Monday, June 1, 2015

डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी : मेरी नज़र से






डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी...आप कहेंगे मुझे इतने दिनों बाद इस फ़िल्म का ज़िक्र क्यों सूझा।  दरअसल मैं रिलीज के समय चाहकर भी इसे नहीं देख पाई थी और कल इसे टीवी पर देखा।  इस फ़िल्म को मैं कई वजहों से देखना चाहती थी।  सबसे पहली और अहम वजह थी कि ब्योमकेश बक्शी पर बना सीरियल मुझे खासा पसंद था। यूँ भी मर्डर मिस्ट्रिस में मेरी दिलचस्पी हमेशा से रही है। फिर पीरियड फ़िल्में मेरी कमजोरी हैं और अगर उनकी पृष्ठभूमि कलकत्ता या बंगाल हो तो मिस करना बहुत खलता है।  दिबाकर बनर्जी का नाम ही काफी है और ब्योमकेश बक्शी के रोल में सुशांत सिंह राजपूत को देखने का मोह भी था।  सुशांत टीवी सीरियल्स के दिनों से ही मुझे बहुत शर्मीले और बुझे-बुझे नज़र आते हैं पर एक डांस बेस्ड रियलिटी शो में उन्हें देखने के बाद उनकी क्षमताओं को लेकर बनी तयशुदा इमेज टूट गई।

अब सीरियल की बात करूँ तो फ़िल्म और सीरियल की तुलना करने से खुद को रोकना चाहकर भी संभव न हुआ। सीरियल में ब्योमकेश एक मंजे हुए जासूस हैं जो अपने पत्ते अंत में खोलते हैं जबकि फ़िल्म में उनके जासूसी कैरिअर का शुरुआती दौर है, एक कलकतिया युवा जो अभी खुद को लेकर उतना मुतमईन नहीं। जो गलतियां करता ही नहीं उन्हें मानता भी है।  बेहद उत्साही और जल्दबाज़ भी है।  रजित कपूर का चेहरा उनके इंटेलेक्चुअल होने की ताकीद करते हुए एक अनुभवी और चतुर जासूस की भूमिका में फिट बैठता है जबकि सुशांत पूरी फिल्म में कन्फ्यूजियाए पर बड़े प्यारे लगते हैं!  उनके चेहरे पर बक्शी वाले शांत पर ह्यूमरस भाव कुछ अलग तरह से दिखते हैं! फिल्म में उनकी और अजित की जबरदस्त केमिस्ट्री मिसिंग थी जो सीरियल की जान थी।  याद कीजिये तेज़ गति से चलते, गहरे सोच में डूबे ब्योमकेश और उनके साथ दौड़ते हुए उन्हें समझने की कोशिश में परेशान अजित बाबू!   फ़िल्म देखते हुए रजित कपूर और रैना की वो केमिस्ट्री जेहन से जाती ही नहीं थीं क्योंकि यही वो केस है जहाँ अजित के पिता की हत्या की गुत्थी सुलझाते हुए दोनों करीब आते हैं और वो बैकग्राउंड सिग्नेचर ट्यून, उसके बिना ब्योमकेश बक्शी देखने का मज़ा अधूरा रहा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अफीम की तस्करी और उसके लिए हुई गैंगवार से शुरू हुई फिल्म एकाएक  साधारण मर्डर केस की छानबीन से गति पकड़ती है जो कतई साधारण नहीं और जिसके तार न केवल तस्करी, गैंगवार बल्कि जापान के संभावित हमले तक से जुड़ते हैं!  इसी मर्डर की तहकीकात के दौरान ब्योमकेश एक के बाद एक राज से पर्दा उठाता जाता है!

फ़िल्म में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए स्वस्तिका मुख़र्जी से बेहतर क्या हो सकता था, इसके लिए उन्हें और उनका सटीक उपयोग करने के लिए दिबाकर को पूरे अंक दूंगी।  उनका गहरे मेकअप से सजा दिलकश चेहरा और कामुक अदाएं उनके रोल के लिए परफेक्ट थीं वहीं सत्यवती के रोल में दिव्या मेनन भी खूब जमी हैं हालाँकि ये लव वाला एंगल न भी होता तो फिल्म ज्यादा विश्वसनीय लगती!  च्यांग ने अपना रोल निभा भर दिया, उनके पास करने के लिए कुछ था भी नहीं!  खलनायक डॉ गुहा के रोल में नीरज कबी ने पूरी फिल्म में अपने अभिनय से प्रभावित किया पर अतिरंजित नाटकीय अंत पूरी फिल्म की सहजता पर हावी हो गया!  फिल्म का अंत पूरी फिल्म से अलग दिखा!  जिस सनसनी से दिबाकर पूरी फिल्म में बचने में कामयाब रहे वही अंत में उन पर हावी हो गई!  कुल मिलाकर इस फिल्म के नायाब सेट्स और फिल्मांकन और दिबाकर के चुस्त निर्देशन के कारण ये फिल्म वक़्त की बर्बादी नहीं लगी तो भी ये जरूर कहना चाहूंगी कि इसे यादगार फिल्मों में शुमार करने से पहले रुककर सोचना पड़ता है!  मैं इसे दोबारा देखने की बजाय यू ट्यूब पर ब्योमकेश बक्शी सीरियल ढूंढना ज्यादा पसंद करुँगी!

Friday, May 29, 2015

चीनी मिट्टी- रेशम पानी (कहानी) - अनघ शर्मा








युवा कथाकार अनघ शर्मा की यह कहानी धर्म की चमकीली दुनिया के परदे के पीछे के काले  अंधेरों की शिनाख्त ही नहीं करती बल्कि तमाम परतों को उघाड़कर उसे सच का आइना भी दिखाती है!  अनघ की किस्सागोई का अंदाज़ मुझे पसंद आया! आप भी पढ़कर देखिये…… 


1.

"आह्लाद की रेशमी डोरी हो या विषाद का सूती बिछौना, स्मृति में बंद पहले प्यार का सूखा गुलाब दोनों में बराबर ही महकता है ,उसने कहीं सुना था ये।" पर उसकी स्मृति में सिर्फ़ गुलाब ही नहीं तमाम संसार बंद था और जिसकी महक उसके अंदर हर पल ठाठें मारती रहती थीं। कितनी बड़ी चौखट थी उस घर की जैसे किसी ने बुलंद दरवाज़े की नकल उतार के जड़ दी हो।  धूप-छाँव बिना उसे पार किये दालान में उतर नहीं सकते थे। वो बेल-बूटे, लकड़ी के फूल अब उसकी यादों में कुलबुलाते हैं। अजब-गज़ब सी आवाज़ें अंदर गूंजती रहती हैं जैसे खाली मैदान में हवा की सनसनाहटें। और यहाँ हॉस्टल के बंद कमरे में उसका दम घुटता था।

"कौन? कौन है वहाँ ?" उसने चीखना चाहा पर बोल नहीं निकले।

अवचेतन में से एक आवाज़ गूंजी।

"मृत्यु, मृत्यु अवश्यम्भावी है, जन्म टाला जा सकता है पर मृत्यु नहीं। हर हाल में आने वाली घड़ी है ये,किसी युक्ति से नहीं रोकी जा सकती। "

"कौन है खिड़की पर?तुम हो क्या चक्कूमल?हाँ तुम ही तो हो तुम्हारी अंगूठियां दीख रही हैं मुझे। उसने बुदबुदाहट में कहा। बुखार की झोंक उसे फिर अतीत में बहा ले गयी।

"अच्छा सुनो!तुम भी मुझे औरों की तरह पंडित जी बुलाया करो चक्कूमल नहीं।"

और तुम क्या बुलाओगे मुझे?"

"कीर्ति "

ऊँहूँ …… मिस सरकार बुलाओ …पता है पिछली दफ़ा इसी नाम से फ्रॉड किया था मैंने, और फिर पकड़ी भी गयी थी, उसने कहा।

वो हँस पड़ा ये सुन के।

पर बुखार की दवाईयों ने उसमें हंसने की ताक़त भी नहीं छोड़ी थी। उसने करवट ले खिड़की की तरफ़ पीठ कर ली और वापस औंघासूती में डूब गयी।

चक्कूमल शुगर वल्द नानकमल शुगर वल्द मानकमल शुगर हाज़िर हों………वो चौंक कर जाग गयी। चौक की घड़ी ने तीन बजाये,चाँद बादल में सरक गया, प्यास ने गले में दस्तक दी।
उसने पानी से एक गोली निगली और साथ ही चक्कूमल की याद भी।

पर कौन थे ये दोनों ? पखावज से निकली कोई ताल? समय के बाहुपाश से छूटे कोई अजब किरदार? कोई नहीं जानता था कि ये दोनों कौन थे?

ये समय के अद्भुत दस्तावेज़ थे। वो वरक़ थे जिन पर जीवन का लिट्मस टेस्ट होना था।  खुली खिड़की में से किसी गाने की अस्प्ष्ट धुन तैरती हुई कमरे के भीतर चली आ रही थी। "याद अगर वो आये,ऐसे कटे तन्हाई।"

"सुनो ज़रा ये खिड़की बंद कर दो हवा आ रही है अंदर।" उसने साथ सोती हुई लड़की से कहा और नींद की नाव डूबने से पहले किसी की याद को दस्तक देते हुए सुना।

"शिरीष के फूल पढ़ी है?"
"मैक्सिम गोर्की को?"
"रागनियाँ सुनी हैं कभी तुमने?"
"तुमने कुछ पढ़ा-सुना है कभी पंडित जी ?"
"हाँ तुम्हें सुना है और तुम्हारी लक़ीरें पढ़ी हैं। "

"चुप रहो "उसने बनावटी क्रोध जताते हुए कहा।
"अच्छा ये बताओ हम कौन हैं ?" चक्कूमल ने पूछा।
"हम! हम फ्रॉड हैं यार …… तुम लोगों की झूठी लकीरें बाँचते हो, और मैं तो ज़िंदगी को अब तक ख्वाबफ़रोशी का जरिया ही मानती रही हूँ।"

 " अच्छा जानते हो फ्रॉड करना क्या होता है ?'


"हम जितनी लफ्फ़ाज़ी, जितना भरम, जितना धोखा दूसरे को देते हैं, उससे कुछ ज्यादा उसी वक़्त ख़ुद के साथ कर रहे होते हैं। हम अपनी ज़िंदगी के साथ सी-सॉ खेल रहे हैं पंडित जी।"

"और ज़िंदगी को ख्वाबफ़रोशी का ज़रिया मानने की कोई वज़ह?"

"कोई वजह नहीं,और यूँ भी दुनिया में जितनी भी वज़हें हैं सब फ़ज़ूल हैं और सलाहियतें तो बोझ हैं। मुझे बेवजह मरना है और सलाहियतों बिन जीना है, एकदम रॉ, बिन तराशे पत्थर की तरह।  वैसे भी हम बिखरे हुए वरक़ हैं, कल को कोई ज़िल्दसाज़ आयेगा हमें एक के ऊपर एक रखेगा, फिर हमें पाँव से, दायें-बायें से,सर से ठोंक-ठोंक कर अपनी जाने दुरुस्त करेगा। उसके बाद हमसे बिना पूछे हमें अपनी मनमर्ज़ी आड़ा-टेड़ा सिल देगा।ज़िंदगी सिलने से पहले पूछने का मौक़ा नहीं देती। अग़र मौका दे तो दुनिया भर की किताबों के दो-तिहाई वरक़ कहेंगे की हमें आज़ाद रहने दो, उड़ने दो। पर कुछ वरक़ ढीठ होते हैं ये इतनी ज़ोर से अपने कंधे फड़फड़ाते हैं कि ज़िल्द का धागा टूट जाए …………हाँ तुम कह सकते हो की उन्होंने खुदकुशी कर ली। मैं इसी तरह का वरक़ हूँ पंडित जी जिसे आज़ाद रहना है। मैं कल को चाहूँ तो तुम्हें भी छोड़ के जा सकती हूँ। "

वो अवाक उसके चेहरे को देखता रह गया।

2

माई की जै, माई की जै ……… हर ओर से उठती आवाज़ें उसके अंदर सिरहन पैदा कर रही थीं। उसने अपनी पसीजी हथेलियों को देखा फिर एक दूसरे में यूँ चिपका दिया जैसे सामने बैठी भीड़ को नमस्कार किया हो। पंडाल में दूर-दूर तक औरतें क़तार की क़तार दम साधे माई को सुनने के लिए बैठी थीं।

इतनी भीड़ देख कर वो सकपका गई,सोचा कि भाग जाए पर दुनिया को ठगने वाली यूँ ज़रा सी भीड़ देख भाग जाये तो उसकी बरसों की ट्रेनिंग पर लानत होगी।

काली किनारी की सफ़ेद तांत में उसने खुद को सामान्य से अलग दिखने का एक प्रयास किया था और जिसमें वह सफल भी हो गयी थी। कम उम्र सी एक अद्भुत चमक थी उसके चेहरे पर ,जैसे शांत निर्मल ईश्वर की छाया पड़ गयी हो। पर वो जानती थी ये कमाल उसके प्रसाधन भोगी हाथों का है।

ऊंचे तख़्त पर बैठ कर उसने एक नज़र सामने डाली,एक हुजूम को अपने सामने नतमस्तक देख उसके आत्मविश्वास की पतवार वापस तन गयी। उसने सधी आवाज़ में कहना शुरू किया।

"प्रेम हर मस्तिष्क में एक गर्भाशय रोप देता है। इस गर्भाशय में अनगिनत यादें संतति के रूप में पनपती रहती हैं। प्रेम सफल तो अच्छी,सुखद यादों की संतान जन्म लेती है और अगर असफल तो बुरी, दुखद यादों की संतान जन्म लेती है। प्रेम में संतति का जन्म निश्चित है और संतति कैसी हो ये प्रेम की सफलता-असफलता पर निर्भर करता है।"

भीड़ दम साधे सुनती रही उसे। कहीं पत्ता भी खड़कने की आवाज़ नहीं थी। गूँज रही थी तो बस माई की आवाज़। उसने देखा उसके शब्दों का जादू चल गया और सब मंत्रमुग्ध से जड़ हो गए हैं।

वो झटके से उठी और मुड़ कर वापस अंदर चली गयी। ये नयी अदा सीखी थी आजकल उसने,  एक रहस्य का माहौल तैयार करो और फिर सबको उस आवरण में छोड़ कर निकल जाओ। पीछे जय-जयकार की आवाज़ गूंजती रहे।

अंदर कमरे में उसने देखा कि चक्कूमल मेज़ पर चढ़ कर बैठा हुआ है।

"आओ! बहुत बढ़िया बोला तुमने। जै-जै की आवाज़ यहाँ तक आ रही है। "

"थक गयीं।"

"अच्छा, आओ यहाँ बैठो मेरे पास। "उसने मेज़ पर एक तरफ खिसकते हुए कहा।

"नहीं ठीक है, पहले ज़रा ये मेकअप उतार लूं। "

"एक सलाह दूं। "

"यूँ ही प्रेम का पथ दिखाती जाओ लोगों को,भला होगा का।"

बालों में से जूड़ा पिन निकालते-निकालते हाथ एक दम रुक गए उसके,चेहरे पर हल्की विद्रूप की लहर आई और आँखों में ठहर गई।

"क्या बचता है बाद में बवंडरों के,आँधियों के,बगूलों के  …… ? कुछ भी नहीं सिवाय होठों पर रेत और हलक़ में चटकती प्यास के  ….... खुलूस के नाम पर पंडित जी आप लोगों को प्यार की सीख बांटते हैं यानि की बवंडर बांटते हैं,आंधी बांटते हैं,बगूले बांटते हैं,प्यास बांटते हैं। मुझे इसलिए आप की दो कौड़ी की नसीहतों में राई-रत्ती भी इंट्रेस्ट नहीं पंडित जी।"

जानते हो ये प्रेम हल्की डोरियों की तरह पीठ पर कसा होता है। धीरे-धीरे ये डोरियाँ घिस जाती हैं, बदरंग हो जाती हैं,टूट जाती हैं ....... एक बार ये टूटीं तो कोई भी दर्ज़ी इनका टांका नहीं जोड़ सकता।इनके टूटने से पीठ और छाती दोनों का नंगापन चमकने लगता है। कोई बिरला ही अपनी पीठ पर ये डोरियां कसी रख पता है। कोई बिरला ही प्रेम निभा पाता है चक्कूमल। 

लाउड स्पीकर से आता शोर अब थम गया था।  नेपथ्य का जय-जयकार भीड़ के साथ विदा ले चुका था। अब यूँ लगता था मानो वो दोनों ही अकेले छूट गए हो यहाँ और बाकी सब परिधि लांघ गए हों।

"ज़रा चारमिस तो पकड़ाना।" उसने कहा।

"तो फिर हम साथ क्यों हैं?उसने क्रीम पकड़ाते हुए पूछा।

"प्यार के लिए। "

"मतलब?"

"मतलब कि हम अपनी ज़रूरतों को प्यार का नाम पहना देते हैं। हम अपनी सुविधा के लिए अलग-अलग चीज़ों को एक दूसरे पर आरोपित कर देते हैं।"       

"कैसी ज़रूरतें ?"

"देह की, पैसों की,हंसने-बोलने की, कपडे-लत्तों की,खाने-पीने की। एब्सकोंडर हैं हम तुम, भगोड़े हैं अपने-अपने जीवन से। मैं एक शादीशुदा लड़की जो अपनी नीरस उबाऊ शादी से भाग आई धोखाधड़ी करके, वो तो भले लोग थे कि कोई तमाशा नहीं किया उन्होंने। और तुम गणित के मास्टर जो चार ट्यूशन भी नहीं जुटा पाया अपने लिए। अब थक-हार के पिता की पंडिताई को ही आगे बढ़ा रहे हो न। बोगनबेलिया के कई-कई रंग वाले फूलों को एक साथ सजाने से कहीं इंद्रधनुष बनता है,उसके लिए धूप-पानी की ज़रुरत होती है। मैं और तुम खेत-मंडवे की मिट्टी और पोखर का पानी हैं जिन्हें अपने ऊपर,अपने असली रंग-रूप पर बेतरह शर्म है,इसलिए जो अपने ऊपर 'चीनी मिट्टी-रेशम पानी ' का मुलम्मा चढ़ाये रखते हैं। हमारी ज़िंदगी मेटाफ़र पर टिकी है। हम हर बीतते क्षण,बीतते पल जीवन के पुराने बीते हुए या बीतने वाले बदरंग हिस्से को किसी न किसी काल्पनिक सुंदर चीज़ से बदल देते हैं। तुम मेरे झुर्रियों वाले चेहरे को चाँद कहते हो और मैं तुम्हारी साँसों को आग की लपट। पर जानते हो चक्कूमल मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया कि तुम्हारी सांसें कितनी ठंडी हैं और तुम कितने बुरे खर्राटे लेते हो। पता है मैं जब जब तुम्हारे रुकी एक दिन भी इन आवाज़ों की वजह से सो नहीं पाई। न ही तुम ने ही कभी कहा कि ये झुर्रियां मुझे बदसूरत बना रही हैं। "

"हम फ्रॉड हैं बेहतर हो एक-दूसरे को छोड़ दुनिया को ठगें …… ये चाँद-वाँद छोडो और असल ज़िंदगी में लौट आओ पंडित जी। "

"अच्छा !तुम्हारा लेक्चर ख़त्म हो गया हो तो सोने चलें।"

"नहीं, थक गई हूँ ,आज यहीं अपने कमरे में सोऊँगी। चलो बाय , गुड नाइट। "

"बाय। "

एक सुबह वो भाग गई, सब ले कर फ़रार, उसके सर पंडाल और होटल का खर्च और बटुए में सात हज़ार रुपये छोड़ कर। अब चाहे वो घर जाये या चीज़ों का बिल चुकाए।

3

जून के नौ तपे के बाद भी अब तक रातें अब तक लू के असर से दहक रही थीं। ऐसी ही एक गर्म और अँधेरी रात में वो पराये,अंजान शहर में भटक रहे थे,जैसे अज्ञातवास में छुपे पांडवों को ढूंढ रहे हों। रिक्शे पर बैठे नानकमल शुगर ने इधर-उधर देखा,माथे पर आया हल्का पसीना कुर्ते की बांह से पोंछा और आँखें अँधेरे में यूँ गड़ा दीं मानो समय के पार झाँक रहे हो।

रात के निविड़ अँधेरे में निस्पंदित चुप्पी कभी-कभी किसी जुगनू की चमक से स्पंदित हो उठती थी। थोड़ी देर बाद ही सही पर नानकमल शुगर की आँखें उस अँधेरे में चीज़ें देखने की अभ्यस्त हो गयीं।  कुछ दूर ईंटों की एक लम्बी मीनारनुमा चिमनी के पास एक बल्ब टिमटिमा रहा था, और कहीं पास से पानी के तेज बहने की आवाज़ आ रही थी। परिवेश से परिचित होने के बाद उन्होंने एक बड़े दरवाज़े के पास रिक्शा रुकवा लिया।

"क्यों भैया तेलमील कम्पाउंड का लड़कियों का हॉस्टल ये ही है?"

"है तो ये ही, पर किससे मिलना है पंडित जी?" चौकीदार ने पूछा।

"हमाई बिटिया है यहाँ।"

"नाम?"

"कीर्ति  ....... कीर्ति शुगर नाम है। ज़रा बुलवा देओ भैया। "

"पंडित जी इतनी रात में तो लड़कियों से कोई मिल नहीं सकता, सुबह मिलना अब।"

"तो अब रात में कहाँ वापस जाईं हम ?"

"कहुएं नाईं, यहीं बैठो हमाई बेंच पे। "

"अच्छा ये इतनी जोर का पानी कहाँ बह रहा है भैया?”

"ये सामने जो देख रहे हो पंडित जी ये गत्ता फैक्ट्री है, गत्ता गलाया जाता है यहाँ,सो वाई का

गन्दा,सड़ा पानी बहता रहता है। "

"काम तो इहाँ अच्छा है तुम्हारे शहर में। "

"तुम कहाँ के रहने वाए हो पंडित जी?"

"मुज़फ्फ़र नगर।”

"ह्म्म्म्म्म्म्म, तम्बाकू खाओ पंडित जी ?"                

 नहीं,तुम्ही खाओ, हमने तो सालों हुए छोड़ दी। "

"खायलो पंडित जी मैनपुरी की कपूरी है,अच्छे-अच्छे तरसते हैं इसके लिए। "

"अच्छा लाओ चुटकी भर खिला दो फिर। "

"एक बात बताओ पंडित जी ?"

"ये शुगर कौन पंडित होते हैं ?पहली बार सुन रहे हैं। "

"नईं भई वो तो हमाए बाप शुगर मिल में मुलाजिम थे तो गाँव-खेड़ा में शुगर के नाम के नाम से बुलाये जाने लगे। "

"अच्छा, राजेश पायलट की तरह....हीहीही। "

"सुनो क्या हम सो लें इस बेंच पर?"

"सोओ-सोओ पंडित जी हम तो वैसे भी राउंड लगाने जा रहे हैं। "

अगली सुबह का सूरज बड़ी देर से निकला या पंडित नानकमल शुगर देर तक सोते रहे। देर गए जब उठे तो पूरा हॉस्टल लड़कियों के रंग-रूप से गुलज़ार था,पर एक वो ही नदारद थी जिसे ढूंढने वो बड़ी दूर से इस देहरी पर आ खड़े थे। दिन से दोपहर हुई,और अब तो दोपहर भी साँझ में ढलने को तत्पर दीख रही थी। बैठे-बैठे पंडित जी अब ऊबने लगे थे, और यूँ भी सुबह से लेकर अब तक उनकी कई बार पड़ताल की जा चुकी थी।

वो अनमने से बैठे थे कि एक लड़की उनके सामने आ खड़ी हुई।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा और बीच में आये समय के लम्बे आठ सालों के अंतराल को पार कर के लड़की ही पहले बोली।

"बड़े पंडित जी आप?"

"पहचान लिया बिटिया, हम तो सोचे थे कि जेन इतने सालों बाद पहचानोगी भी या नहीं। "

"कहिये, कैसे आना हुआ?"

"तुम्हारी मदद चाहिए।"

"कैसी ?"

"तुम चलो हमारे साथ वापस और चल कर पुराना काम संभाल लो। "

"तो मेरे पास क्यों आये हैं ? चक्कूमल से कहिये, वो तो पहले ही संभाल रहे थे काम को,या साध्वी के आने से ग्लैमर आ जायेगा प्रवचनों में। "

"वो कहाँ रहा अब। "

"मतलब "

"तीन साल हुए पीलिया बिगड़ गया था। बचा नहीं पाये। "

दुःख की एक छाया चेहरे पर ज़रा देर रुक कर वापस लौट गयी। पल भर में ही वो अपने रंग में लौट आयी।

"ये तो आज पहली बार देख रही हूँ बड़े पंडित जी, कि बछड़ा मर जाये तो गैया खुद मेमने को दूध पिलाने चली आये। "

वो सकपका गए।

"चल के गद्दी सम्भाल लो तुम।"

"मैं ऐसे नहीं जा सकती पंडित जी।" कुछ देर चुप रह कर वो बोली। "क्यों?"

"यहाँ मुझ पर एक केस चल रहा है। पुलिस को सत्तर हज़ार चाहिए उसे रफ़ा-दफ़ा करने को।  आप इंतज़ाम कर दो तो मैं इससे फ़ारिग हो कर साथ चल लूंगी, और हाँ आगे इसके बाद जो मुनाफ़ा वो फ़िफ्टी-फ़िफ्टी।ये सत्तर हज़ार अगल है पंडित जी, ये वापस नहीं होगा।"

4

समय की चकफेरियों में जो सामान्य हो गए उन्होंने अपने लिए गंगा के तट तलाश लिए………

जो विलक्षण बचे रह गए उन्होंने अपने लिए आकाशगंगाऐं चुनी उनके उदगम-समागम के छोर ढूंढने को। फिर वो चाहे शेक्सपीयर की कोई नायिका हो,कामू का कालिगुला या दिनकर का कर्ण.......... ये बचे रहे अपने सामान्यीकरण के होने से।ये विवश रहे जीवन के बजाय समय की प्रतिच्छायाऐं जीने को। ये समय के आगे थे इसलिए इतिहास में बदल दिए गए। इन्होने प्रेम माँगा था सो पीड़ा के भागी बने। पर हमारा क्या ? जो इस सामान्य और विलक्षणता के बीच के खाने में आ पड़े। जिन्हें न ही कभी गंगा का तट ही मिला और ना ही कोई आकाश गंगा। हम शिव की तरह गरलपान को बाध्य रहे। हम साधनहीन लक्ष्य रहे, ऐसे पड़ाव रहे रहे जिन्होंने बीच रेगिस्तान में लोगों को सुस्ताने के लिए छाँव तो दी पर कभी नख्लिस्तान बनने की हिम्मत नहीं जुटा पाये।

डायरी लिखते-लिखते जाने कब उसकी आँख लग गयी। आजकल उस पर ऐसी थकान बड़ी तारी रहती थी। उठते-बैठते,चलते-फिरते उसे ऐसा लगता था मानो शरीर की सारी ताक़त किसी अंजाने-अदृश्य रास्ते से बाहर जा रही हो। देर गए जब वो जागी तो देखा सामने एक नौजवान बैठा हुआ है।

"आ गए तुम,समय के बड़े पाबन्द हो। "

"जी शुक्रिया। बुख़ार कैसा है अब आपका ?"

"अब तो ठीक है काफ़ी। बुख़ार की वज़ह से तुम्हारा काम काफ़ी डिले हो गया न। वैसे क्या
करोगे मेरा इंटरव्यू छाप कर?,एक सलाह मानो छोड़ दो ये आईडिया, पचड़े में फंस जाओगे। "

" क्या नहीं पता लगना चाहिए लोगों को आपके बारे में ? कब तक गुमनाम रहेंगी।"

"किसी झंझट में मत फंसा देना मुझे ये सब छाप के। "

“निश्चिन्त रहिए।”

"फिर क्या हुआ?”

"किसमें ?"

"आपकी जीवन यात्रा में। "

"बस यात्रा थी,अब समाप्ति की ओर पहुँच रही है। अगले अक्टूबर में बासठ की हो जाऊँगी।

समय है बीत ही जाता है। "

"फिर भी बताइये तो।"

"पंडित जी आये वापस?"

"हाँ पंद्रह दिन बाद नानकमल वापस आए सत्तर हज़ार ले कर और मुझे साथ ले गए। आश्रम भी अब पहले जैसा नहीं रह गया था। हालांकि पुराना पक्का हिस्सा अब तक काफी कुछ वैसा ही था,जिसमें कहीं-कहीं खुली जगहों को बांस और कनातों से ढंक कर छोटे पंडाल जैसे रूप में बदल दिया गया था।"

"फिर?"

"आश्रम वापस जा कर कई महीनों तक गीता के पाठ सुनाया करती थी मैं। भीड़ तो जुट रही थी पर उतनी नहीं जो नानकमल को संतुष्टि दे सके। फिर एक दिन वो एक नए आईडिया के साथ आ "यही कि मुझे गीता पाठ की आवृत्तियाँ छोड़ कर आने वाली औरतों को होमसाइंस टाइप के लेक्चर देने चाहिए मसलन शादी सम्बंधि, पति को खुश रखने सम्बंधि,सेक्स सम्बंधि।कई बार मुझे यूँ भी लगता था कि चक्कूमल के इलाज में जान बूझकर ढीलाई बरती गई होगी, पर मैंने कभी जांच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की।

"पैसा!! यूँ भी उसके होने न होने से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था,और फिर आश्रम में कोई तक़लीफ़ भी नहीं थी। मज़े से गुज़र रही थी ज़िंदगी। और वो कोई ट्रैप नहीं था जहाँ मुझे
छटपटाहट होती। मैंने खुद चुना था वहाँ रहना,पहले भी जब छुटमलपुर से आई थी तब भी रही थी उसी आश्रम में चक्कूमल के साथ। "

"छुटमलपुर?"

"हाँ सहारनपुर के पास एक छोटा सा गाँव था तब तो। चक्कूमल की ननिहाल थी वहाँ।"

"और आप?"

"मैंने शादी की थी वहाँ। पर जाने कैसे पता लग गया उन्हें की ये धोखा-धड़ी की शादी है। वहीँ पहली बार चक्कूमल से मिलना हुआ, तब तक तो उसे भी नहीं मालूम था कि सब माजरा क्या है।फिर एक दिन में उसके संग चली आई।"

"कुल कितने समय आप आश्रम में रहीं?"

"सत्रह साल। पहले तीन और दूसरी बार लगभग चौदह साल। "

"तो आप लौट क्यों आयीं वापस?"

"पहले जब आई थी तो बंधन से आज़ादी चाहिए थी और दूसरी बार घृणा, ग्लानि। ये ग्लानि, जुगुप्सा, घृणा कभी भी घेर सकते हैं आपको। जब नानकमल आश्रम के महंत बने तो तो थोड़ी निराशा हुई थी मुझे, काश मैं बन पाती।पॉवर का बड़ा चार्म लग रहा था। पर बाद में जब सोचा तो लगा अच्छा ही हुआ जो नहीं बनी। आश्रम के महंत को बाद में समाधि लेनी पड़ती है।

जब वो भी नहीं रहे तो इस पूरे खेल,पूरी प्रक्रिया की प्रति जाने क्यों मन में एक जुगुप्सा का भाव पैदा हो गया। और यूँ भी ये गॉडमैन से गॉड बनने का खेल बड़ा यंत्रणापूर्ण होता है। वो हिम्मत नहीं बची थी।"

"और यहाँ?”

"यहाँ तो अभी तीन साल की नौकरी और बची है,फिर ये हॉस्टल भी है। आड़े वक़्त बड़ा काम आता रहा है ये हॉस्टल मेरे। "

'अच्छा चलूँ मैं अब।"

"हाँ,भई जाओ। अच्छा-अच्छा लिखना,छापना सब। जब छप जाए तो पढ़वाना भी मुझे, वर्ना इतनी बार यहाँ आने का क्या फायदा।"

"जी ज़रूर।"

"अच्छा सुनो जाते हुए पर्दा गिरा जाना, और हाँ ज़रा वहाँ टेबल से चारमिस भी पकड़ा देना। "


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Anagh Sharma

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Sunday, May 17, 2015

बॉम्बे वेलवेट यानि उम्मीदों के धराशायी होने की हृदय विदारक दास्तान















बॉम्बे वेलवेट  यानि उम्मीदों के धराशायी  होने की हृदय विदारक दास्तान!  फिल्म इतनी भी बुरी नहीं पर उम्मीदों का वजन इतना ज्यादा था कि उफ़, जरा भी सहन न कर सकी!  मेरे लिए फिल्म में कई आकर्षण थे!  अनुराग कश्यप का निर्देशन, अनुष्का-रणबीर की कैमिस्ट्री, रेट्रो थीम और जबरदस्त पब्लिसिटी! गोवा से शुरू हुई फिल्म ने शुरू में इस उम्मीद पर बांधे रखा कि शायद आगे कुछ कहानी बनेगी! पर नहीं साहब .... फैशन, स्टाइल, सेट्स और लगातार ब्लड शेड के जंजाल में कहानी को सिसकते, दम तोड़ते देखना दुखद अनुभव रहा!  अनुराग के निर्देशन से बहुत निराशा हुई!  उस एरा को क्रिएट करने में वे 200 प्रतिशत सफल रहे पर सिर्फ यही फिल्म मेकिंग होती तो फिल्म वाकई सफल और पैसा वसूल शाहकार कहलाती!  रणबीर और अनुष्का की केमेस्ट्री तो खूब जमी पर हर सीन के अंत में मैंने सेंसर की कैंची की आवाज़ बखूबी सुनी, ये और बात है कि उस शोर में अक्सर डायलॉग्स टोन को दबा दिया गया!  

 सुना था अनुष्का ने सिंगर की भूमिका निभाने के लिए म्यूजिक सीखा, सिंगर्स की कॉपी की, यहाँ तक कि लिप-जॉब करवाया!  पर मैडम अनुष्का सिर्फ पॉउट बनाने से ही कोई सिंगर नहीं बन जाता!  माना कि शुरुआत में  एक्सप्रेशनलेस फेस कहानी की डिमांड था!  एक बच्ची जो चाइल्डएब्यूज की शिकार बनती है, उसके चेहरे पर ये भावहीनता उसके जीवन से मेल खाती है पर बाद में गाते समय की ओवर-एक्टिंग बर्दाश्त के बाहर थी!  अरे सिक्सटीज की हिंदी फिल्मों में ऐसे क्लब सिंगर्स के सीन और गाने बहुत थे!  मैं नहीं समझती कि अनुष्का ने हमारी वीनस क्वीन मधुबाला को 'आइये मेहरबाँ.... " पर गाने का अभिनय करते देखा होगा, अगर देखती तो बॉम्बे वेलवेट में उनका ये हश्र न होता!  अनुष्का को थोड़ी और मेहनत अपने उच्चारण पर करनी चाहिए थी जो 'बैंड बाजा बारात' से लेकर अब तक वही है!   रणबीर ने भी अपने लुक्स पर ही मेहनत की! पर उन्होंने भी खुद को दोहराया भर है!  उनका चेहरा, उनके एक्सप्रेशंस, उनके इंटेलेक्चुअल न होने की चुगली खाते हैं पर ये तो हम अजब प्रेम की गज़ब कहानी में देख चुके हैं!  तो भी वे अनुष्का से बेहतर रहे!  कई दृश्यों में उन्होंने छरहरे शम्मी कपूर की याद दिलाई!  केके मेरे आलटाइम फेवरेट हैं, यहाँ भी पुलिस अफसर के रोल में वे खूब जमे पर उनके पास करने के लिए कुछ खास नही था!  बाकि किरदार भी ठीकठाक ही थे!  

सबसे अधिक मुझे दो चीज़ों ने रुलाया, पहली विलेन के रूप में 'द करन जौहर' की कास्टिंग और दूसरी फिल्म के गाने!  जनाब करन जौहर खुद को टीवी पर इतना एक्सपोज़ कर चुके हैं कि उनके सामने आते ही उनकी तमाम उल्टी-सीधी हरकतें याद आती हैं!  उनकी फिजिक, उनका चेहरा और उनके एक्सप्रेशन कुछ भी रेट्रो विलेन से मेल नहीं खाता!  मेरी सलाह है, करन जौहर टीवी पर उलजुलूल नाचें, नए नए निर्देशक ढूंढकर फिल्में बनवाएं, ओवर-एक्टिंग की दुकान चलायें पर खुदा के वास्ते दोबारा एक्टिंग न करें!  अरे, जिन लोगों ने रेट्रो एरा में अजीत, जीवन, के एन सिंह और प्राण साहब को खूंखार विलेन बनते देखा है वो कहाँ हज़म कर पाएंगे ये खिलवाड़!  हमें बक्श दो करन जौहर, हमारा साथ इतना ही था!  अब आते हैं दूसरी चीज़ पर, यानि म्यूजिक!  सच बताइये आपने धड़ाम धड़ाम दिल सुनकर सर पीटा या नहीं!  उस पर बार बार गीता दत्त का नाम लिया जाना कोफ़्त से भर देता है!  अरे सुनिए तो गीता दत्त को!  वो दौर इतना भी पुराना नहीं हुआ कि लोग गीता दत्त की आवाज़ की शोखी और अदाओं को भूल गए हों!  अजीबोगरीब लिरिक्स पर चीख कर गाती और अजीब शक्लें बनाती गायिका को देखने-सुनने कौन क्लब में आना चाहेगा?  कुछ गानों का म्यूजिक अच्छा है, पर मोहब्बत बुरी बीमारी के अलावा कोई भी मुंह पर नहीं चढ़ा, जबकि क्लब सांग्स  की ये खासियत होती है कि वे लम्बे समय तक जेहन पर काबिज़ रहते हैं!  मोहब्बत बुरी बीमारी में कुछ देर और बीते दिनों की नायिका रवीना टंडन को देखने का मन था पर ये गाना जल्दी ही बैकग्राउंड स्कोर में बदल गया!  

तो कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि बेसिरपैर की कहानी, लाउड म्यूजिक, अनुष्का की ओवर एक्टिंग और उद्देश्यहीन हिंसा को दरकिनार करने का जिगर रखते हैं तो शानदार लोकेशन, साठ के दशक का मुंबई, रेट्रो एरा से लगाव और उस समय की फिल्मों को लेकर अपने नॉस्टैल्जिया के लिए आप ये फिल्म अपने रिस्क पर देख सकते हैं!

Monday, May 11, 2015

वो बड़ा अफ़सानानिग़ार है या ख़ुदा - सआदत हसन मंटो : प्रेमचंद गांधी

यूँ मंटो को गए ज़माना हुआ पर कुछ तो बात है उसमें कि ज़माने के साथ बीतता ही नहीं!  आपके-हमारे दिलों पर उसकी हुकूमत आज भी बदस्तूर जारी है!  आज मंटो की सालगिरह पर उसी सदाबहार मंटो को सिलसिलेवार याद कर रहे हैं अपने इस दिलचस्प लेख में कवि-कहानीकार-लेखक मित्र प्रेमचंद गांधी....

मंटो जैसे लेखक को मैंने कैसे पढ़ा, इसका एक खाका कैफ़ी आज़मी ने अपने एक संस्‍मरण में जो लिखा है, उससे मिलता-जुलता है। उर्दू में ‘अंगारे’ का आग़ाज एक बहुत बड़ी घटना रही। लखनऊ में ‘अंगारे’ के एक सामूहिक पाठ का जि़क्र करते हुए कैफ़ी आज़मी ने लिखा है कि एक बंद कमरे में मौलाना किस्‍म के कुछ लोग और उनके दोस्‍त एक किताब पढ़ रहे थे और हम जैसे छात्र खिड़की-दरवाजों की दरारों से देखा करते थे कि वे कौनसे रहस्‍यमयी काम को अंजाम दे रहे थे। यह भेद तो खैर बाद में खुला कि वे सब ‘अंगारे’ पढ़ रहे थे। मैंने भी मंटो को शुरुआत में ऐसे ही एक छोटी-सी दुछत्‍ती में इतनी चोरी-चकारी के साथ पढ़ा था कि आज शेल्‍फ़ में ‘दस्‍तावेज़ : मंटो’ के पांच खंड उन बेवकूफियों पर मुस्‍कुराते नज़र आते हैं। हतक, ठंडा गोश्‍त, काली सलवार और खोल दो, जैसी कहानियों के साथ मंटो का मुकदमा जैसी किताबें शायद सोलह बरस की उम्र में बिगाड़ने के लिए काफ़ी थी। इस तरह मंटो से पहली सनसनीखेज और चोर-मुलाकातें हुईं। मुझे यह मालूम नहीं था कि मंटो मेरे जन्‍म से 12 बरस पहले ही दुनिया से कूच कर गया था और वो भी उस लाहौर में जिसे मेरे दादा मरहूम मंटो के जीते-जी 1946 में बंटवारे से पहले ही छोड़ आए थे। जब दादाजी लाहौर से वापस आये तो उन दिनों मंटो बॉम्‍बे की फिल्‍मी दुनिया और कहानियों की दुनिया में जद्दोजहद कर रहा था।
बहरहाल, मंटो से मोहब्‍बत का जो सिलसिला शुरु हुआ वो आज तक कायम है। इसमें एक मोहब्‍बत का जिक्र और जरूरी लगता है, जिसके बिना मंटो और मेरी मोहब्‍बत का अफसाना शायद अधूरा रह जाएगा। मेरी एक दोस्‍त है, जो मंटो को मुझसे ज्‍यादा मोहब्‍बत करती है। करीब बीस बरस पहले की बात है यह, जब मेरी उस दोस्‍त को मुझमें मंटो नज़र आता था। वो अक्‍सर कहती थी कि तुम्‍हारी शक्‍ल मंटो से ना मिलती होती तो तुमसे दोस्‍ती का सवाल ही नहीं था। मुझे आज तक पता नहीं चला कि कंबख्‍त मंटो और मेरी शक्‍ल में ऐसी क्‍या चीज है जो एक-दूसरे से मिलती है। बाद के दिनों में हम दोनों ने मंटो की बहुत-सी कहानियों पर बातचीत की और इस तरह मंटो हम दोनों के प्रेम या कि दोस्‍ती के त्रिकोण में मुस्‍कुराता रहा।
बात दिसंबर, 2005 की है, जब मैंने पहली बार पाकिस्‍तान की यात्रा की। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्‍थापक सज्‍जाद ज़हीर की जन्‍मशती का अवसर था, जिसमें भारत से 25 लेखक-कलाकारों का प्रतिनिधि मंडल पाकिस्‍तान गया था। जाने से पहले जब मैंने अपनी दोस्‍त को यह बताया तो उसने कहा तुम मंटो के घर और उसकी कब्र पर ज़रूर जाना, वो तुम्‍हें देखकर वापस जिंदा हो जाएगा। मेरे लिए पाकिस्‍तान की यात्रा सज्‍जाद ज़हीर की कर्मस्‍थली की जियारत करना तो था ही, मंटो की जियारत करना भी था। उस सफ़र में मिला हर किरदार यूं लगता था जैसे मंटो की कहानी से निकलकर आया हो या कि अगर मंटो होता तो इसे कैसे बयान करता। 22 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में जब हम लाहौर पहुंचे तो हमें एक प्रेस कांफ्रेंस से सीधे रेल्‍वे स्‍टेशन जाना था, जहां से गाड़ी पकड़कर कराची पहुंचना था। रास्‍ते में लक्ष्‍मी चौक आया। अरे यहीं कहीं तो है मंटो का घर। हमारे एक मेज़बान दोस्‍त ने कहा कि वापसी में आप मंटो के घर जा सकते हैं। लाहौर स्‍टेशन पर भारतीय रेल की तरह देरी से चल रही पाकिस्‍तानी रेल का जब हम इंतजार कर रहे थे, तो मुझे लगा मंटो वहीं प्‍लेटफॉर्म पर ठहाके लगा रहा है कि सालों तुमने वतन बांट कर क्‍या हासिल किया...। इधर भी देर है, उधर भी देर है, दोनों तरफ़ एक-सा अंधेर है। अल्‍लाह के नाम पर भीख मांगते लोगों को देखा तो लगा कि मंटो इनके पीछे चल रहा है, किरदार की तलाश में। लंबे इंतज़ार के बाद जब रेल आई तो मंटो हमारे साथ ही सवार था बेटिकट...। मुझे पूरे सफ़र के दौरान लगता रहा कि मंटो हमारे साथ चलते हुए जैसे किसी बड़े नाविल की तैयारी कर रहा है। कमबख्‍त चुपचाप लिखे जा रहा था और हमारी वोदका में से पिये जा रहा था। उसकी ख़ामोश मौजूदगी ने उस एसी कंपार्टमेंट में वो दरियादिली पैदा कर दी थी कि सुबह होने तक पाकिस्‍तानी मुसाफिरों के कटोरदान हिंदुस्‍तानी मुसाफिरों के लिए खुल गये थे। और मंटो नदारद था। सिंध में सुबह हुई तो दरिया-ए-सिंध से आती सदाओं ने पैग़ाम दिया कि मंटो लाहौर में ही कहीं उतर गया था। उसे शायद बहुत चढ़ गई थी। वो वापस लाहौर के कब्रिस्‍तान में अपनी कब्र में सोने चला गया था।
कराची से मोहंजोदड़ो, लरकाना और लाहौर वापस आने तक मंटो की याद बराबर बनी रही। उसके किरदार जैसे कहीं पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पहले दिन जब एक मजलिस के बाद लाहौर दिखाते हुए हमारे दोस्‍त जब फूड स्‍ट्रीट ले जा रहे थे, तो नजदीक ही टकसाली गेट के पास हीरा मंडी के शाही मोहल्‍ले की ओर नजरें चली गईं। यह लाहौर का सबसे बदनाम रेडलाइट इलाका है। फौजिया सईद ने यहां की वेश्‍याओं पर एक किताब लिखी है और किताब में छपी तस्‍वीरों से इसकी तुरंत पहचान हो गई। एक गली के नुक्‍कड़ पर ‘हतक’ की सुगंधी की याद दिलाता खाज-मारा कुत्‍ता दिखाई दिया। वहीं मंटो भी घूमता नजर आया। भीड़ में उससे नज़रें नहीं मिलीं, वरना वो किसी नए अफसाने के लिए बुलाता और कहता कि दो देखो कितनी तरक्‍की कर ली है इस मुल्‍क ने। अब यहां की रंडियों पर लड़की ने किताब लिख डाली है, लेकिन सुगंधी जैसी औरतें आज भी बदतर हालात में जीने के लिए मजबूर हैं।
इस सफ़र में दोस्तियां इतनी मजबूत हो चुकी थीं कि हमें लगता ही नहीं था कि इस मुल्‍क में हम परदेसी हैं। इसीलिये बेख़याली में मैंने अपना बैग फूड स्‍ट्रीट के उस रेस्‍टोरेंट में छोड़ दिया, जहां हमारे मेजबान ने खाना खिलाया था। सुगंधी को याद करता हुआ मैं अपने दोस्‍तों के साथ शराब पीने चला गया। रात के करीब तीन बजे तक हम पीते रहे और सुबह जब आंख खुली तो याद आया कि पासपोर्ट और तमाम कागजात उसी बैग में रह गये हैं। मंटो मुस्‍कुरा रहा था, अब मेरे साथ मेरी ही कब्र में आ जाना। मुझे बहुत गुस्‍सा आ रहा था, लेकिन क्‍या कर सकता था। बहुत खोजने पर मालूम हुआ कि एक दोस्‍त ने बैग सम्‍हालकर रख लिया है। अब मंटो हंस रहा था, तो तुम मुझसे बिना मिले चले जाओगे।
बैग की अफरातफरी में मैं भूल गया या कि दोस्‍त भूल गये, मैं मंटो के घर और उसकी कब्र पर नहीं जा सका। जाने से पहले वाली शाम देर रात जब मैं एक नौजवान शायरा से उसकी गुजारिश पर अंग्रेजी में उससे बातचीत कर रहा था, शाहिद जमाल ने बताया कि वे और कुछ दोस्‍त मंटो के घर और कब्र की जियारत कर आये हैं। बाद में उस खूबसूरत नौजवान शायरा से बात करने का लुत्‍फ़ ही जैसे ख़त्‍म हो गया। उसने बड़ी दर्द-भरी एक नज्‍म सुनाई थी, उसका चेहरा आज भी याद आता है, बिल्‍कुल शहजादियों जैसा। मंटो वहीं अल हमरा आर्ट सेंटर की सीढियों पर बैठा था और मुझे देख जैसे मुस्‍कुरा रहा था। ...मारे गये गुलफाम... अंग्रेजी में शहजादी से बात करने का लुत्‍फ ले रहे हो, लगे रहो, कोई अफसाना बन ही जाएगा... अगर तुम्‍हारा पासपोर्ट और वीजा नहीं मिलता तो कसम से, तुम मेरी ही कब्र में दफ़न कर दिये जाते... कि दुनिया को एक मंटो ही मंजूर नहीं था, हमशक्‍ल तो अफसानों में हमेशा मरते ही आये हैं।... मैंने कहा, कल सुबह तुम्‍हारी कब्र पर आउंगा। वो मुस्‍कुराते हुए बोला, देखते हैं... यह हिंदुस्‍तान नहीं है प्‍यारे... अगर मैं मर नहीं गया होता तो ये मुझे कैद में डाल देते, तसल्‍ली है कि ये माटी मारे अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते...मैं इनकी दुनिया को इतना बिगाड़ चुका हूं कि ये अब इसे कभी ठीक नहीं कर सकते।
मैंने सुबह बहुत कोशिश की कि कोई दोस्‍त मुझे एक बार मंटो की कब्र तक जियारत करवा लाए, लेकिन नहीं... मंटो रात बहुत पी चुका था, इसलिए अपनी कब्र में आराम से सो रहा था। शनिवार का दिन था और बॉर्डर शनीचर को जल्‍दी बंद हो जाती है, जैसे बैंकों का हाफ-डे यहां भी चल रहा था। दस बजे बॉर्डर पहुंचने की जल्‍दी में हम जैसे-तैसे भागे। जब हम पाकिस्‍तानी इमिग्रेशन से गुज़र कर भारतीय सीमा की ओर बढ़ रहे थे, नो मैन्‍स लैंड पर मंटो जैसे पागलों की तरह ठहाके मार रहा था। मेरा टोबा टेकसिंह कहां है माटी मारों... मैं बड़े भारी मन से उसे देखता हुआ चुपचाप आगे की ओर जा रहा था। भारतीय सीमा से कुछ कदम पहले मंटो आया और कंधे पर हाथ रखकर बोला, जाओ अगली बार मिलेंगे।...सरहद पर परिंदे बिना किसी रोक-टोक के आ जा रहे थे...चींटियां तक आराम से पैदल सरहद पार कर रही थीं। बस इंसान ही थे, जिन्‍हें आने-जाने में कानूनी पेचीदगियां थीं।
तो मैं मंटो से मुलाकात किये बिना वापस आ गया। इसका दर्द बहुत सालता रहा। लेकिन डेढ़ बरस बाद ही फिर एक अवसर मिला मंटो से मुलाकात का। पत्‍तन मुनारा इंटरनेशनल कांफ्रेंस में शिरकत करने जाना था, साथ में जयपुर से पत्रकार ईशमधु तलवार, सुनीता चतुर्वेदी, आनंद अग्रवाल, कवि ओमेंद्र और शायर फारूख़ इंजीनियर थे। दिल्‍ली से राजकुमार मलिक और कुछ दोस्‍त थे। इस बार लाहौर के वरिष्‍ठ पत्रकार साथी इरशाद अमीन ने बुलाया था, जो मूलत: बीकानेर के पास के हैं और पत्‍तन मुनारा जैसी पुरातात्विक और ऐतिहासिक जगह को लेकर बहुत संजीदगी से संरक्षण में लगे हुए हैं। पत्‍तन मुनारा सरस्‍वती के बहाव क्षेत्र में कालीबंगा के बाद आने वाली महत्‍वपूर्ण साइट है, जिस पर बहुत कम काम हुआ है। इस दूसरी यात्रा में राजस्‍थान और सीमावर्ती पाकिस्‍तान की सामाजिक-सांस्‍कृतिक परंपराओं को जानने की जिज्ञासा थी तो दूसरी ओर मंटो से मुलाकात की भी।
मेरे साथ ईशमधु तलवार और ओमेंद्र की भी मंटो का घर देखने की बेहद इच्‍छा थी। इरशाद अमीन ने कहा कि कांफ्रेंस से वापसी के बाद जब लाहौर में दो-तीन दिन रहना होगा तो मंटो से मुलाकात होगी। मैंने इस बार मंटो को ना सड़क पर देखा ना अपने साथ किसी सफ़र में। लगता है वो किसी मेंटल हास्पिटल में भर्ती था। पाकिस्‍तान में जम्‍हूरियत की बहाली के लिए बड़ी जद्दोजहद चल रही थी। वकीलों के साथ अवाम भी सड़कों पर उतर आई थी। परवेज मुशर्रफ की सरकार बुरी तरह हिली हुई थी। मुझे लगा जागी हुई जनता को देखकर मंटो सच में पगला गया होगा। हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान दोनों ही जगह जो भी थोड़ा बहुत संवेदनशील ढंग से सोचने-विचारने वाला इंसान होगा, उसके लिए पागलखाना ही सबसे महफूज जगह मानी जाती है। जब पाकिस्‍तानी पुलिस कार्टूनिस्‍ट फीका के कार्टूनों से भड़क जाती है तो मुसलमान होकर शराब पीने के जुर्म में फीका को सलाखों में बंद कर देती है। ममता बनर्जी का बस चले तो वो भी पाकिस्‍तानी पुलिस वाला आचरण देर-सवेर अपना ही लेंगी।
मंटो मुझे पिछली बार की तरह हर जगह नहीं मिला तो इसका मतलब यह नहीं कि उससे मुलाकात ही नहीं हुई। दरअसल इस बार मंटो अपने किरदारों में मिला। इक्‍के-तांगे तो खत्‍म हो ही चुके थे, सो कोचवान और सईसों में वो कहां दिखाई देता। अलबत्‍ता वो कदम-कदम पर मिलने वाले उन लोगों के किरदार में नुमायां हो रहा था, जो उसकी कलम की तहरीर बनने पर रजामंद थे। ऐसा ही एक किरदार सुलेमान था, जिससे मैं 2005 में पहली बार मिला था। उसके हाथों में खाना पकाने का ग़ज़ब का हुनर है और हम जैसे मंटो के दोस्‍तों की खातिरदारी में हरवक्‍त जुटा रहता है। दरमियाना कदकाठी के मस्‍तमौला सुलेमान को देखकर आप अंदाज भी नहीं लगा सकते कि कलमकारों की सोहबत में वो ख़ुद कितना कलमकार हो चुका है। मंटो सुलेमान पर जरूर एक अफसाना लिखता और उसमें हम जैसे दोस्‍त किसी अमीरजादे के दोस्‍तों में बदल जाते और फिर वो उनकी बदतमीजियों का रेजा-रेजा बिखेरता जाता। उसके अफसाने में सुलेमान ज़रूर उसका हीरो होता और ख़ुद अपनी कहानी बयान करता।
नौजवान शायर साहिर में भी मुझे मंटो का एक जबर्दस्‍त किरदार नज़र आया। दिलफेंक, लेकिन निहायत ही शरीफ़, मस्‍त इतना कि शराब, स्‍मैक, सिगरेट और चरस जैसे सारे नशे समान भाव से करता जाए। लाहौर प्रेस क्‍लब में जब हमारे एक मुस्लिम दोस्‍त से पाकिस्‍तानी पत्रकारों ने पूछा कि वहां मुसलमानों के हालात कैसे हैं, तो वह मंटो के किरदार जैसा साहिर उठा और पूछ बैठा कि पहले पाकिस्‍तान के मुसलमानों के हालात की फि़क्र कर लो मियां। साहिर जैसे किरदार आज भी पाकिस्‍तान में अपने मंटो की तलाश कर रहे हैं।
मंटो के किरदार पर किरदार मिलते जा रहे थे, लेकिन वो खुद नदारद था। रहीमयार खां में हमसे मिलने एक बड़ी अम्‍मी आईं। उनका बेटा उस इंटेलिजेंस टीम में था, जो हमारी सुरक्षा में लगी थी। उनके चेहरे का नूर बता रहा था और उनकी बूढ़ी आंखों से झरते आंसू बता रहे थे कि बंटवारे के वक्‍त वो कितने बड़े खेत और बाग-बगीचों वाला घर छोड़कर आईं थीं। उनके पास हमारे लिए दुआएं थीं, आशीर्वाद था और स्‍नेह का कभी ना खत्‍म होने वाला निर्झर। मंटो अगर पागलखाने में न होता तो उस बूढ़ी अम्‍मी पर एक जबर्दस्‍त हिला कर रख देने वाला अफसाना लिखता और सरहद के दोनों तरफ़ के लोगों की जुबानें खामोश कर देता।... रहीमयार खां के रास्‍ते में मिले वो गांव वाले तो जैसे मंटो ने ही भेजे थे, जो एक पेट्रोल पंप पर हम भारतीयों को देखकर इतने खुश हो गये थे, जैसे उन्‍होंने कोई खुदाई चीज देख ली हो।... खानपुर में हमें देखने बहुत से बच्‍चे और नौजवान ही नहीं औरतें भी आईं... उन सबके मन में यह जिज्ञासा थी कि हिंदुस्‍तान के लोग क्‍या वाकई मौलवियों और मदरसों की किताबों में बताए गए चोटीधारी जिन्‍न जैसे होते हैं। उन्‍हें बहुत अफसोस हुआ होगा कि ना तो हमारे सिरों पर चोटियां थीं और ना ही सींग... न हमने पीले-भगवा कपड़े ही पहन रखे थे। ... मंटो पागलखाने में चुपचाप रो रहा था और उसकी सदा सुनने वाले उसके किरदार बने दुनिया में घूम रहे थे।
आखिरकार हमारा इंतजार खत्‍म हुआ। भारत आने से पहले वाले दिन एकबारगी हमें मौका मिल ही गया कि हम मंटो के घर होकर आ सकें। हमें पता था कि मंटो तो वहां नहीं मिलेगा। लेकिन उसके घर को देखने की तमन्‍ना इतनी बेताब थी कि हम सोचते थे कि माल रोड के लक्ष्‍मी चौक पर किसी से भी पूछो, मंटो के घर का रास्‍ता बता देगा। हमारे साथ कौन था, ठीक से याद नहीं, शायद सुलेमान या कोई और या कि हम छह राजस्‍थानी ही... हम लोगों से पूछ रहे थे कि किसी ने बताया, इस गली में चले जाइये, आगे मिल जाएगा। बिना मकान नंबर के मकान तलाशने के ऐसे मौके जिंदगी में बहुत कम मिलते हैं और जिसका मकान तलाश रहे हों, वो अगर पचासों बरस पहले ही दुनिया से कूच कर गया हो तो कौन बताएगा, इस उपमहाद्वीप में उसका घर, अगर वो टैगोर ना हो तो... हमारी किस्‍मत अच्‍छी थी कि हमें बहुत भटकना नहीं पड़ा और दो-एक जगह पूछने के बाद हम उस घर के दरवाजे पर थे, जिसके बाहर अंग्रेजी और उर्दू में लिखा था, सआदत हसन मंटो, शॉर्ट स्‍टोरी राइटर (1912-1955)।
काफ़ी देर डोरबेल बजाने के बाद कुछ हरकत हुई और दरवाज़ा खुला, एक नौजवान-से शख्‍स की शक्‍ल दिखी, उसे बताया गया कि हम हिंदुस्‍तान से आए हैं और मंटो साहब का घर देखने आए हैं। उसने कहा कि घर में कोई नहीं हैं, निक़हत आपा बाहर गई हैं... हमने बहुत इसरार किया तो वो शख्‍स वापस भीतर गया और बड़ी देर बाद लौटा। उसने कहा आइये और हम उसके पीछे-पीछे मंटो के घर में दाखिल हुए जैसे उसके बहुत पुराने दोस्‍त हों, हमप्‍याला और हमनिवाला। घर में दाखिल होते ही लगा, मंटो जैसी दुनिया बनाना चाहता था, वो तो तामीर नहीं हुई, लेकिन उसके आखिरी दिनों के घर को सबसे बड़ी बेटी निक़हत ने वैसा जरूर बना दिया है, मंटो की रूह को कुछ तो चैन मिला होगा शायद। सफि़या बी की बहुत खूबसूरत तस्‍वीरें थीं और मंटो की भी। मंटो अपनी आवारगी में भी बला का खूबसूरत लगता होगा, यह उसकी तस्‍वीरें देखने से अंदाज होता है। लेकिन सफिया से वो बेपनाह मोहब्‍बत करता था। निक़हत ने किसी इंटरव्‍यू में बताया है कि अब्‍बा, अम्‍मी की साड़ी पर खुद इस्‍तरी करते थे और फिर बहुत खूबसूरत अंदाज में उनकी तस्‍वीर लेते थे। सफिया बी की तस्‍वीरें सच में उस मोहब्‍बत को बयां करती हैं। उस बैठक में तस्‍वीरों के अलावा उर्दू और अंग्रेजी में छपी कुछ किताबें थीं मंटो की और पाकिस्‍तान डाक विभाग का वो शानदार और एकमात्र डाक टिकट भी जो मंटो पर किसी बरस जारी किया गया था। चीनी-मिट्टी के प्‍यालों में करीने से सजे कई सुंदर रंग-बिरंगे पत्‍थर और कांच के टुकड़े थे। सफ़ेद परदों और चमकती रोशनी के बीच यह मंटो का घर था, जिसमें वो बैठकर लिखने वाली तख्‍ती नहीं दिख रही थी, जिसमें सफिया से छुपाकर मंटो अपनी शराब रखता था।
यह घर निक़हत ने कुछ बरस पहले ही ठीक करवाया और उसमें रहने लगीं। मंटो ने यहां बहुत कम दिन गुजारे। पाकिस्‍तान आने के बाद वो जिंदा ही कितना रहा। बहरहाल, बहुत देर तक जब हम उस बैठक में रहने के बाद जाने लगे तो मालूम हुआ कि मंटो के दामाद और निक़हत के खाविंद पटेल साहब आ रहे हैं। बेहद बुजुर्ग और बीमारी से लाचार निक़हत के पतिदेव गुजरात में जूनागढ़ के रहने वाले हैं। उन्‍हें बोलने में भी बहुत तकलीफ हो रही थी, उनकी आंखों का कोई ऑपरेशन हाल ही में हुआ था। उनकी आंखों से पानी झर रहा था। उन्‍हें इस बात पर बहुत तकलीफ हो रही थी कि हिंदुस्‍तान से चलकर लोग मंटो का घर देखने कई बार आते हैं, लेकिन पाकिस्‍तान से शायद ही कोई आता है, उनकी जुबान में कहें तो कोई नहीं आता। हमसे उनकी तकलीफ देखी नहीं जा रही थी, उन्‍होंने हमें चाय-नाश्‍ते की दावत भी दी, लेकिन हमने मना कर दिया। पटेल साहब को जब मालूम हुआ कि हम राजस्‍थान से आये हैं तो उन्‍होंने बताया कि उनकी दो बहनों की शादी कोटा में हुई हैं और वे दोनों वहीं पुराने कोटा शहर में रहती हैं। ‍नौकर ने पानी पिलाया। बुजुर्गवार ने कहा कि निक़हत आ जाएंगी, आप मिलकर जाइयेगा, लेकिन हम उन्‍हें गर्मी की उस तकरीबन दोपहरी में बहुत परेशान नहीं करना चाहते थे, इसलिए जल्‍द ही वहां से रुख्‍सत हो लिये। लौटते हुए बहुत गुस्‍सा था दिल में कि दोनों मुल्‍कों में दो कौड़ी के नेताओं के नाम पर मोहल्‍ले और सड़कें रख दी जाती हैं, लेकिन उस गली का नाम मंटो स्‍ट्रीट नहीं रखा जाता, उस जगह को गुलशन-ए-मंटो जैसी कॉलोनी नहीं किया जाता। हमने अपने महान कलमकारों के साथ क्‍या सुलूक किया है...शर्म आती है।
बहुत मन था कि मंटो से मिलने उसकी कब्र तक जाएं, लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी संभव नहीं हुआ। लेकिन सोचता हूं कि नहीं जाने से एक दुख तो कम हुआ... कम से कम मैं मंटो की कब्र पर लिखे उसके अपने कतबे को बदलकर कुछ और करने का तरफ़दार तो नहीं हो सकता था। हम बरसों से पढ़ते-सुनते आए हैं कि मंटो ने अपनी कब्र के लिए यह कतबा लिखा था -
यहां सआदत हसन मंटो दफ़्न है
उसके सीने में फ़न्‍ने-अफ़सानानिग़ारी के
सारे असरारो-रूमूज़ दफ़्न हैं  
वो अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि
वो बड़ा अफ़सानानिग़ार है या ख़ुदा
- सआदत हसन मंटो, 18 अगस्‍त, 1954
बेटी निक़हत के मुताबिक उनकी फूफू ने मंटो के कतबे को बदलवा दिया था। अब लाहौर के मियानी साहब कब्रिस्‍तान में आपको मंटो की कब्र पर उर्दू में यह कतबा दिखाई देगा -
सआदत हसन मंटो की
कब्र की कब्र है यहां
जो आज भी ये समझता है कि
वो लौहे-जहां पर हर्फे-मुकद्दर नहीं था
मुझे पूरा यकीन है कि मंटो अपने कतबे के साथ इस बदतमीजी से बेहद नाराज़ हुआ होगा और इसीलिये अपनी कब्र से बाहर निकल कहीं गुम हो गया होगा। वो मुझे अब तक नहीं मिला  और ना ही मैं उसकी कब्र पर जा सका... मंटो की कब्र पर जाने की मेरी जियारत अधूरी ही रही... पांच बरस पहले की इन बातों को सोचता हूं तो लगता है कि मंटो की जियारत न उसके घर जाने में है और ना ही उसकी कब्र पर... उसकी असली जियारत तो उसके लिखे से गुजरने में ही मुमकिन है।
---प्रेमचंद गांधी

Tuesday, May 5, 2015

वंदना ग्रोवर की कवितायें





वंदना ग्रोवर हिंदी और पंजाबी में कवितायें लिखती हैं!  उन्हें पढ़ने के लिए कविताओं के प्रचलित फार्मूले से इतर एक सजग पाठक बनना होगा, इतना सजग कि किसी एक पल जिस्म को झनझना देने वाली संवेदना के करेंट को साधकर आगे बढ़ने का हौंसला हो!  यहाँ रूककर सांस लेता स्त्री-मन है, जिसकी नज़र आगे मंज़िल पर हैं!  वंदना की कविताओं में आहिस्ते से अपनी बात रखने का सलीका भी है और हुनर भी!  ये कविताएँ पांच दरियाओं की रवानी हैं, शीतलता है और वहीँ इनमें पानी के ठीक नीचे की बेचैनी भी हैं जो गिरेबान पकड़कर आँखों में आँखे डालकर कह उठती हैं, "वे/सुण/एस तरां चल नी होणी".... आइए पढ़ते हैं वंदना ग्रोवर की हिंदी और पंजाबी कवितायें.... 





हिंदी कवितायें


1 . 
एक दिन ऐसा भी
निर्विकार
निर्लिप्त .निसंग
ढल गया
रात थी जश्न की
आज़ादी की
कोलाहल की
ढल गई
आएगी सुबह
आएगी रात
ढल जायेगी
उम्र भी
ढलते ढलते
पहुंचेगी
ज़िन्दगी की शाम
अपने अंतिम पड़ाव पर
तन्हा ...


2 . 
तुम तक पहुंचू मैं
या पहुंचू खुद तक मैं
ये एक कदम आगे
और दो कदम
पीछे का सिलसिला
गोया मुसलसल चलता
ऐसा तमाशा हुआ
कि ज़िन्दगी रहे न रहे
तमाशा जारी रहे


3.

घूमती हूँ तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम सूर्य नहीं
मैं पृथ्वी नहीं
खींचती हैं चुम्बकीय शक्तियां
अदृश्य हो जाते हैं रात-दिन
खो जाती हैं ध्वनियाँ
आँखें मूंदे
चली चली जाती हूँ दूर तक
तुम्हारे पीछे
तय करती हूँ
हज़ारों मील के फासले
रोज़ मरती हूँ
जन्म लेती  हूँ रोज़
हर जनम में
चलती हूँ तुम्हारे पीछे
नहीं
कोई मुक्ति नहीं
इस बंधन से
पिछले हर जनम  के कर्मों ने
बाँध दिया है
अगले कई जन्मों के लिए
तुम्हारे साथ


4.
उफ़ !


कह भी दो न चुप रहो
कि सहना अब मुहाल है

मैं रहूँ कि न रहूँ
कुछ कहूं कि  न कहूं
तुम हो तो हर सवाल है

जो रुक गई तो रुक गई
गर चल पड़ी तो चल  पड़ी
ये सांस भी कमाल है

आह कहूँ  कि  वाह कहूँ
आबाद कि  तबाह कहूँ
ये जीस्त भी  बवाल है


5.
बादल के नीचे घर था
सूरज का वहीं बसर था
चमकती आँखों में
धूप थी या पानी

या कोई कहानी


6. 
सफ़ेद चादरों
और नीले कम्बलों के बीच
विजातीय तत्वों को परे धकेलती
चार छिद्रों के आस पास
बूँद बूँद टपकती ऊर्जा
फिर
लौट आना जीवन के प्रवाह में
कुछ दर्द लाजिमी हैं
पर लाइलाज नहीं
कुछ ताक़ीद हैं
मसलन
लेना है आहार में
आज थोड़ा प्यार तरल
कल एक स्पर्श नरम
और फिर ठोस अवस्था में
इतनी तवज़्ज़ो ,उतना दुलार
नींद पूरी
कुछ ज़िन्दगी

हर आहार से पहले और बाद में
चुटकी भर तुम




पंजाबी कवितायें
 
1. 
सुण
बड़ा रिस्की ज्या हो गिया ऐ
सारा मामला
हाल माड़ा ऐ मिरा
जित्थे वेखां
तूं दिसदा एं
गड्डी दे ड्रेवर विच
होटल दे बैरे विच
दफ्तर दे चपरासी विच

वे
सुण
एस तरां चल नी होणी
जे आणा है ते आ फेर
कदे लफ्जां दा सौदागर बण के
उडीक रईं आं
कदे  पढ़ेंगा ते कहेंगा फखर नाल
जिस्म औरत दा
नीयत इंसान दी ते ज़हन कुदरत दा
लेके जम्मी सी
हक दे नां ते ज़ुल्म नई कीत्ता
फ़र्ज़ दे नां ते ज़ुल्म सिहा नई

वे
सुण
ना कवीं कदे जिस्म मैनू
ना कवीं कदे  हुस्न
ना रुबाई ना ग़ज़ल कवीं
बण जावांगी कुज वी तेरी खातिर

वे
सुण
तेरे वजूद नू अपना मनया
इश्क़  लई इश्क़ करना सिखया
घुटदे  साहां नाल
क़ुबूल करना सिखया
ते पत्थर हिक्क रखना सिखया

वे
सुण
तू मैंनू मगरूर कैन्ना एं
मैं तैंनू  इश्क़ कैंनी आं 

2. 
इक दिन ओ सी 
जद तूं ही तूं   सी 
इक दिन ए   है 
जद तूं ही तूं  है 
ना तेरे आन दा पता 
ना तेरे जान दी खबर 
की ते मैं सोग मनावा 
की मैं खिड़ खिड़ हस्सां 

*******
परिचय 
 
नाम :      वंदना ग्रोवर
शिक्षा :     एम ए., बी एड,  पी एच डी   
पैदाइश :  हाथरस 
रिहाइश : गाज़ियाबाद                                 
कविता संग्रह 'मेरे पास पंख नहीं हैं ' बोधि प्रकाशन से  2013 में प्रकाशित  
सम्प्रति :  लोक सभा सचिवालय में बतौर क्लास -वन अधिकारी कार्यरत 

ब्लॉग :  (एक थी सोन चिरैया)  groverv12.blogspot.com 

Monday, April 27, 2015

नवनीत पाण्डे की कवितायें



नवनीत पाण्डे हमारे समय के सजग कवि हैं!  उनकी कवितायें लगातार मूल्यहीनता और अवसरवादिता पर प्रहार करती चलती हैं!  वे लोक के प्रबल पक्षधर हैं।  उनका मानना हैं कि सामान्य से विशेष बनता है  अर्थात्  हाशिए, सामान्य ही मुख पृष्ठ को मुख पृष्ठ बनाते हैं!  पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में उनका हिंदी कविता का तीसरा संग्रह 'जैसे जिनके धनुष' लोकार्पित हुआ!  यह संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है!  इसी संग्रह से अपनी पसंद की कुछ कवितायें कवि के आत्म-कथ्य के साथ साझा कर रही हूँ!  ये कवितायें उनकी कविताओं के मिज़ाज़ से पूर्ण परिचय कराने में सक्षम है .... 





आत्म-कथ्य

पेड़ और रचनाकार में कुछ बातें समान होती है.. दोनो में हरापन होता है, दोनों ही समाज को कुछ न कुछ देते हैं लेकिन दोनों की जड़ों की गहरायी और फैलाव छिपा रहता है..पेड़ और रचनाकार को देख कोई नहीं बता सकता उसकी जड़ें कितनी गहरी और किस किस दिशा कहां तक किस रूप में फैली है। मुझे लगता है अपने समय के यथार्थ बीज से अपनी ज़मीन परिवेश में पल्लवित मैं भी एक शब्द-वृक्ष हूं। अपने दौर- दायरे में जो कुछ महसूस करता हूं... मेरे पास मेरे शब्द ही एक मात्र साधन, हथियार है जो उद्वेलित कर मेरे भीतर की सारी गूंजों-अनुगूंजों, उथल- पुथल सारी झंझावतों को बाहर कागज़ों पर उलीचते हैं, अभिव्यक्त करते हैं। बचपन से लेकर अब तक जीवन के हर पड़ाव ने जो कुछ भी मुझे दिखाया, सिखाया है और दिखा, सिखा रहा है अपने समय का वह निजी, प्रकृतिक, प्राकृतिक, सामाजिक-असामाजिक, राजनैतिक सम- विषम, नियत- नीतियां, आचार-विचार, चरित्रों के कटु- मृदु रिश्तों के सारे उलझाव- सुलझाव, कचोटने वाले यथार्थ हंसी, रुदन, पीड़ाएं मुझे स्तब्ध करती हैं, इन सबसे लोहा लेने की ताकत मुझे मेरी कलम ही देती है, अपने इस एक मात्र हथियार को मैं जन कवि हरीश भादानी के शब्द उधार लूं तो पल- पल की छैनी से धार करता रहता हूं, कभी जीत- कभी हार सब कुछ स्वीकार कर अपने भीतर के आदमी और उसकी आदमियत को ज़िंदा रखने की कोशिश करता रहता हूं सफल हूं कि नहीं.. यह कूंतने का ज़िम्मा वक्त पर छोड़ रखा है। अपने अग्रज पुरोधा कवि माखन लाल चतुर्वेदी की एक कविता से प्रेरित कभी लिखी एक साहित्य पैरोडी यहां साझा करना चाहूंगा …

चाह नहीं पुरस्कारों- सम्मानों से तौला जाऊं
चाह नहीं बड़े आलोचकों, आलोचना से मौला जाऊं
चाह नहीं झूठी तारीफों, प्रशंसाओं से फूला जाऊं
चाह नहीं आसमानी झूलों पर झूले खाऊं

पाठक मेरे कर पाओ तो काम ये करना नेक
जहां जहां हो संघर्ष
आदमियत और हकों के
शब्द मेरे तुम देना फेंक

- नवनीत पाण्डे



'जैसे जिनके धनुष' (काव्य संग्रह-नवनीत पाण्डॆ) से  कुछ कविताएं

 (1)
ऐसे डसता है कि सांप भी....


सांप को
सब जानते, पहचानते हैं
सांप है
उस में जहर है
सब बचते हैं
सांप
खुद डरते हैं
सब से बचते हैं
कभी
चलाकर नहीं डसते
आदमी तो
सांप का भी बाप है
सारी जान- पहचान धरी रह जाती है
इतना चुपचाप
इतने प्रेम से
ऐसे डसता है कि सांप भी.......



(2)
कहां खड़ा रहूं

कहां खड़ा रहूं
जहां भी दिखती है ज़मीन
अपने खड़े रहने माफिक
करता हूं जतन
कदमों को टिकाने की

पर जानते ही
खोखलापन-हकीकतें
ज़मीन की
कांपने लगते हैं कदम
टूट जाते हैं सारे स्वप्न
अपने पैरों पर खड़े होने के

सच!
अब सचमुच ही होगा कठिन
खड़े रह पाना
अपनी ज़मीन पर
बची ही कहां
और कितनी
एक अदद आदमी के
खड़े रहने के लिए
एक अदद
ठोस ज़मीन...



(3)
हाशिए ही तो.....

बहुत से मुखपृष्ठ
हाशियो से घबराते हैं
मुखपृष्ठी अपने दंभ में
हाशिये ही नहीं लगाते हैं
जहां कहीं
दिखायी देने लगते हैं हाशिए
उन्हें हटाने,
मिटाने की जुगत में लग जाते हैं
उन्हें कौन समझाए
हाशिए ही तो.....
मुख-पृष्ठ को
मुख-पृष्ठ बनाते हैं
 (4)
सबके यहां घराने है........

जब मैं कुछ कहूं-
तुम तालियां बजाना, बजवाना
जब तुम कुछ कहोगे-
मैं तालियां बजाऊंगा, बजवाऊंगा
तुम मुझ से यूं ही निभाते रहना
मैं तुम से यूं ही निभाता रहूंगा.....

मेरे बेसुरों पर तुम ताल ठोंकना
तुम्हारे बेसुरों पर मैं ताल ठोंकूंगा
मेरी असंगत को
तुम संगत देते रहना
तुम्हारी असंगत को
मैं संगत देता रहूंगा......

याद रहे! गीत हमें,
अपने- अपनों ही के गाने हैं
अकेला चना भाड़ नहीं झौंक सकता,
सबके यहां घराने है
तुम मुझे दरबार भिजवाते रहना
मैं तुम्हें दरबार भिजवाता रहूंगा।



(5)
अच्छे कवि- अच्छी कविताएं


अच्छे कवि वे होते हैं
जो अच्छी कविताएं लिखते हैं
अच्छी कविताएं वे होती हैं
जिनकी
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र
अच्छा होने की
उद्घोषणाएं  करते हैं

जो अच्छी पत्रिकाओं में
जो अच्छे  और
ऐसे प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में छपें
जिन में
अच्छी कविताओं के
अच्छे कवि के बारे में
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र
अच्छी- अच्छी
विस्तार से समीक्षाएं
अच्छे- अच्छे
आलोचनात्मक आलेख छपें

अच्छी पत्रिकाएं वें
जिन में
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र हों
और जो
प्रतिष्ठित पुरस्कारों के पैनलों की
सलेबस- कोर्स बुक हों

अच्छे - प्रतिष्ठित पुरस्कार वे
जो
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्रों के
निर्णायक मण्डल द्वारा
केवल अच्छे कवि
अच्छी कविताओं को दिए जाते हैं

तो मित्रो!
भले आप
अच्छे कवि न हों
अच्छी कविताएं न लिख पा रहे हों
अच्छे कवि,
अच्छे सम्पादक
अच्छे आलोचक
परम अच्छे मित्र बनाइए
और अच्छी कविताओं के
अच्छे कवि होने की
जारी की जानेवाली सूचियों में
जितनी जल्दी हो सके
अपने को नामज़द करें!

Tuesday, April 21, 2015

अम्रिखान के लमडे (कहानी) - प्रज्ञा

पिछले दिनों प्रज्ञा जी की कई कहानियां पढ़ी!  खास बात यह है हर कहानी पिछली  से बिलकुल अलग है!  यूँ तो अपने अनुभवों को कहानियों में पिरोने में प्रज्ञा सिद्धहस्त हैं पर कहानीकार प्रज्ञा की यह कहानी अपनी दिलचस्प  किस्सागोई के कारण  बरबस ही ध्यान खींचती है!  ये किस्सागोई अब कहानियों से लुप्त होती जा रही है!  ऐसे में कथ्य पर आधारित ऐसी कोई अतीतजीवी कहानी पढ़ने में आती है तो स्मृतियों में अपनी जगह बना ही लेती है!  आप भी पढ़िए प्रज्ञा जी की कहानी - अम्रिखान के लमडे.......


                  



दिल्ली में रहते हुए भी भाई-भाभियों से बात हुए अर्सा बीत जाता है। सब मसरूफ हैं अपनी ज़िदगियों में और मैं खुद भी तो ...फुर्सत ही कहाँ है मुझे घर, नौकरी और बाल- बच्चों से । इधर  मंझले भैया से भी लगातार बात हो जाने की वजह ये है कि मां आजकल उन्हीं के घर हैं। इसलिए कभी फोन पर  बात हो जाती है और महीने में दो -एक बार घर हो ही आता हूं । मां की आदत है कि मोबाइल रखती नहीं और अपने से फोन भी नहीं करतीं। हम खुद ही उनके हाल-चाल पूछ लेते हैं। हां देर से फोन करने पर आज भी बचपन वाली सख्त डांट का डर बना रहता है। मैं ये सोच ही रहा था कि कल-परसों में मां से मिलने जरूर जाना है कि इतने में भैया का फोन आ गया। 
‘‘कैसा है ?’’ मां की आवाज से मैं चौंक  गया। कोई खास बात ही है जो मां फोन कर रही हैं। मां ने ज्यादा इंतज़ार न कराते हुए सूचना दी ‘‘ तेरे टिल्लू भैया भी गुजर गए राजकुमार। सब चले गए एक- एक करके। लगता है मैं ही सबके नाम की उमर लिखवाकर आई हूं। महीना भर हो गया उसे गुजरे। मुझे भी कल ही पता चला सोचा तुझे बता दूं। उसके  लड़के ने  सेवा तो बहुत की  पर शराब से बिगड़े शरीर को आखिर कब तक संभालता?’’ मां देर तक उनकी बातें करती रही और मैं चुपचाप सुनता रहा। अभी उम्र ही क्या थीं उनकी ? होंगे मुझसे कोई सात – आठ साल बड़े । बचपन से लेकर आज तक के जीवन के बारे में सोचते हुए मेरे दिमाग में यही घुमड़ता रहा कि एक इंसान विदा हो गया और किसी को खबर भी नहीं हुई। मैं तो व्यस्तता के बहाने उनकी तरफ से निश्चिन्त था।  
                 हनुमान को तो मैंने नहीं  देखा पर टिल्लू भैया के रूप में मैंने सच्चे सेवक को देखा था  और मेरे मन में उनके लिए गहरा आदर था। अफसोस तो मुझे प्रेमी चाचाजी के गुजरने का भी हुआ था पर टिल्लू भैया के न रहने पर एक टीस-सी उठ रही थी। चंद साल पहले की एक मुलाकात में उन्होंने मेरा सारा बचपन मुझे याद दिला दिया था। एक इंसान जिसे किसी समय रोज घर-गली में देखने की आदत थी, जिसके न दिखने पर एक बेचैनी- सी महसूस होती थी और दिन पूरा नहीं होता था। वो इंसान जिसने हमारे घर को हमेशा अपना समझा आज हमें बताए बिना चल दिया। तो अब भाईजी की तिकड़ी का आखिरी सिरा भी खत्म हुआ। जैसे एक युग का अंत हो गया । भाईजी, प्रेमी चाचाजी और टिल्लू भैया की तिकड़ी जान थी हमारे मोहल्ले की। राजकपूर, देवानंद और दिलीप साहब की तिकड़ी की तरह, जिन्होंने एक साथ काम करते हुए राज किया था मुम्बई पर। हां ये जरूर है कि इन सितारों के आपसी संबंध भाईजी की तिकड़ी की तरह नहीं थे और फिर भाईजी की तिकड़ी ही कहां इन रौशन सितारों की  मानिंद जगमगाती थी पर हमारे लिए तो ये साक्षात सितारों से कम नहीं थे और तिकड़ी में सबसे ऊपर थे भाईजी खुद।
 
                वैसे तो भाईजी रिश्ते में मेरे ताऊजी लगते थे पर चूंकि संयुक्त परिवारों में बच्चे अधिकतर वही संबोधन आसानी से स्वीकार कर लेते हैं जिनका प्रयोग मां-पिता करते हैं तो मेरे भाईयों और मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। पिताजी उन्हें भाईजी बुलाया करते थे। बड़े भाईयों ने भी यही संबोधन अपना लिया और मैंने भी एक फर्माबरदार बेटे और भाई की तरह इस विरासत का दामन थाम लिया। भाईजी को कोई आपत्ति भी नहीं थी। होती भी कैसे आखिर हम उन्हें एक नयी पीढ़ी से जोड़े हुए थे और उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं करते थे। पर असली बात थी भाईजी की ठसक, अगर उसे ठेस लगती तो भाईजी का पारा चढ़ जाता और फिर किसी की खैर नहीं। केवल घर में ही नहीं पूरी गली और उसके विस्तार में जाएं तो पूरे मोहल्ले में भाईजी का धाक जमी हुई थी। शरीर भले ही नाटा था पर एकदम गठा हुआ। अपने नाटेपन को वो अपनी ठसक अपने तेवरपहनने ओढ़ने के ढंग रूआब और मजबूत आवाज से संतुलित किया करते थे। रूपया-पैसा भी ठीक जोड़ा था उन्होंने और आय के साधन स्वरूप एक अच्छी  चलती दुकान थी ही जिस पर दो-तीन नौकर खादी भण्डार से लाये कपडे धोने प्रेस करने के काम को सँभालते थे । आगे प्रेस का काम चलता और पीछे धुलाई ,कलफ वगैरह । इस समृद्धि के जरिए उनका रौब-दाब कायम था। ऐसे में हमारे हीरो भाईजी के निकट जो भी होता उसकी तकदीर और इज्जत भाईजी रूपी पारस का स्पर्श पाकर जगमगाने लगती। यों उनकी नजदीकी पाना कोई हंसी-खेल नहीं था। भाईजी बड़ी पारखी नजर रखते थे। ऐरों-गैरों को  पास फटकने भी नहीं देते थे और गली में रूपए धेले से कोई उनकी बराबरी कर ही नहीं सकता था । ज्यादा बोलने वाले उन्हें सख्त नापसंद थे। तेजी दिखाने वाले का पत्ता तो पहली दफा में ही कटा समझो। इस तरह  बरसों की आजमाईश के बाद ये मौका दो ही लोगों को मिला--टिल्लू भैया उर्फ प्रेमकुमार शर्मा और प्रेमी चाचाजी जो सिर्फ प्रेमी ही थे पर केवल नाम के। दोनों के नाम में प्रेम का होना महज़ एक इत्तेफाक है भाईजी की कहानी में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता ।  उम्र और अक्ल में तिकड़ी का हिस्सा न होते हुए भी मैं तिकड़ी के बेहद करीब था । वो इसलिए कि दिखने में आकर्षक, पढ़ने-लिखने में तेज और सेवा-टहल का पक्का था मैं। वैसे मेरा विनीत और आज्ञाकारी होना ही वो असली मानदंड था जिसके कारण मैं भाईजी के नजदीक था और उनका दुलारा भी।  इसका एक कारण मेरा स्कूल भी था जो दोपहर की पाली में लगता था। सुबह जब मेरे भाई और कई बच्चे स्कूल जाते मैं अकेला होता। इस अकेलेपन को भरने का सबसे बढि़या उपाय भाईजी की दुकान थी जिस पर हरदम मजमा -सा जुटा रहता। मैं समय बिताने के चक्कर में उनके करीब आ गया। कहने का आशय केवल इतना है  कि मुझे भी पारस का स्पर्श मिला गया था  जो न मेंरे भाईयों को मिला था  न ही भाईजी के दोनों बेटों को।
         
       आज जब याद करने बैठा हूं तो फिल्म की तरह सारी रील अपने सम्पूर्ण दृश्यों और किरदारों को लिए मेंरी आंखों के सामने है। अपने भरे-पूरे संयुक्त परिवार में भाईजी का डंका पिटता था। भाई-बहन न भी समझें पर भाईजी खुद को उनका खुदा ही समझते थे और जो उनकी राय के विरूद्ध गया वो समझो गया। भाईजी का उससे छत्तीस का आंकड़ा हो जाता। इस मामले में वे बड़े ही समाजवादी थे। सबको एक ही निगाह से तौलते चाहे आदमी घर का हो या बाहर का। भाईजी के दाहिनें हाथ थे टिल्लू भैया। उनके सामने एकदम बच्चा पर शरीफ और गजब के मेहनती। उनमें वे सारी खूबियां शामिल थीं जिनके चलते उम्र में बहुत छोटे होने पर भी उन्होंने भाईजी के दिल में जगह बनाई थी। हम उन्हें भाईजी का डिप्टी कहा करते थे। प्रेमी चाचाजी  टिल्लू भैया की तरह तो नहीं थे पर उनका सा स्वांग रचने में माहिर थे। बतरस उन्हें खूब था और लगाने-बुझाने की आदत भी कम न थी। यों भाईजी भी खरे-खोटे का फर्क बखूबी जानते थे पर प्रेमी चाचाजी  सभी खोटों में सबसे कम खोटे थे और फिर भाईजी को भी अपनी ठसक दिखाने के लिए अपने दो -एक खास लोगों की जरूरत भी थी। इस तरह ये तिकड़ी निर्मित हुईं जरूर हुई पर समानता के सिद्धांत पर नहीं भाईजी के मालिकाना हक के मातहत। तिकड़ी के बावजूद वो दोनों भाईजी के चाकर ही थे। इस तिकड़ी मे सेंध लगाने की भरसक कोशिश करने वाला एक और शख्स था --नानक। नानक को भाईजी का परमानेंट प्रशंसक समझ लीजिए। पर शायद भाईजी को शेर याद था-हुए तुम दोस्त जिसके  दुश्मन उसका आसमां क्यों  हो--तो वो नानक को जरा दूर ही रखा करते।
                भाईजी के रौब-दाब की मुख्य वजह उनकी दुकान भी थी। दुकान बहुत मौके की जगह पर थी। गली से एकदम सटी हुई और मोहल्ले  के नुक्कड़ पर। तीन तरफ का पूरा नजारा वहां बैठकर लिया जा सकता था और गली में आने-जाने वालों, सबपर नजर रहती थी। दुकान के साथ ही एक पेड़ लगा था और उसके नीचे चबूतरा था। इस तरह अड्डेबाजी का पूरा प्रबंध था वहां। सुबह का अखबार बांचने से लेकर देर रात दुकान की ओट में नशा करने तक के बीच दोस्तियां, दुश्मनियां निभाना, पारिवारिक समस्याओं से लेकर समाज और देश-विदेश की समस्याओं पर बेबाक टिप्पणियों, हंसी-ठठ्ठे से लेकर मार-कुटाई और  गाली-गलौच की उपयुक्त जगह। आज सोचता हूँ गली मोहल्ले में दुकाने तो कई हैं पर उनपर ऐसे रौनकदार मजमे कहाँ? नौकरों को आदेश देकर दुकान के बाहर बैठे भाईजी एक तरफ दुकान की निगरानी भी करते रहते और दूसरी तरफ पूरे दिन बतरस का आनंद भी लेते। टिल्लू भैया अपना खोमचा वहीं दुकान के आगे लगा लिया करते। चटपटी मटर और मोठ बनाने में उनकी मास्टरी थी। प्याज़ ,टमाटर हरा धनिया काटकर, मसाले और नींबू का रस डालकर जब दो-चार बार दोने में सबको उछालते  तब मटर और मोठ को दिव्य बना देते ।अक्सर दोपहर में अपने पसंद की सब्जी न बनने पर लोग कहा करते-‘‘ जा भाग के टिल्लू से एक दोना मटर ले आ ,खाने का मजा तो आए।’’ प्रेमी चाचाजी किसी दुकान पर काम करते थे। सुबह देर से जाते थे इसलिए सुबह का उनका समय दुकान पर ही बीतता।
मुझे अच्छी तरह याद है वो दिन। भाईजी आज उपदेश के पूरे मूड में थे। ‘‘देख भाई टिल्लू मो ठ-मटर बनाने का तुर्जुबा तुझे है ही और सबको पसंद भी आता है तो ऐसा कर ले दुकान के एक कोने में छोले-भठूरे की दुकान कर लेते हैं। अरे जब वो मुकंदी का छोकरा चला रा है तो क्या हम उससे भी गए-गुजरे हैं? फिर दुकान मौके की जगह है। बिजनिस अच्छा चलेगा।...गधे की तरह चुप क्यों है? बोल न।’’
अच्छे भले  इंसान को पशु -पक्षी बनाने में उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता था । टिल्लू भैया कोई रिस्क लेना नहीं चाहते थे। अपने खोमचे और आमदनी से वे  पूरी तरह संतुष्ट थे। पर भाईजी का स्वभाव वह  जानते थे। भाईजी बड़े ही उद्यमशील इंसान थे। एक मर्तबा जो सोच लिया वो पत्थर की लकीर। अनमने अंदाज में कह ही दिया-‘‘ देख लो ठाकुर जी फिर कोई ऊंच-नीच न हो जाए। तुम भी नाहक परेशान होओ और मैं भी पुराने धंधे से हाथ धो बैठूं ।’’ टिल्लू भैया के बेमन से कही हां को भाईजी ने सहर्ष समर्थन वाले भाव की तरह लिया और लगे योजना बनाने में। 
‘‘यार टिल्लू छोले तरी वाले बनने हैं। मसाला जरा जमके  गेरिओ। छोले तेल में तैंरे और मिर्च का छौंक ऊपर से छोडि़यो। अदरक, आलू, मिर्च सजा दीयो  कि सूरत देखते ही मन ललचाए। रंगत जबरदस्त हो। ’’ भाईजी को खाने में रोनी सूरत वाली कोई भी चीज पसंद नहीं थी। स्वाद चटपटा और रंगत आला,  खाने को लेकर ये दो कसौटियां उनकी तय थीं। उस शाम प्रेमी चाचाजी ने भी छोलों के संदर्भ में अपना सारा ज्ञान उंडेलकर रख दिया। छोले कितनी आंच पर उबलेंगे, काबुली या कौन- सी किस्म बेहतर रहेगी। छोले बनाने की विधि को लेकर भी खासी रिसर्च की गयी। सब कुछ तय करने के बाद दुकान का सामान सरकाकर एक कोना खाली किया गया। दो-एक दिन में उस कोने में लोहे का एक स्टैंड फिट कराया गया जिसपर एक तरफ अंगीठी और दूसरी तरफ छोलों का पतीला रखा गया। बीच में मैदे की परात और बेलने की जगह थी। एक छोटी सी अचार की बरनी भी रख दी गयी थी ।दुकान शुरू करने से पहले एक और निर्णय भी भाईजी ने किया--‘‘देख टिल्लू ! छोले-भठूरे का काम तो दो-तीन बजे तक चलता है। क्यों न शाम को यहां गर्मागरम समोसे भी बनें तो काम खूब चलेगा। अरे फुर्सत नहीं मिलेगी कमाई से।’’ भाईजी को अपने निर्णय पर अगाध विश्वास था। नए प्रयोगों के धुनी भी थे तो काम शुरू हो गया। टिल्लू भैया को छोले उबालने का खासा अनुभव था पर तरी वाले छोले उन्होंने कभी बनाए नहीं थे। राम-राम करके छोले तो बना डाले पर रंगत के चक्कर में ढेर सारी मिर्च झौंक दी। इधर छोले के जोड़ीदार भठूरे की हालत भी बुरी थी। जो भी भठूरा बेलकर तलते  वही पलटते ही सिकुड़ जाता और कढ़ाई का तेल न जाने किस रास्ते उसके पेट में समा जाता। हर भठूरा तलते हुए आस जगती ‘‘अब फूला तब फूला’’ पर सबका एक- सा अंजाम। पहला दिन था तो शर्मा-शर्मी में लोगों ने पैसा दे दिया और बेस्वाद छोले और तेलपिए  भठूरे खा लिए। जैसे- तैसे  दिन गुजरा शाम का समय निकट था और टिल्लू भैया अपने जीवन के पहले समोसे बनाने को तैयार थे। भाईजी निरंतर उत्साह बढ़ा रहे थे--‘‘देखियो टिल्लू ! आज से तू टिल्लू समोसेवाले के नाम से मशहूर होने वाला है। लोग समोसों के साथ उंगलियां खा जाएंगे बस चटनी ऐसी बना दे कि स्वाद रह जाए जबान पर।’’ न जाने उस घड़ी सरस्वती विराजमान थीं भाईजी की जबान पर। टिल्लू भैया ने अपना सारा ध्यान वाक्य के दूसरे अंश पर लगाकर चटनी में प्राण फूंक दिए। चटनी लाजवाब थी पर समोसे जो उन्हें ऑन द जॉब  सीखने थे, उनका हाल भठूरों से भी बुरा हो गया। सारे समोसे न केवल तेल पी गए बल्कि फट भी गए। आलू ज्यादा मसलने के कारण समोसा फटते ही  अन्दर का आलू भागने लगा और थोड़ी देर बाद काला होकर  तेल में नाचने लगा फिर हांफकर बाकी समोसों और कढ़ाई पर चिपक गया। भाईजी की भविष्यवाणी सच हुई । टिल्लू भैया वाकई  टिल्लू समोसेवाले के रूप में ख्यात हो गए अंतर केवल यही था कि नकारात्मक अर्थ में। ख्यात का तो कुछ नहीं बिगड़ा पर उसके आगे ‘कु’ लग गया।
                भाईजी ने जल्दी हार नहीं मानी। कैसे मानते कोई खेल नहीं था उन्हें हराना। फिर दुकान चलती जगह पर थी। ट्रक वाले, पनवाड़ी, कारीगर, मोटर सुधारने वाले कितने ही लोगों की आमदरफ्त थी उस रस्ते पर । पहला दिन खराब जाने का मतलब सब धंधा चौपट हो जाना नहीं था। भाईजी टिल्लू भैया का मनोबल बढ़ाते रहते और शाम को प्रेमी चाचाजी भी कुछ मुर्गे फांस लाते। पर वो मजा नहीं आ सका जिसकी भाईजी ने कल्पना की थी। टिल्लू भैया हर दिन नई कोशिश करते। छोले-भठूरों में तो फिर भी सुधार था पर समोसे के तेल के गर्म होने का अंदाज न लगा पाने के कारण तेल में छोड़ते ही समोसे लाल और काली रंगत के से हो जाते। फिर उन्हें जल्दी निकालने के चक्कर में समोसों की चमड़ी ठोस होकर अजीब- सी हो जाया करती और भीतर के मसाला स्वादहीन। एक दिन समोसों को रोज की तरह परात में सजाकर रखा ही गया था कि न जाने कहां से नानक आ गया। ‘‘वाह ठाकुरजी आज तो पूरी गली महक रही है समोसों से। क्या समोसे हैं तुम्हारे।’’ समोसों की असलियत से वाकिफ भाईजी सोचने लगे “ शायद  मैं ही अपने माल को कमतर आंक रहा हूं।’’ और ये सुनते ही नए जोश में भरकर भाईजी ने नानक को बड़े सम्मान से बिठाया और कहा--‘‘नानक आ बैठ। आज तू खा समोसे जितना तेरा मन चाहे।’’ भाईजी जानते थे दो-तीन से ज्यादा कोई खाने से रहा और बाद में फेंकने से अच्छा है इसके पेट में ही चले जाएं। प्लेट साफ कर नानक फिर से समोसों की शान में कसीदे पढ़कर चला गया। मैं गली के अंदर दोस्तों के साथ खेल रहा था। मैंने उसे पड़ोसी से कहते हुए सुना ‘‘ ऐसे समोसे हैं कि कुत्ते के  आगे धर दो तो वो भी मुंह न मारे।’ ’मन तो किया सारी असलियत खोल डालूं पर भाईजी के दुख को और बढ़ाने की मेरी इच्छा न थी।
                खाने की दुकान से धीरे-धीरे मायूस होकर जब मुफ्त में गली के घरों में भेजे गए समोसे भी ठुकराए जाने लगे या बेआबरू होकर  कूड़ेदान में पड़े दिखाई दिए तो भाईजी का मन उचाट हो गया। टिल्लू भैया ढूंढ-ढांढकर अपना खोमचा ले आए और भाईजी ने प्रेमी चाचाजी की मदद से एक मेज रखवाकर चाय का काम भी उनके लिए शुरू करवा दिया। कुछ दिन बाद सब अपनी जिंदगियों में रम गए पर भाईजी की टीस न मिट सकी । एक दुकान के भीतर दो सफल दुकानों को चला पाने का उनका मंसूबा अधूरा था। एक दिन नशे में टिल्लू भैया को एक तमाचा रसीद कर दिया--‘‘साले तूने कर दी धंधे की ऐसी-तैसी। पैसा डुबो दिया और नाम भी। जरा मन नहीं लगाया काम में। खर्चा करवाया सो अलग। नालायक, गलती की कि तुझपे भरोसा किया।’’ टिल्लू भैया ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। बस मां के आगे ही रोए-‘‘चाची क्या मैंने जानबूझकर किया? तुम बताओ मेरी गलती? बिना गलती के मार लगाई उनने मुझे।’’ मां ने तब भी भाईजी की तरफ से उनका मन मैला नहीं होने दिया जबकि लंबी बीमारी और  छोटी उम्र में  मेरे पिताजी के गुजर जाने से भाईजी का व्यवहार मां से ठीक नहीं था। मां के दुख को समझे बिना भाईजी ने मेरे सभी भाईयों को दिहाड़ी पर रूपया कमाने की सलाह दी थी। शायद कहीं बात भी पक्की कर ली थी पर मां हमें पढ़ाना चाहती थी । पिताजी खुद दिहाड़ी मजदूर थे इसलिए मां को ताना मारते हुए भाईजी ने कह भी दिया था -‘‘ चूहे के जाये भिट्ट खोदेगें लाट-अफसर नहीं बनेंगे।’   
                अगले दिन भाईजी काफी देर तक अपनी सफल और असफल दोनों दुकानों के आगे बैठे रहे। दरअसल वो बैठे नहीं थे टिल्लू भैया का इंतजार कर रहे थे। आज टिल्लू भैया तय समय गुजर जाने के बाद भी नहीं आए। भाईजी की बैचेनी बढ़ती ही जा रही थी। प्रेमी चाचाजी की लाई पांच सौ दो नम्बर की कितनी बीढि़यां उन्होंने राख कर दी थीं और अब नई सुलगाकर तेजी से चहलकदमी करते हुए कश  पे कश फूंक रहे थे। जब बात बर्दाश्त के बाहर हो गई तो उन्होंने अपने बेटों को दहाड़ते हुए पुकारा-‘‘ सूअर के बच्चों, सालों सोते रहोगे ? जाओ लपक के टिल्लू के घर और उसे यहां लाकर ही मरना।’’ प्रेमी चाचाजी ने चुप रहने में ही भलाई समझी। जब तक टिल्लू भैया नहीं आए हम सब दम साधे रहे। उनके आने पर भाईजी का स्वर एकदम बदल गया--‘‘ आ गया तू...अरे नाराज मत हो भइया। हो जाता है कभी-कभी। और तू मुझसे नाराज हो गया...मुझसे। चल अब औरतों की तरह रूसना छोड़।’’ प्रेमी चाचाजी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। यारी दोस्ती का हवाला दिया और भाईजी ने भी आगे बढ़कर बिना माफी मांगे उन्हें गले लगाया। अभी मामला ठंडा हुआ ही था कि भाईजी ने नया बम फोड़ दिया--‘‘ देख बे टिल्लू! जो बीती वो बात गयी। मेरे दिमाग में नयी बात आई है। दुकान के इस हिस्से में मसाला पीसने की मशीन लगाते हैं। खूब चलेगी देख लियो।’’ टिल्लू भैया की जान सांसत में आ गयी। अभी जख्म ताज़ा थे और उनके शरीर में नए घाव झेलने की ताकत न थी। वो इंकार कर ही देते कि न जाने कहां से नानक प्रकट हो गया और उसने भाईजी की बात सुनकर उस आइडिया की दाद दे डाली --‘‘ वाह ठाकुरजी क्या दिमाग पाया है आपने। खाली तो आप बैठ नहीं सकते न। मोहल्ले में एक कालिया की ही दुकान है मसाले की ,एक आपकी भी हो जाएगी। बीस ही ठहरेगी कालिया से लिखवा लो। हर घर में रोज मसालों की जरूरत है। और मसाला पीसना कौन-सा मुश्किल काम है? समोसे तलने से तो आसान ही है।’’ प्रशंसा के रैपर में जी जलाने वाली गोली  को चुपके से लपेटना नानक को बखूबी आता था। पर भाईजी आज किसी और ही मूड में थे। ‘‘चल टिल्लू चलके बात करते हैं साजिद से। मशीन बन ही जाएगी और जल्दी काम शुरू हो जाएगा। देखियो तेरे मटर-मोठ से ज्यादा नफे का होगा और चाय की दुकान की खिटपिट भी बंद हो जाएगी।’’
                टिल्लू भैया बेमन से साथ तो हो लिए पर शंका उनके साथ चली। साजिद खरादिये ने दूर से ही भाईजी को देखकर एक भद्दी सी गाली दे डाली और पास आते ही सत्कार में लग गया। भाईजी का प्रस्ताव सुनकर साजिद के मन ने कड़ाई से ‘ ना ’ कहा। उसने कहां बनाई थी ऐसी मशीन । कुछ ऊंच-नीच हो गई तो कौन खाए भाईजी की डांट और मार, पर उसे भाईजी की उधारी  भी चुकानी थी। पैसे थे नहीं पर एक पुरानी मोटर कब से उसके यहां धूल फांक रही थी। उसका ध्यान आते ही साजिद की न हां में बदल गई। जैसे-तैसे करके मशीन तैयार हो गई। इधर इस बार भाईजी ने ढेर सारा खड़ा मसाला खरीद लिया। साबुत लाल मिर्च, धनिया, हल्दी, काली मिर्च, सौंफ। कुछ थैलों में बड़ी इलायची, तेज पत्ता, लौंग, दालचीनी जैसे मसाले भी झांक रहे थे। कुछ दिन बाद  ठीक समय पर साजिद रिक्शे में मशीन को बड़े प्यार से बिठाए ले आया। प्रेमी चाचाजी ने दुकान को फिर से संवार दिया था। पतीला, अंगीठी, परात, चकला-बेलन, कड़ाही ,अचार की बरनी  और वो हर मनहूस सामान जिसने पुरानी दुकान बंद करवा दी थी उसे बाहर निकाल दिया गया जिसे भाईजी की छोटी बहू समेटकर ले गई थी। इस बार भाईजी ने विधि-विधान के टोटके भी कर डाले। मशीन पर गैंदे के फूल की माला चढ़ाई गई। गली के तमाशबीन लोगों को लड्डू भी बंटे। और नारियल टिल्लू भैया ने फोड़ा।
                अब बारी आयी मशीन चलाने की। तो कौन करे ये शुभ काम? ये काम तो भाई जी के ही जिम्मे था। उनके दोनों बेलदारों ने अपने काम कर डाले थे अब मिस्त्री का काम तो भाईजी ही करेंगे। और करना भी क्या था एक मामूली स्विच ही तो ऑन करना था। मशीन के ऊपर मसाला डालने वाले हिस्से को टिल्लू भैया ने साबुत मिर्चों से ठसाठस भर दिया था। निकासी की जगह पर चमचमाता , स्टील का ड्रम रख दिया गया। सभी लोग गली के इस नए काम पर निगाहें जमाए थे। कुछ काम पर देरी होने के बावजूद भाईजी के लिहाज से रूके हुए थे। मांओ के साथ उनके लाडले  भी चिपके-चिमटे खड़े थे। आस-पास के राहगीरों और दुकानदारों के लिए तमाशा शुरू होने वाला था तो कुछ नदीरे बचे हुए लड्डुओं पर निगाहें लगाए हुए थे। आखिर इंतजार की घड़ियां खत्म हुईं और भाई जी ने मशीन चला दी। घड्ड-घड्ड की आवाज से मशीन शुरू हो गयी तो साजिद की जान में जान आई। मसाला पिसना शुरू हो गया अब मिर्च को पाउडर रूप लेकर निकलना था। पर ये क्या? निकासी की जगह से भप्प-भप्प की एक अजीब सी आवाज हुई और तेज मिर्चों का पाउडर मसाला डालने की ऊपर वाली जगह से और ऊपर उठकर हवा में बिखरने  लगा। आस-पास खड़े लोगों की आंखें खुशी से नहीं मसाला लगने से पनियाने लगीं। नाक और मुंह के जरिए मसाला की धसक भीतर जाते ही चारों तरफ से छींकने, खांसने की आवाजें एकताल से होती हुईं तिगुन तक पहुँच  गई। चारों तरफ हाहाकार मच गया--‘‘ अरे बंद करो इसने...मशीन को रोको कोई।’’ इस दृश्य से सन्न और हक्के-बक्के भाईजी कैसे एकदम से स्विच को बंद कर पाते। उनकी तो सारी इंद्रियां गहरे सन्नाटे में  कैद हो रही थीं। कुछ भी समझ न पाने की स्थिति में खांसते हुए कुछ शब्द ही निकल पाए उनके रूंधे गले से जिसका अर्थ था--‘‘अबे टिल्लू बंद कर इस ससुरी को।’’ उम्मीद का आईना आंखों के आगे चूर-चूर होता देख भी टिल्लू भैया आंखों  को मिचमिचाते और नाक- मुंह को हाथ से दबाते किसी तरह मशीन के पास पहुंच ही गए और स्विच बंद कर दिया। एक बार फिर घड्ड-घड्ड का स्वर गूंजा और मशीन रूकी। उसके रूकने से पहले ही लोग जल्दी-जल्दी भाग चुके थे। कुछ मिर्चीले धुंए से बचने के लिए दरवाजों की ओट में समा गए थे। माएं अपने लाडलों के साथ भाग खड़ी हुईं थीं पर किसी चमत्कार की आस में भाईजी, टिल्लू भैया और प्रेमी चाचाजी ही न भाग सके और मशीन का शिकार बन गए। 
                उस दिन भाईजी ने जितनी गालियां मशीन को दीं उससे ज्यादा साजिद को दे डालीं। पर पूरे मोहल्ले में आंख , गले, नाक की जलन से बौराए लोग भाईजी को इससे भी चौगुनी गालियों से नवाज रहे थे। धीरे-धीरे जलन दूर होने पर लोगों का गुस्सा भाईजी के नए प्रयोग की छीछालेदर करने वाली हंसी और बाद में मजेदार ठहाकों में बदल गया। नानक तो हर सेकेंड में दस-दस ताली मारकर भाईजी की हंसी उड़ाने वालों का सरताज बना हुआ था। हंसी तो प्रेमी चाचाजी की भी नहीं रूक रही थी। मेरा मन किया सर फोड़ दूं  नानक का। कैसा भक्त बनता है भाईजी का! शाम को मशीन के रिव्यू की एक गंभीर बैठक हुई। मेरा काम रोज की तरह अड्डे पर पानी का  छिड़काव करना था। भाईजी की तिकड़ी गमगीन थी-‘‘अरे साजिद कह रहा था  कि मशीन तो फस्सकिलास है तो फिर गड़बड़ कहां हुई? ’’ भाईजी की बात का जवाब देते हुए प्रेमी चाचाजी ने कहा भी--‘‘बात तो सही है । मिर्चे तो पीसीं थीं मशीन ने पर वो बिखरी क्यों?’’ सुबह से निष्कर्ष की उधेड़बुन में लगे भाईजी को जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने कहा-‘‘जाइयो टिल्लू जरा कालिये की दुकान पर और देख के आ उसकी मशीन कैसे काम करती है?’’टिल्लू भैया के लौटने पर साजिद और मशीन दोनों निर्दोष पाये गए। मशीन में कोई एब नहीं था पर एक भयानक गलती कर दी थी भाईजी ने। ‘‘भाईजी मसाला निकालने की जगह पर कपड़ा तो हमने लगाया ही नहीं। कालिये के यहां मारकीन का कपड़ा लगा है मशीन के मुंह पर।’’ टिल्लू भैया के कहते ही भाईजी को अपनी गलती समझ में आ गई । वे तो समझ रहे थे कि मशीन नलके की तरह काम करेगी ।ऊपर से मसाला पिसेगा और निकासी की जगह से होता हुआ झरझर करता ड्रम के पेट में समा जाएगा। भाईजी गलती का एहसास कर ही रहे थे कि सामने से नानक के दर्शन हो गए--‘‘उल्लू के पट्ठे तू तो कालिया की मशीन देखके आया था बता नहीं सकता था कि कपड़ा चढ़ाना होता है उसपर।’’ ऊपर से भोले बनने का नाटक करते हुए और अपना अपराध कुबूलने के दौरान भी नानक का मन कह रहा था--‘‘बता ही देता तो बरसों बरस याद रहने वाला ये किस्सा कहां से बनता ठाकुर जी!’’
                अगले दिन टिल्लू भैया मारकीन भी ले आए पर इतनी जगहंसाई के बाद भाईजी का मन स्थिर न हो सका। मशीन का बटन दबते ही उस दिन का समूचा दृश्य उनके रौंगटे खड़े कर देता। फिर श्रीगणेश गलत होने को अपशकुन मानकर लोग कालिया के मसाले ही लाने लगे। कुल मिलाकर कालिया का एक दिन का भी नुकसान नहीं हुआ। कुछ दिन के बाद लोगों ने देखा भाईजी मशीन को रिक्शे पर लादकर कहीं ले जा रहे थे। पता चला साजिद को औने- पौने या मुफ्त में ही वो मशीन लौटानी पड़ी। चांदी साजिद ने ही काटी।
इस हादसे के बाद भाईजी अपनी गिरती साख के प्रति चिंतित हो गए। उन्हें लगा अगर ऐसे ही चला तो गली-मोहल्ले में बरसों-बरस बनाई इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। जो लोग पीठ पीछे हंसी-ठट्ठा कर रहे हैं वे सामने भी लिहाज नहीं करेंगे। यही सब सोचकर भाईजी अपने रौब-दाब को लौटाने-बनाने की कवायद में लग गए। सबसे पहले तो उन्होंने पहले से चली आ रही कमेटी के सदस्यों की संख्या बढ़ाई। वैसे भी हमारे मोहल्ला धन की दृष्टि से पिछड़ा ही था फिर सौ रूपये मासिक की कमेटी पर लोगों की आस लगी रहती। इसके चलते उनके बहुत से काम संवर जाते और आड़े वक्त में मदद हो जाती। चूंकि कमेटी के सर्वेसर्वा भाईजी खुद थे तो पहली कमेटी पर उनका ही हक होता। पांच हजार की  बूटी वाली कमेटी के लिए बोली लगती। इसका कारण ये था कि अधिक बोली लगाने वाले की कमेटी खुल जाती पर बोली लगाने का रूपया उसकी  कमेटी के रूपयों में से काटकर अन्य सदस्यों में पैसा बाँट दिया  जाता। भाईजी इस बंदिश से मुक्त थे। महीने के जिस दिन कमेटी खुलती पूरे मोहल्ले में उत्सव का सा  माहौल होता। हम बच्चों को साफ-सफाई और कुर्सी लगाने, दरी बिछाने के इंतजाम में लगना होता। आगे एक बड़ी टेबल सजाने की जिम्मेदारी मेरी होती। चाय-पानी का इंतजाम होता। पूरी गली लोगों से और बीड़ी के धुंए से भर जाती। लगे हाथ भाईजी कमेटी के लाभ गिनाते हुए एक भाषण भी लोगों को पिला देते। वे सोच-समझकर भाषण देने का समय तय करते। कमेटी निकलने से पहले का समय उनके अनुसार एकदम सही था। कमेटी खुलने के लालच में कोई कहीं भागता नहीं था और मर्जी न मर्जी उसे भाषण सुनना ही पड़ता था। पर कमेटी के काम से भाईजी ने बड़ी ही इज्जत कमाई और सदस्यों की संख्या का आंकड़ा पचास तक पहुंचा दिया। 
                भाईजी के नाकामी के  किस्सों पर कुछ धूल- सी पड़ने लगी थी। इसी बीच तिरासी का वर्ल्ड कप शुरू हाने वाला था। टिल्लू भैया क्रिकेट के शौकीन थे और प्रेमी चाचाजी भी खेल के जरिए गली के नौजवान लड़कों में खुद को एक स्टार की तरह देखना पसंद करते थे। ‘‘ ठाकुरजी ये मौका हाथ से न जाने दो। सारे लोग मान जाएंगे तुम्हारा लोहा।’’ एक गुदगुदी भाईजी के मन में होने लगी। फिर क्या था वर्ल्ड कप फाइनल का प्रसारण भाईजी की दुकान के बाहर दिखाया जाना तय हुआ। देर रात सीधे प्रसारण के लिए दुकान के आगे टीवी, वीसीआर वाले की दुकान से कलर  टीवी किराए पर मंगवाकर एक लंबे से स्टूल पर सजाया गया। दरियां बिछीं। गली और मोहल्ले की जबरदस्त भीड़ उनकी दुकान के सामने जमा हो गई। क्या लड़के,क्या आदमी, क्या अधेड़ और क्या बूढ़े क्या बच्चे- सभी झूमने लगे। अधिकांश घरों में टीवी नहीं था, उनके लिए बकायदा मैच देखने का इंतजाम कराने के चलते भाईजी का डंका पिटने लगा। टिल्लू भैया और प्रेमी चाचाजी ने भाईजी को सुपरहिट करा दिया। इधर इंडिया की टीम ने भी  जीतकर उनकी किस्मत चमका दी। हर किसी की जुबान पर भाईजी की मेहरबानी से इंडिया का मैच और शानदार जीत का किस्सा था। भाई जी का रूपया जरूर खर्च हुआ था पर रौब पहले से भी ज्यादा चमक गया था।
                भाईजी पूरी फॉर्म में आ गए थे। गली के लड़के भविष्य में मिलने वाले मैच के मजे की सोचकर अब उनकी बड़ी पूछ करने लगे थे और भाईजी सातवें आसमान पर बैठकर झूम रहे थे। लड़कों को अपनी बादशाहत तले देखकर उन्हें नशा होता। कई बार प्यार में तो कई बार गुस्से में उन्हें बेरोक-टोक गरियाने लगे थे। नए लड़कों के फैशन उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं थे। ‘‘ अबे अम्रिखान  के लमडे...संभलकर । आधी कमीज पेंट  में और आधी  बाहर क्यों  निकल रइ है तेरी.?.. और कालर उठा रखे हैं बताऊं अभी.. बाल काढ़े नहीं हैं और सीधे तरिया क्यों नहीं चलता बे। बटन बंद करले , बहुत देखे सीने वाले तेरे जैसे कबूतर । कौन सा तीर मारा है बे तूने?’’ ‘अम्रिखान के लमडे’ यानि अमरीकी लड़कों के नकलची , उनकी नजर में तुच्छ ,आवारा, हिप्पी जैसे , जिनको सुधारने का जिम्मा उन्होंने बिना किसी के दिए ही खुद ले लिया था। इस मामले में वे पूरे तरह स्वदेशी के भक्त थे। अमरीका के बारे में ज्ञान न होने पर भी उसे लज्जित करने का कोई मौका न चूकते। शुक्र है आज ओबामा को उनकी ये अनूठी गाली  सुनने को नहीं मिली नहीं तो महाबली का सारा अभिमान चूर-चूर हो जाता। चूंकि मोहल्ले के तमाम छोकरे एसे आड़े-तिरछे फैशन में कई- कई बार दिखते तो भाई जी  की जुबान हंटर की तरह ‘अम्रिखान के लमडे’ फटकारती रहती। लड़के जो बचपन से ही भाईजी का रौब देखते पले थे इन बातों का बुरा नहीं मानते । भाईजी का आत्मविश्वास इतना बढ़ चला था कि अब तो कोई औरत-आदमी उनके कमेंट सुने बिना गली से गुजर नहीं सकता था। कई बार मुझे लगता कि वे गली की मक्खियों तक पर छींटाकशी कर रहे हैं।

                 रात में शान से गली में सोते। अधिकतर  मैं ही उनका बिस्तरा किया करता। खाट पर गद्दा-चादर लगा देता और उनका बेटा यानि बड़े भैया घिया रंग का उनका चमचमाता टेबलफैन स्टूल पर लगा देते। साथ में पानी का गिलास ढककर रखा जाता। कहना न होगा कि भाईजी के ठाठ निराले थे। गर्मी में कमरे के भीतर सोना उन्हें पसंद न था। ताई के गुजरने के बाद कई बार घर में बनी बाजरे की खिचड़ी, साग, हलवा जैसा तर माल और कम बनने वाली मटन की सब्जी मां उनके लिए भिजवा देती। चिकन-मटन के तो जबरदस्त शौकीन थे। वैसे बहुएं भी उनके बेटों की तरह उनसे दबती-डरती थीं इसलिए सेवा मे कमी नहीं छोड़ती थीं। बेटे पढ़ नहीं पाए पर भाईजी के रूपये-पैसों से अपने परिवार की गाड़ी खींच रहे थे। बड़े लड़के को तो फिर भी कहीं छोटी-मोटी नौकरी मिल गई पर छोटे को कोई काम न मिलने से भाईजी ने उन्हें दुकान पर बिठवा दिया। बिन मांगे मोती मिलने पर भी छोटे भैया ने अपनी तरफ से आगे बढ़कर न ही कोई उत्साह दिखाया न कोई लगन। हां जुआ खेलने का ऐब जरूर पाल लिया जिसके कारण बाल-बच्चेदार होने पर भी वे भाईजी से पिटा करते। ऐसे लड़के पर भी उन्हें कम गुमान नहीं था। धमधूसर और आलसी लड़के की सारी असलियत जानने वालों के सामने भी  अक्सर कहा करते थे--‘‘ऐसा लड़का है जी .. के जमीन में पैर मारे तो पानी निकाल दे।’’ उनके वफादार टिल्लू भैया इस झूठ पर भी अपना सिर हिलाते रहते। 
                काफी समय ऐसा चलने से भाईजी के जीवन में उकताहट- सी भर रही थी। वो फिर से कुछ नया करने की फिराक में थे। उनकी मौत के बाद जब मैंने उनकी इस उकताहट पर ठहरकर विचार किया तो समझ सका कि जीवन में हरदम एक नए काम की तलाश दरअसल उनके मन का एक खालीपन था । एक ऐसा खालीपन जो सही काम और सही मुकाम न मिलने के कारण पैदा हुआ था। कम पढ़े- लिखे  होने को तो उन्होंने अपने रौब और रूपये से ढंक दिया था पर उस खालीपन को कभी न भर पाए। उनके जैसे लोग अक्सर अपने हालात से समझौता कर लेते हैं पर भाईजी ने ये मिजाज पाया नहीं था। अति आत्मविश्वास और उत्साह का सागर उनके मन में छलकता  रहता  था। इसी उद्यमशीलता ने फिर से प्रेरित किया और  फिर टिल्लू भैया के धंधे  पर खतरा मंडराने लगा। हो भी क्यों नहीं अब नए खतरे उठाने से मन डरता था और मन की सुनते तो बहुत पहले ही भाईजी से अलग हो चुके होते। उम्र तो भाईजी की उनसे अधिक थी पर जोश नौजवानों का था। इस बार बहुत दिन बाद हूक उठी थी उन्हें।  सोचा कि दुकान के कोने को फिर आबाद किया जाए। पर इस बार मुंह  छोटे बेटे और बहू ने बिचकाया। कारण था कि दुकान को समेटने से छोटे बेटे का धंधा मंदा पड़ने का खतरा था। उसका परचून का शुरू किया धंधा अभी जमा नहीं था और फिर भाईजी का जोड़ा रूपया कोई कुबेर का खजाना तो था नहीं कि बढ़ता ही जाता। धंधा मंदा होने से भाई जी के नौकर  भी कबके विदा हो चले थे । दोनों भाईयों ने  पत्नियों संग सलाह की , कि भाईजी को रोका जाए पर उनकी दबंगई के आगे मुंह कौन खोले? तमाम मुसीबतों को पार करके भाईजी ने फिर टिल्लू भैया को मना लिया--‘‘ देखियो टिल्लू हमारी पिट्ठी-चटनी की दुकान खूब चलेगी। शादी-ब्याह में सबको दाल की पिट्ठी चाहिए ही। मूंग हल्वे की,  दही-वड़े की, पकौड़ों की पिट्ठी की मांग कभी खत्म न होगी। हल्वाइयों से प्रेमी बात कर रहा है। बुढ़ापे का सहारा हो जाएगा। राज करेंगे राज।’’
                दुकान का अभिशप्त कोना फिर आबाद हो गया। पैसा और दांव खेलकर मशीन आ गई। दाल की पिट्ठी बनाने की बड़ी- सी मशीन लोहे के पुराने स्टैंड पर धर दी गई। नानक और नानक जैसे कई लोग ताक में थे कि इस बार फिर से अर्से तक चटखारे लेकर सुनाने वाला किस्सा हाथ लगने वाला है। दिल तो टिल्लू भैया का रात ही से बैठ गया था जब वो सुबह पीसी जाने वाली दालें भिगो रहे थे। जाने क्या बड़बड़ा रहे थे लगता था कोई मनौती- सी मांग रहे हैं। सुबह दाल पिसी और कमाल की बात ये रही इस बार कोई गड़बड़ नहीं हुई। तमाशबीनों का दिन खाक हुआ क्योंकि दाल कुछ देर भगौनों में प्रतीक्षा करने के बाद ग्राहकों के घर भी पहुँच  गईं। भाईजी एक अचंभित हंसी हंस रहे थे। कमाई और मुनाफे का गणित आज कुछ ज्यादा न बैठा था पर संतोष और आत्मविश्वास का समीकरण हल होता दिख रहा था। इस बार भाईजी की तिकड़ी हर दिन जोश पकड़ रही थी। प्रेमी चाचाजी भी इस बार मन लगा रहे थे। कई बार पिट्ठी में कोई कमी आ भी जाती तो टिल्लू भैया अपने जीवन का पूरा अनुभव निचोड़कर उसे सुधार देते। ग्राहकों को पटाने का जिम्मा प्रेमी चाचाजी का था ही। बस भाईजी की आवाज फिर गूंज उठी। गली के लड़कों के फैशन पर फिर से छींटाकशी होने लगी और अमरीका फिर से लज्जित होने लगा। ‘अम्रिखान के लमडे’ गली में घुसते-निकलते समय भयभीत रहने लगे।

सब कुछ ठीक चलने पर भाईजी खाने की नित नई चीजें बनाने, बेचने की प्लैनिंग करने लगे। कभी मटके पर रोटी  सेंकने के निराले काम के बारे में सोचते तो कभी मटन पुलाव बनाने के बारे में। गजब का आत्मविश्वास उन्हें दृढ़ता देता कि वो जो भी बनाएंगे अव्वल दर्जे का होगा। उनकी अनंत इच्छाएं मुक्त आकाश में विचर ही रही थीं कि एक दिन पिट्ठी पीसते हुए मशीन धोखा दे गई। आवाज पूरी हो रही थी पर मशीन की बेल्ट ने घूमना बंद कर दिया। भाईजी ने फुर्ती दिखाने के चक्कर में रूकी हुई बेल्ट को अपनी उंगली से घुमाना चाहा कि अचानक बेल्ट तेजी के साथ उनकी उंगली घसीटती घिर्रीदार ब्लेड में  ले गई और खट्ट से उनकी उंगली का ऊपरी हिस्सा मशीन में कट गया। भाईजी का हाथ खून से  लथपथ हो गया। मशीन तो चल पड़ी पर भाईजी का धंधा  ठप्प हो गया। उंगली का जाना एक अभिशाप की तरह भाईजी के जीवन में उतरा। उन्हीं दिनों भाईजी की कमाई और पुराने जेवर चोरी हो गए । हमेशा लोगों से भरी गली में चोर कब आया कब गया किसीको पता ही नहीं चला पर बाद में पूरी गली में ये चर्चा गर्म रही कि छोटे भैया ने जुए में बहुत कुछ गवां दिया है । 
                ये भाईजी के बुरे दिनों की शुरूआत थी। पूरे जी-जान से जिस शान को बढ़ाते-बचाते रहे थे अब उसकी मिट्टी पलीद होने के दिन थे। पूंजी और दुकान हाथ से निकल जाने पर सबने रंग दिखाना शुरू कर दिया। मैं बी.ए. में पढ़ रहा था उन दिनों जब देखा भाईजी खाने को तरस रहे हैं। ‘‘ देख ले बेटा सूअर के बच्चों ने गत बना दी तेरे भाईजी की। क्या नहीं किया इन सुसरों के लिए। पानी को नहीं पूछते दोनों। ’’ मां से सुना करता था कि समय साथ न हो तो साया भी साथ छोड़ देता है--भाईजी के केस में मैंने इस बात को सच होते देखा। उम्र ,धन और शरीर का ख़त्म होना आदमी को कितना निरीह और लाचार बना देता है भाईजी इसके प्रमाण बन चुके थे ।  हर समय बीड़ी- सिगरेट पीने की लत के चलते उन्हें भयानक दमा हो गया। बलगम वाली खांसी के लंबे दौरे जैसे ही पड़ते बहुएं गंदी गालियां देने लगतीं। राज पलट गया था। कद से नाटे भाईजी बहुत कमजोर से दिखते थे। उनको देखकर गली का नया बच्चा सोच ही नहीं सकता था कि इस आदमी से किसी जमाने में गली-मोहल्ला थर्राता था। प्रेमी चाचाजी तो ये दुर्दिन देखकर जल्दी ही छिटक गए। नानक के संग मिलकर कमेटी के सर्वसर्वा वही बन गए। सब कुछ एकसाथ ही छीन लिया गया भाईजी से । पर टिल्लू भैया आखिरी दम तक अपने खोमचे से उन्हें जैसे- तैसे  पालते रहे। वो न जाने कैसे अपना परिवार चला रहे थे । ऊपर से उनकी रोज़ पीने की लत । पर भाईजी की हुक्मऊदूली नहीं की कभी। मां दिन का खाना दे जातीं तो वो भी छोटी बहू से न देखा जाता। भाईजी को चोरी- छिपे कुछ रूपए देने वाली माँ को जब लालची और घर के भेदी का तमगा मिला तो उनकी उदारता पर ताला लग गया । ढाबे का मिर्चीला खाना भाईजी की  जुबान को बेहद  तकलीफ पहुंचाता इसीलिए  रोज खाने की रस्म निभाने के बाद बचा हुआ खाना टिल्लू भैया से कूड़े में फिकवा देते ।
                अपने अंतिम दिनों में भाईजी दुकान के पीछे के स्टोरनुमा कमरे में एक  ढीली-ढाली खाट पर बिछी चीकट चादर पर पड़े रहते। स्टूल पर पड़े टेबल फैन का चमकदार रंग गायब हो चुका था । कभी भव्यता की कहानी कहने वाले उसके घिया रंग को देखकर अब उबकाई -सी आती थी। भाभियों की सख्ती के बाद भी मैं कई बार लाइट जाने पर उनके कमरे में पंखा झला करता था तो मेरे हाथ को पकड़कर कहते ‘‘रहने दे भैया गर्मी की आदत हो गई है अब तो  मुझे। तू लिखने-पड़ने वाला लड़का है टैम न खराब किया कर। ’’ मैं गहरे दुख से उनका हाथ परे सरकाता और पंखा झलते हुए स्वरहीन आवाज में मेरे सवाल चिल्लाते--‘‘ क्यों पड़े हो इस गंदे ढीले बिस्तर पर? क्यों नहीं फिर से वैसे ही सोते हो गली में शान से? उठो और चीखो अपने लड़कों पर?  छीन  क्यों नहीं लेते अपनी दुकान ? फिर से गालियां क्यों नहीं देते , हडकाते क्यों नहीं  गली मोहल्ले के लोगों को ? क्यों खाते हो बहू की अपमान से दी हुई रोनी सूरत वाली खिचड़ी? उठो फिर से सोचते क्यों नहीं कोई नया काम? इस कबाड़खाने से भागते क्यों नहीं? भाईजी तुम मेरे हीरो थे, नहीं देखा जाता मुझसे कि कोई तुम्हारा अपमान करे, तरस खाए।’’  अपने ही अंतिम शब्द मेरा दिल घोंटकर रख देते और मैं मर्दानगी को लात मारता हुआ चीख- चीखकर रोता। मेरा स्वर निशब्द था पर आंखें रोने की गवाह रहतीं। पर भाईजी वैसे ही अडि़यल और ठीठ बने रहते  और मेरी एक न सुनते ।
                उनके बीमार शरीर को ढोकर कभी मैं और टिल्लू भैया किसी सरकारी अस्पताल तक ले जाते । हर बार लगता भाईजी नहीं रहेंगे पर भाईजी कुछ और सांसे खींचकर गाड़ी आगे  बढ़ाते रहे। मैं सोचता बस नौकरी लगने तक भाईजी बचे रहें सब देख लूंगा। किसी की नहीं सुनूंगा। आखिरी बार भाईजी को कुछ-कुछ पुराने भाईजी से मिलते तब देखा जब मेरा एम.ए. का रिजल्ट आया और मुझे प्रथम श्रेणी मिली। हमारे खानदान में मैं पहला एम.ए. पास था। ‘‘ अबे टिल्लू जा भागके मुकंदी के और लड्डू ला किलो भर । पहला लड़का है खानदान और गली-मोहल्ले का जो एम.ए. पास हुआ है। मजाक नहीं है, कर सके है कोई इसकी बराबरी?’’ भाईजी की कांपते से शरीर से हंसी फूटी पड़ रही थी। टिल्लू भैया से कहकर उन्होंने गली में लडडू बंटवाए और मुझे ढेर सारे आशीष दिए। मेरा विश्वास बढ़ रहा था कि मैं अपने हीरो को उसके पुराने रूप में लौटा लाउंगा पर वो बुझने से पहले की आखिरी चमक थी भाईजी के चेहरे पर। और भाईजी चले गए।  रूआब, ठसक, आवाज की मजबूती और गठा हुआ शरीर सबको बहुत पहले छोड़ चुके भाईजी जो केवल सांसें ही थामे थे... उन्हें भी छोड़ चले। वर्षों  बाद उनकी देह को साफ़ चादर नसीब हुई थी । चादर में लिपटी उनकी पोटली जैसी देह को अपना अंतिम प्रणाम और दान देने के लिए टिल्लू भैया उनके पास बैठे आंसुओं से बुदबुदा रहे थे-‘‘ मेरी भूल-चूक माफ करना तुम ...चल दिए न  ठाकुर जी मुझे छोड़कर...उठ जाओ हठ न करो अब... देखो अम्रिखान के  लमडे आज कैसे तुम्हारे सामने मूरत बने खड़े हैं। ’’
               
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परिचय

 नाम  - प्रज्ञा

प्रकाशित किताबें - राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति  वाणी से जनता के बीच : जनता की बात नुक्कड़ नाटक संग्रह , एन सी ई आर टी से तारा की अलवर यात्रा और सामाजिक विषयों पर आधारित आईने के सामने। 

प्रकाशन - कथादेश,वागर्थ,बनासजन , जनसत्ता ,पक्षधर, परिकथा, सम्प्रेषण ,अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित।
पत्र पत्रिकाओं में लेख समीक्षाएं संस्मरण।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रमों में भागीदारी।
सम्प्रति किरोड़ीमल कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर।


पुरस्कार - तारा की अलवर यात्रा के लिये सूचना प्रसारण मंत्रालय का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार।