पिछली पोस्ट में आपने गाथांतर- समकालीन कविता महा विशेषांक खण्ड-1 में प्रकाशित डॉ अजीत प्रियदर्शी का एक आलोचनात्मक लेख पढ़ा! अब इसी कड़ी में समकालीन हिंदी कविता पर इस अंक के अतिथि संपादक और युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार का शोधपरक आलेख आपके समक्ष प्रस्तुत है!
कविता को कालखंडों में विभाजित करने के अपने खतरे होते है |कविता जिस काल में लिखी जाती है उस काल की वस्तुस्थिति का आइना बनती है| उसकी एक लम्बी प्रवाहमान धारा बनती है वह धारा निरंतर गतिमान रहते हुए अपने युग को अपनी गति में समाहित कर लेती है| वह जिस भाषा में लिखी जाती है वह भाषा भी एक व्यक्ति या समूह की भाषा नहीं होती वह पूरे युग की भाषा होती है| कवि जिन संस्कारों को युग-बोध का शब्द देता है वो उसे निजी नहीं रह जाते सार्वभौमिक हो जाते हैं| इसलिए कविता को कालखंडों में यदि बांटा जायेगा तो कई खतरों का सामना करना पड़ेगा अत: युग के सही मूल्यांकन के लिए इन खतरों के प्रति सचेत रहना जरूरी है |समकालीन कविता का मूल्यांकन करते समय हम परंपरा और इतिहास को दरकिनार नहीं कर सकते यदि हम परम्परा को अस्वीकार करेंगे तो समकालीन कविता को हिंदी की जातीय धारा से नहीं जोड़ सकेंगे क्यूंकि कोई भी रचना अचानक नहीं उत्पन्न होती है वो अपने से पूर्व विद्यमान किसी धारा का परिष्कृत प्रारूप होती है| यह परिष्करण समझने के लिए पूर्व परम्पराओं का सचेत मूल्यांकन अनिवार्य हो जाता है| और सच तो ये है की आजादी के बाद कविता का कथ्यात्मक परिदृश्य जितना विविधता पूर्ण रहा उतना शायद किसी अन्य विधा का नहीं इन वर्षों में कविता की टेक्निक और वस्तु में कई परिवर्तन देखे गए |आन्दोलन चले, पाठक भी विभिन्न मनोदशाओं से रूबरू हुए, कवि का व्यवस्था से मोहभंग हुआ, झूंठी राजनीति से विरक्ति का भाव भी देखा गया, मनुष्य की हित चिंता बनी रही और मनुष्य को कविता के केंद्र में रखकर लोकतान्त्रिक मूल्यांकन के नए तर्क गढ़े गए , आज भी लिखी जा रही कविता के केंद्र में मनुष्य ही है मनुष्यता को बचाते हुए जीवन में नयी ऊष्मा का संचार करना आज की कविता का लक्ष्य बन गया है|
काव्यबोध तात्कालिक घटनाओं से अनुस्यूत होते
हुए भी तुरंत नहीं बदल जाता| कवि की अनुभूति और विसंगतियों के बीच वैचारिक गठन की लम्बी प्रक्रिया
होती है इन बदली हुई स्थितियों की दशाएं अपने समग्र बोध में तात्कालिकता का खंडन कर
समकालीनता का विजन तय करती हैं समकालीन कवियों की काव्य अवधारणा कविता और कवि के बीच
घटित होने वाले बदलावों से अलग नहीं है बल्कि उसी का प्रतिफल है कवि के अंतस में होने
वाला बदलाव कविताओं में स्पष्ट देखा जा सकता है| कविता का समय के साथ जुड़ते जाना ,मनुष्य
की नियति से एकाकार होते जाना ,और विभिन्न वर्गों के बीच चल रहे द्वंद को गहरे से रेखांकित
करना एवं मनुष्य के हिस्से की यातना को खुद भोगना| समकालीन कविता का मुख्य अभिकथन बन
गया है| यह अभिकथन कोई साधारण नहीं है जिसको आसानी से समय और तात्कालिकता के दायरे
में कस दिया जाय क्यूंकि व्यक्ति और समाज के आपसी रिश्ते जटिल आवर्तों में लिपटे रहते
रहते हैं |ऐसे आवर्तों की अभिव्यक्ति सीधी और आसान नहीं होती है |कवि ऐसी स्थितियों में
अपना स्वर स्थिर मापदंडों से पृथक कर लेता है और कविता को स्वतंत्र अस्तित्व देते हुए
आधुनिक आयामों से जोड़ देता है अब इसे आप नयी रचना कहिये या समकालीन स्वर दोनों एक ही
है| दोनों स्थितियों में कविता अपने को पूर्ववर्ती रचना से पृथक करती है |यही अलगाव
युग का बोध होता है युग की आवाज होती है| इस आवाज के अपने राजनैतिक, सांस्कृतिक आयाम
होते हैं| अपने स्वप्न होतें है| अपने सृजन होते हैं|
समकालीन कविता का मुख्य स्वर सुनाने के लिए हमें
वर्ष २००० के उपरांत की परिस्थतियों को ध्यान में रखना होगा ऐसा इसलिए की “नव उदारवाद” ने अपना असली मनुष्यविरोधी रूप २००० के उपरांत ही दिखाया है
|इस नयी विश्व व्यवस्था ने अमीरो और गरीबों के बीच गहरी खांई पैदा कर दी है |अमीर और
ज्यादा अमीर होता जा रहा है व गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है |मनुष्यता और मानव
के बीच दूरी लगातार बढती जा रही है| समस्त मानवीय और लोकतान्त्रिक मूल्य अपना अर्थ
खोते जा रहे हैं| उनकी जगह ब्याज, मुनाफा , शोषण , लूट
जैसे शब्द नैतिकता के शब्दकोष में समाहित कर दिए गए हैं |नवउदारवाद का प्रभाव भारतीय
समाज में दो प्रकार से पड़ा है एक अलगाव के रूप में और दूसरा प्रतिरोध के अंत के रूप
में |अलगाव से अकेलापन टूटन ,विघटन, संत्रास ,नैतिक पतन ,आत्महत्या मोहभंग, जैसी
स्थितियां सामने आयीं| प्रतिरोध के अंत के लिए विश्व पूँजी ने सत्ता के साथ गठबंधन
किया और जनता के बीच ये भ्रम फैलाया गया की जनता का असली हित व्यवस्था के संरक्षण में
है |विरोध में नहीं पूंजीवादी सांस्कृतिक भृष्टाचार ही लोकतंत्र का विकास कहा गया| फलत: नवउदारवाद ही
हमारे समय की सामयिक पीड़ा बनकर उभरा और कविता का मुख्य स्वर बना |वैसे भूमंडलीकरण का
विरोध इस व्यवस्था के आगमन से ही आरम्भ हो गया था| कवियों और लेखकों में आरम्भ से ही इस विश्व व्यवस्था को लेकर
सुगबुगाहट होने लगी | इसके नकारात्मक प्रभावों
को कविता के अलावा कहानी उपन्यासों में बखूबी दिखाया गया है| लेकिन हाल के वर्षों में
ज्यों ज्यों इसके प्रभाव विकराल रूप धारण करते गए त्यों-त्यों प्रतिरोध के स्वर कविता
में मुखरित होते गए | वर्ष २०१० के बाद की कविता से तो इसके नकारात्मक प्रभावों का
मुकम्मल खाका खीचा जा सकता है| कवि अपनी कविता में खंडित हो चुके स्वप्नों के बीच वर्गीय
संतुलन की खोज कर रहा है वह कहीं बेचैन होता है तो कहीं टूटता है कहीं दिलाशा देता
है तो कहीं आक्रोश व्यक्त करता है| वह व्यवस्था के पक्ष में खड़े तंत्र से कोई आस्था
नहीं रखना चाहता है| समकालीन कविता तंत्र के खिलाफ घोर अनास्था और विश्व पूँजी के खिलाफ
प्रतिरोध की कविता है|यह प्रतिरोध एकांगी नहीं है
विविध आयामों को समाहित करता है |कवि सामयिक राजनीति से भी अछूता नहीं है वह
राजनीती से अलग नहीं रहना चाहता है समकालीन कविता ने साहित्य और राजनीति के बीच चले
आ रही निरपेक्षता का अंत कर दिया है| क्योंकि
कवि भली भांति जनता है की राजनीति आर्थिक कारकों की मुख्य जननी है| और विश्व
पूँजी के संरक्षण में राजनीति की अहम् भूमिका है| सत्ता और पूँजी का गठजोड़ लोकतान्त्रिक
मूल्यों को फासीवाद की और धकेल रहा है| यह राजनैतिक झटपटाहट शम्भू यादव संतोष चतुर्वेदी
हरेप्रकाश उपाध्याय प्रेमनंदन में स्पष्ट सुनी जा
सकती है| शम्भू यादव का कविता संग्रह “नया एक आख्यान”
भूमंडली कारण के खिलाफ
एक मुकम्मल बयान बन गया है | शम्भु का कहना है कि “पता लग चुका है की कुछ विदेशी चूहे बिल बना
रहें हैं हमारे खेतों में”(नया एक आख्यान पृष्ठ
३७) हरेप्रकाश उपाध्याय की कविता अपनी भंगिमा और अनूठे गुम्फन के कारण जमीनी हकीकतों
का मुहावरा बन गयी है, उनका कविता संग्रह “खिलाडी दोस्त और अन्य कवितायेँ” में व्यवस्था के प्रति अनास्था का स्वर बड़ी शिद्दत के साथ उभरा
है |संतोष चतुर्वेदी का नया कविता संग्रह “दक्खिन
का भी अपना पूरब होता है” नवउदारवादी व्यवस्था
का खोखलापन उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है| यह संग्रह शहरीकरण अधाधुंध विकास जैसी
पूंजीवादी नारों की भी कठोर समीक्षा करता है | संतोष तो नवउदारवाद के बहाने पूरी व्यवस्था
पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देतें हैं| इस संग्रह में कवि ने तीव्र आद्द्यौगीकरण व भूमंडली करण का प्रखर विरोध किया है। पूंजीवादी
शक्तियों द्वारा नियंत्रित विकास मानव सभ्यता के सारे उपांगों पर जडवत बैठा है। ऐसा कोई पहलू नही है जहां आम आदमी
का हित हो सारे विकास का ल{य प्रतिक्रिया वादी बुर्जुवा वर्ग का हित साधन है। इस संग्रह की कविता “प्रश्न वाचक चिन्ह” समूची
उदारवादी व्यवस्था पर ही प्रश्न –चिन्ह खडा
कर देती है। देखिये “-दुनिया में जितने भी रहस्य उजागर हुये/ जितने भी भेद खुले/ जितने भी आविष्कार हुये/ जितने भी
भंडाफोड हुये/ जितने भी खोजे हुयी अब तक/ सब के पीछे कही न कही रहा अवाक मुंह बाये
खडा/ यही प्रश्नवाचक चिन्ह है” (दक्खिन का भी अपना पूरब होता है) और “बाजार की अगवानी में जब पलक पांवड़े बिछाए खड़े हैं सत्ता शासक
और दलाल” (दक्खिन का भी अपना पूरब होता है पृष्ठ ११८)
सत्ता के प्रति तीखे आक्रोश का यही स्वर राम जी तिवारी, बुद्धिलाल पाल,और आत्मरंजन ,अच्चुतानन्द मिश्र शिरीष
कुमार मौर्य में में भी सुना जा सकता है|
समकालीन कविता में एक स्वर “बेचैनी” का भी मिलता है | यह बेचैनी भी वर्गीय वर्चस्ववाद की उपज है|
नवउदारवादी नीतियों ने इस बेचैनी को और बढ़ा दिया है| टूटते हुए पारिवारिक और सामाजिक
मूल्यों की सुरक्षा में असफल व्यक्ति का जीवन, निजी संघर्ष के दायरे से बाहर निकलकर
व्यापक सामाजिक आधार ग्रहण कर लेता है | कवि उन सभी कारकों की आलोचना करता है जो इस
विघटन के लिए उत्तरदायी हैं | यहाँ कवि की बेचैनी समूची व्यवस्था को लेकर है उस व्यवस्था
को लेकर जिसमे मनुष्य घुट रहा है मनुष्यता खंडित हो रही है| बेचैनी का स्वरूप
अनास्थापूर्ण ही है ,समकालीन कविता व्यवस्था के पक्ष में खड़े समूचे तंत्र के प्रति
अनास्था रखती है |विजेंद्र , केशव ,निलय उपाध्याय , रामजी तिवारी ,हरेप्रकाश उपाध्याय , जीतेन्द्र श्रीवास्तव , बली सिंह , अविनाश मिश्रा , अंजू शर्मा ,मनीषा जैन, की कविताओं में “बेचैनी” का घुटन भरा माहौल स्पष्ट देखा जा सकता है |कमलजीत चैधरी की कविताओं में एक विशिष्ट अंदाज में
व्यक्त हुई है| कुंवर रवीन्द्र, बुद्धिलाल
पाल ,मोहन कुमार नागर ,की कवितायेँ अपने अपने अंदाज में बेचैनी का
ही विस्तार हैं| यह बेचैनी महिला रचनाकारों में सामंतवादी जड़ताओं के खिलाफ है| मनीषा
जैन , सोनी पाण्डेय, मृदुला शुक्ल की कवितायेँ स्त्रीविमर्श
के परम्परागत एकांगी दृष्टि का खंडन भी करती हैं |यह जनपक्षीय कविता के लिए शुभ संकेत
है | पहलीबार, सिताब दियारा, लोकविमर्श जैसे ब्लॉगों में प्रकाशित हो चुके
रवीन्द्र के. दास की कवितायेँ इसी सामयिक बेचैनी का बहुआयामी उदाहरण है | रवीन्द्र
की बेचैनी जीवन के विभिन्न कोणों को लेकर अभिव्यक्त हुई है शायद ही कोई ऐसा कवि हो
जिसने सामयिक बेचनी को नजरंदाज किया हो |अभी तक मैंने जिस प्रतिबद्ध कवि को पढ़ा है
उसमे वर्तमान के प्रति अनास्थापूर्ण बेचैनी ही दिखी है |इस बेचनी के कारण वो सब-कुछ
बदल देने के लिए आवाहन भी करता है |वह बेचैनी को ताकत बनाकर बुर्जुवा शक्तियों से लड़ना
चाहता है| यह बेचैनी परिवर्तन के खिलाफ नहीं है |परिवर्तन के लिए है |कवि द्वंदों के
बीच संतुलन की खोज कर रहा है |विजेंद्र की नयी कवितायेँ संतुलन की खोज को प्रमाणित
करती हैं उनका संग्रह “बेघर का बना देश”
संतुलन की खोज का उम्दा
उदाहरण है |विजेंद्र तो संतुलन की खोज में नवउदारवादी नीतियों और आम आदमी की वस्तुस्थिति
का सीधा सम्बन्ध जोड़ देतें हैं “संसद में बढ़ी विकास दर की घोसणा और आत्महत्या करने वाले किसानों
में क्या रिश्ता है” “बनते मिटते पाँव रेत
में पृष्ठ ३४) | सत्ता और पूँजी का यही रिश्ता जब लोकतान्त्रिक मूल्य बनकर एक अकाट्य
तर्क के रूप में प्रस्तुत होता है तो जनपक्षीय कवि का आक्रोशित होना वाजिब ही है |
इधर कई संग्रहों में यही बेचैनी आक्रोश के रूप
में दिखाई देती है | सामान्य रूप से भी बेचैनी व अनास्था के वातावरण में आक्रोश का
जन्म होना कोई नयी बात नहीं है| यदि जड़ता की टूटन नहीं होगी तो कविता पलायनवाद का शिकार
हो सकती है| समकालीन कविता इस दोष से रहित है आज का कवि यथास्थितिवाद को अस्वीकार करता
है जितनी बेचैनी वह परिवेश के प्रति रखता है उतनी ही बेचैनी जड़ता के टूटन के प्रति
भी रखता है |यही कारण है की कवि समकालीन बिखराव को सजग ढंग से देखता है और उसके खिलाफ
आवाज भी उठाता है| कहीं जनतंत्र के खोखलेपन के विरुद्ध आवाज है तो कहीं सामाजिक कुरूपताओं
के प्रति| तो कहीं वर्गीय उत्पीडन के विरुद्ध सर्वहारा की आक्रोशपूर्ण रणनीति है |कहीं
कवि युद्धक मुद्रा में है तो कहीं कविता जूझ रही है| आज की कविता केवल आज की कविता
है ,न कल की न भूतकाल की, बिलकुल इसी क्षण की कविता है| स्वाधीन
भारत में भोगी गयीं यातनाओं का आम आदमी के द्वारा प्रस्तुत हलफनामा है| हरीशचंद्र पाण्डेय , विजेंद्र, शम्भू
यादव, केशव ,महेश पुनेठा रामजी तिवारी ,जितेन्द्र श्रीवास्तव ,हरेप्रकाश उपाध्याय , अविनाश
मिश्र, कुंवर रवीन्द्र, रतीनाथ योगेश्वर, की कविताओं
में आक्रोश की रेखाओं को स्पष्ट पहचाना जा सकता है| संतोष और शम्भू में तो यह आक्रोश
ध्वंस के स्तर पर पहुँच गया है| विजेंद्र में खुले आम क्रांति का आवाहन है तो निलय
उपाध्याय अपनी जमीन और संस्कृति के लिए नवउदारवाद से टकराने को तैयार हैं | कमलजीत
चैधरी , बली सिंह ,आत्म्रंजन ,अच्च्युता नन्द मिश्र की कवितायेँ विसंगतियों के विरुद्ध आक्रोश का ही सृजन करती हैं
|आत्म रंजन तो मरे हुए आदमी में भी आक्रोश खोज
लेते हैं उनका कहना है की “चीखता है जब भी मरा हुआ आदमी/ जीवित से हो जाता
है/ज्यादा ताकतवर ”(पगडंडियाँ गवाह हैं पृष्ठ ३३) महिला रचनाकारों में
यह आक्रोश और भी तीखा है उनका आक्रोश पुरुषप्रधान समाज की वर्जनाओं के विरुद्ध है वर्जनाओं
को तोड़ने की झटपटाहट और सामन्ती पारिवारिक ढांचे की आलोचना इन कविताओं में देखा जा
सकता है |एक स्त्री द्वारा समानता और स्वतंत्रता जैसी लोकतान्त्रिक अधिकारों की मांग
करना और वर्चस्ववादी समाज द्वारा उसे मर्यादा का हनन कहना यही इस आक्रोश का मूल कारण
है | सम्पूर्ण व्यवस्था में काबिज पुरषों का
सामन्ती वर्चस्व भला कैसे स्वीकार करेगा की स्त्री को भी लोकतान्त्रिक अधिकारों की
जरुरत है यही कारण है की लैंगिक समानता के
तमाम आदर्शवादी नारों की सार्थकता हकीकत में कुछ नहीं है |सारे आदर्श पुरुष एकाधिकार
में बदल जाते हैं |जब हक नहीं तो हक की मांग
उठना स्वाभाविक है |आज का महिला लेखन केवल
अपने वजूद का मालिकाना हक मांगकर संतुष्ट नहीं
है वह सामंती परम्पराओं की जकडन से खुद को
मुक्त भी करना चाहती है |वह अपने जीवन अपनी
आजादी के लिए पुरुष वर्चस्ववाद से दो-दो हाथ
करने को तैयार है|अंजू शर्मा , वसुंधरा पाण्डेय की कवितायें इसी मालिकाना हक की पीठिका
हैं| लीना मल्होत्रा, शैलजा पाठक की कविताओं
में अपने अपने तरीके से वर्जनाओं की टूटन ही है, वंदना देव शुक्ल ने यह कहकर “स्त्री की जगह अजीबोगरीब
शब्द लिख जाती हूँ” यह उनका निजी बयान नहीं है अपितु समाज पर एक तीखा प्रहार है
परिवेश की हत्यारी परम्पराओं पर सीधे चोट है पूंजीवादी समाजों में स्त्री की दुर्दाशा
का संकेत है| वंदना की कवितायें सपाट हैं कोई उलझाव नहीं है यही कारण है की उनमे बेचैनी
और आक्रोश और भी स्पष्ट हो जाता है अलका सिंह में भी यही बेचैनी देखी जा सकती है |
अलका की कवितायें पूंजीवादी वर्चस्ववाद को पुरुष सत्ता शक्ति से जोड़कर देखती हैं अतः
उनमे आक्रोश का विध्वंसक पक्ष अधिक मुखर है | ””पुरुषों की दुनिया का जहाँ की हर आँख में नाखून दीखते हैं “(अलका सिंह)एक
स्त्री द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी कविता में आक्रोश का इससे बेहतर उदाहरण कहाँ
मिलेगा लेकिन ध्यान रहे यह प्रतिकार हवा में नहीं है| जमीनी है | माध्यम वर्गीय पारिवारिक जड़ताओं का देखा समझा स्वरूप है | यह आक्रोश
अंजू शर्मा, सोनी पाण्डेय, मृदुला शुक्ल, मनीषा
जैन,वसुंधरा पाण्डेय,में इसी पृष्ठभूमि से जुडा है |स्त्री-विमर्श
सम्बन्धी कविताओं में आक्रोश का स्वरूप ध्वंसात्मक है लेकिन जब वो अलगाव का शिकार होती है या अपनी
पारिवारिक सीमाओं को समेटकर जीने की लालसा व्यक्त करती है तो एक अलग रोमांटिक भंगिमा
के साथ कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति करती है अंजू शर्मा और सोनी पाण्डेय की कविताओं
में इस भंगिमा को देखा जा सकता है| मृदुला शुक्ल(उम्मीदों के पाँव भारी हैं) की कवितायेँ ध्वंस और सृजन के बीच का मार्ग
खोज रही हैं | आक्रोश के सम्बन्ध में विशेष बात यह रही की नवउदारवादी कुप्रभाव ज्यों
ज्यों हमारी व्यवस्था में काबिज होते गए त्यों त्यों कविता भी बुनियादी तौर पर यथातथ्यवाद से ऊपर उठती गयी | रचनाकार अच्छी तरह समझता है की कविता अखबार का
कालम नहीं है कुछ और है आक्रोश और गुस्से में सृजन की संभावनाएं तभी हो सकती है जब
जमीनी तौर पर व्यापक बदलाव किये जाएँ यह काम जल्दबाजी में संभव नहीं है इसके लिए ठहराव
जरूरी है |इसलिए समकालीन कवि अपने आक्रोश को सकारात्मक आधार देने के लिए सचेष्ट वर्गचेतन
परिवर्तन की बात भी करता है | महिला रचनाकारों ने सचेष्ट वर्ग-परिवर्तन की बात तो नहीं
की लेकिन उन्होंने स्त्री को ही एक वर्ग के स्वरूप में जरूर देखा है और पुरुष सत्ता
के विरुद्ध (न की पुरुष के विरुद्ध) व्यापक बदलाव की मांग करती हैं | इस बदलाव के लिए
उनकी अपनी अपनी टेक्निक है जैसे शैलजा पाठक भावुक मूर्तन के द्वारा वही कहना चाहती है जो भावना मिश्रा अमूर्तन
द्वारा दोनों की कविताओं में मूर्तन और अमूर्तन का प्रगतिशील पक्ष देखा जा सकता है
जहां तथ्यवाद से अलग हटकर आक्रोश को एक “अपील”
के खांचे में फिट कर
दिया गया है | स्त्री की वर्ग चेतना का सबसे मुखर स्वर सोनी पाण्डेय और मृदुला शुक्ल
में मिलता है | मृदुला ने तो यहाँ तक कह दिया है “मैं एक मरा हुआ आदमी हूँ /मरे हुए आदमी की दुनियां
हमेशा बेहतर होती है/ जिन्दा लोगों की दुनिया से”/ यह विमुक्ति चेतना की पराकाष्ठा है सोनी पांडेय
की स्त्री विषयक कवितायेँ जनवादी चेतना संवलित एक लोकधर्मी दृष्टि का खूबसूरत उदाहरण
है । ये कवितायेँ अब तक के बयानों के आलोक में सबसे अलहदा बयान लेकर उपस्थित होंती
हैं। इन कविताओ में कही भी “देह भाषा”
व “देह विमर्स” जैसी एकांगी संकल्पनाओं के दर्शन नहीं होते स्त्री की समस्त
पीडाओं का मूल उसकी वर्ग स्थिति में खोजा गया है।जैसे देखिये हर रोज की घटनाओं का एक
प्रतिबिम्ब “चैराहे पर पान/ की पीच की तरह/ थूकी और निगली जाती है/ औरत की
आबरू” (सोनी पाण्डेय ) |यह एक प्रकार का अस्वीकार
है समाज के प्रति |व्यक्ति के प्रति ,बंधनों
के खिलाफ ,|
अस्वीकार का सबसे चेतन स्वर अंजू शर्मा में मिलता है वो तो एक शिरे से
वर्जनाओं को नकार रहीं हैं अंजू शर्मा की बेबाकी मुझे बहुत प्रिय है व्यक्ति केन्द्रित
होने वावजूद भी व्यापक सामाजिक पृष्ठभूमि का स्पर्श करती है अंजू ने अपनी कविताओं में
स्त्री से जुडी पुरुष समाज की हर एक मूल्यहीनता की ओर ध्यान खींचा है और उनसे मुक्त
होने के लिए अस्वीकार का एक मुकम्मल स्वर भी है “मैं नकारती हूँ /उस विवशता को जहां सदियाँ गुजर
जाती हैं /एक राम की प्रतीक्षा में” (अंजू शर्मा)| इन सबसे अलग एक स्त्री और है जिसे हम सच्चे अर्थों
में आधी - आबादी कह सकते हैं |वह है गाँव की
मेहनत-कश नारी | खेतों में दिन भर पसीना बहाने वाली नारी साहूकार के ताने सुनकर पेट
भरने |वाली नारी मिटटी खोदकर घर बनाने वाली
नारी जिसे न तो आधुनिक स्त्री विमर्श की कोई
खबर है न ही उसके अन्दर क्रांति की कोई चेतना है | वो पारिवारिक दायरे में रहकर ही
अपने अधिकारों का चिंतन करना जानती है |यह नारी पुरुष समाज से ज्यादा वैयक्तिक पूँजी
से त्रस्त है | ऐसी स्त्री के चित्र मनीषा
जैन और सोनी पाण्डेय में खूब मिलते है इस प्रकार के लोकधर्मी जनपक्षीय स्त्री विमर्श
की आज महती आवश्यकता है जब तक गाँव की नारी सामंती शोषण के दायरे मुक्त नहीं हो सकती तब तक हम पुरुष सत्ता से विमुक्ति
की कामना नहीं कर सकते हैं मनीषा जैन ने ग्रामीण नारी के यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत करने में बड़ी सफलता हासिल
की है आज का महिला लेखन पूंजीवादी सडांध से
उपजी घृणा और वेदना का मुकम्मल विमर्श हैं। आज की नारी इस जडवत पूंजीवादी साजिस से
दो दो हाथ करने को तैयार है। समकालीन कविताओं में बड़ी खासियत है की वो केवल परिवेश
का विवेचन करके ही संतुष्ट नहीं होती वह अपनी पूरी ताकत के साथ पुरुष वादी मानसिकता
के दायरे से बहार आना चाहती है। अपने अधिकारों को छीनना चाहती है | यही क्रांतिकारी विमर्श पम्परागत स्त्री विमर्श से सबको अलहदा कर देता है। स्वाभाविक है की जिस दिन स्त्री
क्रांति चेतस हो गयी उस दिन वह अपने बंधनों और वर्जनाओं को अपने हाथ से ही तोड़ देगी
वर्चस्ववादी शक्तियाँ नहीं चाहती की स्त्री क्रांति चेतस हो इसिलिये वो तमाम उपागमों
के सहारे साजिशों के सहारे स्त्री को वर्जनाओं की कैद में रखने का प्रयास करता है।
विश्व-पूँजी के हस्तक्षेप से कस्बों, और गांवों
में भी बुनियादी परिवर्तन हुए हैं| कस्बे शहर
बने जा रहें हैं और गांव आर्थिक साम्राज्यवाद की सबसे छोटी इकाई बनकर रह गएँ है| गांव
के हस्तशिल्प और कृषि आधारित व्यवसायों पर इस नयी व्यवस्था का बुरा असर पड़ा
है छोटे उद्योग नष्ट हो चुके हैं किसान कर्ज के जल में उलझ चूका है| वह आत्महत्या कर
रहा है |जंगल काटकर कारखाने लगाये जा रहे हैं बेरोजगारी इतनी बढ़ गयी है की गांव के
गांव खाली होकर मजदूरी के लिए शहर पलायन कर रहे हैं| जिस हिंदुस्तान का नक्सा खुशहाल
और आत्मनिर्भर गांवों की कहानी कहता था वही गांव अब विकलांग हो चुके हैं | समकालीन
कवियों से गाँव की जमीनी सवाल छूटे नहीं है उसने बड़ी शिद्दत के साथ बुनियादी समस्याओं
को उठाया है |विजेंद्र, केशव, निलय , महेश
पुनेठा, विजय सिंह, बुद्धिलाल पाल,आत्म रंजन, संतोष चतुर्वेदी, रामजी तिवारी,शम्भू यादव ,कमलजीत चैधरी ,जीतेन्द्र श्रीवास्तव,हरीशचंद्र पाण्डेय की कवितायेँ लोक संवेदी चेतना को लेकर अपना अलहदा
बयान रखती हैं ,विजेंद्र की लम्बी कवितायेँ गांवों के बनते बिगड़ते रिश्तों को लेकर
गांवों की आत्मकथा बन गयीं हैं | हरीश चन्द्र पाण्डेय का कविता संग्रह “कुछ भी मिथ्या नहीं” व “भूमिकाएं खत्म नहीं होतीं” कविता
संग्रह आम आदमी के जीवन को रूपायित करने वाले जमीनी दस्तावेज हैं | केशव का अभी हाल
में प्रकाशित कविता संग्रह “तो काहे का मैं”
लोकसंस्कृति, लोकवेदना, का लोकधर्मी
बयान है गाँव की स्वाभाविक ,सहज संस्कृतिक सौन्दर्य
को लील रही व्यवस्था पर टीका करते हुए केशव पूंजीवादी मूल्यों पर तंज भी कसते हैं हैं उनका कहना है की “मेरा सौन्दर्य-बोध/ मेंरी जेब में पड़ा पैसा/
तय करता है”(तो काहे का मैं पृष्ठ २६) |निलय उपाध्याय के कविता संग्रह “अकेला घर हुसैन का” और “कटौती”
लोकधर्मी परंपरा का खूबसूरत
निर्वहन हैं |निलय की कविताओं का आधार इतिहास ,भूगोल, और लोकधर्मी परम्पराओं
की प्रगतिशील पक्षधरता है | इस संग्रह में प्रकाशित निलय की कविताओं में महानगरीय लोकविमर्श
के साए में मेहनत-कश स्त्रियों की जिंदगी का
क्रूरतम सच देखा जा सकता है यह सच किसी से छिपा नहीं है |नव उदारवादी व्यवस्था ने गाँव
के गाँव खत्म कर दिए हैं गांवों में खेती करके
जीवन बसर करने वाले किसान शहरों में मजदूर बन गएँ हैं मुंबई लोकल की ट्रेन में सवार
मेहनत- कश नारी का चित्रण व्यवस्था का अमानवीय चेहरा प्रस्तुत करता है महेश पुनेठा का कविता संग्रह “भय अतल में” पहाड़ी लोकजीवन और पहाड़ी जनजीवन पर मंडरा रहे खतरों के प्रति
आगाह करता है महेश पुनेठा की कवितायेँ बगैर किसी कलात्मक दाँव-पेंच के बड़े सहज ढंग
से नवउदारवादी विश्वव्यवस्था की मुखालफत करती
हैं |विजय सिंह अपने खाश अंदाज में अपनी जमीन और अपनी माटी का को लेकर कवितायेँ
लिख रहें हैं इनकी कवितायेँ भले ही नवउदारवाद के नकारात्मक पक्ष का आक्रोश-पूर्ण चित्र
न उपस्थित करती हों पर आम जन जीवन के किसी पक्ष को इन्होने नकारा नहीं हैं | नित्यानंद
गायेन, का कविता संग्रह “अपने हिस्से का प्रेम” एक नए मेकेनिज्म की तलाश है |शम्भू की कविताओं में गांव पूंजीवादी
मकडजाल में उलझा घोर विसंगतियों का शिकार है इन समस्यों को लेकर शम्भू पाठक के जेहन
में कई सवाल खड़े कर देते हैं |जितेन्द्र श्रीवास्तव की “अनभै कथा” और “बिलकुल तुम्हारी तरह” की कवितायेँ हाशिये पर पड़े मूल्यों के बिखराव की कथा कहतीं हैं
उनकी कविता “कायांतरण”
एक देह का बदलाव ही नहीं
समूची सभ्यता का बदलाव है |आत्म रंजन का कविता संग्रह “पगडंडियाँ गवाह हैं”पहाड़ी अंचल में हुए व्यापक आद्यौगीकरण व नवउदारवादी परिवर्तनों
के फलस्वरूप संकटग्रस्त मनुष्यता का रचा गया वितान है |रतीनाथ योगेश्वर का कविता संग्रह
“थैंक्यू मरजीना”
एक सुगठित शिल्प एवं अनोखे अंदाज में भाषाई कारीगरी से चमत्कृत नवउदारवाद का प्रतिरोध
गान है| बली सिंह मिथक और यथार्थ दोनों के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं |दोनों
शैल्पिक खांचे में वो जमीनी संवेदना ही लेकर चलते हैं इस नयी विश्व –व्यवस्था में
कामगार ,मजदूरों, शोषितों, वंचितों के वस्तुपरक हालात का उन्होंने बखूबी जायजा
लिया है |बली सिंह की कविता “बेटी चुप बैठी है” (अष्टाक्षर पृष्ठ ८८) इस मायने में
एक बेहतर कविता है जिसमे नवउदारवादी व्यवस्था में शोषित जन की उपस्थिति दिखाई गयी
है | शिरीष कुमार मौर्या की कवितायेँ कल्पित सामंती आदर्शों में यथार्थ का प्रहार
है|यहाँ टूटन भी है , बिखराव भी है ,प्रतिरोध भी है ,|
आज की कविता में व्यवस्था के खिलाफ अनास्था का
स्वर आज के कवि की सजगता है |तकनीकी अविष्कारों ने उत्पादन बढाया है बाजार भी विश्वव्यापी कर दिया है |लेकिन
मनुष्य को मनुष्यता से रहित कर दिया है |आर्थिक कारकों को तकनीकी के भरोसे छोड़ देने
का ही ये प्रतिफल है की आज मनुष्य इंसान की जगह उपभोक्ता बन चूका है| हर्बर्ट मार्क्यूज
ने कहा है की “उपभोक्तावाद मनुष्य के अनंत आयामों को निगल जाने के लिए काफी
है” कीन्स ने बहुत पहले उपभोक्तावाद से आगाह कर
दिया था |समृद्ध समाजों द्वारा उत्पादित वस्तु का व्यापार ही लोकतंत्र की रीढ़ बन जाती
है| यह संस्कृति क्रांति चेतना का नाश करती है| और मानव सुख साधनों का गुलाम होकर वर्गीय
पीड़ा को भूल जाता है मानवीय संस्कृति के इस पाशवीकारण के पीछे उत्तर आधुनिकतावादी चिंतन
का हाथ है | यह चिंतन यूरोप के लूट-तंत्र के औचित्य को साबित करने के लिए गढ़ा गया है | इस चिंतन ने
पूँजीवाद साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, को पोषित करने वाला दर्शन
है इसी दर्शन का नतीजा है की हमारे देश की सरकारों ने व्यापक जनहित को ताक में रखकर विश्व पूँजी के जाल में फसाकर हर व्यक्ति को उपभोक्ता बना दिया है|
प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक के आलेख “नवउदारवाद और सांप्रदायिक फासीवाद”
(साझा संस्कृति संगम इलाहबाद २००१४ के दस्तावेजो में संकलित ) में नवउदारवादी अर्थ् नीतियों के भयावह परिणाम
पढ़े जा सकते हैं| इस बाज़ारवाद का एक चित्र आत्म रंजन के यहाँ देखिये जिससे बाजार के प्रति कवियों में
व्याप्त चिंता को समझा जा सकता है | उनकी कविताओं में बाजार के विरूद्ध सात्विक आक्रोश परिलक्षित होता है वो बार - बार स्मार्ट जाब व स्मार्ट मनी
का जिक्र करके बाजार वादी व्यवस्था में उत्पन्न नये मजदूर वर्ग पर व्यंग
कसते हैं उनकी कविता “इस बाजार समय में “ में बाजारवाद का पूरा
सच सामने रख देते हैं –“चमक का कमाल है सारा/चमक की व्यख्या का/ कमाल ही कमाल/ इस समय
बाजार में/ सब लाजावाब चकाचक झकाझक “(पगडंडियाँ गवाह हैं )यहां चमक का आशय है उपभोक्ता को उत्पाद की ओर आकर्षित करने
के लिये थोथे दावों से युक्त विज्ञापन। यही चमक उत्पाद बेचती है उपभोक्ता तय करती है
उत्पाद का लाभ तय करती है। इस नवउदारवाद ने सबसे ज्यादा किसानों को लूटा है स्वाभाविक
है किसानों को लेकर व्यवस्था के प्रति कवियों में आक्रोश होगा और
किसानो के बहाने व्यवस्था पर प्रहार भी होंगें
किसानो को लेकर कुछ कवियों ने उम्दा प्रतिरोध मूलक कवितायें लिखी हैं हरीश्चंद्र
पाण्डेय प्रतिरोध को बुनियादी जीवन सन्दर्भो
से जोड कर देखते हैं। हरीश जी अपने चारो ओर व्याप्त
भ्रष्टाचारी आतंककारी अस्त - व्यस्त परिवेश
को कचोटते हुये मुखर प्रतिरोध का सृजन करते
हैं। प्रतिरोध का स्वर उनकी कविताओं में इस हद तक मुखर है कि उनकी कवितायेां वर्गीय
चेतना से संविलित आम जन का आत्म कथ्य प्रतीत
होती हैं। समस्त सामाजिक, राजनैतिक परिपाटियों की परमपरागत मूर्त जडता को तार तार करते हुये सम्भावित
खतरो का स्पष्ट संकेत कर देते हैं। “किसान और आत्महत्या” कविता में किसानो की आत्महत्या को हत्या कहकर
सम्पूर्ण व्यवस्था को मुजरिम के कटघरे में
खडा करके नवउदारवादी नीतियों का काला चिठ्ठा खोल कर रख देते हैं। “कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना /और
दुर्नीति को नीति”
(किसान और आत्महत्या)किसानो की दुर्दशा का एक वेदनामय बिम्ब महेशचन्द्र पुनेठा की कविताओं में मिलता है। महेश पुनेठा लोक धर्मिता के कवि हैं। उनकी कवितायें विभिन्न भाव-भूमियों
का स्पर्श करती हुयी तमाम दावों व वादो का
खोखला पन उजागर करती हैं। पहाडी लोक संस्कृति पहाडी जीवन, पहाडी
जीवन की जिजीविषा , दुसाध्य जीवन शैलियां व स्त्री-विमर्श का प्रमाणिक खाका खींचने वाले एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी कवितायें नवउदारवादी व्यवस्था का प्रतिरोध करती
हुयी मानव समुदाय पर इसके बहुआयामी प्रभावो का खौफनाक मंजर उपस्थित करती हैं। इनकी
कवितयों विकास और प्रकृति के द्वन्द से भी प्रभावित हैं। उत्तराखंड की पहाडी वादियों में तथाकथित विकास का विनाश
पूर्ण चेहरा महेश पुनेठा
की कविताओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। उनको बाजार वादी हथकन्डों की पहचान बहुखूबी है वे
जानते हैं कि किसान की गरीबी का कारण सरकार दवारा दिया गया कुर्तक नही कुछ और है। गरीबी के इसी पूंजीवादी कुर्तक का खंडन वो अपनी कविता “निर्धनता का कारण और अकर्मण्यता में
करते हैं””खेतो में सडता आलू /बीज खाद का उधार /सिर चढा
जोग्या के/ कौन सा कर्म करे कौन सा उपाय/ उतार सके उधार/ गरीबी का कारण अकर्मण्यता को बताते
हो तुम/ कैसे विश्वास किया जाये तुम्हारे इस तर्क पर” | अकाल और आभाव की दोहरी मार से त्रस्त बुन्देली किसानो का जीवन भली-भांति परखने वाले केशव
ने किसान की दुर्दशा का चित्र इस प्रकार खींचा है कि वो समूची वितरण व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खडा कर देता
है। एक ओर उत्पादन के लिये
किसान दिन रात परिश्रम कर रहा है और दूसरी ओर काला बाजारी और मुनाफाखोरी के लिये पूंजीपति
सरकारो के साथ सांठ-गाँठ करके किसानो के मुंह का निवाला छीन रहे हैं। तीव्र अपराध बोध
का भाव उत्पन्न करती केशव की यह कविता देखिये
–“मैं उनको ही जानता हूँ/ जो इन खेतो के साथ - साथ जाग रहे हैं /और उनको भी जो लगातार सडते हुये आनाज पर गलत बयानी करते जा रहे
हैं।“ (तो काहे का मैं )”खेत जगाये जा रहे हैं” कविता का यह अंश सुविधा भोगियों द्वारा अपहत व्यवस्था का खूबसूरत उदाहरन है | लोक और किसानो
की चर्चा हो विजेंद्र को रेखांकित न किया जाय तो वह चर्चा अधूरी है |विजेंद्र जी आज
भी भी उतने ही सक्रिय है जितना पहले हुआ करते
थे उन्होंने समय और परिस्थिति के अनुसार खुद
को परिवर्तित भी किया है उनकी नयी कविताओं में नवउदारवादी पीड़ा को स्पष्ट देखा जा सकता है उनका नया संग्रह “बेघर का बना देश” की कवितायें मानवीय वेदना
के साथ-साथ व्यवस्था के वर्गीय चरित्र के विरुद्ध तीव्र आक्रोश का सृजन कर रही है। यह
आक्रोश केवल बद्धिक जुगाली नही है अपितु व्यवस्था के समक्ष सामान्य मनुष्य की उपस्थिति
दर्ज कराकर मुक्ति की कामना भी है। विजेन्द्र के आक्रोश को
उनकी इस कविता से भली-भाँति परखा जा सकता है। जहाँ पर वे सत्ता के पूँजीवादी चरित्र
का खुलासा करते है।“सत्ताधीश खुस होता है/ बटे हुए गरीबों को दुःखी देख/ भूखे भेड़ियें, टपकाते है आँसू/ आतडियां
चबाने को( पृष्ठ संख्या २३ )इस कविता में केवल सत्ता का मानव विरोधी रवैया ही नही देखा
जा रहा है वरन गरीबों के दुःख का कारण
भी वे बड़े सजग ढंग से कह जाते है ”बंटे हुए गरीबों को दुःखी देख“ अर्थात सत्ताधीश के
सुख का एक कारण गरीबों का बंटा होना या
असंगठित होना भी है। इस असंगठन के कारण ही पूँजीवादी
शक्तियाँ सत्ता तक पहुँचती है, व्यवस्था पर एकाधिकार करती हैं। कानून और अदालतों को जनता
के विरूद्ध खड़ा करती है। शोषण और अत्याचार की साजिशें इसी असंगठन की कोख से उत्पन्न होती है। विजेन्द्र जी
की कवितायें क्रान्तिचेतस हैं आम आदमी की कठिनाईयों और उनमे निहित अलगाववादी स्वार्थ चेंतना की उन्हें बखूबी पहचान है वे बार-बार फासीवादी शक्तियों से उलझते है ललकारते है टकराते
हैं। यह टकराव केवल जमीनी संकट ही नही अभिव्यक्ति के मौलिक खतरों को भी व्यक्त करता
है बाजारवाद मानव इतिहास का सबसे खतरनाक निर्णय
है जीवन के मौलिक अधिकारों को बाधित कर नियति
के कुचक्र में फंसाकार मजबूर करने वाली साजिश है अत: विश्व-पूँजी एवं इससे उत्पन्न
नई शोषण तकनीक का प्रतिरोध होना आज का लेखकीय सरोकार बन चुका है|
इस प्रकार
समकालीन कविता विभिन्न भावभूमियों में, विभिन्न शिल्पों, शैलियों, में
लिखी जा रही है| इतना सभी कुछ होने के वावजूद भी सभी का मूल स्वर एक ही है| मूलस्वर
एक होने का मूल कारण है आज का कवि न तो स्वप्न खोजता है न ही स्वप्नों का संसार रचता
है वो केवल वर्तमान को जीता है इसी क्षण को जीता है ,वह लड़ता है, टकराता है, हारता
है फिर भी प्रतिरोध के साथ जीता है| वह वर्तमान
के प्रति अनास्था तो रखता है| लेकिन समय को नकारता नहीं वह अनास्था के लिए आक्रोश का
सृजन करता है और पूंजीवादी, वर्चस्ववादी शक्तियों के खिलाफ खड़े होकर प्रतिरोध की आवाज
बुलंद करता है| सही अर्थों में समकालीन कविता
घोर अनास्था और प्रतिरोध की कविता है|
मेरा यह अभिमत समूचे समकालीन जगत को मूल्यांकित करके नहीं दिया गया अपितु उन कवियों और कविताओं के आधार पर दिया गया है जिन्हें मैं इस संग्रह
में सम्मिलित कर रहा हूँ |इसमें संग्रहीत कवियों के समूचे साहित्य को लेकर ही एक सामान्य
आइडिया खोजा जा सकता है| हर एक कविता और कवि का स्वर अलग अलग होता है | “द्वंदात्मक भौतिकवाद” की पृष्ठभूमि में युग-बोध की विवेचना करने पर संभव है की मेरे
निष्कर्षों को खोजा सकता है| फिर भी मैं सम्पूर्णता का दावा नहीं करता दावा केवल दृष्टि
का कर सकता हूँ और कर रहा हूँ |
इस संग्रह को कल्पना से निकालकर यथार्थ तक पहुँचाने
का सारा उत्तरदायित्व बहन सोनी का है जिन्होंने मुझ आलसी को यह बड़ा काम सौंप कर लगातार
सचेत करती रहीं| उनसे यदि कोई कमी रह गयी तो मृदुला बहन ने सही मार्गदर्शन किया | राम
जी तिवारी भाई साहब , संतोष चतुर्वेदी , केशव तिवारी भाई साहब
ने हमेशा संपर्क बनाए रखा जहाँ भी मैं उलझा उन्होंने ही मुझे सुलझाया | विजेन्द जी
को मैं बार बार प्रणाम करते हुए उनके स्नेह
आशीष के प्रति आभार प्रकट करता हूँ| हरेप्रकाश उपाध्याय , महेश पुनेठा , आत्म
रंजन, अंजू शर्मा जी ,का भी आभारी हूँ जिन्होंने इस संग्रह को व्यापक
बनाने में भरपूर सहयोग दिया , अग्रज, शम्भु यादव ,अच्चुतानंद मिश्र भाई ,अविनाश मिश्र ,हरीश्चन्द्र पांडेय जी
ने मेरे एक ही आग्रह पर अपनी रचनाये भेज दी उनका इस सहयोग पूर्ण रवैये का भी मैं आभारी हूँ | भाई कमलजीत
चैधरी ,बुद्धिलाल पाल, रवीन्द्र भाई साहब का भी मैं आभारी हूँ| जिन्होंने
मुझे हर स्तर का सहयोग दिया , जितेन्द्र श्रीवास्तव , रवीन्द्र के. दास, रतीनाथ
योगेश्वर ,जी का विशेष सहयोग मेरे प्रति रहा उनका भी मैं आभार प्रकट करता
हूँ |निलय उपाध्याय जी अपनी व्यस्तता के बीच
समय निकाल कर अक्सर इस अंक बारे में जानकारी लेते रहे और अपने अमूल्य सुझाव देकर मेरा
काम भी हल्का कर देते रहे उनको प्रणाम करते हुए आभार प्रकट करता हूँ |साथी विजय सिंह
ने भी इस अंक की बराबर खोज खबर रखी मैं उनका भी आभार प्रकट करता हूँ |,अपने मित्र अजीत प्रियदर्शी
और आलोचक अमीरचंद्र वैश्य का भी आभारी हूँ जिन्होंने समकालीन कविता की परत -दर परत
समीक्षा करके मेरा काम हल्का कर दिया उन सभी कवि मित्रों का भी आभार जिन्होंने अपनी
रचनाये भेजकर गाथांतर के इस अंक की सफलता में अपना योगदान दिया |
---उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू जनपद बाँदा
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