Wednesday, July 30, 2014

मेरी पसंद के कुछ सावन गीत




सभी मित्रों को तीज की हार्दिक बधाई। तीज, यानि बचपन की यादें, हम राजस्थानियों की तीज यानि मेहंदी, चूड़ी, पाजेब, लहरिया, खीर-पूरी-घेवर और सबसे बढ़कर झूला....जी हाँ झूले के बिना कैसी तीज। ये उन दिनों की बात है जब दिल्ली में भी घर फ्लैट नहीं सचमुच घर हुआ करते थे। बड़े से आँगन वाले खुले-खुले घर। घर-घर झूला, घर-घर तीज। मेरे घर में भी झूला डलता था, मेरी करीबी दोस्त के यहाँ भी। सामने वाली जगत-चाची के यहाँ भी। पर सबसे ज्यादा जिसकी याद आती है वह था करीब के एक घर में डाला गया बड़ा झूला। उसे बहुत बड़े से मकान में एक बड़ा सा हिस्सा खुला था, जिसका बड़ा-सा विशालकाय (उस उम्र में हर चीज़ इतनी विशालकाय क्यों लगती थी?) गेट था, जिसे हम बड़ा गेट कहा करते थे। बस उसी गेट पर बड़ा-सा झूला डाला जाता था जहां सामूहिक रूप से हम सब बच्चे पूरा सावन हर दोपहर एकत्र होकर झूला करते थे। और फिर सालों बाद मेरे घर और मेरे सामने के घर के बीच छज्जों के बीच बड़े से लट्ठे डालकर मोटे-मोटे रस्सों से एक बड़ा-सा झूला डाला जाने लगा। फिर गली नंबर दो में सावन इतने उल्लास से आता कि महानगरीय संकोच और व्यस्तताएं मानों छुट्टी पर चली जाती। हर रात औरतें अपना काम 9 बजे तक निपटा कर सीरियलों की कैद तोड़कर गली में आ जमती। एक दरी बिछती, झूला नीचे उतारा जाता और दो-दो और कभी-कभी तीन-तीन एक साथ उस झूले पर झूलती। जिसे जो याद आता गाया जाता, तीज के गीत, सावन के गीत, और तो और हंसी ठिठोली से भरे फिल्मी गीत भी। मैं ऑफिस से आकर सोने से पहले अक्सर अपनी छत से उन्हे देखकर खुश हुआ करती और अगर मेरी दोस्त वहाँ आ जाती तो हम भी इस मस्ती की टोली का हिस्सा बन जाते। खैर अब न वह झूले रहे और न वो मस्ती। घर बनवाते वक्त ओपन किचन के सामने और चौथी मंज़िल की छत पर लेंटर में कड़े डलवाये थे कि सावन कहीं मेरे घर आना न भूल जाए।  

प्रस्तुत हैं आज तीज पर मेरी पसंद के कुछ सावन गीत .....







सावन आया

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया

 -- अमीर खुसरो



 

काहे को ब्याहे बिदेस

काहे को ब्याहे बिदेस,
अरे
, लखिया बाबुल मोरे काहे को ब्याहे बिदेस
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन ने खाए पछाड़ अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोड़ी  
छूटा सहेली का साथ अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस अरे, लखिया बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस अरे, लखिया बाबुल मोरे
-- अमीर खुसरो 


बन बोलन लागे मोर

आ घिर आई दई मारी घटा कारी। बन बोलन लागे मोर
दैया री बन बोलन लागे मोर।
रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी छाई री चहुँ ओर।
आज बन बोलन लागे मोर।
कोयल बोले डार-डार पर पपीहा मचाए शोर।
आज बन बोलन मोर.........
ऐसे समय साजन परदेस गए बिरहन छोर।
आज बन बोलन मोर......... 
-- अमीर खुसरो


सावन का महिना पवन करे सोर (मिलन)

सावन का महीना, पवन करे सोर
पवन करे शोर
पवन करे सोर
पवन करे शोर
अरे बाबा शोर नहीं सोर, सोर, सोर
पवन करे सोर

हाँ, जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे बन मा नाचे मोर
सावन का महीना ...

मौजवा करे क्या जाने, हमको इशारा
जाना कहाँ है पूछे, नदिया की धारा
मरज़ी है तुम्हारी, ले जाओ जिस ओर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

रामा गजब ढाए, ये पुरवइया
नइया सम्भालो कित, खोए हो खिवइया
पुरवइया के आगे, चले ना कोई ज़ोर
जियरा रे झूमे ऐसे ...

जिनके बलम बैरी, गए हैं बिदेसवा
लाई है जैसे उनके, प्यार का संदेसवा
काली अंधियारी, घटाएं घनघोर
जियरा रे झूमे ऐसे ... 
--- आनंद बक्शी 


अब के बरस भेज भैया को बाबुल (बंदिनी)

अब के बरस भेज भैया को बाबुल,
सावन में लीजो बुलाय रे,
लौटेंगी जब मेरे, बचपन की सखिया,
दीजो संदेसा भिजाय रे !!

अंबुवा तले फिर से, झूले पड़ेंगे,
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें,
लौटेंगी फिर तेरे, आँगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारे
छलके नयन मोरा, कसके रे जियरा
बचपन की जब, याद आये रे !!

बैरन जवानी  ने छीने खिलौने,
और मेरी गुड़िया चुराई,
बाबुल थी, मैं तेरे नाजों की पाली,
फिर क्यों,  हुई मैं पराई,
बीते रे  जुग  कोई  चिठिया ना पाती,
ना  कोई नैहर से आये रे !!

अब के बरस भेज भैया को बाबुल,
सावन में लीजो बुलाय रे !!

--- शैलेन्द्र


Thursday, July 17, 2014

नागपाश (कहानी) - योगिता यादव

   


योगिता यादव की  कहानी 'नागपाश' पिछले साल 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित हुई थी।   उनके पहले कहानी-संग्रह 'क्लीन चिट' को साल 2013 के 'ज्ञानपीठ नवलेखन' से सम्मानित किया गया है।   इस कहानी पर उनसे लंबी बातचीत भी हुई थी, जिसे फिर कभी साझा किया जाएगा।  हाँ, ये जरूर कहना चाहूंगी, योगिता की कहानियाँ किसी बने-बनाए फ्रेम में बंधने की कायल नहीं हैं।  हर कहानी कथ्य और शिल्प में एक अलग रूप में सामने आती है।   आप एक कहानी  में दूसरी को खोज पाने की कोशिश में असफल होंगे और यही कथाकार की जीत भी है।  प्रेम में यथार्थ और भावनाओं के बीच झूलते स्त्री-मन की पीड़ा को उकेरने में योगिता पूरी तरह सफल रही हैं।  कहानी थोड़ी लंबी जरूर है, पर एक बार पढ़ना शुरू करने पर इसकी रवानगी आपको रुकने नहीं देती है।  बाकी आप स्वयं पढ़कर देखिये और अपनी राय से अवगत भी कराएं!
 
''कृष्ण पक्ष समाप्त हुआ, अब चांद के घटते जाने की पीड़ा से निजात मिलेगी "परी। नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं।"
मेरी जानी पहचानी आवाज ने मुझसे फोन पर बस इतना कहा और यह कहकर फोन रख दिया कि वह एयरपोर्ट पर मेरा इंतजार कर रहा है। 
सोडा वाटर की बोतल की तरह मेरे मन में भी नन्हें बुलबुले उठने-फूटने लगे। एक साल से जिसकी सिर्फ आवाज सुन रही थी वही आज सशरीर मेरे सामने उपस्थित होने वाला था। अद्भुत है आवाज का भी जादू।  
नौवीं क्लास के फाइनल एग्जाम चल रहे थे। जब मैथ्स का पेपर और एफएम पर आमिर खान का इंटरव्यू दोनों एक ही दिन थे। मजबूरन इंटरव्यू आधा ही छोडऩा पड़ा था। रात साढ़े दस बजे स्लो वॉल्यूम में मैंने एफएम फिर से ऑन कर दिया था, वही इंटरव्यू दोबारा सुनने की कोशिश में। 11 बजे तक चला था इंटरव्यू। इसके खत्म होते ही एफएम पर सांप की तरह मन को जकड़ती एक आवाज ने दस्तक दी। 
''मैं हूं आपका दोस्त, आपका हमदर्द असद इकबाल।सांत्वना से लबरेज इस आवाज से यह मेरा पहला परिचय था। वह कुछ लम्हों को याद करते हुए उनका दर्द बयां करता और फिर उसी से मिलता-जुलता गीत एफएम पर बजा देता। दुखते दिलों को मिलने वाली यह सांत्वना 'यादों के झरोखे सेभली सी लगी थी। अगले दिन मैंने एफएम साढ़े दस बजे नहीं रात ग्यारह बजे ऑन किया।
 फिर तो यह मेरा फेवरिट प्रोग्राम बन गया। हर रोज रात को मुझे असद इकबाल की आवाज और यादों के झरोखे से में सुनाए जाने वाले गीतों का इंतजार रहता। मां के डांटने पर ईयर फोन लगाकर चुपके-चुपके बिस्तर में असद इकबाल को सुनती। उन दिनों उसकी सांत्वना मां की थपकियों से भी ज्यादा अच्छी लगने लगीं थीं। उन्हीं थपकियों के सहारे मुझे नींद भी आ जाती। कई बार तो ईयर फोन सुबह के भक्ति गीतों के मंजीरे की आवाज के बाद कान से हटता। तब अपनी बेवकूफी और असद इकबाल की आवाज, मैं दोनों पर फिदा हो जाती।
 शहर छूटा तो ये आवाज भी छूट गई। तब जब मुझे सांत्वना और थपकियों की सबसे ज्यादा जरूरत थी दोनों ही मुझसे दूर हो चुके थे। मेरी सिसकियां थपकियों का इंतजार करती रह गईं और उन्माद जकडऩ के बिछोह में कुम्हलाने लगा। जो गीत असद इकबाल ने सुनाए थे इस नए घर, नए शहर में भी एक बार नहीं कई बार सुने पर उनके बीच से वह जकड़ती हुई आवाज गायब थी जो मुझे जकड़ कर अपने साथ रात से सुबह तक की निर्बांध यात्रा पर ले जाया करती थी।
फिर एक रोज वही आवाज छन्न.... से आ गिरी। 
मेरी व्यस्त और खुशहाल दिनचर्या में। मेरे भीतर का पानी छलक कर बाहर आने को आतुर हो गया। यह अनुभव की आवाज थी। हू ब हू असद इकबाल जैसी। फोन मैंने ही किया था, उसके उपन्यास पर उसे मुबारकबाद देने के लिए। पर बात कहां कर पाई थी। अरसे बाद किसी आवाज ने मुझे फिर से अपनी जकड़ में ले लिया था। 
तमाम रेडियो जॉकी से उलट उसकी आवाज शब्दों को चबाती नहीं थी, उन्हें भरपूर खिलने और खेलने का मौका देती थी। किसी दार्शनिक की तरह। शब्दों के बीच में पिरोयी चुप्पियां सुनने वाले को पर्याप्त धैर्य और सोचने का मौका देतीं। 
मैं उसकी आवाज सुनती और फिर घंटों हर शब्द पर सोचती। जादू सिर्फ  आवाज का ही नहीं बात का भी था। जादू मेरे सिर चढ़ चुका था।
फिर तो फोन का, एसएमएस का सिलसिला चल पड़ा। पहले छठे-चौमासे, फिर हर महीने, हर हफ्ते, हर रोज और अब तो एक ही दिन में कई-कई बार हमारी फोन पर बात हो जाती या एसएमएस बाजी। वही आवाज थी जो आज मुझसे मिलने आ रही थी। बुक फ्लैप पर उसकी छोटी सी तस्वीर भी छपी हुई थी। पर मुझे वह कभी अच्छी नहीं लगी। मेरे कानों के रास्ते जो आवाज मेरे मन की बावड़ी में सीढ़ी दर सीढ़ी उतर गई थी वह बुक फ्लैप पर छपी उस तस्वीर से लाख गुना बेहतर थी।
'वो आखिर आ ही रहा है, आज मुझसे मिलने।'
 मैंने अपने आप को फिर से यकीन दिलाया। मिले बिना ही हम कितना जानने लगे थे एक दूसरे को। इस बीच कितनी बार उसने मुझसे मिलने के लिए कहा, पर मैं हर बार टाल गई। मुझे कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई उससे मिलने की। मेरी आत्मा को तो उसकी आवाज ठग ले गई थी, चेहरा देखकर 'अगर मैं उस ठगी से बच जाती तो....' अनिष्ट की यही संभावना मुझे उससे मिलने से हर बार रोक लेती।  मेरी खोई हुई जकड़ और थपकियां फिर वापस आ गईं थी इस आवाज के साथ।
''हमें दूसरों की इच्छा का भी सम्मान करना चाहिए।आज भी यही सोचकर मैं चली आई थी घर से उस जानी-पहचानी आवाज के आकार से मिलने। सिर्फ इसी सम्मान की खातिर मैं एयरपोर्ट पहुंची हूं, ऐसा भी नहीं है। उसे देखने की एक स्वाभाविक उत्सुकता मेरे भीतर भी उमड़-घुमड़ रही थी।
हर अंदाज कितना लाजवाब है उसका। चांद के प्रति मेरे मोह को कितना जान चुका है वह और फिर दस्तक भी किस अंदाज में दी उसने
''चांद के घटते रहने की पीड़ा से निजात मिलेगी परी।"
'परीकितना सुंदर संबोधन है। जानती हूं परी नहीं हूं, 'परी जैसी' तो बिल्कुल नहीं हूं, पर सुनने में अच्छा लगता है। झूठा ही सही।
अब तक मैं एयरपोर्ट पहुंच चुकी थी। पार्किंग से लेकर वेटिंग हॉल तक पहुंचते हुए कभी घबराहट, कभी उत्सुकता, कभी खुशी बारी-बारी से मुझ पर चढ़ती और उतरती रहीं। छोटा सा यह रास्ता मैंने इसी उधेड़बुन में तय किया।
वेटिंग हॉल में अकेला बैठा था वह और मैं भी अकेली थी। जितना सोच रहे थे पहचानने में उतनी मुश्किल हुई नहीं। 
''जी नमस्कार... कैसे हैं आप... सॉरी मुझे आने में थोड़ी देर हो गई। आप भी अजीब हंै, अगर पहले अपने आने की खबर दे दी होती तो इतना इंतजार तो न करना पड़ता।मैंने एक ही सांस में कई शब्द उस पर उड़ेल दिए। शब्दों में और बातों में, मैं उसकी तरह अभ्यस्त नहीं थी।
''मैंने सोचा तुम्हें सरप्राइज देना चाहिए।"
''अच्छा सरप्राइज है...."
पहली मुलाकात की औपचारिकता का लिहाज किए बिना ही उसने अपने अंदाज में मेरे सामने खुद का स्वागत करने की पेशकश की-
''तुम आए तो आया मुझे याद गली में आज चांद निकला .... गुनगुनाएंगी नहीं मेरे लिए यह गीत।"
''शटअपदिन में चांद नहीं निकलता। अभी निकला कहां है, जब निकलेगा तब गुनगुना लेंगे।"
मैंने मित्रता के पूरे अधिकार के साथ उसे झिड़क दिया। 
स्त्रियों का सबकुछ चांद से बंधा होता है। यह उसी का असर था शायद। पिछले एक साल में कितनी ही बार रंग बदल चुकी थी मैं। शुक्ल पक्ष में चांद का आकार जब बढऩे लगता तो मेरी आत्मीयता और मोह भी बढ़ता चला जाता। कृष्ण पक्ष के दौरान चांद को क्षय रोग घेर लेता, मेरा मोह भी इस रोग की गिरफ्त में आ जाता और मैं मन को आहत करने वाली कोई न कोई बात उससे कह ही देती। फिर खुद भी बहुत दुखी होती। 
उन पीले दिनों और काली रातों में यही एक शेर बार-बार मैं खुद को सुनाया करती। 
''तू बड़ा रहीमो करीम है
एक सिफत अता कर
उसे भूल जाने की दुआ करूं
और दुआओं में असर न हो।"
यह उलाहना मेरी उसी आदत पर दिया जा रहा था। अमावस्या अपनी कालिमा के साथ बीत गई थी और आज शुक्ल पक्ष अपना चांद लेकर उदित हो रहा था।
''शुक्र है किसी बात पर तो राजी हुईं आप। वरना मुझे लग रहा था कि यहां भी मुझे धर्म शास्त्र पर लंबा लेक्चर पिला दिया जाएगा।"
''छोडि़ए धर्म शास्त्र की व्याख्या और चलिए मेरे साथ... पहले घर चलते हैं। फिर कहीं घूमने चलेंगे।"
मेरे स्नेह और अधिकारभाव ने उसे बाजू से पकड़कर अपने साथ लगभग घसीट लिया।
''अपने पति देव से पिटवाएंगी मुझे घर ले जाकर, भई इतना बड़ा गुनाह नहीं किया है मैंने। आपको अभी तक सिर्फ  परी कहा है, प्रिया नहीं।मेरे अधिकार पूर्वक घसीटने का विरोध करते हुए उसने कूटनीतिक जुमला उछाल दिया।
''कैसी बातें करते हैं आप?"  मैंने उसे झिड़क तो दिया पर उसकी इस बात पर मेरे भीतर क्रोध और उपेक्षा का एक अंश भी जागा। फिर भी स्थिति संभालते हुए मैंने कहा, ''मेरे सभी मित्रों का वे बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा आपके  मेरे साथ घर चलने पर। इतनी छोटी मानसिकता नहीं है उनकी। जरा रुकिए मैं उन्हें फोन कर देती हूं।"
''फिर भी मेरी इच्छा नहीं है तुम्हारे घर जाने की। मैं यहां बस तुमसे मिलने आया था, सो मिल लिया। अब मुझे लौटना है।मेरे बहुत आग्रह करने पर उसने टका सा जवाब दे दिया।
इतने लंबे इंतजार के बाद इतनी छोटी सी मुलाकात से मैं संतुष्ट नहीं थी। और चाहती थी कि हम ढेर सारी बातें करें।
 ''अजीब हैं आप भी, इतनी दूर से सिर्फ  एयरपोर्ट के दर्शन करने आए थे क्या, अच्छा छोड़ो घर नहीं जाते, कहीं बैठकर कॉफी पीते हैं। बहुत सुंदर शहर है हमारा, अगर देखने की इच्छा हो तो कॉफी के बाद घूमा जा सकता है।इस बात पर वह राजी हो गया।
''अरे मैं आपको एक चीज देना तो भूल ही गया, जरा एक मिनट रुकिए।"
कहते हुए अनुभव ने अपना ब्रीफकेस खोला और उसमें से रजनीगंधा के ढेर सारे फूल निकालकर मेरी दोनों हथेलियां भर दीं। 
असद इकबाल की आवाज, बच्चों की गुलाबी अंगुलियां, शाम की नारंगी छटा और पत्तियों पर ठहरी हरी ओस की बूंदों के अलावा यह वही चीज थी जो मुझे बहुत पसंद थी। रजनीगंधा के फूल।
फूलों की मादक गंध और छुअन मेरे भीतर उतरती चली गई। एक अलग मोहपाश में बंधी मैं और अनुभव, दोनों कैफेटेरिया की तरफ चल पड़े।
--------------------------
बातें बहुत थीं। एक कप की बजाए हमने दो-दो कप कॉफी पी। कॉफी अनुभव की थकान उतार रही थी और मुझे इसी बहाने उसके हाव भाव पढऩे का मौका मिल रहा था। बची-खुची औपचारिकताएं भी अब लगभग समाप्त होने लगीं थीं।
''यूं तो यह मंदिरों का शहर है, पर आपका भी तो कोई आग्रह होगा। अच्छा बताओ कहां चला जाए, क्या देखना पसंद करेंगे?"  मैंने आगन्तुक की इच्छा का सम्मान करते हुए हॉस्पिटेलिटी दिखाने की कोशिश की। 
''परी, मेरा 'तुम्हारे' अलावा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। मैं तो यहां सिर्फ 'तुमसे' मिलने आया हूं, जो 'तुम्हें' पसंद हो वही दिखाओ...।तुम्हारे, तुमसे और तुम्हें शब्दों पर अतिरिक्त जोर देते हुए उसने कहा।
''मुझे शाम बहुत पसंद है, पर शाम में अभी देरी है। उसके अलावा.... उसके अलावा मुझे जल राशि बहुत पसंद है। (मैंने थोड़ा सोचते हुए जवाब दिया)
फिर चाहे वह कच्ची पक्की सीमाओं में बंधी तालाबों की नियंत्रित जल राशि हो या पहाड़ों से मुक्त होने को संघर्ष करती झरनों की अनियंत्रित जल राशि। नदियां तो मेरी आराध्य हैं।गंध और छूअन के मोहपाश और उसके आग्रह को ग्रहण करते हुए मैंने किसी सूत्रधार की तरह अपनी बात आगे बढ़ाई। 
''तब तो यहां की नदी से ही मिला जाए....वह मेरा रुख समझ चुका था।
मैंने गाड़ी स्टार्ट की और सर्कुलर रोड से होते हुए हम पीरखोह मंदिर के पास पहुंच गए। यहां पहुंचकर मैंने गाड़ी रोक दी। और एक रचनाकार की सौंदर्य दृष्टिï उसमें खोजने की कोशिश करते हुए सवाल किया।
''आपको नदी सिर्फ  देखनी है या उससे मिलना भी है..."
''मैं जीवन को समग्रता में जीना चाहता हूं, इस लिहाज से नदी से मिलना ही उचित रहेगा। देखना तो कभी भी हो सकता है।किसी दार्शनिक की तरह उसने भी जवाब दिया।
''तो फिर तैयार हो जाइए आगे का सफर पैदल ही तय करना पड़ेगा।"  गाड़ी से उतरते हुए मैंने उसे आगे की राह के लिए तैयार किया। 
कुछ रास्ता पक्की सड़क का था और आगे कच्ची पगडंडी शुरू हो चुकी थी। तवी से पत्थर ढोने वाले खच्चरों के पैरों के निशान से पगडंडी अलग पहचानी जा रही थी। यहां से होते हुए हम दोनों तवी के किनारे पहुंच गए।
मौसम बसंत का था पर तवी पर उदासी छाई हुई थी। उसे भी किसी का इंतजार था शायद.... किनारे उससे दूर होते जा रहे थे।
''परी... यही नदी है तुम्हारे पास?"   अब तक उसका मेरे लिए संबोधन 'आपसे बदलकर 'तुमहो चुका था। 
''क्यों.. क्या आपको यह अच्छी नहीं लगी। एक्चुअली बारिश नहीं हुई है न बहुत दिनों से....आपको नहीं पता, यह हमारे शहर की लाइफ लाइन है।मैंने हैरान और लगभग आहत होते हुए अपनी और नदी की स्थिति स्पष्ट  करनी चाही। परंतु वह पत्थरों से अटे उसे थोड़े से पानी को नदी मानने को तैयार नहीं था।  
''होगी, जरूर होगी, परंतु हे देवी, मेरी आत्मा नहीं मानती कि मैं इसे नदी कहूं..." उसने मजाक किया पर मुझे चुभ गया।
''नदियां सिर्फ देखने के लिए नहीं होतीं अनुभव, वे मानने के लिए भी होती हैं। एक ही नजर में तुम इसके होने और न होने का फैसला कैसे कर सकते हो। अभी तो तुम्हारी इससे पहली ही मुलाकात है...। 
मैं किसी परदेसी को यह अधिकार भी नहीं देती कि वह मेरी नदी का मजाक उड़ाए।"
''तुम नाराज क्यों हो रही हो, पर सच मानो अगर यह वाकई नदी है तो इसकी हालत बहुत दयनीय हो गई है। यह सूखने लगी है, इसे नए जीवन की जरूरत है। अगर लाइफ लाइन है तो कुछ सोचो इसके बारे में।"
''जानते हो अनुभव प्रीत और नदी कभी नहीं सूखते। ये तो बस कुछ एनवायरमेंटल इफैक्ट््स होते हैं जिससे वह सूखी हुई दिखने लगती है। घटाओं के पहाड़ों से टकराने भर की देर है, कि नदियां मदमस्त हो जाती हैं। मतवाली लहरें मिलन का वह संदेसा दूर-दूर तक पहुंचा आती हैं। तभी तो सारी सभ्यताएं नदियों के ही किनारे फली- फूलीं।मुझ पर दर्शन और आत्मीयता हावी होने लगी थी। 
''पर मुझे लगता है कि प्रीत में स्थायित्व भी होना चाहिए। तुम्हारे पास कोई ऐसी नदी नहीं है जो स्थायी हो... जो अब तक सूख न पाई हो, वो तुम्हारे बताए एनवायरमेंटल इफैक्ट्स के कारण।"
तुम्हारे पास सौंदर्य दृष्टिï तो है अनुभव पर आत्मिक अनुभूति नहीं है। मैंने उसकी अब तक की तमाम भावनात्मक रचनाओं को धता बताने की कोशिश की। सहसा मेरे भीतर के मेहमान नवाज ने मुझे रोक लिया। 
''खैर छोड़ो, चलो तो तुम्हें प्रेम के अमर प्रतीक के पास लिए चलते हैं। कितनी ही पीढिय़ां गुजर गईं, पर वह अब तक नहीं सूखी। लेकिन पहले कुछ खा लिया जाए। वहां पहुंचने में थोड़ी देर लगेगी।हम दोनों अभी एक दूसरे के साथ और समय बिताना चाहते थे। तवी और उस पर पसरी उदासी को पीछे छोड़ते हुए हम दोनों आगे बढ़ गए।
---------------------
हम दोनों ने पहले लंच किया और फिर हम अखनूर की तरफ निकल गए। दोनों तरफ पेड़ों से घिरा रास्ता अनुभव को भला लग रहा था। ठंडी शीतल बयार उसे सुखद अनुभूति का निमंत्रण दे रही थी।
''वाह.... इसे कहते हैं नदी..." दूर पुल पर से चिनाब की लहरें देखते ही वह अभिभूत हो गया।
''कौन सी नदी है ये"
''चिनाब... दरिया चिनाब...." मैंने पुरजोर गंभीरता, आत्मीयता और बड़प्पन से जवाब दिया। जैसे कोई अपनी सयानी हो रही बेटी की प्रशंसा सुनकर उसका नाम बताता है।
मेरे बाल बार-बार उड़कर मेरे गालों पर आ रहे थे। चिनाब की लहरें मेरे पास रखे रजनीगंधा की खुशबू और छूअन से जल्द से जल्द मिलने को आतुर हो रहीं थीं। मैंने उन्हें नजरों में भरकर गुनगुनाना शुरु किया,
''सोहनी चिनाब दे किनारे ते पुकारे तेरा नाम ... आजा... आजा...."
 मेरा गला बहुत अच्छा नहीं था पर फिर भी गुनगुनाते हुए इस सुंदर दृश्य में सुर की संगत बन पड़ी।
''क्यों है न खूबसूरत...."
''सचमुच बहुत खूबसूरत है। ऐसा दरिया सामने हो तो कौन न डूब जाए।"
''शुभ-शुभ बोलो, डूबने-वूबने की बातें न करो। इसकी इन्हीं आकर्षक लहरों में ही कहीं शोक भी डूबा है।मैंने पिछले दिनों हुई ट्रक और बस दुर्घटनाओं के बारे में बताते हुए उसे चिनाब से सावधान रहने की भी हिदायत दी। 
किनारे तक पहुंचते हुए शाम घिर आई थी। चिनाब की सुरमई लहरें शाम को आईना दिखा रहीं थीं। चिडिय़ों के कलरव ने मेरा साथ दिया और दृश्य अपने पूरे शबाब पर नव आगंतुक को रिझाने लगा। ऐसे माहौल में कविता से बेहतर और क्या हो सकता था-
शाम जरा तुम ऐसे ढलको
कि रातें $गज़ल हो जाएं
रोम रोम सब शीशमहल
और हम तुम अवध हो जाएं
लिख दूं होंठों पर कविताएं
मिलना तेरा नि:बंध हो जाए।
दुपट्टे को संभालते हुए, उड़ रहे बालों को कानों के पीछे करते हुए मैंने शायराना मूड में कहा।
''वाह... वाह.. वाह... वाह...तो शायरी भी कर लेती हैं आप।मेरी टूटी-फूटी पंक्तियों पर दाद देते हुए उसने एक काबिल श्रोता होने का फर्ज अदा किया।
''वाकई बहुत आकर्षक है"
''क्या", मैंने सकुचाने और इठलाने के मिश्रित भाव के साथ सवाल किया।
''दरिया भी और आपकी शायरी भी। नदी और प्रीत के तमाम तत्व हैं इन दोनों में, पढऩे के साथ-साथ लिखने का भी शौक है आपको।"
''अरे नहीं, यूं ही कहीं किसी किताब में पढ़ीं थीं।अपनी ही पंक्तियों को चुराया हुआ बताकर मैंने बचने की कोशिश की।
''वो भूरी दीवारों का खंडहर कैसा है... शाम और हमारी मुलाकात दोनों एक दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ रहे थे। 
''उसे अखनूर का किला कहते हैं। कहते हैं कि कभी राजा विराट की नगरी हुआ करती थी अखनूर। और अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने यहां शरण ली थी। यहीं पर तो अर्जुन उत्तरा को नृत्य सिखाया करते थे।"
''और अब कोई उत्तरा आती है यहां पर पायल की रुनझुन लिए..."
उसने फिर मुझे बहलाने की कोशिश की और मैंने हल्की मुस्कान के साथ बात टालने की।
हम फिर चिनाब की तरफ आ रहे थे।
''क्या हम इसके किनारों तक जा सकते हैं, बहुत विशाल लगती है ये"
''विशाल है और खतरनाक भी, जो इसमें डूबा आज तक नहीं मिला"
''पर कच्चे घड़े पर टिका विश्वास तो पक्का था।"
''इसलिए तो अमर हो गया।"
हम और हमारे सवाल-जवाब चलते हुए चिनाब के किनारे तक पहुंच गए। यह जिया पोत्ता घाट था।
''क्या यहीं सोहनी-महिवाल एक हुए थे?"
''नहीं वह हिस्सा अब पाकिस्तान में है। सरहदों ने सब कुछ बांट लिया, पर नदियां कहां बटेंगी।
चलो घाट पर कुछ देर बैठते हैं। शाम होने लगी थी, चिनाब के किनारे ठंडी हल्की बयार में हम दोनों ने ढेरों बातें कीं। रजनीगंधा के फूल इन बातों में महक घोल रहे थे।
''मैं तुम्हारे लिए अपनी किताब भी लेकर आया हूं। तुम इसे पढऩा, मुझे जानने में तुम्हें और मदद मिलेगी।"
''इतना ज्यादा जानकर भी क्या करना है",  मैंने अपने आप से ही सवाल किया। फिर संभलते हुए उसे वापस दृश्य में खींच लाई।
''जानते हो इस घाट का नाम जिया पोत्ता घाट है। यहीं महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू के महाराजा गुलाब सिंह का राजतिलक किया था। वह राजतिलक भी बड़ा अनूठा था।
महाराजा रणजीत सिंह ने महाराजा गुलाब सिंह के माथे पर नीचे से ऊपर की ओर नहीं, बल्कि ऊपर से नीचे की ओर तिलक किया था।"
''उल्टा तिलक, पर क्योंयह पूछते हुए उसकी आंखों में बच्चों जैसी उत्सुकता थी। मैंने उनमें गुलाबी अंगुलियां ढूंढनी चाहीं, पर उनमें चिनाब में डूबता नारंगी सूरज नजर आ रहा था।
डूबते सूरज को उसकी आंखों में देखकर मैंने जवाब दिया, ''इस तिलक के साथ ही उन्होंने महाराजा गुलाब सिंह को यह संदेश दिया कि तुम एक पहाड़ी राज्य के राजा हो। तुम्हारा साम्राज्य इतना विस्तार पाए कि वह पहाड़ से पाताल तक जाना जाए।"
''अरे वाह, इंटेलीजेंट महाराजा थे रणजीत सिंह"
''हां और महाराजा गुलाब सिंह ने यह कर दिखाया।"
''तब तो मेरा राजतिलक भी यहीं होना चाहिए.....कहते हुए अनुभव खिलखिला कर हंस पड़ा। उसकी हंसी लहरों की तरह अनुशासनहीन थी।
''छोड़ो राजतिलक, तुम्हें उससे क्या। तुम तो शब्दों के बाजीगर हो, उसी में कमाल दिखाना। वो अपनी किताब तो दो जरा"
''क्यों क्या अभी पढऩे का इरादा है, मैं बहुत बोर कर रहा हूं क्या?"
''दो ना..., तुम सवाल बहुत पूछते हो।"
''वह ब्रीफकेस में है, उसके लिए वापस गाड़ी तक जाना पड़ेगा।"
''तो जल्दी जाओ। ये लो चाबी, मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करती हूं।"
थोड़ी ही देर में अनुभव ने किताब लाकर मेरे हाथ में पकड़ा दी।
मैंने किताब को पहले माथे से छुआ, फिर उसके हाथों से और फिर घाट की कुछ और सीढिय़ां उतर कर उसे चिनाब में प्रवाहित कर दिया। 
''ये क्या किया परी?"  उसने अचम्भित दृष्टिï से मेरी ओर फिर उस बहती हुई किताब की तरफ देखा।
''तुम लेखक हों न, तख्तो ताज का क्या करोगे? मैं चाहती हूं कि तुम्हारी सृजनात्मकता दूर-दूर तक फैले। चिनाब की लहरों की तरह, देश और युगों की सीमाएं तोड़ती जाए।
इसलिए मैंने तुम्हारी रचनाएं चिनाब को समर्पित कर दीं हैं। अब इसकी लहरें जहां भी जाएंगी तुम्हारी रचनाओं की खुशबू वहां तक फैल जाएगी।"
295 पेज की वह सुनहरी किताब जलपाखी की तरह तैरती हुई दूर निकल गई।
''वाह.... कमाल हो परी, मुझे कभी ये आइडिया क्यों नहीं आया।" तैरता हुआ जलपाखी अपने साथ लेखकीय डेकोरम भी बहा ले गया। उसके हृदय का हल्कापन उसकी आंखों से बाहर आ गया और वह कुछ ही क्षणों में उसके पूरे चेहरे पर फैल गया।
''चलो हम दोनों भी इसमें कूद जाते हैं, फिर हम भी अमर हो जाएंगे।"
''दिमाग खराब है क्या तुम्हारा, अगर ये मजाक है तो दोबारा मत करना।मैं चिनाब की लहरों से जितना प्यार करती थी उनसे खौफजदा भी उतनी ही थी।
''मजाक नहीं, मैं सच कह रहा हूं।
मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं परी
और तुम सीमाओं में बंधी हो,
सच बताओ क्या तुम्हारा कभी मन नहीं करता कि एक बार मेरे गले लग जाओ ...."
अनुभव के इस सवाल के साथ ही आसपास के सभी दृश्य थम गए।
''.... चुप, फिर वही चुप..... कुछ तो जवाब दो।"
''मेरे पास कुछ नहीं है अनुभव तुम्हें देने के लिए।सात दरवाजों के भीतर से ये कुछ शब्द बाहर आ गिरे।
''देना.... देना.... देना.... जाने औरतों को क्या आदत होती है सिर्फ  देते रहने की, जैसे उन्हें तो कुछ लेना ही नहीं होता।"
''मतलब...? "  सवाल था या ताना, पर जो भी था मेरे दिल में नश्तर उतार गया।
''मतलब कुछ नहीं। जाओ कुछ नहीं चाहिए तुमसे। तुम बंटी हुई हो, अभी मुक्त नहीं हो पाओगी।"
''नहीं कुछ तो है, तुम कुछ तो कह रहे थे। बहुत आसान होता है तुम्हारे लिए कुछ भी कह लेना। पर मेरे लिए नहीं.... मैं सीमाएं नहीं लांघती अनुभव। तुम मेरी भावुकता का गलत अर्थ लगा रहे हो।"
''तुम मुझे नहीं समझ पाए, नदी को क्या समझोगे", कहते हुए चिनाब की लहरें मेरी आंखों से बहने लगीं।
हम दोनों के बीच खामोशी पसर गई।
तभी मोबाइल बजने लगा
....मोबाइल की रिंग टोन ने माहौल कुछ बदला। फिर भी मैं फोन सुनने की स्थिति में नहीं थी। पहले मैंने उसे काट देना चाहा पर फोन वैभव का था।
आंसुओं का खारापन अपनी आवाज से छिटकाते हुए मैंने सामान्य होने की कोशिश की और कॉल रिसीव की
''हां, हैलो"
''.... कहां हो सीमा, मां कह रही थी कि कोई तुमसे मिलने आया है , दोपहर तक लौट आओगी। अब शाम होने लगी है। कहां हो तुम?"
''हां, बस उन्हीं के साथ हूं, थोड़ी देर में पहुंचती हूं।"
''माली आया है, तुमने उससे रजनीगंधा का कोई पौधा मंगवाया था क्या?"
''हां मंगाया था, क्या ले आया...?"
''लाया तो है, पर कहां लगवाना है, लॉन में तो कोई जगह खाली है ही नहीं।"
''एक गमला है न खाली, वहीं रखा है, उसमें लगवा दीजिए। मैं बस थोड़ी देर में पहुंचती हूं।"
''गमले के लिए तो उसने पहले ही मना कर दिया.... कह रहा है गमले में नहीं हो पाएगा। इसे रख रखाव चाहिए। अगर लगाया भी तो फूल बहुत छोटे आएंगे।"
''कैसा माली है ये, क्या जिनके पास लॉन नहीं होता, वो फूलों का शौक नहीं रख सकते। उससे कहो, ले जाए वापस अपना रजनीगंधा, मुझे नहीं चाहिए।"
''उसे तो कह दूंगा, पर तुम कब आओगी। शाम हो गई है, मंदिर में जोत भी करनी है। मां नाराज हो रही है।"
''हां बस थोड़ी देर में पहुंच रही हूं।कहते हुए मैंने फोन काट दिया। 
''सॉरी, वो उनका फोन था।घर के लॉन से वापस चिनाब के किनारे पर लौटते हुए मैंने कहा।
''नो इट््स ओके।"
''अब मन ठीक है न आपका?"
''हां, बिल्कुल। पर सचमुच मेरे पास कुछ नहीं है तुम्हें देने के लिए।"
''अरे कहा न कुछ नहीं चाहिए तुमसे।"
''पर मुझे कुछ चाहिए तुमसे।" , कहते हुए मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी छुअन गुनगुनी थी। 
''कहो, क्या चाहिए।उसने सहलाते हुए सवाल किया।
''कुछ नहीं, बस तुम्हारी मित्रता चाहती हूं। मैं नहीं चाहती कि हमारा संबंध कोई कटु मोड़ लेकर खत्म हो। मैं चाहती हूं कि आप हमेशा मेरे मित्र बने रहें।"
मेरे हाथों को और मजबूती से पकड़ते हुए उसने लंबी सांस ली और कहा-
''जाओ किया वादा, अनुभव एक बार जिससे वादा करता है, जीवन भर उसकी कलाई नहीं छोड़ता।
तुम भले न आओ, पर जब भी मुश्किल में होगी मुझे अपने सामने खड़ा पाओगी।"
''अब तुम लौट जाओ अनुभव। मेरे पास तुम्हें देने के लिए ही नहीं, तुम्हारा दिया कुछ सहेजने की भी जगह नहीं है।"  कहते हुए मैंने रजनीगंधा के फूल वापस अनुभव के हाथों में थमा दिए।
''घर चलने को कहूंगी तो तुम मानोगे नहीं, यहां चिनाब के किनारे पर पास ही में एक फकीर की कुटिया है, तुम चाहो तो रात वहां गुजार सकते हो। सुबह तुम्हारे जाने का सब बंदोबस्त हो जाएगा। और कुछ दिन ठहरना चाहो तो... मना नहीं करेगा फकीर... लहरों की भाषा पढऩे में माहिर वह तुम्हारे मन को कुछ शांति देगा। अब मुझे इजाजत दो.... मुझे अपने मंदिर में जोत जगानी है। मेरा परिवार मेरा इंतजार कर रहा है।"
''जा रही हो परी? जाते-जाते मुझ पर एक अहसान करोगी?"  सब कुछ जानते हुए भी उसने सवालों का एक जोड़ा मेरी तरफ बढ़ा दिया।
''हां कहो न, मेरे वश में हुआ तो जरूर करूंगी।हारे हुए योद्धा की तरह मैंने फिर से अपने आप को संभालते हुए कहा
''ये फूल, ये खुशबू मैं तुम्हारे लिए लाया था, तुम्हारे बिना मेरे लिए इनका कोई अर्थ नहीं। इन्हें भी यहीं चिनाब में बहा दो, मैं मान लूंगा कि मेरा प्यार अमर हो गया। और यह मुलाकात भी।"
---------------------
मैंने इस मुलाकात की उसकी अंतिम इच्छा का पूरे हृदय से सम्मान किया। रजनीगंधा के फूल चिनाब में बहाकर मैं अपने घर लौट आई। घर आकर मंदिर में जोत जगाई। पीले दिन, पीली उदासी और आते हुए उसके चेहरे का पीलापन सब जोत में उतर आया। माता की लाल ओढऩी पर लगा पीला गोटा मुझे आज से पहले कभी इतना पीला नहीं लगा था। लगा कि ये मेरे जीवन की लालिमा ही निगल लेगा।
मैंने पीले पन को चुनौती देते हुए आरती की थाली में रखी रोली में अंगुली डुबोई। मां दुर्गा की मूर्ति के ममतामयी चेहरे को निहारते हुए उसके माथे पर रोली से लाल टीका लगाया। मुझे याद आया शून्य मस्तक से पूजा नहीं करनी चाहिए, आज मैं जल्दबाजी में बिंदी लगाना ही भूल गई थी। एक और अंगुली डुबोकर रोली से मैंने अपने माथे पर गोल बिंदी बनाई और बची हुई रोली को मांग में जगह दे दी।
-----------------------------------
जीवन का चरखा अपनी उसी ताल से दिन रात कात रहा था। जकडऩ भरी आवाज से मैंने यथासंभव दूरी बना ली। कभी कभार अनुभव का फोन आता, पर दोनों ओर से औपचारिकता का अंश अधिक रहता। मित्रता का भाव दर्शाते हुए वह मेरे परिवार, मेरी दिनचर्या के बारे में भी एक आध सवाल पूछ लेता। और मैं भी उसी भाव से उनका एक आधा उत्तर दे देती। 
हमारी शादी को तीन साल हो चुके थे। आज उसी की पार्टी थी। कितने खुशनुमा थे ये तीन साल। वैभव ने कभी किसी चीज की कमी महसूस ही नहीं होने दी। फिर भी इन्हीं खुशनुमा दिनों की यादों में एक याद चिनाब के किनारे की शाम की भी थी। नारंगी सूरज के ढलने के बाद अनुभव के चेहरे पर उतरे पीलेपन की भी थी। उसी याद में एक अंश रजनीगंधा के फूलों का भी था। मेरे घर के लॉन में आज भी रजनीगंधा का कोई पौधा नहीं था। 
क्या माली ने सोच-समझकर कहा था, या उसके अनुभव ने उससे यह अनायास ही कहलवा दिया था, ''बड़ा रखरखाव चाहता है, गमले में पूरा नहीं खिल पाएगा यह फूल।और मेरे पास कोई खाली जगह नहीं थी। लॉन की तरफ निहारते हुए मैंने अपने आपसे कई सवाल किए और खुद ही खुद को असद इकबाल की तरह दिलासा दी। 
 मैं भी पता नहीं बैठे-बैठे क्या सोचती रहती हूं, खाली दिमाग शैतान का घर।
आज हमारी वेडिंग एनीवर्सिरी है और मैं आज भी न जाने क्या-क्या सोच रही हूंं।
शाम की पार्टी की तैयारी करते हैं।
तभी मोबाइल की घंटी बजने लगी, स्क्रीन पर अनुभव का नाम टिमटिमा रहा था।
''हैलो"
''जी नमस्कार।"
''नमस्कार, कैसी हैं आप?"
''अगर मैं गलत नहीं हूं तो शायद आज आपकी वेडिंग एनीवर्सिरी है?"  उसने शंका दूर करने की चेष्टïा से सवाल किया। पर उसे कैसे मालूम, मुझे संदेह हुआ। उससे बात करते हुए मैंने उसे न जाने क्या-क्या बता दिया था मुझे खुद याद नहीं था।
''जी नहीं आप बिल्कुल गलत नहीं हैं। आज ही हमारी वेडिंग एनीवर्सिरी है।"
''हमारी तरफ से आपको और वैभव जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। मैंने सोचा था कि आप दोनों के लिए कोई तोहफा खरीदूं, पर फिर लगा पता नहीं आप लेंगी भी या नहीं, हमारी दी हुई चीजों के लिए तो आपके पास जगह ही नहीं होती।इस बार उसके ताने में बच्चों जैसा खिलंदड़पन नहीं था। उसमें  मातमी गंभीरता थी। 
''नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, तोहफे की भला क्या जरूरत। दोस्तों की शुभकामनाएं ही बहुत होती हैं।
थैंक यू सो मच।कहते हुए मैंने फोन रख दिया। फोन तो रख दिया पर उसकी मातमी आवाज का ताना मेरी देह से चिपक गया। इससे छूटने का जब कोई जतन मुझे न सूझा तो मैंने बाथरूम में जाकर शावर लेना ही बेहतर समझा। शॉवर की नन्हीं बूंदें बेरोकटोक मुझ पर बरसने लगीं। मैं आंखें बंद किए उनमें डूब जाने की कोशिश कर रही थी। मेरी आंखों के सामने फिर जलपाखी की तरह लहरों पर सवार उसकी किताब तैरने लगी। मैंने चेहरे को झटकते हुए शावर बंद कर दिया और खुद को टावल से पोंछते हुए नाइटी पहन ली। नाइटी का सलेटी रंग मुझे बार-बार न जाने क्यों तवी के उदास पत्थरों की याद दिला रहा था।
मां ने कितनी बार टोका था मुझे इस तरह के रंग खरीदने पर। उनका मानना था कि खूबसूरत रंग पहनने से मन खिला खिला रहता है। और सौभाग्यवती स्त्रियों को इन उदास रंगों से दूर ही रहना चाहिए। 
सासू मां की सलाह याद आई और अब तक शाम भी हो चुकी थी। पार्टी के लिए तैयार होना था। मैंने अपना ध्यान वैभव की दी हुई खुशियों की तरफ लगाने की कोशिश की। याद आया उनका दिया तोहफा तो मैंने अब तक खोला ही नहीं। कितनी लापरवाह हो गई हूं मैं। सोचते हुए पैकेट खोला तो उसमें से एक खूबसूरत साड़ी निकली। साड़ी पर लगे सितारों की जगमगाहट मुझे वैभव के प्रेम में डुबाने-उतराने लगी।
मुझे और वैभव दोनों को ही सादगी बहुत पसंद थी, फिर भी मैं आज खूब मन लगाकर तैयार हुई।
घर के बाहर से वैभव ने गाड़ी का हॉर्न बजाना शुरू किया, मैं झट से पर्स उठाकर गेट से बाहर आ गई। और कार का दरवाजा खोलते हुए वैभव के साथ वाली अगली सीट पर बैठ गई।
वैभव ने नजर भरकर मुझे देखा, ''लुकिंग स्मार्ट..., नारंगी रंग वाकई तुम पर बहुत खिलता है।"
 दुर्घटना से बचने के लिए जैसे अचानक ब्रेक लगता है मेरी तंद्रा उसी वेग के साथ टूटी, ''क्या ये साड़ी नारंगी रंग की है?"  गाड़ी के शीशे में देखते हुए मैंने अपने आप से सवाल किया। वहां मुझे अनुभव की आंखों में डूबता हुआ नारंगी सूरज दिख रहा था।
-------------------------------
सूरज डूब चुका था। शहर के सबसे शानदार पार्टी लॉन में रखी थी वैभव ने मेरे लिए पार्टी।
तामझाम के हिसाब से बड़ी शानदार पार्टी कही जा सकती थी। किसी को भी बांध लेने के तमाम इंतजाम थे इस पार्टी में, पर मुझे यहां मौजूद हर रंग चिनाब की शाम की तरफ धकेल रहा था। और डूबता हुआ नारंगी सूरज तो मुझसे बिल्कुल लिपटा हुआ था।
सुनहरी रोशनी में हजारों हजार जलपाखी तैरते मालूम हो रहे थे। ये कौन सा चक्र था जो मेरे आसपास घिर आया था। मैं इससे बाहर क्यों नहीं हो पा रही थी? सोचते सोचते चिनाब के किनारे के उस फकीर के शब्द बार-बार मेरे मन के दरवाजे पर दस्तक देने लगे -
''सुन्ने दी पालकी इच तुस इन्ने दुआस की
चेते ते नेईं आवें करदे कन्ने दे ओ कोकलू"
मैंने पर्स से मोबाइल निकाला, अनुभव का नंबर डायल किया। लगातार रिंग जाती रही, पर उसने कॉल रिसीव नहीं की। फोन कट गया। 
मैंने नंबर री डायल किया, फिर वही रिंग जाने का लंबा सिलसिला, फिर किसी ने कॉल रिसीव नहीं की। फिर फोन कट गया। मैंने झुंझलाकर मोबाइल वापस पर्स में रख लिया।
मेरे भीतर के जल थल की हलचल से अनजान वैभव ने मेरा हाथ पकड़कर डांसिंग फ्लोर पर खींच लिया.... और हम खूब नाचे।
एक अजब बीमारी ने मुझे घेर लिया था। मेरे चारों तरफ सिर्फ  एक ही शख्स था, हर तरफ उसी की गंध और उसी के रंग थे। जिन्हें छू पाना मुश्किल था, और उनसे बच पाना और भी ज्यादा मुश्किल।
मेरी और वैभव की दुनिया में अनुभव ने ख्वामखाह डेरा डाल लिया था। जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन पर हो।
रसोई में जाकर कुछ बनाने लगती तो उसका दो अंगुलियां चाटते हुए चटखारे लेना याद आ जाता। फिर वही बनाती जो उसे पसंद था। आटा गूथते हुए उसकी हथेलियों की गुनगुनी पकड़ याद आ जाती।
वैभव के लिए खाना परोसती तो अनुभव का चेहरा सामने आ जाता।
'पता नहीं उसने अब तक कुछ खाया भी होगा या नहीं।'
खाली वक्त मिलते ही अनुभव की लिखी किताबें पढऩा शुरू कर देती। उसकी किताबों के सब चरित्र मुझे अपने से जान पड़ते, किसी का प्रेम मुझ जैसा लगता, किसी का अहंकार। किसी के भाव मुझ जैसे लगते तो किसी का अंदाज। कई बार तो उन्हीं की तरह मैं व्यवहार भी करती।
शाम को लैपटॉप पर उसकी साइट देखती, फेसबुक पर उसका चेहरा देखकर उसके फेन्स की लिस्ट और कमेंट पढ़ती।
अजब सतरंगी दुनिया थी, खुद की बुनी गुनी। 
आज भी पूरी शाम मैंने अनुभव को खूब याद किया। इतना कि मुझे पता ही नहीं चला कि रात कब हो गई। सातवीं बार उसका उपन्यास पढऩे की कोशिश कर रही थी। तब जबकि मुझे याद हो चुका था कि कब, कौन सा पात्र क्या कहेगा और क्या करेगा। पात्र जब किताबों से निकल कर मेरे दिमाग पर चढ़ बैठते तो मैं क्षितिज में निहारने लगती और घंटो निहारती ही रहती....
''अरे आप आ गए...वैभव ने मेरे कंधे को हिलाते हुए मेरा ध्यान भंग करने की कोशिश की तो मैंने चौंकते हुए कहा। 
वैभव के घर पहुंचने पर मैं हैरान रह गई और मुझे अंदाजा हुआ कि मैं कितनी देरे से यूं ही अनुभव की किताब हाथ में लिए बैठी हूं। शाम की चाय भी ठंडी होकर पानी हो चुकी थी।
''पानीमुझे याद आया घर लौटते ही वैभव सबसे पहले नींबू पानी पीते हैं। मैं झट से रसोई में वैभव के लिए नींबू पानी बनाने चली गई।
'समय का चरखा आजकल दिन कातता नहीं था, चबा रहा था। पता ही नहीं चलता था कि कब दिन ढला और कब रात हो गई।'  काम खत्म करने के बाद बैडरूम में आते हुए मैंने महसूस किया।
जाने क्यों आज अनुभव बड़ी शिद्दत से मुझे याद आ रहा था।
मैं बार-बार मोबाइल देखती, इस लालसा के साथ कि वह फोन करेगा और पूछेगा 'कैसी हो परी...इधर चिनाब वाली शाम के बाद से उसने मुझे एक बार भी 'परी' नहीं कहा था। जाने क्या समझा दिया चिनाब किनारे के फकीर ने उसे। 
बत्ती बुझाकर मैं तकिया खींचते हुए वैभव की बगल में लेट गई। आंखे बंद की तो रजनीगंधा के फूल चांद की तरह टिमटिमाने लगे। आंखें खोली तो कमरे में वहीं घुप्प अंधेरा ठहरा हुआ था। मैंने फिर आंखें मूंद ली। रजनीगंधा के फूल फिर खिलखिलाने लगे।
वैभव ने प्यार से मेरा गाल सहलाया, मुझे उनमें वही गुनगुनी छुअन महसूस हुई जो अनुभव का हाथ पकडऩे के बाद से अकसर आटा गूंथते वक्त महसूस हुआ करती थी। मैंने फिर आंखें खोलीं, अंधेरे में वैभव की आंखें चमक रहीं थीं। मैंने फिर आंखें मूंद लीं। अब उनमें डूबता हुआ नारंगी सूरज दिखाई दे रहा था।
वैभव की दोनों बाहें मुझे चिनाब के किनारे सी लग रही थीं, जिनके बीच मैं रजनीगंधा के फूलों की तरह बही जा रही थी, साथ में थी अनुभव से मुलाकात की गंध, उस गंध का प्रेम और उस प्रेम का रस। 
उसके चारों तरफ अनुभव के अलावा और कुछ नहीं था, न वैभव, न अंधेरा, न कोई इनकार।
''क्या तुम्हारा कभी मन नहीं करता कि एक बार मेरे गले लग जाओ।सात तालों में बंद, सात रंगों की सात तहों में, सात सूतों में उलझा वह एक सवाल हौले से मेरी देह में सिहरन पैदा कर गया।
वैभव को अपनी बाहों में जकड़ते हुए मैं भरपूर वेग के साथ अनुभव के गले लग गई।
------------------------------
 
इसी सतरंगी दुनिया में एक रंग मेरे भीतर भी पनपने लगा था। यह किसलयों पर ठहरी ओस की बूंदों की तरह हरा हो सकता था, इसकी हलचल मैं महसूस कर रही थी।
कुछ ही महीनों में मेरे शरीर के भीतर ही भीतर उभरता उसका आकार वैभव, मां और मिलने-जुलने वाले और लोग भी महसूस करने लगे थे। सब खुश थे, हमें शुभकामनाएं दे रहे थे पर मेरा मन अशांत था। चिनाब की लहरें मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहीं थीं। अकसर रात में वो मुझे अपने साथ उसी शाम की सैर पर ले जातीं, जहां मैंने रजनीगंधा के फूल और वह सुनहरा जलपाखी प्रवाहित किया था। 
सब कुछ कहां बह पाया था उस शाम, मेरे बहुत सारे रंग अब भी वहीं ठहरे थे। उन्हीं रंगों से मिलने मैं भी अकसर रात में चिनाब की लहरों के बुलावे पर उठ खड़ी होती थी।
वैभव को यह बीमारी लग रही थी। मां को कोई 'शाय बला'। मां ने मेरे बिस्तर में 'सैंती सरिये' के सुनहरे दाने बिखरे दिये। कलाई में दानों की पोटली बनाकर बांध दी। इनका रंग भी जलपाखी की तरह सुनहरा था, मुझे ये भले लगने लगे।
खाने-पीने और खुद से ज्यादा मुझे इन सुनहरी दानों के साथ रहना अच्छा लगता था। इस पर मां और विचलित हो गई। मेरे लिए भी और मेरे भीतर बढ़ते उस नन्हें बीज के लिए भी।
वैभव मुझे खाना खिलाने की कोशिश करते। पर मैं बहुत कोशिश करने पर भी दो अंगुलियों को चाटते हुए चटखारे नहीं लगा पाती। मेरे निवालों से स्वाद भी गायब होने लगा था। मुझे खाने से विरक्ति हो गई। 
वैभव मुझे डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने मुझसे बहुत देर तक बात करने की कोशिश की। पर मेरे सुनहरे जल पाखी बिस्तर में रह गए थे, मैं नाराज थी, मैंने डॉक्टर से कोई बात नहीं की।
वैभव ने डाक्टर को बताया कि मुझे पढऩे और थोड़ा बहुत लिखने का शौक है। डॉक्टर ने मुझे पांच-छह अलग-अलग तस्वीरें दी और उन पर कुछ लिखने को कहा।
इनमें से एक मां का आंचल पकड़ते किशोर की थी
दूसरी खिड़की पर कोहनी टिकाए बैठी औरत की
तीसरी चार बच्चों की
चौथी,
पांचवी
और छठी।
पर वे सारी तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाईट थीं। उनमें कोई रंग नहीं था, न सुनहरा, न हरा, न नारंगी, न गुलाबी। मैं क्या लिखती। मैंने कुछ नहीं लिखा। एक शब्द भी नहीं। मैंने तस्वीरें वापस टेबल पर फेंक दीं। 
डाक्टर को सूत्र मिल गया। उसने मुझमें डिप्रेशन खोज निकाला और उससे बचने और लडऩे के लिए ढेर सारी गोलियां दे दीं। 
इनमें एक गोली नारंगी रंग की भी थी, बिल्कुल उन आंखों में डूबते सूरज जैसी। सैंती सरिये के दानों के साथ मैंने नारंगी रंग की गोलियों को भी अपना दोस्त बना लिया। अब वे भी मेरी सतरंगी दुनिया में शामिल थी। नारंगी गोलियों की एक खासियत और थी। इन्हें खाने के बाद मुझे झट से नींद आ जाती और मेरी सतरंगी दुनिया मेरे सामने अपने सारे रंग उडेल कर सज जाती।
मेरी दुनिया में लहरों की हलचल अब ज्यादा बढऩे लगी थी। ये कभी चिनाब की लहरों जैसी लगती तो कभी नन्हीं टांगों जैसी। मेरे भीतर कुछ बड़ा 'भला साचल रहा था। मैं उसे लेकर दिन-दिन भर सोयी रहती। 
एक रात चिनाब की लहरों में से एक मगरमच्छ अपने अगले पैरों को जल्दी-जल्दी चलाता हुआ निकला उसके पिछले सभी पैर आगे वाले पैरों की संगत कर रहे थे। सभी पैरों ने मिलकर मगरमच्छ को मेरी तरफ धकेल दिया और मगरमच्छ ने अपना पूरा जबड़ा खोलकर मेरी दोनों हथेलियों को अपनी ओर खींच लिया।
मैं चीख रही थी, चिल्ला रही थी, मगरमच्छ का जबड़ा मुझे छोडऩे को तैयार नहीं था। 
''जय बावे दी....
जय बावे दी....
जय बावे दी....
जय बावे दी....मां और वैभव मेरी दोनों हथेलियों को अपनी हथेलियों से रगड़ते हुए पुकार रहे थे। मैं इस डरावने स्वप्न पर तेजी से चीख पड़ी थी। मां का 'शाय बलावाला शक अब यकीन में बदलने लगा था, वे बावा जित्तो से प्रार्थना कर रहीं थीं, कि वे मुझे इस बला से मुक्ति दिलाएं।
मां भी चाहती थी कि मुझे मुक्ति मिले
अनुभव भी चाहता था कि मुझे मुक्ति मिले
फिर मैं क्यों नहीं चाह पा रही थी कि मुझे मुक्ति मिले
क्या ये जरूरी हो गया था कि अब मुझे मुक्ति मिले?
''कल झिड़ी का मेला है, बावे के मत्था टिकाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा।एक ही जुमले में मां ने वैभव को सलाह और निर्देश दोनों दे दिया। अब तक दृश्य बदल चुका था। मुझे निगलने वाला मगरमच्छ दृश्य से बाहर हो चुका था। मां, वैभव और उनकी प्रार्थनाएं दृश्य में शामिल हो चुकी थीं। मां ने सैंती सरेये की धुनी जगाकर मेरे बिस्तर के चारों तरफ घुमाई। नारियल के तेल से मेरे सिर की मालिश की। और मैं सो गई।
अगली सुबह हम सब झिड़ी के लिए निकल पड़े। झिड़ी में लगने वाला कार्तिक पूर्णिमा का यह मेला हर बार की तरह विशाल और शानदार था। 
अलग-अलग जगहों से आए हजारों-लाखों लोग साढ़े चार सौ साल पुरानी पीड़ा का प्रायश्चित कर रहे थे। 'बावे के तालाबपर नहा रहे लोगों ने अपने चेहरे और अपनी देह पर तालाब की काली मिट्टी पोत रखी थी। कुछ लोग लोहे की 'सुंगलों'  से अपने आप को पीट रहे थे। उन्हें दुख था कि उनके पूर्वजों ने बावा जित्तो की मेहनत और लहु में डूबी कनक क्यों खाई। सदियां गुजर गईं थीं पर ये दुख, ये पीड़ा, ये प्रायश्चित कम होने की बजाए बढ़ता ही जा रहा था। हर बार प्रायश्चित करने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। नहाने के बाद वे बावा जित्तो और 'बुआ कौड़ीके मंदिर में जाते, नाक रगड़ते और उनसे माफी मांगते। 
वैभव और मां मुझे भी मंदिर में ले गए। मेरे हाथ में मंदिर में चढ़ाने के लिए प्रसाद और 'बुआ कौड़ीके लिए खरीदी गई प्लास्टिक की गुलाबी गुडिय़ा और लाल ओढऩी थी। 
मेरे हाथ जैसी ही ढेरों गुडिय़ां और ओढ़नियां 'बुआ कौड़ीके कदमों में पड़ीं थीं। और 'बुआ कौड़ी' अपने पिता बावा जित्तो की अंगुली थामे खड़ी थी।
मैं 'बुआ कौड़ीकी तरफ एकटक देख रही थी, ''कितना शौक होगा न उसे गुडिय़ों से खेलने का। आठ साल की उम्र तो होती ही है गुडिय़ों से खेलने की। पर कोई भी कौड़ी तभी तक गुडिय़ों से खेल सकती है जब तक उसके सर पर मां-बाप का सुरक्षित छत्र रहे। बिन मां की बच्ची ने अपने पिता की रसोई संभाल ली। आठ साल की बच्ची के हाथों से बनने वाली छोटी-छोटी रोटियां कैसी होती होंगी।मेरी आंखों के सामने उन रोटियों का आकार और उन्हें पकाने वाले नन्हें हाथों के लिए दुलार उमडऩे लगा।
वो रोटियां भी कहां खिला पायी थी अपने पिता को। मेरी आंखों के सामने अब वह दृश्य आने लगा जब  वह अबोध बच्ची अपने पिता की चिता में कूद गई होगी, जमींदार के अन्याय के विरुद्ध। मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। प्लास्टिक की गुलाबी गुडिय़ा मुझे 'बुआ कौड़ीलगने लगी। मैंने उसे कसकर अपने सीने से लगा लिया, मैं उसे उसके हिस्से का दुलार देना चाहती थी। पर लेने के लिए वह अब बची कहां थी....  मैं खूब रोयी। वैभव ने और मां ने मुझे पकड़कर ड््योढ़ी पर बिठा दिया। मैं सुबकती रही, मैं माफी मांगना चाहती थी उस नन्हीं बच्ची से जिसका बचपन लालच और अन्याय ने छीन लिया था। न जानें और कितनी ही कौड़ी ऐसी होंगी जिन्हें उनका बचपन नसीब ही नहीं होता, क्या सभी को जान पाते हैं हम....
मैं रो रही थी,
रोये जा रही थी।
मेरा दुख, मेरी पीड़ा,
अपनी कौम के लिए मेरा प्रायश्चित कम ही नहीं हो रहा था।
मैं रोते-रोते बेसुध हो गई।
कौड़ी की गुलाबी गुडिय़ा मेरे पास ही रह गई। 
मुझे जब होश आया मैं हॉस्पिटल में थी। मेरे आसपास खड़े डाक्टरों और नर्सों को देखकर लग रहा था कि मेरी हालत ज्यादा खराब है। बच्चा बेहद कमजोर था, पर उसने अपनी जगह छोड़ दी थी। मुझे दर्द भी नहीं हो रहे थे। पर बच्चे को जन्म देना जरूरी था। मेरी कोख में अब उसे संभालने की ताकत नहीं रह गई थी। डॉक्टर्स ने ड्रिप लगाई और मुझे 'आर्टिफिशियल पेनदेने की कोशिश की गई। शुरू के दो-तीन घंटे मैं यूं ही बेसुध क्षितिज में निहारती रही, मेरे आसपास के दृश्य मुझ पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहे थे। 
....आधी रात होते-होते दवाइयां अपना काम कर गईं और मुझे दर्द शुरू हो गए। ये सातवां महीना था इसलिए मां और वैभव अब भी घबराए हुए थे। सुबह के साढ़े चार बजे के बाद मैंने एक बहुत कमजोर पर खूबसूरत बच्ची को जन्म दिया। बच्ची इतनी कमजोर थी कि उसे कपड़े में लपेटने के लिए रूई की परतों का सहारा लेना पड़ा। मेरी हालत अब भी ठीक नहीं थी।
डाक्टर और नर्सों की आंखें बता रहीं थी कि वे भी चाहते हैं कि मुझे मुक्ति मिले। 
मेरी गुलाबी गुडिय़ा नर्स की गोद में थी, वह उसे कपड़े में लपेट कर मेरे पास ले आई। मैंने उसे ध्यान से देखा, उसकी अंगुलियां बिल्कुल गुलाबी थी। उसकी देह से रजनीगंधा के फूलों की खुशबू आ रही थी और उसकी छोटी-छोटी सी आंखों में डूबता हुआ नारंगी सूरज भी मौजूद था। मेरे सब रंग मेरे पास थे। मैंने नजर उठाकर देखा अनुभव मेरे सामने था, वैभव और मां दृश्य से गायब हो चुके थे। मैंने हाथ बढ़ाया, अनुभव ने अपनी गुनगुनी हथेली मेरे हाथ में दे दी, मैं उसे गुलाबी गुडिय़ा के माथे तक ले आई। उसने उसका माथा सहलाया और मुझे मुक्ति मिल गई।  
----------------------------------------
 

Tuesday, July 15, 2014

यादों से भरा खाली मन (कहानी) - आकांक्षा पारे




अपने वायदे के अनुसार कुछ कहानियां अपने ब्लॉग में  लगा रही हूँ!  सबसे पहले पढ़िये कथाकार मित्र आकांक्षा पारे की कहानी "यादों से भरा मन"!  महानगरीय संवेदनाओं पर ठंडेपन के इल्ज़ाम कई बार सच को छुए  बिना ही एकतरफा फैसलों की ओर बढ़ जाते हैं, पीछे रह जाता है यादों से भरा खाली मन।   अपनी इस कहानी में आकांक्षा ने तस्वीर का दूसरा रुख दर्शाते हुये इस खाली मन की जो तस्वीर खींची है, आपके सामने है!  



सब कुछ सुस्त था। सुबह भी। सूरज बादलों का लिहाफ ओढ़े सोया था। एक ऊंघती हुई 534 नंबर की बस आई और वह उसमें सवार हो गया। उसने जोर से धक्का देकर बस की खिड़की का शीशा बंद किया और अपने हाथ
सिकोड़ कर बगल में छुपा दिए। 'ठंड आ गई।'  वह मन ही मन बुदबुदाया। दिल्ली की धुंध वाली सर्द सुबह में
उसने आंखें बंद की और अम्मा-बाबूजी का चेहरा याद करने लगा। दोनों की शक्लें उसे बाहर के मौसम की तरह धुंध में कहीं खोई-खोई सी लग रही थीं। कितने साल हो गए होंगे उन्हें देखे? हिसाब लगाने के लिए उसने अपनी आदत के अनुसार हथेली फैला कर एक-एक उंगली मोडऩी शुरू की। उसे लगा सुलेखा बगल में बैठी फक्क से हंस दी है। 'कैसे बच्चों जैसे गिनते हो, पूरी ऊंगलियों को फैला कर।  ऐसे नहीं गिन सकते',  और वह अपने अंगूठे को ऊंगलियों के पोरों पर धीमे-धीमे छुआती गिनती करने लगी।  'एक-दो-तीन-चार-पांच-छह...। छह साल! बाप रे। छह साल हुए तुमने अपने मां-पापा को नहीं देखा। कैसे दुष्ट हो तुम।'   'नहीं तो'  वह कहना चाहता है लेकिन...। उसे दो शब्दों से सख्त एतराज रहा करता था, काश और लेकिन। यह विडंबना ही है कि उसका जीवन अब दो शब्दों के बीच सिमट कर रह गया है, काश और लेकिन। 'तुम घर क्यों नहीं जाते?  बहुत अंतरंग किसी क्षण में सुलेखा ने उससे पूछा था। वह कोई जवाब नहीं दे पाया था। यदि उसके पास इसका कोई जवाब होता तो वह कब का घर जाने वाली ट्रेन में बैठ गया होता। घर। ऐसा घर जिसमे उसके लिए पहले जगह कम फिर खत्म होती चली गई थी।  पुरानी बातें सोच कर उसका मन कहीं-कहीं गीला हो आता था। इतना गीला कि अगर वह लड़की होता तो पक्के तौर पर रो लेता।

बीस मिनट के इंतजार के बाद इंजन धीरे-धीरे रेंगता प्लेटफार्म की ओर बढ़ रहा था। वह बुत बना खड़ा रहा। ट्रेन रुकी और लोग डब्बों की तरफ दौड़ पड़े। वह अम्मा-बाबूजी को पहचानना जितना कठिन समझ रहा था उसे वह काम उतना कठिन नहीं लगा। बाबूजी के बाल पूरे सफेद हो गए हैं और नीचे के दो दांत टूट गए हैं। अम्मा तो बिलकुल वैसी ही है। खालीपन लिए हुए भूरी आंखों वालीं। गोल चेहरा, जिस कभी अधिकार का भाव जाग ही न सका।  दमकता गोरा रंग और निस्तेज व्यक्तित्व। उनके मुकाबले सुलेखा कितनी अलग है। जो करना है वही करना है, जो पसंद नहीं उसे वह बिलकुल नहीं ढोएगी। चाहे फिर वह ही क्यों न हो। अचानक उसे याद आया कि मिलने पर तो पैर छुए जाते हैं। वह हल्के से झुका तो बाबूजी ने उसकी दोनों बाहें थाम लीं। बस। उसने मन में कहा। उसे लगा था बाबूजी उसे भी वैसे ही गले लगा लेंगे जैसे भैया को लगा लेते हैं जब वह पैर पडऩे झुकते हैं। बिना किसी औपचारिक वाक्य के बाबूजी का सीधा-सपाट वाक्य आया,

'घर कितनी दूर है?'

'कुछ खास दूर नहीं है।'

'बस जाती है वहां तक या फिर कैसे चलेंगे?'

'नहीं ऑटो ले लेंगे।'

'ऑटो महंगा नहीं पड़ेगा।'

'नहीं कुछ खास नहीं।'

'मैंने इसलिए पूछा कि दिल्ली, मुंबई में ऑटो के किराए बहुत होते हैं। पिछली दफा जब अनुज के पास मुंबई गए थे तो उसने बताया था। खैर वह तो हमें अपनी कार में लेने आ गया था।'  उसने महसूस किया बाबूजी ने अनुज और कार को थोड़े गर्व में कहा और मां ने उस पर सिर्फ एक गहरी नजर डाल दी है। उसने चेहरा फेर लिया और ऑटो वाले को आवाज दे दी।

बर्फीली रात में उसने धीमे से दरवाजा खोला और पीछे के वरांडे में आ गया। जाली से घिरे वरांडे के एक कोने मे पुराने अखबार बेतरतीब से मीनार सी बनाए हुए थे। रंग उड़ी नायलोन की रस्सी पर बाबूजी की चौखाने की लुंगी और पीली पड़ गई बनियान और मां की साड़ी सूख रही थी। उसने हौले से साड़ी को छुआ। कपड़ा कितना हल्का है। उसने फौरन साड़ी का किनारा छोड़ दिया। मां इतनी सस्ती साडिय़ां पहनने लगी हैं। कब से? भैया कार में लेने आ सकता है तो क्या मां-बाबूजी को ढंग के चार कपड़े नहीं दिला सकता। बचपन का आक्रोश ने फिर सिर उठा लिया। हल्के खुले दरवाजे से बाहर की रोशनी अंदर झांक रही थी। बाबूजी तखत पर चित गहरी नींद में थे। अपनी चिरपरिचित मुद्रा में। उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे। पैरों के हल्की सी दूरी थी। उनकी छाती के ऊपर-नीचे होने से ही कोई जान सकता था कि वह जिंदा हैं। वरना जीवन जैसा उनके पास कुछ बचा नहीं था। उनके खुले मुंह से नीचे के टूटे दांत झांक रहे थे। नीचे गद्दे पर मां सोई थीं, गुड़ीमुड़ी उसकी मटमैली चादर को खुद पर लपेटे। उसने जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाल कर एक सिगरेट मुंह में रखी ही थी कि मां कुनमुनाई। उसने घबरा कर सिगरेट को फुर्ती से जेब में रखा और दरवाजे को बंद करने के लिए हाथ बढ़ा दिया।

'वह किस वजह से यह घर छोड़ कर चली गई?'   तीन दिन बाद स्पष्ट रूप से पूछा जाने वाला मां का यह पहला वाक्य था। मां की आवाज में अधिकार था। उनकी आवाज की तेजी सुनकर ही वह समझ गया पिताजी निश्चित रूप से बाहर गए हैं। पहले उसका मन किया सब सच-सच कह दे। फिर उसने गला साफ किया और बस इतना ही कह सका, 'हमारा स्वभाव नहीं मिलता था।' 'स्वभाव? स्वभाव क्या होता है रे रूनू? मेरा और तेरे पिताजी का स्वभाव मिलता है क्या, तेरे भैया और भाभी क्या एक जैसे हैं? तेरी बहन क्या तेरे जीजा सी लगती है तुझे? स्वभाव नहीं मिलता। वाह। क्या कारण ढूंढा रे रूनू अलग होने का। रिश्ते निभाना तो सीखना पड़ता है। पर तुझे रिश्तों की परवाह रही ही कब?'  उसका मन किया पलट कर तीखा सा जवाब दे कि वह रिश्ते ही निभाता रह गया।  जो चीज उसे मिली नहीं वही चीज उसने सुलेखा को देने की कोशिश की। भरपूर कोशिश। वह प्यार से इतना खाली था कि उसने सोचा सिर्फ प्यार करने भर से रिश्ते चल जाते हैं। सिर्फ प्यार करने भर से कोई हमेशा के लिए किसी का हो कर रह सकता है। लेकिन... ऐसा नहीं हुआ। काश...उसने इसके अलावा भी सोचा होता। काश। 'भैया ठीक हैं?'   उसने बात का रुख पलटना चाहा। 'हां सब अपनी जगह ठीक हैं। मुझे तो तुम्हारी फिक्र सताती है। यूं अकेले जीवन नहीं कटता। अब क्या करोगे कुछ सोचा है? दूसरी शादी?'  उसने महसूस किया शादी शब्द तक आते-आते मां की आवाज का स्वर बिलकुल धीमा हो गया था। वैसा धीमा जैसे बाबूजी से बात करते वक्त हो जाया करता है। वह कहना चाहता था अकेलापन तो उसकी नीयति है। इतने सालों से भी तो अकेला था। सुलेखा तो मात्र डेढ़ साल रही उसके जीवन में। 'वह कहती क्या थी?  क्या पसंद नहीं था उसको तेरे स्वभाव में?'  फिर आरोप उसने अपने मन में सोचा। मां इस सवाल को ऐसे भी पूछ सकती थी, 'क्या दिक्कत थी तुम दोनों के स्वभाव में।'

लेकिन उन्होंने मान लिया कि उसके स्वभाव में ही दिक्कत रही होगी। आहट बता रही थी, बाबूजी सीढिय़ां चढ़ रहे हैं। उसने मां की तरफ देखा और निगाहों में पूछा, 'इस बात का जवाब अभी चाहिए।'  मां धीमे से उठीं और वचन निभाने में पक्के, रिश्ते निभाने में कच्चे श्रीराम की कथा में खो गईं। यही तो वह हमेशा से करतीं आईं हैं। परिस्थितियों से भागना और रामचरितमानस की ओट में दुबक जाना। उसका अंदाजा सही निकला। दरवाजे पर बाबूजी खड़े थे।

'सतीश भी तो दिल्ली रहता है न?'  बाबूजी का प्रश्न तीर की तरह घुसा उसके दिल में। सतीश का नाम कितने दिनों बाद सुन रहा है।

'हं...हां।'

'बुलाओ उसे किसी दिन घर पर। शादी-वादी की या नहीं उसने?'

'हां'

'मर्जी से की या...'  बाबूजी  ने जानबूझ कर शायद वाक्य अधूरा छोड़ दिया। किसी को शर्मिंदा करने के लिए क्या जरूरी है कि पूरी बातें बोली ही जाएं। कई बार अधूरी चीजें, पूरी चीजों के मुकाबले ज्यादा स्पष्ट संकेत देती हैं। घर की कई अधूरी चीजें उसे भी तो संकेत दे रही थीं कि कुछ तो है जो उसे अधूरा छोड़ अपनी पूर्णता की ओर बढ़ रहा है। सुलेखा की अधूरी इच्छाएं, उसके अधूरे सपने। उसे लगता था वह सुलेखा के सूने गले को अपनी बाहों के हार से भर देगा, सुलेखा के जागने से पहले बढिय़ा खाना बनाएगा और बाहर खाना खाने की जरूरत खत्म हो जाएगी। मकान नहीं खरीद पा रहा तो क्या वह सुलेखा को घर देगा। घर। जहां छह साल से वह नहीं गया। वह अपना खुद का घर बनाएगा। लेकिन...। काश... उसने कुछ और भी सोचा होता। काश... उसने सोचा होता जो आपको नहीं मिलता वह कोई कैसे बांट सकता है।

'जब तुम अलग हुए तब समझाया नहीं उसने तुम्हें। बड़ा समझदार लड़का है वह। तुम्हें कुछ सीखना चाहिए उससे।'  उसका मन किया बाबूजी को बताए कि सच में वह बहुत समझदार है। वह जल्द ही समझ गया कि लड़कियों के दिल कैसे जीते जाते हैं। फिर चाहे वह दोस्त की पत्नी ही क्यों न हो। समझाया भी था उसने कि यदि वह आसानी से न समझा और तलाक के कागज पर साइन नहीं किए तो वह फिर उसे ठीक से 'समझाएगा।'  सीखना तो उसे सच में चाहिए।

हल्की धूप में खड़े मां-बाबूजी सुनहरे रंग के दिख रहे थे। प्लेटफार्म में आज उतनी भीड़ नहीं थी। उसने बाबूजी के हाथ में लौटने का टिकट थमाया। वह जानता था उन दोनों को दोबारा देखने के लिए अब उसे ही उनके पास जाना होगा। घर उसने छोड़ा था इसलिए उसे ही एक बार आना पडग़ा कि जिद पता नहीं कितने साल चलती यदि नींद की गोलियां खा कर वह अस्पताल न पहुंच गया होता। लेकिन उसके पास कोई चारा नहीं था। काश...उसने अपनी निराशा पर काबू पाना सीख लिया होता। उसने झुक कर बाबूजी के पैर छुए। उन्होंने उसके कंधे थपथपाए और गाड़ी में चढ़ गए। उसका सीना बाबूजी के सीने से टकराने का इंतजार ही करता रह गया। इंतजार ने उसके सीने में बहुत बड़ा गड्डा कर दिया। इतना बड़ा कि पूरी ट्रेन उसमें समा गई। ट्रेन में बैठे मां-बाबूजी भी।

आकांक्षा पारे काशिव
फीचर संपादक
आउटलुक (हिंदी)
एबी-6, सफदरजंग एनक्लेव
पिन - 110 029