Friday, October 10, 2014

अगर इच्छाओं के पंख होते (कहानी) : अचला बंसल



एक आयोजन में वरिष्ठ कहानीकार अचला जी से परिचय कराते हुए मित्र आकांक्षा पारे ने इस कहानी का जिक्र किया।  उनका कहना था कि इस कहानी को पढ़ना बेहद जरूरी है।  तभी से इस कहानी को पढ़ने की इच्छा जागी जो गुजरते समय के साथ तीव्र होती गई।  पिछले दिनों आकांक्षा के सौजन्य से 'रचनाकार' में इस कहानी का प्रियदर्शन जी द्वारा किया बेहतरीन हिन्दी अनुवाद पढ़ने को मिला तो लगा आकांक्षा का कहा लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं था।  यकीनन इस कहानी को पढ़ा जाना जरूरी है।  आप भी पढ़ेंगे तो जरूर सहमत होंगे.....






राहुल को अपनी पीठ झुलसती हुई महसूस हो रही थी। उस झुर्रियाए, सख्त चेहरे की डूबी आंखों में इतना तीखापन था कि उसकी हिम्मत नहीं हुई कि मुड़ कर उनका सामना करे,कहीं उनकी लपट उसे लील न जाएं।

वे क्या चाहती थीं? क्यों उनकी आंखें लगातार उसका पीछा करती रहती थीं- बेरहमी से, ख़ामोशी से। नहीं वे ख़ामोश नहीं थीं। सिर्फ होंठ चुप थे, आंखें नहीं। वे याचना कर रही थीं, चुनौती दे रही थीं, आरोप लगा रही थीं। किस बात का? क्या किया है उसने? या क्या नहीं किया है? जैसे ही उसे अपनी घबराई पत्नी विभा का फ़ोन आया, वह ज़रूरी मीटिंग छोड़कर, उन्हें डॉक्टर को ले कर घर चला आया था। उनकी ‘उच्च ज़िंदगी’ से परिचित डॉक्टर ने- भले ही वे सब उसके आउटडेटेड होने को लेकर उसक मज़ाक बनाते थे-उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी थी। वह तैयार हो गया था, कुछ ज़्यादा ही व्यग्रता से। डॉक्टर ने उस पर एक तीखी निगाह डाल कर कहा था,‘आपको फिर भी उनका ख़याल रखना होगा। नर्सें सबकुछ नहीं कर सकतीं।‘

‘हां, हां, विभा छुट्टी ले सकती है...हम दोनों मिलकर मैनेज कर लेंगे,’ उसने डॉक्टर की चुभती निगाहों से बचते हुए जल्दी से कहा था।

लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। लाख मान-मनुहार के बाद भी तैयार नहीं हुई थीं। उसकी सीधी-सादी मां, जिसे वह बचपन से जानता था, उसके दबंग पिता के सामने हमेशा घुटने टेक देती थीं, कब उनके भीतर जिद्दीपन की यह टेक पैदा हो गई? वह हमेशा उसकी बात सुना करती थीं, उससे कुछ डरती भी थी, क्योंकि उनके मुताबिक, वह, अपने पापा जैसा ही था। अक्सर वे उसकी पत्नी को चेतावनी देती थीं कि उसे उकसाया न करे, लेकिन वह हंस कर उड़ा देती थी। ‘चिंता मत कीजिए मांजी, मेरा मिज़ाज भी इतना ही तेज़ है,’ विभा पलट कर कहती थी। वाकई था, लेकिन मां? क्या वह होश खो बैठी हैं कि उसकी इच्छा, उसका आदेश मानने से इनकार कर रही हैं?

आख़िर उसे मुड़ कर उनकी जलती आंखों का सामना करना पड़ा। उनके बगल में बैठकर, उसने उनके बर्फ जैसे उजले बाल सहलाए, ‘मां, तुम्हें अस्पताल जाना होगा। मैं कह रहा हूं न...डॉक्टर कहता है...’।

‘नहीं,’ वे बुदबुदाईं।

’नहीं का मतलब?’ उसने झल्ला कर पूछा।

‘मैं नहीं जाऊंगी। मैं यहीं मरूंगी।‘

’तुम मर नहीं रही हो, यहाँ पड़ी नहीं रही तो नहीं मरोगी।‘

’मैं मर रही हूं, लेकिन उसके पहले मैं उड़ूंगी, ऊपर बादलों में।‘

बहुत देर हो गई, उसने हताशा से सोचा, उन्हें अस्पताल पहले भर्ती करवाना चाहिए था।

उनका अंत आ चुका था। आख़िरकार वे काफी बूढ़ी थीं। ७० पार। उनकी सही उम्र उसे मालूम नहीं थी। पिता जीवित होते तो शायद उन्हैं पता होता मगर उसमें संदेह था।शायद ही वे अपनी आज्ञाकारी और घरेलू पत्नी के बारे में कुछ जानते थे।

’जाओ, दो टिकट ले आओ,वे बुदबुदाईं।

‘क्या?’अपनी बेसब्री पर क़ाबू रखने की कोशिश करते हुए उसने पूछा। काश वह अस्पताल जाने को तैयार हो जाएं। वह उनके लिए २४ घंटे की नर्सों का इंतज़ाम कर देगा। वह पैसा खर्च कर सकता था। पर समय? समय कहीं ज़्यादा क़ीमती था। काश विभा समझ पाती। लेकिन वह आपसी बराबरी में यक़ीन करती थी। उसके पास भी हासिल करने को मक़सद थे, पूरे करने को वादे थे। उसके बावजूद वह घर की देखरेख करती थी। उसके घर पर न रहने पर भी घर नियम से चलता था न। कम से कम वह अपनी मां का ख़याल तो रख सकता था। ‘आख़िरकार यह तुम्हारी ज़िम्मेवारी हैं,‘ उसने दो टूक कहा, और उसे उनकी बड़बड़ाहट सुनने को छोड़ गई।

‘विमान के दो टिकट ले आओ। मरने से पहले... मैं एक बार उड़ना चाहती हूं।‘

’लेकिन तुम कहीं नहीं जा सकती। अभी नहीं। जब ठीक हो जाओगी तो मैं तुम्हें ले जाऊंगा। अगर तुम अस्पताल जाने को राज़ी हो गईं तो मैं वादा करता हूं, जैसे ही लौटोगी, मैं तुम्हें ले जाऊंगा।

‘अगर मैं कहीं जाऊंगी तो प्लेन में, यह मेरी आख़िरी इच्छा है।‘

बेबस राहुल उन्हें तकता रहा, वह भी उसे घूरती रहीं, उनकी आंखें उसे भेद रही थीं, होंठ सख्ती से कसे थे। वह जानता था, अब वे नहीं बोलेंगी। जब से उसने उन्हें जाना है, चुप्पी उनका इकलौता हथियार रहा है। कोई उससे लोहा नहीं ले सकता था। उसके पिता भी नहीं।

क्या वह...नहीं वह पागलपन होगा। इस हाल में उन्हें कहीं नहीं ले जाया जा सकता। वे रास्ते में मर जाएंगी। वह इस खयाल से सिहर गया कि उसके हाथों में एक शव होगा, कितना अभद्र दिखेगा। वह, जिसने अब तक खूबसूरत एयरहोस्टेज़ेज की आंखों में अपने लिए तारीफ़ के अलावा कुछ नहीं देखा था। इस उम्र में भी, अपने उड़ते बालों और हल्की उभरी तोंद के बावजूद, वह मर्दानगी की मिसाल था। उसे औरतों को ख़ुश रखने का राज़ जो मालूम था। नई पीढ़ी, स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार के आकर्षण के बारे में नहीं जानती।  वह ख़ुद उसमें भरपूर यक़ीन रखता था और उसके इस्तेमाल में पारंगत था। इस हद तक कि उसकी आज़ाद ख़याल पत्नी भी झल्ला जाती थी। वह अंदाज़ और अदाएं थकाने वाली  ज़रूर थीं पर आख़िर हर चीज़ की क़ीमत अदा करनी पड़ती है न। तारीफ़ का ईनाम भी तो मिलता है।

उसने गहरी सांस ली। काश अपनी सनक के बारे में उन्होंने पहले बतलाया होता। पर क्या सचमुच उसे मालूम नहीं था? जब वह छोटा था, वे ऊपर से गुजरते हवाई जहाज़ को तब तक देखती रहती थीं जब तक वह दूर आसमान में लक़ीर न बन जाता। तब भी मोहपाश में बंधी वे उसे ताकती रहती।

उसे धुंधला सा याद था कि वे टैरेस पर खड़े होकर ऊपर देखती रहती थीं। उसने कभी पूछने की ज़रूरत नहीं समझी कि वे क्या देख रही थीं। वह उनकी पुरानी आदत थी, वह बचपन से उसका अभ्यस्त था। जब भी वह विमान से सफ़र करता, वह ‘बेवकूफ़ाना’ सवाल किया करतीं, जिसके जवाब देने का न उसके पास वक्त था, न सब्र। "तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं चांद से हो कर आया हूं," वह एक बार फट पड़ा था। उन्होंने दुबारा उससे नहीं पूछा था पर उनकी आंखें उसका तब तक पीछा करती रहतीं, जब तक वह अपने कमरे में शरण नहीं ले लेता, जहां उसे मालूम था, वे नहीं आएंगी।

उसने उन्हें सख्ती से देखा। आंखें अब भी उसी पर टिकी थीं। तीखी, झुलसाती हुईं। वह कमरे से बाहर निकल गया।

दरवाज़े पर खड़े हो कर उसने कहा, ‘मां, मैं दफ़्तर जा रहा हूं। अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो घण्टी दबा देना। रामदीन यहां है। मैं तुम्हारे लिए एक नर्स का इंतज़ाम कर दूंगा।‘ उनकी ओर देखे बिना, वह बाहर निकल गया।



‘गुड मॉर्निंग सर’, जैसे ही वह अपनी कुर्सी पर बैठा, हाथ में भाप फेंकती कॉफी का कप लिये, उसकी ख़ूबसूरत सेक्रेटरी दाखिल हुई।सावधानी से उसे उसके सामने रख दिया। ‘थैंक्यू’, उसकी ओर देखे बिना वह बुदबुदाया। कुछ हैरान, वह एक लम्हे के लिए खड़ी रही, फिर चुपचाप चली गई। वह खिसिया कर मुस्कुराया, उसे अहसास था, वह अपनी मशहूर मुस्कान उसकी तरफ़ फेंकने से चूक गया था। इतना अभद्र व्यवहार?

उसने सुरुचि से सजे कमरे को देखा। खुला, आरामदेह। घर के उसके कमरे की तरह नहीं, जिसे उसकी पत्नी जब-तब ‘सजाने’ में लगी रहती है और जिससे उसे झल्लाहट होती है।



उसे तभी समझ जाना चाहिए था कि वह किस चक्कर में पड़ने वाला है, जब उसकी  होने वाली पत्नी ने गर्व के साथ बतलाया था कि उसने इंटीरियर डिज़ाइनिंग की है। वह गर्व से चहकती अपनी होने वाली पत्नी को देख कर लगाव से मुस्कुराया था। हर किसी के शौक होते हैं। उसकी मां के भी हैं। क्या वाकई? खाना पकाना, सीना-बुनना, क्या वे शौक थे? या ऐसे काम, जिन्हें वह आदतन- भले उनकी जरूरत न रह गई हो- मशीनी ढंग से करती रहती थीं? क्या उन्हें उनमें लुत्फ़ आता था? जब वह छोटा था, तभी उसने उनके असल रोमांच को महसूस कर लिया था...अनुभव तब किया, जब अपनी पहली हवाई ट्रिप पर गया। बादलों के पार...।

उसने फाइल बंद कर दी। काम में ध्यान लगाना असंभव हो गया था। पहले कभी उसका मन इस तरह नहीं भटका। वह धुन का पक्का और कामकाजी आदमी था। वह उठ गया।

‘वह डेढ़ बजे गॉल्फ़ क्लब में है, सर.’उसकी सेक्रेटरी उसके सामने खड़ी थी।

‘क्या?’

’मिस्टर रॉय के साथ लंच’।

‘कैंसिल कर दो।‘

’लेकिन सर...’

उसने ब्रीफ़केस उठाया तो वह उसे ताकती रह गई।

’मैं वापस नहीं आऊंगा,‘ कह, उसके कुछ समझ पाने से पहले वह बाहर निकल गया।



‘कहां चले गए थे तुम?’ जैसे ही घर में दाखिल हुआ, विभा ने पूछा। "रामदीन ने तुमसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन तुम दफ़्तर में नहीं थे। फिर उसने मुझे फोन किया और मुझे दौड़ कर घर आना पड़ा। तुम उनके साथ एक दिन रह नहीं सकते थे? वह मर रही हैं और...।‘

वह उसे पीछे छोड़ दौड़ता हुआ मां के कमरे में पहुँचा।उनकी बंद आंखें देख उसका दिल बैठ गया। क्या वे मर गईं? उसने उनकी नब्ज़ देखी। नब्ज चल रही थी पर कुछ मद्धिम। उन्हें करना ही होगा। ज़्यादा वक्त नहीं था। उसे जल्दी करनी होगी।

‘मां,’ वह फुसफुसाया।

उनकी आंखें खुल गईं, ‘टिकट ले आए?’

’वे अनर्गल बड़बड़ा रही हैं,’ विभा दरवाज़े पर खड़ी थी।

’मां, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।’

वे ना में सिर हिलाने लगीं।

‘तुम पछताओगी नहीं’, वह उनके कानों में फुसफुसाया, "अपने तमाम ऊनी कपड़े रख लो। बाहर बहुत ठंड है। चल पाओगी न? मैं तुम्हें उठाकर ले चलूंगा।‘

’मैं चल सकती हूं,’ उन्होंने दृढ़ता से कहा। ‘लेकिन...’

’रास्ते में बतलाऊंगा। अगर तुम्हें ठीक नहीं लगा तो हम लौट आएंगे। मैं वादा करता हूं।‘उन्हें अपनी तरफ संदेह से देखते पा कर उसने जोड़ा।

’उनकी कुछ चीज़ें पैक कर दो।‘उसने विभा से कहा। ‘बस, ज़रूरत भर सामान।‘

’तुम उन्हें कहां ले जा रहे हो? कौन से अस्पताल? मैं चलूं साथ?’

’नहीं, मैं रहूंगा उनके साथ। बाद में तुम्हें बतला दूंगा, हम कहां हैं।‘

कुछ राहत महसूस करते हुए कि उसे साथ चलने को नहीं कह रहा, वह पैकिंग में जुट गई। उसे अस्पतालों से घिन्न आती थी...ऐंटीसेप्टिक की गंध, घिनौने मरीज़, सपाट चेहरे वाली नर्सें, डिटर्जेंट की गंध, सबसे।

‘टैक्सी के लिए फोन कर दो,‘अपने सामान एक ओवरनाइटर में ठूंसते हुए उसने हड़बड़ा कर कहा।

‘मैं तुम्हें छोड़ दूंगी,’ कुछ अपराधबोध अनुभव करते हुए उसने कहा।

’नहीं, नहीं, हम कैब ले लेंगे। जल्दी पहुंच जाएंगे।" उसने अविश्वास से उसे देखा तो उसने जोड़ा," मैं नहीं चाहता, तुम तेज़ ड्राइव करो।"

कंधे झटक कर उसने रिसीवर उठा लिया।



उन्हें घर छोड़े चार दिन हो गए थे। हैरानी की बात यह थी कि उसने फोन नहीं किया था, न घर, न दफ़्तर। उसकी परेशान सेक्रेटरी के कई फ़ोन आए थे। बेवकूफ लड़की, इतनी घबराई, इतनी परेशान। विभा ने उससे कहा कि वह उसके सारे अप्वाइंटमेंट रद्द कर दे- एक हफ़्ते के लिए, एक महीने के लिए या जब तक ठीक समझे, तब तक। वह इसी लायक है! उसने यह बतलाने की भी जहमत नहीं की कि वह है कहां? ठीक है, उसे अस्पताल नापसंद थे, लेकिन कम-से-कम एक बार जाकर उन्हें देख तो आती। ज़रूरत पड़ जाती तो शायद साथ भी रह लेती। क्या वे मर चुकीं? नहीं, कदापि नहीं। तब वह उन्हें घर ले आता- यानी उनके शव को। उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। उसे शवों से और ज्यादा नफ़रत थी।

ठीक है, अभी वह अपने दोस्तों के साथ लंच के लिए जा रही थी। तो बुरी बातों का खयाल क्यों करे, गाड़ी की चाबी उठाते हुए उसने सोचा। वह अपनी छुट्टियों का पूरा इस्तेमाल करेगी। कौन जानता है, कब उसे शोक मनाना पड़ जाए। वह खयाल ही दिल डुबाने वाला था। तभी घंटी बजी। उसे किसी के आने का इंतज़ार नहीं था। ठीक है, जो होगा, जल्दी विदा कर देगी। वह तेज़ी से दरवाज़े की तरफ बढ़ी...और अचंभित खड़ी रह गई, जब सामने हंसते रोहित को खड़े देखा।



‘आखिर तुम थे कहां?’ हड़बड़ाई सी वह बोली।

’मैंने उड़ान भरी...बर्फ भी पड़ रही थी। क्या तुम मानोगी, मैंने वाकई बर्फ देखी’, पीछे से बूढ़ी औरत चहचहा रही थी।

हैरान, उसने अपनी सास को घूरा। हे भगवान! बीमार सास काफ़ी नहीं थी क्या जो अब एक खिसकी बूढ़ी औरत से भी निबटना पड़ेगा।

’क्या तुमने कभी बर्फ देखी है, बहू?’

’हां, कई बार,’ विभा ने सर्द आवाज़ में कहा, "मैं शिमला में पढ़ी हूँ।"

‘लो, मैं भूल ही गई थी। क्या वहाँ हर साल बर्फ पड़ती है? तब अगली सर्दी में हम सब चलेंगे,‘ वे खुशी से हंस रही थीं।

रोहित ने कुछ शर्मिन्दगी से पत्नी को देखा। बूढी औरत खुशी-खुशी अपने कमरे की तरफ़ जा चुकी थी।

‘तुम उन्हें यहां क्यों ले आए?’ विभा फट पड़ी, ‘क्या तुम सोचते हो, मैं एक पागल के साथ रहूंगी?’

’वे पागल नहीं हैं विभा। उन्होंने वाकई बर्फ देखी है। हम श्रीनगर गए थे। मेरा इरादा अगले दिन लौट आने का था, लेकिन हम फंस गए...‘

’वाकई? जाते वक़्त मुझे बतला कर नहीं जा सकते थे? टिकट तो पहले से ले रखे होंगे न?" उसने तंज़ से कहा।

‘पहले कोई योजना नहीं थी। वह मर रही थीं और हवाई जहाज़ में बैठना उनकी आख़िरी इच्छा थी। मैं- मैं बस, यों ही, अंतःप्रेरणा पर टिकट ले आया- बतलाने का वक़्त नहीं था।‘ उसने बेबसी से पत्नी के खीझे चेहरे को देखा। उसे नाराज़ होने का हक है। कम से कम...

’पर श्रीनगर क्यों? बर्फ, वाह! करिश्मा ही समझो कि वे मरी नहीं।‘

’वे बेहद ख़ुश थीं। हवाई जहाज़ में बैठते ही उन पर जादू हो गया। और बर्फ...वे सातवें आसमान पर थीं। मैंने उन्हें कभी, एक बार भी इतना खुश नहीं देखा। वे तो बर्फ पर चलना भी चाहती थीं,‘ वह हंसा।

बर्फ पर चलना! लंबे समय से भूली बचपन की तमन्ना लौटी और विभा का दिल जोर से धड़क उठा। हर जाड़े में जब शिमला में बर्फ पड़ती और स्कूल की लंबी छुट्टी में वह अपने मम्मी-पापा के साथ मैदान में होती तो बर्फ के लिए मचलती। कुछ दिन ठहर कर पहली बर्फ देखने के उसके सहमे सुझाव को उसके पिता ‘बेतुका’ बतला कर ख़ारिज कर देते। "उस खाली बोर्डिंग हाउस में तुम ठिठुर कर मर जाओगी," उसकी मां का फैसला होता।

एक बार उन्होंने उसकी इच्छा के आगे हार मानी थी और उसे बर्फबारी दिखाने ले गए थे। जब वे पहुंचे थे, तो धूप खिली मिली थी और संतुष्ट पिता ने उसका पूरा फ़ायदा उठाते हुए अपनी मॉर्निंग वॉक ज़ारी रखी थी। ‘बर्फ पड़े या नहीं, चार दिन में हम लौट जाएंगे’, उनका अकाट्य फैसला था। आख़िरी सुबह जब वह जगी तो पिता बेचैन टहल रहे थे और मां धीरे-धीरे कुछ बुदबुदा रही थी। बाहर बर्फ पड़ रही थी। उसने दरवाज़े की तरफ ज़ोरदार दौड़ लगाई, लेकिन मां ने बेरुख़ी से उसे वापस खींच लिया। खिड़की से नाक सटाए, वह बर्फबारी देखती रही और उसके मां-पापा जल्द से जल्द वहाँ से निकलने की गुंजाइश पर बहस करते रहे।

‘इस बार मैं मफ़लर ले चलूंगी- बर्फ में घूमने के लिए ज़रूरी है। मेरे पास कुछ ऊन पड़ी है...एक तुम्हारे लिए भी बुन दूंगी, रोहित। और तुम्हारे लिए भी बहू, अगर तुम साथ चलो," वे वहां खड़ी चहक रही थीं।

हैरान विभा ने एक झुर्रियाए चेहरे को अपनी तरफ़ उम्मीद से देखते पाया। पहली बार, उसने वाक़ई उन्हें देखा, उनसे अजीब-सा लगाव महसूस किया। उसे हैरानी हो रही थी कि वह, ऊँचाई पर पहुँची, कामयाब करिअर वूमन, एक सीधी-सादी अनपढ़, घर में बंद औरत के साथ, अरसे से संजोया सपना, साझा कर सकती है। हां, वे एक जैसी हैं, वे दोनों, बर्फ से जुड़ी हुईं।

’कौन सा रंग पसंद करोगी?’ बर्फ-सी उजली आवाज़ पूछ रही थी।

‘सारे ... इंद्रधनुष जितने रंग,‘ उसने खुशी खुशी जवाब दिया।

‘मुझे नहीं लगता, मेरे पास उतने रंग हैं,‘ बूढे़ चेहरे ने याद करने की कोशिश की।

‘फिक्र मत कीजिए। मैं ला दूंगी।‘अपना बैग उठाते हुए विभा हंसी। उसे देर हो रही थी, उसके दोस्त इंतज़ार कर रहे होंगे।

‘तुम जा कहां रही हो?’ एक हंसते चेहरे से दूसरे हंसते चेहरे को देखते हुए, हैरान  रोहित ने पूछा।

‘ऊन लाने के लिए।‘उसकी मां हंसी।

मूल अंग्रेज़ी से अनुवादः प्रियदर्शन

7 comments:

  1. वाह बहुत ही मार्मिक खूबसूरत भाव एहसासों में बंधी कहानी ..........

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  2. बहुत बढ़िया ममर्स्पर्शी कहानी!

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  3. Yes, vacations can do wonders! or even a short trip! Really nice story.

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  4. ऐसी कहानी जिसमें हर शख़्स के वजूद का कोई हिस्सा शामिल है .... मन भर आया

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  5. बहुत बढ़िया कहानी!

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