Monday, April 28, 2014

स्पष्ट पक्षधरता और बदलती ग्रामीण चेतना की मार्मिक कहानियाँ




"पार उतरना धीरे से" कथाकार विवेक मिश्र का दूसरा कहानी-संग्रह है जो विश्व पुस्तक मेला 2014 में सामयिक प्रकाशन से आया है। विवेक की कहानियों से मेरी पहचान कई साल, या कहें कि कई कहानियों पुरानी है। उनकी कहानियाँ उनके पहले कहानी संग्रह हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ से ही अपने विशिष्ट कहन और यथार्थपरकता के चलते अपनी ओर ध्यान खींचती रही हैं। उनके इस नए संग्रह में कुल दस कहानियाँ है जिनमें से अधिकांश कहानियाँ विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित हो चुकी हैं। आज विवेक मिश्र का शहरों से लेकर गाँव-कसबों तक फैला एक  बड़ा पाठक वर्ग है और उसका कारण है उनकी कहानियों का परिवेश, जो तेज़ी से शहरों में बदलते गाँव और मन में बसे गाँव के साथ विकसित होते शहरों के बीच कहानी में एक जीवित चरित्र-सा धड़कता है। उनकी कहानियाँ अपने आस-पास के परिवेश और समय की कहानियाँ है। अपनी कहानियों के परिवेश के प्रति उनकी यह सजगता, उससे गहरे तक जुड़े सरोकार और स्पष्ट पक्षधरता उनकी रचनाशीलता की पहचान है। उनकी कहानियों का यथार्थ सतही नहीं है बल्कि वह जड़ और ज़मीन से जुड़ा है। यही कारण है कि हनिया’, ‘घड़ाआदि कहानियों से लेकर दोपहर’, ‘पार उतरना धीरे सेऔर खण्डित प्रतिमाएंजैसी कई कहानियों ने आज कथा-जगत में अपनी अलग पहचान बनाई है। विवेक बुंदेलखंड से आते हैं और वे वहाँ कि भाषा, लोक संस्कृति के साथ वहाँ के आदमी के सुख-दुख भी अपनी कहानियों में साथ लेकर आते है। विवेक की कहानियों की ग्रामीण चेतना में वहाँ के निरन्तर बदलते भयावह यथार्थ की कठोरता और लोक की कोमलता और कच्चापन एक साथ दिखाई देता है। उनकी कहानियों में आंचलिक शब्दों का प्रयोग कथ्य और शिल्प की रोचकता इस क़दर बढ़ा देता है कि आप कहानी के परिवेश को जीने लगते हैं।
  
यूँ तो संग्रह की सभी कहानियों में शिल्प की बुनावट इतनी सुदृढ़ और कसी हुई है कि आप कहानी को एक ही बार में अन्त तक पढ़ते चले जाते हैं पर इसके चलते विवेक कहीं कोई संदर्भ जल्दी में समेटते नहीं दिखते, यहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म संदर्भ भी पूरा विस्तार पाते है जिससे एक के बाद एक दृश्य चलचित्र से सामने साकार होते चलते हैं और इसी कारण अंत तक रुचि की डोर पाठकों का मन थामे रहती है। यथार्थ-परकता के चलते कहीं कहीं संवादों में मुखरता अपनी जगह बनाती हुई कहानी को आगे बढाते हुए मन को आहत और चोटिल करती है तो वहीं देशज शब्दों की शीतलता 'लोकगीतों' का मरहम भी लगा देती है। कथाकार विवेक शब्दों के प्रयोग को लेकर बहुत सजग तो हैं ही, साथ ही कथ्य के सारे सिरों को बखूबी समेट कर रोचक अंत तक पहुंचाने की उनकी क्षमता विशेष रूप से प्रभावित करती है। उम्मीद है कि उनकी यह रचना-यात्रा ऐसे ही जारी रहेगी और आने वाले समय में उनकी प्रतिभाशाली कलम से ऐसी अनगिनत कहानियाँ निकलेंगी जो उनके कथा-जगत के शीर्ष तक पहुँचने का रास्ता बनाएंगी।
-- अंजू शर्मा



पार उतरना धीरे से (कहानी संग्रह); लेखक-विवेक मिश्र; सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2, मूल्य- 200/-
 
(विस्तृत समीक्षा जल्द ही)