Friday, March 13, 2015

समकालीन कविता के संकट का यथार्थ - डाॅ. नलिन रंजन सिंह

जहाँ एक ओर इतनी कविता लिखी और पढ़ी जा रही है, विगत कई वर्षों से 'कविता एक मरती हुई विधा है' का जुमला बार बार किसी  रूप में सामने आता रहा है!  समकालीन कविता के संकट के प्रति ज़ाहिर की रही तमाम चिंताओं के बीच डॉ. नलिन रंजन सिंह का यह सामयिक लेख पढ़े जाने की मांग करता है!  इस लेख को  प्रसिद्द कवयित्री  सुशीला पुरी जी ने उपलब्ध कराया है इसके लिए उनका हार्दिक आभार!





                            कुछ देर के लिए मैं कवि था
                            फटी.पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
                            सोचता हुआ कविता की जरूरत किसे है?1

                मंगलेश डबराल की यह चिन्ता आज कविता की आलोचना के केन्द्र में है। 'कविता की जरूरत किसे है? यह प्रश्न कविता के संकट की ओर संकेत करता है। क्या कविता अपने अर्थ खो चुकी है?  क्या वह असंभव हो गयी है?  क्या वह हाशिए की विधा हो गयी है?  क्या वह दुग्र्राह्य हो गयी है?  क्या वह एकरस हो गयी है?  क्या वह गतिहीन हो गयी है?  क्या कविता के सामने अब पहचान का संकट आ गया है?
                समकालीन कविता को लेकर इस तरह के तमाम प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इन प्रश्नों पर बहस जारी है और कवि.आलोचक अपने.अपने तरीके से इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने की कोशिश कर रहे हैं।

                नंदकिशोर नवल की एक पुस्तक है, 'कविताः पहचान का संकट।2 कविता के पहचान के संकट के बारे में पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार हैं . 'वैसे तो पहचान के संकट की शिकार साहित्य की सभी विधाएँ हैंए लेकिन कविता की आलोचना में वह सर्वाधिक प्रत्यक्ष है। कारण यह है कि और विधाएँ जहाँ किसी हद तक मात्र वस्तु विश्लेषण को बर्दाश्त कर सकती हैंए कविता नहीं कर सकती क्योंकि रसए सौन्दर्य या कवित्व वह आधार हैए जिससे उसका वजूद अलग नहीं हो सकता। आज हिन्दी में काव्यालोचन रचना के सौन्दर्य निरूपण को रूपवाद मानता है और अपने को उसके सामाजिक संदर्भ या वैचारिक अभिप्राय तक सीमित रखने का आसान रास्ता चुन लेता है।'3 पुस्तक में जिस आसान रास्ते के चुनाव की बात की गयी है वह रास्ता भी आसान नहीं है। सामाजिक संदर्भों को कभी खारिज नहीं किया जा सकता। सामाजिक संदर्भ कविता में न हों तो कविता कोरी कल्पना होगी। जड़ों से कटी हुई वायवीय कल्पना कब तक टिक पाएगी?  सूक्ष्म के विरुद्ध स्थूल का विद्रोह होकर रहेगा। स्वच्छन्दता अतिचारी होकर शास्त्रीयता की माँग कर बैठती है जिससे अभिजात्यता का पोषण होता है। इसलिए संवेदनशील सामाजिक संदर्भ सपाट शब्दों में भी महत्वपूर्ण रहेंगे। वैसे भी नयी कविता के दौर में ही सपाट बयानी को एक प्रमुख प्रतिमान माना जा चुका है। रहा सवाल वैचारिक अभिप्राय का तो वह ज़ेरे बहस है।

               नंदकिशोर नवल यह मानते हैं कि 'कवित्त एक गतिशील वस्तु तो है ही, दुग्र्राह्य भी है...!4 प्रश्न उठता है, कविता दुग्र्राह्य कब होती है?  दुग्र्राह्यता का यह प्रश्न रूपवाद की ओर ले जाता है। सौन्दर्य निरूपण जब.जब अतिशय आलंकारिक हुआ है, कविता कठिन हुई है और 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई'5 का भाव जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कठिन काव्य के प्रेत 'हृदयहीन कवि'6 भी मिलते हैं। ऐसा जब.जब हुआ है, कविता ने धारा बदली है। नवल जी स्वयं मानते हैं कि 'कवित्त एक गतिशील वस्तु है।'7
 
                दरअसल कविता की गतिशीलता ही उसकी ताकत है। जो गतिशील होगा उसमें परिवर्तन भी होगा। कविता में  जब.जब यह परिवर्तन ध्वनित हुआ है तब.तब नए.पुराने के द्वन्द्व में कविता के सामने संकट खड़ा किया गया है। कभी 'कवित्त को खेल'8 मान लिया गया और 'सुकवियों के रीझने को कविताई।' 'कभी उपमान मैले हुए'9 और तमाम 'प्रतीकों के देवता कूच कर गए'।10  कभी 'कविता का शव लादकर'11  कविता के मरने की घोषणा की गई। कविताए अकविता हो गई, लेकिन उसके एक दशक बाद ही 1980 को कविता की वापसी का वर्ष कहा गया। जिन कवियों के कविता संग्रहों ने 1980 को कविता की वापसी का वर्ष बनाया था उनमें से राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश आदि अब भी सक्रिय हैं। स्पष्ट है कि तमाम किन्तु.परन्तु और परिवर्तनों के बाद भी कविता सुरसरि सम बहती रही। कवि कविताएँ लिखते रहे, सुनाते रहे और पढ़ने.सुनने वाले उन्हें पढ़ते.सुनते रहे। फिर अचानक यह कविता का संकट कहाँ से उठ खड़ा हुआ?
                वास्तव में कविता के संकट के प्रश्न में कवि के संकट का प्रश्न भी समाहित है। आज कविता पर यह आरोप है कि लोग कवियों को जानते हैं, कविताओं को नहीं। यद्यपि यह बात पूरी तरह सच्ची नहीं है। अच्छी कविताएँ लोग जरूर याद रखते हैं। फिर भी कविता के संकट में कवि का संकट बड़ा है। भविष्यवाद से ग्रस्त कवि, कविता के सहारे जब जीवन जीने का भविष्य तलाशने लगता है तब संकट जरूर आता है। यह कविता के दरबारीकरण का रुपान्तरण है। इससे पिछलग्गूपन, जुगाड़, भाई.भतीजावाद, चारण परम्परा, संपादक.कवि, आलोचक.कवि, प्रशासन.कवि जैसे तमाम अद्भुत संबंध फूलते.फलते हैं। इन संबंधों के सहारे 'कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।'12  इससे कविता के सामने संकट आना लाजिमी है। कविता के इस संकट में बाज़ारवाद और शिल्पगत एकरसता आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। हाल के वर्षों में देखें तो बाजार में जगह पा लेने के लिए सतही संवेदना के सहारे तमाम कविताएँ लिखी गयीं। बिकने, छपने और चमकने की अभिलाषा में इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के सामने सायास रचनाएँ करता कवियों का एक झुण्ड सामने आया। चारण परम्परा के ये कवि बहुत दिनों तक टिक नहीं सके। वे या तो कुण्ठा के शिकार हो गए या भोंडे विदूषकों में तब्दील हो गए लेकिन सच्ची संवेदना वाले कवियों और कविता विधा को धक्का देने में जरूर सफल रहे। मंगलेश डबराल को शायद इसीलिए यह पीड़ा सालती है, वे बाज़ार में निश्शब्द हैं
 .
                 'बाजारों में घूमता हूँ निश्शब्द/डिब्बों में बंद हो रहा है पूरा देश
                 पूरा जीवन बिक्री के लिए/एक नयी रंगीन किताब है जो मेरी कविता के
                 विरोध में आई है/जिसमें छपे सुन्दर चेहरों को कोई कष्ट नहीं
                 जगह.जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले
                 जनाब एक पूरी फ़िल्म है लंबी/आप खरीद लें और भरपूर आनंद उठाएँ
                 शेष जो कुछ है अभिनय है/चारों ओर आवाजें आ रही हैं
                 मेकअप बदलने का भी समय नहीं है
                 हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहनकर चला आया है
                 वह जिसे अपने पर गर्व था/एक खुशामदी की आवाज़ में गिरगिरा रहा है
                 टेªजेडी है संक्षिप्त लंबा प्रहसन/हरेक चाहता है किस तरह झपट लूँ
                 सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार।'13

                निश्शब्दता, बाज़ार का शोर और पुरस्कार झपट लेने की चाहत रखने वालों की भीड़ का यह परिवेश कविता के सामने बड़ा संकट है। आज के दौर में कविता को कहानी ने पीछे छोड़ दिया है। उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाएँ भी आगे निकल रही हैं। यद्यपि कविता लिखी सबसे अधिक जा रही है। लगभग हर साहित्यिक पत्र.पत्रिका में कविताएँ छप रही हैं, नये.नये संग्रह आ रहे हैं, उन पर समीक्षाएँ लिखी जा रही हैं लेकिन आज की कविता सामान्य जन से नहीं जुड़ पा रही है, इसीलिए कम पढ़ी जा रही है। यह चिन्ताजनक अवश्य है किन्तु निराशाजनक नहीं क्योंकि कविता का सबसे अधिक लिखा जाना उम्मीद जगाता है। कविता इसी रास्ते फिर वापसी करेगी क्योंकि जो रचेगा वह बचेगा। 'कविता में संवेदना सघन रूप से होती हैए इसलिए बाज़ारवाद के लिए इसे भेदना और माल बनाकर बेचना मुश्किल हो जाता है। बाज़ार सभी कवियांे को अपने भीतर नहीं समेट सकता।'14 वैसे भी कविता वर्तमान समय की सबसे अधिक अव्यावसायिक विधा है और सब कुछ के बावजूद संवेदनशील कविता की पहचान का संकट संभव नहीं है क्योंकि विरेचन की संभावना कविता में ही सर्वाधिक होती हैए उसका स्थान कोई नहीं ले सकता।
                जहाँ तक शिल्पगत एकरसता का सवाल है उसके जवाब में ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एकरसता टिकाऊ नहीं होती है, उससे विविधता और निरंतरता दोनों बाधित होते हैं। इससे उबरने का उपाय डाॅ. नामवर सिंह बताते हैं. 'कविता में जब कवियों को नया मार्ग नहीं सूझता, नई दिशाएँ मेघाच्छन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी चहारदीवारी से निकलने का उपाय नहीं सूझता तो लोकशक्ति ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है ……  अंधकार को चीरती है, कुहरे को छाँटती हैए मार्ग को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की संज्ञा में प्राण.वायु का संचार करती है।'15
                नामवर जी के इस उपाय को लेकर तमाम कवियों ने कविता में लोक.संस्कृति और जातीय पहचान को विशेष महत्व दिया है। लोक.संस्कृति के शब्द लेकर लोक.संवेदना से जुड़े कवि अपनी अलग पहचान बना रहे हैं। कवि बोधिसत्व इसके बड़े उदाहरण हैं। केशव तिवारी और अशोक पांडे में भी लोक संवेदना गहरे पैठी है। बोधिसत्व को पता है कि .

'मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ, समझ रहा हूँ, मौसम कुछ ठीक.ठाक नहीं है।'16

                शायद इसीलिए वे उदास मौसम के खिलाफ़ गाँव की अमराइयों में घूमते हैं। गाँव से रंग लेकर निराला, नागार्जुन पर कविताएँ ही नहीं लिखते बल्कि कविता में चित्र बनाते हैं। मुम्बई में रहकर भी उन्हें 'भदोही में टायर की चप्पल पहना आदमी'17 नहीं भूलता। हाँलाकि कुछ कवियों को जब सच सुने हुए बहुत दिन हो जाते हैं तो वे बनावटी लोक.संवेदना के शिकार होकर क्षेत्रीयता और देशज आग्रहों में कविता को गड्ड.मड्ड कर देते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि जितना जल्दी हो वे सच सुनें और सायासता से बचें। सहजता अपनाएँ। शब्दों के मोह में 'बारहमासा'18 नहीं रचें तो भी चलेगा क्योंकि 'सिर्फ भाषा से कविता संभव नहीं है। कवि के पास अनुभव, विचार और संवेदना की एक मिली.जुली थाती होती है। लोक संवेदना से कवि का जुड़ाव हो, मगर कोरे शब्दों के स्तर पर नहीं!'19  आसान लिखना कठिन होता है। सहज भाषा में अपनी संवेदना को रखते हुए कविता को देखना हो तो जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ देखिए .

                              तुम हो यहीं आस.पास/जैसे रहती हो घर में
                              घर से दूर/यह एक अकेला कमरा
                              भरा है तुम्हारे होने के अहसास से/होना
                              सिर्फ़ देह का होना कहाँ होता है!20

                संवेदना और अनुभव की समझ से ही जितेन्द्र श्रीवास्तव को पता है कि गाँवों में भी सब कुछ ठीक.ठाक नहीं है। तभी वे 'अंधेरा' जैसी कविता लिखते हैं। यही अनुभव बोधिसत्व से 'ऐसा ही होता है' और केशव तिवारी से 'बहुत कुछ सूखा है' एवं कई अन्य कविताएँ लिखाता है। जितेन्द्र की सहज भाषा की कविताएँ पाठकों को खूब फँसाती हैं, लगता है कविता लिखना कितना आसान है। जैसे कभी अमरकान्त की कहानियों के लिए कमलेश्वर ने कहा था।21

                इतनी समर्थ युवा पीढ़ी होने के बाद भी समकालीन कविता के संकट में उसकी पहचान को लेकर हो.हल्ला मचाने वाले कविता की संरचना में उस तुक या कटाव पर बार.बार सवाल खड़ा करते हैं जो कविता को गद्य से अलग करता है। यह प्रश्न भी कमजोर कविताओं को लेकर अधिक है। कोई यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हो जाता। ज्ञानेन्द्रपति यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हैं। कविता को लय कैसे दी जाती है यहाँ देखिए .

                          चेतना पारीक कैसी हो/पहले जैसी हो?
                          कुछ.कुछ खुश/कुछ.कुछ उदास
                          कभी देखती तारे/कभी देखती घास
                          चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?/अब भी कविता लिखती हो?/22

                आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है. 'प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि.कर्म का मुख्य अंग है। ज्यों.ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों.त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जाएगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखने वाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों.ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए.नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों.त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि.कर्म कठिन होता जाएगा।'23

                इस पूरे संदर्भ में अगर अन्तिम वाक्य पर ध्यान दें तो कविता की आवश्यकता और कवि.कर्म की कठिनता पर शुक्ल जी आज भी प्रासंगिक लगते हैं। कविता करना भाषा की सायास या अनायास कोशिश नहीं है। दोनों के मिश्रण की क्रीड़ा भी नहीं है। बिना संवेदना के कविता अधूरी है। संवेदनहीन होते जा रहे वर्तमान समाज में संवेदनशील कविता की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, ऐसे में संवेदन शून्य सायास रचनाकारों के बस की बात नहीं है कि वे इस आवश्यकता को पूरा कर सकें। स्पष्ट है कि सभ्यता के मौजूदा दबाव में कवि.कर्म कठिन हो चला है। फिर भी संवेदनशील कवियों की कमी नहीं है। जहाँ संवेदना है वहाँ कविता पूरी ताकत से खड़ी है। इसीलिए मुक्तिबोध, पाश और राजेश जोशी की कविताओं के पोस्टर बनते हैं। करती होगी कहानी छोटे मुँह बड़ी बात, पर जो असर छोटे मुँह कविता करती है, वह कोई विधा नहीं कर सकती। राजेश जोशी की कविता है .

                        कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
                        सुबह.सुबह/बच्चे काम पर जा रहे हैं
                        हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
                        भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
                        लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
                        काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे/
                        क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
                        क्या दीमकों ने खा लिया है/सारी रंग.बिरंगी किताबों को
                        क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
                        क्या किसी भूकम्प में ढह गई हैं/सारे मदरसों की इमारतें
                        क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन खत्म हो गए हैं एकाएक
                        तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में/
                        कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
                        भयानक है लेकिन इससे भी ज्यादा यह
                        कि हैं सारी चीजें हस्बमामूल
                        पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजरते हुए
                        बच्चे, बहुत छोटे.छोटे बच्चे/काम पर जा रहे हैं।24

                कविता की आरम्भ की पंक्तियों को पढ़ने के बाद हम ठहरकर सोचने लगते हैं और फिर अगले ही पल पूरी कविता पढ़ जाते हैं। कविता में व्यवस्था.विद्रूप की भयावहता चरम रूप में सामने आती है। सीधे.सपाट शब्दों में कवि सब कुछ कह देता है और हम कविता पढ़ते हुए सिहर उठते हैं। हाशिए पर पड़े समाज के एक हिस्से का यह अद्भुत वर्णन है। हाशिए के समाज से आज दलित और स्त्रियाँ कविता के केन्द्र में हैं। जाहिर है कि कविता उत्तरशती के विमर्शों से रूबरू है। अब तो हाशिए के समाज से ही नये सौन्दर्य.शास्त्र की माँग आने लगी है। कहना न होगा कि यह सौन्दर्य.शास्त्र भी सहज भाषा, सपाटबयानी और संवेदना की त्रयी से ही बन सकेगा। अनुभूति की प्रामाणिकता वेदना और निराशा को आक्रोशजन्य विद्रोही स्वर में रूपान्तरित करेगी। अहम् निर्दिष्ट व्यक्तिवाद आंचलिक चेतना के साथ आ सकता है और इसमें मिथकीय प्रतीकों का माखौल उड़ाते हुए नवीन बिम्बों, नवीन उपादान विधानों को लेकर लय और मुक्त छंद में कविता की जा सकती है। औरए अगर मैं गलत न होऊँ तो इसकी शुरुआत भी हो चुकी है।

                कविता के संकट को लेकर काव्य प्रयोजनए विचारधारा और नियमों की बातें उठाई जाती हैं जिनको लेकर कवियों में ही संकट है। प्रफुल्ल कोलख्यान काव्य प्रयोजन का खो जाना या काव्येतर प्रयोजन से उसका विस्थापित हो जाना, कविता में प्राणत्व के अभाव का बड़ा कारण मानते हैं।25 'भूमंडलीकरण' जैसी कविता लिखने वाले प्रफुल्ल समकालीनता के संकट को पहचानते हैं और कविता के प्रयोजन पर जोर देते हैं। कवि एवं समालोचक अशोक वाजपेयी कहते हैं. 'अगर कवि ने अपने को विचारों से, ख़ासकर राजनीतिक विचारों से, जो आज की दुनिया में इतने प्रभावशाली हैं, अपने को काट लिया है या अलग रखा है तो फिर नये कवि का यह दावा कि समकालीन सच्चाई का साक्षात्कार करने की कोशिश कर रहा हैए व्यर्थ हो जाएगा। राजनीति को दरकिनार रखकर समकालीन सच्चाई का कोई साक्षात्कार और प्रासंगिक नहीं हो सकता।'26 साहित्य में कोई विचारधारा होनी चाहिए कि नहीं, इस प्रश्न को व्यास सम्मान से सम्मानित कवि, आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी विवादास्पद मानते हैं। उनका कहना है कि 'वास्तव में साहित्य में विचारधारा की जगह संवेदना होनी चाहिए। बिना विचारधारा के साहित्य हो सकता है मगर बिना संवेदना के साहित्य नहीं लिखा जा सकता। साहित्य शब्द से मतलब है क्रिएटिव साहित्य।'27

                दरअसल विचारधारा और नियमों को लेकर मतैक्य नहीं है। आज विधाओं में तोड़.फोड़ का सिलसिला चल पड़ा है। काशीनाथ सिंह का 'संतों, असंतों और घोंघा बसन्तों का अस्सी' जब कथादेश में छपा तो एक संत वाणी से उसकी शुरुआत हुई थी, 'नियम विज्ञान के होते हैं, जिन्दगी के नहीं, जो जिन्दगी को नियम से चलाते हैं वे चूतिया हैं।'28 यह नियम भंग का अनिवार्य हिस्सा है। यही उसकी 'निराला' शैली है। मुक्ति, सारे बंधनों से मुक्ति। नियम से चलते तो बोधिसत्व को भी इलाहाबाद में ही रुकना था। संन्यासिन के पीछे.पीछे चित्रकूट नहीं चल देते। चित्रकूट नहीं जाते तो कविताएँ कहाँ बनतीं? ज्ञानेन्द्रपति की यह कविता महत्वपूर्ण कैसे होती?

                         सारे आदमी जब / एक से ही आदमी हैं
                         जल और स्थल पर एक साथ चलकर ही
                         बने हैं इतने आदमी/तो एक आदमी अमीर
                         एक आदमी गरीब क्यों है/एक आदमी तो आदमी है।
                         दूसरा जैसे आदमी ही नहीं है।29

                एक आदमी अमीर और एक आदमी गरीब क्यों है, इसका उत्तर नियम.सिद्धान्त पढ़ाने वाला विज्ञान शिक्षक नहीं दे सकता। विनय दुबे ने ठीक ही लिखा है .

                       मैं जब कविता लिखता हूँ/और कविता में स्त्री लिखता हूँ/
                       तो स्त्री को स्त्री लिखता हूँ/विचार या विचारधारा नहीं लिखता हूँ/
                       विचार या विचारधारा के बारे में आप/कमला प्रसाद जी से बात करें/
                       मैं तो कविता लिखता हूँ।30

                इन बातों को समझने की जरूरत है। कविता होगी तो विचार भी होंगे और संवेदना भी होगी। हाँ, कविता को विचारों से बँधकर ही होना चाहिएए इस पर बहस चलती रहेगी। आजकल कुछ लोग इसी बहस के कारण कविता में 'देह' को लेकर परेशान रहते हैं। 'नव साम्राज्यवाद और संस्कृति' में सुधीश पचौरी 'मुक्त देह का आखेट' देखते हैं। कवि भला इस युगीन सत्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकता है? यहाँ भी संकट नहीं है। जिन्हें कविता में 'चार महानगरों का तापमान'31 मापना हो वे पवन करण का कविता संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर'32 पढ़ें। संकट दूर हो जाएगा।

                स्पष्ट है कि समकालीन कविता के संकट को लेकर शोर अधिक है, सच्चाई कम है। यही समकालीन कविता के संकट का यथार्थ है। इस शोर को समर्थ कवि अनसुना करके कहता है .

                       मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी अड़चनों के बारे में
                       अभी तक आलोचना में/विचार नहीं किया गया
                       ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
                       कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों और
                       दिक्कतों के बारे में भी सोचें
                       जिन पर आलोचना के खाँचे के भीतर सोचना
                       निषिद्ध है/एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
                       बार.बार यह ही कहता है/बचो, बचो, बचो
                       ऐसे क्लास रूम के अगल.बगल से भी मत गुजरो
                       जहाँ हिन्दी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
                       और कविता के बारे में राजेन्द्र यादव की बात तो
                       बिल्कुल मत सुनो।33


संदर्भः
1.     मंगलेश डबराल, कुछ देर के लिए, हम जो देखते हैं ;कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन) नयी दिल्ली, 1997
2.     नंदकिशोर नवल, कविताः पहचान का संकट, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली 2006
3.     वही।
4.     वही।
5.     तुलसीदास कृत श्री रामचरित मानस की एक चौपाई की अर्द्धाली।
6.     'केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी जो एक कवि में होनी चाहिए।' 
       आचार्य रामचंद्र शुक्लए हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010
7.     संदर्भ सं.2
8.     'लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।' रीतिमुक्त कवि ठाकुर की उक्ति।
9.     अज्ञेय की कविता 'कलगी बाजरे की' पंक्ति।
10.    वही।
11.    धर्मवीर भारती की एक कविता की पंक्ति।
12.    'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है/कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है', मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत की
       पंक्तियाँ।
13.    मंगलेश डबराल, अभिनय, हम जो देखते हैं ;कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन) नई दिल्ली, 1997
14.    राखी राॅय हल्दर, समकालीन हिन्दी कविता की चुनौतियाँ, वागर्थ, अगस्त 2009, पृ. 29
15.    डाॅ. नामवर सिंह, इतिहास और आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पाँचवीं आवृत्ति, 2011, पृ. 87
16.    बोधिसत्व, सिर्फ कवि नहीं, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008
17.    बोधिसत्व, दुःखतंत्र, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005
18.    बारहमासा। कवि बद्रीनारायण की एक कविता।
19.    चंद्रेश्वर, समकालीन हिन्दी कविता और लोक संवेदना, उद्भावना, अंक.90, पृ. 43
20.    जितेन्द्र श्रीवास्तव, बिल्कुल तुम्हारी तरह ;कविता संग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ) प्रथम संस्करण 2011, पृ. 24
21.    आधारशिलाएँ-1, जो मैंने जिया। कमलेश्वर, राजपाल एण्ड सन्ज़, 1992
22.    ज्ञानेन्द्रपति, ट्राम में एक याद, कवि ने कहा ;कविता संग्रह (किताबघर प्रकाशन) 2007
23.    आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कविता क्या है? चिन्तामणि पहला भाग, इण्डियन प्रेस (पब्लिकेशंस) प्रा.लि. इलाहाबाद,
       1999, पृ. 99
24.    राजेश जोशी, बच्चे काम पर जा रहे हैं, नेपथ्य में हँसी ;कविता संग्रह, (राजकमल प्रकाशन) नई दिल्ली 1994
25.    प्रफुल्ल कोलख्यान, कविता क्या संभव है, आलोचना अंक.30, पृ. 96
26.    उद्धृत, सुमित पी.वी., समकालीनता और कविता, समकालीन भारतीय साहित्य, अंक.147, पृ. 137
27.    विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से महेन्द्र तिवारी की बातचीत, दैनिक हिन्दुस्तान, 15 मार्च, 2011
28.    काशीनाथ सिंह, संतों, असंतों और घोंघा बसंतों का अस्सी, कथादेश, सितम्बर.2001
29.    ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'विज्ञान शिक्षक से छोटी लड़की का एक सवाल' की पंक्तियाँ।
30.    विनय दुबे, भीड़ के भवसागर में (कविता संग्रह) उद्धृत, वागर्थ, अगस्त 2009 पृ. 3
31.    कमलेश्वर की एक कहानी।
32.    पवन करण, स्त्री मेरे भीतर (कविता संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2004
33.    राजेश जोशी की कविता 'एक कवि कहता है' की पंक्तियाँ।



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डाॅ. नलिन रंजन सिंह
वरिष्ठ प्रवक्ता,
जेएनपीजी कालेज,
स्टेशन रोड, लखनऊ।

माया एंजलो की अनूदित कवितायें (मणि मोहन मेहता)


युवा कवि मणि मोहन मेहता ने प्रेम और संघर्ष की विश्व विख्यात कवयित्री माया एंजलो की कुछ कविताओं का सुन्दर अनुवाद हमारे पाठकों के लिए भेजा है!   ये कवितायें एक असाधारण स्त्री की मूक पीड़ा की ज़बान हैं! आप भी पढ़िए और महसूस कीजिये …… 





(1)
वे घर गए

वे घर गए और अपनी पत्नियों से कहा
कि अपनी पूरी ज़िन्दगी में एक बार भी
मेरे जैसी लड़की नहीं देखी
फिर भी ...वे अपने घर गए .

उन्होंने कहा के मेरा घर चमचमा रहा था
जो कुछ कहा मैंने उसमे एक भी शब्द भद्दा नहीं था
एक रहस्य था मेरे व्यक्तित्व में
फिर भी... वे अपने घर गए .

मेरी तारीफ सभी पुरुषों के लबों पर थी
उन्हें मेरी मुस्कान , मेरी हाजिरजवाबी
मेरे नितम्ब पसंद थे
उन्होंने रात गुजारी - एक , दो या फिर तीन
फिर भी ...............







(2)
सबक

मैं अपना मरना जारी रखती हूँ
शिराएं सिमट रही हैं,खुल रही हैं
सोये हुए बच्चों की
नन्हीं मुट्ठियों की तरह
पुरानी कब्रों की स्मृतियों,
सड़ता हुआ मांस और कीड़े
आश्वस्त नहीं करते मुझे
चुनौती के खिलाफ
अनगिनित वर्ष
और ठंडी पराजय
गहरे तक धंसे हुए हैं
मेरे चेहरे की लकीरों में
वे मेरी आँखों को थका रहे हैं , फिर भी
जारी है मेरा मरना,
क्योंकि मैं प्रेम करती हूँ
जिंदगी से ।





(3)
असाधारण स्त्री

खूबसूरत स्त्रियाँ आश्चर्य से भर जाती हैं
मेरे रहस्य को लेकर
मैं सुंदर नहीं हूँ और न फैशन मॉडल की तरह
मेरा जिस्म है
परन्तु जब मैं उन्हें बताना शुरू करती हूँ
वे सोचती हैं , मैं झूठ बोल रही हूँ ।
मैं कहती हूँ
यह मेरी बाँहों के बस में है
मेरे नितम्बों के आकार
मेरे क़दमों की गति
मेरे होठों की गोलाई में है ।
मैं एक स्त्री हूँ
असाधारण रूप से।
असाधारण स्त्री
यह मैं हूँ ।

मैं एक कमरे में प्रवेश करती हूँ
एकदम शांतचित्त तुम्हारी तरह
और जहां तक पुरुषों का संबंध है
वे खड़े हो जाते हैं या
घुटनों के बल बैठ जाते हैं।
फिर वे मंडराने लगते हैं मेरे चरों तरफ
जैसे मधुमक्खियों का एक छत्ता ।
मैं कहती हूँ
यह आग है मेरी आँखों में
और चमक मेरे दांतों में
मेरी कमर की लचक
और एक आनंद मेरे पैरों में
मैं एक स्त्री हूँ
असाधारण रूप से ।
असाधारण स्त्री
यह मै हूँ ।

अब तुम समझ सकते हो
मेरा सिर झुकता क्यूँ नहीं है।
मैं चीखती नहीं और न हड़बड़ी में रहती हूँ
और न तेज आवाज में बोलती हूँ ।
जब तुम मुझे कहीं से गुजरते हुए देखो
तुम्हे गर्व होना चाहिए ।

मैं कहती हूँ ,
यह मेरी सेंडिल की खटखट में है
मेरी जुल्फ़ों के पेंचोखम में है
मेरी हथेलियों में है ,
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ
असाधारण रूप से ।
असाधारण स्त्री
यह मैं हूँ ।


(4)
काम करती स्त्री

मुझे बच्चों की देखभाल करनी है
कपड़े सिलना है
पोंछा लगाना है
बाजार से सामान लाना है
फिर चिकन फ्राई करना है
पोंछना है बच्चे का गीला बदन
पूरे कुनबे को खाना खिलाना है
बगीचे से खरपतवार हटाना है
कमीजों पर इस्त्री करनी है
कनस्तर काटना है
साफ करना है यह झोंपड़ी
बीमार लोगों की देखभाल करनी है
और कपास चुनना है ।

धूप , बिखर जाओ मुझ पर
बारिश, बरस जाओ मुझ पर
ओस की बूंदों , धीरे-धीरे गिरो मुझ पर
ठंडा करो मेरे माथे को ।

तूफ़ान , उड़ा ले चलो मुझे यहाँ से
अपनी प्रचंड हवा के साथ
तैरने दो मुझे आकाश में
जब तक पूरा न हो मेरा विश्राम ।

हिम-कण , धीरे-धीरे गिरो
छा जाओ मुझ पर
भर दो मुझे सफेद शीतल चुम्बनों से
और आराम करने दो मुझे
आज की रात ।

सूर्य , बारिश , सर्पिल आकाश
पहाड़ , समुद्र , पत्तियों और पत्थर
तारों की चमक , चंद्रमा की आभा
सिर्फ तुम हो
जिन्हें मैं अपना कह सकती हूँ ।

अनुवाद : मणि मोहन मेहता
संपर्क -09425150346

(सभी चित्र साभार गूगल से)

Tuesday, March 10, 2015

डुबकी - गीताश्री की कहानी






कथाकार गीताश्री की कहानियों के स्त्री-पात्र अपनी विलक्षणता के कारण एक अमिट छाप छोड़ने में सक्षम रहे हैं!  उनकी कहानियों में स्त्री-मन की गहन अनुभूतियाँ और उनकी आंतरिक भावनाओं के सटीक विश्लेषण की क्षमता बहुत प्रभावित करती है!  आइये पढ़ते हैं, दुनियावी ख़ूबसूरती के मापदंडों पर खरी उतरती एक स्त्री के जीवन की रपटीली पगडंडियों पर खो जाने की कहानी! जी हाँ,  गीता जी की नई कहानी 'डुबकी'!  उल्लेखनीय है यह कहानी हाल ही में 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित हुई है!

                                                       






सितंबर की शाम ऐसे भी मुलायम होती है। यह स्याह चेहरे वाली गीली शाम थी। उसे महसूस हुआ कि
शाम की स्याही धीरे धीरे फैल रही है, न सिर्फ बरामदे और कमरे के अंदर बदरंग सोफे पर बल्कि उसके
शरीर और आत्मा पर भी...। वहां तो वर्षों से अंधेरे की कई परतों वाली काई जमी है, ये स्याही भला क्या
जमेगी वहां..! उसने सूखे होठो पर जीभ फिराई, कंठ को प्यास-सी लगी थी। लेकिन मन ना हुआ कि उठ
कर पानी पी आए..।

आज की शाम कुछ होना था..वह आ रही है..वह लौट रही है, वह आना चाहती है..!

थोड़ी देर में सब को यहां इकठ्ठे होना था। फैसला दिए जाने से पहले उसने सबके चेहरे देखे। गुड्डी के
चेहरे पर सन्नाटा, चिंटू के चेहरे पर सख्ती और उसके अपने चेहरे पर....? बेसिन के पास लगे आईने में
चलता हुआ एक चेहरा दिखा। वहां तो स्थाई रुप से धूप गायब है। चेहरा नहीं, धूपविहीन जंगल की वह
दलदली ज़मीन थी जहां गीले-गीले भाव भी धंसने के डर से नहीं उभरते थे।  गाल धंसा हुआ और त्वचा
सूखी ज़मीन जैसी। दोनो हथेलियों से उसने गालो के गड्डे को ढंक लिया...नहीं नहीं..उसे ये गढ्ढे नहीं
दिखने चाहिए। वह उसे दुखी क्यों दिखे। क्यों लगे कि सितमगर ने इतने सालो में उस पर क्या जुल्म
ढाएं हैं। उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान नहीं देखना चाहता। उसे महसूस होना चाहिए कि उसके बिना
यहां सब ठीक था। मन ही मन दोहराया...कुछ नहीं बोलूंगा..अपनी इच्छा जाहिर नहीं करुंगा, न शोक
प्रकट करुंगा न शिकायतें..फिर...क्या करुंगा, जब वह सामने आएगी..। गुड्डी और चिंटू की मनोदशा से
बेखबर हरीश त्यागी मन के भीतर जूझ रहा था। इतना आसान नहीं था। पांच साल बाद उसका सामना
करना। उससे, जिससे कभी टूट कर प्यार किया था, जो उसके लिए दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री थी।
सचमुच वह सुंदर थी। हरीश खुद बहुत सामान्य था। हरीश ने अपने आसपास और रिश्तेदारी में इतनी
सुंदर स्त्री नहीं देखी थी। वह अपने भाग्य पर बहुत इतराता था। कई बार अपने लेडी बौस को बोल देता
.था,
”मैडम जी...मेरी मिसेज बहुत सुंदर है जी..आप देखोगे न तो देखते रह जाओगे...।“

हरीश अपनी पत्नी का शुक्रिया अदा करता रहता था-रीना, तू कुछ मांग ले, दे दूंगा..तूने बच्चे बड़े सुंदर 
पैदा किए, मेरा खानदान बदल दिया।
एक बड़े मीडिया हाउस में हरीश एक मामूली ग्राफिक्स डिजाइनर ही तो था। डिजाइन बनाते बनाते उसकी
आंखें और सूझ दोनों में खूबसूरती का महत्व कुछ ज्यादा ही बढा हुआ था। बीवी और बच्चो के सुंदर होने
का उसका अभिमान उसके हाव भाव से फूटा पड़ता था। किसी ने बात शुरु नहीं की, हरीश की बातें घूम
फिर कर बीवी और बच्चो की सुंदरता पर चली जाती। यानी सबको पता चल गया था कि  साधारण
हरीश, अतिसुंदर बीवी बच्चो का पति और पिता है। दफ्तर ले लेकर उसके पड़ोस परिचित, मित्र सारे लोग
उससे रश्क करते। हरीश ने क्या किस्मत पाई है। सबसे ज्यादा रश्क अपने सबसे धनवान, बिल्डर दोस्त
राजेश विश्नोई की आंखों में देखता है। भाभी..भाभी..करता हुआ वह खुद को हरीश से ज्यादा खुशनसीब
घोषित करता था। हरीश चाहता था कि वह खूब आए और रीना की तारीफ उसके सामने करे। राजेश की
वजह से उसका घर बच पाया था। पिता ने तो घर को ही गिरवी रख दिया था। राजेश के प्रति वह हर
तरह से कृतज्ञ था। चाहे रीना से उसका अपनापन जताना या तारीफ करना। अचानक राजेश कुछ समय
के लिए दुबई चला गया और हरीश खुद को कमजोर महसूस करने लगा। रीना उसे थाम लेती। हरीश
फिर इतना मुग्ध हो जाता कि बाहरी परेशानियों को झटक कर मस्त रहा करता था। जैसे कोई संत,
साधनारत हो और बाहरी तामझाम उसके लिए व्यर्थ हो। सुंदर बीवी, सुंदर बच्चे और अपना घर, जहां
शाम होते ही भाग कर पनाह लेने की जल्दी होती उसे। अपनी छोटी सी दुनिया में खोया हरीश उस
मनहूस दिन को याद करता है, जब उसने बेमन से अपनी पत्नी को उसकी सहेलियों के साथ हरिद्वार
गंगा नहाने जाने की इजाजत दे दी थी। इसके पहले पत्नी ने कभी अकेले जाने की इच्छा नहीं जताई
थी। पति और बच्चो के साथ ही जाती थी। उस दिन अचानक वह प्रस्ताव लेकर हाजिर हो गई थी जिसे
हरीश मना नहीं कर पाया। साथ जाने का उसका मन भी हो आया पर जानता था कि अचानक छुट्टी
मिलना संभव नहीं। बेमन से उसने इजाजत दे दी और उनकी तैयारियों में सहयोग भी करने लगा। दोनों
बच्चे भी मगन थे कि दो दिन वे बिना मम्मा के पापा के साथ मौज करेंगे। बस दो दिन ही तो बात है,
यूं गई, यूं आई। हरीश की उदासी से बेखबर रीना चहक रही थी। पहली बार सहेलियों के साथ घूमने
जाना, उसे रोमांचित कर रहा था। पड़ोस की औरतो का अच्छा खासा समूह बन गया था जो इतना
प्रभावशाली हो रहा था कि दिन-ब-दिन पति से कोई भी मांग मनवा ले। हरीश भला कहां टिकता उनके
सामने ! रीना पहली बार जा रही थी, सो हरीश का जी उदास था। उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। रह
रह कर आशंकाएं उसे घेरती। मन को समझाता और शांत हो जाता। उसे रीना के जाने से ज्यादा उसके
वापस आने की तारीख का इंतजार था। वह देख रहा था कि रीना बहुत उत्साह में है। जाने की तैयारी तो
ऐसे हो रही है कि मानो वहीं बस जाने का इरादा है। हरीश उसके उत्साह से भीतर भीतर चिढ भी रहा है।
उसकी कल्पना से परे था सबकुछ। दबी जुबान से एकाध बार हरीश ने टालने की कोशिश की तो रीना
चिढ गई। उसकी भाषा में तीखेपन का पुट आ गया था जो अक्सर शादी का खुमार उतरने के बाद रिश्तो
में आ जाता है। शुरुआती दौर में हर मनाही, हर रोक जितनी आत्मीय लगती है, कुछ साल बाद वही कैद
और मानवाधिकारो का हनन लगने लगती है। ये दोतरफा है। शादी से पहले जो आदतें, जो जिद, जो
आवारगियां भाती हैं, शादी में केमिकल लोचा होते हीं वे चुभने लगती हैं। मन में नागफनी सी उग आती
हैं, दोनों के मन में और रह रह कर डंसती हैं। 

दोनों के बीच पहली बार इस लोचे का पता चल रहा था। पहले ऐसी नौबत ही नहीं आई थी। 

“क्या चाहते हो, आप ? मैं गुलाम बन कर घर में पड़ी रहूं, जब आपकी मर्जी हो तो कहीं जाऊं, न हो तो
न जाऊं..और भी तो औरते हैं, उनके पति तो नहीं रोकते उन्हें...आप क्यों रोकना चाहते हो..मैं कोई घूमने
थोड़े ना जा रही हूं, मैं तीर्थ भी न करुं क्या..कब तक आपके भरोसे बैठी रहूं...बताओ...?”

हरीश निरुत्तर। कैसे कहे जी की बात कि उसका जाना खल रहा है, वह उसकी आजादी का दुश्मन नहीं है।
बस कभी इस तरह गई नहीं न। वह जानता था कि औरतो ने ठान लिया तो करके दम लेंगी। इन्हें कोई
नहीं रोक सकता। उसने बिना कलह किए, यात्रा का सारा इंतजाम भी कर दिया। सीधी टैक्सी करा दी
हरिद्वार तक की। वहां हरकी पौड़ी पर धर्मशाला तक बुक करवा दिया। हरीश पूरी तसल्ली कर लेना
चाहता था। और...एक दिन बीता, दूसरा दिन आया। सारी औरते रोज गंगा नहा रही थीं। दूसरे दिन भी
गंगा तट पर सारी औरतें भीड़ का हिस्सा बनी हुई थीं। धर्मशाला से  घाट के लिए चलने से पहले रीना ने
चहकते हुए फोन किया और सबसे बात की। बहुत उत्फुल्ल दिखाई दे रही थी। हरीश को लगा, अच्छा
हुआ, रीना ने अकेले जाने का अपना शौक पूरा कर लिया। अब कभी शिकायत नहीं करेगी, खुश रहेगी
और उसके प्रति कृतज्ञ भी महसूस करेगी। हरीश शाम का पेज डिजाइन करने बैठा था। कंप्यूटर की
स्क्रीन पर खबरो को सेट करने के हिसाब लगा ही रहा था कि दफ्तर के फोन की घंटी घनघना उठी।
उसने सोचा कोई और उठा लेगा, पर आसपास के सारे लोग डूबे थे, अपनी खबरो में। उसने माउस छोड़ा 
और फोन उठा लिया।
दफ्तर में पसरा शाम का सन्नाटा जैसे झन्नाक से टूट गया। 

उधर से जो कहा गया होगा, उसे सुनने के बाद वह सुन्न हो चुका था। पास में बैठे डेस्क इंचार्ज ने
उसकी हालत देखी और हठात पूछ बैठा. हरीश कुछ बोल सकने की हालत में नहीं था। डेस्क इंचार्ज 
संजय ने फोन उठा लिया और उधर से जो खबर मिली, सुन कर वह भी सकते में आ गया। संजय की
हरीश से खूब पटती थी। साथ ही बैठ कर दोनो अखबार के फीचर पृष्ठ बनाया करते थे। संजय की नजर
में हरीश लेआउट का मास्टर है। फीचर पेज के लिए उससे बेहतर कोई नहीं। फोटो के चयन से लेकर
स्टोरी की प्लेसिंग तक में माहिर हरीश डेस्क का फेवरिट डिजाइनर था। संजय ने हरीश को संभाला और
साथ लेकर दफ्तर से निकल गया। हरीश चुप था, कदम लड़खड़ा रहे थे। वह जल्दी से अपने घर, अपने
बच्चो के बीच पहुंच जाना चाहता था। दफ्तर में बात फैल गई थी। सबको यही लग रहा था कि अब
हरीश का क्या होगा...कैसे जीएगा...बच्चो का क्या होगा...अभी तो वे बहुत छोटे हैं...। कैसे अकेले देखेगा,
उन्हें। बच्चे अभी उम्र के नाजुक मोड़ पर हैं, उन्हें पिता से ज्यादा मां की जरुरत होती है। हरीश के लिए 
जैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा।
रीना के साथ गए रिश्तेदारो ने हरिद्वार से ही खबर दी कि रीना गंगा में डूब गई और उसका कहीं पता
नहीं चल रहा है। मोहल्ले की दो औरतें, वापस बिना रीना के लौट रही थीं। अपने साथ दुखों और
तकलीफ की गठरी लिए। एक परिवार के उजड़ने का समाचार लिए। हरीश को कुछ होश नहीं था, वह
बच्चो को सीने से लगाए सिसक रहा था। उसे यकीन नहीं आ रहा था। उसके बच्चे भी मानने को तैयार
नहीं थे कि उनकी मां गंगा में डूब कर मर सकती है। 

“पापा...मम्मी...हरिद्वार चलिए...वे डूब नहीं सकती...पापा..चलो, हम उन्हें खोजे...वे पानी में ही होंगी,
कहीं किनारे पर तैर कर चली गई होंगी..”

बेटी बिलख रही थी।
“बेटा, सुधा आंटी ने बताया, मम्मी के कपड़े सीढियों पर रखे थे, वे नहाने उतरी, बहुत भीड़ थी, वे
भगदड़ में ज्यादा गहरे पानी में चली गई और...”

बेटी को दिलासा देते हुए हरीश को यकीन नहीं हो रहा था, रीना कभी गहरे पानी में जाने का रिस्क नहीं
ले सकती। वह तो ऐसे भी गहरे पानी से डरती है। हरकी पैड़ी घाट पर लोहे की मोटी मोटी जंजीरे लगी
हुई हैं। सारे लोग उसे पकड़ कर नहाते हैं। बीच धारा में वही जाता है, जिसे तैरना आता हो। वैसे बड़े बड़े
तैराक भी किनारे पर ही डूबकी लगाते हैं। रीना आखिर बीच धारे गई क्यों। वे औरतें दिल्ली पहुंच जाएं
तो सारे सवाल उनसे करूं। उसे इंतजार था, उनके लौटने का। 

“नहीं पापा...हम उन्हें ढूंढने जाएंगे...वो मिल जाएंगी...भीड़ में होंगी कहीं न कहीं...वे सबको ढूंढ रही
होंगी..पापा..हो सकता है, कहीं बहते बहते दूर निकल गई हों..पापा..हम उन्हें आखिर तक...”

बेटा फफक फफक कर रो रहा था। पूरा घर मौत की गंध और पड़ोसियों से भरा पड़ा था। सब चुप थे,
किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। सबके चेहरे से ऐसा लग रहा था कि उन्हें इस खबर पर यकीन नहीं
आ रहा हो। पर घटना मुहल्ले के दो औरतो के सामने घटी थी, यकीन तो करना पड़ेगा। 

संजय के साथ खड़ा हितेश सारा विलाप सुन रहा था। आखिरी लाइन सुनते ही उसकी आंखें चमक उठीं।
संजय के कान में कुछ फुसफुसाया। संजय को हितेश की पहुंच का अंदाजा था। उत्तर प्रदेश के नेताओ 
तक सीधी पहुंच थी उसकी।
संजय ने हरीश के कान में कुछ कहा और फिर कुछ पल के लिए वहां माहौल बदल गया। हरीश ने आंसू
पोंछे, हितेश ने फोन करके किसी नेता की गाड़ी मंगवा ली। तीनो लद के हरिद्वार रवाना हो गए।
हरिद्वार जाते समय संजय और हितेश अपने साथ किसी जिंदादिल इनसान को नहीं, बुझी हुई कामनाओं
को ले जा रहे थे, जिसमें फिर से जिंदा होने की उम्मीदें भुकभुका रही थी। 

.......
हरकी पैड़ी में उस दिन बहुत भीड़ थी। यूं तो हरिद्वार में साल भर भीड़ रहती हैं। दिल्ली वालो के लिए
हरिद्वार सबसे करीबी टूरिस्ट प्लेस है। तीर्थ और पर्यटन दोनो का अहसास यहां होता है। हरकी पैड़ी
सबसे  पवित्र घाट मानी जाती है कि अमृत मंथन के समय अमृत यही छलक कर गिरा था। तब से
अमरता की चाह में श्रध्दालू यहीं हर हर गंगे कहके डुबकी लगाते हैं। तीनों औरतों ने यहीं तय किया था,
गंगा स्नान का। साथ आई सुधा ने जरुर एक बार कहा-“रीना, तेरे पति मीडिया में हैं, उनसे पैरवी कराके
वीआईपी घाट का इंतजाम क्यों नहीं करा लेती। भीड़ भी कम होगी, आराम से छपछप करके देर तक 
नहाएंगे। पानी तो एक ही है न...”
सुधा का साथ शांति ने भी दिया था। पर रीना का मन यहीं नहाने का था। घाट की सीढियों पर सबने पहनने वाले कपड़े रखे और ठंढे पानी में उतर गईं। पहाड़ो पर हुई बरसात ने गंगा जल को गंदला
कर दिया था पर हरकी पैड़ी के किनारे पानी साफ था लेकिन बहाव खूब तेज। लोग बीच धारे में जाने से
बच रहे थे। प्रशासन ने एक सीमा के बाद जंजीर से रोक लगा दी थी। उसके पार जाने की इजाजत किसी
को नहीं थी। रीना पानी में उतरी और बच्चो की तरह पानी में देर तक उछलती कूदती रही। उसके मन
से तीर्थ स्थल का अहसास जाता रहा। वे तीनो स्त्रियां नहीं, तीन बच्चे थे जो पानी के साथ चुहल कर रहे
थे। वहां कोई शांत रह भी कैसे सकता था...। गंगा का ठंडा और निर्मल पानी जैसे बांध लेता है वहां और
देर तक कोई बाहर निकलता नहीं। सुधा और शांति नहाते नहाते एक दूसरे पर पानी फेंकते हुए कभी
कभी छिटक कर दूर भी चली जाती थीं और रीना कभी सीढियों पर बैठती तो कभी डूबकी लगाती...तीनो
कभी कभी एक दूसरे से बेखबर भी हो जाती। आज दूसरा दिन था, ये दूसरा स्नान था। इसके बाद दिल्ली
के लिए निकलना था। रीना जी भर के गंगा के ठंडेपन को अपने भीतर भर लेना चाहती थी...भर रही
थी। सुधा चिल्लाई-गंगा में डुबकी का महत्व है, कमसे कम पांच या तीन..जो ज्यादा लगाएगा, उतना
 पुण्य..

“अच्छा..!!”
“ये लो...” शांति चीखी...उसके साथ ही उसकी डुबकियां शुरु...

मैं दस डुबकी से कम नहीं लगाऊंगी..पानी ठंडा है पर कर लूंगी...देखते रहो...रीना हल्का हल्का सिहर रही
थी। सुधा और शांति अपनी डुबकियां गिन रही थी, रीना चुप थी। अपने आसपास कुछ अजनबी लोगो से
घिरी थी जो नहाते नहाते अचानक उससे टकरा जाते थे। सुधा और शांति ने अपनी गिनती की डुबकियां
पूरी करने के बाद चारो तरफ देखा, रीना से पूछना चाहती थीं कि उसने कितनी डुबकी लगाई। गंगा में
पानी बहे जा रहा था...कल कल कल.., लोग उछल रहे थे, बदन घिस घिस कर ऊब-डूब हो रहे थे,
किलोल कर रहे थे, रीना ने डुबकी लगाई और बाहर नहीं निकली। 

दोनों ने चारो तरफ देखा। पानी के अंदर देखने की कोशिश की, अंदर सतह दिख रही थीं, जंजीर दिख
रही थी, लोग दिख रहे थे अठखेलियां करते हुए, गंगा के भजन गूंज रहे थे, पंडा टीका लगाते घूम रहे थे,
सबकुछ था, रीना नहीं थी वहां। गंगा में पानी बहे चला जा रहा था...।

“रीना रीना...” की पुकार से पूरा हरकी पैड़ी गूंज रहा था। भजन बंद हो कर लाउडस्पीकर पर उदघोषणा
शुरु हो चुकी थी। सुधा बदहवास सी रीना के कपड़े लेकर छटपटाती हुई इधर उधर घूम रही थी। रीना का
कहीं पता नहीं था। कुछ तैराक लोग पानी के अंदर जाकर तलाशने का असफल प्रयास कर रहे थे। शांति
लगातार विलाप कर रही थी...”हाय हाय...हरीश को क्या मुंह दिखाएंगे..किस मुहुरत में घर से निकले..क्या
हो गया...कहां गई...डूब गई रीना...जब तैरना नहीं आता था तो क्या जरुरत थी, गहरे में जाने की..डुबकी
लगाने की क्या होड़ थी...पता नहीं अब तक उसका क्या हाल हुआ होगा...हे गंगा मईयां...अपनी भक्ति 
का क्या फल दिया आपने..?”
शांति की हालत वन में व्याकुल भटकते सीताविहीन राम सी हो गई थी...हे खग, हे विहग..तुम देखि
सीता मृगनयनी....। शांति को अपने घर वाले का डर बुरी तरह सता रहा था। वह लौट कर जाएगी तब
उसके साथ सब कैसा व्यवहार करेंगे...सोच सोच जी हलकान हुआ जा रहा है। 

सुधा विलाप नहीं कर रही थी, वह कभी पुलिस वालो को कहती तो कभी किनारे खड़े सुरक्षा गार्डो को...जो
दूर दूर तक खोज कर वापस आ गए थे। सबने हाथ खड़े कर लिए थे। सुधा ने अपनी कोशिशे नाकाम
होते देख कर हरीश के आफिस फोन लगा दिया। इस बात को ज्यादा देर छुपाना संभव नहीं था। जितनी
जल्दी बता दें तो ठीक। वह समझ गई थी कि बड़ी मुसीबत में सब फंस गए हैं, अब बचना मुश्किल। 

वह डरी हुई थी कि पहली बार घर से अकेले जाने की इजाजत अब हमेशा के लिए कंलकित हो गई। वे
जीवन भर अकेली यात्रा का नाम नहीं ले सकतीं।

“ओह...रीना...तूने ये क्या किया ?”

सुधा की आंखों से आंसू ढलक आए। लगा कलेजा वहीं कट कर गिर गया। रीना क्या गई, अपने साथ
उनकी जिंदगियों का भी बहुत कुछ ले गई। 
……….
गंगा की ऐसी छनाई पहले शायद ही कभी हुई हो। हरीश हरकी पैड़ी की सीढियों पर बैठा प्रलय के मनु
की तरह बैठा, जल प्रवाह देख रहा था। सीढियां गंगाजल से गीली हुई थीं या हरीश के आंसुओ से, पता
नहीं। तेज तो दोनों में था। हरीश ने सिर उठा कर गंगा मंदिर की तरफ देखा-यही वह जगह है जहां शिव
नीलकंठ हुए थे। वह भी इस जगह पर आकर अमृत की जगह जहर का फैलाव देख रहा था। रीना बचने
के लिए धाराओ में हाथ पैर मार रही है, उसकी सांसे टूट रही हैं, वह चीखना चाहती है, चीख नहीं पाती,
अमृत ने उसका मुंह रेत से भर दिया है...वह दूर बहती हुई जा रही है...कोई रोको उसे...बचाओ उसे...मैं
शिव नहीं होना चाहता...मैं अपनी सती को भस्मकुंड में स्वाहा होते नहीं देख सकता..ओ...”

वह छटपटा रहा था, विलाप कर रहा था, हितेश ने उसे बांहों में भर लिया। उसे वहां से दूर ले जाना 
चाहता था।
हितेश ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए स्थानीय प्रशासन को हिला कर रख दिया था। सारे तैराक,
पुलिस गंगा को छानने में जुटी थी। हरकी पैड़ी से लेकर रानी पुर झाड़, कांगरी गांव और रुड़की गंग नहर
तक तैराको ने गंगा को खंगाल लिया। उनके हाथ बहुत कुछ लगा, बस रीना की लाश नहीं मिली। हरीश
समेत पूरा महकमा हैरान परेशान था कि आखिर रीना की लाश कहां गई। डूबी होती तो इन्हीं तीनों
इलाके में जाकर लाश अटकती। ज्यादातर लाशें बहती हुईं इन्हीं इलाके में आ जाती हैं। जिन्हें अपने नाते
रिश्तेदारो के डूबने की खबर मिलती है वे यहीं आकर ढूंढते हैं अपनो को। गंगा का बहाव इतना इतना
तेज है कि बीच में कहीं अटकने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। हरीश हताश निराश गंग नहर के किनारे
खड़ा था। गहरी नहर के किनारे अकेला बैठा पानी को सूखी आंखों से घूरे जा रहा था। पानी की सतह पर
रीना का चेहरा उभरता और मिट जाता। हरीश छटपटा कर हाथ बढाना चाहता, पर बढा नहीं पाता। दो
लोग उसे जकड़े हुए हैं कि कहीं पानी में छलांग न लगा ले। वह एक बार रीना को अंतिम बार ही सही,
देख लेना चाहता था ताकि उसे यकीन आ सके कि वह मर चुकी है। सारी खोजो के बाद वह समझ नहीं
पा रहा कि क्या करे। रीना को मरा हुआ समझे या गायब। अब पुलिस वाले केस अलग तरह से दर्ज
करना चाह रहे थे। हरीश कुछ बोल पाने में अक्षम महसूस कर रहा था। हितेश ने मामले को हाथ में ले
लिया था। अब रीना की फोटो अखबार में छपेगी और ढूंढने पाने वालो के लिए मोटा इनाम घोषित किया
जाएगा।

बच्चो के आंसू थम चुके थे कि उन्हें यकीन हो गया था, उनकी मां मरी नहीं, जिंदा है, जहां कहीं है।
उन्हें रोना इस बात पर आ रहा था कि उनकी मां किस हालत में होगी...हरीश सोच रहा था कि रीना कहां
गायब हो गई। क्यों ? कैसे ? अब उसे अलग तरह के सवाल परेशान कर रहे थे। तरह तरह की आशंकाएं
मन को घेरती और वह बिलबिला उठता। अपने आप से लड़ता हुआ उसका यकीन इस बात पर पक्का हो
जाता कि रीना का अपहरण हुआ है। नहाते हुए कोई कैसे उठा कर ले जा सकता है। सुधा और शांति ने
तो रीना के कपड़े भी देखें थे जो घाट पर पड़े थे वैसे ही। हरीश और रीना को कोई दुश्मन भी नहीं था।
हां, रीना सुंदर इतनी थी कि कोई उसे उठा ले जा सकता था पर गंगा नहाते हुए...”  सोचते सोचते हरीश
की छोटी छोटी आंखें और सिकुड़ गईं। चेहरे का सारा नूर चला गया था। जैसे सारा स्वाभिमान धराशायी
 हो गया हो।

सुधा और शांति का रोदन भी थम चुका था। सबके सब नए सिरे से इस मसले पर विचारमग्न थे और
रीना को तलाशने के नए नए तरीके खोजे जा रहे थे। किसी तरीके का कोई हल नहीं निकला। दिन महीने 
साल निकलते गए....

रीना का पता नहीं चला। न वह मरे हुओ में शामिल थी न जिंदा में। हरीश के भीतर बारुद भरता चला
जा रहा था। वह बदल रहा था। पांच साल के लंबे इंतजार ने उसे और उसके परिवार को बदल दिया था।
बच्चे चाहते थे, पहाड़गंज का यह पुराना घर छोड़ कर पूर्वी दिल्ली के किसी अपार्टमेंट में शिफ्ट हो जाएं,
जहां उनकी मां के बारे में न कोई पूछने आए न सहानूभूति जताने। जहां वे अपनी अदृश्य दुनिया बना
लें, एक नई दुनिया, जहां अपने सूनेपन को नए सिरे से भरा जा सके। हरीश तैयार नहीं होता। गुड्डी अब
गुंजन बन चुकी थी और चिंटु अब चिराग त्यागी। तब ग्यारह साल का चिंटू अब 16 साल का सुंदर युवा
में बदल चुका है। गुंजन त्यागी किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रख चुकी है। हरीश को अपने पुश्तैनी
घर से खासा लगाव है। इसी घर ने उसे सब कुछ दिया और छीना...यहीं बड़ा हुआ..। इसे छोड़ कर कहां
जाएं। सुधा ने कई बार समझाया – “भाई साब, आप मकान बदल लो...शायद रीना को भूलने में आसानी
हो..यहां उसकी यादें परेशान करती होंगी...अब वो क्या आएगी...मुझे तो लगता है, वह डूबी होगी और
कहीं ऐसी जगह बह कर चली गई होगी, जहां हम नहीं पहुंच सके।“ 

हरीश बिलबिला जाता-
“सवाल ही नहीं होता...हमने कितना ढूंढा...सारी संभावित जगहें देखीं...नहीं...वह डूबी नहीं..वह मरी
नहीं...वो जिंदा है सुधा जी...पर कहां...किस हाल में...क्या कर रही होगी...क्या किसी तरह आ नहीं सकती
थी...फोन तो कर सकती थी...चिठ्ठी तो लिख सकती थी...रीना तो अपने बच्चो के बिना एक दिन रह
नहीं पाती थी। फिर कैसे...कभी कभी लगता है, शायद सचमुच जिंदा नहीं...पर दिल नहीं मानता।“

बोलते बोलते चुप हो जाता....कंठ से गीले गीले शब्द निकलते...

“कई बार लगता है, वो यहीं हैं कहीं आस पास...जैसे सब कुछ देख रही हो...किसी बात पर नाराज है और
“भाई साब, कोई भी नाराजगी, पांच साल लंबी नहीं चलती न...मुझे तो दाल में काला...”

सुधा का पति पंकज बीच में ही बोल पड़ता। उसके अक्खड़ बोल किसी को नहीं भाते पर हरीश जैसे वहां
था ही नहीं। वह अपने भीतर उतर जाता था, बोलते बोलते...उसकी आंखें जितनी बाहर देखतीं, उतनी ही
अंदर...ड्राइंग रुम का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता है..कई बार अधखुला छोड़ कर वह देर तक सुन्न
बैठा रहता..सामने सड़क पर तेजी से गुजरती हुई गाड़ियां, लोग, फेरीवाले...शोर से भरी हवा। हरीश के
भीतर उतना ही सन्नाटा...पांच साल बाद भी जीना नहीं सीखा। शांति ने कई बार समझाया-“भाई साब,
आप देख लो अपने लिए...बच्चे छोटे हैं, कैसे पलेंगे...बेटी बड़ी हो रही है। उसे मां की जरुरत है। आपकी
अभी उम्र ही क्या है...कहिए तो हम कोशिश....”

“प्लीज...शांति भाभी...मुझसे अब न होगा ये सब...जैसे चल रहा है, चलेगा...मैं अपने बच्चो को सौतेली
मां लाकर नहीं दूंगा...जब सगी मां साथ नहीं दे सकी तो दूसरी क्या देगी...आप लोग अब ये सब बात
करना छोड़ दें...मैं अब ठीक हो रहा हूं...संभल गया हूं...जिंदा तो रहना है न...अब इस पर बात करना
बेकार है...।“

हरीश का चेहरा तन जाता। गर्दन की सारी नसें स्याह हो जातीं। बेतरतीब-सा चेहरा लिए शाम को उठता
और सीधा क्लब चला जाता, जहां शाम की कोई नयी साथी उसका रोज इंतजार करती। 

प्रेस क्लब के मछली बाजार में रोज शाम अपने लिए सुकुन तलाशता और साथी ढूंढता। यहां चार पैग
पीने के बाद कोई सवाल पूछने लायक नहीं रह जाता कि पत्नी के बिना कैसा जीवन चल रहा है। पत्नी
के गायब होने की खबर क्लब से स्थायी पियक्कड़ो से दबा ली गई थी। एक कोने में रोज हरीश अपनी
उम्रदराज महिला मित्र के साथ बैठता, खाता पीता और पहले नीना को घर की गली में छोड़ता फिर खुद
घर वापस आता। दोनों बच्चे या तो सो चुके होते या बत्ती जली होती। अपने अपने कमरो में दो बड़े होते
बच्चे अपनी दुनिया बना रहे होते या जूझ रहे होते अपनी समस्याओ से, हरीश पता नहीं कर पाता था।
उन्हें छोड़ दिया था, उन्मुक्त और खुद भी फ्री बर्ड रहना चाहता था। ये जिंदगी उसे रास आने लगी थी।
बड़ी होती बेटी और बेटा, घर अचानक तीन बड़े सदस्यो का पनाहगाह हो गया था। हरीश को दिन भर
शाम का इंतजार रहता, जब वह क्लब में जाए और नीना से मिले, जो इन दिनों सिर्फ उसी का इंतजार
करती। उसे लगने लगा था कि जिंदगी अब पटरी पर आ गई है...सब ठीक चल रहा है..बच्चे एडजस्ट हो 
गए हैं...नौकरी भी सही चल रही है, कुछ ही दिनों के बात है, बच्चे सेटल हो जाएंगे फिर सारी
जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाऊंगा। अपने अकेलेपन की चिंता भी कहीं पीछे छूट गई थी। उसे लगने लगा
था कि हादसे सिर्फ उसी का पता ढूंढते नहीं आए थे, नीना का भी पता उन्हें याद था। क्लब में वह
जलते बुझते चेहरे देखता और भीतर से मजबूत होता जाता। सब किसी न किसी कहानी का हिस्सा हैं।
सबके साथ जिंदगी खेल खेल रही है। सोचते सोचते वह दो पैग ज्यादा चढा लेता और बहकने के बजाय
शांत हो जाता। उसे लगता, हरकी पैड़ी में गंगा भी शांत हो गई होगी। जो पीड़ा का निमित्त बनता है, उसे 
 भी कम बेचैनी नहीं होती होगी।

............

उसे सहसा यकीन नहीं हुआ। ये सूचना लेकर सुधा ही आई थी उसके पास। उसने शांत गंगा में कंकड़
मार दिया था। अवाक सा हरीश वहीं सोफे पर पसर गया। क्यों होता है ऐसा, जब जीवन में सबकुछ ठीक
चल रहा होता है तब अचानक कोई सदमा, कोई झटका, कोई तूफान आता है और नए सिरे से सब तबाह
करके चला जाता है। एक बार फिर...इतने सालों बाद...क्या करे वह। नही...खुद कोई फैसला नहीं
करेगा...। तब वह अकेला बड़ा था, अब दो बच्चे बड़े हो गए हैं, उन्हें शामिल करना होगा, उन्हें सच्चाई
बताई जाएगी। उनके मन में कहीं पिता के प्रति कटुता होगी, वह कम होगी। अब अकेले कोई फैसला नहीं
लेगा। चाहे अपने भीतर कितना भी मरना पड़े। हरीश ने खुद को संभाला और सुधा को स्पष्ट अपनी से
भावनाएं बता दीं। उसकी वापसी की खबर सुन कर जितना पहले दुख हुआ था उससे ज्यादा दुख उसे अब
हो रहा था। ये लौटना भी कोई लौटना है। जिसमें धोखा, छल, प्रपंच, ड्रामा, सस्पेंस....सब भरा हुआ हो।
उसे कुछ न पूछना था। बस एक सवाल....क्यों किया उसने ऐसा, इसके साथ, बच्चों के साथ...उनका
बचपन, मेरी जवानी क्यों छिनी...। वह सच सुनना चाहता था, सबके सामने, अकेले में बिल्कुल नहीं।
सुधा चाहती थी पहले दोनों अकेले मिलें फिर बच्चो के सामने। हरीश कमजोर नहीं पड़ना चाहता था। वह
भीतर से बदला हुआ इनसान था जिसके मन में उस छली स्त्री के लिए तिनका भर प्यार नहीं बचा था। 

सुधा हरीश को कारण बताना चाहती है, पर वह सुनना नहीं चाहता। वह बहुत दूर निकल चुका है।
हरकीपैड़ी से, गंगनहर से, कांगरी गांव से...सब से...

सब बैठे हैं, इंतजार में हैं...सितंबर की उस उष्ण शाम को और पकना था शायद। हरीश ने पूरी पंचायत
बुला ली थी। चिंटु, गुड्डी, सुधा, शांति सपरिवार वहां एकत्र थे। वह नीना को भी बुलाना चाहता था। कुछ
सोच कर ठिठक गया। दरवाजा खुला था। सडक तक नजर आ रही थी। सब मौन बैठे थे। सिर्फ कुछ
धड़कने गिनी जा सकती थीं। सबके चेहरे के भाव अलग अलग थे। सुधा और शांति जहां कातर नजर आ
रही थीं, उनके पति कठोर मुद्रा में बैठे थे। गुड्डी का चेहरा कातर हो गया था, और चिंटु का चेहरा सख्त
था। हरीश अपने को जाहिर नहीं करना चाहता। वह आज नहीं बोलेगा, बच्चे बोलेंगे। उनके भीतर दर्द का
ग्लेशियर बहना चाहिए, नहीं तो ये जीवन भर सामान्य नहीं हो पाएंगे। मामला सिर्फ एक पत्नी का नहीं,
बच्चो की मां का भी है, और बच्चे बड़े हो चुके हैं। गुड्डी से भीतर सवालो के तूफान उठ रहे थे, चिंटू
सवालो से सुलग रहा था। हरीश ने सारा फैसला दोनों पर छोड़ दिया था। दोनों बाहर से चुप थे और
भीतर से बोल रहे थे जिसे कोई सुन नहीं पा रहा था। हरीश भी नहीं। उसने सोच लिया था, जो बच्चे
कहेगे, वह मान लेगा। उसकी अपनी इच्छा का अब कोई खयाल नहीं। बस एक ही सवाल जेहन में कहीं
कैलेंडर की तरह टंगा रह गया है उसका जवाब मिल जाए, फिर चाहे जीवन का जो रुप बने। बस एक
सवाल। खुद को सवाल पूछने के लिए भीतर से तैयार कर रहा है। 

अपने भीतर से जूझते हुए तीन लोग खुद को लैस कर रहे थे, तीनो का मिजाज भिन्न । 

और वह आई, दरवाजे के अंदर ऐसे दाखिल हुई, जैसे दरवाजा खोलते ही सुबह की धूप। पीले रंग की
बदरंग सूट में जैसे कोई धूप से छिटका हुआ कतरा होता है, वैसी दिख रही थी, पतली, क्षीणकाया सी
पतली धूप-रेखा। चेहरे पर फैले बाल जैसे धूप को घेरती हुई टहनियां हों, पतली काली, मरियल सी। 

हरीश ने भरपूर देखा और नजरें झुका लीं। यह वह स्त्री नहीं है जो उसके साथ रहती थी। जिसके रुप पर
वह न्योछावर रहता था। जिसकी बोली पर निहाल हो जाया करता था। यह तो कोई और है, उसके ले-
आउट में। कौन है, भगोड़ी रीना, बेवफा रीना, साध्वी रीना...। सब अपनी जगह स्तब्ध खड़े थे। 

“आपको हमसे क्या चाहिए...अब क्या चाहती हैं आप ?”

“हमारा सबकुछ तो खत्म कर दिया आपने, अब क्या करेंगी यहां आकर ?” 

“आप हमारी मम्मी नहीं हैं...वो तो गंगा में डूब कर...”

सुबकन में बातें दब गईं। हरीश ने बांहे फैला कर बहुत दिनों बाद गुड्डी को अपने से सटा लिया। बिन मां
की बच्ची बस भरभरा कर गिरने ही वाली है...

“पापा, आप उन्हें बोल दो वे यहां से चली जाएं...हम अकेले ही आपके साथ खुश हैं...हमें उनकी जरुरत
“हम आप पर कैसे भरेसा कर लें ? फिर भाग गईं तो ? पापा तो मर ही जाएंगे...मम्म...”

“चिंटू...” हरीश की मिमियाती हुई आवाज बीच में ही दम तोड़ गई।

मम्म...सुनते ही रीना दौड़ी चिंटू की तरफ, रोती बिलखती...चिंटू छिटक कर दूर चला गया।

“सुनिए...आपने जो किया, क्यों किया...मुझे नहीं जानना...बस आप चले जाओ, यहां से...हमारी जिंदगी से
दूर...जहां थीं, वहीं चली जाइए...हमें ऐसे ही छोड़ दीजिए...हमें आपसे कुछ नहीं सुनना...आप वापस आई
ही क्यों...जाइए...पापा...इन्हें कहिए..चली जाएं..”

गुड्डी जोर जोर से बिलख रही थी। कमरे में सारे लोग अब तक स्तब्ध। पहले सुधा उठी, फिर पीछे पीछे 
सारे बाहरी लोग निकल गए।
“मैं तुम लोगो के बिना नहीं रह सकी...बेटा...मुझे माफ कर दो...मुझे एक मौका दे दे...प्लीज...मुझसे बहुत
बड़ी भूल हो गई...तुम कुछ कहो न...चुप क्यों हो...मारो मुझे..सजा दो मुझे...मैं गुनाहगार हूं तुम
सबकी...अब मैं कहां जाऊं..मेरे पास तो कुछ भी नहीं...मैं सब कुछ छोड़ कर आई हूं...”

“आते आते बहुत देर हो गई रीना..” हरीश दर्द से कराह उठा। 

“तुमने ऐसा क्यों किया रीना ? क्या गुनाह था मेरा ? कहां कमी रह गई थी ? तुम मेरे साथ खुश नहीं थी..ये
तो पता भी न चला हमें...मुझे तो याद नहीं कि कभी मैंने तुम्हारी कोई ख्वाहिश पूरी न की हो...मैं
तुम्हारे लायक नहीं था...बस यही कमी है मुझसे....और मेरा गुनाह क्या था...रीना...”

वह कांप रहा था...शब्द टूट रहे थे।

रीना ने गुड्डी की तरफ कांपते हुए हाथ बढाया...उसने हाथ झटक दिया। “मत छूइए...आपके रोने से पापा
पिघल सकते हैं...मैं नहीं...आप मां हैं...कैसी मां हैं आप....आपको मालूम भी है कि मां क्या होती है...बस
पैदा कर देना, पाल कर बड़ा कर देना...ये अहसान आपका याद रखेंगे...लेकिन एक बेटी के लिए मां का
होना क्या होता है, आप जानती भी हैं...आपको कुछ पता भी है...एक किशोर होती बेटी को मां की जरुरत 

“मुझे माफ कर दे गुड्डी....इतनी कठोर मत बन...मेरी बात तो सुन...मुझे भी तो समझ...मेरी तो कोई
नहीं सुन रहा...आह...” रीना निढाल होकर जमीन पर बैठ गई।  
कहां और कब होती है...?”
“आपको पता भी है कि आप किस मोड़ पर मुझे छोड़ कर गई थीं..तो सुनिए...कि क्यों हम आपसे नफरत
करते हैं..आपके जाने के दो तीन साल बाद ही मैं स्कूल से पापा के पास रोती हुई आई थी कि पापा मुझे
घाव हो गया है....मुझे अंदर से ब्लड आ रहा है...आय वाज ब्लीडींग मौम...आय वाज ब्लीडींग...मेरी ड्रेस
गंदी हो चुकी थी...सब हंस रहे थे मेरे ऊपर...मैं खुद से छिप रही थी...पापा ने सहारा दिया...वे मुझे सुधा
चाची के पास ले गए...आप कहां थी तब...। है कोई जवाब आपके पास...बताइए...तब तो आप अपनी नयी
जिंदगी में ऐश कर रही होंगी..आपको क्या पता कि पीछे एक बेटी भी छूट गई है, अब क्या हुआ 
आपको...कहां गया आपका...?”
गुड्डी चीख रही थी, विलाप कर रही थी...हरीश स्तब्ध, अपनी कम बोलने वाली, अंतर्मुखी बेटी को देख 
रहा था।
हरीश ने फर्श पर बैठी रीना को उठाया, हल्का सा सटते ही पुराना रोमांच लौटा पर बदन से वह खुशबू
गायब थी। यह स्त्री जो वापस लौटी है वह कोई और है और जिसके साथ रह कर वह पहले जैसा जीवन 
नहीं जी सकता।

“रीना...!!”

बेहद ठंडी और निर्णायक आवाज ।

“अलविदा...!!”

“सुनोगे नहीं...क्या हुआ था मेरे साथ ?”
“अब नहीं सुनना...तुम लौट जाओ..हमें हमारे हाल पर छोड़ दो...बच्चों ने अपना फैसला सुना दिया है।
इनका फैसला, मेरा फैसला...बाय रीना...आय एम हेल्पलेस....मेरे बच्चों की जिंदगी में कभी लौट कर न
आना। हमारी जिंदगियां बदल चुकी है जहां अब तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं...”

गुड्डी और चिंटू रोते रोते अपने अपने कमरो में घुस गए थे।

“हरीश...!”
रीना जोर से चीखी, पहली बार...वह रोना भूल गई। चेहरा दिपदिप जल उठा था। बाहर की ओर निकलते 
हुए बोलने  लगी,
“सुनो हरीश...सुना कर जाउंगी...तुमने मेरे बच्चो को भी मेरे खिलाफ कर दिया है...मैं समझ गई...ये घर
मेरा नहीं रहा...पर सुनो। मैं जा रही हूं...कभी लौट कर नहीं आऊंगी…तब तो मैं कोई भागी नहीं थी, ट्रैप्ड
हुई थी, और वह भी तुम्हारे उस जिगरी बिल्डर दोस्त के जिसके अहसान के तले तुम दबे हो और
जिसकी कीमत मैंने चुकाई है...।" थोड़ा थमकर फिर बोली, "यही तुम्हारा प्यार था...पाँच ही सालों में
ध्वस्त हो गया ! अब मै खुद ही जा रही हूं। अब मेरी तलाश मत करना। जानती हूं, तुम्हारे भीतर भी
बहुत सवाल होंगे...मेरे भीतर  भी बहुत आग है...चैन से रहो इस घर में..कर्ज मुक्त खानदानी घर, इस
घर में ही मेरा घर दफ्न हुआ...!”

हरीश को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था...कान सुन्न हो चुके थे और आंखें धुंधली...पानी की छोटी बूंदो में
एक चेहरा झिलमिला रहा था। दरवाजा खुला था और अंधेरा बेधड़क कमरे में पसर गया था।

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Monday, March 9, 2015

रंग

वह अक्सर रंगों से घिरी रहती। चटख रंग, दिप दिप करते रंग, खूब सारे रंग। उसकी पेंटिंग्स में खिलखिलाते, कहकहे लगाते रंग। और वो उदास रंगों में लिपटी उदासी का पैरहन लपेटे, खामोश उन्हें सजाती रहती। 

"उँह, 17 साल भी कोई उम्र होती है, उदास सफ़ेद, बोरिंग धूसर, सुबक सुबक ग्रे और ग़मगीन ऑफ़ वाइट पहनने की। दुनिया कितनी रंगीन है लड़की। रंगों से मुहब्बत करो।"

"पर मेरा सांवला रंग?" उदास लड़की ने धीमे से कहा।

"अल्लाह, ये बड़ी बड़ी आँखें, इनमें झिलमिलाते रंगों से भला कुछ हसीन है। उतार फेंको उदासी की चादर। विदा करो संजीदगी। रंगों को  आने दो।"

फिर रंग आये। एक-एककर सारे रंग आये। सुर्ख लाल, शोख नारंगी, खिलता गुलाबी, हरियाला हरा और मन को ठंडक देता नीला। उनसे घबराकर उदासी फाख्ता बन उड़ गई। अवसाद पानी बन बह गया और संजीदगी एक जम्हाई ले लम्बी नींद सो गई। 

एक शाम दिल के दरवाज़े पर धीमी सी दस्तक हुई। उसने पूछा, "कौन?"

खुश्बू के झोंके ने कान में फुसफुसाया, "प्रेम"

उस साल वसंत सर्दियों से पहले ही आ गया था।

Sunday, March 8, 2015

असफल प्रेम के बाद


जेहन में घुली नीम सी कड़वाहटें
वजूद में बढ़ती उदासियों की गलबहियां
अवसाद से शामों की बढ़ती मुलाकातें
ये तय करना मुश्किल है पहले कौन मरता है
प्रेम या सपने

प्रेम की दुनिया में पहले कदम और
जीवन में बसंत की आमद
का हर बार समानार्थी होना
जरूरी तो नहीं

वैवाहिक जीवन का
अगर होता कोई गेट पास
तो अनुभवों का माइक्रोस्कोप भी नहीं ढूंढ
सकता इस पर गारंटी या वारंटी

यह हर बार मुमकिन नहीं
कि मधुमास सदा घोल दे जीवन में
मधु भरे लम्हों का स्वाद
रिस जाता है मधु कलश
कभी कभी मास बीतने से ठीक पहले

प्रेम बदलता है समझौतों
की अंतहीन फेहरिस्त में
उम्मीदें लगा लेती हैं
छलावे का मुखौटा
सपने उस ट्रेन से हो जाते हैं
जो रेंगती है अनिश्चितता की पटरी पर
ढोते हुये तमाम डर और शंकाएँ
और नज़रों के ठीक सामने होते हैं
लौटने के तमाम धूमिल होते रास्ते

इस सफर में हर रात थोड़ा थोड़ा
पिघलती है मोम बनकर एक औरत
चुप्पी की कायनात से बाहर एक-एक कदम बढ़ाती
वह एक दिन झड़का देती है आत्मा से चिपकी बेबसी और लाचारी
आईने में खुद को चीन्हती
एक दिन उतार फेंकती है
स्वांग का लबादा
अपने भीतर से उगल देती है सारी आग
कि उसके हवाले कर सके उस ढेर को
जिन्हे कभी प्रेमपत्र कहा था

ठोकर पर रखती है कायनात
अपनी सालों पुरानी तस्वीर से बोलती है
"गुड मॉर्निंग"
तलाशती है अपने नाम का एक उगता सूरज
थामती है एक बड़ा सा कॉफी मग
और जहां खत्म हो जाना था दुनिया को
वही से शुरू होता है एक औरत का
अपना संसार ............

(फरवरी 2015 गाथान्तर महाकविता विशेषांक में प्रकशित)