Wednesday, August 30, 2017

शहादत खान की कहानी : नए इमाम साहब


  



शहादत खान बहुत सक्रिय युवा लेखक हैं! वे लगातार लिख रहे हैं और रेख्ता पोएट्री साईट से जुड़े हुए हैं!   उनकी यह कहानी मेल पर मिली!  मज़हब की दुनिया के एक छिपे रहस्य के परदे उठाती यह कहानी  दिलचस्प है!  कहानी की भाषा की रवानगी और नफासत से अनायास ही मंटो याद आते हैं!   पढ़कर देखिये.........



“वे लोग बहुत नासमझ होते है जो मोलानाओं को फरिश्ता समझते है... जबकि मोलाना भी इंसान होते है... उसके अंदर भी ख़ाहिशात (इच्छाएं) होती हैं। ओर जब ख़ाहिशात जागती है ना... तब इंसान पाक-नापाक, सही-गलत सब भूल जाता है... एक बार को तो ख़ौफ-ए-ख़ुदा भी उसके अंदर से निकल जाता है।” यह बात उस मोलना ने कही थी जिससे मैं दारुल-ऊलूम, देवबंद में मिला था। वह मेरे खाला के बेटे का दोस्त था। हम उसके कमरे में बैठे औरत और सैक्स पर बात कर रहे थे। बात के दौरान ही मुझे मोलाना की गर्लफ्रेंड के बारे में पता चला... वह भी एक नहीं, तीन-तीन के। मेरी खाला के बेटे ने जब मुझे उनके नाम बताएं... तो मैंने यकीन न करने वाली हैरानी के साथ मोलाना को देखते हुए पूछा, “मोलाना आप भी...? आप भी गर्लफ्रेंड रखते हैं...?” तब उन्होंने मुझसे ये सब कहा था।

उस वक्त की अपनी हैरानी और चेहरे के एक्प्रेशन को याद करके आज भी मुझे हँसी आती है। लेकिन एक पल ठहरने के बाद जब मैं बीते हुए कल मैं झांकता हूं तो लगता है कि वह मोलाना बिल्कुल सही थे...!

पुराने इमाम साहब को गए हुए एक अरसा बीत चुका था। ओर नए इमाम की आमद की अभी तक किसी को कोई ख़बर नहीं थी। इमाम साहब के जाने के बाद नमाज़ियों की हालत उन भेड़ों की तरह हो गई थी जिनका कोई रहबर नहीं होता। उनमें जिसकी मर्जी जिधर होती वह उधर ही चल देती है... साथ ही दो-चार भेड़े उसका अनुसरण करते हुए उसके पीछे हो लेती है...! यही हाल उन दिनों मस्जिद के नमाज़ियों का था। अज़ान का कोई पता नहीं था। वह कभी वक्त के पहले हो जाती तो कभी वक्त के बाद। ओर इत्तेफाका से अगर कोई अल्लाह का बंदा वक्त पर अज़ान दे देता तो नमाज़ी गायब। जिसका जब दिल चाहता, आता और नमाज़ पढ़कर चला जाता। अगर एक वक्त पर दो-चार लोग जमा हो जाते तो उनमें से कोई एक इमाम बन जाता और बाकी उसके पीछे नमाज़ पढ़ लेते। फिर इसके बाद कुछ ओर लोग आते और उनमें से भी कोई एक इमाम बन जाता और बाकी लोग उसके पीछे नमाज़ पढ़कर निकल जाते। आलम यह था कि इमाम साहब के जाने के बाद शायद ही कभी अपने वक्त पर मुक्कमल जमात हुई हो।

मोहतमीम साहब (मस्जिद का जिम्मेदार) जब यह सब होता देखते तो वह ज़हर का घूंट पीकर रह जाते। उनसे दीन (इस्लाम) के अहम अरकान की इस तरह बेअदबी बर्दाश्त न होती थी। वह लोगों को समझाते और उन्हें एक साथ नमाज़ पढ़ने के लिए कहते। लेकिन कोई भी नमाज़ी एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए राज़ी नहीं होता था। उनके बीच इतनी जबरदस्त गुटबाज़ी थी कि वह एक-दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ना तो दूर उनके नमाज़-ए-ज़नाज़ा में भी शरीक न होते... अगर उन्हें दुनिया का डर न हो!

इसीलिए इमाम साहब के पीछे एक वक्त में जहां अस्सी से सौ के बीच लोग नमाज़ पढ़ते थी। ओर मगरिब (शाम) की नमाज़ में तो यह तादाद डेढ़ सौ तक पहुंच जाती थी। वहीं अब एक वक्त में मुश्किल से पंद्रह-बीस लोग ही नमाज़ पढ़ने आते थे। वह भी लड़खड़ाते बूढ़े लोग...! नमाज़ पढ़ना अब जिनकी ज़रूरत से ज्यादा आदत बन चुकी थी। सारा नौजवान तबका न जाने कहां गुम हो गया था...!


शायद जब कोई सर्वमान्य रहबर नहीं होता है तो लोग अपने रास्ते से भटक जाते है...! चाहे वह सही ही क्यों न हो। उन्हें फिर से रास्ते पर लाने के लिए एक रहबर चाहिए होता है। ऐसा रहबर जो उनमें से ना हो। उनसे बेहतर और जानने वाला हो। जो बोलता हो और लोग उसे सुनते हो। मोहतमीम साहब भी उन दिनों इसी उधेड़बुन में थे कि ऐसा रहबर कहां से लाए...? अपनी इस परेशानी को लेकर वह कई बार मरकज़ (शहर की सबसे बड़ी मस्जिद) के इमाम से भी मिल चुके थे। शहर-ए-इमाम ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह जल्दी ही उनकी मस्जिद में कोई अच्छा इमाम भेज देंगे। लेकिन जब इस बार भी उन्हें पहले वाला ही जवाब मिला तो उन्होंने लगभग गुस्से भरी अपनी चीख को दबाते हुए कहा था, “कब भेज देंगे...? जब हमारी मस्जिद खुदा के घर की जगह जंग का मैदान बन जाएगी... तब...?”

शहर-ए-इमाम के ऊपर मोहतमीम साहब की इस चेतावनी ने असर कर दिखाया। उन्होंने अपनी ऐनक को नाक पर ऊपर खींचकर साफ आंखों से मोहतमीन साहब के लाल कांपते चेहरे को देखते हुए कहा, “कल शाम तक तुम्हारी मस्जिद में नया इमाम पहुंच जाएगा।”

मोहतमीम साहब जब मरकज़ से लौटे तब असर की नमाज़ (दिन का तीसरा पहर) का वक्त हो चला था। वह घर जाने की बजाय सीधे मस्जिद गए और वुजू करके नमाज़ अदा की। नमाज़ पढ़ने के बाद जितने लोग वहां मौजूद थे उन सब को मुखातिब करके उन्होंने कहा, “कल हमारी मस्जिद में नए इमाम साहब आने वाले है।” 


इसके बाद उन्होंने यही बात मगरिब, इशा और अगले दिन की फज़र (सुबह) और जोहर (दोपहर) की नमाज़ में भी दोहराई। मोहतमीन साहब ने सोचा था कि इमाम साहब मगरिब या फिर उसके बाद आएंगे। लेकिन वह तो असर की नमाज़ से पहले ही आ गए थे। उनके आने के बाद वक्त पर अज़ान हुई थी। इससे नमाज़ी भी जमात से पहले ही आ गए थे। ओर जब जमात खड़ी हुई तो पूरी दो सफ़ भरी थी। यानी तकरीबन साठ नमाज़ी। मोहतमीन साहब को इससे कितना सुकून मिला था... यह तो बस वही जानते थे।

नए इमाम साहब आए थे और जम भी गए थे। अज़ान भी वक्त पर होने लगी थी और जमात भी। नमाज़ी भी बढ़ने लगे थे। लेकिन इमाम साहब भी क्या थे... चुस्त गठीला बदन। लाल रंगत लिए एकदम साफ चमकता चेहरा। उस पर सियाह-सीधी दाढ़ी। सीधे दांत और सुर्ख़ लाल-तर होंठ। मानो फरिश्ता। मोहतमीन साहब ने जब उन्हें पहली बार देखा था तो यही कहा था। ओर आवाज़... आवाज़ भी क्या थी उनकी... कि चलने वाले सुनकर रुक जाए... रुके हुए बैठ जाए और बैठे हुए खोए जाएं। ऐसे आवाज़ थी उनकी। जब उन्होंने मस्जिद में अपने पहले जुमे में बयान किया था और खुत्बा पढ़ा था तो न जाने कितने लोग सुबक-सुबक कर रोने लगे थे। जुमे के बाद कई लोगों ने मोहतमीन साहब को पकड़-पकड़कर कहा था, “क्या वाकई इमाम साहब इंसान है...! मुझे तो कोई फरिश्ता लगते हैं... मैंने आज तक किसी ऐसे इंसान को नहीं देखा... और न ही ऐसी आवाज़ सुनी है!”
नए इमाम साहब की पढ़ाई, उनका तरीका और लोगों से उनकी तारीफ सुनकर मोहतमीम अंदर-अंदर खुश हुए थे। साथ ही उन्हें इमाम साहब से एक उम्मीद भी बंधी थी... अपनी बीमार बेटी के ठीक होने की उम्मीद।

मोहतमीम साहब की बेटी पर जिन्नातों का असर था। इसीलिए रात को सोते-सोते उसके हाथ-पैर ऐंठ जाते थे और आँखें उलट जाती थी... उनसे आँसूओं की तरह पानी बहने लगता था। वह भी इस कद्र कि उसके दोनों कानों के गड्ढे भर जाते और फिर वहां से चू-चू कर तकिया भीगोने लगते। मोहमीम साहब ने उसका बहुत इलाज कराया। आस-पास के किसी नीम-हकीम, आलिम-हाफिज़ और पीर-फकीर को नहीं छोड़ा जिससे उन्होंने अपनी बेटी को न दिखाया हो। लेकिन किसी के भी तागे, तावीज़ों और दुआओं में इतनी ताकत नहीं मिली जो उसे उन जिन्नात से निजात दिला सके। हमने बहुत से झाड़-फूंक करने वालों को उनके यहां जाते देखा है... लेकिन उनके पढ़े हुए पानी और लिखे हुए तावीज़ों का हफ्ते भर से ज्यादा असर नहीं रहता है।

इमाम साहब को ये सारी बातें मोहल्ले वालों से पता चली थी। इसलिए जब उस दिन मोहतमीम साहब घबराए हुए उनके पास आए और अपने घर चलने के लिए कहा तो इमाम साहब को जरा भी हैरानी नहीं हुई थी।
मोहतमीम के घर प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हुए उन्होंने उनकी बेटी को देखा था। जिसकी बड़ी खुली आंखें छत को घूर रही थी और उनसे आँसूओं की शक्ल में लगातार पानी बह रहा था। उसके हाथ ऐंठे हुए थे और उनकी उंगलियों ने अपनी पूरी ताकत के साथ चादर को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इमाम साहब ने अपने दाएं हाथ से उसकी खुली आंखों को बंद किया... उसके भीगी चेहरे को साफ किया और कसकर पकड़ी चादर को उसकी पतली-लंबी उंगलियों की गिरफ्त से छुड़ाकर उन्हें अपने बाएं हाथ में थाम लिया। उन्होंने अपने दाएं हाथ को उसके लाल तवे की तरह तपते माथे पर रखा। फिर होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाया और उसके ऊपर तीन बार फूंका। इसके बाद उन्होंने उसका हाथ छोड़ दिया और खड़े होकर मोहतमीम साहब से कहा, जो वहीं खड़े हुए थे, “आप फिक्र न करे... इंशाअल्लाह ये जल्दी ही ठीक हो जाएगी... मुझे लगता है कि इन्हें बुखार है... आप किसी डॉक्टर को बुला ले”, इतना कहकर वह वहां से चले आए।

 
इसके बाद वह बहुत बार मोहतमीम साहब के घर गए थे... उनकी बेटी को देखने! ओर हर बार उन्होंने उसकी लंबी-पतली उंगलियों को अपने हाथों में पकड़ा था... उसकी उन बड़ी आंखों में झांका था जिन्हें उन्होंने पहले दिन अपने हाथ से बंद किया था... और उसके माथे को भी छुआ था जो पहले दिन लाल तवे की तरह तप रहा था लेकिन फिर वह उन्हें बर्फाफ की तरह ठंड़ा और सुकूनदायक महसूस होता था...। वह हर बार उसे तीन बार फूंकते और हर बार ही एक तावीज़ भी दिया करते थे... पीने के लिए।

फिर वह आखिर बार उसे देखने गए थे। पर उस दिन उन्होंने न तो उसकी लंबी उंगलियों को पकड़ा था और न ही उसके माथे को छूकर उसके ऊपर तीन बार फूंका था। उन्होंने बस उसकी बड़ी आंखों में झांका और एक आख़िरी तावीज़ देकर वह वहां से चले आए थे।

वह दिन भी आम दिनों की तरह ही था। लेकिन उसकी शाम बहुत भयानक और डरा देने वाली थी। दिन ढलने से पहले ही काले बादलों ने सूरज को ढक लिया था और मंद-मंद चली रही हवा ने प्रचंड रूप धारण कर लिया था। पेड़ अपने तीव्र गति से लहलहाते पत्तों की दिशा में झुकने और झूमने लगे थे। काले बादलों में आड़ी-तिरछी बिजली चमकने लगी थी और फिर उन्होंने बरसना शुरु कर दिया। अपनी पूरी ताकत के साथ। बीच-बीच में वह दहाड़ने लगते... वह भी इस तरह कि दिल कांप जाता। ऐसा लगता जैसे वह अभी फट पड़ेंगे और पूरी दुनिया को अपने अंदर समा लेंगे।

आधी रात बीत चुकी थी... ओर अभी भी बारिश लगातार हो रही थी। बीच-बीच में वह कुछ कम होती। लेकिन फिर दोगुनी गति से बरसने लगती। ऐसा लगता जैसे वह अपनी पिछली कुछ पलों में हुई कमी को पूरा कर रही हो। बारिश की यह दोगुनी गति इमाम साहब की मुसीबत को बढ़ा रही थी और उनके मन में नए-नए शंकाओं को जन्म दे रही थी। वह सड़क की ओर खुलती अपने हुजरे (मस्जिद में इमाम साहब के रहने के लिए बना कमरा) की इकलौती खिड़की को खोले अभी तक जाग रहे थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। आती भी कैसे? जब वह खुद ही सोना नहीं चाह रहे थे।

वह कभी किताब खोलकर पढ़ने लगते। कभी हुजरे में टहलने लगते... तो कभी खिड़की के पास आकर खड़े हो जाते... और वहां से बारिश में भीगते अंधेरे में गुम मोहल्ले को देखने लगते। वह वहां कुछ ही पल खड़े होते और तभी हवा के बहाव के साथ बारिश का झोंका आता और उनके पूरे चेहरे को तर कर जाता। वह वहां से हटते और फिर से बिस्तर में आकर बैठ जाते। वह किताब के पन्ने पलटने लगते और जब बारिश के शोर से दूर एक खामोशी उनके आस-पास पसर जाती तो उन्हें घंटे की सेकेंड वाली सुई की टक-टक सुनाई देती। वह घंटे को देखते और हर लम्हें के साथ खिसकती उसकी तीनों सुई उनके दिल की धड़कनों को बढ़ा देती। वह मन ही मन बारिश के रुकने की दुआ करने लगते। लेकिन फिर बैचेन होकर उठ खड़े होते और टहलने लगते... वह फिर बारिश की गति देखने खिड़की के पास जाते और वहां फिर एक ताजा झोंका उनके चेहरे को तर कर देता।
देर से ही सही, लेकिन सच्चे दिल से मांगी गई इमाम साहब की दुआ रंग दिखाने लगी। दो बजे के बाद बारिश धीरे-धीरे कम होने लगी और फिर रुक गई। काले बादल छितरा गए और साफ नीले आसमान पर आधे से ज्यादा चमकदार चांद निकल आया। उसकी रोशनी में मस्जिद के सामने खड़े पीपल के पेड़ के धुले चौड़े पत्ते चमचमाने लगे। ओर उनकी चमचमाहट के बीच ही दूर... मस्जिद के सामने वाली गली के आखिरी सिरे के किसी घर की मुंडेर पर एक दिया रोशन हुआ।

इमाम साहब ने दिए की रोशनी को देखकर एक सुकून की सांस ली। वह खिड़की के पास से हटे और एक कोने में खड़े होकर पूरे हुजरे का मुआयना करने लगे... कोई जरुरी सामान लिए बिना छुट तो नहीं गया। फिर वह अपने बैग को चेक करने लगे और इसी दरमियान मस्जिद के दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। कुंडी खट-की... इमाम साहब के हाथ जहां के तहां रुक गए... वह नीचे उतरे... मस्जिद से बाहर झांका और फिर दो परछाई चांद की रोशनी में गीली सड़कों पर गुम हो गई।

घर के काम बिगाड़ा और मस्जिद में गुजारा... करने वाले हाजी अशरफ ने गर्म बिस्तर में लेटे-लेटे ही तकिये के नीचे से निकालकर जब अपनी मिचमिची आंखों से हाथ घड़ी को देखा तो वह छः बजा रही थी, “कमाल हो गया... छः बज गए और अभी तक किसी ने अज़ान ही नहीं पढ़ी”, वह खुद से ही बुदबुदाएं और बिस्तर से निकल पड़े।

मस्जिद का दरवाज़ा खुला हुआ था। वह सीधे ही अंदर चले गए और इमाम साहब को पुकारा, “मोलाना!” लेकिन कोई आवाज़ नहीं आई। उन्होंने फिर पुकारा और फिर लाजवाब। हाजी अशरफ ने अपनी जूतियां उतारी और हुजरे में चले गए। लेकिन वहां कोई नहीं था। सब चीज़े करीने से रखी हुई थी। बिस्तर भी लगा हुआ था। उन्होंने हुजरे से निकलकर पेशाब घर और बैतुलखला (पखाना) में देखा तो वह भी खाली पड़े हुए थे।

सुबह में जितनी तेजी से कंपकंपी पैदा करने वाली बारिश में भीगी रात की ठंड़ी हवा चल रही थी उतनी ही तेजी से दिमाग को सवालों से भर देने वाली गरमा-गरम बहसें हो रही थी। सूरज की पहली किरनों के साथ लोग मस्जिद के आगे जमा होने लगे और उसकी बढ़ती गर्मी के साथ ही उनकी संख्या भी बढ़ती गई। बड़ा गहमा-गहमी भरा माहौल था। हर कोई बोल रहा था। लेकिन सभी के सवाल लगभग एक जैसे थे, “मोलाना कहां गए? क्या वह बिन बताए चले गए? पर हमने तो उनसे ऐसा कुछ कहा ही नहीं? ओर अगर जाना ही था तो बताकर जाते?”

इमाम साहब के चक्कर में लोग उस दिन की सुबह की नमाज़ पढ़ना भी भूल गए। तभी किसी ने कहा कि मोहतमीम साहब की जिन्नातों वाली बेटे भी घर पर नहीं है। इतना सुनते ही मस्जिद के सामने का सारा मजमा मोहतमीम साहब के घर के बाहर जाकर जमा हो गया। मोहतमीम साहब सिर झुकाए उस आखिरी तावीज़ को अपने हाथ में लिए बैठे थे जो इमाम साहब ने उनकी बेटी को पीने के लिए दिया था। उस पर उर्दू में लिखा था, “आज रात चलना है।”

“अरे मैंने तो पहले ही कहा था कि ये मोलाना लोग बहुत बदमाश होते है। जैसा दिखते है वैसे ये होते नहीं”, किसी ने सबको सुनाते हुए कहा था।

“बिल्कुल सही कहा”, दूसरे ने उसकी बात की पुष्टि करते हुए कहा, “ये दाढ़ी के पीछे शिकार खेलते है। इसलिए इन पर कोई शक भी नहीं करता।”

“वो तो उसके जिन्नातों को भगाना आया था... ओर खुद ही उसे लेकर भाग गया। क्या बात है? क्या मोलानाओं के अंदर से भी खौफ-ए-खुदा खत्म हो गया!” पीछे से कोई आवाज़ आई।

“अरे खुदा से तो हम तुम ड़रते है... मोलाना लोग नहीं। खुदा का खौफ दिखाकर ही तो ये हमे बेवकूफ बनाते है। हम मेहनत मजदूर भी करे तो गुनाहगार... ओर ये डाका भी डाल ले तो इनसे कोई सवाल जवाब नहीं!” किसी ने गुस्से भरी आवाज़ में कहा था।

और फिर हाजी अशरफ ने एक शांत और गंभीर आवाज़ में कहा, “भाई मैंने तो पहले ही कहा था कि जवान और कुआंरे मोलानाओं को मस्जिद में नहीं रखना चाहिए...। पर हमारी कौन सुनता है? सब सोचते है बुढ़ा है, बड़बड़ाकर चुप हो जाएगा। अब कर गया ना कांड। भुगतते रहो।”


(सभी चित्र साभार गूगल से)


लेखक परिचय

नाम- शहादत।
संप्रीति- रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत।
शिक्षा- बी.ए. (विशेष) हिंदी पत्रकारिता, दिल्ली विश्वविद्यालय।
मोबाईल- 7065710789
दिल्ली में निवास।

कथादेश, नया ज्ञानोदय, कथाक्रम, स्वर्ग विभा, समालोचना, जनकृति, परिवर्तन और ई-माटी आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।

Tuesday, August 22, 2017

तपते जेठ में गुलमोहर जैसा :नई किताब






तपते जेठ में गुलमोहर जैसा ...

यही नाम है सपना सिंह के सद्य प्रकाशित उपन्यास का! सपना जी का ये उपन्यास जब मैंने पढ़ा था तो अविलम्ब उनसे लम्बी बात हुई! उपन्यास की रचना प्रक्रिया, इसके विषय, उसकी पृष्ठभूमि और उसके पात्रों सभी पर विस्तार से चर्चा हुई! और इस लम्बी चर्चा में मैंने जाना कि सपना जी ने भावों की मिट्टी से इस उपन्यास और उसके पात्रों को गढ़ा! ये कहानी डॉ सुविज्ञ और अपराजिता उर्फ़ अप्पी के प्रेम की कहानी है! प्रेम सदा से अपरिभाषित, अपरिमेय रहा है पर डॉ सुविज्ञ और अप्पी का प्रेम तो कई मायनों में अनोखा है, विचित्र है! वे प्रेम को पा लेने की सांसारिक व्याख्या से परे एक दूसरे को खोकर भी पा लेते हैं! यहाँ जितनी आवेगमेयता है उतना भी आत्मनियन्त्रण भी है!


ये दो प्रेमी है जो एक दूसरे के प्रेम में हैं पर एक दूसरे के लिए नहीं बने! ये दो प्रेमी हैं जो एक दूसरे से दूर रहकर भी एक दूसरे में घुले-मिले हैं! वहीँ दूसरी ओर वे एक दूसरे से अदृश्य डोर से बंधे रहकर भी दो सर्वथा भिन्न संसारों में विचरते हैं! वे जितने एक दूसरे के हैं उतने अपने अपनों के भी हैं! जितने करीब हैं उतने ही दूर हैं और जितने भौतिक रूप से एक दूसरे से दूर हैं उतने ही एक दूसरे के मन के करीब हैं! इन दोनों की यही विचित्र प्रेम कहानी इस उपन्यास का मुख्य तत्व है!


अप्पी के डॉ सुविज्ञ के लिए कच्ची उम्र के आकर्षण या कह लीजिये क्रश से शुरू हुई कहानी उम्र के उस पड़ाव पर आकर खत्म होती है जहाँ अप्पी प्रेम को मन में बसाये अपनी तलाश में निकल पड़ती है! इस पूरी कहानी में 'मिलने की ख़ुशी न मिलने के ग़म' से परे दोनों उम्र भर इस अहसास को जीते हैं कि वे एक दूसरे के प्रेम में हैं! यह प्रेम न तो कुछ मांगता हैं और न ही अपने सांसारिक साथी से निबाह के रास्ते में कभी दीवार ही बनकर खड़ा होता है! इसकी सात्विकता, इसकी ईमानदारी और आचरण में बनी रहकर इन्हें आम प्रेमियों की पंक्ति से अलग खड़ा करती है!  यह रिश्ता विशिष्ट इसलिए भी है कि अपने अपने जीवनसाथी के साथ अपने वैवाहिक रिश्ते की पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को भरपूर जीते हुए भी वे किसी एक कोने में अपने प्रेम को जिलाए रखते हैं!


उपन्यास की कहानी सुगठित है और भाषा सहज, सरल,आत्मीय और सम्प्रेषनीय! इसके पात्र भी उतने ही सरल और प्रेममय हैं कि ये आपके भीतर कहीं गहरे से उतरकर आपकी भावनाओं को छू लेते हैं! कभी भी किसी भी क्षण यदि आप किसी के प्रेम में रहे हैं तो स्वतः ही इस कहानी से जुड़ जाएँगे और यही इस कहानी की सशक्तता भी है! और यही प्रेम जब परिपक्व होता है तो इसका विस्तार देश, दुनिया और समाज तक हो जाता है!


सपना जी इससे पहले लगातार कहानियां लिखती रही हैं! यह उनका पहला ही उपन्यास है जो उम्मीद जगाता है कि उनकी कलम से अभी ऐसे कई और सुंदर उपन्यास आने बाकी है! उन्हें हार्दिक शुभकामनायें ......


प्रकाशक : ज्योतिपर्व प्रकाशन, 99, ज्ञान खंड -3, इन्दिरापुरम, गाज़ियाबाद , फ़ोन : 9953502429, पेपरबैक संस्करण, रु. 199/-
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Wednesday, August 16, 2017

चंद्रकांत देवताले की दस कवितायें



 



 बेपता घर में 

 एक-दूसरे के बिना न रह पाने
और ताज़िन्दगी न भूलने का खेल
खेलते रहे हम आज तक
हालाँकि कर सकते थे नाटक भी
जो हमसे नहीं हुआ

किंतु समय की उसी नोक पर
कैसे सम्भव हमेशा साथ रहना दो का
चाहे वे कितने ही एक क्यों न हों

तो बेहतर होगा हम घर बना लें
जगह के परे भूलते हुए एक-दूसरे को
भूल जाएँ ख़ुद ही को

ग़रज़ फ़क़त यह
कि बहुत जी लिए
इसकी-उसकी, अपनी-तुपनी करते परवाह
अब अपनी ही इज़ाज़त के बाद
बेमालूम तरीके से
अदृश्य होकर रहें हम
कोहरे के बेनाम-बेपता घर में


 शाम को सड़क पर एक बच्चा 

शाम को सड़क पर
वह बच्चा
बचता हुआ कीचड़ से
टेम्पो, कार-ताँगे से
उसकी आँखों में।
चमकती हुई भूख है और
वह रोटी के बारे में
शायद सोचता हुआ...

कि चौराहे को पार करते
वह अचकचा कर
रह गया बीचों-बीच सड़क पर
खड़ा का खड़ा,
ट्रैफिक पुलिस की सीटी बजी
रुकी कारें-टेम्पो-स्कूटर
एक तो एकदम नज़दीक था उसके
वह यह सब देख बेहोश-सा
गिर पड़ा,

मैं दौड़ा-पर पहुँच नहीं पाया
कि उसके पहले उठाया उसे
सन्तरी ने कान उमेठ
होश-जैसे में आ,
वह पानी-पानी,
कहने लगा बरसात में
फिर बोला बस्ता मेरा...

तभी धक्का दे उसे
फुटपाथ के हवाले कर
जा खड़ा हो गया सन्तरी अपनी छतरी के नीचे

सड़क जाम थी क्षण भर
अब बहने लगी पानी की तरह
बच्चा बिना पानी के
जाने लगा घर को

बस्ते का कीचड़ पोंछते हुए...


 मैं मरने से नहीं डरता हूं 


 न बेवजह मरने की चाहत संजोए रखता हूं
 एक जासूस अपनी तहकीकात बखूबी करे
 यही उसकी नियामत है
 किराये की दुनिया और उधार के समय की
 कैंची से आज़ाद हूं पूरी तरह
 मुग्‍ध नहीं करना चाहता किसी को
 मेरे आड़े नहीं आ सकती
 सस्‍ती और सतही मुस्‍कुराहटें

 मैं वेश्‍याओं की इज्‍जत कर सकता हूं
 पर सम्‍मानितों की वेश्‍याओं जैसी हरकतें देख
 भड़क उठता हूं पिकासो के सांड की तरह
 मैं बीस बार विस्‍थापित हुआ हूं
 और ज़ख्‍मों की भाषा और उनके गूंगेपन को
 अच्‍छी तरह समझता हूं
 उन फीतों को मैं कूड़ेदान में फेंक चुका हूं
 जिनमें भद्र लोग
 जिंदगी और कविता की नापजोख करते हैं

 मेरी किस्‍मत में यही अच्‍छा रहा
 कि आग और गुस्‍से ने मेरा साथ कभी नही छोड़ा
 और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया
 जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
 और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
 अजन्‍मी और नन्‍ही खुशियों को

 मेरी यही कोशिश रही
 पत्‍थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्‍द
 और बीमार की डूबती नब्‍ज़ को थामकर
 ताज़ा पत्तियों की सांस बन जाएं
 मैं अच्‍छी तरह जानता हूं
 तीन बांस चार आदमी और मुट्ठी भर आग
 बहुत होगी अंतिम अभिषेक के लिए
 इसीलिये न तो मैं मरने से डरता हूं
 न बेवजह शहीद होने का सपना देखता हूं

 ऐसे जिंदा रहने से नफ़रत है मुझे
 जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्‍छा कहे
 मैं हर किसी की तारीफ करता भटकता रहूं
 मेरे दुश्‍मन न हों
 और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी बात मानूं...


 लकड़बघ्घा हँस रहा है  


फिर से तपते हुए दिनों की शुरुआत
हवा में अजीब-सी गंध है
और डोमों की चिता
अभी भी दहक रही है
वे कह रहे हैं
एक माह तक मुफ्त राशन
मृतकों के परिवार को
और लकड़बग्‍घा हंस रहा है...
और मैं...
फिर से खड़ा हूं
इस अंधेरी रात की नब्‍ज़ को
थामे हुए
कह रहा हूं
ये तीमारदार नहीं
हत्‍यारे हैं
और वह आवाज़
खाने की मेज़ पर
बच्‍चों की नहीं
लकड़बग्‍घे की हंसी है
सुनो...
यह दहशत तो है
चुनौती भी
लकड़बग्‍घा हंस रहा है


 पत्थर की बेंच  


पत्थर की बेंच
जिस पर रोता हुआ बच्चा
बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है

जिस पर एक थका युवक
अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है

जिस पर हाथों से आँखें ढाँप
एक रिटायर्ड बूढ़ा भर दोपहरी सो रहा है

जिस पर वे दोनों
जिंदगी के सपने बुन रहे हैं

पत्थर की बेंच
जिस पर अंकित है आँसू, थकान
विश्राम और प्रेम की स्मृतियाँ

इस पत्थर की बेंच के लिए भी
शुरु हो सकता है किसी दिन
हत्याओं का सिलसिला
इसे उखाड़ कर ले जाया
अथवा तोड़ा भी जा सकता है
पता नहीं सबसे पहले कौन आसीन हुआ होगा
इस पत्थर की बेंच पर!


 जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा  


पानी के पेड़ पर जब
बसेरा करेंगे आग के परिंदे
उनकी चहचहाहट के अनंत में
थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा

मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का
उस पर बसेरा करेंगे पानी के परिंदे
परिंदों की प्यास के आसमान में
जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा
वहां छायाविहीन एक सफेद काया
मेरा पता पूछते मिलेगी


 तुम्हारी आँखें  


ज्वार से लबालब समुद्र जैसी तुम्हारी आँखें
मुझे देख रही हैं
और जैसे झील में टपकती है ओस की बूँदें
तुम्हारे चेहरे की परछाई मुझमें प्रतिक्षण

और यह सिलसिला थमता ही नहीं

न तो दिन खत्म होता है न रात
होंठों पर चमकती रहती है बिजली
पर बारिश शुरू नहीं होती

मेरी नींद में सूर्य - चंद्रमा जैसी परिक्रमा करती
तुम्हारी आँखें
मेरी देह को कभी कन्दरा, कभी तहखाना, कभी संग्रहालय
तो कभी धूप-चाँदनी की हवाओं में उड़ती
पारदर्शी नाव बना देती है

मेरे सपने पहले उतरते हैं तुम्हारी आंखों में
और मैं अपने होने की असह्यता से दबा
उन्हें देख पाता हूँ जागने के बाद

मरुथल के कानों में नदियाँ फुसफुसाती हैं
और समुद्र के थपेड़ों में
झाग हो जाती है मरुथल की आत्मा

पृथ्वी के उस तरफ़ से एकटक देखती तुम्हारी आँखें
मेरे साथ कुछ ऐसे ही करिश्मे करती हैं
कभी-कभी चमकती हैं तलवार की तरह मेरे भीतर
और मेरी यादाश्त के सफों में दबे असंख्य मोरपंख
उदास हवाओं के सन्नाटे में
फडफडाते परिंदों की तरह छा जाते हैं
उस आसमान पर जो सिर्फ़ मेरा है


 अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही   


अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं उनकी नींद हराम हो जाए

हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे

सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान

अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
ख़ून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ.


 कहीं कोई जी रहा है उसके लिए 


जिसकी आँखों से ओझल नहीं हो रहे खण्डहर
समय के पंखों को नोंच
अपने अकेलेपन को तब्दील कर रही जो पतझर में

बिन दर्पण कुतर रही अपनी ही परछाईं
घर के फाटक पर चस्पा कर दी सूचना
"यहाँ कोई नहीं रहता"...

उसे पता तक नहीं
गाती हुई आवाज़ों के घर में
कहीं कोई जी रहा है
उसके लिए ।


कहीं कोई मर रहा है उसके लिये 


झुक-झुक कर चूम रहे फूल जिसके होंठों को
बतास में महक रही चंदन-गंध
जिसकी जगमगाती उपस्थिति भर से

जिसकी पदचापों की सुगबुगाहट ही से
झनझनाने लगे ख़ामोश पड़े वाद्य
रोशन हो रहे दरख़्तों-परिन्दों के चेहरे

उसे पता तक नहीं
सपनों के मलबे में दबा
कहीं कोई मर रहा है
उसके लिए...

--- चंद्रकांत देवताले 

साभार दस्तक से
प्रस्तुति : अनिल करमेले
कविता पोस्टर : अंजू शर्मा 

Tuesday, August 1, 2017

किले में छेद (कहानी ) - रंजना जायसवाल








वरिष्ठ लेखिका रंजना जायसवाल कविता और गद्य दोनों विधाओं में सिद्धहस्त है!  उनकी नई कहानी  'किले में छेद' में  मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार का सूक्ष्म विश्लेषण है!  जीवन में नैतिकता और जरूरतों के बीच का चुनाव सबके लिए इतना मुश्किल नहीं होता!  पढ़िए उनकी यह बहसतलब कहानी और हाँ  प्रतिक्रिया देना न भूलिएगा!



सीमा मेरी बहुत ही घनिष्ठ मित्र है हालांकि वह उम्र में मुझसे कई साल छोटी है |दरअसल उसकी बड़ी बहन असीमा मेरी क्लासमेट थी |दोनों का एक-दूसरे के घर खूब आना-जाना था |इसी आने-जाने के क्रम में  मेरी दोस्ती सीमा से हुई |सीमा उम्र में छोटी होते हुए भी असीमा से ज्यादा मैच्योर थी |सुलझी हुई ....सलीकेदार और बहुत ही सुंदर |वैसे सुंदर तो असीमा भी थी ,पर सीमा के चेहरे और आँखों में अजीब सी मासूमियत थी |वह जो कुछ बोलती ...तोलकर बोलती |उससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला |वह बहुत अच्छा पेंटिंग बनाती थी |उसकी कई लड़कों से दोस्ती थी ,पर वह किसी को नहीं बताती थी ,मुझे भी नहीं |पूछने पर साफ कह देती –दी ,यह मेरे वसूलों के खिलाफ है |मेरे हिसाब से किसी को भी अपना पर्सनल किसी से भी शेयर नहीं करना चाहिए |कौन जाने कोई कब इसका फायदा उठा ले ?’मुझे उसकी यह बात अच्छी नहीं लगी क्योंकि मैं उससे कोई भी बात नहीं छिपाती थी |मेरा तर्क यह रहता था कि जब मैं कुछ गलत करती ही नहीं ,फिर क्या छिपाना ?पर जब वह ऐसे लोगों को बेवकूफ कहती ,तब मुझे लगता यह कि क्या यह मुझे भी बेवकूफ समझती है?

एक बार एक दोस्त के अफेयर पर उसने टिप्पणी की-यह लस्ट है ,प्रेम नहीं |’ तो मुझसे नहीं रहा गया मैंने कहा –दूसरों का प्रेम हमें लस्ट लगता है और अपना लस्ट भी प्रेम |
तब वह मेरा मुंह ताकती रह गयी |मेरी बात उसे कहीं गहरे छू गयी थी और उसने फिर किसी के प्रेम सम्बन्धों पर टिप्पणी नहीं की |

समय बीताअसीमा की शादी हो गयी |नौकरी के कारण मैं भी दूसरे शहर की वासी हुई पर उससे संपर्क बना रहा | जब मैंने अपने आदर्शवाद में एक साधारण,बेरोजगार,दलित युवक से विवाह का निर्णय लिया तो वह बहुत नाराज हुई |फोन पर देर तक मुझे समझाती रही |उसने कहा –शादी के लिए लड़के में कुछ तो होना ही चाहिए |या तो वह इतना स्मार्ट और सुंदर हो कि देखकर ही मन प्रसन्न हो जाए या तो खूब अमीर हो ताकि जीवन ऐशो-आराम से कटे या किसी बड़े पद पर हो ,ताकि आपका भी मान बढ़े या फिर अपनी जाति और उम्र का खाते-पीते घर का ठीक-ठाक लड़का हो |पर आप जिस लड़के से शादी करने जा रही हैं उसमें तो इनमें से कोई भी क्वालिटी नहीं |न रूप-रंग,न पद ,न धन न अपनी जाति ही |क्या देखकर रीझी हैं ?यह एक दिन का सौदा नहीं है ,पूरे जीवन की बात है |यदि आप सोचती हैं कि आपसे हर बात में कमतर लड़का आपकी इज्जत करेगा तो भूल जाइए |ऐसे लोग जबर्दस्त हीन भावना के शिकार होते हैं विशेषकर पुरूष |वे अपने से श्रेष्ठ स्त्री को बरदास्त ही नहीं कर सकते | वे जब स्त्री से खुद को कमतर पाते हैं तो ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं और अपना काम्प्लेक्स किसी न किसी माध्यम से स्त्री को प्रताड़ित कर निकालते हैं |
पर मैंने उसकी बात नहीं मानी ,क्योंकि लड़के में एक विशेष गुण की उसने चर्चा नहीं की ,वह है –एक बेहतर इंसान होना |अशोक में भले ही अन्य गुणों का अभाव था  ,पर वे एक बेहतर इंसान लगे थे|



पर वर्ष बीतते बीतते मुझे अपनी गलती का अहसास होने लगा |अशोक की अप्रकट ही भावनाओं ने मेरे आत्मविश्वास को निगलना शुरू कर दिया |मैं ठगी गयी थी |सीमा की बातें सही साबित हुई थीं |आखिरकार मैं अशोक को नहीं झेल पाई और उससे अलग हो गयी |संवेदना ,प्रेम और विश्वास से रहित रिश्ता मैं नहीं जी सकती थी |मेरे अलग होने के निर्णय की सीमा ने सराहना की |
कुछ समय बाद सीमा की भी शादी हो गयी |लड़का [सुदीप]सुंदर ,पढ़ा-लिखा और बड़े शहर का था |अपना बिजनेस था |खाता-पीता मध्यमवर्गीय परिवार था |सीमा जैसी सुन्दर ,गुणी लड़की को पाकर सुदीप निहाल हो उठा ,पर सीमा उतनी खुश नहीं थी |सुदीप के परिवार वाले शहर में रहने के बावजूद विचारों और रहन-सहन से देहाती थे |सुदीप भी बस कपड़ों से ही आधुनिक दिखता था |उसने सीमा की पेंटिंग्स की बेकद्री करते हुए स्टोर में रखवा दिया |उसके अनुसार –सजावट की बहुत सी वस्तुएँ बाजार में सस्ते दामों में उपलब्ध हैं तो इतनी महंगी पेंटिग क्यों बनाई जाए ?’ वह बड़ा ही शंकालू किस्म का था |सीमा के ज्यादा माके आने-जाने पर भी उसने रोक लगा दी थी |सीमा मशीनी गुड़िया की तरह घर-गृहस्थी में रमी अपना व्यक्तित्व ,यहाँ तक की अस्तित्व भी भूल चुकी थी | 

कभी-कभार उसके मायके वाले घर में उससे मुलाक़ात होती थी तो उसे देखकर बड़ा दुख होता था |वह एक दबी हुई घरेलू टाइप की औरत लगती |उसकी सुंदरता धूमिल प गयी थी |पुरानी तेजस्विता जाने कहाँ लुप्त हो गयी थी |वह ससुराल के सारे अन्याय चुपचाप सह रही थी क्योंकि जानती थी कि माके वाले अपनी इज्ज के कारण अपने पास रखेंगे नहीं और मेरी तरह पति से ग होकर समाज को सहना उसके बस की बात नहीं थी|वैसे भी उसने एक बार कहा था –बहू को ससुराल में रहकर ही अपना हक पाने की कोशिश करनी चाहिए |अलग होना तो उनका मनचाहा करना है |
चौदह वर्ष बीत गए |सुदीप के माता-पिता चल बसे |बहनें ब्याह कर ससुराल चली गईं |छोटा भाई भी बंटवारा करके अलग रहने लगा |अब घर में सुदीप,सीमा और उनकी दो बच्चियाँ थीं |अब वे ठीक ढंग से रह सकते थे पर सुदीप जस का तस था | उसने सीमा और बच्चियों को जैसे कैद कर लिया था |वह अपने घर को किला कहता था ,जिसमें कोई भी रोशनदान या खिड़कियाँ नहीं थीं ताकि बाहरी दुनिया से आँख-मिचौली खेला जा सके |उसके इस व्यवहार और मानसिकता से बेटियाँ भी चिढ़ती थीं और मन ही मन पिता से विरोध भाव रखती थीं |इस विरोध को हवा देने का काम सीमा बीच-बीच में करती रहती थी |अपनी दमित अतृप्त इच्छाओं को वह बेटियों के माध्यम से पूरा करने लगी थी |उन्हें लेटेस्ट फैशन के कपड़े खुद सिलकर पहनाती |पैसे की किल्लत थी |पति खाने –खर्चे से ज्यादा देता नहीं था ,पर वह उसमें से ही कुछ बचा लेती |बेटियों के बड़ी हो जाने के बाद सुदीप सीमा को [शंकालू रहते हुए भी ]थोड़ी छूट देने लगा था |सीमा खुद बाजार-हाने लगी थी|अब वह किशोर बेटियों को लेकर शंकित था |

दो वर्ष बाद एक विवाह समारोह में सीमा से मिलना हुआ तो मैं उसे देखकर दंग रह गयी |उसका मानो कायाकल्प हो गया था |किसी सेलिब्रेटी की तरह ग्लैमरस दिख रही थी |रूप-रंग में गजब का निखार था!

डिजायनर कपड़े और गहने पहने हुए थी |उसका पर्स,चश्मा,मोबाइल,सैंडिल सब कुछ उसकी अमीरी का प्रदर्शन कर रहा था |बेटियाँ भी कीमती,आधुनिक कपड़ों में थीं |क्या सीमा को कोई जादू की छड़ी मिल गयी है या फिर अलादीन का चिराग ?जहां तक मुझे पता था सुदीप अभी तक उसी आर्थिक अवस्था में था और आय का अन्य कोई साधन भी नहीं था |होगा कुछ ...मैंने सोचा ...हो सकता है पुश्तैनी जायजात का कुछ हिस्सा बेच दिया हो ,पर सुदीप तो पत्नी और बेटियों को सादगी में रखने का पक्षपाती था | वह तो इतने महंगे हने ...कपड़े नहीं खरीद सकता |

मिलने पर सीमा ने बताया भी कि सुदीप अभी तक वैसे का वैसा ही है |वह खुद ही अपने तथा अपनी बेटियों का शौक पूरा करती है |खुद चीजें खरीदती है और कह देती है कि मायके से मिला है |माके वालों की संपन्नता को देखते हुए सुदीप को शक भी नहीं होता |और फ्री में मिले कपड़े पहनने से उन्हें रोक भी नहीं पाता |हाँ,जब नाराज होता है तो फिर से पत्नी और बच्चियों को बुर्के में रखने की बात करता है |

सीमा खुश दिख रही थी पर उसके चेहरे का भोलापन गायब था |उसके अंदर एक अजीब –सी बेचैनी मैंने देखी |पर सीमा ने पूछने पर भी कुछ नहीं बताया |बार-बार वह फोन में व्यस्त हो जाती थी |
इस बार गर्मियों की छुट्टी में मैं दो-चार दिन के लिए उसके पास गयी तो उसने झट मेरे साथ माके जाने का प्लान बना लिया |उसके ससुराल और मायके के बीच मेरा घर पड़ता था |तय हुआ कि एक-दो रोज वह मेरे घर रूकेगी और फिर मायके जाएगी |अपना काम छोड़कर सुदीप जा नहीं पाता पर मैं गार्जियन की तरह साथ थी ,इसलिए उसने खुशी-खुशी जाने की इजाजत दे दी |वैसे भी मायके से काफी कुछ लाद-फांदकर सीमा लाती थी जो उसे अच्छा लगता था |अब उसे क्या पता था कि वह सब कुछ सीमा खुद खरीदती है |

हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे |रास्ते भर सीमा फोन पर किसी से बातें करती रही थी |स्टेशन से थोड़ी दूर पर सीमा ने टैक्सी रूकवा दी |हम उतरे ही थे कि एक बड़ी -सी गाड़ी हमारे पास आकर रूक गयी |गाड़ी से एक अधेड़ अमीर आदमी उतारा और उसने मेरे पैर छू लिए |सीमा और बच्चियाँ उसे देखकर मुस्कुराई |...तो ये है सीमा की जादू की छड़ी ...अलादीन का चिराग |आदमी में कहीं से भी कोई सौंदर्य नहीं था |सुदीप के मुक़ाबले तो वह कुछ भी नहीं था ,पर स्वभाव से बड़ा विनयी और भक्त किस्म का था |सीमा और वह दोनों हर बात में जय माता दी कहते थे |हम उसकी कार से ही चले |सीमा उस आदमी के साथ आगे पत्नी की ठसक से बैठी और मुझे बच्चियों के साथ पिछली सीट पर बैठना पड़ा |कार अगले शहर के एक बड़े होटल के पास रूक गयी |सीमा ने मुझसे कहा –इस शहर में घूमने की कई सुंदर जगहें हैं |एक दिन रूक कर चलेंगे |मैं क्या करती ?मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था |बरसों की दोस्ती को एक झटके में तोड़कर आगे बढ़ जाना भी ठीक नहीं लग रहा था |बच्चियाँ उस आदमी से काफी हिली-मिली थीं |वे उससे फरमाईशे किए जा रही थीं |एक नार्मल फैमिली की तरह सब व्यवहार कर रहे थे जैसे वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों |बस मैं ही नाना विचारों से घिरी हुई थी |मुझे अटपटा सा लग रहा था |जैसे किसी धर्म संकट में फंस गयी होऊँ|आदमी ने दो रूम बुक कराया |एक मेरे और बच्चियों के लिए दूसरा अपने और सीमा के लिए |शाम को सभी नहा-धोकर घूमने निकले फिर लौटकर खाना खाया और सोने के लिए अपने-अपने कमरे में आ गए |न सीमा के चेहरे पर कोई शिकन थी न बच्चियों के |आदमी भी बिलकुल सामान्य था जैसे वे लोग अक्सर इसी तरह रहते आए हों ,बस एक मैं ही थी ,जो असामान्य हुई जा रही थी |




सीमा ने मुझसे हँसकर कहा-अगर सुदीप का फोन आए तो कह दीजिएगा आपके घर पहुँच गयी हूँ |यह झूठ भी मुझे बोलना पड़ा |रात भर मेरी आँखों के सामने सुदीप का चेहरा डोलता रहा |बेचारे ने कितने विश्वास के साथ अपने परिवार को मेरे साथ भेजा था ,पर मैं उसे धोखा दे रही हूँ |मैं क्यों ,मैं तो खुद इस्तेमाल की जा रही हूँ |धोखा तो उसे उसकी फैमिली दे रही है |उसके खिलाफ कितना बड़ा मोर्चा तैयार हो गया है और वह है कि अपने किले को और मजबूत बनाने में लगा हुआ है |

सीमा के माके से भी फोन आ रहा था कि कहाँ तक पहुंची |सीमा के आने की खबर उन्हें थी |सीमा ने उनसे भी कह दिया कि मेरे घर है |दूसरे दिन आएगी |उधर से कुछ कहा गया |सीमा ज़ोर से हंसी पर मुझे कुछ नहीं बताया |पर मैं जानती थी कि क्या कहा गया होगा |सीमा के मायके वाले मुझे पसंद नहीं करते थे ,क्योंकि मैंने अपने पति को छोड़ दिया था |वे सोचते थे मेरे घर आने-जाने से शरीफ बहू-बेटियाँ बिगड़ सकती हैं |उसके घर वाले ही क्यों ,ज़्यादातर लोगों को यही लगता है |लोगों को मुझसे खतरा महसूस होता है |मेरा अपराध यह है  कि मैं एक अनिच्छित रिश्ते को नहीं ढो पाई ,पर जो किया सामने किया ।किसी को धोखा तो नहीं दिया |ऐसे वैवाहिक रिश्ते से क्या लाभ,जहां पति या पत्नी अन्य सम्बन्धों में सुकून ढूंढते हो |उस साथ का क्या मतलब ,जहां दो के बीच कोई तीसरा हर घड़ी मौजूद हो |आर या पार के सिद्धान्त पर चलना इतना बुरा क्यों है ?दुनिया के सामने पति पत्नी का दिखावा और पीठ पीछे अफेयर्स |पर दुनिया में यही सब ज्यादा चल रहा है |तोड़ना गलत है,घसीटना नहीं |समाज धोखा खाने का आदी है सब कुछ जानकार भी आँखों पर पट्टी बांधे रखता है |बड़े तो बड़े अब बच्चे भी इसी दर्शन को अपनाने लगे हैं |उन्हें कुछ भी अटपटा नहीं लगता ,बस उनकी जरूरतें पूरी होती रहे |यही संसकार उन्हें दिया जा रहा है |यही आज का फैशन है |इस मायने में मैं ओल्ड फैशन हूँ |मुझे लग रहा है कि सीमा की बेटियाँ मुझे पसंद नहीं करतीं |वो तो सीमा के दबाव के कारण थोड़ा-बहुत लिहाज कर जाती हैं |उनकी हर बात में बनावट है ...दिखावा है |काम निकालने की कला सीख ली है उन्होंने | वे बकायदा कल के लिए प्लान बना रही हैं कि अंकल से क्या-क्या खरीदवाना है ?




बड़ी बेटी इस समय अट्ठारह की है ,पर लगती चौदह की है |उससे छोटी की उम्र चौदह की है |वह अपनी उम्र के हिसाब से ठीक है | दोनों ही खुद को ओवर स्मार्ट समझती हैं |हर समय फैशन,मोबाइल और स्टाइल की बातें ....|उनके पास न तो कोई विचार है ...न तमीज |उन्हें पता है कि उनकी माँ होटल के दूसरे कमरे में किसी दूसरे आदमी के साथ है,पर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं प रहा है |सबसे बड़ी बात  वे एक शब्द भी माँ के खिलाफ नहीं बोल रही हैं |माँ-बेटियों में गज़ब की अंडरस्टैंडिंग है |मैंने एक बार हल्के से बड़ी बेटी को कुरेदा भी तो वह अपने पिता को गलत और माँ को सही ठहराने लगी और बाद में यह बात सीमा को बता भी दी कि मैं उनकी थाह लेने की कोशिश कर रही थी |वे अपने पिता या किसी को भी ये भनक नहीं लगने देती थीं कि सीमा किसी के साथ रिश्ते में है |उन्हें तो यह भी अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं साथ हूँ और सारी बात जान गयी हूँ ,पर सीमा ने शायद उन्हें समझा दिया था कि मुझसे बात आउट होने का कोई खतरा नहीं |मैं वो पर्दा हूँ जिसकी आड़ में वे दो दिन एक फैमिली की रह रह सकेंगे |

पहले मैं समझती थी कि सीमा की बेटियाँ बहुत भोली हैं ...शायद कुछ नहीं समझती हैं |पर बाद में लगा कि सीमा ने उनका ब्रेनवाश कर रखा है कि यह सब कुछ उनके बेहतरी के लिए है |अपने पिता से वे नफरत करती हैं |सीमा ने बचपन से ही उनके मन में पिता के खिलाफ जहर भरा है |सोचती हूँ क्या बच्चियों को बढ़ावा देकर सीमा अपने पति से प्रतिशोध ले रही है ?क्या एक माँ को अपनी बेटियों को ऐसे संस्कार देने चाहिए ?आगे चलकर क्या होगा उनका ?बेटियों को इतना एडवांस बनाने का नतीजा अच्छा तो नहीं ही होगा |एक बार सीमा ने बड़ी बेटी के अफेयर्स के बारें में बताया था, जिससे बड़ी मुश्किल से उसे निकाला गया था | यह बात भी सुदीप नहीं जान पाया था |
क्या होगा आगे ?सीमा का ...बच्चियों का ..?मुझे डर लग रहा है कहीं कल बेटियाँ भी ऐसा ही कुछ करें तो क्या सीमा उन्हें रोक पाएगी ?कहीं उस आदमी ने जवान हो रही बेटियों पर नज़र ड़ा दी तो!..यदि सुदीप सब कुछ जान जाए तो....कहीं यह आदमी पीछा छुड़ा ले तो...|फिर अपनी बढ़ी हुई जरूरतों को कैसे पूरा करेगी सीमा ?और बेटियाँ क्या फिर से घरेलू लड़कियों की भूमिका में आ पाएँगी ?

कल क्या होगा ,ये तो भविष्य के गर्भ में है पर अभी तो सब खुश हैं |मैंने सोच लिया जो भी हो मैं आगे खुद को इस्तेमाल नहीं होने दूँगी |सीमा मेरी आड़ में शिकार नहीं कर सकेगी |बाकी उसकी अपनी जिंदगी है ,जो चाहे करे |

उस घटना के बाद सीमा से मेरी मुलाक़ात नहीं हो पाई है |पर सीमा फोन पर मुझसे घंटों बतियाती है |वह भी उस आदमी की बातें ,उसकी ही प्रशंसा |पति के बारे में हमेशा उपेक्षा से बात करती है |उसकी कोई बात उसे अच्छी नहीं लगती |वह उस दिन की प्रतीक्षा में है ,जब बेटियाँ अपने घर चली जाएंगी और वह आदमी भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो लेगा |फिर दोनों साथ रहेंगे |अभी दोनों अपने-अपने परिवारों के लिए त्याग कर रहे हैं |सीमा बड़े मनोयोग से करवाचौथ करती है|पति की शारीरिक  आकांक्षाओं को पूरा करती है |घर-परिवार संभालती है |रिश्ते-नाते निभाती है |व्रत-उपवास,पूजा-पाठ सब करती है पर एक दूसरे पुरूष से प्यार भी करती है |मैं सोच भी नहीं पाती कि वह इतना कुछ कैसे मैनेज कर लेती है ?उसके हँसते हुए चेहरे और खुशहाल जीवन को देखकर कोई भी ईर्ष्या कर सकता है |


सुदीप तो सोच भी नहीं पाएगा कि उसकी बाहों में लिपटी सीमा किसी और के सपने देखती है |सपना ही क्यों अवसर मिलते ही उसे हकीकत का रूप भी दे देती है |सुदीप पर तरस आता है कि उसने सीमा को खो दिया है पर इसमें सिर्फ सीमा की ही नहीं, सुदीप की भी तो गलती है |आज भी वह अपने घर को किला कहता है |उसे क्या पता उसके किले में कभी का छे हो चुका है |

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व्यक्तिगत परिचय
जन्म – ०३ अगस्त को पूर्वी उत्तर-प्रदेश के परौना जिले में |
आरम्भिक शिक्षा –परौना में |
उच्च-शिक्षा –गोरखपुर विश्वविद्यालय से “’प्रेमचन्द का साहित्य और नारी-जागरण”’ विषय पर पी-एच.डी |
प्रकाशन –आलोचना ,हंस ,वाक् ,नया ज्ञानोदय,समकालीन भारतीय साहित्य,वसुधा,वागर्थ,संवेद सहित राष्ट्रीय-स्तर की सभी पत्रिकाओं तथा जनसत्ता ,राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण,हिंदुस्तान इत्यादि पत्रों के राष्ट्रीय,साहित्यिक परिशिष्ठों पर ससम्मान कविता,कहानी ,लेख व समीक्षाएँ प्रकाशित |
अन्य गतिविधियाँ-साहित्य के अलावा स्त्री-मुक्ति आंदोलनों तथा जन-आंदोलनों में सक्रिय भागेदारी |२००० से साहित्यिक संस्था ‘सृजन’के माध्यम से निरंतर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन | साथ में अध्यापन भी |
प्रकाशित कृतियाँ कविता-संग्रह –
मछलियाँ देखती हैं सपने [२००२]लोकायत प्रकाशन,वाराणसी 
दुःख-पतंग [२००७],अनामिका प्रकाशन,इलाहाबाद 
जिंदगी के कागज पर [२००९],शिल्पायन ,दिल्ली 
माया नहीं मनुष्य [२००९],संवेद फाउंडेशन 
जब मैं स्त्री हूँ [२००९],नयी किताब,नयी दिल्ली 
सिर्फ कागज पर नहीं[२०१२],वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली 
क्रांति है प्रेम [2015]वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली 
कहानी-संग्रह तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि [२०१०]शिल्पायन,दिल्ली 
औरत के लिए [२०१३]बोधि प्रकाशन,जयपुर 
लेख-संग्रह स्त्री और सेंसेक्स [२०११]सामयिक प्रकाशन ,नयी दिल्ली 
उपन्यास -..और मेघ बरसते रहे ..[२०१३],सामयिक प्रकाशन नयी दिल्ली 
त्रिखंडिता [2017]वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली 

सम्मान
अ .भा .अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार[मध्य-प्रदेश]पुस्तक –मछलियाँ देखती हैं सपने|
भारतीय दलित –साहित्य अकादमी पुरस्कार [गोंडा ]
स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान [रांची,झारखंड]|पुस्तक-मछलियाँ देखती हैं सपने |
विजय देव नारायण साही कविता सम्मान [लखनऊ,हिंदी संस्थान ]पुस्तक –सिर्फ कागज पर नहीं |
भिखारी ठाकुर सम्मान [सीवान,बिहार ]
संपर्क –सृजन-ई.डब्ल्यू.एस-२१०,राप्ती-नगर-चतुर्थ-चरण,चरगाँवा,गोरखपुर,पिन-२७३013 |मोबाइल-०९४५१८१४९६७| ईमेल-dr.ranjana.jaiswal@gmail.com

(चित्र : साभार इन्टरनेट से )