Friday, January 30, 2015

बाज-कथा : फेसबुक से

खास चालीस पार वालों या वालियों के लिए....मदनमोहन कांडवाल जी की वाल से....


 बाज लगभग ७० वर्ष जीता है,
परन्तु अपने
जीवन के ४०वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं-
पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है व
शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
पंख भारी हो जाते हैं,
और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते
हैं।
भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे,
या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह
त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे...
या फिर स्वयं को पुनर्स्थापित करे,
आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।
जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं,
वहीं तीसरा अत्यन्त
पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है।
वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,
एकान्त में अपना घोंसला बनाता है, और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..
अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के
लिये। तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने
की।
नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
१५० दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा...
और तब उसे
मिलती है वही भव्य और
ऊँची उड़ान, पहले
जैसी नयी।
इस पुनर्स्थापना के बाद वह ३० साल और जीता है,
ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।
प्रकृति हमें सिखाने बैठी है-
पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की, और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं।
इच्छा परिस्थितियों पर
नियन्त्रण बनाये रखने की,
सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की,
कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने
की।
इच्छा, सक्रियता और कल्पना,
तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं,
हममें भी, चालीस तक आते आते।
हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने
लगता है, अर्धजीवन में
ही जीवन समाप्तप्राय सा लगने लगता है,
उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं-
कुछ सरल और त्वरित,
कुछ पीड़ादायी।
हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे
अति लचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र
मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित
सक्रियता दिखानी होगी-बाज की चोंच की तरह।
हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के
भारीपन को त्याग कर
कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने
भरनी होंगी-बाज के
पंखों की तरह।
१५० दिन न सही, तो एक माह
ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में। जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,
बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे, इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी।
हर दिन कुछ चिंतन किया जाए और आप ही वो व्यक्ति हे जो खुद को दूसरो से बेहतर जानते हैं।

Thursday, January 29, 2015

मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी - 3

पिछले कुछ  दिनों से हम लोग जगमोहन साहनी जी के सौजन्य से पुराने फ़िल्मी रोचक किस्से पढ़ रहे हैं!  इन किस्सों में उनकी दिलचस्पी उन्हें और बहुत से पाठकों को जोड़ती है!  इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं!  ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!   आज पढ़िए सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के जीवन से जुड़ा ऐसा ही एक किस्सा …… 







जब अमिताभ बच्चन फिल्म 'कुली' के सेट पर घायल हुए तो तकरीबन लोग यही सोचते थे कि जब शूटिंग के दौरान पुनीत इस्सर का घूंसा अमिताभ के पेट में लगा होगा तभी वह घायल हो गए थे परंतु ऐसा नहीं है! सच्चाई यह थी कि शूटिंग हो रही थी बंगलौर में जहां ट्रेन के ऊपर अमिताभ को कुछ स्टंट सीन देेने थे!  वे सीन आसानी से शूट कर लिए गए!   अब आई सिंपल फाईट की बारी,  जहां पुनीत को अमिताभ बच्चन के पेट में मुक्का मारना था और अमिताभ बच्चन को टेबल पर गिरना था!   पहला घूंसा मिस टाईम हुआ,  दूसरे घूंसे में अमिताभ को टेबल पर गिरना था,  जो कि वह टेबल पर ना गिरकर, टेबल के कोने से टकरा गए जिसके कारण उनके पेट में चोट लग गई!

उन्हें थोड़ा दर्द हुआ मगर शॉट ओके हो गया!  तब अमिताभ भी ठीक थे पर उन्हें पेट में दर्द की टीसें  उठ रही थीं!  धीरे धीरे दर्द बढा तो अमिताभ ने मनमोहन देसाई से होटल जाने की इजाजत मांगी!  जैसे तैसे वह होटल पहुंचे वहां अभिषेक व जया भी थे!  उन्होंने जया से कहा कि वह जल्द ही मुंबई से अपने डॉक्टर को बुलवा लें!  पूरी रात अमिताभ पेन किलर दवाई लेते रहे!  सुबह डॉक्टर के आते ही उन्हें बंगलौर के फिलोनीना हॉस्पीटल में दाखिल कराया गया, जहां धीरे धीरे अमिताभ कोमा मे जाने लगे!  हॉस्पीटल उतना अच्छा नहीं था इसलिए अमिताभ को जल्द से जल्द मुंबई ले जाने की प्लानिंग की जाने लगी!  डाक्टरों ने अमिताभ के परिवार वालों को यह कह दिया था कि किसी भी तरह अमिताभ को सोने मत देना इन्हें जगाए रखना!  अगर अमिताभ सो गए तो इनकी जान को खतरा है!  अमिताभ की किस्मत अच्छी थी कि उस हॉस्पीटल मे एक बहुत बडे सर्जन का आना हुआ!  वह किसी दूसरे मरीज का आपरेशन करने आए थे!  जब जया को इस बात का पता चला तो वह फौरन उनसे मिलने भागी और उनसे रिक्वेस्ट की मेरे पति को एक बार देख ले!  सर्जन ने अमिताभ को चैक करने के बाद बोले इन्हें फौरन आपरेशन टेबल पर ले चलो!  उसी समय अमिताभ का आपरेशन हुआ तब पहली बार पता चला कि अमिताभ की आँतों में बहुत बडी चोट आई है,  अंदर खून जमा हो गया है और वह जहर बन गया है!  आपरेशन के बाद डॉक्टर ने अमिताभ को मुंबई जाने की इजाजत तो दे दी और साथ ही यह भी कहा कि मुंबई में इनका दुबारा आपरेशन होगा!  अमिताभ को मुंबई ले जाने के लिए इंडियन एयरलाइंस के स्पेशल विमान का इंतजाम किया गया!   हवाई जहाज में तमाम फैसिलिटी मौजूद थी!   एक छोटा सा आई सी यू भी बनाया गया!  बारिश के मौसम के बावजूद यह कोशिश की गई कि विमान की लैंडिंग समूथ हो!  

अमिताभ को ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल ले जाया गया! अमिताभ को बंगलौर से मुम्बई लाने और साथ ही बंगलौर में उनके इलाज में यश जौहर ने बहुत साथ दिया !  हादसे के 5 दिन बाद अमिताभ की दोबारा सर्जरी हुई  लेकिन इस आपरेशन के बाद डॉक्टर उदवादिया और उनकी टीम अमिताभ को होश में नहीं ला पाई!  जब अमिताभ को घंटों होश नहीं आया तो अमिताभ का ब्लड प्रेशर और पल्स जीरो हो गई थी!  ऐसे में डॉक्टर उदवादिया ने एक आखिरी कोशिश की!   उन्होंने थोड़ी-थोड़ी देर के बाद चालीस ओटोजाॅन एमपूयज के इंजेक्शन अमिताभ की बाॅडी मे दे दिए!   उनका ऐसा करने से कुछ साईड इफेक्ट भी हो सकते थे लेकिन उस समय डॉक्टर उदवादिया के पास और कोई चारा नहीं था!  लाखों-करोड़ों अमिताभ के दीवाने उनके लिए दुआ मांग रहे थे! दुआएं कबूल हुई!   अमिताभ का भाग्य और डाक्टर उदवादिया की कोशिश रंग लाई और अमिताभ के पैर की ऊँगली में थोडी हरकत हुई!  अमिताभ की पूरी बाॅडी रिसपोंड करने लगी!  यह 2 अगस्त 1982 का दिन था और इसी दिन अमिताभ बच्चन का दूसरा जन्म हुआ था!

तो दोस्तो दो घंटे  की मेहनत के बाद यह पोस्ट लिखी है बस इंतजार है आपकी राय का भूलिएगा नहीं!


(सौजन्य 92.7 बिग एफ.एम. सुहाना सफर विद अन्नू कपूर)
 

प्रस्तुति:- जगमोहन साहनी
मजनूं का टीला


कुछ अन्य किस्से आप यहाँ पढ़ सकते हैं :

http://swayamsiddhaa.blogspot.in/2015/01/2.html

http://swayamsiddhaa.blogspot.in/2015/01/92.html

Friday, January 23, 2015

पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए - तारा गांधी भट्टाचार्य



आज गोडसे को  राष्ट्रभक्त मान  महिमामंडित करने की ख़बरें हवा में विषैली गैसों की तरह घुल रही हैं!  30 जनवरी अब ज्यादा दूर नहीं है!  इतिहास  के काले पन्नों में दर्ज यह तारीख,  आने वाले दिनों में और प्रासंगिक होने जा रही है!   एक महात्मा के बरक्स एक हत्यारे को स्थापित  करने की  कवायदें अब दबी-ढकी नहीं हैं!  आप गांधीवादी नहीं भी हैं तो भी गांधी और गोडसे में से किसी एक को चुनने के इस दौर में  गांधी जी की पौत्री तारा गांधी भट्टाचार्य का यह लेख पढ़े जाने की मांग करता है जो कुछ दिन पहले ही नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था ……  






गांधीजी की हत्या जिस पिस्तौल से हुई, वह एक इतालवी शहर में खरीदी गई थी
वह मनोरम शहर आज भी शर्मिंदा है
---तारा गांधी भट्टाचार्य

गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। उसे व्यवहार में उतारने के लिए आज पिस्तौल नहीं, झाड़ू उठाने का साहस जुटाना होगा।






पिछले दिनों एक पत्रकार भाई ने फोन करके पूछा कि आज गोडसे को राष्ट्रभक्त मानकर उसके नाम से देश में मंदिर बनाया जा रहा है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? संयोग से उन्हीं दिनों मैं कुछ साल पहले की एक घटना पर लिखने को लेकर उधेड़बुन में थी। इस फोन ने मुझे लिखने को विवश कर दिया। कुछ साल पहले इटली में सत्य और अहिंसा पर एक सभा के लिए मुझे निमंत्रण मिला था। इटली के बीचोंबीच, राजधानी रोम से लगभग 300 किलोमीटर दूर सुंदर, हरियाली से भरे एक छोटे और ऐतिहासिक शहर में वह कार्यक्रम आयोजित था। वहां मेरा जबर्दस्त स्वागत हुआ। पर वातावरण में मुझे कुछ अजीब सा अहसास भी हुआ।

चारों ओर लोग मेरे सामने सिर झुकाए खड़े थे। विचित्र सन्नाटा था। एक सज्जन ने माइक के सामने आकर सब लोगों की ओर से मुझे संबोधित करते हुए धीमी पर शिष्ट आवाज़ में कहा, 'आप अवश्य ही विस्मित हो रहीं होंगी कि आज इस तरह मौन में आपका स्वागत हो रहा है! हम यहां क्षमाप्रार्थी के रूप में आए हैं।' मैं चकित हुई। फिर उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा- ' दशकों पहले की दास्तान है जिसके बारे में हम आपको पत्र में नहीं लिखना चाहते थे। आज हम आपसे माफी मांगते हुए हिंसा का वह चक्र समाप्त करते हैं, जिसके लिए इस छोटे शहर के दो नौजवान जिम्मेदार थे। .... जिस पिस्तौल से गांधी की हत्या हुई, उसकी यात्रा यहीं से आरंभ हुई थी।'

 मैं अवाक रह गई। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे एक कहानी सुनाई गई।

सन् 1944-45 की बात है। दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था। इटली के इस शहर के दो लड़के पढ़ाई छोड़कर मौज-मस्ती में रहना चाहते थे। वे कभी-कभार कुछ बेचकर किसी तरह गुजारा कर लेते थे। एक दिन एक रूसी सिपाही से उन्हें एक पिस्तौल मिली। इन नवयुवकों ने सोचा कि बिना लाइसेंस वाली इस पिस्तौल को बेचकर कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे। पर उसे बेचना आसान नहीं था। उन्होंने उसे बेचने के लिए कई तरह के प्रयास किए, अंग्रेजी तक सीखी, पर सफलता नहीं मिली। काफी दिनों बाद उन्हें अचानक एक हिंदुस्तानी मिला, जिसने इस पिस्तौल में बहुत दिलचस्पी दिखाई।

उनके गांव की नदी के ऊपर एक छोटा पुल था जिसे 'शैतान का पुल' कहते थे। उसी के ऊपर एक छोटे कमरे में पिस्तौल का सौदा हुआ। पैसे पाकर नवयुवक खुश हुए। एक दिन के खाने का इंतजाम हो गया। एक बोतल शराब और कुछ कपड़े-कंबल भी उससे मिल गए। दोनों लड़कों ने नादानी में ही पिस्तौल बेची थी। कुछ सालों बाद सन् 1948 में इंटरपोल की अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी उस पिस्तौल का इतिहास टटोलने लगी, जिससे गांधी की हत्या हुई थी। कई देशों में पूछताछ के बाद इंटरपोल के लोग पिस्तौल की जड़ तक इसी शहर में पहुंचे। ...तो इस शहर से निकलकर कहां-कहां से घूमती हुई हुई यह दिल्ली स्थित गांधी स्मृति (पुराना नाम बिड़ला हाउस) पहुंची, जहां गांधी ने सत्य और अहिंसा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।




 रोंगटे खड़े कर देने वाली यह दास्तान सुनकर मैंने उन सज्जन से पूछा, 'आपको यह सब जानकारी कब मिली?' उन्होंने कहा, 'यह भी एक अजीब कहानी है। एक सनकी, पागल से वृद्ध ने नदी के किनारे एक पत्रकार को अपनी और अपने एक दोस्त की साझा जिंदगी के बारे में बताया। बिना लाइसेंस की पिस्तौल बेचने वाले दोनों दोस्तों ने डर के मारे न पढ़ाई की और न ही कोई नौकरी। दोनों अपराधबोध में जिदंगी काटने लगे। वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते एक की मृत्यु हो गई और दूसरा पागल सा हो गया।' मैं अवाक थी। क्रोध, भय, दुःख, सब कुछ से अलग एक विचित्र सी अनुभूति मुझे हो रही थी। उस शहर के निवासियों की संवेदनशीलता और क्षमाशीलता को शब्दों में कैसे बयान करूं, समझ में नहीं आता।


दिल्ली आकर जब मैं गांधी स्मृति के अपने कार्यालय में गई तब वह कहानी मेरे दिलोदिमाग पर छाई हुई थी। ऑफिस के कोने की एक खिड़की से गांधी की शहादत का स्तंभ दिखाई देता था। उसे कुछ देर देखती रही। पिस्तौल की यात्रा के बारे में सोचती रही। इटली के मेरे मेजबानों की क्षमायाचना का दृश्य मन में था। सोचती रही कि धातु से पिस्तौल बनकर एक लंबी यात्रा के बाद, वह जानलेवा चीज कितने हाथों और स्थानों से गुजरती हुए दिल्ली के बिड़ला हाउस पहुंची थी। उसी से संत की हत्या हुई। लेकिन सत्य और अहिंसा के मूल्य विश्व भर में पुनर्जीवित हो गए।

गांधी की हत्या के लिए उन दो लड़कों को कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। उनका अपराध बस इतना था कि उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ी और बिना लाइसेंस के पिस्तौल खरीदी-बेची। इसके कारण उनका सारा जीवन प्रायश्चित में ही रह गया। जिन नागरिकों का इस सारे वृत्तांत से कोई सरोकार नहीं था, वे 60 वर्ष पहले हुई इस घटना के लिए क्षमाप्रार्थी हुए। गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। आज उसे व्यवहार में उतारने के लिए पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए। जहां तक पिस्तौल का सवाल है वह जिस धातु से बनती है उसी से हमारी चेतना को जगाने वाली घंटी भी बनती है। आवश्यकता है प्रदूषणविहीन पर्यावरण और हिंसाविहीन मानस की।

--- तारा गांधी भट्टाचार्य

(साभार : नवभारत टाइम्स)

Thursday, January 22, 2015

सरोज सिंह की कवितायें

Tuesday, January 20, 2015

मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी - 2


 जगमोहन साहनी फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं!  वे दिल्ली में रहते हैं और व्यवसाय करते हैं!  फ़िल्मी दुनिया और संगीत के दीवाने हैं!  संभव है रेडियो पर फरमाइशी  गीतों के कार्यक्रम में आपने कई बार सुना  हो "…और मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी"!    पुराने फ़िल्मी रोचक  किस्सों में उनकी दिलचस्पी उन्हें और बहुत से पाठकों को जोड़ती है!  इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं!  ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!  ऐसे ही कुछ किस्से स्वयंसिद्धा पर भी लगाने जा रही हूँ!  पढ़िए और जानिए फ़िल्मी दुनिया के छोटे-छोटे, छुपे-जाहिर किस्से!  आज का किस्सा ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी  के जीवन से जुड़ा है.……




ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी की आखिरी ट्रेजेडी

1972 में मीना कुमारी की हालत बहुत ही खराब हो चुकी थी!  ज्यादा शराब पीने की आदत से मीना कुमारी जी का लीवर खराब हो चुका था!  उनका इलाज घर पर ही डा.शाह की देखरेख में चल रहा था!  डॉ शाह उन्हें रोज घर पर देखने आते थे!  हाथ- पैरो में सूजन की वजह से वह बैड से उठ भी नहीं पाती थी!  दिनों-दिन उनकी हालत खराब होती जा रही थी उनकी यह हालत देखकर डॉ शाह ने उन्हें हास्पिटल में  दाखिल करने की सलाह दी!  डा. शाह की बात मानते हुए मीना कुमारी की दोनों बहनों ने उन्हें हॉस्पिटल ले जाने का इंतजाम शुरू कर दिया!  




मीना कुमारी को अंदेशा था कि हॉस्पिटल के खर्चे के लिए घर मे पैसे नहीं होंगे!  उन्होंने अपनी बड़ी बहन खुर्शीद से पूछा कि "कुछ बचा है?"   खुर्शीद बोली,  "सिर्फ सौ रुपए है!"   बहन ने कहा कि कमाल अमरोही से पैसे ले लेते हैं!  इस पर मीना कुमारी ने साफ मना कर दिया और बोलीं,  "निर्माता निर्देशक प्रेम जी को फोन करो!  मैंने  उनकी एक फिल्म में काम किया था!  उसका कुछ पैसा बकाया है!"   रकम तकरीबन दस हजार रुपये थी! जो प्रेम जी तुरंत लौटा दिए!  मीना कुमारी  को अंदेशा था कि वह अब हॉस्पिटल से लौटेगी नहीं  इसलिए हॉस्पिटल जाने से पहले उन्होंने सबको अलविदा कहा और अपने मालाबार हिल के घर से निकल पड़ी एलिजाबेथ नर्सिग होम में भर्ती होने के लिए!


काफी मुश्किलें, दर्द और तकलीफों के बाद 31 मार्च सन 1972 को मीना कुमारी इस दुनिया से रुखसत हो गई! उनके आखिरी समय में उनकी दोनों बहनों खुर्शीद, मधु  के अलावा उनके पति कमाल अमरोही, गुलजार, नादिरा, सायरा बानो, श्यामा मौजूद थीं!  नर्सिग होम में ही कमाल अमरोही और मीना कुमारी की बहनों में  बहस छिड गई कि उन्हें कहाँ दफनाया जाए!  बहनें  कहने लगी कि मीना कुमारी को बांद्रा के सुन्नी कब्रिस्तान मे दफनाया जाए जहाँ उनके मां-बाबूजी को दफनाया गया था!  इधर कमाल अमरोही कह रहे थे कि मीना कुमारी ने मुझसे कहा था कि उन्हें अमरोहा में दफनाया जाए! 


और असली ड्रामा तो तब हुआ जब नर्सिग होम वालों ने डेडबाडी देने से इनकार कर दिया!  क्यों?  क्योंकि उनका तीन हजार पांच सौ रुपये का बिल बकाया था! मीना कुमारी की बायोग्राफी में इस घटना का जिक्र करते हुए राइटर ने लिखा है कि  अचरज की बात यह है कि इतने सारे लोग मौजूद होने के बावजूद किसी ने इस बिल को देने की जहमत नहीं उठाई!  बाद में मीना कुमारी जी का इलाज कर रहे डॉक्टर शाह ने अपनी पत्नी को फोन किया और कहा कि आप फौरन रकम लेकर यहां पहुंचो!  तब जाकर मीना कुमारी  का पार्थिव शरीर नर्सिंग  होम से घर लाया गया और आखिरी रस्मों  को पूरा कर, ना तो बांद्रा के कब्रिस्तान और ना ही अमरोहा बल्कि इस महान अदाकारा को मुंबई के मडगांव के रहमत बाग के शिया कब्रिस्तान मे दफनाया गया !

 
"तुम क्या करोगे सुन कर मेरी कहानी,  बेनूर जिदंगी के किस्से है फीके फीके!"
 

तो दोस्तों यह थी महान अदाकारा मीना कुमारी जी आखिरी दिनों की मार्मिक कहानी, आपको कैसी लगी अपनी राय देना ना भूलना---


(सौजन्य :- 92.7 बिग F.M. सुहाना सफर विद अन्नू कपूर ) 

---जगमोहन साहनी 
मजनूं का टीला 


(चित्र सौजन्य : जगमोहन साहनी)

Monday, January 19, 2015

मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी -1

 जगमोहन साहनी फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं!  वे दिल्ली में रहते हैं और व्यवसाय करते हैं!  फ़िल्मी दुनिया और संगीत के दीवाने हैं!  संभव है रेडियो पर फरमाइशी  गीतों के कार्यक्रम में आपने कई बार सुना  हो "…और मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी"!    पुराने फ़िल्मी रोचक  किस्सों में उनकी दिलचस्पी उन्हें और बहुत से पाठकों को जोड़ती है!  इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं!  ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!  ऐसे ही कुछ किस्से स्वयंसिद्धा पर भी लगाने जा रही हूँ!  पढ़िए और जानिए फ़िल्मी दुनिया के छोटे-छोटे, छुपे-जाहिर किस्से……








आज बात एक ऐसे संगीतकार की जिनकी धुनों ने हमें दीवाना बनाया!  जिनके गीत शौहरत की बुलंदियों पर रहे लेकिन उनकी जिंदगी मुफ़लिसी व फकीरी में  गुजरी!  जी,  मै बात कर रहा हूं म्यूजिक डायरेक्टर जयदेव जी की, जिन्होंने संगीत को सिर्फ साधना समझा और बड़ी ही खामोशी के साथ अपना काम करते हुए बिना पब्लिसिटी, बिना विवाद, बिना पैसों का लालच दिखाए अपना काम करते रहे!  इन्होंने कभी शादी नहीं की और ना ही बहुत पैसे कमाए!  जो मिला रख लिया,  नहीं मिला जाने दिया!  यही वजह थी कि वह अपना मकान नहीं खरीद पाए और सारी जिंदगी किराए के मकान में गुजार दी!  घर  में ऐशोआराम का कोई समान नहीं था!  थोड़े  से बर्तन, बिस्तर, चूल्हा-चौका!  वह पानी भी मिट्टी के बर्तन में पीते थे और फर्श पर ही चटाई बिछा कर सो जाया करते थे!  जयदेव जी ने पूरी जिंदगी फकीरों जैसी गुजार दी थी!






 38 फिल्मों में लाजवाब संगीत देने वाले जयदेव पहले ऐसे संगीतकार थे जिन्हें तीन नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया!  1972 में फिल्म" रेशमा और शेरा",  1979 में  फिल्म "गमन" के लिए और  1985 में  फिल्म "अनकही" के लिए!   इनकी प्रमुख फिल्मों में "हम दोनों" "मुझे जीने दो" "किनारे किनारे" इत्यादि रहीं!  हरिवंशराय बच्चन की 'मधुशाला' जो कि मन्ना डे ने गाई उसका संगीत भी जयदेव जी ने दिया था ! 6 जनवरी 1987 को यह महान कलाकार जब इस दुनिया से विदा हुआ तो संपति के नाम पर कुछ रोजमर्रा की चीजों के अलावा एक हारमोनियम मिला जिस पर जयदेव जी अनमोल संगीत रचा करते थे!  इस गरीबी के बाद भी उनके जानने वाले बताते हैं कि जयदेव जी के चेहरे पर कभी कोई शिकन कोई परेशानी नहीं देखी! वह हमेशा बहुत शांत रहा करते थे! उन्होंनें कभी पैसों का मोह नहीं किया! 
 

हमारी तरफ से जयदेव जी को भावभीनी श्रद्धांजलि 

(सौजन्य 92.7 F. M. सुहाना सफर विद अन्नू कपूर)
जगमोहन साहनी
मजनूं का टीला



(चित्र सौजन्य : जगमोहन साहनी)



Friday, October 10, 2014

अगर इच्छाओं के पंख होते (कहानी) : अचला बंसल



एक आयोजन में वरिष्ठ कहानीकार अचला जी से परिचय कराते हुए मित्र आकांक्षा पारे ने इस कहानी का जिक्र किया।  उनका कहना था कि इस कहानी को पढ़ना बेहद जरूरी है।  तभी से इस कहानी को पढ़ने की इच्छा जागी जो गुजरते समय के साथ तीव्र होती गई।  पिछले दिनों आकांक्षा के सौजन्य से 'रचनाकार' में इस कहानी का प्रियदर्शन जी द्वारा किया बेहतरीन हिन्दी अनुवाद पढ़ने को मिला तो लगा आकांक्षा का कहा लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं था।  यकीनन इस कहानी को पढ़ा जाना जरूरी है।  आप भी पढ़ेंगे तो जरूर सहमत होंगे.....






राहुल को अपनी पीठ झुलसती हुई महसूस हो रही थी। उस झुर्रियाए, सख्त चेहरे की डूबी आंखों में इतना तीखापन था कि उसकी हिम्मत नहीं हुई कि मुड़ कर उनका सामना करे,कहीं उनकी लपट उसे लील न जाएं।

वे क्या चाहती थीं? क्यों उनकी आंखें लगातार उसका पीछा करती रहती थीं- बेरहमी से, ख़ामोशी से। नहीं वे ख़ामोश नहीं थीं। सिर्फ होंठ चुप थे, आंखें नहीं। वे याचना कर रही थीं, चुनौती दे रही थीं, आरोप लगा रही थीं। किस बात का? क्या किया है उसने? या क्या नहीं किया है? जैसे ही उसे अपनी घबराई पत्नी विभा का फ़ोन आया, वह ज़रूरी मीटिंग छोड़कर, उन्हें डॉक्टर को ले कर घर चला आया था। उनकी ‘उच्च ज़िंदगी’ से परिचित डॉक्टर ने- भले ही वे सब उसके आउटडेटेड होने को लेकर उसक मज़ाक बनाते थे-उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी थी। वह तैयार हो गया था, कुछ ज़्यादा ही व्यग्रता से। डॉक्टर ने उस पर एक तीखी निगाह डाल कर कहा था,‘आपको फिर भी उनका ख़याल रखना होगा। नर्सें सबकुछ नहीं कर सकतीं।‘

‘हां, हां, विभा छुट्टी ले सकती है...हम दोनों मिलकर मैनेज कर लेंगे,’ उसने डॉक्टर की चुभती निगाहों से बचते हुए जल्दी से कहा था।

लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। लाख मान-मनुहार के बाद भी तैयार नहीं हुई थीं। उसकी सीधी-सादी मां, जिसे वह बचपन से जानता था, उसके दबंग पिता के सामने हमेशा घुटने टेक देती थीं, कब उनके भीतर जिद्दीपन की यह टेक पैदा हो गई? वह हमेशा उसकी बात सुना करती थीं, उससे कुछ डरती भी थी, क्योंकि उनके मुताबिक, वह, अपने पापा जैसा ही था। अक्सर वे उसकी पत्नी को चेतावनी देती थीं कि उसे उकसाया न करे, लेकिन वह हंस कर उड़ा देती थी। ‘चिंता मत कीजिए मांजी, मेरा मिज़ाज भी इतना ही तेज़ है,’ विभा पलट कर कहती थी। वाकई था, लेकिन मां? क्या वह होश खो बैठी हैं कि उसकी इच्छा, उसका आदेश मानने से इनकार कर रही हैं?

आख़िर उसे मुड़ कर उनकी जलती आंखों का सामना करना पड़ा। उनके बगल में बैठकर, उसने उनके बर्फ जैसे उजले बाल सहलाए, ‘मां, तुम्हें अस्पताल जाना होगा। मैं कह रहा हूं न...डॉक्टर कहता है...’।

‘नहीं,’ वे बुदबुदाईं।

’नहीं का मतलब?’ उसने झल्ला कर पूछा।

‘मैं नहीं जाऊंगी। मैं यहीं मरूंगी।‘

’तुम मर नहीं रही हो, यहाँ पड़ी नहीं रही तो नहीं मरोगी।‘

’मैं मर रही हूं, लेकिन उसके पहले मैं उड़ूंगी, ऊपर बादलों में।‘

बहुत देर हो गई, उसने हताशा से सोचा, उन्हें अस्पताल पहले भर्ती करवाना चाहिए था।

उनका अंत आ चुका था। आख़िरकार वे काफी बूढ़ी थीं। ७० पार। उनकी सही उम्र उसे मालूम नहीं थी। पिता जीवित होते तो शायद उन्हैं पता होता मगर उसमें संदेह था।शायद ही वे अपनी आज्ञाकारी और घरेलू पत्नी के बारे में कुछ जानते थे।

’जाओ, दो टिकट ले आओ,वे बुदबुदाईं।

‘क्या?’अपनी बेसब्री पर क़ाबू रखने की कोशिश करते हुए उसने पूछा। काश वह अस्पताल जाने को तैयार हो जाएं। वह उनके लिए २४ घंटे की नर्सों का इंतज़ाम कर देगा। वह पैसा खर्च कर सकता था। पर समय? समय कहीं ज़्यादा क़ीमती था। काश विभा समझ पाती। लेकिन वह आपसी बराबरी में यक़ीन करती थी। उसके पास भी हासिल करने को मक़सद थे, पूरे करने को वादे थे। उसके बावजूद वह घर की देखरेख करती थी। उसके घर पर न रहने पर भी घर नियम से चलता था न। कम से कम वह अपनी मां का ख़याल तो रख सकता था। ‘आख़िरकार यह तुम्हारी ज़िम्मेवारी हैं,‘ उसने दो टूक कहा, और उसे उनकी बड़बड़ाहट सुनने को छोड़ गई।

‘विमान के दो टिकट ले आओ। मरने से पहले... मैं एक बार उड़ना चाहती हूं।‘

’लेकिन तुम कहीं नहीं जा सकती। अभी नहीं। जब ठीक हो जाओगी तो मैं तुम्हें ले जाऊंगा। अगर तुम अस्पताल जाने को राज़ी हो गईं तो मैं वादा करता हूं, जैसे ही लौटोगी, मैं तुम्हें ले जाऊंगा।

‘अगर मैं कहीं जाऊंगी तो प्लेन में, यह मेरी आख़िरी इच्छा है।‘

बेबस राहुल उन्हें तकता रहा, वह भी उसे घूरती रहीं, उनकी आंखें उसे भेद रही थीं, होंठ सख्ती से कसे थे। वह जानता था, अब वे नहीं बोलेंगी। जब से उसने उन्हें जाना है, चुप्पी उनका इकलौता हथियार रहा है। कोई उससे लोहा नहीं ले सकता था। उसके पिता भी नहीं।

क्या वह...नहीं वह पागलपन होगा। इस हाल में उन्हें कहीं नहीं ले जाया जा सकता। वे रास्ते में मर जाएंगी। वह इस खयाल से सिहर गया कि उसके हाथों में एक शव होगा, कितना अभद्र दिखेगा। वह, जिसने अब तक खूबसूरत एयरहोस्टेज़ेज की आंखों में अपने लिए तारीफ़ के अलावा कुछ नहीं देखा था। इस उम्र में भी, अपने उड़ते बालों और हल्की उभरी तोंद के बावजूद, वह मर्दानगी की मिसाल था। उसे औरतों को ख़ुश रखने का राज़ जो मालूम था। नई पीढ़ी, स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार के आकर्षण के बारे में नहीं जानती।  वह ख़ुद उसमें भरपूर यक़ीन रखता था और उसके इस्तेमाल में पारंगत था। इस हद तक कि उसकी आज़ाद ख़याल पत्नी भी झल्ला जाती थी। वह अंदाज़ और अदाएं थकाने वाली  ज़रूर थीं पर आख़िर हर चीज़ की क़ीमत अदा करनी पड़ती है न। तारीफ़ का ईनाम भी तो मिलता है।

उसने गहरी सांस ली। काश अपनी सनक के बारे में उन्होंने पहले बतलाया होता। पर क्या सचमुच उसे मालूम नहीं था? जब वह छोटा था, वे ऊपर से गुजरते हवाई जहाज़ को तब तक देखती रहती थीं जब तक वह दूर आसमान में लक़ीर न बन जाता। तब भी मोहपाश में बंधी वे उसे ताकती रहती।

उसे धुंधला सा याद था कि वे टैरेस पर खड़े होकर ऊपर देखती रहती थीं। उसने कभी पूछने की ज़रूरत नहीं समझी कि वे क्या देख रही थीं। वह उनकी पुरानी आदत थी, वह बचपन से उसका अभ्यस्त था। जब भी वह विमान से सफ़र करता, वह ‘बेवकूफ़ाना’ सवाल किया करतीं, जिसके जवाब देने का न उसके पास वक्त था, न सब्र। "तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं चांद से हो कर आया हूं," वह एक बार फट पड़ा था। उन्होंने दुबारा उससे नहीं पूछा था पर उनकी आंखें उसका तब तक पीछा करती रहतीं, जब तक वह अपने कमरे में शरण नहीं ले लेता, जहां उसे मालूम था, वे नहीं आएंगी।

उसने उन्हें सख्ती से देखा। आंखें अब भी उसी पर टिकी थीं। तीखी, झुलसाती हुईं। वह कमरे से बाहर निकल गया।

दरवाज़े पर खड़े हो कर उसने कहा, ‘मां, मैं दफ़्तर जा रहा हूं। अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो घण्टी दबा देना। रामदीन यहां है। मैं तुम्हारे लिए एक नर्स का इंतज़ाम कर दूंगा।‘ उनकी ओर देखे बिना, वह बाहर निकल गया।



‘गुड मॉर्निंग सर’, जैसे ही वह अपनी कुर्सी पर बैठा, हाथ में भाप फेंकती कॉफी का कप लिये, उसकी ख़ूबसूरत सेक्रेटरी दाखिल हुई।सावधानी से उसे उसके सामने रख दिया। ‘थैंक्यू’, उसकी ओर देखे बिना वह बुदबुदाया। कुछ हैरान, वह एक लम्हे के लिए खड़ी रही, फिर चुपचाप चली गई। वह खिसिया कर मुस्कुराया, उसे अहसास था, वह अपनी मशहूर मुस्कान उसकी तरफ़ फेंकने से चूक गया था। इतना अभद्र व्यवहार?

उसने सुरुचि से सजे कमरे को देखा। खुला, आरामदेह। घर के उसके कमरे की तरह नहीं, जिसे उसकी पत्नी जब-तब ‘सजाने’ में लगी रहती है और जिससे उसे झल्लाहट होती है।



उसे तभी समझ जाना चाहिए था कि वह किस चक्कर में पड़ने वाला है, जब उसकी  होने वाली पत्नी ने गर्व के साथ बतलाया था कि उसने इंटीरियर डिज़ाइनिंग की है। वह गर्व से चहकती अपनी होने वाली पत्नी को देख कर लगाव से मुस्कुराया था। हर किसी के शौक होते हैं। उसकी मां के भी हैं। क्या वाकई? खाना पकाना, सीना-बुनना, क्या वे शौक थे? या ऐसे काम, जिन्हें वह आदतन- भले उनकी जरूरत न रह गई हो- मशीनी ढंग से करती रहती थीं? क्या उन्हें उनमें लुत्फ़ आता था? जब वह छोटा था, तभी उसने उनके असल रोमांच को महसूस कर लिया था...अनुभव तब किया, जब अपनी पहली हवाई ट्रिप पर गया। बादलों के पार...।

उसने फाइल बंद कर दी। काम में ध्यान लगाना असंभव हो गया था। पहले कभी उसका मन इस तरह नहीं भटका। वह धुन का पक्का और कामकाजी आदमी था। वह उठ गया।

‘वह डेढ़ बजे गॉल्फ़ क्लब में है, सर.’उसकी सेक्रेटरी उसके सामने खड़ी थी।

‘क्या?’

’मिस्टर रॉय के साथ लंच’।

‘कैंसिल कर दो।‘

’लेकिन सर...’

उसने ब्रीफ़केस उठाया तो वह उसे ताकती रह गई।

’मैं वापस नहीं आऊंगा,‘ कह, उसके कुछ समझ पाने से पहले वह बाहर निकल गया।



‘कहां चले गए थे तुम?’ जैसे ही घर में दाखिल हुआ, विभा ने पूछा। "रामदीन ने तुमसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन तुम दफ़्तर में नहीं थे। फिर उसने मुझे फोन किया और मुझे दौड़ कर घर आना पड़ा। तुम उनके साथ एक दिन रह नहीं सकते थे? वह मर रही हैं और...।‘

वह उसे पीछे छोड़ दौड़ता हुआ मां के कमरे में पहुँचा।उनकी बंद आंखें देख उसका दिल बैठ गया। क्या वे मर गईं? उसने उनकी नब्ज़ देखी। नब्ज चल रही थी पर कुछ मद्धिम। उन्हें करना ही होगा। ज़्यादा वक्त नहीं था। उसे जल्दी करनी होगी।

‘मां,’ वह फुसफुसाया।

उनकी आंखें खुल गईं, ‘टिकट ले आए?’

’वे अनर्गल बड़बड़ा रही हैं,’ विभा दरवाज़े पर खड़ी थी।

’मां, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।’

वे ना में सिर हिलाने लगीं।

‘तुम पछताओगी नहीं’, वह उनके कानों में फुसफुसाया, "अपने तमाम ऊनी कपड़े रख लो। बाहर बहुत ठंड है। चल पाओगी न? मैं तुम्हें उठाकर ले चलूंगा।‘

’मैं चल सकती हूं,’ उन्होंने दृढ़ता से कहा। ‘लेकिन...’

’रास्ते में बतलाऊंगा। अगर तुम्हें ठीक नहीं लगा तो हम लौट आएंगे। मैं वादा करता हूं।‘उन्हें अपनी तरफ संदेह से देखते पा कर उसने जोड़ा।

’उनकी कुछ चीज़ें पैक कर दो।‘उसने विभा से कहा। ‘बस, ज़रूरत भर सामान।‘

’तुम उन्हें कहां ले जा रहे हो? कौन से अस्पताल? मैं चलूं साथ?’

’नहीं, मैं रहूंगा उनके साथ। बाद में तुम्हें बतला दूंगा, हम कहां हैं।‘

कुछ राहत महसूस करते हुए कि उसे साथ चलने को नहीं कह रहा, वह पैकिंग में जुट गई। उसे अस्पतालों से घिन्न आती थी...ऐंटीसेप्टिक की गंध, घिनौने मरीज़, सपाट चेहरे वाली नर्सें, डिटर्जेंट की गंध, सबसे।

‘टैक्सी के लिए फोन कर दो,‘अपने सामान एक ओवरनाइटर में ठूंसते हुए उसने हड़बड़ा कर कहा।

‘मैं तुम्हें छोड़ दूंगी,’ कुछ अपराधबोध अनुभव करते हुए उसने कहा।

’नहीं, नहीं, हम कैब ले लेंगे। जल्दी पहुंच जाएंगे।" उसने अविश्वास से उसे देखा तो उसने जोड़ा," मैं नहीं चाहता, तुम तेज़ ड्राइव करो।"

कंधे झटक कर उसने रिसीवर उठा लिया।



उन्हें घर छोड़े चार दिन हो गए थे। हैरानी की बात यह थी कि उसने फोन नहीं किया था, न घर, न दफ़्तर। उसकी परेशान सेक्रेटरी के कई फ़ोन आए थे। बेवकूफ लड़की, इतनी घबराई, इतनी परेशान। विभा ने उससे कहा कि वह उसके सारे अप्वाइंटमेंट रद्द कर दे- एक हफ़्ते के लिए, एक महीने के लिए या जब तक ठीक समझे, तब तक। वह इसी लायक है! उसने यह बतलाने की भी जहमत नहीं की कि वह है कहां? ठीक है, उसे अस्पताल नापसंद थे, लेकिन कम-से-कम एक बार जाकर उन्हें देख तो आती। ज़रूरत पड़ जाती तो शायद साथ भी रह लेती। क्या वे मर चुकीं? नहीं, कदापि नहीं। तब वह उन्हें घर ले आता- यानी उनके शव को। उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। उसे शवों से और ज्यादा नफ़रत थी।

ठीक है, अभी वह अपने दोस्तों के साथ लंच के लिए जा रही थी। तो बुरी बातों का खयाल क्यों करे, गाड़ी की चाबी उठाते हुए उसने सोचा। वह अपनी छुट्टियों का पूरा इस्तेमाल करेगी। कौन जानता है, कब उसे शोक मनाना पड़ जाए। वह खयाल ही दिल डुबाने वाला था। तभी घंटी बजी। उसे किसी के आने का इंतज़ार नहीं था। ठीक है, जो होगा, जल्दी विदा कर देगी। वह तेज़ी से दरवाज़े की तरफ बढ़ी...और अचंभित खड़ी रह गई, जब सामने हंसते रोहित को खड़े देखा।



‘आखिर तुम थे कहां?’ हड़बड़ाई सी वह बोली।

’मैंने उड़ान भरी...बर्फ भी पड़ रही थी। क्या तुम मानोगी, मैंने वाकई बर्फ देखी’, पीछे से बूढ़ी औरत चहचहा रही थी।

हैरान, उसने अपनी सास को घूरा। हे भगवान! बीमार सास काफ़ी नहीं थी क्या जो अब एक खिसकी बूढ़ी औरत से भी निबटना पड़ेगा।

’क्या तुमने कभी बर्फ देखी है, बहू?’

’हां, कई बार,’ विभा ने सर्द आवाज़ में कहा, "मैं शिमला में पढ़ी हूँ।"

‘लो, मैं भूल ही गई थी। क्या वहाँ हर साल बर्फ पड़ती है? तब अगली सर्दी में हम सब चलेंगे,‘ वे खुशी से हंस रही थीं।

रोहित ने कुछ शर्मिन्दगी से पत्नी को देखा। बूढी औरत खुशी-खुशी अपने कमरे की तरफ़ जा चुकी थी।

‘तुम उन्हें यहां क्यों ले आए?’ विभा फट पड़ी, ‘क्या तुम सोचते हो, मैं एक पागल के साथ रहूंगी?’

’वे पागल नहीं हैं विभा। उन्होंने वाकई बर्फ देखी है। हम श्रीनगर गए थे। मेरा इरादा अगले दिन लौट आने का था, लेकिन हम फंस गए...‘

’वाकई? जाते वक़्त मुझे बतला कर नहीं जा सकते थे? टिकट तो पहले से ले रखे होंगे न?" उसने तंज़ से कहा।

‘पहले कोई योजना नहीं थी। वह मर रही थीं और हवाई जहाज़ में बैठना उनकी आख़िरी इच्छा थी। मैं- मैं बस, यों ही, अंतःप्रेरणा पर टिकट ले आया- बतलाने का वक़्त नहीं था।‘ उसने बेबसी से पत्नी के खीझे चेहरे को देखा। उसे नाराज़ होने का हक है। कम से कम...

’पर श्रीनगर क्यों? बर्फ, वाह! करिश्मा ही समझो कि वे मरी नहीं।‘

’वे बेहद ख़ुश थीं। हवाई जहाज़ में बैठते ही उन पर जादू हो गया। और बर्फ...वे सातवें आसमान पर थीं। मैंने उन्हें कभी, एक बार भी इतना खुश नहीं देखा। वे तो बर्फ पर चलना भी चाहती थीं,‘ वह हंसा।

बर्फ पर चलना! लंबे समय से भूली बचपन की तमन्ना लौटी और विभा का दिल जोर से धड़क उठा। हर जाड़े में जब शिमला में बर्फ पड़ती और स्कूल की लंबी छुट्टी में वह अपने मम्मी-पापा के साथ मैदान में होती तो बर्फ के लिए मचलती। कुछ दिन ठहर कर पहली बर्फ देखने के उसके सहमे सुझाव को उसके पिता ‘बेतुका’ बतला कर ख़ारिज कर देते। "उस खाली बोर्डिंग हाउस में तुम ठिठुर कर मर जाओगी," उसकी मां का फैसला होता।

एक बार उन्होंने उसकी इच्छा के आगे हार मानी थी और उसे बर्फबारी दिखाने ले गए थे। जब वे पहुंचे थे, तो धूप खिली मिली थी और संतुष्ट पिता ने उसका पूरा फ़ायदा उठाते हुए अपनी मॉर्निंग वॉक ज़ारी रखी थी। ‘बर्फ पड़े या नहीं, चार दिन में हम लौट जाएंगे’, उनका अकाट्य फैसला था। आख़िरी सुबह जब वह जगी तो पिता बेचैन टहल रहे थे और मां धीरे-धीरे कुछ बुदबुदा रही थी। बाहर बर्फ पड़ रही थी। उसने दरवाज़े की तरफ ज़ोरदार दौड़ लगाई, लेकिन मां ने बेरुख़ी से उसे वापस खींच लिया। खिड़की से नाक सटाए, वह बर्फबारी देखती रही और उसके मां-पापा जल्द से जल्द वहाँ से निकलने की गुंजाइश पर बहस करते रहे।

‘इस बार मैं मफ़लर ले चलूंगी- बर्फ में घूमने के लिए ज़रूरी है। मेरे पास कुछ ऊन पड़ी है...एक तुम्हारे लिए भी बुन दूंगी, रोहित। और तुम्हारे लिए भी बहू, अगर तुम साथ चलो," वे वहां खड़ी चहक रही थीं।

हैरान विभा ने एक झुर्रियाए चेहरे को अपनी तरफ़ उम्मीद से देखते पाया। पहली बार, उसने वाक़ई उन्हें देखा, उनसे अजीब-सा लगाव महसूस किया। उसे हैरानी हो रही थी कि वह, ऊँचाई पर पहुँची, कामयाब करिअर वूमन, एक सीधी-सादी अनपढ़, घर में बंद औरत के साथ, अरसे से संजोया सपना, साझा कर सकती है। हां, वे एक जैसी हैं, वे दोनों, बर्फ से जुड़ी हुईं।

’कौन सा रंग पसंद करोगी?’ बर्फ-सी उजली आवाज़ पूछ रही थी।

‘सारे ... इंद्रधनुष जितने रंग,‘ उसने खुशी खुशी जवाब दिया।

‘मुझे नहीं लगता, मेरे पास उतने रंग हैं,‘ बूढे़ चेहरे ने याद करने की कोशिश की।

‘फिक्र मत कीजिए। मैं ला दूंगी।‘अपना बैग उठाते हुए विभा हंसी। उसे देर हो रही थी, उसके दोस्त इंतज़ार कर रहे होंगे।

‘तुम जा कहां रही हो?’ एक हंसते चेहरे से दूसरे हंसते चेहरे को देखते हुए, हैरान  रोहित ने पूछा।

‘ऊन लाने के लिए।‘उसकी मां हंसी।

मूल अंग्रेज़ी से अनुवादः प्रियदर्शन