जहाँ एक ओर इतनी कविता लिखी और पढ़ी जा रही है, विगत कई वर्षों से 'कविता एक मरती हुई विधा है' का जुमला बार बार किसी रूप में सामने आता रहा है! समकालीन कविता के संकट के प्रति ज़ाहिर की रही तमाम चिंताओं के बीच डॉ. नलिन रंजन सिंह का यह सामयिक लेख पढ़े जाने की मांग करता है! इस लेख को प्रसिद्द कवयित्री सुशीला पुरी जी ने उपलब्ध कराया है इसके लिए उनका हार्दिक आभार!
कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी.पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की जरूरत किसे है?1
मंगलेश
डबराल की यह चिन्ता आज कविता की आलोचना के केन्द्र में है। 'कविता की जरूरत किसे
है? यह प्रश्न कविता के संकट की ओर संकेत करता है। क्या कविता अपने अर्थ खो
चुकी है? क्या वह असंभव हो गयी है? क्या वह हाशिए की विधा हो गयी है? क्या वह
दुग्र्राह्य हो गयी है? क्या वह एकरस हो गयी है? क्या वह गतिहीन हो गयी है?
क्या कविता के सामने अब पहचान का संकट आ गया है?
समकालीन
कविता को लेकर इस तरह के तमाम प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इन प्रश्नों पर बहस जारी है
और कवि.आलोचक अपने.अपने तरीके से इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने की कोशिश कर रहे
हैं।
नंदकिशोर
नवल की एक पुस्तक है, 'कविताः पहचान का संकट।2 कविता के पहचान
के संकट के बारे में पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार हैं . 'वैसे तो पहचान के संकट
की शिकार साहित्य की सभी विधाएँ हैंए लेकिन कविता की आलोचना में वह सर्वाधिक
प्रत्यक्ष है। कारण यह है कि और विधाएँ जहाँ किसी हद तक मात्र वस्तु विश्लेषण को
बर्दाश्त कर सकती हैंए कविता नहीं कर सकती क्योंकि रसए सौन्दर्य या कवित्व वह आधार
हैए जिससे उसका वजूद अलग नहीं हो सकता। आज हिन्दी में काव्यालोचन रचना के सौन्दर्य
निरूपण को रूपवाद मानता है और अपने को उसके सामाजिक संदर्भ या वैचारिक अभिप्राय तक
सीमित रखने का आसान रास्ता चुन लेता है।'3 पुस्तक में जिस आसान रास्ते के चुनाव
की बात की गयी है वह रास्ता भी आसान नहीं है। सामाजिक संदर्भों को कभी खारिज नहीं
किया जा सकता। सामाजिक संदर्भ कविता में न हों तो कविता कोरी कल्पना होगी। जड़ों से
कटी हुई वायवीय कल्पना कब तक टिक पाएगी? सूक्ष्म के विरुद्ध स्थूल का विद्रोह
होकर रहेगा। स्वच्छन्दता अतिचारी होकर शास्त्रीयता की माँग कर बैठती है जिससे
अभिजात्यता का पोषण होता है। इसलिए संवेदनशील सामाजिक संदर्भ सपाट शब्दों में भी
महत्वपूर्ण रहेंगे। वैसे भी नयी कविता के दौर में ही सपाट बयानी को एक प्रमुख
प्रतिमान माना जा चुका है। रहा सवाल वैचारिक अभिप्राय का तो वह ज़ेरे बहस है।
नंदकिशोर
नवल यह मानते हैं कि 'कवित्त एक गतिशील वस्तु तो है ही, दुग्र्राह्य भी है...!4
प्रश्न उठता है, कविता दुग्र्राह्य कब होती है? दुग्र्राह्यता का यह प्रश्न
रूपवाद की ओर ले जाता है। सौन्दर्य निरूपण जब.जब अतिशय आलंकारिक हुआ है, कविता
कठिन हुई है और 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई'5 का भाव जाता
रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कठिन काव्य के प्रेत 'हृदयहीन कवि'6 भी
मिलते हैं। ऐसा जब.जब हुआ है, कविता ने धारा बदली है। नवल जी स्वयं मानते हैं कि 'कवित्त एक गतिशील वस्तु है।'7
दरअसल
कविता की गतिशीलता ही उसकी ताकत है। जो गतिशील होगा उसमें परिवर्तन भी होगा। कविता में जब.जब यह परिवर्तन ध्वनित हुआ है तब.तब नए.पुराने के द्वन्द्व में कविता के
सामने संकट खड़ा किया गया है। कभी 'कवित्त को खेल'8 मान लिया गया
और 'सुकवियों के रीझने को कविताई।' 'कभी उपमान मैले हुए'9 और
तमाम 'प्रतीकों के देवता कूच कर गए'।10 कभी 'कविता का शव लादकर'11
कविता के मरने की घोषणा की गई। कविताए अकविता हो गई, लेकिन उसके एक दशक बाद ही 1980 को
कविता की वापसी का वर्ष कहा गया। जिन कवियों के कविता संग्रहों ने 1980 को
कविता की वापसी का वर्ष बनाया था उनमें से राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश आदि
अब भी सक्रिय हैं। स्पष्ट है कि तमाम किन्तु.परन्तु और परिवर्तनों के बाद भी कविता
सुरसरि सम बहती रही। कवि कविताएँ लिखते रहे, सुनाते रहे और पढ़ने.सुनने वाले उन्हें
पढ़ते.सुनते रहे। फिर अचानक यह कविता का संकट कहाँ से उठ खड़ा हुआ?
वास्तव
में कविता के संकट के प्रश्न में कवि के संकट का प्रश्न भी समाहित है। आज कविता पर
यह आरोप है कि लोग कवियों को जानते हैं, कविताओं को नहीं। यद्यपि यह बात पूरी तरह
सच्ची नहीं है। अच्छी कविताएँ लोग जरूर याद रखते हैं। फिर भी कविता के संकट में
कवि का संकट बड़ा है। भविष्यवाद से ग्रस्त कवि, कविता के सहारे जब जीवन जीने का
भविष्य तलाशने लगता है तब संकट जरूर आता है। यह कविता के दरबारीकरण का रुपान्तरण
है। इससे पिछलग्गूपन, जुगाड़, भाई.भतीजावाद, चारण परम्परा, संपादक.कवि, आलोचक.कवि,
प्रशासन.कवि जैसे तमाम अद्भुत संबंध फूलते.फलते हैं। इन संबंधों के सहारे 'कोई
कवि बन जाय सहज संभाव्य है।'12 इससे कविता के सामने संकट आना लाजिमी
है। कविता के इस संकट में बाज़ारवाद और शिल्पगत एकरसता आग में घी डालने का काम कर
रहे हैं। हाल के वर्षों में देखें तो बाजार में जगह पा लेने के लिए सतही संवेदना
के सहारे तमाम कविताएँ लिखी गयीं। बिकने, छपने और चमकने की अभिलाषा में
इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के सामने सायास रचनाएँ करता कवियों का एक झुण्ड सामने
आया। चारण परम्परा के ये कवि बहुत दिनों तक टिक नहीं सके। वे या तो कुण्ठा के
शिकार हो गए या भोंडे विदूषकों में तब्दील हो गए लेकिन सच्ची संवेदना वाले कवियों
और कविता विधा को धक्का देने में जरूर सफल रहे। मंगलेश डबराल को शायद इसीलिए यह
पीड़ा सालती है, वे बाज़ार में निश्शब्द हैं
.
'बाजारों में घूमता हूँ निश्शब्द/डिब्बों में
बंद हो रहा है पूरा देश
पूरा जीवन बिक्री के लिए/एक नयी रंगीन किताब
है जो मेरी कविता के
विरोध में आई है/जिसमें छपे सुन्दर चेहरों को
कोई कष्ट नहीं
जगह.जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले
जनाब एक पूरी फ़िल्म है लंबी/आप खरीद लें और
भरपूर आनंद उठाएँ
शेष जो कुछ है अभिनय है/चारों ओर आवाजें आ रही
हैं
मेकअप बदलने का भी समय नहीं है
हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहनकर चला आया है
वह जिसे अपने पर गर्व था/एक खुशामदी की आवाज़
में गिरगिरा रहा है
टेª
जेडी है संक्षिप्त लंबा प्रहसन/हरेक
चाहता है किस तरह झपट लूँ
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार।'13
निश्शब्दता,
बाज़ार का शोर और पुरस्कार झपट लेने की चाहत रखने वालों की भीड़ का यह परिवेश कविता
के सामने बड़ा संकट है। आज के दौर में कविता को कहानी ने पीछे छोड़ दिया है।
उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाएँ भी आगे निकल रही हैं। यद्यपि कविता लिखी सबसे
अधिक जा रही है। लगभग हर साहित्यिक पत्र.पत्रिका में कविताएँ छप रही हैं, नये.नये
संग्रह आ रहे हैं, उन पर समीक्षाएँ लिखी जा रही हैं लेकिन आज की कविता सामान्य जन
से नहीं जुड़ पा रही है, इसीलिए कम पढ़ी जा रही है। यह चिन्ताजनक अवश्य है किन्तु
निराशाजनक नहीं क्योंकि कविता का सबसे अधिक लिखा जाना उम्मीद जगाता है। कविता इसी
रास्ते फिर वापसी करेगी क्योंकि जो रचेगा वह बचेगा। 'कविता में संवेदना सघन रूप
से होती हैए इसलिए बाज़ारवाद के लिए इसे भेदना और माल बनाकर बेचना मुश्किल हो जाता
है। बाज़ार सभी कवियांे को अपने भीतर नहीं समेट सकता।'14 वैसे भी कविता
वर्तमान समय की सबसे अधिक अव्यावसायिक विधा है और सब कुछ के बावजूद संवेदनशील
कविता की पहचान का संकट संभव नहीं है क्योंकि विरेचन की संभावना कविता में ही
सर्वाधिक होती हैए उसका स्थान कोई नहीं ले सकता।
जहाँ
तक शिल्पगत एकरसता का सवाल है उसके जवाब में ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एकरसता
टिकाऊ नहीं होती है, उससे विविधता और निरंतरता दोनों बाधित होते हैं। इससे उबरने
का उपाय डाॅ. नामवर सिंह बताते हैं. 'कविता में जब कवियों को नया मार्ग नहीं
सूझता, नई दिशाएँ मेघाच्छन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी चहारदीवारी से निकलने का
उपाय नहीं सूझता तो लोकशक्ति ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है …… अंधकार को चीरती है, कुहरे को छाँटती हैए मार्ग
को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की संज्ञा में प्राण.वायु का संचार करती
है।'15
नामवर
जी के इस उपाय को लेकर तमाम कवियों ने कविता में लोक.संस्कृति और जातीय पहचान को
विशेष महत्व दिया है। लोक.संस्कृति के शब्द लेकर लोक.संवेदना से जुड़े कवि अपनी अलग
पहचान बना रहे हैं। कवि बोधिसत्व इसके बड़े उदाहरण हैं। केशव तिवारी और अशोक पांडे
में भी लोक संवेदना गहरे पैठी है। बोधिसत्व को पता है कि .
'मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ, समझ रहा हूँ, मौसम
कुछ ठीक.ठाक नहीं है।'16
शायद
इसीलिए वे उदास मौसम के खिलाफ़ गाँव की अमराइयों में घूमते हैं। गाँव से रंग लेकर
निराला, नागार्जुन पर कविताएँ ही नहीं लिखते बल्कि कविता में चित्र बनाते हैं।
मुम्बई में रहकर भी उन्हें 'भदोही में टायर की चप्पल पहना आदमी'17
नहीं भूलता। हाँलाकि कुछ कवियों को जब सच सुने हुए बहुत दिन हो जाते हैं तो वे
बनावटी लोक.संवेदना के शिकार होकर क्षेत्रीयता और देशज आग्रहों में कविता को
गड्ड.मड्ड कर देते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि जितना जल्दी हो वे सच सुनें और
सायासता से बचें। सहजता अपनाएँ। शब्दों के मोह में 'बारहमासा'18
नहीं रचें तो भी चलेगा क्योंकि 'सिर्फ भाषा से कविता संभव नहीं है। कवि के पास
अनुभव, विचार और संवेदना की एक मिली.जुली थाती होती है। लोक संवेदना से कवि का
जुड़ाव हो, मगर कोरे शब्दों के स्तर पर नहीं!'19 आसान लिखना
कठिन होता है। सहज भाषा में अपनी संवेदना को रखते हुए कविता को देखना हो तो
जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ देखिए .
तुम हो यहीं आस.पास/जैसे रहती हो घर में
घर से दूर/यह एक अकेला कमरा
भरा है तुम्हारे होने के अहसास से/होना
सिर्फ़ देह का होना कहाँ होता है!20
संवेदना
और अनुभव की समझ से ही जितेन्द्र श्रीवास्तव को पता है कि गाँवों में भी सब कुछ
ठीक.ठाक नहीं है। तभी वे 'अंधेरा' जैसी कविता लिखते हैं। यही अनुभव बोधिसत्व से 'ऐसा ही होता है' और केशव तिवारी से 'बहुत कुछ सूखा है' एवं कई अन्य कविताएँ
लिखाता है। जितेन्द्र की सहज भाषा की कविताएँ पाठकों को खूब फँसाती हैं, लगता है
कविता लिखना कितना आसान है। जैसे कभी अमरकान्त की कहानियों के लिए कमलेश्वर ने कहा
था।21
इतनी
समर्थ युवा पीढ़ी होने के बाद भी समकालीन कविता के संकट में उसकी पहचान को लेकर
हो.हल्ला मचाने वाले कविता की संरचना में उस तुक या कटाव पर बार.बार सवाल खड़ा करते
हैं जो कविता को गद्य से अलग करता है। यह प्रश्न भी कमजोर कविताओं को लेकर अधिक
है। कोई यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हो जाता। ज्ञानेन्द्रपति यूँ ही महत्वपूर्ण
कवि नहीं हैं। कविता को लय कैसे दी जाती है यहाँ देखिए .
चेतना पारीक कैसी हो/पहले जैसी हो?
कुछ.कुछ खुश/कुछ.कुछ उदास
कभी देखती तारे/कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?/अब भी कविता
लिखती हो?/22
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है. 'प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि.कर्म का मुख्य अंग है।
ज्यों.ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों.त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जाएगा।
मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखने वाले रूपों और व्यापारों को
प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि
ज्यों.ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए.नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों.त्यों एक
ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि.कर्म कठिन होता जाएगा।'23
इस
पूरे संदर्भ में अगर अन्तिम वाक्य पर ध्यान दें तो कविता की आवश्यकता और कवि.कर्म
की कठिनता पर शुक्ल जी आज भी प्रासंगिक लगते हैं। कविता करना भाषा की सायास या
अनायास कोशिश नहीं है। दोनों के मिश्रण की क्रीड़ा भी नहीं है। बिना संवेदना के
कविता अधूरी है। संवेदनहीन होते जा रहे वर्तमान समाज में संवेदनशील कविता की
आवश्यकता बढ़ती जा रही है, ऐसे में संवेदन शून्य सायास रचनाकारों के बस की बात नहीं
है कि वे इस आवश्यकता को पूरा कर सकें। स्पष्ट है कि सभ्यता के मौजूदा दबाव में
कवि.कर्म कठिन हो चला है। फिर भी संवेदनशील कवियों की कमी नहीं है। जहाँ संवेदना
है वहाँ कविता पूरी ताकत से खड़ी है। इसीलिए मुक्तिबोध, पाश और राजेश जोशी की
कविताओं के पोस्टर बनते हैं। करती होगी कहानी छोटे मुँह बड़ी बात, पर जो असर छोटे
मुँह कविता करती है, वह कोई विधा नहीं कर सकती। राजेश जोशी की कविता है .
कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह.सुबह/बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे/
क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया है/सारी रंग.बिरंगी
किताबों को
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकम्प में ढह गई हैं/सारे मदरसों
की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में/
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्यादा यह
कि हैं सारी चीजें हस्बमामूल
पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजरते हुए
बच्चे, बहुत छोटे.छोटे बच्चे/काम पर जा रहे
हैं।24
कविता
की आरम्भ की पंक्तियों को पढ़ने के बाद हम ठहरकर सोचने लगते हैं और फिर अगले ही पल
पूरी कविता पढ़ जाते हैं। कविता में व्यवस्था.विद्रूप की भयावहता चरम रूप में सामने
आती है। सीधे.सपाट शब्दों में कवि सब कुछ कह देता है और हम कविता पढ़ते हुए सिहर
उठते हैं। हाशिए पर पड़े समाज के एक हिस्से का यह अद्भुत वर्णन है। हाशिए के समाज
से आज दलित और स्त्रियाँ कविता के केन्द्र में हैं। जाहिर है कि कविता उत्तरशती के
विमर्शों से रूबरू है। अब तो हाशिए के समाज से ही नये सौन्दर्य.शास्त्र की माँग
आने लगी है। कहना न होगा कि यह सौन्दर्य.शास्त्र भी सहज भाषा, सपाटबयानी और
संवेदना की त्रयी से ही बन सकेगा। अनुभूति की प्रामाणिकता वेदना और निराशा को
आक्रोशजन्य विद्रोही स्वर में रूपान्तरित करेगी। अहम् निर्दिष्ट व्यक्तिवाद आंचलिक
चेतना के साथ आ सकता है और इसमें मिथकीय प्रतीकों का माखौल उड़ाते हुए नवीन
बिम्बों, नवीन उपादान विधानों को लेकर लय और मुक्त छंद में कविता की जा सकती है।
औरए अगर मैं गलत न होऊँ तो इसकी शुरुआत भी हो चुकी है।
कविता
के संकट को लेकर काव्य प्रयोजनए विचारधारा और नियमों की बातें उठाई जाती हैं जिनको
लेकर कवियों में ही संकट है। प्रफुल्ल कोलख्यान काव्य प्रयोजन का खो जाना या
काव्येतर प्रयोजन से उसका विस्थापित हो जाना, कविता में प्राणत्व के अभाव का बड़ा
कारण मानते हैं।25 'भूमंडलीकरण' जैसी कविता लिखने वाले
प्रफुल्ल समकालीनता के संकट को पहचानते हैं और कविता के प्रयोजन पर जोर देते हैं।
कवि एवं समालोचक अशोक वाजपेयी कहते हैं. 'अगर कवि ने अपने को विचारों से, ख़ासकर
राजनीतिक विचारों से, जो आज की दुनिया में इतने प्रभावशाली हैं, अपने को काट लिया
है या अलग रखा है तो फिर नये कवि का यह दावा कि समकालीन सच्चाई का साक्षात्कार
करने की कोशिश कर रहा हैए व्यर्थ हो जाएगा। राजनीति को दरकिनार रखकर समकालीन
सच्चाई का कोई साक्षात्कार और प्रासंगिक नहीं हो सकता।'26 साहित्य में
कोई विचारधारा होनी चाहिए कि नहीं, इस प्रश्न को व्यास सम्मान से सम्मानित कवि,
आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी विवादास्पद मानते हैं। उनका कहना है कि 'वास्तव में
साहित्य में विचारधारा की जगह संवेदना होनी चाहिए। बिना विचारधारा के साहित्य हो
सकता है मगर बिना संवेदना के साहित्य नहीं लिखा जा सकता। साहित्य शब्द से मतलब है
क्रिएटिव साहित्य।'27
दरअसल
विचारधारा और नियमों को लेकर मतैक्य नहीं है। आज विधाओं में तोड़.फोड़ का सिलसिला चल
पड़ा है। काशीनाथ सिंह का 'संतों, असंतों और घोंघा बसन्तों का अस्सी' जब कथादेश
में छपा तो एक संत वाणी से उसकी शुरुआत हुई थी, 'नियम विज्ञान के होते हैं,
जिन्दगी के नहीं, जो जिन्दगी को नियम से चलाते हैं वे चूतिया हैं।'28 यह
नियम भंग का अनिवार्य हिस्सा है। यही उसकी 'निराला' शैली है। मुक्ति, सारे
बंधनों से मुक्ति। नियम से चलते तो बोधिसत्व को भी इलाहाबाद में ही रुकना था।
संन्यासिन के पीछे.पीछे चित्रकूट नहीं चल देते। चित्रकूट नहीं जाते तो कविताएँ
कहाँ बनतीं? ज्ञानेन्द्रपति की यह कविता महत्वपूर्ण कैसे होती?
सारे आदमी जब / एक से ही आदमी हैं
जल और स्थल पर एक साथ चलकर ही
बने हैं इतने आदमी/तो एक आदमी अमीर
एक आदमी गरीब क्यों है/एक आदमी तो आदमी है।
दूसरा जैसे आदमी ही नहीं है।29
एक
आदमी अमीर और एक आदमी गरीब क्यों है, इसका उत्तर नियम.सिद्धान्त पढ़ाने वाला
विज्ञान शिक्षक नहीं दे सकता। विनय दुबे ने ठीक ही लिखा है .
मैं जब कविता लिखता हूँ/और कविता में स्त्री
लिखता हूँ/
तो स्त्री को स्त्री लिखता हूँ/विचार या
विचारधारा नहीं लिखता हूँ/
विचार या विचारधारा के बारे में आप/कमला
प्रसाद जी से बात करें/
मैं तो कविता लिखता हूँ।30
इन
बातों को समझने की जरूरत है। कविता होगी तो विचार भी होंगे और संवेदना भी होगी।
हाँ, कविता को विचारों से बँधकर ही होना चाहिएए इस पर बहस चलती रहेगी। आजकल कुछ
लोग इसी बहस के कारण कविता में 'देह' को लेकर परेशान रहते हैं। 'नव
साम्राज्यवाद और संस्कृति' में सुधीश पचौरी 'मुक्त देह का आखेट' देखते हैं। कवि
भला इस युगीन सत्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकता है? यहाँ भी संकट नहीं है। जिन्हें
कविता में 'चार महानगरों का तापमान'31 मापना हो वे पवन करण का कविता संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर'32 पढ़ें। संकट दूर हो जाएगा।
स्पष्ट
है कि समकालीन कविता के संकट को लेकर शोर अधिक है, सच्चाई कम है। यही समकालीन
कविता के संकट का यथार्थ है। इस शोर को समर्थ कवि अनसुना करके कहता है .
मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी
अड़चनों के बारे में
अभी तक आलोचना में/विचार नहीं किया गया
ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों और
दिक्कतों के बारे में भी सोचें
जिन पर आलोचना के खाँचे के भीतर सोचना
निषिद्ध है/एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
बार.बार यह ही कहता है/बचो, बचो, बचो
ऐसे क्लास रूम के अगल.बगल से भी मत गुजरो
जहाँ हिन्दी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
और कविता के बारे में राजेन्द्र यादव की बात तो
बिल्कुल मत सुनो।33
संदर्भः
1. मंगलेश
डबराल, कुछ देर के लिए, हम जो देखते हैं ;कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन)
नयी दिल्ली, 1997
2. नंदकिशोर
नवल, कविताः पहचान का संकट, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली 2006
3. वही।
4. वही।
5. तुलसीदास
कृत श्री रामचरित मानस की एक चौपाई की अर्द्धाली।
6. 'केशव
को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी जो एक कवि में
होनी चाहिए।'
आचार्य रामचंद्र शुक्लए हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती
प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010
7. संदर्भ
सं.2
8. 'लोगन
कवित्त कीबो खेल करि जानो है।' रीतिमुक्त कवि ठाकुर की उक्ति।
9. अज्ञेय
की कविता 'कलगी बाजरे की' पंक्ति।
10. वही।
11. धर्मवीर
भारती की एक कविता की पंक्ति।
12. 'राम
तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है/कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है', मैथिलीशरण
गुप्त कृत साकेत की
पंक्तियाँ।
13. मंगलेश
डबराल, अभिनय, हम जो देखते हैं ;कविता संग्रह (राधाकृष्ण प्रकाशन)
नई दिल्ली, 1997
14. राखी
राॅय हल्दर, समकालीन हिन्दी कविता की चुनौतियाँ, वागर्थ, अगस्त 2009,
पृ. 29
15. डाॅ.
नामवर सिंह, इतिहास और आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पाँचवीं आवृत्ति, 2011,
पृ. 87
16. बोधिसत्व, सिर्फ कवि नहीं, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008
17. बोधिसत्व,
दुःखतंत्र, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005
18. बारहमासा।
कवि बद्रीनारायण की एक कविता।
19. चंद्रेश्वर,
समकालीन हिन्दी कविता और लोक संवेदना, उद्भावना, अंक.90, पृ. 43
20. जितेन्द्र
श्रीवास्तव, बिल्कुल तुम्हारी तरह ;कविता संग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ)
प्रथम संस्करण 2011, पृ. 24
21. आधारशिलाएँ-1,
जो मैंने जिया। कमलेश्वर, राजपाल एण्ड सन्ज़, 1992
22. ज्ञानेन्द्रपति,
ट्राम में एक याद, कवि ने कहा ;कविता संग्रह (किताबघर प्रकाशन) 2007
23. आचार्य
रामचंद्र शुक्ल, कविता क्या है? चिन्तामणि पहला भाग, इण्डियन प्रेस (पब्लिकेशंस)
प्रा.लि. इलाहाबाद,
1999, पृ. 99
24. राजेश
जोशी, बच्चे काम पर जा रहे हैं, नेपथ्य में हँसी ;कविता
संग्रह, (राजकमल प्रकाशन) नई दिल्ली 1994
25. प्रफुल्ल
कोलख्यान, कविता क्या संभव है, आलोचना अंक.30, पृ. 96
26. उद्धृत,
सुमित पी.वी., समकालीनता और कविता, समकालीन भारतीय साहित्य, अंक.147,
पृ. 137
27. विश्वनाथ
प्रसाद तिवारी से महेन्द्र तिवारी की बातचीत, दैनिक हिन्दुस्तान, 15
मार्च, 2011
28. काशीनाथ
सिंह, संतों, असंतों और घोंघा बसंतों का अस्सी, कथादेश, सितम्बर.2001
29. ज्ञानेन्द्रपति
की कविता 'विज्ञान शिक्षक से छोटी लड़की का एक सवाल' की पंक्तियाँ।
30. विनय
दुबे, भीड़ के भवसागर में (कविता संग्रह) उद्धृत, वागर्थ, अगस्त
2009 पृ. 3
31. कमलेश्वर
की एक कहानी।
32. पवन
करण, स्त्री मेरे भीतर (कविता संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 2004
33. राजेश
जोशी की कविता 'एक कवि कहता है' की पंक्तियाँ।
---
डाॅ. नलिन रंजन सिंह
वरिष्ठ प्रवक्ता,
जेएनपीजी कालेज,
स्टेशन रोड, लखनऊ।