Wednesday, April 15, 2015

नई सदी की कविता में प्रतिरोध का सौंदर्य : डॉ अजीत प्रियदर्शी




पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेले में 'गाथांतर- समकालीन कविता महा विशेषांक खण्ड-1' का लोकार्पण
किया  गया! डॉ सोनी पाण्डेय इस पत्रिका की संपादक है और इस विशेषांक का संपादन युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने किया है!  इसी पत्रिका से समकालीन हिंदी कविता पर डॉ अजीत प्रियदर्शी का यह विस्तृत आलेख पढ़े जाने की मांग करता है.........


  


        पिछली सदी के मुकाबले नयी सदी में शोषण, उत्पीड़न और शत्रुता के तौर-तरीकों में काफी तब्दीली आई है। नये युग के शत्रु हमें शत्रु की तरह दिखाई नहीं देते। उनकी हिंसा और पैने नाखून भी साफतौर पर दिखाई नहीं देते। इस भूमण्डलीकृत युग में जिस अनुपात में सत्ता की अमानुषिकता बढ़ी है, साम्राज्यवादी शक्तियों ने मानव मस्तिष्क को अनुकूलित करना शुरु किया है, तब से अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वाली जनचेतना की धार कुंद होने लगी है। लेकिन हिन्दी कविता इन दुरभिसंधियों को अनावृत करती हुई एक पहरुए की तरह इस आत्मकेन्द्रित होते समय में भी जन-सरोकारों के साथ मजबूती से खड़ी है।1 हाल के वर्षों में भारत में विश्व व्यापार संगठन  के इशारे पर विश्व बाजार के लिए खुली अर्थव्यवस्था, कारपोरेट वर्चस्ववादी भूमंडलीकृत बाजार, बाज़ारवाद व उपभोक्तावाद, सत्ता की सह पर संसाधनों की कारपोरेट लूट की मनुष्यविरोधी क्रूर स्थितियों और कठिन समय में आज की हिन्दी कविता मनुष्य के हाहाकार और उसके प्रतिरोध की आवाजों को दर्ज कर रही है। कविता प्रतिरोध का सांस्कृतिक औज़ार भी है और नाउम्मीदी के दौर में उम्मीदभरी रोशनी भी। नोबेल पुरस्कार विजेता रोमानियन कवि मारिन सोरेसक्यू ने कविगण और कविता शीर्षक वक्तव्य में कहा है- ‘‘मुझे कविता में वह पहली ज़मीन दिखाई देती है जहाँ कोई व्यक्ति सच कह सकता है; सिर्फ कविता ही पूरी सटीकता के साथ हमको अभिव्यक्त कर सकती है, एक इसी के माध्यम से हम स्वयं तक वापस लौट सकते हैं, अपना पुनर्निमाण कर सकते हैं ठीक उस मकड़े की तरह जो पत्तियों पर छोड़े अपने स्राव के सहारे अपने रास्ते का निर्माण करता है।’’2

        आज की हिन्दी कविता के परिदृश्य में एक साथ तीन पीढ़ी (वरिष्ठ, युवा और नयी पीढ़ी) के कवि सक्रिय हैं। नयी सदी में जहाँ एक ओर विजेन्द्र, केदारनाथ सिंह, अरुण कमल, कुँवर नारायण, नरेश सक्सेना आदि की वरिष्ठ पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवि सक्रिय हैं, तो दूसरी तरफ युवा और नये कवियों की प्रतिभाशाली पीढ़ी की रचनाशीलता हमें आश्वस्त कर रही है। नयी सदी में हिन्दी कविता की युवा पीढ़ी में महत्वपूर्ण रचनाशीलता के साथ सामने आने वालों में निलय उपाध्याय, केशव तिवारी, जितेन्द्र श्रीवास्तव, हरे प्रकाश उपाध्याय, सन्तोष कुमार चतुर्वेदी, महेशचन्द्र पुनेठा का नाम उल्लेखनीय है। आज की हिन्दी कविता की नयी प्रतिभाशाली पीढ़ी में विजय सिंह, बुद्धिलाल पाल, , शम्भु यादव ,राम जी तिवारी एअच्युतानंद मिश्रा एअविनाश मिश्र ए कमलजीत चैधरी, रवीन्द्र के॰ दास, कुँवर रवीन्द्र,  मृदुला शुक्ल, अन्जू शर्मा, मनीषा जैन, प्रेमनन्दन, सोनी पाण्डेय, नारायणदास गुप्त, शिवानन्द मिश्र उल्लेख किया जा सकता है।

        नयी सदी में यह तथ्य सबके सामने खुल चुका है कि वैश्वीकरण का तन्त्र बाज़ार केन्द्रित है और बाज़ार मुनाफा केन्द्रित। नयी सदी के आरम्भ से ही भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के साथ निरन्तर फैलते विश्व-बाज़ार में बिल्कुल नयी, क्रूर, मनुष्यविरोधी स्थितियाँ सामने आईं हैं। नवें दशक में शुरु हुए आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण के दौर में जब हिन्दी कविता एकदम शहराती होने लगी तो कुछ महत्वपूर्ण कवि लोक के अनुभवों, स्मृतियों व लोक-जीवन के रंग-रेशों के माध्यम से जड़ों से जुड़ने, उजड़ते को बचाने और छीने जाने के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज करते दिखाई देने लगे। छठे दशक से ही निरन्तर रचनारत वरिष्ठ कवि विजेन्द्र तो त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार की राह पर चलते हुए शुरु से ही लोक-जीवन में रमे रहे और आज भी रमे हुए हैं। उनकी अधिकांश कविताओं में वर्णित यथार्थ का एक सुस्पष्ट जनपदीय आधार है। उनकी कविता में राजस्थान के दुर्गम इलाके के गाँव हैं, खेत-खलिहान और कड़ियल किसान हैं। उनकी एक लम्बी कविता मैग्मा में एक काव्य-पंक्ति है- सख़्त चट्टानों पर भी उगे हैं वनफूल। विजेन्द्र की रुचि कर्मठ पहाड़ी नदी और चट्टानी भू-दृश्यों में है। उनके यहाँ कुछ चरित्र अद्भुत-अपूर्व, कड़ियल, अपराजित हैं; मसलन- मुर्दा सीने वाला, नत्थी, काली माई, रुक्मिणी आदि। इनकी दीर्घ कालावधि की कविताओं में मुख्यतः इनकी लोकधर्मी चेतना, जीवनानुभवों की विविधता, जनसंघर्षों के प्रति आस्था, प्रतिरोध की अभिव्यक्ति, जिजीविषा, कविताई का स्थापत्य, संवेदना की सुसंगत और सुगठित रूप एक साथ देखने को मिलता है। वे जानते हैं कि कविता में सवाल उठाना कवि की वैचारिक जिम्मेदारी है लेकिन उन्हें पता है कि संघर्ष उसे कविता के बाहर ही करना होगा। विजेन्द्र कहते हैं- ‘‘कितना डरपोक हूँ-/कविता में पूछता हूँ वे प्रश्न/जो हल करने हैं मुझे/जीवन में/मुझे लौटा दो/आदमी के अदम्य साहस में/खोया भरोसा लौटा दो’’। मनुष्यविरोधी, क्रूर और कठिन समय में विजेन्द्र साफ़गोई के साथ कहते हैं- ‘‘मेरे पास गाने को कोई गीत नहीं है/पर अशुभ समय को/कहने के लिए त्रासदी का सच है।’’ लेकिन कवि को पूरी उम्मीद है कि निराशाभरी रात के बाद नयी उम्मीदों की सुबह तो होगी ही- ‘‘भोर की रश्मियाँ/अँधेरे के मर्म को/भेद रही हैं/घबराओ मत/दृढ़ होकर प्रकाश की तरफ/बढ़ चलो।’’

        नयी सदी में विश्वबाज़ार का अत्यन्त ताकतवर, क्रूर चेहरा सामने आया है। इस विश्वबाज़ार ने बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद को जन्म दिया है। बाज़ारवाद अतृप्त लालसा पर आधारित उपभोक्तावाद की सिनिक मानसिकता पैदा करता है। निलय उपाध्याय ने बिल्कुल स्पष्ट तौर पर देखा और बेबाकी से कहा कि, ‘‘बेचते बेचते/खरीद लेने वालों पर टिका था बाज़ार/खरीदते खरीदते बिक जाने वालों पर टिकी थी/यह दुनिया...’’। निलय उपाध्याय की कविताएँ गाँव की बदलती प्रकृति, संस्कृति और जिन्दगी की स्थितियों से परिचित कराती हैं। उनकी कविताओं में एक अद्भुत निसंगता, निस्पृहता, विरल तन्मयता व रचनात्मक कौशल दिखाई देता है। वे देखते और दिखाते हैं कि अब गाँवों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो काम करके नहीं बल्कि, बड़ी चालाकी से अपना पेट भरते हैं- ‘‘एक है राम लगन/दूसरा सी टहल/...शादी हो बाराती बन जाएँ/रातभर नाच देखें/जम कर खाएँ/मौत हो तो जय श्री राम/माथे पर टीका लगा/बन जाएँ/बाभन/जाते समय अधिकार से लें/भोजन की दक्षिणा भी.../वैसे भी काम करने से अब/किसी का पेट नहीं भरता/और अकल हो तो कोई/भूखा नहीं मरता।’’

        पिछली सदी के अन्तिम दशक से क्रमशः शुरु हुए आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, निजीकरण की क्रमशः तीव्र होती बयार ने इस सदी में गाँव के जीवन यथार्थ को तेजी से उलट पुलट दिया है। विस्थापन और अलगाव से भरा यह समय है पहचान खोने का। लोकजीवन में गहरे धँसे कवि केशव तिवारी अवध के गाँवों की सच्चाई बसूबी जानते हैं। वे देखते हैं- मेरे गाँव के गड़रियों के पास/अब भेड़ नहीं हैं/नानी कहती थीं कि/नइ बहुरिया बिना गहने के और/चुँगल बिना चुगली के भी रह सकते हैं/पर गड़रिये बिना भेड़ों के नहीं/...यह समय ही/पहचाने खोने और एक/अजनबीपन में जीने का है’’। केशव तिवारी बड़ी सहजता, विरल तन्मयता, निस्संगता तथा रचनात्मक कौशल के साथ लोक की जिजीविषा और जीवन-संघर्षों के चित्र अपनी कविताओं में उभारते हैं। लोक जीवन के चित्रों, चरित्रों को उभारने वाली उनकी महत्वपूर्ण कविताएँ हैं- मोमिना, ‘भरथरी गायक, ‘गवनहार आजी, ‘ईसुरी, ‘जोखू का पूरवा आदि। लोक जीवन से गहरे जुड़ा कवि ही जान पाता है कि गाँवों के जीवन में निरन्तर कितना कुछ टूट-फूट-बिखर रहा है। गाँवों से किस कदर हँसती खेलती ज़िन्दगियाँ गायब होती जा रही हैं, इसकी एक बानगी संतोष कुमार चतुर्वेदी की लम्बी कविता मोछू नेटुआ की इन पंक्तियों में देखी जा सकती है- ‘‘जैसे खूँटों से एक-एक कर गायब होते गए बैल/गायों से खाली होते गए दुआर/अपनी सख्त कवच के बावजूद/कछुए नहीं बचा पाए खुद को/और हमारे देखते-देखते गायब हो गए/दूर तक नज़र रखने वाले गिद्ध/ठीक उसी तरीके से गायब होते जा रहे हैं/साँप’’। संतोष कुमार चतुर्वेदी जहाँ एक ओर मोछू नेटुआ कविता में गाँव के एक अछूते व उपेक्षित विषय को सामने लाते हैं, तो दूसरी तरफ शहरी जीवन में तकनीकी क्रान्ति व भूमंडलीकरण के दौर में मानवीय संवेदना को छीजते-सरकते, लीलते जा रहे पेनड्राइव समय पर लंबी कविता लिखकर यूज़ एंड थ्रो संस्कृति पर सवाल खड़ा करते हैं कि- किसी के आबाद होने के पीछे/छुपी होती हैं कितनी बरबादियाँ/यह सवाल ही नहीं उठा कभी/सत्ता के दिलोदिमाग में’’

        नयी सदी में एक तरफ अंधाधुंध शहरीकरण तथा नदियों, पहाड़ों, जंगलों, गाँवों को तेज़ी से लीलते जा रहे असमावेशी, असंतुलित विकास ने लोगों को विस्थापित कर दिया और दूसरी तरफ लगातार फैलते विश्वबाज़ार की संवेदनहीनता, बर्बरता ने संवेदनशील व्यक्ति को, कवि को और अकेला कर दिया। इसी अकेलेपन, अजनबीपन के शहरी माहौल से टूटकर कवि पुनः अपने लोक और घर-परिवार की ओर लौटता है। जितेन्द्र श्रीवास्तव आज के समय को पीपल के पत्तों सा झरता हुआ काठ की तरह बेजान पाते हैं, और ऐसे बेरुखे समय में पिता की सजल स्मृतियाँ उनके लिए ठंडी छाँव सी देती हैं- ‘‘अब बाबू जी की बातें हैं, बाबूजी नहीं/उनका समय बीत गया/पर बीत कर भी नहीं बीते वे/जब भी चोटिल होता हूँ थकने लगता हूँ/जाने कहाँ से पहुँचती है खबर उन तक/झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे।’’3 महेशचंद पुनेठा को पिता के दुःख की तासीर तब समझ में आती है जब- ‘‘पिछले दो-तीन दिन से/बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात/मुझे बहुत याद आ रहे हैं/अपने माता-पिता/और उनका दुःख/देखो न! कितने साल लग गए मुझे/उस दुःख की तासीर समझने में।’’ हरेप्रकाश उपाध्याय को फेसबुक के आभासी दुनिया का यह सच पता तो चलना ही था- ‘‘दोस्त चार हज़ार नौ सौ सतासी थे/पर अकेलापन भी कम न था/वहीं खड़ा था साथ में’’। यह भी सच है कि इधर की हिन्दी कविता मध्यवर्गीय मनुष्य की कविता है, मध्यवर्गीय जीवन-बोध की कविता है।

        आज के कठिन दौर में आवारा पूँजी के ताकतवर खिलाड़ियों ने विश्वबाज़ार, जनसंचार और पूँजी बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया है। इनके बीच के शैतानी गठबंधन को हरेप्रकाश उपाध्याय गहराई से महसूस करते हैं, और ख़बरें छप रही हैं कविता में दिखाते हैं- ‘‘रात चढ़ रही है/और ख़बरें छप रही हैं.../ख़बरों में हमारा जो बहता हुआ ख़ून है/...और यह जो अंधेरा है इक्कीसवीं सदी का/बढ़े हुए धन का/बढ़े हुए मन का/छुपाया जा रहा है काली स्याही में’’4 लेकिन उन्हें पूरी उम्मीद है कि इक्कीसवीं सदी के अँधेरे की रात गुज़रेगी और दिन होगा क्योंकि- ‘‘औरतें बड़ी बेकली से कर रही हैं/दिन का इंतज़ार/दिन होगा/तो करेंगी वे दुनिया की/नये तरीके से झाड़-बुहार/रात की धूल और ओस/झटक आएँगी बस्ती के बाहर।’’

        नयी सदी में उपेक्षित अस्मिताओं के उभार और हासिये के समुदायों द्वारा पहचान की राजनीति के माध्यम से स्त्री, दलित, आदिवासी जैसे उपेक्षित-वंचित समुदायों की तेज़ होती आवाज़ हिन्दी कविता में भी साफ सुनाई देती है। इस दौर में हिन्दी कविता पहले की अपेक्षा अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक हुई। आज स्त्री समाज में बराबरी का हक़ और एक सामान्य नागरिक की तरह ही स्वतंत्रता की आकांक्षी है। स्त्री की निजी पहचान और अस्मिता का सवाल आज भी बड़ा सवाल है। मनीषा जैन स्त्रियों को ही संबोधित करती हैं- ‘‘ये मूर्ख औरतें कभी न समझ सकेंगीं/कि इस दुनिया का हर पुरुष एक महान कलाकार है/जो निरन्तर गढ़ रहा है/अपने संबंधों की परिधि में/आने वाली प्रत्येक स्त्री को’’  सोनी पाण्डेय और मृदला शुक्ल में भी मिलता है इन दोनों कवि यत्रियों  की कवितायें पूजीवादी एवं समंवादी समाज में  स्त्री की उद्दाम मुक्ति कामना का दस्तावेज है!

        नयी सदी के दलित व आदिवासी कवियों, कवयित्रियों के काव्य संसार में दलित व आदिवासी जीवन की व्यथा-कथा व दुःखद प्रसंग हैं। इनकी कविता में सामाजिक निषेधों, वंचनाओं, विस्थापन, बेदखली के विरोध में उठती आवाज़ें हैं। बस्तर के दुर्गम, बीहड़, कष्टों, संघर्षों से भरे आदिवासी गाँव की जिन्दगी और जीवन संघर्ष की एक बानगी विजय सिंह की इन काव्य-पँक्तियों में मिलती है- ‘‘धूप हो या बरसात/ठंड हो या लू/मुंड में टुकनी उठाए/नंगे पाँव आती है/दूर गाँव से शहर/दोना पत्तल बेचने वाली/डोकरी फूलो’’5 प्रकृति के बीच सदियों से रहते आए आदिवासियों के बीच से आये कवियों में प्रकृति, पर्यावरण को बचाने की गहरी चिन्ता साफ दिखाई देती है। राम जी तिवारी, शम्भू यादव,  अच्युतानद मिस्र, के रवीन्द्र, रवीन्द्र के दास, बुद्धिलाल पाल, अरुण आदित्य, रतिनाथ योगेश्वर, आत्म रंजन, विजय सिंह की कवितायेँ प्रतिरोध के राग से सनी हैं!

        अंत में, आज हिन्दी कविता की स्थिति के बारे में चाहे जितनी प्रतिकूल टिप्पणियाँ की जा रही हों, निरन्तर अच्छी कविताएँ (और बुरी कविताएँ भी) लिखी जा रही हैं, प्रचुर मात्रा में। केदारनाथ सिंह के शब्दों में- मौसम चाहे जितना खराब हो/उम्मीद नहीं छोड़तीं कविताएँ। कविता की क्या है जरूरत- इस बेतुके सवाल का जवाब रवीन्द्र के॰ दास के इस निहायत तल्ख़ अन्दाज़ में भी दिया जा सकता है- ‘‘जब कोई गढ़ता है/सिद्धान्त/कि नहीं है जरूरत/दुनिया को कविता की/तो जी करता है/बजाऊँ उसके कान के नीचे/जोर का तमाचा/...कि प्यार और कविता/का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता।’’

सन्दर्भ-
1.      पंकज पराशर, आलोचना, अंक 52, जनवरी-मार्च 2014, पृष्ठ-88
2.      पहल-95, पृष्ठ-59
3.      जितेन्द्र श्रीवास्तव, कायांतरण, प्रथम संस्करण-2012, पृष्ठ-53
4.      हरेप्रकाश उपाध्याय, खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ, भारतीय    ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण-2009, पृष्ठ-96
5.      विजय सिंह, बंद टाॅकीज, शब्दालोक प्रकाशन, दिल्ली, 2009,         पृष्ठ-96
6.      इस आलेख में उद्धृत कुछ कविताएँ विभिन्न वेबसाइटों से ली गईं हैं, यथा- कविता कोश (ांअपजंावेीण्वतह), ब्लाॅगपोस्ट.काॅम, हिन्दी समय.काॅम, फेसबुक.काॅम आदि।


----डा अजीत प्रियदर्शी

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
डी॰ए॰वी॰ (पी॰जी॰) काॅलेज, लखनऊ
मोबाइल नं॰ः 868791680

2 comments:

  1. अजीत जी आपका नंबर अधुरा होने के कारण में आपसे संपर्क नहीं कर पा रहा हूं. प्लीज आप का नंबर मुझे सेंड करे .
    dattafan@gmail.com

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