Thursday, October 8, 2015

किनारे की चट्टान : पहाड़ का दर्द और सामाजिक सरोकार की कवितायें







सुदूर हिमाचल प्रदेश से कोई कवि जब अपनी किताब भेजता है, तो उसका आनंद कुछ और ही होता है और फिर उस काव्य संग्रह की कविताएं बेहतरीन हों तो यह आनंद द्विगुणित हो जाता है। युवा कवि पवन चौहान के काव्य संग्रह ''किनारे की चट्टान'' जब मेरे हाथ में आया तो मेरा यही अनुभव था। पवन चौहान से मेरा परिचय सोशल साइट की वजह से है और यह इस माध्यम की एक खूबसूरत उपलब्धि कही जा सकती है। 

बहरहाल जिस दिन यह संग्रह हाथ में आया, मैं एक बैठक में ३२ पेज पढ़ गई, लेकिन बाद में ऐसा संयोग नहीं हो पाया और शेष पृष्ठ पढ़ने में एक हफ्ता लग गया, लेकिन वह एक हफ्ता न पढ़ पाने की बेचैनी से भरा था। कविताऐं या कोई भी पुस्तक पढ़ने में लेखक से परिचय/अपरिचय मायने नहीं रखता किन्तु इस संग्रह को पढ़ते समय कवि के वातावरण से अपरिचय का भान जरूर हुआ। फिर भी कविताओं ने आकर्षित किया और बांधे रखा , मेरे विचार से इस संग्रह की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है!

प्रस्तुत संग्रह पढ़ते हुए एक बात ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। अनेक कविताओं में रिश्ता प्रमुख तत्व के रूप में उभरकर आया है। पवन ग्रामीण परिवेश से हैं और शायद यही वजह है कि वे रिश्तों को ज्यादा तवज्जो देते हैं। यह बहुत सुखकर भी है। पहली ही कविता ''बाड़'' में कवि को संयुक्त परिवार में माता-पिता का होना सुरक्षा का अहसास कराता है ----

''माँ की ममता
और पिता के हौंसले ने
संभाल रखा है सब लकड़ियों को एक साथ
जैसे ताउम्र संभाला उन्होंने अपना परिवार ''

इसके तुरंत बाद आई कविता में कवि पुत्र के प्रति चिंता जाहिर करता है। अपनी कविता ''जाने कब'' में पवन कहते हैं ---

''झुर्रियां लटकाए
नम आँखों से देख रहा हूं
एक एक पल को खिसकता
सदियां समेटता''

''खांसते पिता'' किसी के लिए नींद में खलल का कारण बन सकते हैं, पर संवेदनशील और रिश्तों के प्रति जागरूक कवि को पिता की रात बेरात उठनेवाली खांसी में घर की सुरक्षा निहित दिखाई देती है। अपने माता पिता की वृद्धावस्था के प्रति संवेदनशीलता यह एक नायाब उदाहरण है

रिश्तों के अलावा कवि पवन चौहान सामाजिक सरोकार की कविताएं लिखते हैं। उन्हें पर्यावरण की चिंता है. पहाड़ी क्षेत्र में निवास के कारण पहाड़ों से एक स्वाभाविक लगाव है। ''पहाड़ का दर्द'' में पर्यटकों की पहाड़ों के प्रति बेरुखी और वहां कबाड़ छोड़ जाने की वेदना छुपी है, जिसे कोई पहाड़ी ही समझ सकता है। सामाजिक सरोकार की सबसे बेहतरीन कविता ''कभी कभी'' है. इसमें कवि तमाम परिस्थित्तियों के प्रति अपना दुख, पीड़ा,क्षोभ व्यक्त करता है और अंत में

''आईने पर नजर पड़ते ही
मेरा सारा गुस्सा,सारी पीड़ाएं
हो जाती हैं धराशायी
और मैं ढूंढने लगता हूँ
अपने छुपने का स्थान''

यह विवशता,असहायता हर संवेदनशील व्यक्ति की है, जिसे पवन ने शब्दों में ढाला है। यों तो पूरा संग्रह ही पठनीय है,पर कुछ कविताएं अंतर्मन में हमारा पीछा करती हैं, इनमें ''सेब का पेड़'',शहर और मैं, खिलौना,बचपन की चाहत,किराए का मकान,मैं अभी आदि हैं। ''किराए का मकान'' अद्भुत है. इस मकान में अनेक लोग आते-जाते हैं और उस मकान को लगता है कि ---

''मैंने बहुत कुछ देखा,सुना,महसूस किया
ढेर सारा अनुभव पाया
पर अफ़सोस
मैं कभी घर नहीं बन पाया''

सभी कविताएं मुक्त छंद में हैं और सरल,सहज,प्रवाही हैं फिर भी क्षेत्रीय शब्दों की भरमार खटकती है। यद्यपि कई जगह उनके अर्थ दिए गए हैं,तब भी वे रुकावट तो बनते हैं। यह सही है कि इस तरह के प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है,पर व्यापकता के लिए, खास तौर पर कविताओं में , यथा संभव स्थानीय भाषा से बचा जाना चाहिए। बोधि प्रकाशन जैसे प्रतिष्ठान से पहला ही संग्रह प्रकाशित होना मायने रखता है, इस हेतु पवन चौहान बधाई के हक़दार हैं। प्रूफ की गलतियां न के बराबर हैं। चित्रकला के बारे में मैं बहुत ज्यादा नहीं जानती, पर संग्रह के शीर्षक से मुख पृष्ठ का तालमेल नजर नहीं आया। मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है , आसानी से खरीदा जा सकता है और यह संग्रह खरीदे जाने योग्य है।


-अलकनंदा साने, इंदौर

(वरिष्ठ कवयित्री, लेखिका, अनुवादक और एक्टिविस्ट)