Tuesday, August 1, 2017

किले में छेद (कहानी ) - रंजना जायसवाल








वरिष्ठ लेखिका रंजना जायसवाल कविता और गद्य दोनों विधाओं में सिद्धहस्त है!  उनकी नई कहानी  'किले में छेद' में  मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार का सूक्ष्म विश्लेषण है!  जीवन में नैतिकता और जरूरतों के बीच का चुनाव सबके लिए इतना मुश्किल नहीं होता!  पढ़िए उनकी यह बहसतलब कहानी और हाँ  प्रतिक्रिया देना न भूलिएगा!



सीमा मेरी बहुत ही घनिष्ठ मित्र है हालांकि वह उम्र में मुझसे कई साल छोटी है |दरअसल उसकी बड़ी बहन असीमा मेरी क्लासमेट थी |दोनों का एक-दूसरे के घर खूब आना-जाना था |इसी आने-जाने के क्रम में  मेरी दोस्ती सीमा से हुई |सीमा उम्र में छोटी होते हुए भी असीमा से ज्यादा मैच्योर थी |सुलझी हुई ....सलीकेदार और बहुत ही सुंदर |वैसे सुंदर तो असीमा भी थी ,पर सीमा के चेहरे और आँखों में अजीब सी मासूमियत थी |वह जो कुछ बोलती ...तोलकर बोलती |उससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला |वह बहुत अच्छा पेंटिंग बनाती थी |उसकी कई लड़कों से दोस्ती थी ,पर वह किसी को नहीं बताती थी ,मुझे भी नहीं |पूछने पर साफ कह देती –दी ,यह मेरे वसूलों के खिलाफ है |मेरे हिसाब से किसी को भी अपना पर्सनल किसी से भी शेयर नहीं करना चाहिए |कौन जाने कोई कब इसका फायदा उठा ले ?’मुझे उसकी यह बात अच्छी नहीं लगी क्योंकि मैं उससे कोई भी बात नहीं छिपाती थी |मेरा तर्क यह रहता था कि जब मैं कुछ गलत करती ही नहीं ,फिर क्या छिपाना ?पर जब वह ऐसे लोगों को बेवकूफ कहती ,तब मुझे लगता यह कि क्या यह मुझे भी बेवकूफ समझती है?

एक बार एक दोस्त के अफेयर पर उसने टिप्पणी की-यह लस्ट है ,प्रेम नहीं |’ तो मुझसे नहीं रहा गया मैंने कहा –दूसरों का प्रेम हमें लस्ट लगता है और अपना लस्ट भी प्रेम |
तब वह मेरा मुंह ताकती रह गयी |मेरी बात उसे कहीं गहरे छू गयी थी और उसने फिर किसी के प्रेम सम्बन्धों पर टिप्पणी नहीं की |

समय बीताअसीमा की शादी हो गयी |नौकरी के कारण मैं भी दूसरे शहर की वासी हुई पर उससे संपर्क बना रहा | जब मैंने अपने आदर्शवाद में एक साधारण,बेरोजगार,दलित युवक से विवाह का निर्णय लिया तो वह बहुत नाराज हुई |फोन पर देर तक मुझे समझाती रही |उसने कहा –शादी के लिए लड़के में कुछ तो होना ही चाहिए |या तो वह इतना स्मार्ट और सुंदर हो कि देखकर ही मन प्रसन्न हो जाए या तो खूब अमीर हो ताकि जीवन ऐशो-आराम से कटे या किसी बड़े पद पर हो ,ताकि आपका भी मान बढ़े या फिर अपनी जाति और उम्र का खाते-पीते घर का ठीक-ठाक लड़का हो |पर आप जिस लड़के से शादी करने जा रही हैं उसमें तो इनमें से कोई भी क्वालिटी नहीं |न रूप-रंग,न पद ,न धन न अपनी जाति ही |क्या देखकर रीझी हैं ?यह एक दिन का सौदा नहीं है ,पूरे जीवन की बात है |यदि आप सोचती हैं कि आपसे हर बात में कमतर लड़का आपकी इज्जत करेगा तो भूल जाइए |ऐसे लोग जबर्दस्त हीन भावना के शिकार होते हैं विशेषकर पुरूष |वे अपने से श्रेष्ठ स्त्री को बरदास्त ही नहीं कर सकते | वे जब स्त्री से खुद को कमतर पाते हैं तो ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं और अपना काम्प्लेक्स किसी न किसी माध्यम से स्त्री को प्रताड़ित कर निकालते हैं |
पर मैंने उसकी बात नहीं मानी ,क्योंकि लड़के में एक विशेष गुण की उसने चर्चा नहीं की ,वह है –एक बेहतर इंसान होना |अशोक में भले ही अन्य गुणों का अभाव था  ,पर वे एक बेहतर इंसान लगे थे|



पर वर्ष बीतते बीतते मुझे अपनी गलती का अहसास होने लगा |अशोक की अप्रकट ही भावनाओं ने मेरे आत्मविश्वास को निगलना शुरू कर दिया |मैं ठगी गयी थी |सीमा की बातें सही साबित हुई थीं |आखिरकार मैं अशोक को नहीं झेल पाई और उससे अलग हो गयी |संवेदना ,प्रेम और विश्वास से रहित रिश्ता मैं नहीं जी सकती थी |मेरे अलग होने के निर्णय की सीमा ने सराहना की |
कुछ समय बाद सीमा की भी शादी हो गयी |लड़का [सुदीप]सुंदर ,पढ़ा-लिखा और बड़े शहर का था |अपना बिजनेस था |खाता-पीता मध्यमवर्गीय परिवार था |सीमा जैसी सुन्दर ,गुणी लड़की को पाकर सुदीप निहाल हो उठा ,पर सीमा उतनी खुश नहीं थी |सुदीप के परिवार वाले शहर में रहने के बावजूद विचारों और रहन-सहन से देहाती थे |सुदीप भी बस कपड़ों से ही आधुनिक दिखता था |उसने सीमा की पेंटिंग्स की बेकद्री करते हुए स्टोर में रखवा दिया |उसके अनुसार –सजावट की बहुत सी वस्तुएँ बाजार में सस्ते दामों में उपलब्ध हैं तो इतनी महंगी पेंटिग क्यों बनाई जाए ?’ वह बड़ा ही शंकालू किस्म का था |सीमा के ज्यादा माके आने-जाने पर भी उसने रोक लगा दी थी |सीमा मशीनी गुड़िया की तरह घर-गृहस्थी में रमी अपना व्यक्तित्व ,यहाँ तक की अस्तित्व भी भूल चुकी थी | 

कभी-कभार उसके मायके वाले घर में उससे मुलाक़ात होती थी तो उसे देखकर बड़ा दुख होता था |वह एक दबी हुई घरेलू टाइप की औरत लगती |उसकी सुंदरता धूमिल प गयी थी |पुरानी तेजस्विता जाने कहाँ लुप्त हो गयी थी |वह ससुराल के सारे अन्याय चुपचाप सह रही थी क्योंकि जानती थी कि माके वाले अपनी इज्ज के कारण अपने पास रखेंगे नहीं और मेरी तरह पति से ग होकर समाज को सहना उसके बस की बात नहीं थी|वैसे भी उसने एक बार कहा था –बहू को ससुराल में रहकर ही अपना हक पाने की कोशिश करनी चाहिए |अलग होना तो उनका मनचाहा करना है |
चौदह वर्ष बीत गए |सुदीप के माता-पिता चल बसे |बहनें ब्याह कर ससुराल चली गईं |छोटा भाई भी बंटवारा करके अलग रहने लगा |अब घर में सुदीप,सीमा और उनकी दो बच्चियाँ थीं |अब वे ठीक ढंग से रह सकते थे पर सुदीप जस का तस था | उसने सीमा और बच्चियों को जैसे कैद कर लिया था |वह अपने घर को किला कहता था ,जिसमें कोई भी रोशनदान या खिड़कियाँ नहीं थीं ताकि बाहरी दुनिया से आँख-मिचौली खेला जा सके |उसके इस व्यवहार और मानसिकता से बेटियाँ भी चिढ़ती थीं और मन ही मन पिता से विरोध भाव रखती थीं |इस विरोध को हवा देने का काम सीमा बीच-बीच में करती रहती थी |अपनी दमित अतृप्त इच्छाओं को वह बेटियों के माध्यम से पूरा करने लगी थी |उन्हें लेटेस्ट फैशन के कपड़े खुद सिलकर पहनाती |पैसे की किल्लत थी |पति खाने –खर्चे से ज्यादा देता नहीं था ,पर वह उसमें से ही कुछ बचा लेती |बेटियों के बड़ी हो जाने के बाद सुदीप सीमा को [शंकालू रहते हुए भी ]थोड़ी छूट देने लगा था |सीमा खुद बाजार-हाने लगी थी|अब वह किशोर बेटियों को लेकर शंकित था |

दो वर्ष बाद एक विवाह समारोह में सीमा से मिलना हुआ तो मैं उसे देखकर दंग रह गयी |उसका मानो कायाकल्प हो गया था |किसी सेलिब्रेटी की तरह ग्लैमरस दिख रही थी |रूप-रंग में गजब का निखार था!

डिजायनर कपड़े और गहने पहने हुए थी |उसका पर्स,चश्मा,मोबाइल,सैंडिल सब कुछ उसकी अमीरी का प्रदर्शन कर रहा था |बेटियाँ भी कीमती,आधुनिक कपड़ों में थीं |क्या सीमा को कोई जादू की छड़ी मिल गयी है या फिर अलादीन का चिराग ?जहां तक मुझे पता था सुदीप अभी तक उसी आर्थिक अवस्था में था और आय का अन्य कोई साधन भी नहीं था |होगा कुछ ...मैंने सोचा ...हो सकता है पुश्तैनी जायजात का कुछ हिस्सा बेच दिया हो ,पर सुदीप तो पत्नी और बेटियों को सादगी में रखने का पक्षपाती था | वह तो इतने महंगे हने ...कपड़े नहीं खरीद सकता |

मिलने पर सीमा ने बताया भी कि सुदीप अभी तक वैसे का वैसा ही है |वह खुद ही अपने तथा अपनी बेटियों का शौक पूरा करती है |खुद चीजें खरीदती है और कह देती है कि मायके से मिला है |माके वालों की संपन्नता को देखते हुए सुदीप को शक भी नहीं होता |और फ्री में मिले कपड़े पहनने से उन्हें रोक भी नहीं पाता |हाँ,जब नाराज होता है तो फिर से पत्नी और बच्चियों को बुर्के में रखने की बात करता है |

सीमा खुश दिख रही थी पर उसके चेहरे का भोलापन गायब था |उसके अंदर एक अजीब –सी बेचैनी मैंने देखी |पर सीमा ने पूछने पर भी कुछ नहीं बताया |बार-बार वह फोन में व्यस्त हो जाती थी |
इस बार गर्मियों की छुट्टी में मैं दो-चार दिन के लिए उसके पास गयी तो उसने झट मेरे साथ माके जाने का प्लान बना लिया |उसके ससुराल और मायके के बीच मेरा घर पड़ता था |तय हुआ कि एक-दो रोज वह मेरे घर रूकेगी और फिर मायके जाएगी |अपना काम छोड़कर सुदीप जा नहीं पाता पर मैं गार्जियन की तरह साथ थी ,इसलिए उसने खुशी-खुशी जाने की इजाजत दे दी |वैसे भी मायके से काफी कुछ लाद-फांदकर सीमा लाती थी जो उसे अच्छा लगता था |अब उसे क्या पता था कि वह सब कुछ सीमा खुद खरीदती है |

हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे |रास्ते भर सीमा फोन पर किसी से बातें करती रही थी |स्टेशन से थोड़ी दूर पर सीमा ने टैक्सी रूकवा दी |हम उतरे ही थे कि एक बड़ी -सी गाड़ी हमारे पास आकर रूक गयी |गाड़ी से एक अधेड़ अमीर आदमी उतारा और उसने मेरे पैर छू लिए |सीमा और बच्चियाँ उसे देखकर मुस्कुराई |...तो ये है सीमा की जादू की छड़ी ...अलादीन का चिराग |आदमी में कहीं से भी कोई सौंदर्य नहीं था |सुदीप के मुक़ाबले तो वह कुछ भी नहीं था ,पर स्वभाव से बड़ा विनयी और भक्त किस्म का था |सीमा और वह दोनों हर बात में जय माता दी कहते थे |हम उसकी कार से ही चले |सीमा उस आदमी के साथ आगे पत्नी की ठसक से बैठी और मुझे बच्चियों के साथ पिछली सीट पर बैठना पड़ा |कार अगले शहर के एक बड़े होटल के पास रूक गयी |सीमा ने मुझसे कहा –इस शहर में घूमने की कई सुंदर जगहें हैं |एक दिन रूक कर चलेंगे |मैं क्या करती ?मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था |बरसों की दोस्ती को एक झटके में तोड़कर आगे बढ़ जाना भी ठीक नहीं लग रहा था |बच्चियाँ उस आदमी से काफी हिली-मिली थीं |वे उससे फरमाईशे किए जा रही थीं |एक नार्मल फैमिली की तरह सब व्यवहार कर रहे थे जैसे वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों |बस मैं ही नाना विचारों से घिरी हुई थी |मुझे अटपटा सा लग रहा था |जैसे किसी धर्म संकट में फंस गयी होऊँ|आदमी ने दो रूम बुक कराया |एक मेरे और बच्चियों के लिए दूसरा अपने और सीमा के लिए |शाम को सभी नहा-धोकर घूमने निकले फिर लौटकर खाना खाया और सोने के लिए अपने-अपने कमरे में आ गए |न सीमा के चेहरे पर कोई शिकन थी न बच्चियों के |आदमी भी बिलकुल सामान्य था जैसे वे लोग अक्सर इसी तरह रहते आए हों ,बस एक मैं ही थी ,जो असामान्य हुई जा रही थी |




सीमा ने मुझसे हँसकर कहा-अगर सुदीप का फोन आए तो कह दीजिएगा आपके घर पहुँच गयी हूँ |यह झूठ भी मुझे बोलना पड़ा |रात भर मेरी आँखों के सामने सुदीप का चेहरा डोलता रहा |बेचारे ने कितने विश्वास के साथ अपने परिवार को मेरे साथ भेजा था ,पर मैं उसे धोखा दे रही हूँ |मैं क्यों ,मैं तो खुद इस्तेमाल की जा रही हूँ |धोखा तो उसे उसकी फैमिली दे रही है |उसके खिलाफ कितना बड़ा मोर्चा तैयार हो गया है और वह है कि अपने किले को और मजबूत बनाने में लगा हुआ है |

सीमा के माके से भी फोन आ रहा था कि कहाँ तक पहुंची |सीमा के आने की खबर उन्हें थी |सीमा ने उनसे भी कह दिया कि मेरे घर है |दूसरे दिन आएगी |उधर से कुछ कहा गया |सीमा ज़ोर से हंसी पर मुझे कुछ नहीं बताया |पर मैं जानती थी कि क्या कहा गया होगा |सीमा के मायके वाले मुझे पसंद नहीं करते थे ,क्योंकि मैंने अपने पति को छोड़ दिया था |वे सोचते थे मेरे घर आने-जाने से शरीफ बहू-बेटियाँ बिगड़ सकती हैं |उसके घर वाले ही क्यों ,ज़्यादातर लोगों को यही लगता है |लोगों को मुझसे खतरा महसूस होता है |मेरा अपराध यह है  कि मैं एक अनिच्छित रिश्ते को नहीं ढो पाई ,पर जो किया सामने किया ।किसी को धोखा तो नहीं दिया |ऐसे वैवाहिक रिश्ते से क्या लाभ,जहां पति या पत्नी अन्य सम्बन्धों में सुकून ढूंढते हो |उस साथ का क्या मतलब ,जहां दो के बीच कोई तीसरा हर घड़ी मौजूद हो |आर या पार के सिद्धान्त पर चलना इतना बुरा क्यों है ?दुनिया के सामने पति पत्नी का दिखावा और पीठ पीछे अफेयर्स |पर दुनिया में यही सब ज्यादा चल रहा है |तोड़ना गलत है,घसीटना नहीं |समाज धोखा खाने का आदी है सब कुछ जानकार भी आँखों पर पट्टी बांधे रखता है |बड़े तो बड़े अब बच्चे भी इसी दर्शन को अपनाने लगे हैं |उन्हें कुछ भी अटपटा नहीं लगता ,बस उनकी जरूरतें पूरी होती रहे |यही संसकार उन्हें दिया जा रहा है |यही आज का फैशन है |इस मायने में मैं ओल्ड फैशन हूँ |मुझे लग रहा है कि सीमा की बेटियाँ मुझे पसंद नहीं करतीं |वो तो सीमा के दबाव के कारण थोड़ा-बहुत लिहाज कर जाती हैं |उनकी हर बात में बनावट है ...दिखावा है |काम निकालने की कला सीख ली है उन्होंने | वे बकायदा कल के लिए प्लान बना रही हैं कि अंकल से क्या-क्या खरीदवाना है ?




बड़ी बेटी इस समय अट्ठारह की है ,पर लगती चौदह की है |उससे छोटी की उम्र चौदह की है |वह अपनी उम्र के हिसाब से ठीक है | दोनों ही खुद को ओवर स्मार्ट समझती हैं |हर समय फैशन,मोबाइल और स्टाइल की बातें ....|उनके पास न तो कोई विचार है ...न तमीज |उन्हें पता है कि उनकी माँ होटल के दूसरे कमरे में किसी दूसरे आदमी के साथ है,पर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं प रहा है |सबसे बड़ी बात  वे एक शब्द भी माँ के खिलाफ नहीं बोल रही हैं |माँ-बेटियों में गज़ब की अंडरस्टैंडिंग है |मैंने एक बार हल्के से बड़ी बेटी को कुरेदा भी तो वह अपने पिता को गलत और माँ को सही ठहराने लगी और बाद में यह बात सीमा को बता भी दी कि मैं उनकी थाह लेने की कोशिश कर रही थी |वे अपने पिता या किसी को भी ये भनक नहीं लगने देती थीं कि सीमा किसी के साथ रिश्ते में है |उन्हें तो यह भी अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं साथ हूँ और सारी बात जान गयी हूँ ,पर सीमा ने शायद उन्हें समझा दिया था कि मुझसे बात आउट होने का कोई खतरा नहीं |मैं वो पर्दा हूँ जिसकी आड़ में वे दो दिन एक फैमिली की रह रह सकेंगे |

पहले मैं समझती थी कि सीमा की बेटियाँ बहुत भोली हैं ...शायद कुछ नहीं समझती हैं |पर बाद में लगा कि सीमा ने उनका ब्रेनवाश कर रखा है कि यह सब कुछ उनके बेहतरी के लिए है |अपने पिता से वे नफरत करती हैं |सीमा ने बचपन से ही उनके मन में पिता के खिलाफ जहर भरा है |सोचती हूँ क्या बच्चियों को बढ़ावा देकर सीमा अपने पति से प्रतिशोध ले रही है ?क्या एक माँ को अपनी बेटियों को ऐसे संस्कार देने चाहिए ?आगे चलकर क्या होगा उनका ?बेटियों को इतना एडवांस बनाने का नतीजा अच्छा तो नहीं ही होगा |एक बार सीमा ने बड़ी बेटी के अफेयर्स के बारें में बताया था, जिससे बड़ी मुश्किल से उसे निकाला गया था | यह बात भी सुदीप नहीं जान पाया था |
क्या होगा आगे ?सीमा का ...बच्चियों का ..?मुझे डर लग रहा है कहीं कल बेटियाँ भी ऐसा ही कुछ करें तो क्या सीमा उन्हें रोक पाएगी ?कहीं उस आदमी ने जवान हो रही बेटियों पर नज़र ड़ा दी तो!..यदि सुदीप सब कुछ जान जाए तो....कहीं यह आदमी पीछा छुड़ा ले तो...|फिर अपनी बढ़ी हुई जरूरतों को कैसे पूरा करेगी सीमा ?और बेटियाँ क्या फिर से घरेलू लड़कियों की भूमिका में आ पाएँगी ?

कल क्या होगा ,ये तो भविष्य के गर्भ में है पर अभी तो सब खुश हैं |मैंने सोच लिया जो भी हो मैं आगे खुद को इस्तेमाल नहीं होने दूँगी |सीमा मेरी आड़ में शिकार नहीं कर सकेगी |बाकी उसकी अपनी जिंदगी है ,जो चाहे करे |

उस घटना के बाद सीमा से मेरी मुलाक़ात नहीं हो पाई है |पर सीमा फोन पर मुझसे घंटों बतियाती है |वह भी उस आदमी की बातें ,उसकी ही प्रशंसा |पति के बारे में हमेशा उपेक्षा से बात करती है |उसकी कोई बात उसे अच्छी नहीं लगती |वह उस दिन की प्रतीक्षा में है ,जब बेटियाँ अपने घर चली जाएंगी और वह आदमी भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो लेगा |फिर दोनों साथ रहेंगे |अभी दोनों अपने-अपने परिवारों के लिए त्याग कर रहे हैं |सीमा बड़े मनोयोग से करवाचौथ करती है|पति की शारीरिक  आकांक्षाओं को पूरा करती है |घर-परिवार संभालती है |रिश्ते-नाते निभाती है |व्रत-उपवास,पूजा-पाठ सब करती है पर एक दूसरे पुरूष से प्यार भी करती है |मैं सोच भी नहीं पाती कि वह इतना कुछ कैसे मैनेज कर लेती है ?उसके हँसते हुए चेहरे और खुशहाल जीवन को देखकर कोई भी ईर्ष्या कर सकता है |


सुदीप तो सोच भी नहीं पाएगा कि उसकी बाहों में लिपटी सीमा किसी और के सपने देखती है |सपना ही क्यों अवसर मिलते ही उसे हकीकत का रूप भी दे देती है |सुदीप पर तरस आता है कि उसने सीमा को खो दिया है पर इसमें सिर्फ सीमा की ही नहीं, सुदीप की भी तो गलती है |आज भी वह अपने घर को किला कहता है |उसे क्या पता उसके किले में कभी का छे हो चुका है |

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व्यक्तिगत परिचय
जन्म – ०३ अगस्त को पूर्वी उत्तर-प्रदेश के परौना जिले में |
आरम्भिक शिक्षा –परौना में |
उच्च-शिक्षा –गोरखपुर विश्वविद्यालय से “’प्रेमचन्द का साहित्य और नारी-जागरण”’ विषय पर पी-एच.डी |
प्रकाशन –आलोचना ,हंस ,वाक् ,नया ज्ञानोदय,समकालीन भारतीय साहित्य,वसुधा,वागर्थ,संवेद सहित राष्ट्रीय-स्तर की सभी पत्रिकाओं तथा जनसत्ता ,राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण,हिंदुस्तान इत्यादि पत्रों के राष्ट्रीय,साहित्यिक परिशिष्ठों पर ससम्मान कविता,कहानी ,लेख व समीक्षाएँ प्रकाशित |
अन्य गतिविधियाँ-साहित्य के अलावा स्त्री-मुक्ति आंदोलनों तथा जन-आंदोलनों में सक्रिय भागेदारी |२००० से साहित्यिक संस्था ‘सृजन’के माध्यम से निरंतर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन | साथ में अध्यापन भी |
प्रकाशित कृतियाँ कविता-संग्रह –
मछलियाँ देखती हैं सपने [२००२]लोकायत प्रकाशन,वाराणसी 
दुःख-पतंग [२००७],अनामिका प्रकाशन,इलाहाबाद 
जिंदगी के कागज पर [२००९],शिल्पायन ,दिल्ली 
माया नहीं मनुष्य [२००९],संवेद फाउंडेशन 
जब मैं स्त्री हूँ [२००९],नयी किताब,नयी दिल्ली 
सिर्फ कागज पर नहीं[२०१२],वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली 
क्रांति है प्रेम [2015]वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली 
कहानी-संग्रह तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि [२०१०]शिल्पायन,दिल्ली 
औरत के लिए [२०१३]बोधि प्रकाशन,जयपुर 
लेख-संग्रह स्त्री और सेंसेक्स [२०११]सामयिक प्रकाशन ,नयी दिल्ली 
उपन्यास -..और मेघ बरसते रहे ..[२०१३],सामयिक प्रकाशन नयी दिल्ली 
त्रिखंडिता [2017]वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली 

सम्मान
अ .भा .अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार[मध्य-प्रदेश]पुस्तक –मछलियाँ देखती हैं सपने|
भारतीय दलित –साहित्य अकादमी पुरस्कार [गोंडा ]
स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान [रांची,झारखंड]|पुस्तक-मछलियाँ देखती हैं सपने |
विजय देव नारायण साही कविता सम्मान [लखनऊ,हिंदी संस्थान ]पुस्तक –सिर्फ कागज पर नहीं |
भिखारी ठाकुर सम्मान [सीवान,बिहार ]
संपर्क –सृजन-ई.डब्ल्यू.एस-२१०,राप्ती-नगर-चतुर्थ-चरण,चरगाँवा,गोरखपुर,पिन-२७३013 |मोबाइल-०९४५१८१४९६७| ईमेल-dr.ranjana.jaiswal@gmail.com

(चित्र : साभार इन्टरनेट से )

Sunday, July 16, 2017

जग्गा जासूस : बहुप्रतीक्षित सागा या म्यूज़िक का ओवर डोज़




कई चेतावनी वाली और कई "ठीक है मनोरंजक है ...लेकिन" वाली पोस्ट्स के बावजूद हम खुद को जग्गा जासूस देखने से रोक नहीं पाए।  रोकते भी कैसे इसकी सो कॉल्ड रिलीज लम्बे अरसे से हमारी चिंता का विषय रही है।  'बर्फी' के बाद से ही अनुराग बासु की इस फ़िल्म की बेसब्री से प्रतीक्षा थी।  रणबीर और कैटरीना की जोड़ी इससे पहले भी खूब पसंद आई है और बर्फ़ी की टीम से उम्मीदों का ज्वार सारी हदें पार कर चुका था।   बेशक़ पिछले साल देखे इसके टीज़र में बर्फ़ी की छाया और लगातार की जा रही तुलना के बावजूद मुझे यकीन था कि आम कन्वेंशनल मुम्बईया फिल्मो से कुछ तो अलग है अनुराग की जग्गा जासूस।  तब आई विद्या बालन की बॉबी जासूस तो इस तुलनात्मक चर्चा से कब की बाहर हो चुकी है तो देखे बिना कुछ भी कह देना फ़िल्म और टीम के साथ नाइंसाफी नज़र आई।

अब पहले इसके प्लस पॉइंट्स का जिक्र करती हूँ।  डायरेक्टर और हीरो दोनों मेरे पसन्दीदा हैं।  रणबीर को मैं ब्रिलिएंट एक्टर नहीं कहती पर इतना तय है वे डायरेक्टर के एक्टर है, बेहद मेहनती और जुनूनी अभिनेता है।  खुशनसीब भी कि उन्हें इम्तियाज़ और अनुराग बासु जैसे हटकर ब्रिलिएंट फिल्ममेकर मिले जो जानते हैं कि सौ बातों के लिए एक एक्सप्रेशन वाले रणबीर में एक मेहनती और जुनूनी एक्टर छिपा है जो एक्शन कहते ही अपना सर्वस्व झौंक देने की कुव्वत रखता है।  उनकी ऑंखें एक जिज्ञासु बच्चे की आँखे हैं  जो सब कुछ सीखने के लिए आपके पैरों में गिरकर भी हासिल करेगा।  कैटरीना कुछ नया नहीं करतीं, यूँ भी डायलाग डिलीवरी और एक्सप्रेशन को लेकर उनकी सीमाएं है और वे एक बंधे बंधाये फ्रेम से बाहर आने को बेताब भी नहीं दिखती।  टूटी फूटी उर्फ़ बादल बागची के रोल में शाश्वत चटर्जी का किरदार फ़िल्म 'कहानी' की तरह इस बार भी छाया हुआ है। बल्कि ये कहने से मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि ये फ़िल्म रणबीर और कैटरीना नहीं, रणबीर और शाश्वत की फ़िल्म है।  प्रीतम का संगीत और अमिताभ भट्टाचार्य की लिरिक्स की जुगलबन्दी बढ़िया पर रवि बर्मन की सिनेमेटोग्राफी फ़िल्म की जान है। फर्स्ट हाफ में भारत और बाद में विदेश (फ़िल्म के मुताबिक अफ्रीका) में फिल्माएं लोकेशन्स इतने शानदार है कि उनकी ताज़गी देर तक जेहन पर काबिज़ रहती है।

फ़िल्म की खामियों पर बात की जाए तो जहां कुछ गाने बेहद शानदार वहीं पूरी फ़िल्म में डायलॉग्स का म्यूजिकल होना बेहद झिलाऊ और ऊबाऊ लगता है।  रणबीर के साथ हकलाने की समस्या है और टूटी फूटी के समझाने पर जब वह गाकर बोलना सीखता है तो वह दृश्य आँखों को नम कर देता है, वहीं फ़िल्म में दोनों की केमिस्ट्री भी अद्भुत है पर पूरी फ़िल्म में यह रिपिटीशन झेलना मुश्किल है।  ऊपर से कैटरीना जो सूत्रधार बनी है पूरी फ़िल्म को जग्गा जासूस के कॉमिक्स की तरह पेश करती हैं।  उनका भी गाकर प्रस्तुति देना रोका जा सकता था।  ये वाकई संगीत का ओवरडोज़ था जिसे मेरे जैसा संगीत प्रेमी भी एक हद के बाद नहीं झेल पाया।  हालाँकि यह प्रयोग सत्तर के दशक में आई "हीर राँझा" में भी किया गया था पर उसके हश्र से हम सब वाकिफ हैं।  ये रिस्क लेने से काश कोई अनुराग को रोक देता।

कहानी बढ़िया ही है।  1995 के पुरलिया कांड से शुरू होकर तथाकथित हथियारों के सौदागर बशीर अलेक्ज़ेण्डर तक पहुंचती है, जिसे ब्लैकमेल करने और उससे जुडी टेप्स और डाक्यूमेंट्स मुहैया कराने का काम  इंटेलिजेंस से जुड़े सौरभ शुक्ला करते हैं जो बादल बागची से ये काम लेते हैं। अपने दत्तक पिता को कैटरीना की मदद से तलाशते जग्गा के उस अंतर्राष्ट्रीय गिरोह तक पहुंचने की कहानी कई बार डायरेक्टर की पकड़ से छूटकर डुबकी लगाती है।  पर कॉमेडी और इमोशन का तड़का बचा लेता है।  फ़िल्म का हटकर होना इसकी सबसे बड़ी खूबी है और इसके लिये इसे पांच में से चार स्टार तो बनते हैं।

तो मेरी तरह देखकर फैसला कीजिये वरना पछतायेंगे कि खराब फिल्मों की भीड़ में एक अच्छी फ़िल्म आपसे मिस हो गई।

Saturday, July 1, 2017

पत्ता टूटा डाल से

विश्व ब्लॉगर दिवस पर आज प्रस्तुत है मेरी एक कहानी......





"
गामे की माँ,  कुछ सुना तूने, पाई बीमार है बड़ा....." 


ईश्वरी देवी ने अपने सिर की सफ़ेद चुन्नी संभालते हुए, घुटनों पर हाथ रख, मंजी पर बैठते हुए ऐलान किया तो मंजी पर बैठी गामे की माँ चौंक गई!


"क्या कह रहे हो भेन जी....पाई बीमार है?  की होया पाई नूं?"  गामे की माँ ने जरा परे सरकते हुए ईश्वरी देवी के बैठने के लिए जगह बनाते हुए कहा!


वहीं समीप ही एक कोने में पीढ़ा डालकर बैठी, सूरज को पीठ दिखा धूप सेंकते हुए माला फेरती सोनबाई ने भी पीढा आगे सरकाकर वार्तालाप में अपनी रूचि दर्शायी! गामे की माँ के अनवरत चलते हाथ ठिठक से गए और कब से युद्धरत ऊन-सलाइयों ने मानो राहत की साँस ली!  सामने के दरवाजे पर खड़ी सूखे तौलिये समेटती विमला देवी और अचार की बरनी संभालती भागवंती भी आकर यही सवाल पूछने लगीं तो ईश्वरी देवी ने सस्पेंस से पर्दा उठाया!


रात मेरे पुत्तर जीते को बताया किसी ने!  जीते का वहां आना जाना है बस्ती में। बीमार तो पहले से चल रहा था, अब उमर भी हो गई, गामे की माँ! हम सब आगे पीछे के हैं! ज्यादा दिन नहीं हैं,  बस जी, चलाचली का टैम समझो!" अपने ठंड से जमे घुटनों को सहलाते हुए, गहरी सांस भरकर वे बोलीं "क्या कहते हो, पता कर आयें एक बार!  फिर रब जाने मिलना हो के ना हो!"


जाड़ों की इस उनींदी सुबह के बीतने पर गली के एक कोने में धूप सेंकती वृद्धाओं के इस समूह के लिए पाई की अहमियत गली के एक मामूली चने-मुरमुरे बेचने वाले वेंडर से कहीं अधिक थी! नई पीढ़ी शायद इस चिंता में इस तरह शामिल न हो पाती पर उन सभी वृद्धाओं ने उदास मन से गामे की माँ की बात पर सहमति की मुहर लगा दी! 




जीवन के इस संध्याकाल में घुटनों और जोड़ों के दर्द से व्यथित, अशक्त झुकते शरीर, कमजोर चश्मा लगी या मोतियाबिंद से धुंधलाई आँखों,  झुर्रियों से भरे चेहरों और सन से सफ़ेद बालों वाली इस पीढ़ी की मेहनतकश जवानी का सूरज तो कब का डूब चुका था और 'चलाचली की बेला' शब्द उनके बीच इस गहराई से पैठ बना चुका था कि अब किसी की बीमारी की खबर उन्हें अलविदा की आहट के समकक्ष सुनाई पड़ती! 'बिछड़े सभी बारी-बारी' की तर्ज पर पुराने साथी साथ एक-एककर साथ छोड़ रहे थे और अपने पीछे छोड़ जाया करते थे यादों का अनमोल, न चुकने वाला खज़ाना! उन्हें लग रहा था, उसी कड़ी में शायद पाई की बारी आ गई थी!  उम्र के उस धरातल पर साथ खड़े हुए उन्होंने बीते वक़्त को वहीं कहीं साथ खड़े पाया!


हिंदी का भाई शब्द जब पंजाबियत की सौंधी मिटटी से जन्मता है तो '' का उच्चारण बदल कर '' के निकट हो जाता है!  पाई का असली नाम शायद ही किसी ने सुना हो पर पुराने लोग बताते हैं कि माँ-बाप का दिया नाम कुंदन सिंह था जो अब बड़े-बूढों-बच्चों सभी के लिए 'पाई' बनकर रह गया था!  उम्र ने साढ़े छह दशक देखें होंगे! छोटा-सा कद, इकहरा शरीर, झुकी कमर और गहरे रंग के चेहरे पर किसी पहलवान सी बड़ी-बड़ी मेहँदी से रंगी मूंछे, उसकी शख्सियत से  बिल्कुल मेल नहीं खाती थीं! सिर पर बचे बालों के विषय में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता क्योंकि सिर हमेशा एक हल्की-सी पगड़ी से ढका रहता था! वह गोल घेरे वाली पंजाबी बुशर्ट पहने रहता, जिसकी बाजुएँ हमेशा मुड़ी रहती और जिसके दोनों तरफ कमर पर दो तथा दाई तरफ सीने पर एक जेब जरूर हुआ करती थी! नीचे के हिस्से में चैक के प्रिंट का एक पंजाबी तहमद (लुंगी) और पांव में आगे से मुड़ी पंजाबी जूतियाँ तो अपना रंग खोने से पहले शायद कभी काली रही होंगी, पाई की खास पहचान थी!



ठीक चार बजे जब वह श्रवण कुमार की तरह अपने कंधे पर बहंगी ले गली के कोने से आवाज़ लगाता दाखिल होता तो माएं आराम कर रहे बच्चों को जगा, शाम की चाय की तैयारी में लग जाती!  ट्यूशन जाने वाले बच्चे अपना बैग सहेजते और बड़े-बुजुर्ग चाय के बाद झोला ले सब्जी-मंडी या ताश पीटने पार्क जाने की सोचने लगते! हमारे घर के निकट चौराहे के एक किनारे पाई की यह छोटी-सी दुकान जमने से पहले ही छोटे बच्चे घरों से निकल कर उस दिशा में भागते जहाँ पाई अपनी बहंगी में जमी दो बड़ी टोकरियों में सामान ठीक कर रहा होता!  बड़े-बड़े लिफाफों और डिब्बों में चना, मुरमुरा, मूंगफली, मीठी खील, चना जोरगरम, दालसेव, दालमोठ, आलू के चटपटे चिप्स, शक्करपारे, गुड़ के सेव, गुड़गट्टा, गुड-पट्टी, तिलपट्टी और भी न जाने क्या-क्या भरा होता जो हम बच्चों के लिए कारूं के खजाने से कम नहीं था!


 
"पाई मुझे चवन्नी के चने चाहिए। नहीं....मीठी खील.... अ-अ-नहीं-नहीं दोनों मिला दो।"


बच्चों की भीड़ बार-बार फरमाइश बदलती, किसी एक पर राजी न हो पाती पर घनी मूछों के पीछे की स्नेहिल मुस्कान को किसी ने कभी खीज में नहीं बदलते देखा था! बच्चे दस्सी, बीसी, चवन्नी से भरे हाथ आगे करते और मनचाही चीज पा ख़ुशी से झूम उठते!  उस भीड़ में पाई की अनुभवी निगाहें उन उदास निगाहों और झिझकते हाथों को जाने कैसे ढूंढ लेतीं जिन्हें आज कोई सिक्का नहीं मिला था और जो डांटकर या कल के वायदे पर फुसलाकार माओं द्वारा टरका दिए होते!  सिक्के वाले बच्चों के ऐन पीछे की कतार में खड़े ऐसे बच्चों की मुस्कान लौटा लाने को पाई के पास 'झुंगा' यानि खट्टा-मीठा गीला चूरन होता था!  वह नन्ही-नन्ही उन हथेलियों पर एक डिब्बे से खींचकर थोड़ा-सा 'झुंगा' या कोई अन्य चीज रख देता!  मुफ्त में मिला ये तोहफानुमा झुंगा पाई का बच्चों के लिए प्यार होता जो सिक्के से भरी और खाली हथेलियों को एकाकार कर देता!  फिर देर तक हवा में बच्चों और पाई की हंसी और ठहाके गूंजते!  उस हंसी के अतिरिक्त उसकी आवाज़ बहुत कम सुनाई पड़ती, हाँ पाई की आँखों की चमक बच्चों के खिलते चेहरों के साथ गहरी होती जाती!


पाई के इर्द-गिर्द जुटने वाली इस भीड़ में दूसरे राउंड में बड़े भी शामिल होते पर पाई का सारा ध्यान उन नन्ही मुस्कानों, उनके नखरों और फरमाइशों पर लगा रहता। वर्षों पहले कभी उस भीड़ में हमारे पिता-चाचाओं-बुआओं का चेहरा हुआ करता था जो धीरे-धीरे समय के साथ हमारे चेहरों में बदल गया था!  फिर पाई के चने-मुरमुरे खाते और झुंगा चाटते हमारी पीढ़ी की  नन्हीं हथेलियां कब चौड़े पंजे में बदलने लगी और झुंगे के लिये फैलने में शर्माने लगी, ये न वक़्त जान पाया न खुद हम।


नब्बे का दशक शुरू हो गया था।  वक़्त तेज़ी से बदल रहा था।  हर साल एक कैलेंडर रद्दी हो जाता और नया दीवार पर टँग जाया करता।  हमारी पीढ़ी की एक पूरी पंक्ति बदल रही थी।  हमारी माएं हम लड़कियों को ताड़-सा बढ़ता देख बड़बड़ाती हुई दहेज जुटाने और पिताओं से तकाज़े करने में व्यस्त हो चली थीं और पिता बेपरवाह दिखने का अभिनय करते  चिंतातुर हो एकांत में अक्सर अपनी जमापूंजी टटोलने लगते थे। पर हमारी पीढ़ी की ऑंखें भविष्य के सुनहरे सपनों से रोशन थीं।  माएं रसोईघर की ओर इशारा कर हमें अन्नपूर्णा बनाना चाहती लेकिन छज्जों पर किताबें ले खड़ी रहनेवाली लड़कियां अब कॉलेज के बाद नए खुले इंस्टीट्यूटो में भविष्य से लड़ने के साधन डिप्लोमाओं की शक्ल में जुटाने लगीं थीं और उन्हें गली में कनखियों से निहारते निकम्मे घूमते लड़के टाई लगाकर किसी फ़ाइल को सीने से लगाये, अक्सर किसी बड़ी कम्पनी के किसी कक्ष में चल रहे इंटरव्यू की लाइन में प्रतीक्षा करते पाए जाते। बचपन हमारे हाथ से रेत की मानिंद फिसल रहा था और इस आपाधापी में हमारी घड़ियां चार बजने का अर्थ बदल चुकी थीं।  हम भूलने से  लगे थे पाई के लिफाफों में छिपी लज़्ज़त का स्वाद और अंकल चिप्स, क्रेकजैक के बिस्कुट, मैगी ने हमारे जीवन में जब चुपके से घुसपैठ की, तो हम वक़्त के साथ अपने जायके के बदलाव को पहचान ही नहीं पाए!


पहले से झुकी पाई की कमर अब एक सौ बीस से नब्बे डिग्री की ओर झुकने लगी थी और बीडी-तम्बाखू के सेवन का असर अक्सर खांसी और उखड़ती सांसों के रूप में सामने आने लगा था!  बढ़ती उम्र के आगे विवश पाई की गैरहाजिरी बढती चली गई और धीरे-धीरे गली भी भूलने की आदत डालने लगी कि चार बजने और चाय पीने के समय का पर्याय पाई कब से गली में नहीं आया था!  नई नन्ही पीढ़ी ने जब कदम बढ़ाना शुरू किया तो वह टॉफी, चोकलेट और कुकीज की दीवानी हो चली थी और हमारी पीढ़ी द्वारा ये मान लिया गया कि अब बढती उम्र की ओर अग्रसर सदाबहार पाई उस बूढ़े वृक्ष की तरह हो गया है जिसके सूख जाने पर लोग भूल जाते हैं कि उसकी छायादार उपस्थिति और फल कभी जीवन का अहम हिस्सा हुआ करते थे!


अलबत्ता साँझ के उसी मुहाने पर खड़ी वे अनुभवी आँखें अब भी कभी-कभी शाम को चौराहे के निकट उस खाली जगह को निहारकर ठंडी सांस ले, धीमी, थकी आवाज़ में ज़माने की रफ्तार की बात कर उदास हो जाया करती जिन्होंने विभाजन की विभीषिका से गुजरकर इस मोहल्ले को दशकों पहले गुलज़ार किया था! पाई ने जिनके साथ चने-मुरमुरे ही नहीं सुख के जश्न और दुःख का मातम भी बांटा था। विशेषकर ईश्वरी देवी और गामे की माँ अक्सर उन दिनों की स्मृतियों में डूब जाती जब उनका और बगल के गाँव से पाई का परिवार उजड़कर पाकिस्तान से यहां आन बसा था।


बंटवारे के दर्दनाक विस्थापन ने उन लोगों के बीच एक सहज अपनापा-सा कायम कर दिया था, जो तमाम वर्ग-विभेद से परे अपनी जगह ताजिंदगी कायम रहा। वे उजड़कर यहां बस तो गए थे पर उनकी जड़ों का एक अदृश्य सिरा आज भी वहीं कहीं अटका था जहां की मिट्टी में उन्होंने पहली सांस ली थी, जहाँ पहली बार लड़खड़ाते कदमों को साध चलना सीखा था। उम्र की साँझ में मन रह-रहकर स्मृतियों की ओर लौटता और अब जब साँसों की ये डोर कमजोर और पुरानी हो चली थी, उन्हें लगता था वे सब एक डाल पर लगे सूखे, जर्द पत्तों की तरह हैं जिन्हें काल की आंधी में समय पूरा होने पर, एक-एक कर बेआवाज़, टूट कर गिर जाना है। कल उनके बुजुर्ग गये, कुछ के पति-पत्नी बिछड़े, तो कुछ के संगी-साथी-साथिनें छोडकर अनंत-यात्रा पर निकल गये, और आज शायद पाई और आने वाले किसी कल को उनकी भी बारी है। 


फिर अगले दिन सुबह चाय-नाश्ता कर वे सब पैदल ही निकल पड़ीं अपने उस बीमार साथी से मिलने, कुछ दूर पर बसी एक स्लम बस्ती की ओर, जहाँ बीते दिनों की यादों के साये में वह अपनी शाम के डूबने की प्रतीक्षा में दिन काट रहा था। इस अप्रत्याशित मुलाकात में फिर समय के वरक पलटे गए, मन लौट चला स्मृति के गलियारों में, जहाँ वे साथ दौड़े, भागे, उजड़े, बसे और फिर धीरे-धीरे बदल गए पीले पत्तों में। आभार की मुद्रा में दोनों हाथ जोड़े, पाई की जर्द भीगी आँखों ने अबोले ही विदा के शब्द बुदबुदाये और वे मन-मन वजनी क़दमों से वे खामोश अपने नीड़ की ओर लौट चलीं! इस मुलाकात ने उनके मन को भारी और दुःख के रंग को और गहरा दिया था।  


सुबह को रोज दोपहर और दोपहर को शाम हो जाना है।  ये कुदरत का नियम है गामे की माँ। हम सब बखत के चक्के के गुलाम हैं।  एक दिन सब पीले पत्तों को गिर जाना है, तभी तो जम्मेंगीं निक्की-नई कोंपले।" ईश्वरी देवी ने दार्शनिक भाव से कहा तो गामे की माँ निर्वात को ताकते हुए सहमति की मुद्रा में सिर हिलाने लगी!


पत्ता टूटा डाल से, ले गई पवन उड़ाय, अब के बिछड़े कब मिलेंगे दूर पड़ेंगे जाय....पास बैठी सोनबाई माला फेरते हुए गुनगुनाने लगीं!


चंद रोज बाद ईश्वरी देवी ने फिर धूप सेंकती वृद्धाओं के समूह को अनमने मन से साँझ के उस दीपक के बुझ जाने की खबर दी जिसने कभी ढेर से नन्हे जुगनुओं को अपनी रोशनी से जगमगाया था।  समय अपनी गति से चलता है, दोपहर ने ढलना नहीं छोड़ा,  घड़ी ने चार बजाने बंद नहीं किये पर नन्ही हथेलियाँ अब कभी झुंगा पाकर नहीं मुस्कुरायेंगी।  डाल से एक पत्ता फिर टूटकर समय की आंधी में खो गया था कभी न लौट कर आने के लिए और बाकी और बाकी बचे पीले पत्ते अब अपनी बारी की प्रतीक्षा में नन्हीं कोंपलों को खिलते देख रहे थे।
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---अंजू शर्मा 


(नवम्बर 2016 में जनसत्ता में प्रकाशित)

Saturday, August 27, 2016

मुकेश के लिए





किसी शाम सोच ने करवट ली
जब मन दार्शनिक हो गुनगुनाया तो गाया
'इक दिन बिक जाएगा माटी के बोल
जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल'

जीने की हर वजह से ऊपर
यदि कोई वजह ढूंढने निकले
तो कानों ने बारहा सुना,
'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द ले सके तो ले उधार'

बचपन को बेचैन हो
जब जब पुकार लगाई तो साथी बना
'आया है मुझे फिर याद वो जालिम
गुज़रा ज़माना बचपन का'

वो स्वर शामिल रहा
बचपन से जवानी के सफ़र की
हर पगडंडी से गुजरते हुए साये की तरह
तब भी जब लफ़्ज़ों को एक शक्ल पाने की
कसमसाहट खींचती रही दामन हर लम्हा

हमारे प्रेम ने मुस्कुराहटों की सौगातें पायीं
और रुमानियत ने हौले से
गर्म आगोश में लिए हुए सुनाया
'तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे जमीं पे बुलाया गया है मेरे लिए'

झिझक की चिलमन के उस पार से झांकती
दो शर्माती आँखें बस यही तो कह सकती थीं
पहले बोसे पर
'तू है तो दुनिया कितनी हंसी है
जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं है'

महबूब की बिंदास चुहल उमड़ी तो शरारतों ने पुकारा
'ओ मेहबूबा, तेरे दिल के पास ही है मेरी मंज़िले-मकसूद
वो कौन सी महफ़िल है जहां तू नही मौजूद'

इश्क़ ने जीभर तारीफों के गहनों से सजाया
और बेतरहा लिपटकर धीमे से कहा
'हाँ, तुम बिलकुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था'

शिकायतों ने अदाज़ सीखा तो आवाज़ दी,
'कहाँ जाते हो रुक जाओ, किसी का दम निकलता है
ये मंजर देखकर जाना'

तकिया भिगोती, पलक पर मोती तौलती
हर उदास रात में गूंजता रहा
'दोस्त दोस्त न रहा, प्यार प्यार न रहा'

उदासियों के पैरहन को
धूसर रंग भी उसी आवाज़ ने सौंपे
जो लरजकर पिघली और समा गई हर शिकवे में
'बहारों ने मेरा चमन लूटकर
खिजां को ये इलज़ाम क्यों दे दिया'

उस जुकामिया आवाज़ की रेंज हमारे दिलों तक थी
और उसकी छाप हमारे संवेदनों पर
हमारी धड़कनों में शामिल रही वह धक धक की तरह
और हमारे दर्द के हर बार पिघलकर बह जाने में
राजदार बनी

लाज़िम है जिसे सुनकर दर्द को दर्द उठे
और ग़म बेचारा भी ग़मगीन हो जाए
उदासियाँ उदास हो सिसकियों में डूबने लगे
जिसके आलाप पर दुःख के पारावार टूटने लगें
जब कसक तरल हो किसी के स्वर में बहने लगे
तो हम जानते हैं उसे किस नाम से पुकारेंगे....