Friday, August 7, 2015

पार उतरना धीरे से:स्पष्ट पक्षधरता और बदलती ग्रामीण चेतना की मार्मिक कहानियाँ







"पार उतरना धीरे से" विवेक मिश्र का दूसरा कहानी-संग्रह है जो विश्व पुस्तक मेला 2014 में सामयिक प्रकाशन से आया है। विवेक की कहानियों से मेरी पहचान कई साल, या कहें कि कई कहानियों पुरानी है। उनकी कहानियाँ उनके पहले कहानी संग्रह ‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ से ही अपने विशिष्ट कहन और यथार्थपरकता के चलते अपनी ओर ध्यान खींचती रही हैं। उनके इस नए संग्रह में कुल दस कहानियाँ है जिनमें से अधिकांश कहानियाँ विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित हो चुकी हैं। आज विवेक मिश्र का शहरों से लेकर गाँव-कसबों तक फैला एक बड़ा पाठक वर्ग है और उसका कारण है उनकी कहानियों का परिवेश, जो तेज़ी से शहरों में बदलते गाँव और मन में बसे गाँव के साथ विकिसित होते शहरों के बीच कहानी में एक जीवित चरित्र-सा धड़कता है। 


उनकी कहानियाँ अपने आस-पास के परिवेश और समय की कहानियाँ है। अपनी कहानियों के परिवेश के प्रति उनकी यह सजगता, उससे गहरे तक जुड़े सरोकार और स्पष्ट पक्षधरता उनकी रचनाशीलता की पहचान है। उनकी कहानियों का यथार्थ सतही नहीं है बल्कि वह जड़ और ज़मीन से जुड़ा है। यही कारण है कि ‘हनिया’, ‘घड़ा’ आदि कहानियों से लेकर ‘दोपहर’, ‘पार उतरना धीरे से’ और ‘खण्डित प्रतिमाएं’ जैसी कई कहानियों ने आज कथा-जगत में अपनी अलग पहचान बनाई है। विवेक बुंदेलखंड से आते हैं और वे वहाँ कि भाषा, लोक संस्कृति के साथ वहाँ के आदमी के सुख-दुख भी अपनी कहानियों में साथ लेकर आते है। विवेक की कहानियों की ग्रामीण चेतना में वहाँ के निरन्तर बदलते भयावह यथार्थ की कठोरता और लोक की कोमलता और कच्चापन एक साथ दिखाई देता है। उनकी कहानियों में आंचलिक शब्दों का प्रयोग कथ्य और शिल्प की रोचकता इस क़दर बढ़ा देता है कि आप कहानी के परिवेश को जीने लगते हैं।


संग्रह की पहली कहानी 'दोपहर’ जो ‘हंस’ में प्रकाशित हुई थी और खासी चर्चित रही थी इस संग्रह की हासिल कहानी है। ठेठ बुलेन्दखंडी पृष्ठभूमि के चलते इस कहानी का आंचलिक परिवेश ताज़गी लिए हुये है। ये दोपहर हर उस बच्चे की दोपहर हो सकती है, जिसने नाना-मामा के यहाँ गाँव में गर्मी की छुट्टियाँ काटते हुए ऐसी दोपहरें बिताईं है। इस कहानी को पढ़ते हुए लगता है कि विवेक के पास स्मृतियों, अनुभवों और शब्दों का अनूठा खज़ाना तो है ही पर उसके साथ ही उनमें एक बुज़ुर्ग किस्सागो की सलाहियत भी है। ग्रामीण परिवेश की व्याख्या करते हुए विवेक एक के बाद एक शब्द-चित्र खींचते चलते हैं। वह समय और हालात बयां करते हुए एक आख्यान रचते हैं। आप कहानी के पात्रों की खुशी और दुख के साथ जुड़ते हुए आगे बढ़ते हैं। उनकी व्याख्या पाठक को ठीक उसी परिवेश के बीचों-बीच ले जाकर खड़ा कर देती है जहां कभी आप दोपहर के उस सन्नाटे को अपने इर्द-गिर्द पाते हैं तो कभी 'तपती जमीन पर पानी के पड़ते ही उमस का भभका हवा में तैरता' महसूस करते हैं। कहानी का वह रोमांचक टर्निंग पॉइंट, जो पाठकों को, रोमांच के शिखर तक ले जाता है, के आने तक कहानी पाठक का मन बांधे रखने में पूर्णत: सक्षम है। ये कहानी भ्रष्टाचार की कोख से जन्में उसकी अवैध संतान, ऐसे नव-धनाढ्य वर्ग की परतें उधेड़कर नंगा करती है जिसके कारण कितने ही ईमानदार जीवन गर्क हो जाते हैं।


इस संग्रह की दूसरी मह्त्वपूर्ण कहानी है- 'तन मछरी-मन नीर' जो आंचलिक परिवेश की होते हुए भी एक अलग रह्स्मयी सामंती दुनिया में ले जाती है। जहां बिगड़ा-दिल राजा नाहरसिंह है, उसकी नई नवेली दुल्हिन रानी सुवासिनी है और उसका निर्धन प्रेमी बिसन है। राजसी ठाठ-बाठ में कैद बिनु जल मीन सी तड़पती रानी को अपनी पीर से निजात अपने प्रेमी की बाहों में ही मिलती है जिसके लिए वह एक हृदय है, प्रेम है, मात्र देह नही। जो उसकी देह नहीं उसके मन का राजा है। उसका प्रेम सोने के पिंजरे में नहीं उन्मुक्त हवाओं में है जहां मन को मन से राह होती है। किसी लोककथा-सी राजसी परिवेश में रची गई ये कहानी अपने अनोखे अंत को लेकर संग्रह में खास जगह बनाती है।


'खंडित प्रतिमाएँ' सुनसान बीहड़ों की उस दुनिया में ले जाती है जहां इंसान की कीमत चाँदी के टुकड़ों से ज्यादा नहीं है। यहाँ सुनसान बीहड़ हैं, खूंखार डकैत हैं, गोली-बारूद है, अपहरण और फिरौती है। डाकुओं की भयावह दुनिया में पत्ते की मानिंद काँपते एक अपहृत व्यक्ति की विवशता का ताना बना रचती ये कहानी एक खास मोड पर जाकर छोड़ देती है जहां आगे जीवन एक बड़े प्रश्न के रूप में ठहर जाता है। यह कहानी बिना किसी फर्मूले में बंधे विमर्श मे जाए एक बड़े वर्ग संघर्ष और उससे उपजे विमर्श की ओर इशारा करती है। कहानी पढ़ने के बाद भी इस वर्ग संघर्ष में चलती गोलियाँ कानों में गूँजती रहती हैं और एक साथ धूँ-धूँ करके जलती झोपड़ियों का दृश्य आँखों के सामने घूमता रहता है।


'दीया' कहानी धर्म-गुरु के चोले में छिपे एक वहशी दरिंदे की कहानी है जिसकी गंदी नज़र कमसिन निर्धन लड़की पर है। धर्म के नाम पर कुरीतियाँ कैसे अबोध बचपन को अपनी हवस का शिकार बनाती हैं ये कहानी उसका सटीक उदाहरण है। कभी धर्म के नाम पर, कभी सेवा के नाम पर तो कभी देवदासियों के नाम पर जब जब धर्म के शिकंजे किसी कमसिन कुँवारे जिस्म की ओर बढ़े हैं बिलिया जैसी जाने कितनी अबोध लड़कियां इसका शिकार बनी हैं। किन्तु 'दीया' में अंत विशिष्ट है वहाँ कुरीति है, कुकर्म की लिप्सा भी है पर आगे कहानी समाधान की ओर बढ़ती है जहां लड़की की दादी उसे विद्रोह के रास्ते को दिखा इस नर्क से निजात दिलाने में विशेष भूमिका निभाती है।


धर्म, आस्था और यथार्थ के बीच डोलते बालक 'ज्ञान' की कहानी है 'दुर्गा’। यहाँ कहानीकार ने दुर्गा-पूजा के माध्यम से आस्था और अंधविश्वास के दोराहे पर खड़े एक मासूम के अन्तर्मन का चित्र साकार किया है। यहाँ चारों ओर गुंजायमान जयजयकार के बीच गहरी होती आस्था की जड़ें हैं वहीं अंधविश्वास में बदलती आस्थाओं में डोलता बालमन है जिसका एक सिरा थामे है वो चिर-विश्वास जो आस्था को टूटने से, डूबने से अंतिम क्षणों में रोक ही लेता है।


'तितली' विवेक मिश्र की काफी चर्चित और लंबी कहानी है। सुगठित कथा-विन्यास में रची यह कहानी शहरी जीवन की रंगीनियाँ और उसकी आड़ में छिपे घिनौने अँधेरों का पर्दाफाश करती है। यहाँ आधुनिकता और प्रेम का मुखौटा पहने दरिंदे हैं जो किसी भी तितली के युवा होते ही उसे फँसाने की तिकड़म में लग जाते है। इक्कीसवी सदी की बन्दिशें युवा पीढ़ी को कैद मालूम होती हैं और आधुनिकता की ओर बढ़ते कदम कब सैयाद के बिछाए जाल की ओर बढ़ जाते हैं ये तभी मालूम होता है जब यौवन पार्टियों की चकाचौंध, लंबी गाड़ियों, फैशन, ऐशों-आराम की भूल-भुलैया में सब गंवा बैठता है। बचता है तो केवल चिरे हुए पर और घायल तन-मन।


'थर्टी मिनट्स' आज की कहानी है जहां युवा पीढ़ी का जीने का नया अंदाज़ है, थ्रिल है, उब से बचने के सारे उपक्रम हैं और अपनी ही बनाई चुनौतियों से संघर्ष है जहां जीवन भी मात्र एक चुनौती ही है। कुल मिलाकर यह कहानी महानगरीय आधुनिक युवा का खाका खींचती है जिसके लिए जिंदगी वो खेल है जहां एक मिनट की भी देरी जीवन को मृत्यु में बदल देती है। 'सपना' एक छोटी कहानी है जो नींद और सपने के रिश्ते की तहें खोलती है। 'बसंत' भी ऐसी ही एक छोटी कहानी है जहां बचपन से जुड़ी यादें सँजोये एक जिंदगी है जो यादों का सिरा खोने नहीं देती।


और अन्त में ‘पार उतरना धीरे से’ की बात जो इस संग्रह की शीर्षक कहानी है। धर्म, अंधविश्वास, नारी की गहन संवेदनाओं के बीच से उठती बांझ होने की पीड़ा और संतान पाने की चाह और जीवन में बने रहने की जीजिविषा के तारों से बनी यह कहानी अपनी मार्मिकता के चलते किसी भी हृदय में हमेशा के लिए बस जाने वाली कहानी है। यह समाज में बांझ करार दी गई एक ऐसी महिला, रातना कमैती की कहानी है जो गोद भरने पर भी अपनी गोद को अपने ही हाथों सूना कर देती हैं क्योंकि उसकी ममता जितनी उसके शिशु के लिए है उतनी ही उस जीव के लिए भी है जिसकी उसके बच्चे के लिए बलि दी गई है। इस ममत्व की कितनी बड़ी कीमत उसे चुकानी होती है यही इस कहानी का मर्म भी है और संवेदनात्मक आधार भी।


यूँ तो संग्रह की सभी कहानियों में शिल्प की बुनावट इतनी सुदृढ़ और कसी हुई है कि आप कहानी को एक ही बार में अन्त तक पढ़ते चले जाते हैं पर इसके चलते विवेक कहीं कोई संदर्भ जल्दी में समेटते नहीं दिखते, यहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म संदर्भ भी पूरा विस्तार पाते है जिससे एक के बाद एक दृश्य चलचित्र से सामने साकार होते चलते हैं और इसी कारण अंत तक रुचि की डोर पाठकों का मन थामे रहती है। यथार्थ-परकता के चलते कहीं कहीं संवादों में मुखरता अपनी जगह बनाती हुई कहानी को आगे बढाते हुए मन को आहत और चोटिल करती है तो वहीं देशज शब्दों की शीतलता 'लोकगीतों' का मरहम भी लगा देती है। कथाकार विवेक शब्दों के प्रयोग को लेकर बहुत सजग तो हैं ही, साथ ही कथ्य के सारे सिरों को बखूबी समेट कर रोचक अंत तक पहुंचाने की उनकी क्षमता विशेष रूप से प्रभावित करती है। उम्मीद है कि उनकी यह रचना-यात्रा ऐसे ही जारी रहेगी और आने वाले समय में उनकी प्रतिभाशाली कलम से ऐसी अनगिनत कहानियाँ निकलेंगी जो उनके कथा-जगत के शीर्ष तक पहुँचने का रास्ता बनाएंगी।

-- अंजू शर्मा


पार उतरना धीरे से (कहानी संग्रह); लेखक-विवेक मिश्र; सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2, मूल्य- 200/-