Sunday, May 17, 2015

बॉम्बे वेलवेट यानि उम्मीदों के धराशायी होने की हृदय विदारक दास्तान















बॉम्बे वेलवेट  यानि उम्मीदों के धराशायी  होने की हृदय विदारक दास्तान!  फिल्म इतनी भी बुरी नहीं पर उम्मीदों का वजन इतना ज्यादा था कि उफ़, जरा भी सहन न कर सकी!  मेरे लिए फिल्म में कई आकर्षण थे!  अनुराग कश्यप का निर्देशन, अनुष्का-रणबीर की कैमिस्ट्री, रेट्रो थीम और जबरदस्त पब्लिसिटी! गोवा से शुरू हुई फिल्म ने शुरू में इस उम्मीद पर बांधे रखा कि शायद आगे कुछ कहानी बनेगी! पर नहीं साहब .... फैशन, स्टाइल, सेट्स और लगातार ब्लड शेड के जंजाल में कहानी को सिसकते, दम तोड़ते देखना दुखद अनुभव रहा!  अनुराग के निर्देशन से बहुत निराशा हुई!  उस एरा को क्रिएट करने में वे 200 प्रतिशत सफल रहे पर सिर्फ यही फिल्म मेकिंग होती तो फिल्म वाकई सफल और पैसा वसूल शाहकार कहलाती!  रणबीर और अनुष्का की केमेस्ट्री तो खूब जमी पर हर सीन के अंत में मैंने सेंसर की कैंची की आवाज़ बखूबी सुनी, ये और बात है कि उस शोर में अक्सर डायलॉग्स टोन को दबा दिया गया!  

 सुना था अनुष्का ने सिंगर की भूमिका निभाने के लिए म्यूजिक सीखा, सिंगर्स की कॉपी की, यहाँ तक कि लिप-जॉब करवाया!  पर मैडम अनुष्का सिर्फ पॉउट बनाने से ही कोई सिंगर नहीं बन जाता!  माना कि शुरुआत में  एक्सप्रेशनलेस फेस कहानी की डिमांड था!  एक बच्ची जो चाइल्डएब्यूज की शिकार बनती है, उसके चेहरे पर ये भावहीनता उसके जीवन से मेल खाती है पर बाद में गाते समय की ओवर-एक्टिंग बर्दाश्त के बाहर थी!  अरे सिक्सटीज की हिंदी फिल्मों में ऐसे क्लब सिंगर्स के सीन और गाने बहुत थे!  मैं नहीं समझती कि अनुष्का ने हमारी वीनस क्वीन मधुबाला को 'आइये मेहरबाँ.... " पर गाने का अभिनय करते देखा होगा, अगर देखती तो बॉम्बे वेलवेट में उनका ये हश्र न होता!  अनुष्का को थोड़ी और मेहनत अपने उच्चारण पर करनी चाहिए थी जो 'बैंड बाजा बारात' से लेकर अब तक वही है!   रणबीर ने भी अपने लुक्स पर ही मेहनत की! पर उन्होंने भी खुद को दोहराया भर है!  उनका चेहरा, उनके एक्सप्रेशंस, उनके इंटेलेक्चुअल न होने की चुगली खाते हैं पर ये तो हम अजब प्रेम की गज़ब कहानी में देख चुके हैं!  तो भी वे अनुष्का से बेहतर रहे!  कई दृश्यों में उन्होंने छरहरे शम्मी कपूर की याद दिलाई!  केके मेरे आलटाइम फेवरेट हैं, यहाँ भी पुलिस अफसर के रोल में वे खूब जमे पर उनके पास करने के लिए कुछ खास नही था!  बाकि किरदार भी ठीकठाक ही थे!  

सबसे अधिक मुझे दो चीज़ों ने रुलाया, पहली विलेन के रूप में 'द करन जौहर' की कास्टिंग और दूसरी फिल्म के गाने!  जनाब करन जौहर खुद को टीवी पर इतना एक्सपोज़ कर चुके हैं कि उनके सामने आते ही उनकी तमाम उल्टी-सीधी हरकतें याद आती हैं!  उनकी फिजिक, उनका चेहरा और उनके एक्सप्रेशन कुछ भी रेट्रो विलेन से मेल नहीं खाता!  मेरी सलाह है, करन जौहर टीवी पर उलजुलूल नाचें, नए नए निर्देशक ढूंढकर फिल्में बनवाएं, ओवर-एक्टिंग की दुकान चलायें पर खुदा के वास्ते दोबारा एक्टिंग न करें!  अरे, जिन लोगों ने रेट्रो एरा में अजीत, जीवन, के एन सिंह और प्राण साहब को खूंखार विलेन बनते देखा है वो कहाँ हज़म कर पाएंगे ये खिलवाड़!  हमें बक्श दो करन जौहर, हमारा साथ इतना ही था!  अब आते हैं दूसरी चीज़ पर, यानि म्यूजिक!  सच बताइये आपने धड़ाम धड़ाम दिल सुनकर सर पीटा या नहीं!  उस पर बार बार गीता दत्त का नाम लिया जाना कोफ़्त से भर देता है!  अरे सुनिए तो गीता दत्त को!  वो दौर इतना भी पुराना नहीं हुआ कि लोग गीता दत्त की आवाज़ की शोखी और अदाओं को भूल गए हों!  अजीबोगरीब लिरिक्स पर चीख कर गाती और अजीब शक्लें बनाती गायिका को देखने-सुनने कौन क्लब में आना चाहेगा?  कुछ गानों का म्यूजिक अच्छा है, पर मोहब्बत बुरी बीमारी के अलावा कोई भी मुंह पर नहीं चढ़ा, जबकि क्लब सांग्स  की ये खासियत होती है कि वे लम्बे समय तक जेहन पर काबिज़ रहते हैं!  मोहब्बत बुरी बीमारी में कुछ देर और बीते दिनों की नायिका रवीना टंडन को देखने का मन था पर ये गाना जल्दी ही बैकग्राउंड स्कोर में बदल गया!  

तो कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि बेसिरपैर की कहानी, लाउड म्यूजिक, अनुष्का की ओवर एक्टिंग और उद्देश्यहीन हिंसा को दरकिनार करने का जिगर रखते हैं तो शानदार लोकेशन, साठ के दशक का मुंबई, रेट्रो एरा से लगाव और उस समय की फिल्मों को लेकर अपने नॉस्टैल्जिया के लिए आप ये फिल्म अपने रिस्क पर देख सकते हैं!

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