सुरों और शब्दों के बीच डूबती उतराती कवयित्री स्वरांगी साने की कवितायें स्त्री मन की गहन संवेदनाओं से सुवासित कविताएं हैं! कविता इनके लिए महज
शब्दों की कीमियागिरी नहीं है! जहाँ एक ओर वे कविता के माध्यम से अंतर्मन के
द्वन्द को कुछ सवालों के रूप में वक़्त और समाज के सामने रखती हैं! वहीँ
स्त्री मन को कोमलता को सहेजे हुए उन रिश्तों को आज भी जीती हैं जो समय के
भंवर में खो गए! कवयित्री की काव्य चेतना परिवर्तनगामी है, तभी वे माँ,
दादी के चश्मे से दुनिया को देखने से कई कदम आगे बढ़कर सौर मंडल साथ लेकर
घूमने की मंशा रखती स्त्री की बात करती हैं! यहाँ मैं, मेरी प्रिय कवयित्री
एड्रीएन रीच को उदृत करना चाहूँगी, "जब स्त्री एक संस्कृति के
रूप में विकसित होगी-तभी
मानव समाज में क्रांति होगी. नई सोच, नई दृष्टि, नए विचार विकसित होंगे.
सत्ता, बुद्धि और भावना के नए आयाम उद्घाटित होंगे!" वस्तुतः आज के दौर
में स्त्री लेखन एक नयी सोच और नए विचारों के साथ ही अपने उद्देश्य को लेकर
सतत प्रगति की ओर अग्रसर है! स्वरांगी की कवितायेँ उसी चेतना का विस्तार
हैं!
1.
टूटने और जुड़ने के बीच
मैं झुकती रही
टूटती रही रोती रही
थी मैं लड़की
इसलिए लगातार हारती रही
मैं जीतने के लिए पैदा हुई थी
मुझे हार के लिए तैयार किया जाता रहा
जीना और जीतना चाहती थी मैं भी
पर मुझे लड़की की तरह बड़ा किया गया
मेरी परवरिश ही वैसी थी
मैं जीती रही उम्र भर
टूटने और जुड़ने के ही बीच
2.
पतझड़ के विरुद्ध
सुनो बड़!
तुम्हें पूजती हैं औरतें इस मुल्क की
और तुम
पूरी करते हो
सबकी मनौतियाँ
इतना तो बताओ
तुमने कहाँ से मांगी मनौती
पतझड़ के विरुद्ध
हर बार हरे होने की।
3.
पिता
पिता की उम्र क्या
उतनी जो थे हमारे साथ
या उतनी
जितनी बार हँसे साथ
या कम किये उन्होंने हमारे दुःख
पिता की उम्र आकाश जितनी
या फिर समंदर
जीवन का स्नेह-जैसे सूर्य
या मन को शांति-जैसे चंद्र
पिता की उम्र बड़ी
या उम्र से बड़े पिता
चले गए थे बिना बताए
शायद जल्दी में थे
इसलिए नहीं बता पाए तब
वे अपनी उम्र
पिता की उम्र इतनी छोटी जैसे साँस
या बड़ी इतनी
जितनी आस।
4 .
अपने अपने अँधेरे
मैंने चाहा धूप को पकड़ना
वैसे ही जैसे
कोई चाहे सुख को
या अपने प्यारे दोस्त को
मैं नहाती रही गुनगुनेपन में उसके
और टोहती रही अंधेरा
धूप से दूर मैं कई लोगों के साथ थी
सभी अपने अपने अंधेरे में कैद
ज़रा सी आँच को
मान रहे थे पूरी धूप
मैंने भी झिरी से आती धूप को
पूरी समझा
और बंद कर किवाड़
सोचा बंद हो गई वह
जबकि धूप नहीं
बंद थी मैं।
5.
सौर मंडल
सहती रहो
माँ ने कहा था।
सहती जाओगी तो धारित्री कहलाओगी दादी ने कहा।
फिर वो भी
कभी बही सरिता बन
कभी पहाड़ हो गई
कभी किसी अंकुर की माँ हो गई
पर मुँह से एक शब्द भी नहीं निकाला।
एक स्त्री से अन्य तक
पहुँची यही बात
सब अपनी-अपनी जगह
होती चली गई जड़वत्
बनती चली गई धरती जैसी।
हर धरती के आसपास रहा कोई चाँद
तपिश भी देता रहा कोई सूरज
तब से पूरा का पूरा
सौर मंडल साथ लिए घूमने लगी है स्त्री ।
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स्वरांगी पुणे, महाराष्ट्र में रहती हैं! उनका एक संग्रह "शहर की छोटी सी छत पर" रामकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका है!
सम्प्रति : लोकमत समाचार में वरिष्ठ उपसम्पादक
कुछ नई-पुरानी कवितायेँ पढ़कर अच्छा लगा ....सौरमंडल ने विस्मित किया ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कवितायेँ
ReplyDeleteछुपे प्रतिरोध की मुखर आवाज
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