बेपता घर में
एक-दूसरे के बिना न रह पाने
और ताज़िन्दगी न भूलने का खेल
खेलते रहे हम आज तक
हालाँकि कर सकते थे नाटक भी
जो हमसे नहीं हुआ
किंतु समय की उसी नोक पर
कैसे सम्भव हमेशा साथ रहना दो का
चाहे वे कितने ही एक क्यों न हों
तो बेहतर होगा हम घर बना लें
जगह के परे भूलते हुए एक-दूसरे को
भूल जाएँ ख़ुद ही को
ग़रज़ फ़क़त यह
कि बहुत जी लिए
इसकी-उसकी, अपनी-तुपनी करते परवाह
अब अपनी ही इज़ाज़त के बाद
बेमालूम तरीके से
अदृश्य होकर रहें हम
कोहरे के बेनाम-बेपता घर में
शाम को सड़क पर एक बच्चा
शाम को सड़क पर
वह बच्चा
बचता हुआ कीचड़ से
टेम्पो, कार-ताँगे से
उसकी आँखों में।
चमकती हुई भूख है और
वह रोटी के बारे में
शायद सोचता हुआ...
कि चौराहे को पार करते
वह अचकचा कर
रह गया बीचों-बीच सड़क पर
खड़ा का खड़ा,
ट्रैफिक पुलिस की सीटी बजी
रुकी कारें-टेम्पो-स्कूटर
एक तो एकदम नज़दीक था उसके
वह यह सब देख बेहोश-सा
गिर पड़ा,
मैं दौड़ा-पर पहुँच नहीं पाया
कि उसके पहले उठाया उसे
सन्तरी ने कान उमेठ
होश-जैसे में आ,
वह पानी-पानी,
कहने लगा बरसात में
फिर बोला बस्ता मेरा...
तभी धक्का दे उसे
फुटपाथ के हवाले कर
जा खड़ा हो गया सन्तरी अपनी छतरी के नीचे
सड़क जाम थी क्षण भर
अब बहने लगी पानी की तरह
बच्चा बिना पानी के
जाने लगा घर को
बस्ते का कीचड़ पोंछते हुए...
मैं मरने से नहीं डरता हूं
न बेवजह मरने की चाहत संजोए रखता हूं
एक जासूस अपनी तहकीकात बखूबी करे
यही उसकी नियामत है
किराये की दुनिया और उधार के समय की
कैंची से आज़ाद हूं पूरी तरह
मुग्ध नहीं करना चाहता किसी को
मेरे आड़े नहीं आ सकती
सस्ती और सतही मुस्कुराहटें
मैं वेश्याओं की इज्जत कर सकता हूं
पर सम्मानितों की वेश्याओं जैसी हरकतें देख
भड़क उठता हूं पिकासो के सांड की तरह
मैं बीस बार विस्थापित हुआ हूं
और ज़ख्मों की भाषा और उनके गूंगेपन को
अच्छी तरह समझता हूं
उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं
जिनमें भद्र लोग
जिंदगी और कविता की नापजोख करते हैं
मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नही छोड़ा
और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया
जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
अजन्मी और नन्ही खुशियों को
मेरी यही कोशिश रही
पत्थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्द
और बीमार की डूबती नब्ज़ को थामकर
ताज़ा पत्तियों की सांस बन जाएं
मैं अच्छी तरह जानता हूं
तीन बांस चार आदमी और मुट्ठी भर आग
बहुत होगी अंतिम अभिषेक के लिए
इसीलिये न तो मैं मरने से डरता हूं
न बेवजह शहीद होने का सपना देखता हूं
ऐसे जिंदा रहने से नफ़रत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ करता भटकता रहूं
मेरे दुश्मन न हों
और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी बात मानूं...
लकड़बघ्घा हँस रहा है
फिर से तपते हुए दिनों की शुरुआत
हवा में अजीब-सी गंध है
और डोमों की चिता
अभी भी दहक रही है
वे कह रहे हैं
एक माह तक मुफ्त राशन
मृतकों के परिवार को
और लकड़बग्घा हंस रहा है...
और मैं...
फिर से खड़ा हूं
इस अंधेरी रात की नब्ज़ को
थामे हुए
कह रहा हूं
ये तीमारदार नहीं
हत्यारे हैं
और वह आवाज़
खाने की मेज़ पर
बच्चों की नहीं
लकड़बग्घे की हंसी है
सुनो...
यह दहशत तो है
चुनौती भी
लकड़बग्घा हंस रहा है
पत्थर की बेंच
पत्थर की बेंच
जिस पर रोता हुआ बच्चा
बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है
जिस पर एक थका युवक
अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है
जिस पर हाथों से आँखें ढाँप
एक रिटायर्ड बूढ़ा भर दोपहरी सो रहा है
जिस पर वे दोनों
जिंदगी के सपने बुन रहे हैं
पत्थर की बेंच
जिस पर अंकित है आँसू, थकान
विश्राम और प्रेम की स्मृतियाँ
इस पत्थर की बेंच के लिए भी
शुरु हो सकता है किसी दिन
हत्याओं का सिलसिला
इसे उखाड़ कर ले जाया
अथवा तोड़ा भी जा सकता है
पता नहीं सबसे पहले कौन आसीन हुआ होगा
इस पत्थर की बेंच पर!
जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा
पानी के पेड़ पर जब
बसेरा करेंगे आग के परिंदे
उनकी चहचहाहट के अनंत में
थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा
मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का
उस पर बसेरा करेंगे पानी के परिंदे
परिंदों की प्यास के आसमान में
जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा
वहां छायाविहीन एक सफेद काया
मेरा पता पूछते मिलेगी
तुम्हारी आँखें
ज्वार से लबालब समुद्र जैसी तुम्हारी आँखें
मुझे देख रही हैं
और जैसे झील में टपकती है ओस की बूँदें
तुम्हारे चेहरे की परछाई मुझमें प्रतिक्षण
और यह सिलसिला थमता ही नहीं
न तो दिन खत्म होता है न रात
होंठों पर चमकती रहती है बिजली
पर बारिश शुरू नहीं होती
मेरी नींद में सूर्य - चंद्रमा जैसी परिक्रमा करती
तुम्हारी आँखें
मेरी देह को कभी कन्दरा, कभी तहखाना, कभी संग्रहालय
तो कभी धूप-चाँदनी की हवाओं में उड़ती
पारदर्शी नाव बना देती है
मेरे सपने पहले उतरते हैं तुम्हारी आंखों में
और मैं अपने होने की असह्यता से दबा
उन्हें देख पाता हूँ जागने के बाद
मरुथल के कानों में नदियाँ फुसफुसाती हैं
और समुद्र के थपेड़ों में
झाग हो जाती है मरुथल की आत्मा
पृथ्वी के उस तरफ़ से एकटक देखती तुम्हारी आँखें
मेरे साथ कुछ ऐसे ही करिश्मे करती हैं
कभी-कभी चमकती हैं तलवार की तरह मेरे भीतर
और मेरी यादाश्त के सफों में दबे असंख्य मोरपंख
उदास हवाओं के सन्नाटे में
फडफडाते परिंदों की तरह छा जाते हैं
उस आसमान पर जो सिर्फ़ मेरा है
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं उनकी नींद हराम हो जाए
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
ख़ून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ.
कहीं कोई जी रहा है उसके लिए
जिसकी आँखों से ओझल नहीं हो रहे खण्डहर
समय के पंखों को नोंच
अपने अकेलेपन को तब्दील कर रही जो पतझर में
बिन दर्पण कुतर रही अपनी ही परछाईं
घर के फाटक पर चस्पा कर दी सूचना
"यहाँ कोई नहीं रहता"...
उसे पता तक नहीं
गाती हुई आवाज़ों के घर में
कहीं कोई जी रहा है
उसके लिए ।
कहीं कोई मर रहा है उसके लिये
झुक-झुक कर चूम रहे फूल जिसके होंठों को
बतास में महक रही चंदन-गंध
जिसकी जगमगाती उपस्थिति भर से
जिसकी पदचापों की सुगबुगाहट ही से
झनझनाने लगे ख़ामोश पड़े वाद्य
रोशन हो रहे दरख़्तों-परिन्दों के चेहरे
उसे पता तक नहीं
सपनों के मलबे में दबा
कहीं कोई मर रहा है
उसके लिए...
--- चंद्रकांत देवताले
साभार दस्तक से
प्रस्तुति : अनिल करमेले
कविता पोस्टर : अंजू शर्मा
इस खजाने को साझा करने के लिए आभार।
ReplyDeleteनमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति गुरूवार 17 अगस्त 2017 को "पाँच लिंकों का आनंद "http://halchalwith5links.blogspot.in के 762 वें अंक में लिंक की गयी है। चर्चा में शामिल होने के लिए अवश्य आइयेगा ,आप सादर आमंत्रित हैं। सधन्यवाद।
ReplyDeleteखेद है आपकी प्रस्तुति आज के अंक में तकनीकी कारणों से प्रकाशित नहीं हो सकी। आगामी किसी अंक में आपकी प्रस्तुति अवश्य समाहित जाएगी। धन्यवाद। सादर।
Deleteउनका जाना सिर्फ एक बड़े कवि का जाना नहीं है,बहुत से कवियों के अभिभावक का जाना है ऐसे सच्चे निस्स्वार्थ चंद्रकांत देवताले जी को विनम्र नमन !!
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ReplyDeleteनमस्ते, आपकी यह प्रस्तुति गुरूवार 24 अगस्त 2017 को "पाँच लिंकों का आनंद "http://halchalwith5links.blogspot.in के 769 वें अंक में लिंक की गयी है। चर्चा में शामिल होने के लिए अवश्य आइयेगा ,आप सादर आमंत्रित हैं। सधन्यवाद।
अविस्मरणीय ....लाजवाब.....
ReplyDeleteदेवताले जी को सादर नमन....
इतनी उम्दा रचनाएं share करने के लिए आपका धन्यवाद,.... सादर आभार....
सुन्दर । नमन।
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