ईमानदारी से देखा जाए तो पर्दाप्रथा स्त्रियों से कहीं ज्यादा पुरुषों के आचरण पर सवाल उठाती है! सोचकर देखिये आपकी पुत्रवधू जो आपकी बेटी के समान है, परम्परा के नाम पर आपसे पर्दा करती है! जाहिर है आप उसके लिए पितातुल्य या बड़े भाईतुल्य नहीं हैं! होते तो आपसे यूँ मुंह छिपाकर नहीं रहना पड़ता!
क्या पुरुष जाति इतनी चरित्रहीन है कि अपने ही घर परिवार की स्त्रियों पर कुदृष्टि डालेगी! मुझे तो लगता है, स्त्रियों से कहीं अधिक पुरुषों को इस प्रथा का विरोध करना चाहिए! वरना यदि आपके परिवार की नई पीढ़ी की स्त्रियाँ आपसे पर्दा करती हैं तो मान लीजिये, सभ्यता के उत्कर्ष पर पहुंचकर भी आप इस विश्वास के काबिल नहीं समझे जा रहे कि कोई स्त्री बिना पर्दे भी इस समाज में महफ़ूज है! जो स्त्रियाँ अपनी मर्जी से ऐसा करती हैं उनका मन टटोलिये, कहीं भीतर एक डर कुंडली मारे बैठा है जो परम्परा की आड़ में पोषित हो रहा है!
और ये कहाँ लिखा है कि गलत परम्परा को पोषित किया जाए! मेरे परिवार में पर्दाप्रथा थी! मेरे ससुरजी बूढ़े, अशक्त और बीमार थे! उन्हें मेरे पर्दे नहीं स्नेह, सम्मान और देखभाल की जरूरत थी! हार्टअटैक के बाद तो और भी ज्यादा! आप लोग बताएं पर्दा करके बैठ जाती या उनकी देखभाल करती! मैं दूसरा विकल्प चुना! अपने हाथों से पीसकर चम्मच से दवा पिलाती थी! कपड़े तक बदले उनके अंतिम दिनों में! क्या फायदा ऐसी प्रथा का जहाँ इज्जत नहीं डर का रिश्ता हो!
मैं फिर से कहती हूँ, सोचकर देखिये!
----अंजू शर्मा
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