व्हाट्स एप समूह दस्तक में मैं अक्सर विश्व साहित्य और भारतीय भाषाओँ से हिंदी में अनूदित कवितायें साझा करती हूँ! अब से कुछ चुनिन्दा पोस्ट स्वयंसिद्धा पर भी लगाने का प्रयास करुँगी ताकि फेसबुक और ब्लोगिंग की दुनिया में सक्रिय लोगों तक पहुंचा सकूं! आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध नेपाली कवि सुमन पोखरेल की कुछ कविताएँ! मूल नेपाली से अनुवाद स्वयं कवि का है! कवि गैर हिंदी भाषी हैं तो अनुवाद में वर्तनी और व्याकरण की त्रुटियों को एडिट करने के बाद ही पोस्ट किया है! पढ़कर प्रतिक्रिया दें कवितायेँ कैसी लगीं!
बच्चे
तोडना चाहने मात्र से भी
उनके कोमल हाथों पे खुद ही आ जाते हैँ फूल
डाली से,
उनके नन्हे पाँव से कुचल जाने पे
आजीवन खुद को धिक्कारते हैँ काँटे ।
सोच समझकर
सुकोमल, हल्के हो के बारीकी से बसते हैँ
सपने भी उनके आँखों में ।
उन के होठों पे रहने से
उच्चारण करते ही खौफ जगानेवाले शब्द भी
तोतले हो के निकलते हैँ ।
चिडियों को ताने मारती हुई खिलखिला रही पहाडी नदी
उन की हंसी सुनने के बाद
अपने घमंड पे खेद करती हुई
चुपचाप तराई की तरफ भाग निकलती है।
खेलते खेलते कभी वे गिर पडे तो
उनकी शरारत की सृजनशीलता में खोयी हुई प्रकृति को पता ही नहीं चलता
कि फिर कब उठ के दूसरा कौतुहल खेलने लगे वे।
अनजाने में गिरे जानकार
ज्यादतर तो चोट भी नहीं लगाती जमीन।
उनकी मुस्कान की निश्छलता का
युगों के अभ्यास से भी अनुकरण कर नहीं सका कोई फूल।
विश्वभर के अनेकों दिग्गज संगीतकारों की सदियों की संगत से भी
कोई वाद्ययन्त्र सीख न सका उनकी बोली की मधुरता।
उनके तोडने पे टूटते हुए भी खिलखिलाता है गमला,
उनके निष्कपट हाथों से गिर पाने पर
हर्ष से उछलते हुए बिखर जाता हैं सभी कुछ,
उन से खेलने की आनन्द में
खुद के बेरंग होने की हकीकत भी भूल जाता है पानी
खुशी \ से ।
सोचता हूँ
कहीं सृष्टि ने कुछ ज्यादा ही अन्याय तो नहीं किया ?
बिना युद्ध सबको पराजित कर पाने के सामर्थ्य के साथ
जीवन के सर्वाधिक सुन्दर जिस क्षण को खेलते हुए
निमग्न हैं बच्चे,
उस स्वर्णिम आनन्द का बोध होने तक
भाग चुका होता है वो उनके साथ से
फिर कभी न लौटने के लिए ।
तोडना चाहने मात्र से भी
उनके कोमल हाथों पे खुद ही आ जाते हैँ फूल
डाली से,
उनके नन्हे पाँव से कुचल जाने पे
आजीवन खुद को धिक्कारते हैँ काँटे ।
सोच समझकर
सुकोमल, हल्के हो के बारीकी से बसते हैँ
सपने भी उनके आँखों में ।
उन के होठों पे रहने से
उच्चारण करते ही खौफ जगानेवाले शब्द भी
तोतले हो के निकलते हैँ ।
चिडियों को ताने मारती हुई खिलखिला रही पहाडी नदी
उन की हंसी सुनने के बाद
अपने घमंड पे खेद करती हुई
चुपचाप तराई की तरफ भाग निकलती है।
खेलते खेलते कभी वे गिर पडे तो
उनकी शरारत की सृजनशीलता में खोयी हुई प्रकृति को पता ही नहीं चलता
कि फिर कब उठ के दूसरा कौतुहल खेलने लगे वे।
अनजाने में गिरे जानकार
ज्यादतर तो चोट भी नहीं लगाती जमीन।
उनकी मुस्कान की निश्छलता का
युगों के अभ्यास से भी अनुकरण कर नहीं सका कोई फूल।
विश्वभर के अनेकों दिग्गज संगीतकारों की सदियों की संगत से भी
कोई वाद्ययन्त्र सीख न सका उनकी बोली की मधुरता।
उनके तोडने पे टूटते हुए भी खिलखिलाता है गमला,
उनके निष्कपट हाथों से गिर पाने पर
हर्ष से उछलते हुए बिखर जाता हैं सभी कुछ,
उन से खेलने की आनन्द में
खुद के बेरंग होने की हकीकत भी भूल जाता है पानी
खुशी \ से ।
सोचता हूँ
कहीं सृष्टि ने कुछ ज्यादा ही अन्याय तो नहीं किया ?
बिना युद्ध सबको पराजित कर पाने के सामर्थ्य के साथ
जीवन के सर्वाधिक सुन्दर जिस क्षण को खेलते हुए
निमग्न हैं बच्चे,
उस स्वर्णिम आनन्द का बोध होने तक
भाग चुका होता है वो उनके साथ से
फिर कभी न लौटने के लिए ।
2.
गर्मी|
गर्मी अपनी उत्कर्ष से भी और ऊपर जा रही है
मानो, कसम खा रखी है,
तमाम थर्मामीटरों को तोडे बिना नीचे न उतरने की ।
हवा का इधर आने का मन नहीं कर रहा
बादल को ले के गई हुई है कहीं
हनीमून मनाने।
इसलिए बारिश भी नहीं हो रही ।
सूरज भरपूर शक्ति लगा के धूप बरसाता रहा है
लाद रहा है निर्ममतापूर्वक निरीह जीवनों के ऊपर
अपना एकतरफा शासन ।
इन्सान के शरीर और मष्तिष्क के बीच के सामन्जस्य को
तोड दिया है गर्मी ने ।
आर्द्रभूमि से हो गऐ हैं इन्सानों के शरीर
पागल बाढ के जैसे समूचा भिगोया है बदन को पसीने ने ।
वो समझ नहीं पा रहा है त्वचा और रोवां का भेद
और इन्सानों के विचारों को सिर से बहाते हुए
तलुओं तक पहुँचा दिया है ।
पसीने ने खींचकर बदन पर ही सटा दिया है
बेमन से लगाए हुए कपड़ो को भी ।
आजीवन अभिनयरत इन्सान
गाली दे रहा है कपड़ो के अविष्कार को ।
खिडकियाँ हो के भी न होने के बराबर हैं,
किसी असफल राष्ट्र की सरकार की तरह।
पर्दे हिलेँ या न हिलेँ खुद असमन्जस में हैँ ।
दीवारें कृत्रिम वैमनष्य का ताप फेंकते हुए
ऐसे फुंफकार रही हैं जैसे आपस मे लडने जा रही हों।
कमरा खुद ही बावला हो गया है,
खुद के अन्दर का ताप सह नही पाने से ।
बिस्तर तवे की तरह आँच दे रहा है ।
उठते हुए इन्सान के शरीर पे सट कर
भागने की कोशिश कर रहा है
पसीने से तर तन्ना ।
सिलिंग पंखा आजीत है,
नाम मात्र के शक्तिविहीन अधिकारी सा
उल्टे सर लटक के निरन्तर गाली देते रहने पर भी
गर्मी के टस से मस न होने से ।
आगे टपक पड़े, हर किसी की गाली सुनते हुए
सर झुका के धूम रहा है टेबुल पंखा
सरकारी अफिस के किसी श्रेणीविहीन फाजिल मुलाजिम की तरह ।
बिजली चली गयी है योजनाकारों के बैंकखातो में छुपने
और बच्चा रो रहा है
गर्मी की वजह से माँ का दूध चूस न सकने से ।
बीवी के उपर बरसा रहा है शौहर नाहक ही
असफल योजना व गर्मी का पारा तोड़कर निकले हुए गरम गुस्से को ।
बीवी के लिए वो गुस्सा
खुद से भोगी जा रही गर्मी से ज्यादा गरम नही है ।
उन्मत्त उबल रहा है सडक का पीच
और ऐसे बढाता जा रहा है हवा मे उष्णता
जैसे तोड डालेगा इन्सानों के धैर्य को ।
अस्तव्यस्त हो के बाते कर रही हैँ
खेत रोप न पाने से फुर्सत पाई हुई स्त्रियाँ
पेड के नीचे जमा होकर ।
बगल में बंधा हुवा बैल जानने को उत्सुक है
औरतों को सिर्फ सर्दियों में ही शरम आती है क्या?
सम्भ्रान्त माने गए स्त्रियों के खुद के आइने में सीमित रहे कुछ रहस्येँ भी
द्रुततर गति में सार्वजनिक हो रहे है गर्मी के बहाने ।
पसीने की चिपचिपाहट पे उलझ गए हैँ सभी के जोश और कौशल ।
प्रेमी-प्रेमिकाएँ एक दूसरे को दूर से ही देख कर दिल को सम्हाल रहे हैँ,
तमाम मोह और आशक्तियों से ज्यादा शक्तिशाली बन के खडा है
उन के बीच मे इस प्रचण्ड गर्मी का विकर्षण ।
सूरज अपना वर्चस्व दिखाने मे तल्लीन है अब भी
और बढता ही जा रहा है गर्मी का घमण्ड ।
इतना होते हुए भी विश्वस्त हैँ यहाँ जी रहा हर एक कण
कि
गर्मी को पछाडकर अवश्य आएगी शीतलता ।
अनुभव साक्षी है,
निर्मम शासन कर के यहाँ कोई ज्यादा देर टिक नहीं सकता ।
गर्मी अपनी उत्कर्ष से भी और ऊपर जा रही है
मानो, कसम खा रखी है,
तमाम थर्मामीटरों को तोडे बिना नीचे न उतरने की ।
हवा का इधर आने का मन नहीं कर रहा
बादल को ले के गई हुई है कहीं
हनीमून मनाने।
इसलिए बारिश भी नहीं हो रही ।
सूरज भरपूर शक्ति लगा के धूप बरसाता रहा है
लाद रहा है निर्ममतापूर्वक निरीह जीवनों के ऊपर
अपना एकतरफा शासन ।
इन्सान के शरीर और मष्तिष्क के बीच के सामन्जस्य को
तोड दिया है गर्मी ने ।
आर्द्रभूमि से हो गऐ हैं इन्सानों के शरीर
पागल बाढ के जैसे समूचा भिगोया है बदन को पसीने ने ।
वो समझ नहीं पा रहा है त्वचा और रोवां का भेद
और इन्सानों के विचारों को सिर से बहाते हुए
तलुओं तक पहुँचा दिया है ।
पसीने ने खींचकर बदन पर ही सटा दिया है
बेमन से लगाए हुए कपड़ो को भी ।
आजीवन अभिनयरत इन्सान
गाली दे रहा है कपड़ो के अविष्कार को ।
खिडकियाँ हो के भी न होने के बराबर हैं,
किसी असफल राष्ट्र की सरकार की तरह।
पर्दे हिलेँ या न हिलेँ खुद असमन्जस में हैँ ।
दीवारें कृत्रिम वैमनष्य का ताप फेंकते हुए
ऐसे फुंफकार रही हैं जैसे आपस मे लडने जा रही हों।
कमरा खुद ही बावला हो गया है,
खुद के अन्दर का ताप सह नही पाने से ।
बिस्तर तवे की तरह आँच दे रहा है ।
उठते हुए इन्सान के शरीर पे सट कर
भागने की कोशिश कर रहा है
पसीने से तर तन्ना ।
सिलिंग पंखा आजीत है,
नाम मात्र के शक्तिविहीन अधिकारी सा
उल्टे सर लटक के निरन्तर गाली देते रहने पर भी
गर्मी के टस से मस न होने से ।
आगे टपक पड़े, हर किसी की गाली सुनते हुए
सर झुका के धूम रहा है टेबुल पंखा
सरकारी अफिस के किसी श्रेणीविहीन फाजिल मुलाजिम की तरह ।
बिजली चली गयी है योजनाकारों के बैंकखातो में छुपने
और बच्चा रो रहा है
गर्मी की वजह से माँ का दूध चूस न सकने से ।
बीवी के उपर बरसा रहा है शौहर नाहक ही
असफल योजना व गर्मी का पारा तोड़कर निकले हुए गरम गुस्से को ।
बीवी के लिए वो गुस्सा
खुद से भोगी जा रही गर्मी से ज्यादा गरम नही है ।
उन्मत्त उबल रहा है सडक का पीच
और ऐसे बढाता जा रहा है हवा मे उष्णता
जैसे तोड डालेगा इन्सानों के धैर्य को ।
अस्तव्यस्त हो के बाते कर रही हैँ
खेत रोप न पाने से फुर्सत पाई हुई स्त्रियाँ
पेड के नीचे जमा होकर ।
बगल में बंधा हुवा बैल जानने को उत्सुक है
औरतों को सिर्फ सर्दियों में ही शरम आती है क्या?
सम्भ्रान्त माने गए स्त्रियों के खुद के आइने में सीमित रहे कुछ रहस्येँ भी
द्रुततर गति में सार्वजनिक हो रहे है गर्मी के बहाने ।
पसीने की चिपचिपाहट पे उलझ गए हैँ सभी के जोश और कौशल ।
प्रेमी-प्रेमिकाएँ एक दूसरे को दूर से ही देख कर दिल को सम्हाल रहे हैँ,
तमाम मोह और आशक्तियों से ज्यादा शक्तिशाली बन के खडा है
उन के बीच मे इस प्रचण्ड गर्मी का विकर्षण ।
सूरज अपना वर्चस्व दिखाने मे तल्लीन है अब भी
और बढता ही जा रहा है गर्मी का घमण्ड ।
इतना होते हुए भी विश्वस्त हैँ यहाँ जी रहा हर एक कण
कि
गर्मी को पछाडकर अवश्य आएगी शीतलता ।
अनुभव साक्षी है,
निर्मम शासन कर के यहाँ कोई ज्यादा देर टिक नहीं सकता ।
3.
हर सुबह
हर सुबह
रक्तरंजित खबरों से साथ जागता हूँ
और सशंकित हो के टटोलता हूँ खुद को
कहीं मैं ही हूँ या नहीं, जानने के लिए।
कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ
अपना एक मात्र संरक्षक को
"धन्य ईश्वर !
कल मरे हुए और मारे गए हुए की सूची में
मेरा नाम नहीं । "
4.
बिदा होते हुए
सारी खिड़कियाँ देख रही हैँ जैसा भी लग ही रहा था
सारी दीवारें सुन रहीं हैं जैसा भी लग ही रहा था
उस वक्त
वे सडके और फुटपाथ बोल रहे हैँ जैसा भी लग ही रहा था
अपने अपने आवरण खोल रहे हैं जैसा भी लग ही रहा था ।
मेरे चलते रहने पे भी
मेरे रुकते रहने पे भी
सारे
वृक्ष और चिड़ियाँ
आकाश और बिजलियाँ
वक्ष और चूड़ियाँ
देख रहे थे जैसा भी लग ही रहा था ।
रुकेँ या चलेँ की
उतर जाएँ या चढ जाएँ की
उस दुविधा में
सारे रास्ते अगम्य हैँ,
जैसा भी लग ही रहा था ।
कुछ फटी हुईं
कुछ टूटी हुईं
कुछ कुछ चटकी हुईं
कुछ आकाँक्षाओं को पढ भी लिया था
परिवेशों के चेहरों पे ।
कुछ वाक्यों को छू भी लिया था
कुछ शब्दों को चूम भी लिया था ।
नजरेँ रोकें रास्ते को
तो उन्हे सरकाया भी जा सकता,
पर अनगिनत दिल रोके अगर रास्ता
तो फिर क्या करेँ ?
इस लिए
उन खिड्कियों और दीवारों को
अनदेखा सा भी किया था ।
उस वक्त
मेरे विरुद्ध मे कोई षडयन्त्र हो रहा है
जैसा भी लग ही रहा था ।
मेरे शब्दों पे
मुझे ही प्रहार करने का सन्यन्त्र ढूंढे जा रहे हैँ
जैसा भी लग ही रहा था ।
वे आँखेँ और दृष्टियाँ
भावना के फूलों की एक नदी को कहीं भेज रहे हैँ
जैसा भी लग ही रहा था ।
कल्पना के सुगन्धों के एक पहाड को कहीं उभार रहे हैँ
जैसा भी लग ही रहा था ।
उस वक्त, मेरा दिल
प्रेम के आनन्द पे सो रहा है जैसा भी लग ही रहा था ।
जीवन के संवेदनशील टहनियों को तोड्ते हुए
कोई नीरस मोह मुझे ले के कहीं जा रहा है
जैसा भी लग ही रहा था ।
उन क्षणों मे
मेरा मानस सूखे अनुभवों के मरुस्थल पे ही
सौन्दर्य को खिलाने का ठान कर
जीने के लिए जग रहा है,
जैसा भी लग ही रहा था ।
मै अभी जिस जगह पे हूँ
मत सोचिएगा
कि
मै यहाँ पहाड के फिसलने की तरह बह बह के पहुँचा हूँ
या बादल की तरह वाष्पीकृत हो कर ।
अपने कोमल दिल पे
वक्त का तलवार घोँप कर
उसी की मूठ को पकड कर ऊपर निकल आया हूँ ।
किसी को याद दिलाने से भी, न दिलाने पे भी
दुखता रहता है जीवन का एक अंश
मेरा सीना पकडकर।
---सुमन पोखरेल
साभार Pokhrel's Nowhere से
हर सुबह
रक्तरंजित खबरों से साथ जागता हूँ
और सशंकित हो के टटोलता हूँ खुद को
कहीं मैं ही हूँ या नहीं, जानने के लिए।
कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ
अपना एक मात्र संरक्षक को
"धन्य ईश्वर !
कल मरे हुए और मारे गए हुए की सूची में
मेरा नाम नहीं । "
4.
बिदा होते हुए
सारी खिड़कियाँ देख रही हैँ जैसा भी लग ही रहा था
सारी दीवारें सुन रहीं हैं जैसा भी लग ही रहा था
उस वक्त
वे सडके और फुटपाथ बोल रहे हैँ जैसा भी लग ही रहा था
अपने अपने आवरण खोल रहे हैं जैसा भी लग ही रहा था ।
मेरे चलते रहने पे भी
मेरे रुकते रहने पे भी
सारे
वृक्ष और चिड़ियाँ
आकाश और बिजलियाँ
वक्ष और चूड़ियाँ
देख रहे थे जैसा भी लग ही रहा था ।
रुकेँ या चलेँ की
उतर जाएँ या चढ जाएँ की
उस दुविधा में
सारे रास्ते अगम्य हैँ,
जैसा भी लग ही रहा था ।
कुछ फटी हुईं
कुछ टूटी हुईं
कुछ कुछ चटकी हुईं
कुछ आकाँक्षाओं को पढ भी लिया था
परिवेशों के चेहरों पे ।
कुछ वाक्यों को छू भी लिया था
कुछ शब्दों को चूम भी लिया था ।
नजरेँ रोकें रास्ते को
तो उन्हे सरकाया भी जा सकता,
पर अनगिनत दिल रोके अगर रास्ता
तो फिर क्या करेँ ?
इस लिए
उन खिड्कियों और दीवारों को
अनदेखा सा भी किया था ।
उस वक्त
मेरे विरुद्ध मे कोई षडयन्त्र हो रहा है
जैसा भी लग ही रहा था ।
मेरे शब्दों पे
मुझे ही प्रहार करने का सन्यन्त्र ढूंढे जा रहे हैँ
जैसा भी लग ही रहा था ।
वे आँखेँ और दृष्टियाँ
भावना के फूलों की एक नदी को कहीं भेज रहे हैँ
जैसा भी लग ही रहा था ।
कल्पना के सुगन्धों के एक पहाड को कहीं उभार रहे हैँ
जैसा भी लग ही रहा था ।
उस वक्त, मेरा दिल
प्रेम के आनन्द पे सो रहा है जैसा भी लग ही रहा था ।
जीवन के संवेदनशील टहनियों को तोड्ते हुए
कोई नीरस मोह मुझे ले के कहीं जा रहा है
जैसा भी लग ही रहा था ।
उन क्षणों मे
मेरा मानस सूखे अनुभवों के मरुस्थल पे ही
सौन्दर्य को खिलाने का ठान कर
जीने के लिए जग रहा है,
जैसा भी लग ही रहा था ।
मै अभी जिस जगह पे हूँ
मत सोचिएगा
कि
मै यहाँ पहाड के फिसलने की तरह बह बह के पहुँचा हूँ
या बादल की तरह वाष्पीकृत हो कर ।
अपने कोमल दिल पे
वक्त का तलवार घोँप कर
उसी की मूठ को पकड कर ऊपर निकल आया हूँ ।
किसी को याद दिलाने से भी, न दिलाने पे भी
दुखता रहता है जीवन का एक अंश
मेरा सीना पकडकर।
5.
क्षितिज का रंग
हर सुबह के ऊपर कुछ पल खडे हो कर
हर शाम के पास कुछ देर रूक कर
खुद को भूल देख रही हैं मेरी नजरेँ
रोशनी के साथ साथ समेट रहेँ है मेरी पलकेँ,
क्षितिज के अन्तिम किनारे पे टकराकर रंगे हुए आकाश को।
सोच रहा हूँ;
यह रक्तता
एक दूसरे से जुदा हो के विपरीत रास्ते को चले युगल के
टूटे हुए हृदय का रंग है, या
वियोग के अंधेरे मौसम के बाद जुडे दिलों पे खिली हुई
मिलन की रक्तिम रोशनी !
दिन को खोलनेवाले फाटक और बन्द करनेवाले दरवाजे पे बिखरी हुई
इन्ही लालिमाओँ को देखते देखते
आधा जीवन रंग ही रंग से भीग चुका, मगर
समझ न पाया
कि
यह धरती और आकाश
शाम को जुदा हो के सुबह को मिलते हैं
या
सुबह को बिछुड्कर शाम को मिला करते हैँ!
क्षितिज का रंग
हर सुबह के ऊपर कुछ पल खडे हो कर
हर शाम के पास कुछ देर रूक कर
खुद को भूल देख रही हैं मेरी नजरेँ
रोशनी के साथ साथ समेट रहेँ है मेरी पलकेँ,
क्षितिज के अन्तिम किनारे पे टकराकर रंगे हुए आकाश को।
सोच रहा हूँ;
यह रक्तता
एक दूसरे से जुदा हो के विपरीत रास्ते को चले युगल के
टूटे हुए हृदय का रंग है, या
वियोग के अंधेरे मौसम के बाद जुडे दिलों पे खिली हुई
मिलन की रक्तिम रोशनी !
दिन को खोलनेवाले फाटक और बन्द करनेवाले दरवाजे पे बिखरी हुई
इन्ही लालिमाओँ को देखते देखते
आधा जीवन रंग ही रंग से भीग चुका, मगर
समझ न पाया
कि
यह धरती और आकाश
शाम को जुदा हो के सुबह को मिलते हैं
या
सुबह को बिछुड्कर शाम को मिला करते हैँ!
---सुमन पोखरेल
साभार Pokhrel's Nowhere से
चित्र : साभार गूगल से
OnlineGatha One Stop Publishing platform From India, Publish online books, get Instant ISBN, print on demand, online book selling, send abstract today: http://goo.gl/4ELv7C
ReplyDeleteकविता में उपमाएं बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteसुमन पोखरेल जी की रचनाओं को पढ़वाने हेतु आभार!
बहुत सुन्दर पहल है आपकी ...
धन्यवाद कविता जी
ReplyDeleteसुमन पोखरेल जी की कविता यहाँ देखके बेहद ख़ुशी हुई.बेहेतरीन कविता लिखते है कवि सुमन पोखरेल .
ReplyDeleteSundar kabita.. mujhe sabhi kabita acheee lagi.. ��
ReplyDeleteWow
ReplyDeleteसबि कविताओ बहुत सुन्दर लगा ।
ReplyDeleteसबि कविताओ बहुत सुन्दर लगा ।
ReplyDeleteपारिस्थितिकी पर सूक्ष्म नजर लगाती हुई हर कविता विम्बों के द्वारा सहज बनी हुयी है । कवि सुमन पोखरेल अनुवाद कला में भी सिद्धहस्त हैं , यह पहली बार जाना ।
ReplyDeleteप्रस्तुति के लिए आँप को मेरा आभार अभिनन्दन ।
पारिस्थितिकी पर सूक्ष्म नजर लगाती हुई हर कविता विम्बों के द्वारा सहज बनी हुयी है । कवि सुमन पोखरेल अनुवाद कला में भी सिद्धहस्त हैं , यह पहली बार जाना ।
ReplyDeleteप्रस्तुति के लिए आँप को मेरा आभार अभिनन्दन ।
बेहतरीन कविताओं के लिए सुमन जी को बहुत-बहुत बधाइयाँ।
ReplyDeleteसुमन पोखरेल जी की कविता अच्छी लगी।
ReplyDeleteसुन्दर कविताएं ।
ReplyDelete