Friday, January 30, 2015

अनिल करमेले की कवितायें


अनिल करमेले  न केवल कवितायें लिखते हैं बल्कि अच्छी कविताओं के पारखी भी हैं!  वे अपने समूह 'दस्तक' और फेसबुक पर अक्सर ढूंढ-ढूंढकर अच्छी कवितायें साझा करते रहते हैं!  कुछ समय साहित्य से दूर रहने के बाद उनकी वापसी उनकी अनुकरणीय सक्रियता और अच्छी कविताओं के साथ हुई!  अनिल करमेले की कवितायें एक जागरूक कवि की चिंताओं का ताना-बाना है जो विसंगतियों से उपजी अपनी बेचैनी को व्यक्त करते समय कवि मन की सारी कोमलता को खोल में साबुत बचे बीज की भांति बचाये रखने में सफल रहता है!  यही वजह है कि ये कवितायें जहाँ एक ओर अपने समय की जटिलता को आइना दिखाती हैं वहीं चेताती भी हैं कि यह धरती के आराम करने का समय है……




(1)
 बाकी बचे कुछ लोग 


सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका

कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा

वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख

वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें

वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है

वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है

वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है

वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं

अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है

बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं.


(2)
मुझे तो आना ही था 

(अजन्मी बेटियों के लिए)


मैंने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और मेरे रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था

भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
मैं नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में थी
मगर माँ की पीली पड़ गई आँखों में
अँधेरा भर गया था

मैंने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
मैं जानती थी पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
मगर मुझे तो आना ही था

मैं सुन रही हूं माँ की कातर कराह
और देख रही हूं कोने में खड़े उस आदमी को
जो मेरा पिता कहलाता है

उसे देखकर लगता है
जैसे वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है

मैं जानती हूँ इस आदमी को
इसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ ओंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
बस अपने तुच्छ लाभ के फेर में
चालाकी चापलूसी और मक्कारियों में उलझा रहा

यह उसके लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे पौरुष का सवाल है
जो सदियों से इनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा

उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी.




(3)

यह धरती के आराम करने का समय है

(एक)

कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूँ
जैसे नवजात शिशु के रूदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत
आश्चर्य के साथ थम गए हैं

मेरी देह का संतुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश में अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है

मैं चाहता हूँ इस वक़्त
दुनिया के सारे काम रोक दिए जाएँ
यह धरती के आराम करने का समय है

न जाने कितनी जन्मों की
प्रतीक्षा के बाद
अनंत कालों को लाँघता हुआ
मुझ तक पहुँचा है यह
मैं इसके शब्दों को
छू कर महसूस करना चाहता हूँ

(दो)

तीनों लोकों में फैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान परेशान
दांतो में उंगली दबाए भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर

कि जब संग संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरूष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड़कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे संभव हुआ एक स्त्री के लिए
इस पृथ्वी पर प्रेम

(तीन)

एक अफवाह है जो फैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अंगारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्रवाई
बनने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार

एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम

वे मेरे प्रेमपत्र पढ़ने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाहते हैं।


(4)

वह समय


यह वो समय था
जब निकलता था सूरज पूरब से और उसकी आँख में
डूब जाता था

हवाएँ बताती नहीं थीं
मगर आती रही होंगी उसी को छू कर
और इधर
उतर आता था वसंत

घड़ियाँ हार जाती थीं
समय बता-बता कर

जिनसे पहुँचा जा सकता था
अपने-अपने घर
रास्‍ते वे रूठ जाते थे
अंधेरे में

ठीक उसी समय
स्‍ट्रीट लाइट जलाने वाला
ले रहा होता था
अपनी प्रेयसी का आखिरी चुंबन

यह वो समय था
जब नींद
उसकी गली में चहलकदमी करती थी
और वह
किताबों दरो-दीवारों
रोटियों में

उस समय पिता हिटलर लगते थे
माँ पृथ्‍वी पर उपस्थित माँओं की तरह
बहन थी सबसे विश्‍वस्‍त मित्र

उस समय कुछ ही मित्र
मुगले आज़म के सलीम थे
बाकी हो गए थे श्रवण कुमार

यह वो समय था
जब लगती थी दुनिया
बेहद खूबसूरत
और हर आदमी को चाहने को
जी चाहता था.


(6)

मैं इस ‍तरह ‍रहूँ


मैं इस तरह  रहूँ
जैसे बची रहती है
आख़िरी उम्मीद 

मैं स्वाद की तरह रहूँ
लोगों की यादों में
रहूँ ज़रूरत बनकर
नमक की तरह 

अग्नि की तरह जला सकूँ
क्रोध
उठा सकूँ भार पृथ्वी की तरह
पानी की तरह
मिल जाऊँ घुल जाऊँ
दुखों के बाद हो सकूँ
सावन का आकाश 

लगा सकूँ ठहाका
सब की खुशी
और अपनी उदासी में भी 
रो सकूँ दूसरों के दुखों में
ज़ार-ज़ार 

मैं इस तरह रहूँ
कि मेरे रहने का अर्थ रहे 

मैं गर्भ की तरह रहूँ
और रहे पूरी दुनिया
मेरे आसपास माँ की तरह.





(7)

कस्‍बे की माधुरी 

सितंबर की तेज़ धूप में
सुबह के साढ़े ग्‍यारह बज रहे थे
वह दाखिल हुई सहमती हुई
पूरा चेहरा ढँका था स्‍कार्फ से
बस झाँक रही थीं दो गोल गोल आँखें

यह जिला मुख्‍यालय का एक होटल था
रेस्‍टॉरेंट और रहने की व्‍यवस्‍था वाला
झुकी-झुकी आँखों से
इधर उधर हिरनी की तरह देखती वह
पहली मंजिल पर थी रेस्‍टॉरेंट में
अपने प्रेमी के साथ

टेबल पर आमने-सामने बैठने का चलन
इन दिनों गायब था शहरों में
यह उसे पता नहीं था शायद
फिर भी वह बैठी थी
बीस बरस के लड़के के साथ सटकर

किसी बंद मगर औरों की उपस्थिति वाली जगह में
यह उसकी पहली आमद थी

लड़के की आँखों में वैसी ही चमक थी
जैसे शिकार को देखकर सॉंप की आँखों में होती है
और लड़की की आँखें चौंधिया गई थीं

सितंबर की तेज़ धूप में बारह बज रहे थे
जब वे दाखिए हुए होटल के कमरे में

रेस्‍टॉरेंट के आधे घंटे में
कितनी ही फिल्‍मों के चित्र
कोलाज़ की शक्‍ल में चलते रहे लड़की के दिमाग़ में
दिल की बढ़ी हुई धड़कनों के बीच
भरोसा उम्‍मीद और हौसले की
कितनी ही लहरें उठती-गिरती रहीं दोनों के दिमाग़ में
मगर लड़के के दृश्‍य में बार-बार
स्थिर हो जाती माधुरी की खुली पीठ
जहाँ एक रंगीन डोरी की डेढ़ गठान खुलने को थी आतुर

आखिर समय के हौसले के पंजे में दबी
वह कमरे में थी भरभरा कर गिरती हुई दीवार की तरह
अपने उम्र जितनी होटल की सत्रह सीढ़ियाँ
चढ़ पायी थी वह कितनी मुश्किल या आसानी से
कहना मुश्किल है

ग्‍लोबल बाज़ार की चिकनी सतह पर
चमड़ी के दलालों की भीड़ में
उसके कदम लड़खड़ाए होंगे
चेहरे से लगता तो नहीं।

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परिचय
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अनिल करमेले
मूलत: कवि.

जन्म :
2 मार्च 1965 को छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश में.

प्रकाशन : 
सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं- पहल, हंस, ज्ञानोदय, वागार्थ, वसुधा, कथादेश, जनसत्ता, शुक्रवार, पब्लिक एजेंडा, दैनिक हिन्दुस्तान, नई दुनिया, लोकमत समाचार, भास्कर आदि में कविताएँ, लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित.

"ईश्वर के नाम पर" कविता की पहली किताब प्रकाशित.

पुरस्कार :
कविता संग्रह "ईश्वर के नाम पर" के लिए मध्यप्रदेश का दुष्यंत कुमार पुरस्कार.

संप्रति :
भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अंतर्गत महलेखाकार लेखापरीक्षा कार्यालय ग्वालियर में सेवारत.

संपर्क :
58, हनुमान नगर, जाट खेड़ी, होशंगाबाद रोड,
भोपाल - 462026

मोबाइल : 09425675622

बाज-कथा : फेसबुक से

खास चालीस पार वालों या वालियों के लिए....मदनमोहन कांडवाल जी की वाल से....


 बाज लगभग ७० वर्ष जीता है,
परन्तु अपने
जीवन के ४०वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं-
पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है व
शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
पंख भारी हो जाते हैं,
और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते
हैं।
भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे,
या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह
त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे...
या फिर स्वयं को पुनर्स्थापित करे,
आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।
जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं,
वहीं तीसरा अत्यन्त
पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है।
वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,
एकान्त में अपना घोंसला बनाता है, और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..
अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के
लिये। तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने
की।
नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
१५० दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा...
और तब उसे
मिलती है वही भव्य और
ऊँची उड़ान, पहले
जैसी नयी।
इस पुनर्स्थापना के बाद वह ३० साल और जीता है,
ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।
प्रकृति हमें सिखाने बैठी है-
पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की, और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं।
इच्छा परिस्थितियों पर
नियन्त्रण बनाये रखने की,
सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की,
कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने
की।
इच्छा, सक्रियता और कल्पना,
तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं,
हममें भी, चालीस तक आते आते।
हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने
लगता है, अर्धजीवन में
ही जीवन समाप्तप्राय सा लगने लगता है,
उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं-
कुछ सरल और त्वरित,
कुछ पीड़ादायी।
हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे
अति लचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र
मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित
सक्रियता दिखानी होगी-बाज की चोंच की तरह।
हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के
भारीपन को त्याग कर
कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने
भरनी होंगी-बाज के
पंखों की तरह।
१५० दिन न सही, तो एक माह
ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में। जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,
बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे, इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी।
हर दिन कुछ चिंतन किया जाए और आप ही वो व्यक्ति हे जो खुद को दूसरो से बेहतर जानते हैं।

Thursday, January 29, 2015

मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी - 3

पिछले कुछ  दिनों से हम लोग जगमोहन साहनी जी के सौजन्य से पुराने फ़िल्मी रोचक किस्से पढ़ रहे हैं!  इन किस्सों में उनकी दिलचस्पी उन्हें और बहुत से पाठकों को जोड़ती है!  इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं!  ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!   आज पढ़िए सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के जीवन से जुड़ा ऐसा ही एक किस्सा …… 







जब अमिताभ बच्चन फिल्म 'कुली' के सेट पर घायल हुए तो तकरीबन लोग यही सोचते थे कि जब शूटिंग के दौरान पुनीत इस्सर का घूंसा अमिताभ के पेट में लगा होगा तभी वह घायल हो गए थे परंतु ऐसा नहीं है! सच्चाई यह थी कि शूटिंग हो रही थी बंगलौर में जहां ट्रेन के ऊपर अमिताभ को कुछ स्टंट सीन देेने थे!  वे सीन आसानी से शूट कर लिए गए!   अब आई सिंपल फाईट की बारी,  जहां पुनीत को अमिताभ बच्चन के पेट में मुक्का मारना था और अमिताभ बच्चन को टेबल पर गिरना था!   पहला घूंसा मिस टाईम हुआ,  दूसरे घूंसे में अमिताभ को टेबल पर गिरना था,  जो कि वह टेबल पर ना गिरकर, टेबल के कोने से टकरा गए जिसके कारण उनके पेट में चोट लग गई!

उन्हें थोड़ा दर्द हुआ मगर शॉट ओके हो गया!  तब अमिताभ भी ठीक थे पर उन्हें पेट में दर्द की टीसें  उठ रही थीं!  धीरे धीरे दर्द बढा तो अमिताभ ने मनमोहन देसाई से होटल जाने की इजाजत मांगी!  जैसे तैसे वह होटल पहुंचे वहां अभिषेक व जया भी थे!  उन्होंने जया से कहा कि वह जल्द ही मुंबई से अपने डॉक्टर को बुलवा लें!  पूरी रात अमिताभ पेन किलर दवाई लेते रहे!  सुबह डॉक्टर के आते ही उन्हें बंगलौर के फिलोनीना हॉस्पीटल में दाखिल कराया गया, जहां धीरे धीरे अमिताभ कोमा मे जाने लगे!  हॉस्पीटल उतना अच्छा नहीं था इसलिए अमिताभ को जल्द से जल्द मुंबई ले जाने की प्लानिंग की जाने लगी!  डाक्टरों ने अमिताभ के परिवार वालों को यह कह दिया था कि किसी भी तरह अमिताभ को सोने मत देना इन्हें जगाए रखना!  अगर अमिताभ सो गए तो इनकी जान को खतरा है!  अमिताभ की किस्मत अच्छी थी कि उस हॉस्पीटल मे एक बहुत बडे सर्जन का आना हुआ!  वह किसी दूसरे मरीज का आपरेशन करने आए थे!  जब जया को इस बात का पता चला तो वह फौरन उनसे मिलने भागी और उनसे रिक्वेस्ट की मेरे पति को एक बार देख ले!  सर्जन ने अमिताभ को चैक करने के बाद बोले इन्हें फौरन आपरेशन टेबल पर ले चलो!  उसी समय अमिताभ का आपरेशन हुआ तब पहली बार पता चला कि अमिताभ की आँतों में बहुत बडी चोट आई है,  अंदर खून जमा हो गया है और वह जहर बन गया है!  आपरेशन के बाद डॉक्टर ने अमिताभ को मुंबई जाने की इजाजत तो दे दी और साथ ही यह भी कहा कि मुंबई में इनका दुबारा आपरेशन होगा!  अमिताभ को मुंबई ले जाने के लिए इंडियन एयरलाइंस के स्पेशल विमान का इंतजाम किया गया!   हवाई जहाज में तमाम फैसिलिटी मौजूद थी!   एक छोटा सा आई सी यू भी बनाया गया!  बारिश के मौसम के बावजूद यह कोशिश की गई कि विमान की लैंडिंग समूथ हो!  

अमिताभ को ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल ले जाया गया! अमिताभ को बंगलौर से मुम्बई लाने और साथ ही बंगलौर में उनके इलाज में यश जौहर ने बहुत साथ दिया !  हादसे के 5 दिन बाद अमिताभ की दोबारा सर्जरी हुई  लेकिन इस आपरेशन के बाद डॉक्टर उदवादिया और उनकी टीम अमिताभ को होश में नहीं ला पाई!  जब अमिताभ को घंटों होश नहीं आया तो अमिताभ का ब्लड प्रेशर और पल्स जीरो हो गई थी!  ऐसे में डॉक्टर उदवादिया ने एक आखिरी कोशिश की!   उन्होंने थोड़ी-थोड़ी देर के बाद चालीस ओटोजाॅन एमपूयज के इंजेक्शन अमिताभ की बाॅडी मे दे दिए!   उनका ऐसा करने से कुछ साईड इफेक्ट भी हो सकते थे लेकिन उस समय डॉक्टर उदवादिया के पास और कोई चारा नहीं था!  लाखों-करोड़ों अमिताभ के दीवाने उनके लिए दुआ मांग रहे थे! दुआएं कबूल हुई!   अमिताभ का भाग्य और डाक्टर उदवादिया की कोशिश रंग लाई और अमिताभ के पैर की ऊँगली में थोडी हरकत हुई!  अमिताभ की पूरी बाॅडी रिसपोंड करने लगी!  यह 2 अगस्त 1982 का दिन था और इसी दिन अमिताभ बच्चन का दूसरा जन्म हुआ था!

तो दोस्तो दो घंटे  की मेहनत के बाद यह पोस्ट लिखी है बस इंतजार है आपकी राय का भूलिएगा नहीं!


(सौजन्य 92.7 बिग एफ.एम. सुहाना सफर विद अन्नू कपूर)
 

प्रस्तुति:- जगमोहन साहनी
मजनूं का टीला


कुछ अन्य किस्से आप यहाँ पढ़ सकते हैं :

http://swayamsiddhaa.blogspot.in/2015/01/2.html

http://swayamsiddhaa.blogspot.in/2015/01/92.html

Friday, January 23, 2015

पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए - तारा गांधी भट्टाचार्य



आज गोडसे को  राष्ट्रभक्त मान  महिमामंडित करने की ख़बरें हवा में विषैली गैसों की तरह घुल रही हैं!  30 जनवरी अब ज्यादा दूर नहीं है!  इतिहास  के काले पन्नों में दर्ज यह तारीख,  आने वाले दिनों में और प्रासंगिक होने जा रही है!   एक महात्मा के बरक्स एक हत्यारे को स्थापित  करने की  कवायदें अब दबी-ढकी नहीं हैं!  आप गांधीवादी नहीं भी हैं तो भी गांधी और गोडसे में से किसी एक को चुनने के इस दौर में  गांधी जी की पौत्री तारा गांधी भट्टाचार्य का यह लेख पढ़े जाने की मांग करता है जो कुछ दिन पहले ही नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था ……  






गांधीजी की हत्या जिस पिस्तौल से हुई, वह एक इतालवी शहर में खरीदी गई थी
वह मनोरम शहर आज भी शर्मिंदा है
---तारा गांधी भट्टाचार्य

गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। उसे व्यवहार में उतारने के लिए आज पिस्तौल नहीं, झाड़ू उठाने का साहस जुटाना होगा।






पिछले दिनों एक पत्रकार भाई ने फोन करके पूछा कि आज गोडसे को राष्ट्रभक्त मानकर उसके नाम से देश में मंदिर बनाया जा रहा है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? संयोग से उन्हीं दिनों मैं कुछ साल पहले की एक घटना पर लिखने को लेकर उधेड़बुन में थी। इस फोन ने मुझे लिखने को विवश कर दिया। कुछ साल पहले इटली में सत्य और अहिंसा पर एक सभा के लिए मुझे निमंत्रण मिला था। इटली के बीचोंबीच, राजधानी रोम से लगभग 300 किलोमीटर दूर सुंदर, हरियाली से भरे एक छोटे और ऐतिहासिक शहर में वह कार्यक्रम आयोजित था। वहां मेरा जबर्दस्त स्वागत हुआ। पर वातावरण में मुझे कुछ अजीब सा अहसास भी हुआ।

चारों ओर लोग मेरे सामने सिर झुकाए खड़े थे। विचित्र सन्नाटा था। एक सज्जन ने माइक के सामने आकर सब लोगों की ओर से मुझे संबोधित करते हुए धीमी पर शिष्ट आवाज़ में कहा, 'आप अवश्य ही विस्मित हो रहीं होंगी कि आज इस तरह मौन में आपका स्वागत हो रहा है! हम यहां क्षमाप्रार्थी के रूप में आए हैं।' मैं चकित हुई। फिर उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा- ' दशकों पहले की दास्तान है जिसके बारे में हम आपको पत्र में नहीं लिखना चाहते थे। आज हम आपसे माफी मांगते हुए हिंसा का वह चक्र समाप्त करते हैं, जिसके लिए इस छोटे शहर के दो नौजवान जिम्मेदार थे। .... जिस पिस्तौल से गांधी की हत्या हुई, उसकी यात्रा यहीं से आरंभ हुई थी।'

 मैं अवाक रह गई। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे एक कहानी सुनाई गई।

सन् 1944-45 की बात है। दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था। इटली के इस शहर के दो लड़के पढ़ाई छोड़कर मौज-मस्ती में रहना चाहते थे। वे कभी-कभार कुछ बेचकर किसी तरह गुजारा कर लेते थे। एक दिन एक रूसी सिपाही से उन्हें एक पिस्तौल मिली। इन नवयुवकों ने सोचा कि बिना लाइसेंस वाली इस पिस्तौल को बेचकर कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे। पर उसे बेचना आसान नहीं था। उन्होंने उसे बेचने के लिए कई तरह के प्रयास किए, अंग्रेजी तक सीखी, पर सफलता नहीं मिली। काफी दिनों बाद उन्हें अचानक एक हिंदुस्तानी मिला, जिसने इस पिस्तौल में बहुत दिलचस्पी दिखाई।

उनके गांव की नदी के ऊपर एक छोटा पुल था जिसे 'शैतान का पुल' कहते थे। उसी के ऊपर एक छोटे कमरे में पिस्तौल का सौदा हुआ। पैसे पाकर नवयुवक खुश हुए। एक दिन के खाने का इंतजाम हो गया। एक बोतल शराब और कुछ कपड़े-कंबल भी उससे मिल गए। दोनों लड़कों ने नादानी में ही पिस्तौल बेची थी। कुछ सालों बाद सन् 1948 में इंटरपोल की अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी उस पिस्तौल का इतिहास टटोलने लगी, जिससे गांधी की हत्या हुई थी। कई देशों में पूछताछ के बाद इंटरपोल के लोग पिस्तौल की जड़ तक इसी शहर में पहुंचे। ...तो इस शहर से निकलकर कहां-कहां से घूमती हुई हुई यह दिल्ली स्थित गांधी स्मृति (पुराना नाम बिड़ला हाउस) पहुंची, जहां गांधी ने सत्य और अहिंसा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।




 रोंगटे खड़े कर देने वाली यह दास्तान सुनकर मैंने उन सज्जन से पूछा, 'आपको यह सब जानकारी कब मिली?' उन्होंने कहा, 'यह भी एक अजीब कहानी है। एक सनकी, पागल से वृद्ध ने नदी के किनारे एक पत्रकार को अपनी और अपने एक दोस्त की साझा जिंदगी के बारे में बताया। बिना लाइसेंस की पिस्तौल बेचने वाले दोनों दोस्तों ने डर के मारे न पढ़ाई की और न ही कोई नौकरी। दोनों अपराधबोध में जिदंगी काटने लगे। वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते एक की मृत्यु हो गई और दूसरा पागल सा हो गया।' मैं अवाक थी। क्रोध, भय, दुःख, सब कुछ से अलग एक विचित्र सी अनुभूति मुझे हो रही थी। उस शहर के निवासियों की संवेदनशीलता और क्षमाशीलता को शब्दों में कैसे बयान करूं, समझ में नहीं आता।


दिल्ली आकर जब मैं गांधी स्मृति के अपने कार्यालय में गई तब वह कहानी मेरे दिलोदिमाग पर छाई हुई थी। ऑफिस के कोने की एक खिड़की से गांधी की शहादत का स्तंभ दिखाई देता था। उसे कुछ देर देखती रही। पिस्तौल की यात्रा के बारे में सोचती रही। इटली के मेरे मेजबानों की क्षमायाचना का दृश्य मन में था। सोचती रही कि धातु से पिस्तौल बनकर एक लंबी यात्रा के बाद, वह जानलेवा चीज कितने हाथों और स्थानों से गुजरती हुए दिल्ली के बिड़ला हाउस पहुंची थी। उसी से संत की हत्या हुई। लेकिन सत्य और अहिंसा के मूल्य विश्व भर में पुनर्जीवित हो गए।

गांधी की हत्या के लिए उन दो लड़कों को कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। उनका अपराध बस इतना था कि उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ी और बिना लाइसेंस के पिस्तौल खरीदी-बेची। इसके कारण उनका सारा जीवन प्रायश्चित में ही रह गया। जिन नागरिकों का इस सारे वृत्तांत से कोई सरोकार नहीं था, वे 60 वर्ष पहले हुई इस घटना के लिए क्षमाप्रार्थी हुए। गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। आज उसे व्यवहार में उतारने के लिए पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए। जहां तक पिस्तौल का सवाल है वह जिस धातु से बनती है उसी से हमारी चेतना को जगाने वाली घंटी भी बनती है। आवश्यकता है प्रदूषणविहीन पर्यावरण और हिंसाविहीन मानस की।

--- तारा गांधी भट्टाचार्य

(साभार : नवभारत टाइम्स)

Thursday, January 22, 2015

सरोज सिंह की कवितायें

Tuesday, January 20, 2015

मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी - 2


 जगमोहन साहनी फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं!  वे दिल्ली में रहते हैं और व्यवसाय करते हैं!  फ़िल्मी दुनिया और संगीत के दीवाने हैं!  संभव है रेडियो पर फरमाइशी  गीतों के कार्यक्रम में आपने कई बार सुना  हो "…और मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी"!    पुराने फ़िल्मी रोचक  किस्सों में उनकी दिलचस्पी उन्हें और बहुत से पाठकों को जोड़ती है!  इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं!  ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!  ऐसे ही कुछ किस्से स्वयंसिद्धा पर भी लगाने जा रही हूँ!  पढ़िए और जानिए फ़िल्मी दुनिया के छोटे-छोटे, छुपे-जाहिर किस्से!  आज का किस्सा ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी  के जीवन से जुड़ा है.……




ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी की आखिरी ट्रेजेडी

1972 में मीना कुमारी की हालत बहुत ही खराब हो चुकी थी!  ज्यादा शराब पीने की आदत से मीना कुमारी जी का लीवर खराब हो चुका था!  उनका इलाज घर पर ही डा.शाह की देखरेख में चल रहा था!  डॉ शाह उन्हें रोज घर पर देखने आते थे!  हाथ- पैरो में सूजन की वजह से वह बैड से उठ भी नहीं पाती थी!  दिनों-दिन उनकी हालत खराब होती जा रही थी उनकी यह हालत देखकर डॉ शाह ने उन्हें हास्पिटल में  दाखिल करने की सलाह दी!  डा. शाह की बात मानते हुए मीना कुमारी की दोनों बहनों ने उन्हें हॉस्पिटल ले जाने का इंतजाम शुरू कर दिया!  




मीना कुमारी को अंदेशा था कि हॉस्पिटल के खर्चे के लिए घर मे पैसे नहीं होंगे!  उन्होंने अपनी बड़ी बहन खुर्शीद से पूछा कि "कुछ बचा है?"   खुर्शीद बोली,  "सिर्फ सौ रुपए है!"   बहन ने कहा कि कमाल अमरोही से पैसे ले लेते हैं!  इस पर मीना कुमारी ने साफ मना कर दिया और बोलीं,  "निर्माता निर्देशक प्रेम जी को फोन करो!  मैंने  उनकी एक फिल्म में काम किया था!  उसका कुछ पैसा बकाया है!"   रकम तकरीबन दस हजार रुपये थी! जो प्रेम जी तुरंत लौटा दिए!  मीना कुमारी  को अंदेशा था कि वह अब हॉस्पिटल से लौटेगी नहीं  इसलिए हॉस्पिटल जाने से पहले उन्होंने सबको अलविदा कहा और अपने मालाबार हिल के घर से निकल पड़ी एलिजाबेथ नर्सिग होम में भर्ती होने के लिए!


काफी मुश्किलें, दर्द और तकलीफों के बाद 31 मार्च सन 1972 को मीना कुमारी इस दुनिया से रुखसत हो गई! उनके आखिरी समय में उनकी दोनों बहनों खुर्शीद, मधु  के अलावा उनके पति कमाल अमरोही, गुलजार, नादिरा, सायरा बानो, श्यामा मौजूद थीं!  नर्सिग होम में ही कमाल अमरोही और मीना कुमारी की बहनों में  बहस छिड गई कि उन्हें कहाँ दफनाया जाए!  बहनें  कहने लगी कि मीना कुमारी को बांद्रा के सुन्नी कब्रिस्तान मे दफनाया जाए जहाँ उनके मां-बाबूजी को दफनाया गया था!  इधर कमाल अमरोही कह रहे थे कि मीना कुमारी ने मुझसे कहा था कि उन्हें अमरोहा में दफनाया जाए! 


और असली ड्रामा तो तब हुआ जब नर्सिग होम वालों ने डेडबाडी देने से इनकार कर दिया!  क्यों?  क्योंकि उनका तीन हजार पांच सौ रुपये का बिल बकाया था! मीना कुमारी की बायोग्राफी में इस घटना का जिक्र करते हुए राइटर ने लिखा है कि  अचरज की बात यह है कि इतने सारे लोग मौजूद होने के बावजूद किसी ने इस बिल को देने की जहमत नहीं उठाई!  बाद में मीना कुमारी जी का इलाज कर रहे डॉक्टर शाह ने अपनी पत्नी को फोन किया और कहा कि आप फौरन रकम लेकर यहां पहुंचो!  तब जाकर मीना कुमारी  का पार्थिव शरीर नर्सिंग  होम से घर लाया गया और आखिरी रस्मों  को पूरा कर, ना तो बांद्रा के कब्रिस्तान और ना ही अमरोहा बल्कि इस महान अदाकारा को मुंबई के मडगांव के रहमत बाग के शिया कब्रिस्तान मे दफनाया गया !

 
"तुम क्या करोगे सुन कर मेरी कहानी,  बेनूर जिदंगी के किस्से है फीके फीके!"
 

तो दोस्तों यह थी महान अदाकारा मीना कुमारी जी आखिरी दिनों की मार्मिक कहानी, आपको कैसी लगी अपनी राय देना ना भूलना---


(सौजन्य :- 92.7 बिग F.M. सुहाना सफर विद अन्नू कपूर ) 

---जगमोहन साहनी 
मजनूं का टीला 


(चित्र सौजन्य : जगमोहन साहनी)

Monday, January 19, 2015

मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी -1

 जगमोहन साहनी फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं!  वे दिल्ली में रहते हैं और व्यवसाय करते हैं!  फ़िल्मी दुनिया और संगीत के दीवाने हैं!  संभव है रेडियो पर फरमाइशी  गीतों के कार्यक्रम में आपने कई बार सुना  हो "…और मजनूं का टीला से जगमोहन साहनी"!    पुराने फ़िल्मी रोचक  किस्सों में उनकी दिलचस्पी उन्हें और बहुत से पाठकों को जोड़ती है!  इन दिनों साहनी जी 92.7 बिग ऍफ़ एम (कार्यक्रम : सुहाना सफर विद अन्नू कपूर) पर सुनाये जाने वाले किस्सों- कहानियों को फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं!  ऍफ़ एम से नोट कर उन्हें टाइप करने और फिर पोस्ट से सम्बंधित तस्वीरें ढूंढकर लगाने में कितना भी वक़्त लगे पर जगमोहन जी ये रोचक तथ्य परोसने में खासी ख़ुशी महसूस करते हैं!  ऐसे ही कुछ किस्से स्वयंसिद्धा पर भी लगाने जा रही हूँ!  पढ़िए और जानिए फ़िल्मी दुनिया के छोटे-छोटे, छुपे-जाहिर किस्से……








आज बात एक ऐसे संगीतकार की जिनकी धुनों ने हमें दीवाना बनाया!  जिनके गीत शौहरत की बुलंदियों पर रहे लेकिन उनकी जिंदगी मुफ़लिसी व फकीरी में  गुजरी!  जी,  मै बात कर रहा हूं म्यूजिक डायरेक्टर जयदेव जी की, जिन्होंने संगीत को सिर्फ साधना समझा और बड़ी ही खामोशी के साथ अपना काम करते हुए बिना पब्लिसिटी, बिना विवाद, बिना पैसों का लालच दिखाए अपना काम करते रहे!  इन्होंने कभी शादी नहीं की और ना ही बहुत पैसे कमाए!  जो मिला रख लिया,  नहीं मिला जाने दिया!  यही वजह थी कि वह अपना मकान नहीं खरीद पाए और सारी जिंदगी किराए के मकान में गुजार दी!  घर  में ऐशोआराम का कोई समान नहीं था!  थोड़े  से बर्तन, बिस्तर, चूल्हा-चौका!  वह पानी भी मिट्टी के बर्तन में पीते थे और फर्श पर ही चटाई बिछा कर सो जाया करते थे!  जयदेव जी ने पूरी जिंदगी फकीरों जैसी गुजार दी थी!






 38 फिल्मों में लाजवाब संगीत देने वाले जयदेव पहले ऐसे संगीतकार थे जिन्हें तीन नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया!  1972 में फिल्म" रेशमा और शेरा",  1979 में  फिल्म "गमन" के लिए और  1985 में  फिल्म "अनकही" के लिए!   इनकी प्रमुख फिल्मों में "हम दोनों" "मुझे जीने दो" "किनारे किनारे" इत्यादि रहीं!  हरिवंशराय बच्चन की 'मधुशाला' जो कि मन्ना डे ने गाई उसका संगीत भी जयदेव जी ने दिया था ! 6 जनवरी 1987 को यह महान कलाकार जब इस दुनिया से विदा हुआ तो संपति के नाम पर कुछ रोजमर्रा की चीजों के अलावा एक हारमोनियम मिला जिस पर जयदेव जी अनमोल संगीत रचा करते थे!  इस गरीबी के बाद भी उनके जानने वाले बताते हैं कि जयदेव जी के चेहरे पर कभी कोई शिकन कोई परेशानी नहीं देखी! वह हमेशा बहुत शांत रहा करते थे! उन्होंनें कभी पैसों का मोह नहीं किया! 
 

हमारी तरफ से जयदेव जी को भावभीनी श्रद्धांजलि 

(सौजन्य 92.7 F. M. सुहाना सफर विद अन्नू कपूर)
जगमोहन साहनी
मजनूं का टीला



(चित्र सौजन्य : जगमोहन साहनी)