विश्व ब्लॉगर दिवस पर आज प्रस्तुत है मेरी एक कहानी......
"गामे की माँ,
कुछ सुना तूने, पाई
बीमार है बड़ा....."
ईश्वरी देवी ने अपने सिर की
सफ़ेद चुन्नी संभालते हुए, घुटनों पर हाथ रख, मंजी पर बैठते हुए ऐलान किया तो मंजी पर बैठी गामे
की माँ चौंक गई!
"क्या कह रहे हो भेन जी....पाई बीमार है? की होया
पाई नूं?" गामे की
माँ ने जरा परे सरकते हुए ईश्वरी देवी के बैठने के लिए जगह बनाते हुए कहा!
वहीं समीप ही एक कोने में
पीढ़ा डालकर बैठी, सूरज को पीठ दिखा धूप सेंकते हुए माला
फेरती सोनबाई ने भी पीढा आगे सरकाकर वार्तालाप में अपनी रूचि दर्शायी! गामे की माँ
के अनवरत चलते हाथ ठिठक से गए और कब से युद्धरत ऊन-सलाइयों ने मानो राहत की साँस
ली! सामने के दरवाजे पर खड़ी
सूखे तौलिये समेटती विमला देवी और अचार की बरनी संभालती भागवंती भी आकर यही सवाल
पूछने लगीं तो ईश्वरी देवी ने सस्पेंस से पर्दा उठाया!
“रात मेरे
पुत्तर जीते को बताया किसी ने! जीते का वहां आना जाना है
बस्ती में। बीमार तो पहले से चल रहा था, अब उमर
भी हो गई, गामे की
माँ! हम सब आगे पीछे के हैं! ज्यादा दिन नहीं हैं, बस जी, चलाचली का टैम समझो!"
अपने ठंड से जमे घुटनों को सहलाते हुए, गहरी
सांस भरकर वे बोलीं "क्या
कहते हो, पता कर
आयें एक बार! फिर रब जाने मिलना हो के ना हो!"
जाड़ों की इस उनींदी सुबह के
बीतने पर गली के एक कोने में धूप सेंकती वृद्धाओं के इस समूह के लिए पाई की अहमियत
गली के एक मामूली चने-मुरमुरे बेचने वाले वेंडर से कहीं अधिक थी! नई पीढ़ी शायद इस
चिंता में इस तरह शामिल न हो पाती पर उन सभी
वृद्धाओं ने उदास मन से गामे की माँ की बात पर सहमति की मुहर लगा दी!
जीवन के इस संध्याकाल में
घुटनों और जोड़ों के दर्द से व्यथित, अशक्त
झुकते शरीर, कमजोर
चश्मा लगी या मोतियाबिंद से धुंधलाई आँखों, झुर्रियों से भरे चेहरों और
सन से सफ़ेद बालों वाली इस पीढ़ी की मेहनतकश जवानी का सूरज तो कब का डूब चुका था और 'चलाचली की बेला' शब्द उनके बीच इस गहराई से
पैठ बना चुका था कि अब किसी की बीमारी की खबर उन्हें अलविदा की आहट के समकक्ष
सुनाई पड़ती! 'बिछड़े
सभी बारी-बारी' की तर्ज
पर पुराने साथी साथ एक-एककर साथ छोड़ रहे थे और अपने पीछे छोड़ जाया करते थे यादों
का अनमोल, न चुकने वाला खज़ाना! उन्हें लग रहा था, उसी कड़ी
में शायद पाई की बारी आ गई थी! उम्र के उस धरातल पर साथ
खड़े हुए उन्होंने बीते वक़्त को वहीं कहीं साथ
खड़े पाया!
हिंदी का भाई शब्द जब
पंजाबियत की सौंधी मिटटी से जन्मता है तो 'भ' का
उच्चारण बदल कर 'प' के निकट हो जाता है! पाई का
असली नाम शायद ही किसी ने सुना हो पर पुराने लोग बताते हैं कि माँ-बाप का दिया नाम
कुंदन सिंह था जो अब बड़े-बूढों-बच्चों सभी के लिए 'पाई' बनकर रह गया था! उम्र ने साढ़े छह दशक देखें
होंगे! छोटा-सा कद, इकहरा
शरीर, झुकी कमर
और गहरे रंग के चेहरे पर किसी पहलवान सी बड़ी-बड़ी मेहँदी से रंगी मूंछे, उसकी
शख्सियत से बिल्कुल मेल नहीं खाती थीं!
सिर पर बचे बालों के विषय में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता क्योंकि सिर
हमेशा एक हल्की-सी पगड़ी से ढका रहता था! वह गोल घेरे वाली पंजाबी बुशर्ट पहने रहता, जिसकी
बाजुएँ हमेशा मुड़ी रहती और जिसके दोनों तरफ कमर पर दो तथा दाई तरफ सीने पर एक जेब
जरूर हुआ करती थी! नीचे के हिस्से में चैक के प्रिंट का एक पंजाबी तहमद (लुंगी) और
पांव में आगे से मुड़ी पंजाबी जूतियाँ तो अपना रंग खोने से पहले शायद कभी काली रही
होंगी, पाई की खास पहचान थी!
ठीक चार बजे जब वह श्रवण
कुमार की तरह अपने कंधे पर बहंगी ले गली के कोने से आवाज़ लगाता दाखिल होता तो माएं
आराम कर रहे बच्चों को जगा, शाम की
चाय की तैयारी में लग जाती! ट्यूशन जाने वाले बच्चे
अपना बैग सहेजते और बड़े-बुजुर्ग चाय के बाद झोला ले सब्जी-मंडी या ताश पीटने पार्क
जाने की सोचने लगते! हमारे घर के निकट चौराहे के एक किनारे पाई की यह छोटी-सी
दुकान जमने से पहले ही छोटे बच्चे घरों से निकल कर उस दिशा में भागते जहाँ पाई
अपनी बहंगी में जमी दो बड़ी टोकरियों में सामान ठीक कर रहा होता! बड़े-बड़े
लिफाफों और डिब्बों में चना, मुरमुरा, मूंगफली, मीठी खील, चना जोरगरम, दालसेव, दालमोठ, आलू के चटपटे चिप्स, शक्करपारे, गुड़ के सेव, गुड़गट्टा, गुड-पट्टी, तिलपट्टी और भी न जाने
क्या-क्या भरा होता जो हम बच्चों के लिए कारूं के खजाने से कम नहीं था!
"पाई मुझे चवन्नी के चने चाहिए। नहीं....मीठी
खील.... अ-अ-नहीं-नहीं दोनों मिला दो।"
बच्चों की भीड़ बार-बार
फरमाइश बदलती, किसी एक पर राजी न हो पाती पर घनी मूछों के पीछे की स्नेहिल मुस्कान
को किसी ने कभी खीज में नहीं बदलते देखा था! बच्चे दस्सी, बीसी, चवन्नी से भरे हाथ आगे करते
और मनचाही चीज पा ख़ुशी से झूम उठते! उस भीड़
में पाई की अनुभवी निगाहें उन उदास निगाहों और झिझकते हाथों को जाने कैसे ढूंढ
लेतीं जिन्हें आज कोई सिक्का नहीं मिला था और जो डांटकर या कल के वायदे पर
फुसलाकार माओं द्वारा टरका दिए होते! सिक्के
वाले बच्चों के ऐन पीछे की कतार में खड़े ऐसे बच्चों की मुस्कान लौटा लाने को पाई
के पास 'झुंगा' यानि खट्टा-मीठा गीला चूरन
होता था! वह नन्ही-नन्ही उन हथेलियों पर एक डिब्बे से
खींचकर थोड़ा-सा 'झुंगा' या कोई अन्य चीज रख देता! मुफ्त
में मिला ये तोहफानुमा झुंगा पाई का बच्चों के लिए प्यार होता जो सिक्के से भरी और
खाली हथेलियों को एकाकार कर देता! फिर देर
तक हवा में बच्चों और पाई की हंसी और ठहाके गूंजते! उस हंसी के अतिरिक्त उसकी आवाज़ बहुत कम सुनाई
पड़ती, हाँ पाई की आँखों की चमक बच्चों के खिलते चेहरों के साथ गहरी होती
जाती!
पाई के इर्द-गिर्द जुटने
वाली इस भीड़ में दूसरे राउंड में बड़े भी शामिल होते पर पाई का सारा ध्यान उन नन्ही
मुस्कानों, उनके नखरों और फरमाइशों पर लगा रहता। वर्षों पहले कभी उस भीड़ में
हमारे पिता-चाचाओं-बुआओं का चेहरा हुआ करता था जो धीरे-धीरे समय के साथ हमारे
चेहरों में बदल गया था! फिर पाई के चने-मुरमुरे
खाते और झुंगा चाटते हमारी पीढ़ी की नन्हीं
हथेलियां कब चौड़े पंजे में बदलने लगी और झुंगे के लिये फैलने में शर्माने लगी, ये न वक़्त जान पाया न खुद
हम।
नब्बे का दशक शुरू हो गया
था। वक़्त तेज़ी से बदल रहा था। हर साल
एक कैलेंडर रद्दी हो जाता और नया दीवार पर टँग जाया करता। हमारी
पीढ़ी की एक पूरी पंक्ति बदल रही थी। हमारी
माएं हम लड़कियों को ताड़-सा बढ़ता देख बड़बड़ाती हुई दहेज जुटाने और पिताओं से तकाज़े
करने में व्यस्त हो चली थीं और पिता बेपरवाह दिखने का अभिनय करते चिंतातुर
हो एकांत में अक्सर अपनी जमापूंजी टटोलने लगते थे। पर हमारी पीढ़ी की ऑंखें भविष्य
के सुनहरे सपनों से रोशन थीं। माएं रसोईघर की ओर इशारा कर
हमें अन्नपूर्णा बनाना चाहती लेकिन छज्जों पर किताबें ले खड़ी रहनेवाली लड़कियां अब
कॉलेज के बाद नए खुले इंस्टीट्यूटो में भविष्य से लड़ने के साधन डिप्लोमाओं की शक्ल
में जुटाने लगीं थीं और उन्हें गली में कनखियों से निहारते निकम्मे घूमते लड़के टाई
लगाकर किसी फ़ाइल को सीने से लगाये, अक्सर किसी बड़ी कम्पनी के किसी कक्ष में चल रहे इंटरव्यू की लाइन में
प्रतीक्षा करते पाए जाते। बचपन हमारे हाथ से रेत की मानिंद फिसल रहा था और इस
आपाधापी में हमारी घड़ियां चार बजने का अर्थ बदल चुकी थीं। हम भूलने
से लगे थे
पाई के लिफाफों में छिपी लज़्ज़त का स्वाद और अंकल चिप्स, क्रेकजैक के बिस्कुट, मैगी ने हमारे जीवन में जब
चुपके से घुसपैठ की, तो हम वक़्त के साथ अपने जायके के बदलाव को पहचान
ही नहीं पाए!
पहले से झुकी पाई की कमर अब
एक सौ बीस से नब्बे डिग्री की ओर झुकने लगी थी और बीडी-तम्बाखू के सेवन का असर
अक्सर खांसी और उखड़ती सांसों के रूप में सामने आने लगा था! बढ़ती
उम्र के आगे विवश पाई की गैरहाजिरी बढती चली गई और धीरे-धीरे गली भी भूलने की आदत
डालने लगी कि चार बजने और चाय पीने के समय का पर्याय पाई कब से गली में नहीं आया
था! नई नन्ही पीढ़ी ने जब कदम बढ़ाना शुरू किया तो वह
टॉफी, चोकलेट
और कुकीज की दीवानी हो चली थी और हमारी पीढ़ी द्वारा ये मान लिया गया कि अब बढती
उम्र की ओर अग्रसर सदाबहार पाई उस बूढ़े वृक्ष की तरह हो गया है जिसके सूख जाने पर
लोग भूल जाते हैं कि उसकी छायादार उपस्थिति और फल कभी जीवन का अहम हिस्सा हुआ करते
थे!
अलबत्ता साँझ के उसी मुहाने
पर खड़ी वे अनुभवी आँखें अब भी कभी-कभी शाम को चौराहे के निकट उस खाली जगह को
निहारकर ठंडी सांस ले, धीमी, थकी आवाज़ में ज़माने की
रफ्तार की बात कर उदास हो जाया करती जिन्होंने विभाजन की विभीषिका से गुजरकर इस
मोहल्ले को दशकों पहले गुलज़ार किया था! पाई ने जिनके साथ चने-मुरमुरे ही नहीं सुख
के जश्न और दुःख का मातम भी बांटा था। विशेषकर ईश्वरी देवी और गामे की माँ अक्सर उन
दिनों की स्मृतियों में डूब जाती जब उनका और बगल के गाँव से पाई का परिवार उजड़कर
पाकिस्तान से यहां आन बसा था।
बंटवारे के दर्दनाक
विस्थापन ने उन लोगों के बीच एक सहज अपनापा-सा कायम कर दिया था, जो तमाम वर्ग-विभेद से परे
अपनी जगह ताजिंदगी कायम रहा। वे उजड़कर यहां बस तो गए थे पर उनकी जड़ों का एक अदृश्य
सिरा आज भी वहीं कहीं अटका था जहां की मिट्टी में उन्होंने पहली सांस ली थी, जहाँ
पहली बार लड़खड़ाते कदमों को साध चलना सीखा था। उम्र की साँझ में मन रह-रहकर
स्मृतियों की ओर लौटता और अब जब साँसों की ये डोर कमजोर और पुरानी हो चली थी, उन्हें लगता था वे सब एक
डाल पर लगे सूखे, जर्द
पत्तों की तरह हैं जिन्हें काल की आंधी में समय पूरा होने पर, एक-एक कर बेआवाज़, टूट कर गिर जाना है। कल
उनके बुजुर्ग गये, कुछ के पति-पत्नी बिछड़े, तो कुछ के संगी-साथी-साथिनें छोडकर
अनंत-यात्रा पर निकल गये, और आज शायद पाई और आने वाले
किसी कल को उनकी भी बारी है।
फिर अगले दिन सुबह
चाय-नाश्ता कर वे सब पैदल ही निकल पड़ीं अपने उस बीमार साथी से मिलने, कुछ दूर पर बसी एक स्लम
बस्ती की ओर, जहाँ
बीते दिनों की यादों के साये में वह अपनी शाम के डूबने की प्रतीक्षा में दिन काट
रहा था। इस अप्रत्याशित मुलाकात में फिर समय के वरक पलटे गए, मन लौट चला स्मृति के
गलियारों में, जहाँ वे साथ दौड़े, भागे, उजड़े, बसे और फिर धीरे-धीरे बदल
गए पीले पत्तों में। आभार की मुद्रा में दोनों हाथ जोड़े, पाई की
जर्द भीगी आँखों ने अबोले ही विदा के शब्द बुदबुदाये और वे मन-मन वजनी क़दमों से वे
खामोश अपने नीड़ की ओर लौट चलीं! इस मुलाकात ने उनके मन को भारी और दुःख के रंग को
और गहरा दिया था।
“सुबह को रोज दोपहर और
दोपहर को शाम हो जाना है। ये कुदरत का नियम है गामे की
माँ। हम सब बखत के चक्के के गुलाम हैं। एक दिन सब पीले
पत्तों को गिर जाना है, तभी तो जम्मेंगीं निक्की-नई
कोंपले।" ईश्वरी देवी ने दार्शनिक
भाव से कहा तो गामे की माँ निर्वात को ताकते हुए सहमति की मुद्रा में सिर हिलाने
लगी!
“पत्ता टूटा डाल से, ले गई पवन उड़ाय, अब के बिछड़े कब मिलेंगे दूर पड़ेंगे जाय....” पास बैठी सोनबाई माला फेरते हुए
गुनगुनाने लगीं!
चंद रोज बाद ईश्वरी देवी ने
फिर धूप सेंकती वृद्धाओं के समूह को अनमने मन से साँझ के उस दीपक के बुझ जाने की
खबर दी जिसने कभी ढेर से नन्हे जुगनुओं को अपनी रोशनी से जगमगाया था। समय अपनी
गति से चलता है, दोपहर ने ढलना नहीं छोड़ा, घड़ी ने चार बजाने बंद नहीं
किये पर नन्ही हथेलियाँ अब कभी झुंगा पाकर नहीं मुस्कुरायेंगी। डाल से
एक पत्ता फिर टूटकर समय की आंधी में खो गया था कभी न लौट कर आने के लिए और बाकी और
बाकी बचे पीले पत्ते अब अपनी बारी की प्रतीक्षा में नन्हीं कोंपलों को खिलते देख
रहे थे।
`
---अंजू शर्मा
(नवम्बर 2016 में जनसत्ता में प्रकाशित)