"कार्टूनिस्ट प्राण" यह नाम 80 या नब्बे के दशक के बचपन से कुछ इस तरह वाबस्ता है कि इसके बिना बचपन की कल्पना काफी हद तक नीरस और बेरंगी मालूम होती है। चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू, पिंकी, रमन, श्रीमतीजी जैसे चर्चित कार्टूनों के जरिए घर-घर में मशहूर हुए कार्टूनिस्ट प्राण का 76 साल की उम्र में निधन हो गया। वह पिछले कई साल से कैंसर से पीड़ित थे। पिछले 10 दिनों से वह अस्पताल के इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में भर्ती थे, जहां मंगलवार रात उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके साथ ही मानों कॉमिक्स की दुनिया का एक सुनहरा दौर भी खत्म हो गया।
प्राण का जन्म 15 अगस्त, 1938 को लाहौर में हुआ था। पूरा नाम प्राण कुमार शर्मा था, लेकिन वह प्राण के नाम से ही मशहूर हुए। 1960 में उन्होने दिल्ली से छपने वाले अखबार 'मिलाप' में बतौर कार्टूनिस्ट अपने करियर की शुरुआत की थी। कॉमिक्स की दुनिया के चर्चित किरदार चाचा चौधरी को उन्होंने सबसे पहले हिंदी बाल पत्रिका 'लोटपोट' के लिए बनाया था। इसके बाद वह भारतीय कॉमिक जगत के सबसे सफल कार्टूनिस्टों में से गिने जाने लगे। चाचा चौधरी और साबू के अलावा भी डायमंड कॉमिक्स के लिए प्राण ने कई अन्य कामयाब किरदारों को जन्म दिया। इनमें रमन, बिल्लू और श्रीमतीजी जैसे कॉमिक चरित्र शामिल थे।
राजनीति विज्ञान के स्नातक और फाइन आर्ट्स के छात्र रहे प्राण ने जब 1960 के दशक में कॉमिक स्ट्रिप बनाना शुरू किया, जो उस वक्त भारत में इस लिहाज से बिल्कुल नया था और कोई देसी किरदार मौजूद नहीं था। अगर 1960 के दशक से पहले की बात करें तो प्राण साहब से पहले शायद ही किसी ने ऐसी कोशिश की होगी। उनकी कोशिश पूरी तरह कामयाब भी रही। विशुद्ध भारतीय कॉमिक कैरक्टर पहली बार अस्तित्व में आए जिन्हे हाथोंहाथ लिया गया। ये एक तरह से भारतीय बच्चों की दुनिया पर काबिज मिकी, डोनाल्ड, स्पाईडरमैन, मेंड्रेक आदि के समानान्तर एक ऐसी सीरीज़ का गठन था जो बेहद अपनी सी लगती थी और सहज ही बालमन पर अपनी छाप छोड़ जाती थी। भारतीय कॉमिक चरित्र, पर्फेक्ट कॉमिक टाइमिंग और समसमयिक विषयों पर पकड़ जैसी कुछ बातों ने उन्हे न केवल बच्चों बल्कि कई पीढ़ियों के पसंदीदा कार्टूनिस्ट के तौर पर स्थापित कर दिया। शायद ही किसी अन्य कार्टूनिस्ट को इतनी कामयाबी मिली होगी जो प्राण साहब को मिली।
बीबीसी को दिये एक इंटरव्यू में प्राण साहब ने बताया था, "ऐसा नहीं है कि कार्टूनिस्ट नहीं थे. मुझसे बेहतर थे मेरे सीनियर जैसे शंकर, कुट्टी और अहमद लेकिन वे सब राजनीतिक कार्टून बनाते थे. मुझे लगा कि राजनीति तो वक्त के साथ पुरानी पड़ जाएगी क्यों न ऐसे सामाजिक क़िरदार बनाऊं जो हम जैसे हों. मेरी समझ से कार्टून पत्रकारिता की एक शाखा है."
आगे वे कहते हैं, "उस वक्त जितनी भी कॉमिक्स बाज़ार में मौजूद थीं उन सब में विदेशी चरित्र थे जैसे मेंड्रेक, ब्लॉंडी वगैरह. हालांकि जब मैंने माता-पिता को बताया तो सबने कहा कि क्या मिलेगा तुम्हें, कोई लड़की तुमसे शादी नहीं करेगी. लेकिन मैंने कहा कि मैं तय कर चुका हूं. अब तो यही करना है."
उनके कार्टून कैरक्टर्स की लोकप्रियता का यह आलम रहा कि पिछली कई पीढ़ियों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी आदि से परिचित न हो। ये वह वक़्त था जब कॉमिक्स की दुनिया का स्वर्णिम दौर था, इस दौर से कितनी मदद प्राण साहब को मिली या प्राण साहब से कितनी मदद इस दौर के उत्थान को मिली ये कहना जरा मुश्किल है। दरअसल दोनों एक दूसरे के पूरक साबित हुए। वह दूरदशन और आकाशवाणी का जमाना था। केबल टीवी नेटवर्क और इंटरनेट से ठीक पहले का दौर था। तब बच्चों के लिए कॉमिक्स ठंडी हवा के उस झोंके के तरह था जो कुछ घंटों के लिए उन्हे पढ़ाई से निजात दिलाता था, माँ-बाप भी खुश थे कि किसी न किसी रूप में बच्चे किताबों से खुद को जोड़ रहे थे। डायमंड कॉमिक्स की सीरीज़ ने ऐसे समय को भुनाया और बच्चों को अपना मुरीद बना लिया और इसमें प्राण साहब का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। स्थानीय विषयों का चुनाव, चुटीला व्यंग्य और अपने ही घर-बाहर के आस पास दिखनेवाले किरदार बाज़ार पर इस कदर छा गए कि जल्दी ही डायमंड कॉमिक्स हर घर में होना जरूरी हो गया।
प्राण साहब में कामयाबी का एक लंबा दौर देखा है और वे अंतिम समय तक काम करते रहे। सक्रियता का तो ये आलम था कि अंतिम समय तक वे काम कर रहे थे। उन्होंने पाठकों के लिए आगे तक का काफी कॉमिक्स पहले से ही बना दिया था।
आज का बचपन किताबों से नाता तोड़कर फिर से केबल टीवी और इंटरनेट की शरण में हैं। भारतीय चरित्रों पर ज्यादा प्रयोग हो नहीं रहे हैं और छोटा भीम जैसे इक्का-दुक्का कार्टून को छोडकर एक बार फिर, शिनचैन, डोरेमोन, निंजा हथोड़ी जैसे विदेशी कार्टूनों का दौर है। हिन्दी या इंग्लिश में डब किए गए इन कार्टूनों में चुंबन लेते छोटे बच्चे हैं जिनके गाल बड़ी उम्र की लड़की तक को देखकर लाल हो जाते है। हर बच्चे के पास एक पर्फेक्ट क्रश भी है जिसे रिझाने का कोई मौका वह छोडना नहीं चाहता। अंत में यदि कोई संदेश मिलता भी है तो तमाम तरह की फूहडताओं से गुजरने के बाद। सोचने का समय है आखिर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को किया दिखा रहे हैं।
तमाम तरह के एनिमेशन कोर्सेस के युग में कार्टूनों के संदर्भ में देखा जाए तो कॉमिक्स में अब बच्चों की रुचि नहीं और यूं भी कार्टून बनाना आज खतरे से खाली नहीं है। खुद प्राण साहब कई बार ये चिंता जाहिर कर चुके थे कि किसी भी कार्टूनिस्ट को आज पहले जैसी स्वतन्त्रता नहीं है। फतवे और जुलूस के साथ साथ तमाम तरह की नाराज़गियाँ मोल लेने के बाद भी आज कितने कार्टूनिस्ट हैं जिन्हे कामयाबी मिल रही है। जो हैं वो किसी भी तरह के नए प्रयोगों से बचना चाहते हैं ऐसे में प्राण साहब का चले जाना कार्टून्स की दुनिया में उस स्थान का खाली होना है जिसे शायद ही कभी भरा जा सके। उन्हे भावभीनी श्रद्धांजलि।
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