यूँ मंटो को गए ज़माना हुआ पर कुछ तो बात है उसमें कि ज़माने के साथ बीतता ही नहीं! आपके-हमारे दिलों पर उसकी हुकूमत आज भी बदस्तूर जारी है! आज मंटो की सालगिरह पर उसी सदाबहार मंटो को सिलसिलेवार याद कर रहे हैं अपने इस दिलचस्प लेख में कवि-कहानीकार-लेखक मित्र प्रेमचंद गांधी....
मंटो जैसे लेखक को मैंने कैसे पढ़ा, इसका एक खाका कैफ़ी आज़मी ने अपने एक
संस्मरण में जो लिखा है, उससे मिलता-जुलता है। उर्दू में ‘अंगारे’ का
आग़ाज एक बहुत बड़ी घटना रही। लखनऊ में ‘अंगारे’ के एक सामूहिक पाठ का
जि़क्र करते हुए कैफ़ी आज़मी ने लिखा है कि एक बंद कमरे में मौलाना किस्म
के कुछ लोग और उनके दोस्त एक किताब पढ़ रहे थे और हम जैसे छात्र
खिड़की-दरवाजों की दरारों से देखा करते थे कि वे कौनसे रहस्यमयी काम को
अंजाम दे रहे थे। यह भेद तो खैर बाद में खुला कि वे सब ‘अंगारे’ पढ़ रहे
थे। मैंने भी मंटो को शुरुआत में ऐसे ही एक छोटी-सी दुछत्ती में इतनी
चोरी-चकारी के साथ पढ़ा था कि आज शेल्फ़ में ‘दस्तावेज़ : मंटो’ के पांच
खंड उन बेवकूफियों पर मुस्कुराते नज़र आते हैं। हतक, ठंडा गोश्त, काली
सलवार और खोल दो, जैसी कहानियों के साथ मंटो का मुकदमा जैसी किताबें शायद
सोलह बरस की उम्र में बिगाड़ने के लिए काफ़ी थी। इस तरह मंटो से पहली
सनसनीखेज और चोर-मुलाकातें हुईं। मुझे यह मालूम नहीं था कि मंटो मेरे जन्म
से 12 बरस पहले ही दुनिया से कूच कर गया था और वो भी उस लाहौर में जिसे
मेरे दादा मरहूम मंटो के जीते-जी 1946 में बंटवारे से पहले ही छोड़ आए थे।
जब दादाजी लाहौर से वापस आये तो उन दिनों मंटो बॉम्बे की फिल्मी दुनिया
और कहानियों की दुनिया में जद्दोजहद कर रहा था।
बहरहाल, मंटो से मोहब्बत का जो सिलसिला शुरु हुआ वो आज तक कायम है। इसमें
एक मोहब्बत का जिक्र और जरूरी लगता है, जिसके बिना मंटो और मेरी मोहब्बत
का अफसाना शायद अधूरा रह जाएगा। मेरी एक दोस्त है, जो मंटो को मुझसे
ज्यादा मोहब्बत करती है। करीब बीस बरस पहले की बात है यह, जब मेरी उस
दोस्त को मुझमें मंटो नज़र आता था। वो अक्सर कहती थी कि तुम्हारी शक्ल
मंटो से ना मिलती होती तो तुमसे दोस्ती का सवाल ही नहीं था। मुझे आज तक
पता नहीं चला कि कंबख्त मंटो और मेरी शक्ल में ऐसी क्या चीज है जो
एक-दूसरे से मिलती है। बाद के दिनों में हम दोनों ने मंटो की बहुत-सी
कहानियों पर बातचीत की और इस तरह मंटो हम दोनों के प्रेम या कि दोस्ती के
त्रिकोण में मुस्कुराता रहा।
बात दिसंबर, 2005 की है, जब मैंने पहली बार पाकिस्तान की यात्रा की।
प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद ज़हीर की जन्मशती का अवसर था,
जिसमें भारत से 25 लेखक-कलाकारों का प्रतिनिधि मंडल पाकिस्तान गया था।
जाने से पहले जब मैंने अपनी दोस्त को यह बताया तो उसने कहा तुम मंटो के घर
और उसकी कब्र पर ज़रूर जाना, वो तुम्हें देखकर वापस जिंदा हो जाएगा। मेरे
लिए पाकिस्तान की यात्रा सज्जाद ज़हीर की कर्मस्थली की जियारत करना तो
था ही, मंटो की जियारत करना भी था। उस सफ़र में मिला हर किरदार यूं लगता था
जैसे मंटो की कहानी से निकलकर आया हो या कि अगर मंटो होता तो इसे कैसे
बयान करता। 22 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में जब हम लाहौर पहुंचे तो हमें एक
प्रेस कांफ्रेंस से सीधे रेल्वे स्टेशन जाना था, जहां से गाड़ी पकड़कर
कराची पहुंचना था। रास्ते में लक्ष्मी चौक आया। अरे यहीं कहीं तो है मंटो
का घर। हमारे एक मेज़बान दोस्त ने कहा कि वापसी में आप मंटो के घर जा
सकते हैं। लाहौर स्टेशन पर भारतीय रेल की तरह देरी से चल रही पाकिस्तानी
रेल का जब हम इंतजार कर रहे थे, तो मुझे लगा मंटो वहीं प्लेटफॉर्म पर
ठहाके लगा रहा है कि सालों तुमने वतन बांट कर क्या हासिल किया...। इधर भी
देर है, उधर भी देर है, दोनों तरफ़ एक-सा अंधेर है। अल्लाह के नाम पर भीख
मांगते लोगों को देखा तो लगा कि मंटो इनके पीछे चल रहा है, किरदार की तलाश
में। लंबे इंतज़ार के बाद जब रेल आई तो मंटो हमारे साथ ही सवार था
बेटिकट...। मुझे पूरे सफ़र के दौरान लगता रहा कि मंटो हमारे साथ चलते हुए
जैसे किसी बड़े नाविल की तैयारी कर रहा है। कमबख्त चुपचाप लिखे जा रहा था
और हमारी वोदका में से पिये जा रहा था। उसकी ख़ामोश मौजूदगी ने उस एसी
कंपार्टमेंट में वो दरियादिली पैदा कर दी थी कि सुबह होने तक पाकिस्तानी
मुसाफिरों के कटोरदान हिंदुस्तानी मुसाफिरों के लिए खुल गये थे। और मंटो
नदारद था। सिंध में सुबह हुई तो दरिया-ए-सिंध से आती सदाओं ने पैग़ाम दिया
कि मंटो लाहौर में ही कहीं उतर गया था। उसे शायद बहुत चढ़ गई थी। वो वापस
लाहौर के कब्रिस्तान में अपनी कब्र में सोने चला गया था।
कराची से मोहंजोदड़ो, लरकाना और लाहौर वापस आने तक मंटो की याद बराबर बनी
रही। उसके किरदार जैसे कहीं पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पहले दिन जब एक मजलिस
के बाद लाहौर दिखाते हुए हमारे दोस्त जब फूड स्ट्रीट ले जा रहे थे, तो
नजदीक ही टकसाली गेट के पास हीरा मंडी के शाही मोहल्ले की ओर नजरें चली
गईं। यह लाहौर का सबसे बदनाम रेडलाइट इलाका है। फौजिया सईद ने यहां की
वेश्याओं पर एक किताब लिखी है और किताब में छपी तस्वीरों से इसकी तुरंत
पहचान हो गई। एक गली के नुक्कड़ पर ‘हतक’ की सुगंधी की याद दिलाता
खाज-मारा कुत्ता दिखाई दिया। वहीं मंटो भी घूमता नजर आया। भीड़ में उससे
नज़रें नहीं मिलीं, वरना वो किसी नए अफसाने के लिए बुलाता और कहता कि दो
देखो कितनी तरक्की कर ली है इस मुल्क ने। अब यहां की रंडियों पर लड़की ने
किताब लिख डाली है, लेकिन सुगंधी जैसी औरतें आज भी बदतर हालात में जीने के
लिए मजबूर हैं।
इस सफ़र में दोस्तियां इतनी मजबूत हो चुकी थीं कि हमें लगता ही नहीं था कि
इस मुल्क में हम परदेसी हैं। इसीलिये बेख़याली में मैंने अपना बैग फूड
स्ट्रीट के उस रेस्टोरेंट में छोड़ दिया, जहां हमारे मेजबान ने खाना
खिलाया था। सुगंधी को याद करता हुआ मैं अपने दोस्तों के साथ शराब पीने चला
गया। रात के करीब तीन बजे तक हम पीते रहे और सुबह जब आंख खुली तो याद आया
कि पासपोर्ट और तमाम कागजात उसी बैग में रह गये हैं। मंटो मुस्कुरा रहा
था, अब मेरे साथ मेरी ही कब्र में आ जाना। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था,
लेकिन क्या कर सकता था। बहुत खोजने पर मालूम हुआ कि एक दोस्त ने बैग
सम्हालकर रख लिया है। अब मंटो हंस रहा था, तो तुम मुझसे बिना मिले चले
जाओगे।
बैग की अफरातफरी में मैं भूल गया या कि दोस्त भूल गये, मैं मंटो के घर और
उसकी कब्र पर नहीं जा सका। जाने से पहले वाली शाम देर रात जब मैं एक नौजवान
शायरा से उसकी गुजारिश पर अंग्रेजी में उससे बातचीत कर रहा था, शाहिद जमाल
ने बताया कि वे और कुछ दोस्त मंटो के घर और कब्र की जियारत कर आये हैं।
बाद में उस खूबसूरत नौजवान शायरा से बात करने का लुत्फ़ ही जैसे ख़त्म हो
गया। उसने बड़ी दर्द-भरी एक नज्म सुनाई थी, उसका चेहरा आज भी याद आता है,
बिल्कुल शहजादियों जैसा। मंटो वहीं अल हमरा आर्ट सेंटर की सीढियों पर
बैठा था और मुझे देख जैसे मुस्कुरा रहा था। ...मारे गये गुलफाम...
अंग्रेजी में शहजादी से बात करने का लुत्फ ले रहे हो, लगे रहो, कोई अफसाना
बन ही जाएगा... अगर तुम्हारा पासपोर्ट और वीजा नहीं मिलता तो कसम से, तुम
मेरी ही कब्र में दफ़न कर दिये जाते... कि दुनिया को एक मंटो ही मंजूर
नहीं था, हमशक्ल तो अफसानों में हमेशा मरते ही आये हैं।... मैंने कहा, कल
सुबह तुम्हारी कब्र पर आउंगा। वो मुस्कुराते हुए बोला, देखते हैं... यह
हिंदुस्तान नहीं है प्यारे... अगर मैं मर नहीं गया होता तो ये मुझे कैद
में डाल देते, तसल्ली है कि ये माटी मारे अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़
सकते...मैं इनकी दुनिया को इतना बिगाड़ चुका हूं कि ये अब इसे कभी ठीक नहीं
कर सकते।
मैंने सुबह बहुत कोशिश की कि कोई दोस्त मुझे एक बार मंटो की कब्र तक
जियारत करवा लाए, लेकिन नहीं... मंटो रात बहुत पी चुका था, इसलिए अपनी कब्र
में आराम से सो रहा था। शनिवार का दिन था और बॉर्डर शनीचर को जल्दी बंद
हो जाती है, जैसे बैंकों का हाफ-डे यहां भी चल रहा था। दस बजे बॉर्डर
पहुंचने की जल्दी में हम जैसे-तैसे भागे। जब हम पाकिस्तानी इमिग्रेशन से
गुज़र कर भारतीय सीमा की ओर बढ़ रहे थे, नो मैन्स लैंड पर मंटो जैसे
पागलों की तरह ठहाके मार रहा था। मेरा टोबा टेकसिंह कहां है माटी मारों...
मैं बड़े भारी मन से उसे देखता हुआ चुपचाप आगे की ओर जा रहा था। भारतीय
सीमा से कुछ कदम पहले मंटो आया और कंधे पर हाथ रखकर बोला, जाओ अगली बार
मिलेंगे।...सरहद पर परिंदे बिना किसी रोक-टोक के आ जा रहे थे...चींटियां तक
आराम से पैदल सरहद पार कर रही थीं। बस इंसान ही थे, जिन्हें आने-जाने में
कानूनी पेचीदगियां थीं।
तो मैं मंटो से मुलाकात किये बिना वापस आ गया। इसका दर्द बहुत सालता रहा।
लेकिन डेढ़ बरस बाद ही फिर एक अवसर मिला मंटो से मुलाकात का। पत्तन मुनारा
इंटरनेशनल कांफ्रेंस में शिरकत करने जाना था, साथ में जयपुर से पत्रकार
ईशमधु तलवार, सुनीता चतुर्वेदी, आनंद अग्रवाल, कवि ओमेंद्र और शायर फारूख़
इंजीनियर थे। दिल्ली से राजकुमार मलिक और कुछ दोस्त थे। इस बार लाहौर के
वरिष्ठ पत्रकार साथी इरशाद अमीन ने बुलाया था, जो मूलत: बीकानेर के पास के
हैं और पत्तन मुनारा जैसी पुरातात्विक और ऐतिहासिक जगह को लेकर बहुत
संजीदगी से संरक्षण में लगे हुए हैं। पत्तन मुनारा सरस्वती के बहाव
क्षेत्र में कालीबंगा के बाद आने वाली महत्वपूर्ण साइट है, जिस पर बहुत कम
काम हुआ है। इस दूसरी यात्रा में राजस्थान और सीमावर्ती पाकिस्तान की
सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं को जानने की जिज्ञासा थी तो दूसरी ओर मंटो से
मुलाकात की भी।
मेरे साथ ईशमधु तलवार और ओमेंद्र की भी मंटो का घर देखने की बेहद इच्छा
थी। इरशाद अमीन ने कहा कि कांफ्रेंस से वापसी के बाद जब लाहौर में दो-तीन
दिन रहना होगा तो मंटो से मुलाकात होगी। मैंने इस बार मंटो को ना सड़क पर
देखा ना अपने साथ किसी सफ़र में। लगता है वो किसी मेंटल हास्पिटल में भर्ती
था। पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के लिए बड़ी जद्दोजहद चल रही थी।
वकीलों के साथ अवाम भी सड़कों पर उतर आई थी। परवेज मुशर्रफ की सरकार बुरी
तरह हिली हुई थी। मुझे लगा जागी हुई जनता को देखकर मंटो सच में पगला गया
होगा। हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही जगह जो भी थोड़ा बहुत संवेदनशील
ढंग से सोचने-विचारने वाला इंसान होगा, उसके लिए पागलखाना ही सबसे महफूज
जगह मानी जाती है। जब पाकिस्तानी पुलिस कार्टूनिस्ट फीका के कार्टूनों से
भड़क जाती है तो मुसलमान होकर शराब पीने के जुर्म में फीका को सलाखों में
बंद कर देती है। ममता बनर्जी का बस चले तो वो भी पाकिस्तानी पुलिस वाला
आचरण देर-सवेर अपना ही लेंगी।
मंटो मुझे पिछली बार की तरह हर जगह नहीं मिला तो इसका मतलब यह नहीं कि उससे
मुलाकात ही नहीं हुई। दरअसल इस बार मंटो अपने किरदारों में मिला।
इक्के-तांगे तो खत्म हो ही चुके थे, सो कोचवान और सईसों में वो कहां
दिखाई देता। अलबत्ता वो कदम-कदम पर मिलने वाले उन लोगों के किरदार में
नुमायां हो रहा था, जो उसकी कलम की तहरीर बनने पर रजामंद थे। ऐसा ही एक
किरदार सुलेमान था, जिससे मैं 2005 में पहली बार मिला था। उसके हाथों में
खाना पकाने का ग़ज़ब का हुनर है और हम जैसे मंटो के दोस्तों की खातिरदारी
में हरवक्त जुटा रहता है। दरमियाना कदकाठी के मस्तमौला सुलेमान को देखकर
आप अंदाज भी नहीं लगा सकते कि कलमकारों की सोहबत में वो ख़ुद कितना कलमकार
हो चुका है। मंटो सुलेमान पर जरूर एक अफसाना लिखता और उसमें हम जैसे दोस्त
किसी अमीरजादे के दोस्तों में बदल जाते और फिर वो उनकी बदतमीजियों का
रेजा-रेजा बिखेरता जाता। उसके अफसाने में सुलेमान ज़रूर उसका हीरो होता और
ख़ुद अपनी कहानी बयान करता।
नौजवान शायर साहिर में भी मुझे मंटो का एक जबर्दस्त किरदार नज़र आया।
दिलफेंक, लेकिन निहायत ही शरीफ़, मस्त इतना कि शराब, स्मैक, सिगरेट और
चरस जैसे सारे नशे समान भाव से करता जाए। लाहौर प्रेस क्लब में जब हमारे
एक मुस्लिम दोस्त से पाकिस्तानी पत्रकारों ने पूछा कि वहां मुसलमानों के
हालात कैसे हैं, तो वह मंटो के किरदार जैसा साहिर उठा और पूछ बैठा कि पहले
पाकिस्तान के मुसलमानों के हालात की फि़क्र कर लो मियां। साहिर जैसे
किरदार आज भी पाकिस्तान में अपने मंटो की तलाश कर रहे हैं।
मंटो के किरदार पर किरदार मिलते जा रहे थे, लेकिन वो खुद नदारद था। रहीमयार
खां में हमसे मिलने एक बड़ी अम्मी आईं। उनका बेटा उस इंटेलिजेंस टीम में
था, जो हमारी सुरक्षा में लगी थी। उनके चेहरे का नूर बता रहा था और उनकी
बूढ़ी आंखों से झरते आंसू बता रहे थे कि बंटवारे के वक्त वो कितने बड़े
खेत और बाग-बगीचों वाला घर छोड़कर आईं थीं। उनके पास हमारे लिए दुआएं थीं,
आशीर्वाद था और स्नेह का कभी ना खत्म होने वाला निर्झर। मंटो अगर
पागलखाने में न होता तो उस बूढ़ी अम्मी पर एक जबर्दस्त हिला कर रख देने
वाला अफसाना लिखता और सरहद के दोनों तरफ़ के लोगों की जुबानें खामोश कर
देता।... रहीमयार खां के रास्ते में मिले वो गांव वाले तो जैसे मंटो ने ही
भेजे थे, जो एक पेट्रोल पंप पर हम भारतीयों को देखकर इतने खुश हो गये थे,
जैसे उन्होंने कोई खुदाई चीज देख ली हो।... खानपुर में हमें देखने बहुत से
बच्चे और नौजवान ही नहीं औरतें भी आईं... उन सबके मन में यह जिज्ञासा थी
कि हिंदुस्तान के लोग क्या वाकई मौलवियों और मदरसों की किताबों में बताए
गए चोटीधारी जिन्न जैसे होते हैं। उन्हें बहुत अफसोस हुआ होगा कि ना तो
हमारे सिरों पर चोटियां थीं और ना ही सींग... न हमने पीले-भगवा कपड़े ही
पहन रखे थे। ... मंटो पागलखाने में चुपचाप रो रहा था और उसकी सदा सुनने
वाले उसके किरदार बने दुनिया में घूम रहे थे।
आखिरकार हमारा इंतजार खत्म हुआ। भारत आने से पहले वाले दिन एकबारगी हमें
मौका मिल ही गया कि हम मंटो के घर होकर आ सकें। हमें पता था कि मंटो तो
वहां नहीं मिलेगा। लेकिन उसके घर को देखने की तमन्ना इतनी बेताब थी कि हम
सोचते थे कि माल रोड के लक्ष्मी चौक पर किसी से भी पूछो, मंटो के घर का
रास्ता बता देगा। हमारे साथ कौन था, ठीक से याद नहीं, शायद सुलेमान या कोई
और या कि हम छह राजस्थानी ही... हम लोगों से पूछ रहे थे कि किसी ने
बताया, इस गली में चले जाइये, आगे मिल जाएगा। बिना मकान नंबर के मकान
तलाशने के ऐसे मौके जिंदगी में बहुत कम मिलते हैं और जिसका मकान तलाश रहे
हों, वो अगर पचासों बरस पहले ही दुनिया से कूच कर गया हो तो कौन बताएगा, इस
उपमहाद्वीप में उसका घर, अगर वो टैगोर ना हो तो... हमारी किस्मत अच्छी
थी कि हमें बहुत भटकना नहीं पड़ा और दो-एक जगह पूछने के बाद हम उस घर के
दरवाजे पर थे, जिसके बाहर अंग्रेजी और उर्दू में लिखा था, सआदत हसन मंटो,
शॉर्ट स्टोरी राइटर (1912-1955)।
काफ़ी देर डोरबेल बजाने के बाद कुछ हरकत हुई और दरवाज़ा खुला, एक नौजवान-से
शख्स की शक्ल दिखी, उसे बताया गया कि हम हिंदुस्तान से आए हैं और मंटो
साहब का घर देखने आए हैं। उसने कहा कि घर में कोई नहीं हैं, निक़हत आपा
बाहर गई हैं... हमने बहुत इसरार किया तो वो शख्स वापस भीतर गया और बड़ी
देर बाद लौटा। उसने कहा आइये और हम उसके पीछे-पीछे मंटो के घर में दाखिल
हुए जैसे उसके बहुत पुराने दोस्त हों, हमप्याला और हमनिवाला। घर में
दाखिल होते ही लगा, मंटो जैसी दुनिया बनाना चाहता था, वो तो तामीर नहीं
हुई, लेकिन उसके आखिरी दिनों के घर को सबसे बड़ी बेटी निक़हत ने वैसा जरूर
बना दिया है, मंटो की रूह को कुछ तो चैन मिला होगा शायद। सफि़या बी की बहुत
खूबसूरत तस्वीरें थीं और मंटो की भी। मंटो अपनी आवारगी में भी बला का
खूबसूरत लगता होगा, यह उसकी तस्वीरें देखने से अंदाज होता है। लेकिन सफिया
से वो बेपनाह मोहब्बत करता था। निक़हत ने किसी इंटरव्यू में बताया है कि
अब्बा, अम्मी की साड़ी पर खुद इस्तरी करते थे और फिर बहुत खूबसूरत
अंदाज में उनकी तस्वीर लेते थे। सफिया बी की तस्वीरें सच में उस मोहब्बत
को बयां करती हैं। उस बैठक में तस्वीरों के अलावा उर्दू और अंग्रेजी में
छपी कुछ किताबें थीं मंटो की और पाकिस्तान डाक विभाग का वो शानदार और
एकमात्र डाक टिकट भी जो मंटो पर किसी बरस जारी किया गया था। चीनी-मिट्टी के
प्यालों में करीने से सजे कई सुंदर रंग-बिरंगे पत्थर और कांच के टुकड़े
थे। सफ़ेद परदों और चमकती रोशनी के बीच यह मंटो का घर था, जिसमें वो बैठकर
लिखने वाली तख्ती नहीं दिख रही थी, जिसमें सफिया से छुपाकर मंटो अपनी शराब
रखता था।
यह घर निक़हत ने कुछ बरस पहले ही ठीक करवाया और उसमें रहने लगीं। मंटो ने
यहां बहुत कम दिन गुजारे। पाकिस्तान आने के बाद वो जिंदा ही कितना रहा।
बहरहाल, बहुत देर तक जब हम उस बैठक में रहने के बाद जाने लगे तो मालूम हुआ
कि मंटो के दामाद और निक़हत के खाविंद पटेल साहब आ रहे हैं। बेहद बुजुर्ग
और बीमारी से लाचार निक़हत के पतिदेव गुजरात में जूनागढ़ के रहने वाले हैं।
उन्हें बोलने में भी बहुत तकलीफ हो रही थी, उनकी आंखों का कोई ऑपरेशन हाल
ही में हुआ था। उनकी आंखों से पानी झर रहा था। उन्हें इस बात पर बहुत
तकलीफ हो रही थी कि हिंदुस्तान से चलकर लोग मंटो का घर देखने कई बार आते
हैं, लेकिन पाकिस्तान से शायद ही कोई आता है, उनकी जुबान में कहें तो कोई
नहीं आता। हमसे उनकी तकलीफ देखी नहीं जा रही थी, उन्होंने हमें
चाय-नाश्ते की दावत भी दी, लेकिन हमने मना कर दिया। पटेल साहब को जब मालूम
हुआ कि हम राजस्थान से आये हैं तो उन्होंने बताया कि उनकी दो बहनों की
शादी कोटा में हुई हैं और वे दोनों वहीं पुराने कोटा शहर में रहती हैं।
नौकर ने पानी पिलाया। बुजुर्गवार ने कहा कि निक़हत आ जाएंगी, आप मिलकर
जाइयेगा, लेकिन हम उन्हें गर्मी की उस तकरीबन दोपहरी में बहुत परेशान नहीं
करना चाहते थे, इसलिए जल्द ही वहां से रुख्सत हो लिये। लौटते हुए बहुत
गुस्सा था दिल में कि दोनों मुल्कों में दो कौड़ी के नेताओं के नाम पर
मोहल्ले और सड़कें रख दी जाती हैं, लेकिन उस गली का नाम मंटो स्ट्रीट
नहीं रखा जाता, उस जगह को गुलशन-ए-मंटो जैसी कॉलोनी नहीं किया जाता। हमने
अपने महान कलमकारों के साथ क्या सुलूक किया है...शर्म आती है।
बहुत मन था कि मंटो से मिलने उसकी कब्र तक जाएं, लेकिन पिछली बार की तरह इस
बार भी संभव नहीं हुआ। लेकिन सोचता हूं कि नहीं जाने से एक दुख तो कम
हुआ... कम से कम मैं मंटो की कब्र पर लिखे उसके अपने कतबे को बदलकर कुछ और
करने का तरफ़दार तो नहीं हो सकता था। हम बरसों से पढ़ते-सुनते आए हैं कि
मंटो ने अपनी कब्र के लिए यह कतबा लिखा था -
यहां सआदत हसन मंटो दफ़्न है
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिग़ारी के
सारे असरारो-रूमूज़ दफ़्न हैं
वो अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि
वो बड़ा अफ़सानानिग़ार है या ख़ुदा
- सआदत हसन मंटो, 18 अगस्त, 1954
बेटी निक़हत के मुताबिक उनकी फूफू ने मंटो के कतबे को बदलवा दिया था। अब
लाहौर के मियानी साहब कब्रिस्तान में आपको मंटो की कब्र पर उर्दू में यह
कतबा दिखाई देगा -
सआदत हसन मंटो की
कब्र की कब्र है यहां
जो आज भी ये समझता है कि
वो लौहे-जहां पर हर्फे-मुकद्दर नहीं था
मुझे पूरा यकीन है कि मंटो अपने कतबे के साथ इस बदतमीजी से बेहद नाराज़ हुआ
होगा और इसीलिये अपनी कब्र से बाहर निकल कहीं गुम हो गया होगा। वो मुझे अब
तक नहीं मिला और ना ही मैं उसकी कब्र पर जा सका... मंटो की कब्र पर जाने
की मेरी जियारत अधूरी ही रही... पांच बरस पहले की इन बातों को सोचता हूं तो
लगता है कि मंटो की जियारत न उसके घर जाने में है और ना ही उसकी कब्र
पर... उसकी असली जियारत तो उसके लिखे से गुजरने में ही मुमकिन है।
---प्रेमचंद गांधी
निशब्द
ReplyDeleteमंटो की जियारत लिखने से ... वाह
ReplyDeleteमंटो को ढूंढना व ढूंढते ढूंढते यह पाया कि वह आवारा बला सफिया बी की साड़ी इस्तरी कर रहा। वाह मंटो साहब वाह।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन लेखन चित्र।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन लेखन चित्र।
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