Monday, March 9, 2015

रंग

वह अक्सर रंगों से घिरी रहती। चटख रंग, दिप दिप करते रंग, खूब सारे रंग। उसकी पेंटिंग्स में खिलखिलाते, कहकहे लगाते रंग। और वो उदास रंगों में लिपटी उदासी का पैरहन लपेटे, खामोश उन्हें सजाती रहती। 

"उँह, 17 साल भी कोई उम्र होती है, उदास सफ़ेद, बोरिंग धूसर, सुबक सुबक ग्रे और ग़मगीन ऑफ़ वाइट पहनने की। दुनिया कितनी रंगीन है लड़की। रंगों से मुहब्बत करो।"

"पर मेरा सांवला रंग?" उदास लड़की ने धीमे से कहा।

"अल्लाह, ये बड़ी बड़ी आँखें, इनमें झिलमिलाते रंगों से भला कुछ हसीन है। उतार फेंको उदासी की चादर। विदा करो संजीदगी। रंगों को  आने दो।"

फिर रंग आये। एक-एककर सारे रंग आये। सुर्ख लाल, शोख नारंगी, खिलता गुलाबी, हरियाला हरा और मन को ठंडक देता नीला। उनसे घबराकर उदासी फाख्ता बन उड़ गई। अवसाद पानी बन बह गया और संजीदगी एक जम्हाई ले लम्बी नींद सो गई। 

एक शाम दिल के दरवाज़े पर धीमी सी दस्तक हुई। उसने पूछा, "कौन?"

खुश्बू के झोंके ने कान में फुसफुसाया, "प्रेम"

उस साल वसंत सर्दियों से पहले ही आ गया था।

3 comments:

  1. कई बार कहानियाँ भी बहुत प्यारी सी लगती हैं इंसानो की ही तरह. यह भी ऐसी ही लगी!

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  2. उम्दा रचना कविता जैसी

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