युवा कथाकार अनघ शर्मा की यह कहानी धर्म की चमकीली दुनिया के परदे के पीछे के काले अंधेरों की शिनाख्त ही नहीं करती बल्कि तमाम परतों को उघाड़कर उसे सच का आइना भी दिखाती है! अनघ की किस्सागोई का अंदाज़ मुझे पसंद आया! आप भी पढ़कर देखिये……
1.
"आह्लाद की रेशमी डोरी हो या विषाद का सूती बिछौना, स्मृति में बंद पहले प्यार का सूखा गुलाब दोनों में बराबर ही महकता है ,उसने कहीं सुना था ये।" पर उसकी स्मृति में सिर्फ़ गुलाब ही नहीं तमाम संसार बंद था और जिसकी महक उसके अंदर हर पल ठाठें मारती रहती थीं। कितनी बड़ी चौखट थी उस घर की जैसे किसी ने बुलंद दरवाज़े की नकल उतार के जड़ दी हो। धूप-छाँव बिना उसे पार किये दालान में उतर नहीं सकते थे। वो बेल-बूटे, लकड़ी के फूल अब उसकी यादों में कुलबुलाते हैं। अजब-गज़ब सी आवाज़ें अंदर गूंजती रहती हैं जैसे खाली मैदान में हवा की सनसनाहटें। और यहाँ हॉस्टल के बंद कमरे में उसका दम घुटता था।
"कौन? कौन है वहाँ ?" उसने चीखना चाहा पर बोल नहीं निकले।
अवचेतन में से एक आवाज़ गूंजी।
"मृत्यु, मृत्यु अवश्यम्भावी है, जन्म टाला जा सकता है पर मृत्यु नहीं। हर हाल में आने वाली घड़ी है ये,किसी युक्ति से नहीं रोकी जा सकती। "
"कौन है खिड़की पर?तुम हो क्या चक्कूमल?हाँ तुम ही तो हो तुम्हारी अंगूठियां दीख रही हैं मुझे। उसने बुदबुदाहट में कहा। बुखार की झोंक उसे फिर अतीत में बहा ले गयी।
"अच्छा सुनो!तुम भी मुझे औरों की तरह पंडित जी बुलाया करो चक्कूमल नहीं।"
और तुम क्या बुलाओगे मुझे?"
"कीर्ति "
ऊँहूँ …… मिस सरकार बुलाओ …पता है पिछली दफ़ा इसी नाम से फ्रॉड किया था मैंने, और फिर पकड़ी भी गयी थी, उसने कहा।
वो हँस पड़ा ये सुन के।
पर बुखार की दवाईयों ने उसमें हंसने की ताक़त भी नहीं छोड़ी थी। उसने करवट ले खिड़की की तरफ़ पीठ कर ली और वापस औंघासूती में डूब गयी।
चक्कूमल शुगर वल्द नानकमल शुगर वल्द मानकमल शुगर हाज़िर हों………वो चौंक कर जाग गयी। चौक की घड़ी ने तीन बजाये,चाँद बादल में सरक गया, प्यास ने गले में दस्तक दी।
उसने पानी से एक गोली निगली और साथ ही चक्कूमल की याद भी।
पर कौन थे ये दोनों ? पखावज से निकली कोई ताल? समय के बाहुपाश से छूटे कोई अजब किरदार? कोई नहीं जानता था कि ये दोनों कौन थे?
ये समय के अद्भुत दस्तावेज़ थे। वो वरक़ थे जिन पर जीवन का लिट्मस टेस्ट होना था। खुली खिड़की में से किसी गाने की अस्प्ष्ट धुन तैरती हुई कमरे के भीतर चली आ रही थी। "याद अगर वो आये,ऐसे कटे तन्हाई।"
"सुनो ज़रा ये खिड़की बंद कर दो हवा आ रही है अंदर।" उसने साथ सोती हुई लड़की से कहा और नींद की नाव डूबने से पहले किसी की याद को दस्तक देते हुए सुना।
"शिरीष के फूल पढ़ी है?"
"मैक्सिम गोर्की को?"
"रागनियाँ सुनी हैं कभी तुमने?"
"तुमने कुछ पढ़ा-सुना है कभी पंडित जी ?"
"हाँ तुम्हें सुना है और तुम्हारी लक़ीरें पढ़ी हैं। "
"चुप रहो "उसने बनावटी क्रोध जताते हुए कहा।
"अच्छा ये बताओ हम कौन हैं ?" चक्कूमल ने पूछा।
"हम! हम फ्रॉड हैं यार …… तुम लोगों की झूठी लकीरें बाँचते हो, और मैं तो ज़िंदगी को अब तक ख्वाबफ़रोशी का जरिया ही मानती रही हूँ।"
" अच्छा जानते हो फ्रॉड करना क्या होता है ?'
"हम जितनी लफ्फ़ाज़ी, जितना भरम, जितना धोखा दूसरे को देते हैं, उससे कुछ ज्यादा उसी वक़्त ख़ुद के साथ कर रहे होते हैं। हम अपनी ज़िंदगी के साथ सी-सॉ खेल रहे हैं पंडित जी।"
"और ज़िंदगी को ख्वाबफ़रोशी का ज़रिया मानने की कोई वज़ह?"
"कोई वजह नहीं,और यूँ भी दुनिया में जितनी भी वज़हें हैं सब फ़ज़ूल हैं और सलाहियतें तो बोझ हैं। मुझे बेवजह मरना है और सलाहियतों बिन जीना है, एकदम रॉ, बिन तराशे पत्थर की तरह। वैसे भी हम बिखरे हुए वरक़ हैं, कल को कोई ज़िल्दसाज़ आयेगा हमें एक के ऊपर एक रखेगा, फिर हमें पाँव से, दायें-बायें से,सर से ठोंक-ठोंक कर अपनी जाने दुरुस्त करेगा। उसके बाद हमसे बिना पूछे हमें अपनी मनमर्ज़ी आड़ा-टेड़ा सिल देगा।ज़िंदगी सिलने से पहले पूछने का मौक़ा नहीं देती। अग़र मौका दे तो दुनिया भर की किताबों के दो-तिहाई वरक़ कहेंगे की हमें आज़ाद रहने दो, उड़ने दो। पर कुछ वरक़ ढीठ होते हैं ये इतनी ज़ोर से अपने कंधे फड़फड़ाते हैं कि ज़िल्द का धागा टूट जाए …………हाँ तुम कह सकते हो की उन्होंने खुदकुशी कर ली। मैं इसी तरह का वरक़ हूँ पंडित जी जिसे आज़ाद रहना है। मैं कल को चाहूँ तो तुम्हें भी छोड़ के जा सकती हूँ। "
वो अवाक उसके चेहरे को देखता रह गया।
2
माई की जै, माई की जै ……… हर ओर से उठती आवाज़ें उसके अंदर सिरहन पैदा कर रही थीं। उसने अपनी पसीजी हथेलियों को देखा फिर एक दूसरे में यूँ चिपका दिया जैसे सामने बैठी भीड़ को नमस्कार किया हो। पंडाल में दूर-दूर तक औरतें क़तार की क़तार दम साधे माई को सुनने के लिए बैठी थीं।
इतनी भीड़ देख कर वो सकपका गई,सोचा कि भाग जाए पर दुनिया को ठगने वाली यूँ ज़रा सी भीड़ देख भाग जाये तो उसकी बरसों की ट्रेनिंग पर लानत होगी।
काली किनारी की सफ़ेद तांत में उसने खुद को सामान्य से अलग दिखने का एक प्रयास किया था और जिसमें वह सफल भी हो गयी थी। कम उम्र सी एक अद्भुत चमक थी उसके चेहरे पर ,जैसे शांत निर्मल ईश्वर की छाया पड़ गयी हो। पर वो जानती थी ये कमाल उसके प्रसाधन भोगी हाथों का है।
ऊंचे तख़्त पर बैठ कर उसने एक नज़र सामने डाली,एक हुजूम को अपने सामने नतमस्तक देख उसके आत्मविश्वास की पतवार वापस तन गयी। उसने सधी आवाज़ में कहना शुरू किया।
"प्रेम हर मस्तिष्क में एक गर्भाशय रोप देता है। इस गर्भाशय में अनगिनत यादें संतति के रूप में पनपती रहती हैं। प्रेम सफल तो अच्छी,सुखद यादों की संतान जन्म लेती है और अगर असफल तो बुरी, दुखद यादों की संतान जन्म लेती है। प्रेम में संतति का जन्म निश्चित है और संतति कैसी हो ये प्रेम की सफलता-असफलता पर निर्भर करता है।"
भीड़ दम साधे सुनती रही उसे। कहीं पत्ता भी खड़कने की आवाज़ नहीं थी। गूँज रही थी तो बस माई की आवाज़। उसने देखा उसके शब्दों का जादू चल गया और सब मंत्रमुग्ध से जड़ हो गए हैं।
वो झटके से उठी और मुड़ कर वापस अंदर चली गयी। ये नयी अदा सीखी थी आजकल उसने, एक रहस्य का माहौल तैयार करो और फिर सबको उस आवरण में छोड़ कर निकल जाओ। पीछे जय-जयकार की आवाज़ गूंजती रहे।
अंदर कमरे में उसने देखा कि चक्कूमल मेज़ पर चढ़ कर बैठा हुआ है।
"आओ! बहुत बढ़िया बोला तुमने। जै-जै की आवाज़ यहाँ तक आ रही है। "
"थक गयीं।"
"अच्छा, आओ यहाँ बैठो मेरे पास। "उसने मेज़ पर एक तरफ खिसकते हुए कहा।
"नहीं ठीक है, पहले ज़रा ये मेकअप उतार लूं। "
"एक सलाह दूं। "
"यूँ ही प्रेम का पथ दिखाती जाओ लोगों को,भला होगा का।"
बालों में से जूड़ा पिन निकालते-निकालते हाथ एक दम रुक गए उसके,चेहरे पर हल्की विद्रूप की लहर आई और आँखों में ठहर गई।
"क्या बचता है बाद में बवंडरों के,आँधियों के,बगूलों के …… ? कुछ भी नहीं सिवाय होठों पर रेत और हलक़ में चटकती प्यास के ….... खुलूस के नाम पर पंडित जी आप लोगों को प्यार की सीख बांटते हैं यानि की बवंडर बांटते हैं,आंधी बांटते हैं,बगूले बांटते हैं,प्यास बांटते हैं। मुझे इसलिए आप की दो कौड़ी की नसीहतों में राई-रत्ती भी इंट्रेस्ट नहीं पंडित जी।"
जानते हो ये प्रेम हल्की डोरियों की तरह पीठ पर कसा होता है। धीरे-धीरे ये डोरियाँ घिस जाती हैं, बदरंग हो जाती हैं,टूट जाती हैं ....... एक बार ये टूटीं तो कोई भी दर्ज़ी इनका टांका नहीं जोड़ सकता।इनके टूटने से पीठ और छाती दोनों का नंगापन चमकने लगता है। कोई बिरला ही अपनी पीठ पर ये डोरियां कसी रख पता है। कोई बिरला ही प्रेम निभा पाता है चक्कूमल।
लाउड स्पीकर से आता शोर अब थम गया था। नेपथ्य का जय-जयकार भीड़ के साथ विदा ले चुका था। अब यूँ लगता था मानो वो दोनों ही अकेले छूट गए हो यहाँ और बाकी सब परिधि लांघ गए हों।
"ज़रा चारमिस तो पकड़ाना।" उसने कहा।
"तो फिर हम साथ क्यों हैं?उसने क्रीम पकड़ाते हुए पूछा।
"प्यार के लिए। "
"मतलब?"
"मतलब कि हम अपनी ज़रूरतों को प्यार का नाम पहना देते हैं। हम अपनी सुविधा के लिए अलग-अलग चीज़ों को एक दूसरे पर आरोपित कर देते हैं।"
"कैसी ज़रूरतें ?"
"देह की, पैसों की,हंसने-बोलने की, कपडे-लत्तों की,खाने-पीने की। एब्सकोंडर हैं हम तुम, भगोड़े हैं अपने-अपने जीवन से। मैं एक शादीशुदा लड़की जो अपनी नीरस उबाऊ शादी से भाग आई धोखाधड़ी करके, वो तो भले लोग थे कि कोई तमाशा नहीं किया उन्होंने। और तुम गणित के मास्टर जो चार ट्यूशन भी नहीं जुटा पाया अपने लिए। अब थक-हार के पिता की पंडिताई को ही आगे बढ़ा रहे हो न। बोगनबेलिया के कई-कई रंग वाले फूलों को एक साथ सजाने से कहीं इंद्रधनुष बनता है,उसके लिए धूप-पानी की ज़रुरत होती है। मैं और तुम खेत-मंडवे की मिट्टी और पोखर का पानी हैं जिन्हें अपने ऊपर,अपने असली रंग-रूप पर बेतरह शर्म है,इसलिए जो अपने ऊपर 'चीनी मिट्टी-रेशम पानी ' का मुलम्मा चढ़ाये रखते हैं। हमारी ज़िंदगी मेटाफ़र पर टिकी है। हम हर बीतते क्षण,बीतते पल जीवन के पुराने बीते हुए या बीतने वाले बदरंग हिस्से को किसी न किसी काल्पनिक सुंदर चीज़ से बदल देते हैं। तुम मेरे झुर्रियों वाले चेहरे को चाँद कहते हो और मैं तुम्हारी साँसों को आग की लपट। पर जानते हो चक्कूमल मैंने तुम्हें कभी नहीं बताया कि तुम्हारी सांसें कितनी ठंडी हैं और तुम कितने बुरे खर्राटे लेते हो। पता है मैं जब जब तुम्हारे रुकी एक दिन भी इन आवाज़ों की वजह से सो नहीं पाई। न ही तुम ने ही कभी कहा कि ये झुर्रियां मुझे बदसूरत बना रही हैं। "
"हम फ्रॉड हैं बेहतर हो एक-दूसरे को छोड़ दुनिया को ठगें …… ये चाँद-वाँद छोडो और असल ज़िंदगी में लौट आओ पंडित जी। "
"अच्छा !तुम्हारा लेक्चर ख़त्म हो गया हो तो सोने चलें।"
"नहीं, थक गई हूँ ,आज यहीं अपने कमरे में सोऊँगी। चलो बाय , गुड नाइट। "
"बाय। "
एक सुबह वो भाग गई, सब ले कर फ़रार, उसके सर पंडाल और होटल का खर्च और बटुए में सात हज़ार रुपये छोड़ कर। अब चाहे वो घर जाये या चीज़ों का बिल चुकाए।
3
जून के नौ तपे के बाद भी अब तक रातें अब तक लू के असर से दहक रही थीं। ऐसी ही एक गर्म और अँधेरी रात में वो पराये,अंजान शहर में भटक रहे थे,जैसे अज्ञातवास में छुपे पांडवों को ढूंढ रहे हों। रिक्शे पर बैठे नानकमल शुगर ने इधर-उधर देखा,माथे पर आया हल्का पसीना कुर्ते की बांह से पोंछा और आँखें अँधेरे में यूँ गड़ा दीं मानो समय के पार झाँक रहे हो।
रात के निविड़ अँधेरे में निस्पंदित चुप्पी कभी-कभी किसी जुगनू की चमक से स्पंदित हो उठती थी। थोड़ी देर बाद ही सही पर नानकमल शुगर की आँखें उस अँधेरे में चीज़ें देखने की अभ्यस्त हो गयीं। कुछ दूर ईंटों की एक लम्बी मीनारनुमा चिमनी के पास एक बल्ब टिमटिमा रहा था, और कहीं पास से पानी के तेज बहने की आवाज़ आ रही थी। परिवेश से परिचित होने के बाद उन्होंने एक बड़े दरवाज़े के पास रिक्शा रुकवा लिया।
"क्यों भैया तेलमील कम्पाउंड का लड़कियों का हॉस्टल ये ही है?"
"है तो ये ही, पर किससे मिलना है पंडित जी?" चौकीदार ने पूछा।
"हमाई बिटिया है यहाँ।"
"नाम?"
"कीर्ति ....... कीर्ति शुगर नाम है। ज़रा बुलवा देओ भैया। "
"पंडित जी इतनी रात में तो लड़कियों से कोई मिल नहीं सकता, सुबह मिलना अब।"
"तो अब रात में कहाँ वापस जाईं हम ?"
"कहुएं नाईं, यहीं बैठो हमाई बेंच पे। "
"अच्छा ये इतनी जोर का पानी कहाँ बह रहा है भैया?”
"ये सामने जो देख रहे हो पंडित जी ये गत्ता फैक्ट्री है, गत्ता गलाया जाता है यहाँ,सो वाई का
गन्दा,सड़ा पानी बहता रहता है। "
"काम तो इहाँ अच्छा है तुम्हारे शहर में। "
"तुम कहाँ के रहने वाए हो पंडित जी?"
"मुज़फ्फ़र नगर।”
"ह्म्म्म्म्म्म्म, तम्बाकू खाओ पंडित जी ?"
नहीं,तुम्ही खाओ, हमने तो सालों हुए छोड़ दी। "
"खायलो पंडित जी मैनपुरी की कपूरी है,अच्छे-अच्छे तरसते हैं इसके लिए। "
"अच्छा लाओ चुटकी भर खिला दो फिर। "
"एक बात बताओ पंडित जी ?"
"ये शुगर कौन पंडित होते हैं ?पहली बार सुन रहे हैं। "
"नईं भई वो तो हमाए बाप शुगर मिल में मुलाजिम थे तो गाँव-खेड़ा में शुगर के नाम के नाम से बुलाये जाने लगे। "
"अच्छा, राजेश पायलट की तरह....हीहीही। "
"सुनो क्या हम सो लें इस बेंच पर?"
"सोओ-सोओ पंडित जी हम तो वैसे भी राउंड लगाने जा रहे हैं। "
अगली सुबह का सूरज बड़ी देर से निकला या पंडित नानकमल शुगर देर तक सोते रहे। देर गए जब उठे तो पूरा हॉस्टल लड़कियों के रंग-रूप से गुलज़ार था,पर एक वो ही नदारद थी जिसे ढूंढने वो बड़ी दूर से इस देहरी पर आ खड़े थे। दिन से दोपहर हुई,और अब तो दोपहर भी साँझ में ढलने को तत्पर दीख रही थी। बैठे-बैठे पंडित जी अब ऊबने लगे थे, और यूँ भी सुबह से लेकर अब तक उनकी कई बार पड़ताल की जा चुकी थी।
वो अनमने से बैठे थे कि एक लड़की उनके सामने आ खड़ी हुई।
दोनों ने एक-दूसरे को देखा और बीच में आये समय के लम्बे आठ सालों के अंतराल को पार कर के लड़की ही पहले बोली।
"बड़े पंडित जी आप?"
"पहचान लिया बिटिया, हम तो सोचे थे कि जेन इतने सालों बाद पहचानोगी भी या नहीं। "
"कहिये, कैसे आना हुआ?"
"तुम्हारी मदद चाहिए।"
"कैसी ?"
"तुम चलो हमारे साथ वापस और चल कर पुराना काम संभाल लो। "
"तो मेरे पास क्यों आये हैं ? चक्कूमल से कहिये, वो तो पहले ही संभाल रहे थे काम को,या साध्वी के आने से ग्लैमर आ जायेगा प्रवचनों में। "
"वो कहाँ रहा अब। "
"मतलब "
"तीन साल हुए पीलिया बिगड़ गया था। बचा नहीं पाये। "
दुःख की एक छाया चेहरे पर ज़रा देर रुक कर वापस लौट गयी। पल भर में ही वो अपने रंग में लौट आयी।
"ये तो आज पहली बार देख रही हूँ बड़े पंडित जी, कि बछड़ा मर जाये तो गैया खुद मेमने को दूध पिलाने चली आये। "
वो सकपका गए।
"चल के गद्दी सम्भाल लो तुम।"
"मैं ऐसे नहीं जा सकती पंडित जी।" कुछ देर चुप रह कर वो बोली। "क्यों?"
"यहाँ मुझ पर एक केस चल रहा है। पुलिस को सत्तर हज़ार चाहिए उसे रफ़ा-दफ़ा करने को। आप इंतज़ाम कर दो तो मैं इससे फ़ारिग हो कर साथ चल लूंगी, और हाँ आगे इसके बाद जो मुनाफ़ा वो फ़िफ्टी-फ़िफ्टी।ये सत्तर हज़ार अगल है पंडित जी, ये वापस नहीं होगा।"
4
समय की चकफेरियों में जो सामान्य हो गए उन्होंने अपने लिए गंगा के तट तलाश लिए………
जो विलक्षण बचे रह गए उन्होंने अपने लिए आकाशगंगाऐं चुनी उनके उदगम-समागम के छोर ढूंढने को। फिर वो चाहे शेक्सपीयर की कोई नायिका हो,कामू का कालिगुला या दिनकर का कर्ण.......... ये बचे रहे अपने सामान्यीकरण के होने से।ये विवश रहे जीवन के बजाय समय की प्रतिच्छायाऐं जीने को। ये समय के आगे थे इसलिए इतिहास में बदल दिए गए। इन्होने प्रेम माँगा था सो पीड़ा के भागी बने। पर हमारा क्या ? जो इस सामान्य और विलक्षणता के बीच के खाने में आ पड़े। जिन्हें न ही कभी गंगा का तट ही मिला और ना ही कोई आकाश गंगा। हम शिव की तरह गरलपान को बाध्य रहे। हम साधनहीन लक्ष्य रहे, ऐसे पड़ाव रहे रहे जिन्होंने बीच रेगिस्तान में लोगों को सुस्ताने के लिए छाँव तो दी पर कभी नख्लिस्तान बनने की हिम्मत नहीं जुटा पाये।
डायरी लिखते-लिखते जाने कब उसकी आँख लग गयी। आजकल उस पर ऐसी थकान बड़ी तारी रहती थी। उठते-बैठते,चलते-फिरते उसे ऐसा लगता था मानो शरीर की सारी ताक़त किसी अंजाने-अदृश्य रास्ते से बाहर जा रही हो। देर गए जब वो जागी तो देखा सामने एक नौजवान बैठा हुआ है।
"आ गए तुम,समय के बड़े पाबन्द हो। "
"जी शुक्रिया। बुख़ार कैसा है अब आपका ?"
"अब तो ठीक है काफ़ी। बुख़ार की वज़ह से तुम्हारा काम काफ़ी डिले हो गया न। वैसे क्या
करोगे मेरा इंटरव्यू छाप कर?,एक सलाह मानो छोड़ दो ये आईडिया, पचड़े में फंस जाओगे। "
" क्या नहीं पता लगना चाहिए लोगों को आपके बारे में ? कब तक गुमनाम रहेंगी।"
"किसी झंझट में मत फंसा देना मुझे ये सब छाप के। "
“निश्चिन्त रहिए।”
"फिर क्या हुआ?”
"किसमें ?"
"आपकी जीवन यात्रा में। "
"बस यात्रा थी,अब समाप्ति की ओर पहुँच रही है। अगले अक्टूबर में बासठ की हो जाऊँगी।
समय है बीत ही जाता है। "
"फिर भी बताइये तो।"
"पंडित जी आये वापस?"
"हाँ पंद्रह दिन बाद नानकमल वापस आए सत्तर हज़ार ले कर और मुझे साथ ले गए। आश्रम भी अब पहले जैसा नहीं रह गया था। हालांकि पुराना पक्का हिस्सा अब तक काफी कुछ वैसा ही था,जिसमें कहीं-कहीं खुली जगहों को बांस और कनातों से ढंक कर छोटे पंडाल जैसे रूप में बदल दिया गया था।"
"फिर?"
"आश्रम वापस जा कर कई महीनों तक गीता के पाठ सुनाया करती थी मैं। भीड़ तो जुट रही थी पर उतनी नहीं जो नानकमल को संतुष्टि दे सके। फिर एक दिन वो एक नए आईडिया के साथ आ "यही कि मुझे गीता पाठ की आवृत्तियाँ छोड़ कर आने वाली औरतों को होमसाइंस टाइप के लेक्चर देने चाहिए मसलन शादी सम्बंधि, पति को खुश रखने सम्बंधि,सेक्स सम्बंधि।कई बार मुझे यूँ भी लगता था कि चक्कूमल के इलाज में जान बूझकर ढीलाई बरती गई होगी, पर मैंने कभी जांच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं की।
"पैसा!! यूँ भी उसके होने न होने से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था,और फिर आश्रम में कोई तक़लीफ़ भी नहीं थी। मज़े से गुज़र रही थी ज़िंदगी। और वो कोई ट्रैप नहीं था जहाँ मुझे
छटपटाहट होती। मैंने खुद चुना था वहाँ रहना,पहले भी जब छुटमलपुर से आई थी तब भी रही थी उसी आश्रम में चक्कूमल के साथ। "
"छुटमलपुर?"
"हाँ सहारनपुर के पास एक छोटा सा गाँव था तब तो। चक्कूमल की ननिहाल थी वहाँ।"
"और आप?"
"मैंने शादी की थी वहाँ। पर जाने कैसे पता लग गया उन्हें की ये धोखा-धड़ी की शादी है। वहीँ पहली बार चक्कूमल से मिलना हुआ, तब तक तो उसे भी नहीं मालूम था कि सब माजरा क्या है।फिर एक दिन में उसके संग चली आई।"
"कुल कितने समय आप आश्रम में रहीं?"
"सत्रह साल। पहले तीन और दूसरी बार लगभग चौदह साल। "
"तो आप लौट क्यों आयीं वापस?"
"पहले जब आई थी तो बंधन से आज़ादी चाहिए थी और दूसरी बार घृणा, ग्लानि। ये ग्लानि, जुगुप्सा, घृणा कभी भी घेर सकते हैं आपको। जब नानकमल आश्रम के महंत बने तो तो थोड़ी निराशा हुई थी मुझे, काश मैं बन पाती।पॉवर का बड़ा चार्म लग रहा था। पर बाद में जब सोचा तो लगा अच्छा ही हुआ जो नहीं बनी। आश्रम के महंत को बाद में समाधि लेनी पड़ती है।
जब वो भी नहीं रहे तो इस पूरे खेल,पूरी प्रक्रिया की प्रति जाने क्यों मन में एक जुगुप्सा का भाव पैदा हो गया। और यूँ भी ये गॉडमैन से गॉड बनने का खेल बड़ा यंत्रणापूर्ण होता है। वो हिम्मत नहीं बची थी।"
"और यहाँ?”
"यहाँ तो अभी तीन साल की नौकरी और बची है,फिर ये हॉस्टल भी है। आड़े वक़्त बड़ा काम आता रहा है ये हॉस्टल मेरे। "
'अच्छा चलूँ मैं अब।"
"हाँ,भई जाओ। अच्छा-अच्छा लिखना,छापना सब। जब छप जाए तो पढ़वाना भी मुझे, वर्ना इतनी बार यहाँ आने का क्या फायदा।"
"जी ज़रूर।"
"अच्छा सुनो जाते हुए पर्दा गिरा जाना, और हाँ ज़रा वहाँ टेबल से चारमिस भी पकड़ा देना। "
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Anagh Sharma
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