Friday, April 4, 2014

छूटे हुए संदर्भ - नवनीत पांडे




यह सर्वविदित है कवि का मन बहुत अधिक संवेदनशील होता है। वह सहृदय होता है इसलिए उसकी अनुभूति सर्वसाधारण से भिन्न होती है। उसके हृदय की निर्मलता, कोमलता और पवित्रता ही कविता को मर्म स्पर्शी बनाती है। वह सूक्ष्म पदार्थो को सूक्ष्म दृष्टि से देखता है और उसे शब्दों का जामा पहनाकर प्रकृति के कण-कण को विलक्षण बना देता हैं उसकी भावुकता से कविता इतनी मधुर बन जाती है कि पाठक उसमें डूब जाता है। जीवन में आनन्द का सृजन करने वाली कविता ऐसी भागीरथी है!

"छूटे हुए संदर्भ" कवि नवनीत पांडे का दूसरा कविता-संग्रह है!  2002 में अपने पहले कविता-संग्रह "सच के आसपास" के लगभग बारह साल बाद यह संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है और दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला 2014 में इसका लोकार्पण हुआ!  इस संकलन में सम्मिलित 73 कवितायें  हृदय की तीव्रतम अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति के रूप में सामने आती हैं चाहे वो माँ पर लिखी शुरुआती दोनों कवितायें हों या पिता पर लिखी अगली चार कवितायें हों, भावनाओं की एक लहर रिश्तों को सँजोये हुए कहीं भीतर तक भिगो जाती है!  भावनात्मक रिश्तों से शुरू हुई यह काव्य-यात्रा विषयों का विस्तार होते-होते अपने शिखर  तक पहुँचती है तो भावपक्ष के साथ विचार पक्ष भी प्रबल रूप से प्रभावी हो जाता है!  प्रेम कविताओं में जहां नितांत निज की सुखद अनुभूति है वहीं स्त्री-विमर्श की कविताओं में कवि के वैचारिक पक्ष की प्रबलता भी दृढ़ता से सामने आती है!  यहाँ अनकहे और छूटे हुये संदर्भों के प्रति एक व्याकुलता है तो सिर्फ नारों तक सीमित विचारों के प्रति चेतावनी भी है! टटके बिम्ब, कहन की सहजता, भावों की सुंदर अनुभूति और विषयगत विविधता इस संकलन को विशेष बनाती है!  अपने समय की पहचान कवि की विशेषता है और यूं तो इस संग्रह में कई कवितायें अपने आस-पास की विसंगतियों से उपजी बेचैनी और संवेगों की तीव्रता का आभास कराती हैं जो कवि का मूल स्वर भी है और जिसके लिए आपको संग्रह तक पहुँचना जरूरी है,  फिर भी यहाँ शीर्षक कविता साझा करना चाहूंगी!

छूटे हुए संदर्भ 
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जहां पहुंच कर
होंठ हो जाते हैं गूंगे
आंखें अंधी और कान बहरे
समझ,नासमझ
और मन
अनमना
पूरी हो जाती है हद
हर भाषा की
अभिव्यक्ति बेबस
बंध, निर्बंध
संवेदन की इति से अथ तक
कविता, कहानी, उपन्यास
लेखन की हर विधा से बाहर
जो नहीं बंधते किसी धर्म,संस्कार,
समाज, देश, काल, वातावरण जाल में
नहीं बोलते कभी
किसी मंच, सभा, भीड़, एकांत,
शांत-प्रशांत में
भरे पड़े हैं
जाने कहां-कहां इस जीवन में
इसी जीवन के
छूटे हुए संदर्भ ...............


7 comments:

  1. बहुत सुन्दर समीक्षा

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  2. सारगर्भित समीक्षा ……अंजू तुम्हे और नवनीत पांडे जी को हार्दिक बधाई………कविता स्वंय कवि के लेखन का आईना है ।

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  3. छूटे हुए संदर्भों का आइना दिखाने के लिए आभार अंजू जी!

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  4. कम शब्दों में सार्थक समीक्षा के लियें दोनों को बधाई ..

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