डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी...आप कहेंगे मुझे इतने दिनों बाद इस फ़िल्म का ज़िक्र क्यों सूझा। दरअसल मैं रिलीज के समय चाहकर भी इसे नहीं देख पाई थी और कल इसे टीवी पर देखा। इस फ़िल्म को मैं कई वजहों से देखना चाहती थी। सबसे पहली और अहम वजह थी कि ब्योमकेश बक्शी पर बना सीरियल मुझे खासा पसंद था। यूँ भी मर्डर मिस्ट्रिस में मेरी दिलचस्पी हमेशा से रही है। फिर पीरियड फ़िल्में मेरी कमजोरी हैं और अगर उनकी पृष्ठभूमि कलकत्ता या बंगाल हो तो मिस करना बहुत खलता है। दिबाकर बनर्जी का नाम ही काफी है और ब्योमकेश बक्शी के रोल में सुशांत सिंह राजपूत को देखने का मोह भी था। सुशांत टीवी सीरियल्स के दिनों से ही मुझे बहुत शर्मीले और बुझे-बुझे नज़र आते हैं पर एक डांस बेस्ड रियलिटी शो में उन्हें देखने के बाद उनकी क्षमताओं को लेकर बनी तयशुदा इमेज टूट गई।
अब सीरियल की बात करूँ तो फ़िल्म और सीरियल की तुलना करने से खुद को रोकना चाहकर भी संभव न हुआ। सीरियल में ब्योमकेश एक मंजे हुए जासूस हैं जो अपने पत्ते अंत में खोलते हैं जबकि फ़िल्म में उनके जासूसी कैरिअर का शुरुआती दौर है, एक कलकतिया युवा जो अभी खुद को लेकर उतना मुतमईन नहीं। जो गलतियां करता ही नहीं उन्हें मानता भी है। बेहद उत्साही और जल्दबाज़ भी है। रजित कपूर का चेहरा उनके इंटेलेक्चुअल होने की ताकीद करते हुए एक अनुभवी और चतुर जासूस की भूमिका में फिट बैठता है जबकि सुशांत पूरी फिल्म में कन्फ्यूजियाए पर बड़े प्यारे लगते हैं! उनके चेहरे पर बक्शी वाले शांत पर ह्यूमरस भाव कुछ अलग तरह से दिखते हैं! फिल्म में उनकी और अजित की जबरदस्त केमिस्ट्री मिसिंग थी जो सीरियल की जान थी। याद कीजिये तेज़ गति से चलते, गहरे सोच में डूबे ब्योमकेश और उनके साथ दौड़ते हुए उन्हें समझने की कोशिश में परेशान अजित बाबू! फ़िल्म देखते हुए रजित कपूर और रैना की वो केमिस्ट्री जेहन से जाती ही नहीं थीं क्योंकि यही वो केस है जहाँ अजित के पिता की हत्या की गुत्थी सुलझाते हुए दोनों करीब आते हैं और वो बैकग्राउंड सिग्नेचर ट्यून, उसके बिना ब्योमकेश बक्शी देखने का मज़ा अधूरा रहा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अफीम की तस्करी और उसके लिए हुई गैंगवार से शुरू हुई फिल्म एकाएक साधारण मर्डर केस की छानबीन से गति पकड़ती है जो कतई साधारण नहीं और जिसके तार न केवल तस्करी, गैंगवार बल्कि जापान के संभावित हमले तक से जुड़ते हैं! इसी मर्डर की तहकीकात के दौरान ब्योमकेश एक के बाद एक राज से पर्दा उठाता जाता है!
फ़िल्म में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए स्वस्तिका मुख़र्जी से बेहतर क्या हो सकता था, इसके लिए उन्हें और उनका सटीक उपयोग करने के लिए दिबाकर को पूरे अंक दूंगी। उनका गहरे मेकअप से सजा दिलकश चेहरा और कामुक अदाएं उनके रोल के लिए परफेक्ट थीं वहीं सत्यवती के रोल में दिव्या मेनन भी खूब जमी हैं हालाँकि ये लव वाला एंगल न भी होता तो फिल्म ज्यादा विश्वसनीय लगती! च्यांग ने अपना रोल निभा भर दिया, उनके पास करने के लिए कुछ था भी नहीं! खलनायक डॉ गुहा के रोल में नीरज कबी ने पूरी फिल्म में अपने अभिनय से प्रभावित किया पर अतिरंजित नाटकीय अंत पूरी फिल्म की सहजता पर हावी हो गया! फिल्म का अंत पूरी फिल्म से अलग दिखा! जिस सनसनी से दिबाकर पूरी फिल्म में बचने में कामयाब रहे वही अंत में उन पर हावी हो गई! कुल मिलाकर इस फिल्म के नायाब सेट्स और फिल्मांकन और दिबाकर के चुस्त निर्देशन के कारण ये फिल्म वक़्त की बर्बादी नहीं लगी तो भी ये जरूर कहना चाहूंगी कि इसे यादगार फिल्मों में शुमार करने से पहले रुककर सोचना पड़ता है! मैं इसे दोबारा देखने की बजाय यू ट्यूब पर ब्योमकेश बक्शी सीरियल ढूंढना ज्यादा पसंद करुँगी!