अनिल करमेले न केवल कवितायें लिखते हैं बल्कि अच्छी कविताओं के पारखी भी हैं! वे अपने समूह 'दस्तक' और फेसबुक पर अक्सर ढूंढ-ढूंढकर अच्छी कवितायें साझा करते रहते हैं! कुछ समय साहित्य से दूर रहने के बाद उनकी वापसी उनकी अनुकरणीय सक्रियता और अच्छी कविताओं के साथ हुई! अनिल करमेले की कवितायें एक जागरूक कवि की चिंताओं का ताना-बाना है जो विसंगतियों से उपजी अपनी बेचैनी को व्यक्त करते समय कवि मन की सारी कोमलता को खोल में साबुत बचे बीज की भांति बचाये रखने में सफल रहता है! यही वजह है कि ये कवितायें जहाँ एक ओर अपने समय की जटिलता को आइना दिखाती हैं वहीं चेताती भी हैं कि यह धरती के आराम करने का समय है……
(1)
बाकी बचे कुछ लोग
सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका
कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा
वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख
वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें
वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है
वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है
वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है
वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं
अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है
बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं.
सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका
कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा
वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख
वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें
वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है
वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है
वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है
वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं
अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है
बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं.
(2)
मुझे तो आना ही था
(अजन्मी बेटियों के लिए)
मैंने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और मेरे रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था
भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
मैं नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में थी
मगर माँ की पीली पड़ गई आँखों में
अँधेरा भर गया था
मैंने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
मैं जानती थी पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
मगर मुझे तो आना ही था
मैं सुन रही हूं माँ की कातर कराह
और देख रही हूं कोने में खड़े उस आदमी को
जो मेरा पिता कहलाता है
उसे देखकर लगता है
जैसे वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है
मैं जानती हूँ इस आदमी को
इसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ ओंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
बस अपने तुच्छ लाभ के फेर में
चालाकी चापलूसी और मक्कारियों में उलझा रहा
यह उसके लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे पौरुष का सवाल है
जो सदियों से इनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा
उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी.
(3)
यह धरती के आराम करने का समय है
(एक)
कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूँ
जैसे नवजात शिशु के रूदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत
आश्चर्य के साथ थम गए हैं
मेरी देह का संतुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश में अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है
मैं चाहता हूँ इस वक़्त
दुनिया के सारे काम रोक दिए जाएँ
यह धरती के आराम करने का समय है
न जाने कितनी जन्मों की
प्रतीक्षा के बाद
अनंत कालों को लाँघता हुआ
मुझ तक पहुँचा है यह
मैं इसके शब्दों को
छू कर महसूस करना चाहता हूँ
(दो)
तीनों लोकों में फैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान परेशान
दांतो में उंगली दबाए भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर
कि जब संग संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरूष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड़कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे संभव हुआ एक स्त्री के लिए
इस पृथ्वी पर प्रेम
(तीन)
एक अफवाह है जो फैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अंगारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्रवाई
बनने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार
एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम
वे मेरे प्रेमपत्र पढ़ने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाहते हैं।
(4)
वह समय
यह वो समय था
जब निकलता था सूरज पूरब से और उसकी आँख में
डूब जाता था
हवाएँ बताती नहीं थीं
मगर आती रही होंगी उसी को छू कर
और इधर
उतर आता था वसंत
घड़ियाँ हार जाती थीं
समय बता-बता कर
जिनसे पहुँचा जा सकता था
अपने-अपने घर
रास्ते वे रूठ जाते थे
अंधेरे में
ठीक उसी समय
स्ट्रीट लाइट जलाने वाला
ले रहा होता था
अपनी प्रेयसी का आखिरी चुंबन
यह वो समय था
जब नींद
उसकी गली में चहलकदमी करती थी
और वह
किताबों दरो-दीवारों
रोटियों में
उस समय पिता हिटलर लगते थे
माँ पृथ्वी पर उपस्थित माँओं की तरह
बहन थी सबसे विश्वस्त मित्र
उस समय कुछ ही मित्र
मुगले आज़म के सलीम थे
बाकी हो गए थे श्रवण कुमार
यह वो समय था
जब लगती थी दुनिया
बेहद खूबसूरत
और हर आदमी को चाहने को
जी चाहता था.
(6)
मैं इस तरह रहूँ
मैं इस तरह रहूँ
जैसे बची रहती है
आख़िरी उम्मीद
मैं स्वाद की तरह रहूँ
लोगों की यादों में
रहूँ ज़रूरत बनकर
नमक की तरह
अग्नि की तरह जला सकूँ
क्रोध
उठा सकूँ भार पृथ्वी की तरह
पानी की तरह
मिल जाऊँ घुल जाऊँ
दुखों के बाद हो सकूँ
सावन का आकाश
लगा सकूँ ठहाका
सब की खुशी
और अपनी उदासी में भी
रो सकूँ दूसरों के दुखों में
ज़ार-ज़ार
मैं इस तरह रहूँ
कि मेरे रहने का अर्थ रहे
मैं गर्भ की तरह रहूँ
और रहे पूरी दुनिया
मेरे आसपास माँ की तरह.
(अजन्मी बेटियों के लिए)
मैंने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और मेरे रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था
भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
मैं नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में थी
मगर माँ की पीली पड़ गई आँखों में
अँधेरा भर गया था
मैंने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
मैं जानती थी पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
मगर मुझे तो आना ही था
मैं सुन रही हूं माँ की कातर कराह
और देख रही हूं कोने में खड़े उस आदमी को
जो मेरा पिता कहलाता है
उसे देखकर लगता है
जैसे वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है
मैं जानती हूँ इस आदमी को
इसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ ओंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
बस अपने तुच्छ लाभ के फेर में
चालाकी चापलूसी और मक्कारियों में उलझा रहा
यह उसके लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे पौरुष का सवाल है
जो सदियों से इनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा
उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी.
(3)
यह धरती के आराम करने का समय है
(एक)
कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूँ
जैसे नवजात शिशु के रूदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत
आश्चर्य के साथ थम गए हैं
मेरी देह का संतुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश में अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है
मैं चाहता हूँ इस वक़्त
दुनिया के सारे काम रोक दिए जाएँ
यह धरती के आराम करने का समय है
न जाने कितनी जन्मों की
प्रतीक्षा के बाद
अनंत कालों को लाँघता हुआ
मुझ तक पहुँचा है यह
मैं इसके शब्दों को
छू कर महसूस करना चाहता हूँ
(दो)
तीनों लोकों में फैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान परेशान
दांतो में उंगली दबाए भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर
कि जब संग संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरूष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड़कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे संभव हुआ एक स्त्री के लिए
इस पृथ्वी पर प्रेम
(तीन)
एक अफवाह है जो फैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अंगारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्रवाई
बनने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार
एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम
वे मेरे प्रेमपत्र पढ़ने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाहते हैं।
(4)
वह समय
यह वो समय था
जब निकलता था सूरज पूरब से और उसकी आँख में
डूब जाता था
हवाएँ बताती नहीं थीं
मगर आती रही होंगी उसी को छू कर
और इधर
उतर आता था वसंत
घड़ियाँ हार जाती थीं
समय बता-बता कर
जिनसे पहुँचा जा सकता था
अपने-अपने घर
रास्ते वे रूठ जाते थे
अंधेरे में
ठीक उसी समय
स्ट्रीट लाइट जलाने वाला
ले रहा होता था
अपनी प्रेयसी का आखिरी चुंबन
यह वो समय था
जब नींद
उसकी गली में चहलकदमी करती थी
और वह
किताबों दरो-दीवारों
रोटियों में
उस समय पिता हिटलर लगते थे
माँ पृथ्वी पर उपस्थित माँओं की तरह
बहन थी सबसे विश्वस्त मित्र
उस समय कुछ ही मित्र
मुगले आज़म के सलीम थे
बाकी हो गए थे श्रवण कुमार
यह वो समय था
जब लगती थी दुनिया
बेहद खूबसूरत
और हर आदमी को चाहने को
जी चाहता था.
(6)
मैं इस तरह रहूँ
मैं इस तरह रहूँ
जैसे बची रहती है
आख़िरी उम्मीद
मैं स्वाद की तरह रहूँ
लोगों की यादों में
रहूँ ज़रूरत बनकर
नमक की तरह
अग्नि की तरह जला सकूँ
क्रोध
उठा सकूँ भार पृथ्वी की तरह
पानी की तरह
मिल जाऊँ घुल जाऊँ
दुखों के बाद हो सकूँ
सावन का आकाश
लगा सकूँ ठहाका
सब की खुशी
और अपनी उदासी में भी
रो सकूँ दूसरों के दुखों में
ज़ार-ज़ार
मैं इस तरह रहूँ
कि मेरे रहने का अर्थ रहे
मैं गर्भ की तरह रहूँ
और रहे पूरी दुनिया
मेरे आसपास माँ की तरह.
(7)
कस्बे की माधुरी
सितंबर की तेज़ धूप में
सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे थे
वह दाखिल हुई सहमती हुई
पूरा चेहरा ढँका था स्कार्फ से
बस झाँक रही थीं दो गोल गोल आँखें
यह जिला मुख्यालय का एक होटल था
रेस्टॉरेंट और रहने की व्यवस्था वाला
झुकी-झुकी आँखों से
इधर उधर हिरनी की तरह देखती वह
पहली मंजिल पर थी रेस्टॉरेंट में
अपने प्रेमी के साथ
टेबल पर आमने-सामने बैठने का चलन
इन दिनों गायब था शहरों में
यह उसे पता नहीं था शायद
फिर भी वह बैठी थी
बीस बरस के लड़के के साथ सटकर
किसी बंद मगर औरों की उपस्थिति वाली जगह में
यह उसकी पहली आमद थी
लड़के की आँखों में वैसी ही चमक थी
जैसे शिकार को देखकर सॉंप की आँखों में होती है
और लड़की की आँखें चौंधिया गई थीं
सितंबर की तेज़ धूप में बारह बज रहे थे
जब वे दाखिए हुए होटल के कमरे में
रेस्टॉरेंट के आधे घंटे में
कितनी ही फिल्मों के चित्र
कोलाज़ की शक्ल में चलते रहे लड़की के दिमाग़ में
दिल की बढ़ी हुई धड़कनों के बीच
भरोसा उम्मीद और हौसले की
कितनी ही लहरें उठती-गिरती रहीं दोनों के दिमाग़ में
मगर लड़के के दृश्य में बार-बार
स्थिर हो जाती माधुरी की खुली पीठ
जहाँ एक रंगीन डोरी की डेढ़ गठान खुलने को थी आतुर
आखिर समय के हौसले के पंजे में दबी
वह कमरे में थी भरभरा कर गिरती हुई दीवार की तरह
अपने उम्र जितनी होटल की सत्रह सीढ़ियाँ
चढ़ पायी थी वह कितनी मुश्किल या आसानी से
कहना मुश्किल है
ग्लोबल बाज़ार की चिकनी सतह पर
चमड़ी के दलालों की भीड़ में
उसके कदम लड़खड़ाए होंगे
चेहरे से लगता तो नहीं।
सितंबर की तेज़ धूप में
सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे थे
वह दाखिल हुई सहमती हुई
पूरा चेहरा ढँका था स्कार्फ से
बस झाँक रही थीं दो गोल गोल आँखें
यह जिला मुख्यालय का एक होटल था
रेस्टॉरेंट और रहने की व्यवस्था वाला
झुकी-झुकी आँखों से
इधर उधर हिरनी की तरह देखती वह
पहली मंजिल पर थी रेस्टॉरेंट में
अपने प्रेमी के साथ
टेबल पर आमने-सामने बैठने का चलन
इन दिनों गायब था शहरों में
यह उसे पता नहीं था शायद
फिर भी वह बैठी थी
बीस बरस के लड़के के साथ सटकर
किसी बंद मगर औरों की उपस्थिति वाली जगह में
यह उसकी पहली आमद थी
लड़के की आँखों में वैसी ही चमक थी
जैसे शिकार को देखकर सॉंप की आँखों में होती है
और लड़की की आँखें चौंधिया गई थीं
सितंबर की तेज़ धूप में बारह बज रहे थे
जब वे दाखिए हुए होटल के कमरे में
रेस्टॉरेंट के आधे घंटे में
कितनी ही फिल्मों के चित्र
कोलाज़ की शक्ल में चलते रहे लड़की के दिमाग़ में
दिल की बढ़ी हुई धड़कनों के बीच
भरोसा उम्मीद और हौसले की
कितनी ही लहरें उठती-गिरती रहीं दोनों के दिमाग़ में
मगर लड़के के दृश्य में बार-बार
स्थिर हो जाती माधुरी की खुली पीठ
जहाँ एक रंगीन डोरी की डेढ़ गठान खुलने को थी आतुर
आखिर समय के हौसले के पंजे में दबी
वह कमरे में थी भरभरा कर गिरती हुई दीवार की तरह
अपने उम्र जितनी होटल की सत्रह सीढ़ियाँ
चढ़ पायी थी वह कितनी मुश्किल या आसानी से
कहना मुश्किल है
ग्लोबल बाज़ार की चिकनी सतह पर
चमड़ी के दलालों की भीड़ में
उसके कदम लड़खड़ाए होंगे
चेहरे से लगता तो नहीं।
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परिचय
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अनिल करमेले
मूलत: कवि.
जन्म :
2 मार्च 1965 को छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश में.
प्रकाशन :
सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं- पहल, हंस, ज्ञानोदय, वागार्थ, वसुधा, कथादेश, जनसत्ता, शुक्रवार, पब्लिक एजेंडा, दैनिक हिन्दुस्तान, नई दुनिया, लोकमत समाचार, भास्कर आदि में कविताएँ, लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित.
"ईश्वर के नाम पर" कविता की पहली किताब प्रकाशित.
पुरस्कार :
कविता संग्रह "ईश्वर के नाम पर" के लिए मध्यप्रदेश का दुष्यंत कुमार पुरस्कार.
संप्रति :
भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अंतर्गत महलेखाकार लेखापरीक्षा कार्यालय ग्वालियर में सेवारत.
संपर्क :
58, हनुमान नगर, जाट खेड़ी, होशंगाबाद रोड,
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अनिल करमेले
मूलत: कवि.
जन्म :
2 मार्च 1965 को छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश में.
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