Friday, July 11, 2014

यादें -आपबीती

बेहद कम उम्र में पढ़ने की लत लग गई थी! पढ़ने को मिला भी भरपूर! स्कूल लाइब्रेरी के अतिरिक्त रोज़ दो और हर रविवार तीन-चार अखबार पढ़ने को मिल जाते थे! दरअसल बचपन के उन दिनों में पड़ोस, पड़ोस नहीं दूसरा घर हुआ करता था! ऐसे ही एक घर में एक परिचिता की परिष्कृत अध्ययन रुचि का पूरा लाभ मिला और कम उम्र में ही तमाम बाल-पत्रिकाओं चंदामामा, पराग, लोटपोट, नन्दन, सुमन सौरभ, चम्पक, टिंकल, अमर चित्रकथाएं, डायमंड कोमिक्स (कईयों के तो नाम भी अब याद नहीं) के अतिरिक्त धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और शायद रूस से आने वाली सोवियत भूमि पत्रिका की नियमित पाठक बनने का सौभाग्य मिला! बाद में इस लिस्ट में इंडिया टुडे भी शामिल हो गई!

समाचार-पत्रों में उस समय रविवार को साहित्यिक परिशिष्ट का खास इंतज़ार रहा करता था! उस दौरान धर्मयुग और अखबार (शायद हिंदुस्तान रविवारीय) में बहुत सी लाजवाब कहानियाँ पढ़ने को मिली जिनके न तो अब नाम याद हैं और न ही लेखक का नाम, बस कई बार कथानक के साथ पात्रों के नाम अब भी स्मृतियों के इधर उधर चहलकदमी करते प्रतीत होते हैं! मन करता है, कोई तो हो कोई ऐसा, जिससे पूछूं कि हिंदुस्तान में स्वयंसिद्धा नाम की वह कहानी पढ़ी थीं जिसमें लड़की अपने परिवार के लिए शादी की उम्र निकलने के बावजूद शादी नहीं करती है और फिर परिवार को लगने लगता है कि अब उसके विवाह के बारे में सोचा ही नहीं जाना चाहिए! या हिंदुस्तान में वो कहानी जिसमें पूरी कहानी में भारतभूषण जी का गीत 'तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा' टुकड़े टुकड़े कर पिरोया हुआ था या धर्मयुग की वह कहानी जिसकी मुख्य पात्र थी पंजाबी महिला -जीतो, जो अपने पति की मृत्यु के बाद अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है और जमीन पर पाँव रखने से भी डरती है कि उसके पाँव के नीचे अब जमीन कहाँ! और कहानी के अंत में एक पुरुष जो शायद उसके पति की मौत का जिम्मेदार होता है उसके पाँव के नीचे अपनी खुरदरी हथेली रख देता जिस पर पाँव रखकर वह अपनी जमीन महसूस सके!

 खैर, ऐसी ढेरों कहानियाँ है जो अतीत की यादों के भंवर में अक्सर घूमती हुई हुई टुकड़ों-टुकड़ों में सामने आकर सोच के दरवाजे पर दस्तक देती हैं और जब तक मैं पूछती हूँ - कौन? वे माज़ी की कैद में फिर से गुम हो जाती हैं!  इन कहानियों का अबोध मन पर प्रभाव कई दिन तक रहता था, पुन:पाठ संभव न होने पर इन्हे यादों में सँजोने का केवल यही एक साधन था कि इन पर मानसिक मंथन की प्रक्रिया जारी रहे और रहती भी थी!  ऐसे कई पात्र स्मृतियों में मील का पत्थर बने स्थायी हो गए! 

3 comments:

  1. इन सब पत्रिकाओं का नाम पढ़ते सुनते हूक सी उठती है . अपने पिता की पढने की जुनूनी रूचि के कारण हमारा भी लगाव रहा पढने से !!
    उन यादों के अंश का एक हिस्सा साझा करने का आभार !

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    1. सच कहा वाणी जी, एक हूक सी, अतीत से सब कुछ मुट्ठी में समेट पाने में असमर्थता से विवशता भी तो अनुभूत होती हैं न

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    2. बहन आपका ब्लॉग देखा -----अच्छा लगा.…

      आपका आलेख पढ़ कर पुरानी यादेँ जीवंत होगी मेरे अक़्सर शाम का समय वाचनालय
      में गुजरता था।

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