धुप्प दा टोटा (पंजाबी)
मैनू ओह वेला याद ए—
जद इक टोटा धुप्प सूरज दी उँगली फड़. के
न्हेरे दा मेला वैखदां भीड़ां दे विच्च गुआचिया।
सोचदी हाँ — सहिम दा ते सुंज दा वी साक हुंदा ए
मैं जु इस दी कुछ नहीं लगदी
पर इस गुआचे बाल ने इक हत्थ मेरा फड़ लिआ
तू किते लभदा नहीं—
हत्त्थ नू छोंहदा पिआ निक्का ते तत्ता इक साह
ना हत्त्थ दे नाल परचदा ना हत्त्थ दा खांदा वसाह
न्हेरा किते मुकदा नहीं
मेले दे रौले विच्च वी है इक आलम चुप्प दा
ते याद तेरी इस तरहाँ जिओं इक टोटा धुप्प दा . . . .
धूप का टुकड़ा (हिन्दी अनुवाद)
मुझे वह समय याद है—
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ : सहम का और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोए बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है
अंधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी ख़ामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा...
(अनुभूति से साभार)
Thanks for sharing the beautiful poem!
ReplyDeleteआह...अमृता अमृता....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!!
शुक्रिया अंजू
अनु