बड़े-बड़े शहरों के
इक्के-गाड़िवालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है,
और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के
बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएँ।
जब बड़े-बड़े शहरों
की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए,
इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर
करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस
खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर
अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि,
निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब
अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में,
हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर
'बचो खालसाजी।' 'हटो भाई जी।' 'ठहरना भाई जी।' 'आने दो लाला
जी।' 'हटो बाछा।' -- कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और
बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह
खेते हैं।
क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को
हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी
की तरह महीन मार करती हुई।
यदि
कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो
उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- 'हट जा जीणे जोगिए; हट जा
करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए।'
समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू
भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने
है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।
ऐसे
बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक
की एक दूकान पर आ मिले।
उसके बालों
और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह
अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई
के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो
सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
"तेरे घर कहाँ है?"
"मगरे में; और तेरे?"
" माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"
"अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।"
"मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं।"
"तेरे घर कहाँ है?"
"मगरे में; और तेरे?"
" माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"
"अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।"
"मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं।"
इतने में
दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों
साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकराकार पूछा, "तेरी
कुड़माई हो गई?"
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्ज़ीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ
अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार
लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?' और उत्तर में वही
'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में
चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध
बोली, "हाँ हो गई।"
"कब?"
"कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"
"कब?"
"कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"
लड़की भाग
गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में
ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते
पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया।
सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की
उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
"राम-राम,
यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हडि्डयाँ अकड़
गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से।
पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। ज़मीन कहीं दिखती
नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के
साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।
इस गैबी
गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन
में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या
कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान
मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते
हैं।"
"लहनासिंह,
और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों
'रिलीफ' आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका
करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में
-- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है।
लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे
मुल्क को बचाने आए हो।"
"चार दिन
तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े
सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर
सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की
देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के
घोड़े -- संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने
लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस
दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे
जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..."
"नहीं तो
सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?" सूबेदार हज़ारसिंह ने
मुसकराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं
चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है।
एक तरफ़ बढ़ गए तो क्या होगा?"
"सूबेदार
जी, सच है," लहनसिंह बोला, "पर करें क्या? हडि्डयों-हडि्डयों
में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में
दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक
धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।"
"उदमी, उठ,
सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई
का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े
का पहरा बदल ले।" यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर
लगाने लगे।
वजीरासिंह
पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाई के बाहर
फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के
बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल
फट गए।
लहनासिंह
ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी
के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं
मिलेगा।"
"हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा ज़मीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।"
"लाड़ी
होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी
मेम..."
"चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।"
"देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।"
"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"
"अच्छा है।"
"चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।"
"देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।"
"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"
"अच्छा है।"
"जैसे मैं
जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और
आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे
आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप
कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा
क्या है, मौत है, और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे
नहीं मिला करते।"
"मेरा डर
मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई
कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए
आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।"
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, "क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे?"
दिल्ली शहर
तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
क बणाया वे मज़ेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
क बणाया वे मज़ेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
कौन जानता
था कि दाढ़ियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे,
पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो
गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
दोपहर रात
गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली
बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और
लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है।
लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और
एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
"क्यों
बोधा भाई, क्या है?"
"पानी पिला दो।"
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" पानी पी कर बोधा बोला, "कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।"
"अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"
"और तुम?"
"मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।"
"ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..."
"हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।" यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
"पानी पिला दो।"
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" पानी पी कर बोधा बोला, "कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।"
"अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"
"और तुम?"
"मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।"
"ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..."
"हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।" यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
"सच कहते हो?"
"और नहीं झूठ?" यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घण्टा
बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज़ आई, "सूबेदार
हज़ारासिंह।"
"कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
"कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
"देखो, इसी
समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक
जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज़ियादह जर्मन नहीं हैं। इन
पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव
हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम
यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन
कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ
रहेगा।"
"जो हुक्म।"
"जो हुक्म।"
चुपचाप सब
तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह
ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने
उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो
गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज़्ज़त हुई। कोई
रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन
साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब
से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना
की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, "लो तुम भी पियो।"
आँख
मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला,
"लाओ साहब।" हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब
का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के
पटि्टयों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह
कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?"
शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
"क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?"
"लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"
"नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -
शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
"क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?"
"लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"
"नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -
हाँ- हाँ
-- वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला
रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ने को रह गया था? बेशक पाजी
कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी
न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में
निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों
साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न?
आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे। हाँ पर मैंने वह
विलायत भेज दिया - ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो
होंगे?"
"हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?"
"पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ" कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
"हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?"
"पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ" कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे
में किसी सोने वाले से वह टकराया।
"कौन? वजीरसिंह?"
"हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने दी होती?"
"कौन? वजीरसिंह?"
"हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने दी होती?"
"होश में
आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।"
"क्या?"
"लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?"
"तो अब!"
"अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।"
"हुकुम तो यह है कि यहीं-"
"ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ।"
"पर यहाँ तो तुम आठ है।"
"आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।"
"क्या?"
"लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?"
"तो अब!"
"अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।"
"हुकुम तो यह है कि यहीं-"
"ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ।"
"पर यहाँ तो तुम आठ है।"
"आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।"
लौट कर खाई
के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन
साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को
जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक
तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे
सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जला कर
गुत्थी पर रखने...
बिजली की
तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब
की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से
दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर
मारा और साहब 'आँख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए।
लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब
को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली।
तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के
हवाले किया।
साहब की
मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला, "क्यों लपटन साहब? मिजाज़
कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट
पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं
और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि
मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं।
और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डेम' के पाँच लफ्ज़ भी नहीं बोला करते थे।"
और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डेम' के पाँच लफ्ज़ भी नहीं बोला करते थे।"
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
४४
लहनासिंह
कहता गया, "चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन
साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए।
तीन महिने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को
बच्चे होने के ताबीज़ बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था।
चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और
कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें
से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते।
हिन्दुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के
बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का
राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने
मुल्ला जी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा
था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो..."
साहब की
जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर
लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया
कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।
बोधा चिल्लाया, "क्या है?"
बोधा चिल्लाया, "क्या है?"
लहनासिंह
ने उसे यह कह कर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था,
मार दिया' और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर
तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़
पटि्टयाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पटि्टयों के कसने
से लहू निकलना बन्द हो गया।
इतने में
सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों
की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ
(लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे
हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर
जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े से मिनिटों में वे...
अचानक
आवाज़ आई 'वाह गुरु जी की फतह? वाह गुरु जी का खालसा!!' और
धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन
मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से
सूबेदार हज़ारसिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह
के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी
संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी
और... 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरु जी दी फतह! वाह
गुरु जी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!!' और लड़ाई ख़तम हो
गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों
में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से
गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने
घाव को खन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस
कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर न हुई कि लहना को
दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।
लड़ाई के
समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से
संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और
हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में
'दन्तवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे
मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं
दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से
सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह
रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई
की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी।
उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर
और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के
अन्दार-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह
होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक
गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं।
सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर
उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा।
बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया।
लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा,
"तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो
इस गाड़ी में न चले जाओ।"
"और तुम?"
"और तुम?"
"मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।"
"अच्छा, पर..."
"बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।"
गाड़ियाँ
चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर
कहा, "तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा?
साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने
क्या कहा था?"
"अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।"
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।"
"अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।"
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।"
मृत्यु के
कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्म-भर की
घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़
होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्ज़ीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब 'धत्' कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, "हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू'' सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्ज़ीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब 'धत्' कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, "हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू'' सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
"वजीरासिंह, पानी पिला दे।"
पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं ७७ रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हज़ारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने
लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला, "लहना,
सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।" लहनासिंह
भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के
क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं।
दरवाज़े पर जा कर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह
चुप।
मुझे पहचाना?"
"नहीं।"
''तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -''
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
''वजीरा, पानी पिला।'' 'उसने कहा था।'
मुझे पहचाना?"
"नहीं।"
''तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -''
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
''वजीरा, पानी पिला।'' 'उसने कहा था।'
स्वप्न चल
रहा है। सूबेदारनी कह रही है, "मैंने तेरे को आते ही पहचान
लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने
बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज
नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक
घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ
चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ।
उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।'' सूबेदारनी रोने
लगी। ''अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन
टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था।
तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में
चले गए थे, और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया
था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे
आगे आँचल पसारती हूँ।''
रोती-रोती
सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर
आया।
''वजीरासिंह, पानी पिला'' ... 'उसने कहा था।'
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला, "कौन! कीरतसिंह?"
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, "हाँ।"
"भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।" वजीरा ने वैसे ही किया।
"हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।"
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
''वजीरासिंह, पानी पिला'' ... 'उसने कहा था।'
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला, "कौन! कीरतसिंह?"
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, "हाँ।"
"भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।" वजीरा ने वैसे ही किया।
"हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।"
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
कुछ दिन
पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा... फ्रान्स और बेलजियम...
६८ वीं सूची... मैदान में घावों से मरा... नं ७७ सिख राइफल्स
जमादार लहनसिंह।
(साभार अनुभूति से)
‘उसने कहा था’ पहली बार सरस्वती में जून 1915 में प्रकाशित हुई थी। जल्दी ही इसके सौ साल पूरे होने को हैं। इन सौ सालों में यह निर्विवाद रूप से हिंदी की सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक बनी हुई है। हिंदी के पाठ्यक्रमों के लिए निर्मित संकलनों को छोड़ भी दें तो भी हिंदी की सर्वकालिक श्रेष्ठ कहानियों का शायद ही ऐसा कोई संकलन हो जो इस कहानी के बिना पूरा हो जाता हो। आखिर ऐसा क्यों है! इसमें ऐसी कौन सी खूबियाँ हैं जिनकी वजह से यह अभी भी पाठकों को अपनी तरफ लगातार आकर्षित कर रही है? पहले से कुछ ज्यादा ही, जबकि इसे लिखे-छपे हुए लगभग सौ साल होने को आए।
ReplyDeleteआगे हम इन्हीं सवालों से दो-चार होने की कोशिश करेंगे कि ‘उसने कहा था’ की रचनात्मक बुनावट में आखिर ऐसा क्या छुपा हुआ है जो हमें अभी भी बार बार अपनी तरफ खींचता हैं। और इस बार बार के बावजूद यह कहानी हमें आज भी उतनी ही नई और समकालीन लगती है। क्यों! 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा। साल भर के भीतर ही उसे केंद्र में रखकर ऐसी कहानी रच पाना लगभग अविश्वसनीय है। यह अंतरराष्ट्रीय लोकेल को लेकर लिखी गई संभवतः हिंदी की पहली कहानी है। आज भी ऐसी कहानियाँ हिंदी में कम ही हैं। डिक्शन की बात करें तो भी यह अपने समय से बहुत आगे की कहानी ठहरती है। और यह भी कि इसका डिक्शन आज तक पुराना नहीं पड़ा। भाषा ललित निबंधोंवाली, विषय ऐसा कि इसकी समकालीनता आज भी जस की तस बनी हुई है और दूसरी तरफ बिना किसी शोर-शराबे के यह कहानी चुपचाप हिंदी की कालजयी कहानियों में शामिल हो गई है।
क्या यह युद्ध विरोधी कहानी है, इसलिए! यह युद्ध की भयावह स्थितियों को बहुत ही सहजता से हमारे सामने रख देती है। इसकी खूबसूरती इस बात में भी है कि अपने वर्णन में यह युद्ध के विरोध में कोई बात नहीं कहती। स्थितियाँ खुदबखुद मुखर होकर बोलने लगती हैं कि लगातार युद्ध की मनःस्थिति में जीना किस कदर भयावह है। यही भयावहता स्मृतियों के लिए एक जरूरी खिड़की खोलती है। सबसे भयावह स्थितियों के बीच सबसे कोमल स्मृतियाँ ही जिंदगी को जीने लायक बना सकती हैं। वहीं से यह उदात्तता भी आती है कि कोई मरने-मारने के उन भयावह रूप से निर्णायक क्षणों में भी किसी और के लिए खुद को होम कर दे।
युद्ध को लेकर हिंदी में आज भी न के बराबर कहानियाँ उपलब्ध हैं। जबकि आजादी के बाद का ही समय लें तो भी जाने अनजाने हम कई युद्धों का सक्रिय हिस्सा रहे हैं। इस कहानी में आया युद्ध इसलिए भी खास है कि यह जिस धरती पर लड़ा जा रहा है वह धरती राष्ट्र या वतन की किसी भी परिभाषा के तहत लड़नेवालों की नहीं है। जिनसे लड़ा जा रहा है वह शत्रु भी अपने नहीं हैं। यही नहीं अगर वे यह युद्ध जीत भी जाते हैं तो भी यह धरती उनकी नहीं होनी है। वे वतन के लिए या आजादी के लिए नहीं बल्कि किसी स्वामी के लिए लड़ रहे हैं जो कि कहानी में ब्रिटेन है। इसके बावजूद वे मर और मार रहे हैं। यह युद्ध की सबसे भयानक परिणति है। जहाँ हम अपने ही जैसे कुछ दूसरों को मारकर वीर बन जाते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते। न उनका नाम न पृष्ठभूमि, न घर-परिवार के बारे में कुछ, न उनकी भाषा। वे हमारे तथाकथित शत्रु भी हमारे बारे में कुछ नहीं जानते फिर भी एक सैनिक के रूप में हम मारते हैं और मरते हैं। और मजे की बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में कुछ चमकीले विशेषणों से सुशोभित होते हैं।
युद्ध इनसानी समाज की सबसे भयानक त्रासदियों में से एक है फिर भी हम इससे निकलने का कोई सही रास्ता नहीं ढूँढ़ पाए हैं। कि दुनिया को शांति मिले, बल्कि सबसे ज्यादा लड़ाइयाँ इसी मरजानी शांति के नाम पर लड़ी गई हैं और लड़ी जा रही हैं। उसने कहा था हमें इस लिए भी बार बार अपनी तरफ खींचती है कि यह युद्ध के बरक्स बल्कि युद्ध के बीच प्रेम की संभावनाओं की खोज करती है।
हिंदी के कायदन पहले आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके इसी प्रेमवाले पक्ष पर ही जोर देते हुए लिखा कि, ‘उसने कहा था में पक्के यथार्थवाद के बीच सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती है; पर उसके भीतर प्रेम का एक स्वर्गीय रूप झाँक रहा है - केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।’
ज्यादातर कालजयी कहानियाँ पहली नजर में अविश्वसनीय क्यों लगती हैं। ‘उसने कहा था’ भी इसका अपवाद नहीं है। एक भूल गई स्मृति पर लहना सिंह अपना जीवन बलिदान कर देता है। भला क्यों? देखा जाय तो सूबेदारनी और लहना सिंह के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी बिना पर लहना सिंह के आत्मबलिदान का मर्म समझा जा सके। और यह तब तक अविश्वसनीय ही लगता है जब तक कि हम इस बलिदान की पृष्ठभूमि में चल रहे युद्ध की तरफ नहीं देखते।
ReplyDeleteतब हमें समझ में आता है कि युद्ध की अतिरेकी स्थिति के बीच हम सबसे ज्यादा किसके बारे में सोचेंगे? हिंसा और भयावह रक्तपात के बीच ऐसा क्या है जिसकी कमी हमें सबसे ज्यादा खलेगी। या कि वह कौन सा एहसास है जो हमें इस सब के बीच भी जानवर में नहीं बदलने देगा। हम तब भी मनुष्य बने रहेंगे। इन सब का जवाब एक ही है - प्रेम... भले ही यह किसी से भी हो और किसी भी तरह का हो। और इसके बाद बड़े से बड़ा बलिदान भी सहज लगता है। क्या इसीलिए दुनिया की कुछ सबसे शानदार प्रेम कहानियों की पृष्ठभूमि में हथियारों का बहरा कर देनेवाला शोर गूँजता रहता है जिसे चीरकर यह कहानियाँ बाहर आती हैं!
जब सूबेदार और बोधा सिंह गाड़ी में बैठकर चल देते हैं और लहना सिंह अपनी आखिरी साँसें गिन रहा होता है तो उस पर स्मृतियाँ इतनी हमलावर क्यों होती हैं! नहीं स्मृतियाँ पहले से ही हमलावर हैं उस पर नहीं तो वह अपना बलिदान यूँ ही नहीं देता। या कि सूबेदार की जगह पर वही गाड़ी में बैठकर चला जाता। याकि साथ में ही चला जाता। इनमें से कुछ भी नहीं करता वह। उसने अपने लिए मौत चुन ली है। क्यों? इस क्यों का उत्तर आखिर कहाँ है प्रेम में या युद्ध में? क्या वह जिंदगी के बारे में किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँच चुका है?
और अगर ऐसा है भी तो यह कहानी हमें अपनी सी क्यों लगती है? हम आज भी इसे पढ़ते हुए कुछ अबूझ सा क्यों महसूस करने लगते हैं जबकि न जाने कितने प्रेम और प्रेम कहानियाँ हमारे आसपास के वातावरण में तैरती रहती हैं और वे हमें उस तरह से नहीं छूतीं। जबकि यह कहानी लोककथाओं की तरह हमारी चेतना में जज्ब होकर नया नया रूप लेती रहती है।
सोचने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि आज हम पल-प्रतिपल युद्ध की ही अतिरेकी मानसिकता में जी रहे हैं। विज्ञान के तमाम चिकित्सा चमत्कारों के बाद भी जिंदगी के बारे में एक अनिश्चितता की स्थिति बनी है। हम देखते हैं कि हर साल लाखों की संख्या में तो लोग सड़क दुर्घटनाओं के चलते ही दम तोड़ देते हैं। ऐसे ही मरने के न जाने कितने तरीके समय ने ईजाद किए हैं।
तकनीकी चमत्कारों ने बाहर की दुनिया को जितना भरा है हमारा भीतर उसी अनुपात में खाली होता गया है। बाहर जितना शोर है भीतर उतना ही अपरिचय और अलगाव है। इसके बावजूद बाहर की दुनिया में परिचय का शोर इतना ज्यादा है कि छोटी-छोटी चीजें अनकही ही रह जाती हैं और कभी कही भी जाती हैं तो कई बार पिछड़ी संवेदना करार दे दी जाती हैं तो कई बार बाहर के शोर के बरक्स उनका कहा जाना खुद-ब-खुद एब्सर्ड में बदल जाता है।
कहानी में लौटें तो वहाँ भी शोर है। भयावह शोर है। छल-कपट है, एब्सर्ड स्थितियाँ हैं कि जो लोग एक दूसरे को मार और मर रहे हैं वे एक दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानते। इसके बावजूद कि वे मनुष्य हैं रोबोट नहीं। जान सकें ऐसी संभावना भी कम ही है क्योंकि वह युद्ध में हैं जो ऐसी किसी भी संभावना की भ्रूण हत्या कर देनेवाला है।
तो कहीं यह तो नहीं कि ऐसे में किसी सूबेदारनी की धुँधली सी याद हमें मनुष्य बनाए रखती है... और यह इतनी बड़ी बात है कि इसके लिए हम बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं...। सूबेदारनी के साथ साथ अपने घर-परिवार के बारे में बेहोशी की हालत में भी सोचते हुए लहना सिंह जब अपने लिए मौत चुनता है तो क्या एक बार ही सही उसे उन जर्मन सैनिकों की भी याद आई होगी जिन्हें थोड़ी देर पहले उसने मौत के घाट उतार दिया था! या उसने उस जर्मन सैनिक के बारे में कुछ सोचा होगा जिसकी गोली उसका प्राण ले रही थी? कहानी ऐसे बहुतेरे सवालों के बारे में ठोस कुछ भी नहीं कहती। वह उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाती है। क्या लहना सिंह की तरफ?
ReplyDeleteनहीं। इसके बाद कहानी पाठकों की तरफ लौटती है। मुझे यह कहानी इस लिए भी प्रिय है - और मैं सोचता हूँ कि यह भी इसकी लोकप्रियता और चिरसमकालिकता के कारणों में से एक है - कि यह कहानी हमें हमारे बहुत भीतर बसे हुए उस लहना सिंह के करीब ले जाती है जिसे हम कई बार उसी तरह भूल चुके होते हैं जिस तरह से लहना सिंह सूबेदारनी से मिलने के पहले अपने बचपन का वह पहला आकर्षण भूल गया है। हम सब के जीवन में एक सूबेदारनी (सूबेदार भी) होती है जिसके लिए हम अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तैयार बैठे मिलते हैं। बिना किसी खास वजह के भी। यह सिर्फ अच्छे कहे जानेवाले लोगों की बात नहीं है बल्कि बुरे कहे जानेवाले लोगों के लिए भी इसी तरह से और इतना ही सच है। इसे पढ़ना बार बार अपने भीतर छुपे लहना सिंह की खोज है। यह एक ऐसी पुरानी बात है जो कभी भी पुरानी नहीं पड़नेवाली।