा जुर्म क्या है ? " पर short film बनी है ।  अंग्रेज़ी काव्य-संग्रह ' इन गाँधीज़ कंट्री ' हाल ही में प्रकाशित हुआ है।  अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ डायरेक्शन' प्रकाशाधीन।
        

          

Wednesday, August 6, 2014

कार्टूनिस्ट प्राण के साथ कॉमिक्स का दौर अब खत्म हुआ






"कार्टूनिस्ट प्राण" यह नाम  80 या नब्बे के दशक के बचपन से कुछ इस तरह वाबस्ता है कि इसके बिना बचपन की कल्पना काफी हद तक नीरस और बेरंगी मालूम होती है।  चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू, पिंकी, रमन, श्रीमतीजी जैसे चर्चित कार्टूनों के जरिए घर-घर में मशहूर हुए कार्टूनिस्ट प्राण का 76 साल की उम्र में निधन हो गया। वह पिछले कई साल से कैंसर से पीड़ित थे। पिछले 10 दिनों से वह अस्पताल के इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में भर्ती थे, जहां मंगलवार रात उन्होंने अंतिम सांस ली।  उनके साथ ही मानों कॉमिक्स की दुनिया का एक सुनहरा दौर भी खत्म हो गया। 



प्राण का जन्म 15 अगस्त, 1938 को लाहौर में हुआ था। पूरा नाम प्राण कुमार शर्मा था, लेकिन वह प्राण के नाम से ही मशहूर हुए।   1960 में उन्होने दिल्ली से छपने वाले अखबार 'मिलाप' में बतौर कार्टूनिस्ट अपने करियर की शुरुआत की थी।  कॉमिक्स की दुनिया के चर्चित किरदार चाचा चौधरी को उन्होंने सबसे पहले हिंदी बाल पत्रिका 'लोटपोट' के लिए बनाया था। इसके बाद वह भारतीय कॉमिक जगत के सबसे सफल कार्टूनिस्टों में से गिने जाने लगे।   चाचा चौधरी और साबू के अलावा भी डायमंड कॉमिक्स के लिए प्राण ने कई अन्य कामयाब किरदारों को जन्म दिया। इनमें रमन, बिल्लू और श्रीमतीजी जैसे कॉमिक चरित्र शामिल थे।


राजनीति विज्ञान के स्नातक और फाइन आर्ट्स के छात्र रहे प्राण ने जब 1960 के दशक में कॉमिक स्ट्रिप बनाना शुरू किया, जो उस वक्त भारत में इस लिहाज से बिल्कुल नया था और कोई देसी किरदार मौजूद नहीं था।  अगर 1960 के दशक से पहले की बात करें तो प्राण साहब से पहले शायद ही किसी ने ऐसी कोशिश की होगी। उनकी कोशिश पूरी तरह कामयाब भी रही।  विशुद्ध भारतीय कॉमिक कैरक्टर पहली बार अस्तित्व में आए जिन्हे हाथोंहाथ लिया गया।  ये एक तरह से भारतीय बच्चों की दुनिया पर काबिज मिकी, डोनाल्ड, स्पाईडरमैन, मेंड्रेक आदि के समानान्तर एक ऐसी सीरीज़ का गठन था जो बेहद अपनी सी लगती थी और सहज ही बालमन पर अपनी छाप छोड़ जाती थी।  भारतीय कॉमिक चरित्र, पर्फेक्ट कॉमिक टाइमिंग और समसमयिक विषयों पर पकड़ जैसी कुछ बातों ने उन्हे न केवल बच्चों बल्कि कई पीढ़ियों के पसंदीदा कार्टूनिस्ट के तौर पर स्थापित कर दिया।  शायद ही किसी अन्य कार्टूनिस्ट को इतनी कामयाबी मिली होगी जो प्राण साहब को मिली।  


बीबीसी को दिये एक इंटरव्यू में प्राण साहब ने बताया था,  "ऐसा नहीं है कि कार्टूनिस्ट नहीं थे. मुझसे बेहतर थे मेरे सीनियर जैसे शंकर, कुट्टी और अहमद लेकिन वे सब राजनीतिक कार्टून बनाते थे. मुझे लगा कि राजनीति तो वक्त के साथ पुरानी पड़ जाएगी क्यों न ऐसे सामाजिक क़िरदार बनाऊं जो हम जैसे हों. मेरी समझ से कार्टून पत्रकारिता की एक शाखा है."
 

आगे वे कहते हैं,  "उस वक्त जितनी भी कॉमिक्स बाज़ार में मौजूद थीं उन सब में विदेशी चरित्र थे जैसे मेंड्रेक, ब्लॉंडी वगैरह. हालांकि जब मैंने माता-पिता को बताया तो सबने कहा कि क्या मिलेगा तुम्हें, कोई लड़की तुमसे शादी नहीं करेगी. लेकिन मैंने कहा कि मैं तय कर चुका हूं. अब तो यही करना है."

 
 उनके कार्टून कैरक्टर्स की लोकप्रियता का यह आलम रहा कि पिछली कई पीढ़ियों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी आदि से परिचित न हो।  ये वह वक़्त था जब कॉमिक्स की दुनिया का स्वर्णिम दौर था, इस दौर से कितनी मदद प्राण साहब को मिली या प्राण साहब से कितनी मदद इस दौर के उत्थान को मिली ये कहना जरा मुश्किल है।  दरअसल दोनों एक दूसरे के पूरक साबित हुए।  वह दूरदशन और आकाशवाणी का जमाना था।  केबल टीवी नेटवर्क और इंटरनेट से ठीक पहले का दौर था।  तब बच्चों के लिए कॉमिक्स ठंडी हवा के उस झोंके के तरह था जो कुछ घंटों के लिए उन्हे पढ़ाई से निजात दिलाता था, माँ-बाप भी खुश थे कि किसी न किसी रूप में बच्चे किताबों से खुद को जोड़ रहे थे।  डायमंड कॉमिक्स की सीरीज़ ने ऐसे समय को भुनाया और बच्चों को अपना मुरीद बना लिया और इसमें प्राण साहब का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। स्थानीय विषयों का चुनाव, चुटीला व्यंग्य और अपने ही घर-बाहर के आस पास दिखनेवाले किरदार बाज़ार पर इस कदर छा गए कि जल्दी ही डायमंड कॉमिक्स हर घर में होना जरूरी हो गया।   


प्राण साहब में कामयाबी का एक लंबा दौर देखा है और वे अंतिम समय तक काम करते रहे।  सक्रियता का तो ये आलम था कि अंतिम समय तक वे काम कर रहे थे।  उन्होंने पाठकों के लिए आगे तक का काफी कॉमिक्स पहले से ही बना दिया था। 


आज का बचपन किताबों से नाता तोड़कर फिर से केबल टीवी और इंटरनेट की शरण में हैं।  भारतीय चरित्रों पर ज्यादा प्रयोग हो नहीं रहे हैं और छोटा भीम जैसे इक्का-दुक्का  कार्टून को छोडकर  एक बार फिर, शिनचैन, डोरेमोन, निंजा हथोड़ी जैसे विदेशी कार्टूनों का दौर है।  हिन्दी या इंग्लिश में डब किए गए इन कार्टूनों में चुंबन लेते छोटे बच्चे हैं जिनके गाल बड़ी उम्र की लड़की तक को देखकर लाल हो जाते है।  हर बच्चे के पास एक पर्फेक्ट क्रश भी है जिसे रिझाने का कोई मौका वह छोडना नहीं चाहता।  अंत में यदि कोई संदेश मिलता भी है तो तमाम तरह की फूहडताओं से गुजरने के बाद।  सोचने का समय है आखिर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को किया दिखा रहे हैं।   

 
तमाम तरह के एनिमेशन कोर्सेस के युग में  कार्टूनों के संदर्भ में देखा जाए तो कॉमिक्स में अब बच्चों की रुचि नहीं और यूं भी कार्टून बनाना आज खतरे से खाली नहीं है।  खुद प्राण साहब कई बार ये चिंता जाहिर कर चुके थे कि किसी भी कार्टूनिस्ट को आज पहले जैसी  स्वतन्त्रता नहीं है। फतवे और जुलूस के साथ साथ तमाम तरह की नाराज़गियाँ मोल लेने के बाद भी आज कितने कार्टूनिस्ट हैं जिन्हे कामयाबी मिल रही है।  जो हैं वो किसी भी तरह के नए प्रयोगों से बचना चाहते हैं  ऐसे में प्राण साहब का चले जाना कार्टून्स की दुनिया में उस स्थान का खाली होना है जिसे शायद ही कभी भरा जा सके।   उन्हे भावभीनी श्रद्धांजलि।

Wednesday, July 30, 2014

मेरी पसंद के कुछ सावन गीत




सभी मित्रों को तीज की हार्दिक बधाई। तीज, यानि बचपन की यादें, हम राजस्थानियों की तीज यानि मेहंदी, चूड़ी, पाजेब, लहरिया, खीर-पूरी-घेवर और सबसे बढ़कर झूला....जी हाँ झूले के बिना कैसी तीज। ये उन दिनों की बात है जब दिल्ली में भी घर फ्लैट नहीं सचमुच घर हुआ करते थे। बड़े से आँगन वाले खुले-खुले घर। घर-घर झूला, घर-घर तीज। मेरे घर में भी झूला डलता था, मेरी करीबी दोस्त के यहाँ भी। सामने वाली जगत-चाची के यहाँ भी। पर सबसे ज्यादा जिसकी याद आती है वह था करीब के एक घर में डाला गया बड़ा झूला। उसे बहुत बड़े से मकान में एक बड़ा सा हिस्सा खुला था, जिसका बड़ा-सा विशालकाय (उस उम्र में हर चीज़ इतनी विशालकाय क्यों लगती थी?) गेट था, जिसे हम बड़ा गेट कहा करते थे। बस उसी गेट पर बड़ा-सा झूला डाला जाता था जहां सामूहिक रूप से हम सब बच्चे पूरा सावन हर दोपहर एकत्र होकर झूला करते थे। और फिर सालों बाद मेरे घर और मेरे सामने के घर के बीच छज्जों के बीच बड़े से लट्ठे डालकर मोटे-मोटे रस्सों से एक बड़ा-सा झूला डाला जाने लगा। फिर गली नंबर दो में सावन इतने उल्लास से आता कि महानगरीय संकोच और व्यस्तताएं मानों छुट्टी पर चली जाती। हर रात औरतें अपना काम 9 बजे तक निपटा कर सीरियलों की कैद तोड़कर गली में आ जमती। एक दरी बिछती, झूला नीचे उतारा जाता और दो-दो और कभी-कभी तीन-तीन एक साथ उस झूले पर झूलती। जिसे जो याद आता गाया जाता, तीज के गीत, सावन के गीत, और तो और हंसी ठिठोली से भरे फिल्मी गीत भी। मैं ऑफिस से आकर सोने से पहले अक्सर अपनी छत से उन्हे देखकर खुश हुआ करती और अगर मेरी दोस्त वहाँ आ जाती तो हम भी इस मस्ती की टोली का हिस्सा बन जाते। खैर अब न वह झूले रहे और न वो मस्ती। घर बनवाते वक्त ओपन किचन के सामने और चौथी मंज़िल की छत पर लेंटर में कड़े डलवाये थे कि सावन कहीं मेरे घर आना न भूल जाए।  

प्रस्तुत हैं आज तीज पर मेरी पसंद के कुछ सावन गीत .....







सावन आया

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया

 -- अमीर खुसरो



 

काहे को ब्याहे बिदेस

काहे को ब्याहे बिदेस,
अरे
, लखिया बाबुल मोरे काहे को ब्याहे बिदेस
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन ने खाए पछाड़ अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोड़ी  
छूटा सहेली का साथ अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस अरे, लखिया बाबुल मोरे
-- अमीर खुसरो 


बन बोलन लागे मोर

आ घिर आई दई मारी घटा कारी। बन बोलन लागे मोर
दैया री बन बोलन लागे मोर।
रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी छाई री चहुँ ओर।
आज बन बोलन लागे मोर।
कोयल बोले डार-डार पर पपीहा मचाए शोर।
आज बन बोलन मोर.........
ऐसे समय साजन परदेस गए बिरहन छोर।
आज बन बोलन मोर......... 
-- अमीर खुसरो


सावन का महिना पवन करे सोर (मिलन)

सावन का महीना, पवन करे सोर
पवन करे शोर
पवन करे सोर
पवन करे शोर
अरे बाबा शोर नहीं सोर, सोर, सोर
पवन करे सोर

हाँ, जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे बन मा नाचे मोर
सावन का महीना ...

मौजवा करे क्या जाने, हमको इशारा
जाना कहाँ है पूछे, नदिया की धारा
मरज़ी है तुम्हारी, ले जाओ जिस ओर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

रामा गजब ढाए, ये पुरवइया
नइया सम्भालो कित, खोए हो खिवइया
पुरवइया के आगे, चले ना कोई ज़ोर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

जिनके बलम बैरी, गए हैं बिदेसवा
लाई है जैसे उनके, प्यार का संदेसवा
काली अंधियारी, घटाएं घनघोर
जियरा रे झूमे ऐसे ... 
--- आनंद बक्शी 


अब के बरस भेज भैया को बाबुल (बंदिनी)

अब के बरस भेज भैया को बाबुल,
सावन में लीजो बुलाय रे,
लौटेंगी जब मेरे, बचपन की सखिया,
दीजो संदेसा भिजाय रे !!

अंबुवा तले फिर से, झूले पड़ेंगे,
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें,
लौटेंगी फिर तेरे, आँगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारे
छलके नयन मोरा, कसके रे जियरा
बचपन की जब, याद आये रे !!

बैरन जवानी  ने छीने खिलौने,
और मेरी गुड़िया चुराई,
बाबुल थी, मैं तेरे नाजों की पाली,
फिर क्यों,  हुई मैं पराई,
बीते रे  जुग  कोई  चिठिया ना पाती,
ना  कोई नैहर से आये रे !!

अब के बरस भेज भैया को बाबुल,
सावन में लीजो बुलाय रे !!

--- शैलेन्द्र


Thursday, July 17, 2014

नागपाश (कहानी) - योगिता यादव

   


योगिता यादव की  कहानी 'नागपाश' पिछले साल 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित हुई थी।   उनके पहले कहानी-संग्रह 'क्लीन चिट' को साल 2013 के 'ज्ञानपीठ नवलेखन' से सम्मानित किया गया है।   इस कहानी पर उनसे लंबी बातचीत भी हुई थी, जिसे फिर कभी साझा किया जाएगा।  हाँ, ये जरूर कहना चाहूंगी, योगिता की कहानियाँ किसी बने-बनाए फ्रेम में बंधने की कायल नहीं हैं।  हर कहानी कथ्य और शिल्प में एक अलग रूप में सामने आती है।   आप एक कहानी  में दूसरी को खोज पाने की कोशिश में असफल होंगे और यही कथाकार की जीत भी है।  प्रेम में यथार्थ और भावनाओं के बीच झूलते स्त्री-मन की पीड़ा को उकेरने में योगिता पूरी तरह सफल रही हैं।  कहानी थोड़ी लंबी जरूर है, पर एक बार पढ़ना शुरू करने पर इसकी रवानगी आपको रुकने नहीं देती है।  बाकी आप स्वयं पढ़कर देखिये और अपनी राय से अवगत भी कराएं!
 
''कृष्ण पक्ष समाप्त हुआ, अब चांद के घटते जाने की पीड़ा से निजात मिलेगी "परी। नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं।"
मेरी जानी पहचानी आवाज ने मुझसे फोन पर बस इतना कहा और यह कहकर फोन रख दिया कि वह एयरपोर्ट पर मेरा इंतजार कर रहा है। 
सोडा वाटर की बोतल की तरह मेरे मन में भी नन्हें बुलबुले उठने-फूटने लगे। एक साल से जिसकी सिर्फ आवाज सुन रही थी वही आज सशरीर मेरे सामने उपस्थित होने वाला था। अद्भुत है आवाज का भी जादू।  
नौवीं क्लास के फाइनल एग्जाम चल रहे थे। जब मैथ्स का पेपर और एफएम पर आमिर खान का इंटरव्यू दोनों एक ही दिन थे। मजबूरन इंटरव्यू आधा ही छोडऩा पड़ा था। रात साढ़े दस बजे स्लो वॉल्यूम में मैंने एफएम फिर से ऑन कर दिया था, वही इंटरव्यू दोबारा सुनने की कोशिश में। 11 बजे तक चला था इंटरव्यू। इसके खत्म होते ही एफएम पर सांप की तरह मन को जकड़ती एक आवाज ने दस्तक दी। 
''मैं हूं आपका दोस्त, आपका हमदर्द असद इकबाल।सांत्वना से लबरेज इस आवाज से यह मेरा पहला परिचय था। वह कुछ लम्हों को याद करते हुए उनका दर्द बयां करता और फिर उसी से मिलता-जुलता गीत एफएम पर बजा देता। दुखते दिलों को मिलने वाली यह सांत्वना 'यादों के झरोखे सेभली सी लगी थी। अगले दिन मैंने एफएम साढ़े दस बजे नहीं रात ग्यारह बजे ऑन किया।
 फिर तो यह मेरा फेवरिट प्रोग्राम बन गया। हर रोज रात को मुझे असद इकबाल की आवाज और यादों के झरोखे से में सुनाए जाने वाले गीतों का इंतजार रहता। मां के डांटने पर ईयर फोन लगाकर चुपके-चुपके बिस्तर में असद इकबाल को सुनती। उन दिनों उसकी सांत्वना मां की थपकियों से भी ज्यादा अच्छी लगने लगीं थीं। उन्हीं थपकियों के सहारे मुझे नींद भी आ जाती। कई बार तो ईयर फोन सुबह के भक्ति गीतों के मंजीरे की आवाज के बाद कान से हटता। तब अपनी बेवकूफी और असद इकबाल की आवाज, मैं दोनों पर फिदा हो जाती।
 शहर छूटा तो ये आवाज भी छूट गई। तब जब मुझे सांत्वना और थपकियों की सबसे ज्यादा जरूरत थी दोनों ही मुझसे दूर हो चुके थे। मेरी सिसकियां थपकियों का इंतजार करती रह गईं और उन्माद जकडऩ के बिछोह में कुम्हलाने लगा। जो गीत असद इकबाल ने सुनाए थे इस नए घर, नए शहर में भी एक बार नहीं कई बार सुने पर उनके बीच से वह जकड़ती हुई आवाज गायब थी जो मुझे जकड़ कर अपने साथ रात से सुबह तक की निर्बांध यात्रा पर ले जाया करती थी।
फिर एक रोज वही आवाज छन्न.... से आ गिरी। 
मेरी व्यस्त और खुशहाल दिनचर्या में। मेरे भीतर का पानी छलक कर बाहर आने को आतुर हो गया। यह अनुभव की आवाज थी। हू ब हू असद इकबाल जैसी। फोन मैंने ही किया था, उसके उपन्यास पर उसे मुबारकबाद देने के लिए। पर बात कहां कर पाई थी। अरसे बाद किसी आवाज ने मुझे फिर से अपनी जकड़ में ले लिया था। 
तमाम रेडियो जॉकी से उलट उसकी आवाज शब्दों को चबाती नहीं थी, उन्हें भरपूर खिलने और खेलने का मौका देती थी। किसी दार्शनिक की तरह। शब्दों के बीच में पिरोयी चुप्पियां सुनने वाले को पर्याप्त धैर्य और सोचने का मौका देतीं। 
मैं उसकी आवाज सुनती और फिर घंटों हर शब्द पर सोचती। जादू सिर्फ  आवाज का ही नहीं बात का भी था। जादू मेरे सिर चढ़ चुका था।
फिर तो फोन का, एसएमएस का सिलसिला चल पड़ा। पहले छठे-चौमासे, फिर हर महीने, हर हफ्ते, हर रोज और अब तो एक ही दिन में कई-कई बार हमारी फोन पर बात हो जाती या एसएमएस बाजी। वही आवाज थी जो आज मुझसे मिलने आ रही थी। बुक फ्लैप पर उसकी छोटी सी तस्वीर भी छपी हुई थी। पर मुझे वह कभी अच्छी नहीं लगी। मेरे कानों के रास्ते जो आवाज मेरे मन की बावड़ी में सीढ़ी दर सीढ़ी उतर गई थी वह बुक फ्लैप पर छपी उस तस्वीर से लाख गुना बेहतर थी।
'वो आखिर आ ही रहा है, आज मुझसे मिलने।'
 मैंने अपने आप को फिर से यकीन दिलाया। मिले बिना ही हम कितना जानने लगे थे एक दूसरे को। इस बीच कितनी बार उसने मुझसे मिलने के लिए कहा, पर मैं हर बार टाल गई। मुझे कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई उससे मिलने की। मेरी आत्मा को तो उसकी आवाज ठग ले गई थी, चेहरा देखकर 'अगर मैं उस ठगी से बच जाती तो....' अनिष्ट की यही संभावना मुझे उससे मिलने से हर बार रोक लेती।  मेरी खोई हुई जकड़ और थपकियां फिर वापस आ गईं थी इस आवाज के साथ।
''हमें दूसरों की इच्छा का भी सम्मान करना चाहिए।आज भी यही सोचकर मैं चली आई थी घर से उस जानी-पहचानी आवाज के आकार से मिलने। सिर्फ इसी सम्मान की खातिर मैं एयरपोर्ट पहुंची हूं, ऐसा भी नहीं है। उसे देखने की एक स्वाभाविक उत्सुकता मेरे भीतर भी उमड़-घुमड़ रही थी।
हर अंदाज कितना लाजवाब है उसका। चांद के प्रति मेरे मोह को कितना जान चुका है वह और फिर दस्तक भी किस अंदाज में दी उसने
''चांद के घटते रहने की पीड़ा से निजात मिलेगी परी।"
'परीकितना सुंदर संबोधन है। जानती हूं परी नहीं हूं, 'परी जैसी' तो बिल्कुल नहीं हूं, पर सुनने में अच्छा लगता है। झूठा ही सही।
अब तक मैं एयरपोर्ट पहुंच चुकी थी। पार्किंग से लेकर वेटिंग हॉल तक पहुंचते हुए कभी घबराहट, कभी उत्सुकता, कभी खुशी बारी-बारी से मुझ पर चढ़ती और उतरती रहीं। छोटा सा यह रास्ता मैंने इसी उधेड़बुन में तय किया।
वेटिंग हॉल में अकेला बैठा था वह और मैं भी अकेली थी। जितना सोच रहे थे पहचानने में उतनी मुश्किल हुई नहीं। 
''जी नमस्कार... कैसे हैं आप... सॉरी मुझे आने में थोड़ी देर हो गई। आप भी अजीब हंै, अगर पहले अपने आने की खबर दे दी होती तो इतना इंतजार तो न करना पड़ता।मैंने एक ही सांस में कई शब्द उस पर उड़ेल दिए। शब्दों में और बातों में, मैं उसकी तरह अभ्यस्त नहीं थी।
''मैंने सोचा तुम्हें सरप्राइज देना चाहिए।"
''अच्छा सरप्राइज है...."
पहली मुलाकात की औपचारिकता का लिहाज किए बिना ही उसने अपने अंदाज में मेरे सामने खुद का स्वागत करने की पेशकश की-
''तुम आए तो आया मुझे याद गली में आज चांद निकला .... गुनगुनाएंगी नहीं मेरे लिए यह गीत।"
''शटअपदिन में चांद नहीं निकलता। अभी निकला कहां है, जब निकलेगा तब गुनगुना लेंगे।"
मैंने मित्रता के पूरे अधिकार के साथ उसे झिड़क दिया। 
स्त्रियों का सबकुछ चांद से बंधा होता है। यह उसी का असर था शायद। पिछले एक साल में कितनी ही बार रंग बदल चुकी थी मैं। शुक्ल पक्ष में चांद का आकार जब बढऩे लगता तो मेरी आत्मीयता और मोह भी बढ़ता चला जाता। कृष्ण पक्ष के दौरान चांद को क्षय रोग घेर लेता, मेरा मोह भी इस रोग की गिरफ्त में आ जाता और मैं मन को आहत करने वाली कोई न कोई बात उससे कह ही देती। फिर खुद भी बहुत दुखी होती। 
उन पीले दिनों और काली रातों में यही एक शेर बार-बार मैं खुद को सुनाया करती। 
''तू बड़ा रहीमो करीम है
एक सिफत अता कर
उसे भूल जाने की दुआ करूं
और दुआओं में असर न हो।"
यह उलाहना मेरी उसी आदत पर दिया जा रहा था। अमावस्या अपनी कालिमा के साथ बीत गई थी और आज शुक्ल पक्ष अपना चांद लेकर उदित हो रहा था।
''शुक्र है किसी बात पर तो राजी हुईं आप। वरना मुझे लग रहा था कि यहां भी मुझे धर्म शास्त्र पर लंबा लेक्चर पिला दिया जाएगा।"
''छोडि़ए धर्म शास्त्र की व्याख्या और चलिए मेरे साथ... पहले घर चलते हैं। फिर कहीं घूमने चलेंगे।"
मेरे स्नेह और अधिकारभाव ने उसे बाजू से पकड़कर अपने साथ लगभग घसीट लिया।
''अपने पति देव से पिटवाएंगी मुझे घर ले जाकर, भई इतना बड़ा गुनाह नहीं किया है मैंने। आपको अभी तक सिर्फ  परी कहा है, प्रिया नहीं।मेरे अधिकार पूर्वक घसीटने का विरोध करते हुए उसने कूटनीतिक जुमला उछाल दिया।
''कैसी बातें करते हैं आप?"  मैंने उसे झिड़क तो दिया पर उसकी इस बात पर मेरे भीतर क्रोध और उपेक्षा का एक अंश भी जागा। फिर भी स्थिति संभालते हुए मैंने कहा, ''मेरे सभी मित्रों का वे बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा आपके  मेरे साथ घर चलने पर। इतनी छोटी मानसिकता नहीं है उनकी। जरा रुकिए मैं उन्हें फोन कर देती हूं।"
''फिर भी मेरी इच्छा नहीं है तुम्हारे घर जाने की। मैं यहां बस तुमसे मिलने आया था, सो मिल लिया। अब मुझे लौटना है।मेरे बहुत आग्रह करने पर उसने टका सा जवाब दे दिया।
इतने लंबे इंतजार के बाद इतनी छोटी सी मुलाकात से मैं संतुष्ट नहीं थी। और चाहती थी कि हम ढेर सारी बातें करें।
 ''अजीब हैं आप भी, इतनी दूर से सिर्फ  एयरपोर्ट के दर्शन करने आए थे क्या, अच्छा छोड़ो घर नहीं जाते, कहीं बैठकर कॉफी पीते हैं। बहुत सुंदर शहर है हमारा, अगर देखने की इच्छा हो तो कॉफी के बाद घूमा जा सकता है।इस बात पर वह राजी हो गया।
''अरे मैं आपको एक चीज देना तो भूल ही गया, जरा एक मिनट रुकिए।"
कहते हुए अनुभव ने अपना ब्रीफकेस खोला और उसमें से रजनीगंधा के ढेर सारे फूल निकालकर मेरी दोनों हथेलियां भर दीं। 
असद इकबाल की आवाज, बच्चों की गुलाबी अंगुलियां, शाम की नारंगी छटा और पत्तियों पर ठहरी हरी ओस की बूंदों के अलावा यह वही चीज थी जो मुझे बहुत पसंद थी। रजनीगंधा के फूल।
फूलों की मादक गंध और छुअन मेरे भीतर उतरती चली गई। एक अलग मोहपाश में बंधी मैं और अनुभव, दोनों कैफेटेरिया की तरफ चल पड़े।
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बातें बहुत थीं। एक कप की बजाए हमने दो-दो कप कॉफी पी। कॉफी अनुभव की थकान उतार रही थी और मुझे इसी बहाने उसके हाव भाव पढऩे का मौका मिल रहा था। बची-खुची औपचारिकताएं भी अब लगभग समाप्त होने लगीं थीं।
''यूं तो यह मंदिरों का शहर है, पर आपका भी तो कोई आग्रह होगा। अच्छा बताओ कहां चला जाए, क्या देखना पसंद करेंगे?"  मैंने आगन्तुक की इच्छा का सम्मान करते हुए हॉस्पिटेलिटी दिखाने की कोशिश की। 
''परी, मेरा 'तुम्हारे' अलावा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। मैं तो यहां सिर्फ 'तुमसे' मिलने आया हूं, जो 'तुम्हें' पसंद हो वही दिखाओ...।तुम्हारे, तुमसे और तुम्हें शब्दों पर अतिरिक्त जोर देते हुए उसने कहा।
''मुझे शाम बहुत पसंद है, पर शाम में अभी देरी है। उसके अलावा.... उसके अलावा मुझे जल राशि बहुत पसंद है। (मैंने थोड़ा सोचते हुए जवाब दिया)
फिर चाहे वह कच्ची पक्की सीमाओं में बंधी तालाबों की नियंत्रित जल राशि हो या पहाड़ों से मुक्त होने को संघर्ष करती झरनों की अनियंत्रित जल राशि। नदियां तो मेरी आराध्य हैं।गंध और छूअन के मोहपाश और उसके आग्रह को ग्रहण करते हुए मैंने किसी सूत्रधार की तरह अपनी बात आगे बढ़ाई। 
''तब तो यहां की नदी से ही मिला जाए....वह मेरा रुख समझ चुका था।
मैंने गाड़ी स्टार्ट की और सर्कुलर रोड से होते हुए हम पीरखोह मंदिर के पास पहुंच गए। यहां पहुंचकर मैंने गाड़ी रोक दी। और एक रचनाकार की सौंदर्य दृष्टिï उसमें खोजने की कोशिश करते हुए सवाल किया।
''आपको नदी सिर्फ  देखनी है या उससे मिलना भी है..."
''मैं जीवन को समग्रता में जीना चाहता हूं, इस लिहाज से नदी से मिलना ही उचित रहेगा। देखना तो कभी भी हो सकता है।किसी दार्शनिक की तरह उसने भी जवाब दिया।
''तो फिर तैयार हो जाइए आगे का सफर पैदल ही तय करना पड़ेगा।"  गाड़ी से उतरते हुए मैंने उसे आगे की राह के लिए तैयार किया। 
कुछ रास्ता पक्की सड़क का था और आगे कच्ची पगडंडी शुरू हो चुकी थी। तवी से पत्थर ढोने वाले खच्चरों के पैरों के निशान से पगडंडी अलग पहचानी जा रही थी। यहां से होते हुए हम दोनों तवी के किनारे पहुंच गए।
मौसम बसंत का था पर तवी पर उदासी छाई हुई थी। उसे भी किसी का इंतजार था शायद.... किनारे उससे दूर होते जा रहे थे।
''परी... यही नदी है तुम्हारे पास?"   अब तक उसका मेरे लिए संबोधन 'आपसे बदलकर 'तुमहो चुका था। 
''क्यों.. क्या आपको यह अच्छी नहीं लगी। एक्चुअली बारिश नहीं हुई है न बहुत दिनों से....आपको नहीं पता, यह हमारे शहर की लाइफ लाइन है।मैंने हैरान और लगभग आहत होते हुए अपनी और नदी की स्थिति स्पष्ट  करनी चाही। परंतु वह पत्थरों से अटे उसे थोड़े से पानी को नदी मानने को तैयार नहीं था।  
''होगी, जरूर होगी, परंतु हे देवी, मेरी आत्मा नहीं मानती कि मैं इसे नदी कहूं..." उसने मजाक किया पर मुझे चुभ गया।
''नदियां सिर्फ देखने के लिए नहीं होतीं अनुभव, वे मानने के लिए भी होती हैं। एक ही नजर में तुम इसके होने और न होने का फैसला कैसे कर सकते हो। अभी तो तुम्हारी इससे पहली ही मुलाकात है...। 
मैं किसी परदेसी को यह अधिकार भी नहीं देती कि वह मेरी नदी का मजाक उड़ाए।"
''तुम नाराज क्यों हो रही हो, पर सच मानो अगर यह वाकई नदी है तो इसकी हालत बहुत दयनीय हो गई है। यह सूखने लगी है, इसे नए जीवन की जरूरत है। अगर लाइफ लाइन है तो कुछ सोचो इसके बारे में।"
''जानते हो अनुभव प्रीत और नदी कभी नहीं सूखते। ये तो बस कुछ एनवायरमेंटल इफैक्ट््स होते हैं जिससे वह सूखी हुई दिखने लगती है। घटाओं के पहाड़ों से टकराने भर की देर है, कि नदियां मदमस्त हो जाती हैं। मतवाली लहरें मिलन का वह संदेसा दूर-दूर तक पहुंचा आती हैं। तभी तो सारी सभ्यताएं नदियों के ही किनारे फली- फूलीं।मुझ पर दर्शन और आत्मीयता हावी होने लगी थी। 
''पर मुझे लगता है कि प्रीत में स्थायित्व भी होना चाहिए। तुम्हारे पास कोई ऐसी नदी नहीं है जो स्थायी हो... जो अब तक सूख न पाई हो, वो तुम्हारे बताए एनवायरमेंटल इफैक्ट्स के कारण।"
तुम्हारे पास सौंदर्य दृष्टिï तो है अनुभव पर आत्मिक अनुभूति नहीं है। मैंने उसकी अब तक की तमाम भावनात्मक रचनाओं को धता बताने की कोशिश की। सहसा मेरे भीतर के मेहमान नवाज ने मुझे रोक लिया। 
''खैर छोड़ो, चलो तो तुम्हें प्रेम के अमर प्रतीक के पास लिए चलते हैं। कितनी ही पीढिय़ां गुजर गईं, पर वह अब तक नहीं सूखी। लेकिन पहले कुछ खा लिया जाए। वहां पहुंचने में थोड़ी देर लगेगी।हम दोनों अभी एक दूसरे के साथ और समय बिताना चाहते थे। तवी और उस पर पसरी उदासी को पीछे छोड़ते हुए हम दोनों आगे बढ़ गए।
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हम दोनों ने पहले लंच किया और फिर हम अखनूर की तरफ निकल गए। दोनों तरफ पेड़ों से घिरा रास्ता अनुभव को भला लग रहा था। ठंडी शीतल बयार उसे सुखद अनुभूति का निमंत्रण दे रही थी।
''वाह.... इसे कहते हैं नदी..." दूर पुल पर से चिनाब की लहरें देखते ही वह अभिभूत हो गया।
''कौन सी नदी है ये"
''चिनाब... दरिया चिनाब...." मैंने पुरजोर गंभीरता, आत्मीयता और बड़प्पन से जवाब दिया। जैसे कोई अपनी सयानी हो रही बेटी की प्रशंसा सुनकर उसका नाम बताता है।
मेरे बाल बार-बार उड़कर मेरे गालों पर आ रहे थे। चिनाब की लहरें मेरे पास रखे रजनीगंधा की खुशबू और छूअन से जल्द से जल्द मिलने को आतुर हो रहीं थीं। मैंने उन्हें नजरों में भरकर गुनगुनाना शुरु किया,
''सोहनी चिनाब दे किनारे ते पुकारे तेरा नाम ... आजा... आजा...."
 मेरा गला बहुत अच्छा नहीं था पर फिर भी गुनगुनाते हुए इस सुंदर दृश्य में सुर की संगत बन पड़ी।
''क्यों है न खूबसूरत...."
''सचमुच बहुत खूबसूरत है। ऐसा दरिया सामने हो तो कौन न डूब जाए।"
''शुभ-शुभ बोलो, डूबने-वूबने की बातें न करो। इसकी इन्हीं आकर्षक लहरों में ही कहीं शोक भी डूबा है।मैंने पिछले दिनों हुई ट्रक और बस दुर्घटनाओं के बारे में बताते हुए उसे चिनाब से सावधान रहने की भी हिदायत दी। 
किनारे तक पहुंचते हुए शाम घिर आई थी। चिनाब की सुरमई लहरें शाम को आईना दिखा रहीं थीं। चिडिय़ों के कलरव ने मेरा साथ दिया और दृश्य अपने पूरे शबाब पर नव आगंतुक को रिझाने लगा। ऐसे माहौल में कविता से बेहतर और क्या हो सकता था-
शाम जरा तुम ऐसे ढलको
कि रातें $गज़ल हो जाएं
रोम रोम सब शीशमहल
और हम तुम अवध हो जाएं
लिख दूं होंठों पर कविताएं
मिलना तेरा नि:बंध हो जाए।
दुपट्टे को संभालते हुए, उड़ रहे बालों को कानों के पीछे करते हुए मैंने शायराना मूड में कहा।
''वाह... वाह.. वाह... वाह...तो शायरी भी कर लेती हैं आप।मेरी टूटी-फूटी पंक्तियों पर दाद देते हुए उसने एक काबिल श्रोता होने का फर्ज अदा किया।
''वाकई बहुत आकर्षक है"
''क्या", मैंने सकुचाने और इठलाने के मिश्रित भाव के साथ सवाल किया।
''दरिया भी और आपकी शायरी भी। नदी और प्रीत के तमाम तत्व हैं इन दोनों में, पढऩे के साथ-साथ लिखने का भी शौक है आपको।"
''अरे नहीं, यूं ही कहीं किसी किताब में पढ़ीं थीं।अपनी ही पंक्तियों को चुराया हुआ बताकर मैंने बचने की कोशिश की।
''वो भूरी दीवारों का खंडहर कैसा है... शाम और हमारी मुलाकात दोनों एक दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ रहे थे। 
''उसे अखनूर का किला कहते हैं। कहते हैं कि कभी राजा विराट की नगरी हुआ करती थी अखनूर। और अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने यहां शरण ली थी। यहीं पर तो अर्जुन उत्तरा को नृत्य सिखाया करते थे।"
''और अब कोई उत्तरा आती है यहां पर पायल की रुनझुन लिए..."
उसने फिर मुझे बहलाने की कोशिश की और मैंने हल्की मुस्कान के साथ बात टालने की।
हम फिर चिनाब की तरफ आ रहे थे।
''क्या हम इसके किनारों तक जा सकते हैं, बहुत विशाल लगती है ये"
''विशाल है और खतरनाक भी, जो इसमें डूबा आज तक नहीं मिला"
''पर कच्चे घड़े पर टिका विश्वास तो पक्का था।"
''इसलिए तो अमर हो गया।"
हम और हमारे सवाल-जवाब चलते हुए चिनाब के किनारे तक पहुंच गए। यह जिया पोत्ता घाट था।
''क्या यहीं सोहनी-महिवाल एक हुए थे?"
''नहीं वह हिस्सा अब पाकिस्तान में है। सरहदों ने सब कुछ बांट लिया, पर नदियां कहां बटेंगी।
चलो घाट पर कुछ देर बैठते हैं। शाम होने लगी थी, चिनाब के किनारे ठंडी हल्की बयार में हम दोनों ने ढेरों बातें कीं। रजनीगंधा के फूल इन बातों में महक घोल रहे थे।
''मैं तुम्हारे लिए अपनी किताब भी लेकर आया हूं। तुम इसे पढऩा, मुझे जानने में तुम्हें और मदद मिलेगी।"
''इतना ज्यादा जानकर भी क्या करना है",  मैंने अपने आप से ही सवाल किया। फिर संभलते हुए उसे वापस दृश्य में खींच लाई।
''जानते हो इस घाट का नाम जिया पोत्ता घाट है। यहीं महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू के महाराजा गुलाब सिंह का राजतिलक किया था। वह राजतिलक भी बड़ा अनूठा था।
महाराजा रणजीत सिंह ने महाराजा गुलाब सिंह के माथे पर नीचे से ऊपर की ओर नहीं, बल्कि ऊपर से नीचे की ओर तिलक किया था।"
''उल्टा तिलक, पर क्योंयह पूछते हुए उसकी आंखों में बच्चों जैसी उत्सुकता थी। मैंने उनमें गुलाबी अंगुलियां ढूंढनी चाहीं, पर उनमें चिनाब में डूबता नारंगी सूरज नजर आ रहा था।
डूबते सूरज को उसकी आंखों में देखकर मैंने जवाब दिया, ''इस तिलक के साथ ही उन्होंने महाराजा गुलाब सिंह को यह संदेश दिया कि तुम एक पहाड़ी राज्य के राजा हो। तुम्हारा साम्राज्य इतना विस्तार पाए कि वह पहाड़ से पाताल तक जाना जाए।"
''अरे वाह, इंटेलीजेंट महाराजा थे रणजीत सिंह"
''हां और महाराजा गुलाब सिंह ने यह कर दिखाया।"
''तब तो मेरा राजतिलक भी यहीं होना चाहिए.....कहते हुए अनुभव खिलखिला कर हंस पड़ा। उसकी हंसी लहरों की तरह अनुशासनहीन थी।
''छोड़ो राजतिलक, तुम्हें उससे क्या। तुम तो शब्दों के बाजीगर हो, उसी में कमाल दिखाना। वो अपनी किताब तो दो जरा"
''क्यों क्या अभी पढऩे का इरादा है, मैं बहुत बोर कर रहा हूं क्या?"
''दो ना..., तुम सवाल बहुत पूछते हो।"
''वह ब्रीफकेस में है, उसके लिए वापस गाड़ी तक जाना पड़ेगा।"
''तो जल्दी जाओ। ये लो चाबी, मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करती हूं।"
थोड़ी ही देर में अनुभव ने किताब लाकर मेरे हाथ में पकड़ा दी।
मैंने किताब को पहले माथे से छुआ, फिर उसके हाथों से और फिर घाट की कुछ और सीढिय़ां उतर कर उसे चिनाब में प्रवाहित कर दिया। 
''ये क्या किया परी?"  उसने अचम्भित दृष्टिï से मेरी ओर फिर उस बहती हुई किताब की तरफ देखा।
''तुम लेखक हों न, तख्तो ताज का क्या करोगे? मैं चाहती हूं कि तुम्हारी सृजनात्मकता दूर-दूर तक फैले। चिनाब की लहरों की तरह, देश और युगों की सीमाएं तोड़ती जाए।
इसलिए मैंने तुम्हारी रचनाएं चिनाब को समर्पित कर दीं हैं। अब इसकी लहरें जहां भी जाएंगी तुम्हारी रचनाओं की खुशबू वहां तक फैल जाएगी।"
295 पेज की वह सुनहरी किताब जलपाखी की तरह तैरती हुई दूर निकल गई।
''वाह.... कमाल हो परी, मुझे कभी ये आइडिया क्यों नहीं आया।" तैरता हुआ जलपाखी अपने साथ लेखकीय डेकोरम भी बहा ले गया। उसके हृदय का हल्कापन उसकी आंखों से बाहर आ गया और वह कुछ ही क्षणों में उसके पूरे चेहरे पर फैल गया।
''चलो हम दोनों भी इसमें कूद जाते हैं, फिर हम भी अमर हो जाएंगे।"
''दिमाग खराब है क्या तुम्हारा, अगर ये मजाक है तो दोबारा मत करना।मैं चिनाब की लहरों से जितना प्यार करती थी उनसे खौफजदा भी उतनी ही थी।
''मजाक नहीं, मैं सच कह रहा हूं।
मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं परी
और तुम सीमाओं में बंधी हो,
सच बताओ क्या तुम्हारा कभी मन नहीं करता कि एक बार मेरे गले लग जाओ ...."
अनुभव के इस सवाल के साथ ही आसपास के सभी दृश्य थम गए।
''.... चुप, फिर वही चुप..... कुछ तो जवाब दो।"
''मेरे पास कुछ नहीं है अनुभव तुम्हें देने के लिए।सात दरवाजों के भीतर से ये कुछ शब्द बाहर आ गिरे।
''देना.... देना.... देना.... जाने औरतों को क्या आदत होती है सिर्फ  देते रहने की, जैसे उन्हें तो कुछ लेना ही नहीं होता।"
''मतलब...? "  सवाल था या ताना, पर जो भी था मेरे दिल में नश्तर उतार गया।
''मतलब कुछ नहीं। जाओ कुछ नहीं चाहिए तुमसे। तुम बंटी हुई हो, अभी मुक्त नहीं हो पाओगी।"
''नहीं कुछ तो है, तुम कुछ तो कह रहे थे। बहुत आसान होता है तुम्हारे लिए कुछ भी कह लेना। पर मेरे लिए नहीं.... मैं सीमाएं नहीं लांघती अनुभव। तुम मेरी भावुकता का गलत अर्थ लगा रहे हो।"
''तुम मुझे नहीं समझ पाए, नदी को क्या समझोगे", कहते हुए चिनाब की लहरें मेरी आंखों से बहने लगीं।
हम दोनों के बीच खामोशी पसर गई।
तभी मोबाइल बजने लगा
....मोबाइल की रिंग टोन ने माहौल कुछ बदला। फिर भी मैं फोन सुनने की स्थिति में नहीं थी। पहले मैंने उसे काट देना चाहा पर फोन वैभव का था।
आंसुओं का खारापन अपनी आवाज से छिटकाते हुए मैंने सामान्य होने की कोशिश की और कॉल रिसीव की
''हां, हैलो"
''.... कहां हो सीमा, मां कह रही थी कि कोई तुमसे मिलने आया है , दोपहर तक लौट आओगी। अब शाम होने लगी है। कहां हो तुम?"
''हां, बस उन्हीं के साथ हूं, थोड़ी देर में पहुंचती हूं।"
''माली आया है, तुमने उससे रजनीगंधा का कोई पौधा मंगवाया था क्या?"
''हां मंगाया था, क्या ले आया...?"
''लाया तो है, पर कहां लगवाना है, लॉन में तो कोई जगह खाली है ही नहीं।"
''एक गमला है न खाली, वहीं रखा है, उसमें लगवा दीजिए। मैं बस थोड़ी देर में पहुंचती हूं।"
''गमले के लिए तो उसने पहले ही मना कर दिया.... कह रहा है गमले में नहीं हो पाएगा। इसे रख रखाव चाहिए। अगर लगाया भी तो फूल बहुत छोटे आएंगे।"
''कैसा माली है ये, क्या जिनके पास लॉन नहीं होता, वो फूलों का शौक नहीं रख सकते। उससे कहो, ले जाए वापस अपना रजनीगंधा, मुझे नहीं चाहिए।"
''उसे तो कह दूंगा, पर तुम कब आओगी। शाम हो गई है, मंदिर में जोत भी करनी है। मां नाराज हो रही है।"
''हां बस थोड़ी देर में पहुंच रही हूं।कहते हुए मैंने फोन काट दिया। 
''सॉरी, वो उनका फोन था।घर के लॉन से वापस चिनाब के किनारे पर लौटते हुए मैंने कहा।
''नो इट््स ओके।"
''अब मन ठीक है न आपका?"
''हां, बिल्कुल। पर सचमुच मेरे पास कुछ नहीं है तुम्हें देने के लिए।"
''अरे कहा न कुछ नहीं चाहिए तुमसे।"
''पर मुझे कुछ चाहिए तुमसे।" , कहते हुए मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी छुअन गुनगुनी थी। 
''कहो, क्या चाहिए।उसने सहलाते हुए सवाल किया।
''कुछ नहीं, बस तुम्हारी मित्रता चाहती हूं। मैं नहीं चाहती कि हमारा संबंध कोई कटु मोड़ लेकर खत्म हो। मैं चाहती हूं कि आप हमेशा मेरे मित्र बने रहें।"
मेरे हाथों को और मजबूती से पकड़ते हुए उसने लंबी सांस ली और कहा-
''जाओ किया वादा, अनुभव एक बार जिससे वादा करता है, जीवन भर उसकी कलाई नहीं छोड़ता।
तुम भले न आओ, पर जब भी मुश्किल में होगी मुझे अपने सामने खड़ा पाओगी।"
''अब तुम लौट जाओ अनुभव। मेरे पास तुम्हें देने के लिए ही नहीं, तुम्हारा दिया कुछ सहेजने की भी जगह नहीं है।"  कहते हुए मैंने रजनीगंधा के फूल वापस अनुभव के हाथों में थमा दिए।
''घर चलने को कहूंगी तो तुम मानोगे नहीं, यहां चिनाब के किनारे पर पास ही में एक फकीर की कुटिया है, तुम चाहो तो रात वहां गुजार सकते हो। सुबह तुम्हारे जाने का सब बंदोबस्त हो जाएगा। और कुछ दिन ठहरना चाहो तो... मना नहीं करेगा फकीर... लहरों की भाषा पढऩे में माहिर वह तुम्हारे मन को कुछ शांति देगा। अब मुझे इजाजत दो.... मुझे अपने मंदिर में जोत जगानी है। मेरा परिवार मेरा इंतजार कर रहा है।"
''जा रही हो परी? जाते-जाते मुझ पर एक अहसान करोगी?"  सब कुछ जानते हुए भी उसने सवालों का एक जोड़ा मेरी तरफ बढ़ा दिया।
''हां कहो न, मेरे वश में हुआ तो जरूर करूंगी।हारे हुए योद्धा की तरह मैंने फिर से अपने आप को संभालते हुए कहा
''ये फूल, ये खुशबू मैं तुम्हारे लिए लाया था, तुम्हारे बिना मेरे लिए इनका कोई अर्थ नहीं। इन्हें भी यहीं चिनाब में बहा दो, मैं मान लूंगा कि मेरा प्यार अमर हो गया। और यह मुलाकात भी।"
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मैंने इस मुलाकात की उसकी अंतिम इच्छा का पूरे हृदय से सम्मान किया। रजनीगंधा के फूल चिनाब में बहाकर मैं अपने घर लौट आई। घर आकर मंदिर में जोत जगाई। पीले दिन, पीली उदासी और आते हुए उसके चेहरे का पीलापन सब जोत में उतर आया। माता की लाल ओढऩी पर लगा पीला गोटा मुझे आज से पहले कभी इतना पीला नहीं लगा था। लगा कि ये मेरे जीवन की लालिमा ही निगल लेगा।
मैंने पीले पन को चुनौती देते हुए आरती की थाली में रखी रोली में अंगुली डुबोई। मां दुर्गा की मूर्ति के ममतामयी चेहरे को निहारते हुए उसके माथे पर रोली से लाल टीका लगाया। मुझे याद आया शून्य मस्तक से पूजा नहीं करनी चाहिए, आज मैं जल्दबाजी में बिंदी लगाना ही भूल गई थी। एक और अंगुली डुबोकर रोली से मैंने अपने माथे पर गोल बिंदी बनाई और बची हुई रोली को मांग में जगह दे दी।
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जीवन का चरखा अपनी उसी ताल से दिन रात कात रहा था। जकडऩ भरी आवाज से मैंने यथासंभव दूरी बना ली। कभी कभार अनुभव का फोन आता, पर दोनों ओर से औपचारिकता का अंश अधिक रहता। मित्रता का भाव दर्शाते हुए वह मेरे परिवार, मेरी दिनचर्या के बारे में भी एक आध सवाल पूछ लेता। और मैं भी उसी भाव से उनका एक आधा उत्तर दे देती। 
हमारी शादी को तीन साल हो चुके थे। आज उसी की पार्टी थी। कितने खुशनुमा थे ये तीन साल। वैभव ने कभी किसी चीज की कमी महसूस ही नहीं होने दी। फिर भी इन्हीं खुशनुमा दिनों की यादों में एक याद चिनाब के किनारे की शाम की भी थी। नारंगी सूरज के ढलने के बाद अनुभव के चेहरे पर उतरे पीलेपन की भी थी। उसी याद में एक अंश रजनीगंधा के फूलों का भी था। मेरे घर के लॉन में आज भी रजनीगंधा का कोई पौधा नहीं था। 
क्या माली ने सोच-समझकर कहा था, या उसके अनुभव ने उससे यह अनायास ही कहलवा दिया था, ''बड़ा रखरखाव चाहता है, गमले में पूरा नहीं खिल पाएगा यह फूल।और मेरे पास कोई खाली जगह नहीं थी। लॉन की तरफ निहारते हुए मैंने अपने आपसे कई सवाल किए और खुद ही खुद को असद इकबाल की तरह दिलासा दी। 
 मैं भी पता नहीं बैठे-बैठे क्या सोचती रहती हूं, खाली दिमाग शैतान का घर।
आज हमारी वेडिंग एनीवर्सिरी है और मैं आज भी न जाने क्या-क्या सोच रही हूंं।
शाम की पार्टी की तैयारी करते हैं।
तभी मोबाइल की घंटी बजने लगी, स्क्रीन पर अनुभव का नाम टिमटिमा रहा था।
''हैलो"
''जी नमस्कार।"
''नमस्कार, कैसी हैं आप?"
''अगर मैं गलत नहीं हूं तो शायद आज आपकी वेडिंग एनीवर्सिरी है?"  उसने शंका दूर करने की चेष्टïा से सवाल किया। पर उसे कैसे मालूम, मुझे संदेह हुआ। उससे बात करते हुए मैंने उसे न जाने क्या-क्या बता दिया था मुझे खुद याद नहीं था।
''जी नहीं आप बिल्कुल गलत नहीं हैं। आज ही हमारी वेडिंग एनीवर्सिरी है।"
''हमारी तरफ से आपको और वैभव जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। मैंने सोचा था कि आप दोनों के लिए कोई तोहफा खरीदूं, पर फिर लगा पता नहीं आप लेंगी भी या नहीं, हमारी दी हुई चीजों के लिए तो आपके पास जगह ही नहीं होती।इस बार उसके ताने में बच्चों जैसा खिलंदड़पन नहीं था। उसमें  मातमी गंभीरता थी। 
''नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, तोहफे की भला क्या जरूरत। दोस्तों की शुभकामनाएं ही बहुत होती हैं।
थैंक यू सो मच।कहते हुए मैंने फोन रख दिया। फोन तो रख दिया पर उसकी मातमी आवाज का ताना मेरी देह से चिपक गया। इससे छूटने का जब कोई जतन मुझे न सूझा तो मैंने बाथरूम में जाकर शावर लेना ही बेहतर समझा। शॉवर की नन्हीं बूंदें बेरोकटोक मुझ पर बरसने लगीं। मैं आंखें बंद किए उनमें डूब जाने की कोशिश कर रही थी। मेरी आंखों के सामने फिर जलपाखी की तरह लहरों पर सवार उसकी किताब तैरने लगी। मैंने चेहरे को झटकते हुए शावर बंद कर दिया और खुद को टावल से पोंछते हुए नाइटी पहन ली। नाइटी का सलेटी रंग मुझे बार-बार न जाने क्यों तवी के उदास पत्थरों की याद दिला रहा था।
मां ने कितनी बार टोका था मुझे इस तरह के रंग खरीदने पर। उनका मानना था कि खूबसूरत रंग पहनने से मन खिला खिला रहता है। और सौभाग्यवती स्त्रियों को इन उदास रंगों से दूर ही रहना चाहिए। 
सासू मां की सलाह याद आई और अब तक शाम भी हो चुकी थी। पार्टी के लिए तैयार होना था। मैंने अपना ध्यान वैभव की दी हुई खुशियों की तरफ लगाने की कोशिश की। याद आया उनका दिया तोहफा तो मैंने अब तक खोला ही नहीं। कितनी लापरवाह हो गई हूं मैं। सोचते हुए पैकेट खोला तो उसमें से एक खूबसूरत साड़ी निकली। साड़ी पर लगे सितारों की जगमगाहट मुझे वैभव के प्रेम में डुबाने-उतराने लगी।
मुझे और वैभव दोनों को ही सादगी बहुत पसंद थी, फिर भी मैं आज खूब मन लगाकर तैयार हुई।
घर के बाहर से वैभव ने गाड़ी का हॉर्न बजाना शुरू किया, मैं झट से पर्स उठाकर गेट से बाहर आ गई। और कार का दरवाजा खोलते हुए वैभव के साथ वाली अगली सीट पर बैठ गई।
वैभव ने नजर भरकर मुझे देखा, ''लुकिंग स्मार्ट..., नारंगी रंग वाकई तुम पर बहुत खिलता है।"
 दुर्घटना से बचने के लिए जैसे अचानक ब्रेक लगता है मेरी तंद्रा उसी वेग के साथ टूटी, ''क्या ये साड़ी नारंगी रंग की है?"  गाड़ी के शीशे में देखते हुए मैंने अपने आप से सवाल किया। वहां मुझे अनुभव की आंखों में डूबता हुआ नारंगी सूरज दिख रहा था।
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सूरज डूब चुका था। शहर के सबसे शानदार पार्टी लॉन में रखी थी वैभव ने मेरे लिए पार्टी।
तामझाम के हिसाब से बड़ी शानदार पार्टी कही जा सकती थी। किसी को भी बांध लेने के तमाम इंतजाम थे इस पार्टी में, पर मुझे यहां मौजूद हर रंग चिनाब की शाम की तरफ धकेल रहा था। और डूबता हुआ नारंगी सूरज तो मुझसे बिल्कुल लिपटा हुआ था।
सुनहरी रोशनी में हजारों हजार जलपाखी तैरते मालूम हो रहे थे। ये कौन सा चक्र था जो मेरे आसपास घिर आया था। मैं इससे बाहर क्यों नहीं हो पा रही थी? सोचते सोचते चिनाब के किनारे के उस फकीर के शब्द बार-बार मेरे मन के दरवाजे पर दस्तक देने लगे -
''सुन्ने दी पालकी इच तुस इन्ने दुआस की
चेते ते नेईं आवें करदे कन्ने दे ओ कोकलू"
मैंने पर्स से मोबाइल निकाला, अनुभव का नंबर डायल किया। लगातार रिंग जाती रही, पर उसने कॉल रिसीव नहीं की। फोन कट गया। 
मैंने नंबर री डायल किया, फिर वही रिंग जाने का लंबा सिलसिला, फिर किसी ने कॉल रिसीव नहीं की। फिर फोन कट गया। मैंने झुंझलाकर मोबाइल वापस पर्स में रख लिया।
मेरे भीतर के जल थल की हलचल से अनजान वैभव ने मेरा हाथ पकड़कर डांसिंग फ्लोर पर खींच लिया.... और हम खूब नाचे।
एक अजब बीमारी ने मुझे घेर लिया था। मेरे चारों तरफ सिर्फ  एक ही शख्स था, हर तरफ उसी की गंध और उसी के रंग थे। जिन्हें छू पाना मुश्किल था, और उनसे बच पाना और भी ज्यादा मुश्किल।
मेरी और वैभव की दुनिया में अनुभव ने ख्वामखाह डेरा डाल लिया था। जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन पर हो।
रसोई में जाकर कुछ बनाने लगती तो उसका दो अंगुलियां चाटते हुए चटखारे लेना याद आ जाता। फिर वही बनाती जो उसे पसंद था। आटा गूथते हुए उसकी हथेलियों की गुनगुनी पकड़ याद आ जाती।
वैभव के लिए खाना परोसती तो अनुभव का चेहरा सामने आ जाता।
'पता नहीं उसने अब तक कुछ खाया भी होगा या नहीं।'
खाली वक्त मिलते ही अनुभव की लिखी किताबें पढऩा शुरू कर देती। उसकी किताबों के सब चरित्र मुझे अपने से जान पड़ते, किसी का प्रेम मुझ जैसा लगता, किसी का अहंकार। किसी के भाव मुझ जैसे लगते तो किसी का अंदाज। कई बार तो उन्हीं की तरह मैं व्यवहार भी करती।
शाम को लैपटॉप पर उसकी साइट देखती, फेसबुक पर उसका चेहरा देखकर उसके फेन्स की लिस्ट और कमेंट पढ़ती।
अजब सतरंगी दुनिया थी, खुद की बुनी गुनी। 
आज भी पूरी शाम मैंने अनुभव को खूब याद किया। इतना कि मुझे पता ही नहीं चला कि रात कब हो गई। सातवीं बार उसका उपन्यास पढऩे की कोशिश कर रही थी। तब जबकि मुझे याद हो चुका था कि कब, कौन सा पात्र क्या कहेगा और क्या करेगा। पात्र जब किताबों से निकल कर मेरे दिमाग पर चढ़ बैठते तो मैं क्षितिज में निहारने लगती और घंटो निहारती ही रहती....
''अरे आप आ गए...वैभव ने मेरे कंधे को हिलाते हुए मेरा ध्यान भंग करने की कोशिश की तो मैंने चौंकते हुए कहा। 
वैभव के घर पहुंचने पर मैं हैरान रह गई और मुझे अंदाजा हुआ कि मैं कितनी देरे से यूं ही अनुभव की किताब हाथ में लिए बैठी हूं। शाम की चाय भी ठंडी होकर पानी हो चुकी थी।
''पानीमुझे याद आया घर लौटते ही वैभव सबसे पहले नींबू पानी पीते हैं। मैं झट से रसोई में वैभव के लिए नींबू पानी बनाने चली गई।
'समय का चरखा आजकल दिन कातता नहीं था, चबा रहा था। पता ही नहीं चलता था कि कब दिन ढला और कब रात हो गई।'  काम खत्म करने के बाद बैडरूम में आते हुए मैंने महसूस किया।
जाने क्यों आज अनुभव बड़ी शिद्दत से मुझे याद आ रहा था।
मैं बार-बार मोबाइल देखती, इस लालसा के साथ कि वह फोन करेगा और पूछेगा 'कैसी हो परी...इधर चिनाब वाली शाम के बाद से उसने मुझे एक बार भी 'परी' नहीं कहा था। जाने क्या समझा दिया चिनाब किनारे के फकीर ने उसे। 
बत्ती बुझाकर मैं तकिया खींचते हुए वैभव की बगल में लेट गई। आंखे बंद की तो रजनीगंधा के फूल चांद की तरह टिमटिमाने लगे। आंखें खोली तो कमरे में वहीं घुप्प अंधेरा ठहरा हुआ था। मैंने फिर आंखें मूंद ली। रजनीगंधा के फूल फिर खिलखिलाने लगे।
वैभव ने प्यार से मेरा गाल सहलाया, मुझे उनमें वही गुनगुनी छुअन महसूस हुई जो अनुभव का हाथ पकडऩे के बाद से अकसर आटा गूंथते वक्त महसूस हुआ करती थी। मैंने फिर आंखें खोलीं, अंधेरे में वैभव की आंखें चमक रहीं थीं। मैंने फिर आंखें मूंद लीं। अब उनमें डूबता हुआ नारंगी सूरज दिखाई दे रहा था।
वैभव की दोनों बाहें मुझे चिनाब के किनारे सी लग रही थीं, जिनके बीच मैं रजनीगंधा के फूलों की तरह बही जा रही थी, साथ में थी अनुभव से मुलाकात की गंध, उस गंध का प्रेम और उस प्रेम का रस। 
उसके चारों तरफ अनुभव के अलावा और कुछ नहीं था, न वैभव, न अंधेरा, न कोई इनकार।
''क्या तुम्हारा कभी मन नहीं करता कि एक बार मेरे गले लग जाओ।सात तालों में बंद, सात रंगों की सात तहों में, सात सूतों में उलझा वह एक सवाल हौले से मेरी देह में सिहरन पैदा कर गया।
वैभव को अपनी बाहों में जकड़ते हुए मैं भरपूर वेग के साथ अनुभव के गले लग गई।
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इसी सतरंगी दुनिया में एक रंग मेरे भीतर भी पनपने लगा था। यह किसलयों पर ठहरी ओस की बूंदों की तरह हरा हो सकता था, इसकी हलचल मैं महसूस कर रही थी।
कुछ ही महीनों में मेरे शरीर के भीतर ही भीतर उभरता उसका आकार वैभव, मां और मिलने-जुलने वाले और लोग भी महसूस करने लगे थे। सब खुश थे, हमें शुभकामनाएं दे रहे थे पर मेरा मन अशांत था। चिनाब की लहरें मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहीं थीं। अकसर रात में वो मुझे अपने साथ उसी शाम की सैर पर ले जातीं, जहां मैंने रजनीगंधा के फूल और वह सुनहरा जलपाखी प्रवाहित किया था। 
सब कुछ कहां बह पाया था उस शाम, मेरे बहुत सारे रंग अब भी वहीं ठहरे थे। उन्हीं रंगों से मिलने मैं भी अकसर रात में चिनाब की लहरों के बुलावे पर उठ खड़ी होती थी।
वैभव को यह बीमारी लग रही थी। मां को कोई 'शाय बला'। मां ने मेरे बिस्तर में 'सैंती सरिये' के सुनहरे दाने बिखरे दिये। कलाई में दानों की पोटली बनाकर बांध दी। इनका रंग भी जलपाखी की तरह सुनहरा था, मुझे ये भले लगने लगे।
खाने-पीने और खुद से ज्यादा मुझे इन सुनहरी दानों के साथ रहना अच्छा लगता था। इस पर मां और विचलित हो गई। मेरे लिए भी और मेरे भीतर बढ़ते उस नन्हें बीज के लिए भी।
वैभव मुझे खाना खिलाने की कोशिश करते। पर मैं बहुत कोशिश करने पर भी दो अंगुलियों को चाटते हुए चटखारे नहीं लगा पाती। मेरे निवालों से स्वाद भी गायब होने लगा था। मुझे खाने से विरक्ति हो गई। 
वैभव मुझे डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने मुझसे बहुत देर तक बात करने की कोशिश की। पर मेरे सुनहरे जल पाखी बिस्तर में रह गए थे, मैं नाराज थी, मैंने डॉक्टर से कोई बात नहीं की।
वैभव ने डाक्टर को बताया कि मुझे पढऩे और थोड़ा बहुत लिखने का शौक है। डॉक्टर ने मुझे पांच-छह अलग-अलग तस्वीरें दी और उन पर कुछ लिखने को कहा।
इनमें से एक मां का आंचल पकड़ते किशोर की थी
दूसरी खिड़की पर कोहनी टिकाए बैठी औरत की
तीसरी चार बच्चों की
चौथी,
पांचवी
और छठी।
पर वे सारी तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाईट थीं। उनमें कोई रंग नहीं था, न सुनहरा, न हरा, न नारंगी, न गुलाबी। मैं क्या लिखती। मैंने कुछ नहीं लिखा। एक शब्द भी नहीं। मैंने तस्वीरें वापस टेबल पर फेंक दीं। 
डाक्टर को सूत्र मिल गया। उसने मुझमें डिप्रेशन खोज निकाला और उससे बचने और लडऩे के लिए ढेर सारी गोलियां दे दीं। 
इनमें एक गोली नारंगी रंग की भी थी, बिल्कुल उन आंखों में डूबते सूरज जैसी। सैंती सरिये के दानों के साथ मैंने नारंगी रंग की गोलियों को भी अपना दोस्त बना लिया। अब वे भी मेरी सतरंगी दुनिया में शामिल थी। नारंगी गोलियों की एक खासियत और थी। इन्हें खाने के बाद मुझे झट से नींद आ जाती और मेरी सतरंगी दुनिया मेरे सामने अपने सारे रंग उडेल कर सज जाती।
मेरी दुनिया में लहरों की हलचल अब ज्यादा बढऩे लगी थी। ये कभी चिनाब की लहरों जैसी लगती तो कभी नन्हीं टांगों जैसी। मेरे भीतर कुछ बड़ा 'भला साचल रहा था। मैं उसे लेकर दिन-दिन भर सोयी रहती। 
एक रात चिनाब की लहरों में से एक मगरमच्छ अपने अगले पैरों को जल्दी-जल्दी चलाता हुआ निकला उसके पिछले सभी पैर आगे वाले पैरों की संगत कर रहे थे। सभी पैरों ने मिलकर मगरमच्छ को मेरी तरफ धकेल दिया और मगरमच्छ ने अपना पूरा जबड़ा खोलकर मेरी दोनों हथेलियों को अपनी ओर खींच लिया।
मैं चीख रही थी, चिल्ला रही थी, मगरमच्छ का जबड़ा मुझे छोडऩे को तैयार नहीं था। 
''जय बावे दी....
जय बावे दी....
जय बावे दी....
जय बावे दी....मां और वैभव मेरी दोनों हथेलियों को अपनी हथेलियों से रगड़ते हुए पुकार रहे थे। मैं इस डरावने स्वप्न पर तेजी से चीख पड़ी थी। मां का 'शाय बलावाला शक अब यकीन में बदलने लगा था, वे बावा जित्तो से प्रार्थना कर रहीं थीं, कि वे मुझे इस बला से मुक्ति दिलाएं।
मां भी चाहती थी कि मुझे मुक्ति मिले
अनुभव भी चाहता था कि मुझे मुक्ति मिले
फिर मैं क्यों नहीं चाह पा रही थी कि मुझे मुक्ति मिले
क्या ये जरूरी हो गया था कि अब मुझे मुक्ति मिले?
''कल झिड़ी का मेला है, बावे के मत्था टिकाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा।एक ही जुमले में मां ने वैभव को सलाह और निर्देश दोनों दे दिया। अब तक दृश्य बदल चुका था। मुझे निगलने वाला मगरमच्छ दृश्य से बाहर हो चुका था। मां, वैभव और उनकी प्रार्थनाएं दृश्य में शामिल हो चुकी थीं। मां ने सैंती सरेये की धुनी जगाकर मेरे बिस्तर के चारों तरफ घुमाई। नारियल के तेल से मेरे सिर की मालिश की। और मैं सो गई।
अगली सुबह हम सब झिड़ी के लिए निकल पड़े। झिड़ी में लगने वाला कार्तिक पूर्णिमा का यह मेला हर बार की तरह विशाल और शानदार था। 
अलग-अलग जगहों से आए हजारों-लाखों लोग साढ़े चार सौ साल पुरानी पीड़ा का प्रायश्चित कर रहे थे। 'बावे के तालाबपर नहा रहे लोगों ने अपने चेहरे और अपनी देह पर तालाब की काली मिट्टी पोत रखी थी। कुछ लोग लोहे की 'सुंगलों'  से अपने आप को पीट रहे थे। उन्हें दुख था कि उनके पूर्वजों ने बावा जित्तो की मेहनत और लहु में डूबी कनक क्यों खाई। सदियां गुजर गईं थीं पर ये दुख, ये पीड़ा, ये प्रायश्चित कम होने की बजाए बढ़ता ही जा रहा था। हर बार प्रायश्चित करने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। नहाने के बाद वे बावा जित्तो और 'बुआ कौड़ीके मंदिर में जाते, नाक रगड़ते और उनसे माफी मांगते। 
वैभव और मां मुझे भी मंदिर में ले गए। मेरे हाथ में मंदिर में चढ़ाने के लिए प्रसाद और 'बुआ कौड़ीके लिए खरीदी गई प्लास्टिक की गुलाबी गुडिय़ा और लाल ओढऩी थी। 
मेरे हाथ जैसी ही ढेरों गुडिय़ां और ओढ़नियां 'बुआ कौड़ीके कदमों में पड़ीं थीं। और 'बुआ कौड़ी' अपने पिता बावा जित्तो की अंगुली थामे खड़ी थी।
मैं 'बुआ कौड़ीकी तरफ एकटक देख रही थी, ''कितना शौक होगा न उसे गुडिय़ों से खेलने का। आठ साल की उम्र तो होती ही है गुडिय़ों से खेलने की। पर कोई भी कौड़ी तभी तक गुडिय़ों से खेल सकती है जब तक उसके सर पर मां-बाप का सुरक्षित छत्र रहे। बिन मां की बच्ची ने अपने पिता की रसोई संभाल ली। आठ साल की बच्ची के हाथों से बनने वाली छोटी-छोटी रोटियां कैसी होती होंगी।मेरी आंखों के सामने उन रोटियों का आकार और उन्हें पकाने वाले नन्हें हाथों के लिए दुलार उमडऩे लगा।
वो रोटियां भी कहां खिला पायी थी अपने पिता को। मेरी आंखों के सामने अब वह दृश्य आने लगा जब  वह अबोध बच्ची अपने पिता की चिता में कूद गई होगी, जमींदार के अन्याय के विरुद्ध। मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। प्लास्टिक की गुलाबी गुडिय़ा मुझे 'बुआ कौड़ीलगने लगी। मैंने उसे कसकर अपने सीने से लगा लिया, मैं उसे उसके हिस्से का दुलार देना चाहती थी। पर लेने के लिए वह अब बची कहां थी....  मैं खूब रोयी। वैभव ने और मां ने मुझे पकड़कर ड््योढ़ी पर बिठा दिया। मैं सुबकती रही, मैं माफी मांगना चाहती थी उस नन्हीं बच्ची से जिसका बचपन लालच और अन्याय ने छीन लिया था। न जानें और कितनी ही कौड़ी ऐसी होंगी जिन्हें उनका बचपन नसीब ही नहीं होता, क्या सभी को जान पाते हैं हम....
मैं रो रही थी,
रोये जा रही थी।
मेरा दुख, मेरी पीड़ा,
अपनी कौम के लिए मेरा प्रायश्चित कम ही नहीं हो रहा था।
मैं रोते-रोते बेसुध हो गई।
कौड़ी की गुलाबी गुडिय़ा मेरे पास ही रह गई। 
मुझे जब होश आया मैं हॉस्पिटल में थी। मेरे आसपास खड़े डाक्टरों और नर्सों को देखकर लग रहा था कि मेरी हालत ज्यादा खराब है। बच्चा बेहद कमजोर था, पर उसने अपनी जगह छोड़ दी थी। मुझे दर्द भी नहीं हो रहे थे। पर बच्चे को जन्म देना जरूरी था। मेरी कोख में अब उसे संभालने की ताकत नहीं रह गई थी। डॉक्टर्स ने ड्रिप लगाई और मुझे 'आर्टिफिशियल पेनदेने की कोशिश की गई। शुरू के दो-तीन घंटे मैं यूं ही बेसुध क्षितिज में निहारती रही, मेरे आसपास के दृश्य मुझ पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहे थे। 
....आधी रात होते-होते दवाइयां अपना काम कर गईं और मुझे दर्द शुरू हो गए। ये सातवां महीना था इसलिए मां और वैभव अब भी घबराए हुए थे। सुबह के साढ़े चार बजे के बाद मैंने एक बहुत कमजोर पर खूबसूरत बच्ची को जन्म दिया। बच्ची इतनी कमजोर थी कि उसे कपड़े में लपेटने के लिए रूई की परतों का सहारा लेना पड़ा। मेरी हालत अब भी ठीक नहीं थी।
डाक्टर और नर्सों की आंखें बता रहीं थी कि वे भी चाहते हैं कि मुझे मुक्ति मिले। 
मेरी गुलाबी गुडिय़ा नर्स की गोद में थी, वह उसे कपड़े में लपेट कर मेरे पास ले आई। मैंने उसे ध्यान से देखा, उसकी अंगुलियां बिल्कुल गुलाबी थी। उसकी देह से रजनीगंधा के फूलों की खुशबू आ रही थी और उसकी छोटी-छोटी सी आंखों में डूबता हुआ नारंगी सूरज भी मौजूद था। मेरे सब रंग मेरे पास थे। मैंने नजर उठाकर देखा अनुभव मेरे सामने था, वैभव और मां दृश्य से गायब हो चुके थे। मैंने हाथ बढ़ाया, अनुभव ने अपनी गुनगुनी हथेली मेरे हाथ में दे दी, मैं उसे गुलाबी गुडिय़ा के माथे तक ले आई। उसने उसका माथा सहलाया और मुझे मुक्ति मिल गई।  
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