Thursday, March 19, 2015

योगिता यादव की कवितायें




कथाकार योगिता यादव की कवितायें चौंकाती हैं!  इन दिनों वे कवितायें क़म लिखती हैं पर मुझे उनकी कवितायें पढ़ने का अवसर मिलता रहता है!  ये कवितायेँ दरअसल एक स्त्री की अन्तःचेतना का विस्तार हैं!  उनके भीतर कुछ तरल है, कुछ कारुणिक है जो लगातार बहता है और एक बेचैनी है जिसकी परिणीति कविताओं के माध्यम से होती है!  भूमि अधिग्रहण के आलोक में उनकी कविता 'दिल्ली' आज भी प्रासंगिक है जो कई जगह खराश लगाती है!  वहीं अन्य कविताओं के माध्यम से एक स्त्री द्वारा उठाये कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर मिलना अभी भी बाकी है!  उनकी कहानी तो हम यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं, आज पढ़िए योगिता की कुछ कवितायें........ 

 


दिल्ली

मां
मोहम्मद पुर को याद करती
और शकूर पुर जाने से कतरा जाती

मां-बाप के रहते भी
उसे मायका कहां लगता था
50 गज का वह प्लॉट
और अब तो संकरी गलियों
और देह तौलती नजरों से तंग
उसकी राखी भी नहीं पहुंचती थी वहां तक

फर्क दक्षिणी से पश्चिमी दिल्ली का नहीं
उसकी यादों का था-
जामुनों से सनी फ्रॉक की झोलियों का था
अंगुलियों में चुभे झरबेरियों के कांटों का था

उसे भला लगता था वह गांव भी
जहां कालेज था बड़ी सड़क के पार
और लड़कियां अमूमन
नहीं करतीं थीं बड़ी सड़क को पार

47 से पहले
इन्कलाबी नारे लगाता
रेल की पटरियां उखाड़ता
47 के बाद
जिसे ईनाम में मिली थी सरकारी नौकरी
उसी विलायती पिस्तौलों और
काले घोड़ों के शौकीन
16 गायों वाले ग्वाले की बेटी थी वो

जाटनियों और गूजरियों की सहेली
पंजाबियों का कौशल कहां सीख पाई थी
कहां जान पाई थी कि बिक सकता है-
सरसों का साग भी
कमरक और
टीट का अचार भी
सुहाग गीतों की मीठी तान भी
कढ़ाईदार तकियों के गुलाब भी
पत्थर पर घिसी मेहंदी के डिजाइन भी

और उस कुएं का पानी भी
जो आधा बच गया था लाल डोरे की गिरफ्त से
लाल डोरे ने ही तो बांध दिया था सब कुछ
जैसे कच्चा घड़ा कट जाता है
घूमते चाक से
कट गई थी वह भी
एक डोरे की धार से

अफवाहें खूब थीं
खुशहाल होगी राजधानी
लोग पहचान नहीं पाएंगे
ऐसा बदलेगा दिल्ली का नक्शा
नया.. नया...
सब नया सा होगा
जगह बड़े मौके की है
मुंह मांगे मिलेंगे
पुराने पड़ चुके घरों के दाम

चिंता नहीं
घरवालों को भी बसाएंगे कहीं
यहां न सही, कहीं और सही
'बेच बाच'  देना काले घोड़े
और गाय सभी
सरपट दौड़ती दिल्ली में
क्या करेंगे तभी

सचमुच बदला तो है
ह्यात रिजेंसी की शान पर
मोहम्मद पुर जमींदोज है
चौधरियों के हुक्के
और किवाड़ों की सांकलें
दिल्ली हाट के
डेकोरेटिव आइटम हैं
दिल्ली पर उमड़ पड़ा है बाजार
जामुन अब ठेके पर टूटते हैं
सफदरजंग के खंडहर अपना पता पूछते हैं

बढिय़ा है जीवन की चक्की
चकाचक चल रही है
मां अब भी जी रही है
पर बीमारी
दक्षिणी से बाहरी दिल्ली
की ओर बढ़ रही है

जगह बड़े मौके की है
मुंह मांगे मिलेंगे दाम

फिर से दिल्ली
मास्टर प्लानों की गिरफ्त में है
फिर से खेतों से हल जुदा हो रहे हैं
फिर से खलिहानों के मार्केट रेट लग रहे हैं
फिर से चौपालों में मल्टीप्लेक्स बन रहे हैं
फिर से.........

आह्वान

मैं सिंचूंगी तब तक
जब तक तुम
वटवृक्ष से छतनार नहीं हो जाते

मैं चलूंगी तब तक
जब तक तुम
अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते

मैं गाउंगी तब तक
जब तक तुम्हें
सरगम कंठस्थ नहीं हो जाती

आओ मेरी पीढिय़ों
और उनकी पीढिय़ों
मेरे केशों पर हो कर सवार
चलो उस प्रज्ञा शिखर तक

तोड़ डालो
लोहे के वो पिंजड़े
जो बादशाहों ने कस दिए थे
अविकसित खोपडिय़ों पर
और पिघला डालों
वो सब सांचे
जो इंसान को बांटते हैं
औरत और मर्द के खोल में


वाम अंग

तुम्हें पता था
तुम जानते थे

प्रथम प्रवेश पर
मेरे पांव से
अक्षत कलश
ढुलकाते हुए भी
तुमने निर्देश तो दिया था

....कि दाहिना ही पहले उठेगा

उठता ही है
उठना ही चाहिए

क्या इसलिए
तुमने मेरा स्थान वाम अंग रखा?

 



अरसे बाद

तुम्हारे ब्लॉग पर
इठलाती तुम्हारी तस्वीर
मेरे मन के भीतर
सकुचाती तुम्हारी याद

कुछ भी तो नहीं बदला

सितार की तार सा लयबद्ध
मेरे होने पर तुम्हारा व्याख्यान
भी तो नहीं बदला

तुम पूछते हो यूं ही हाल चाल
मैं बताती जाती हूं सब हाल
अच्छा, सीधा-सच्चा
फिर छुपा जाती हूं
एक अध्याय

....कि शायद तुम्हें अप्रिय लगे
एक रत्ती सिंदूर मेरी मांग का

*******


पेंटिंग : मुरलीधर सहदेव जोशी और अभिजीत दास 

योगिता यादव की कहानी यहाँ पढ़ी जा सकती है   नागपाश (कहानी) -योगिता यादव

4 comments:

  1. आज 21/मार्च/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  2. योगिता यादव जी सार्थक व चिंतनशील कविताओं से रु-ब-रु करने हेतु आभार!
    हिन्दू नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!

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  3. सुन्दर कवितायेँ अपनी गरिमा में समाई मुग्ध करती हैं।

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