कई दिनों से शबरीमाला की खबर वायरल है। खूब पोस्ट भी लिखीं जा रही हैं। वैसे यह नई बात नहीं। दशकों पहले कभी जानकर क्षोभ हुआ था कि वहां दर्शनार्थी स्त्रियों की आयु का हिसाब रखा जाता है ताकि मन्दिर को "अशुभ" होने से बचाया जा सके। जो लोग दक्षिण के लोगों को करीब से जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि वहां लड़की के "बड़े" हो जाने को एक उत्सव की तरह मनाने की प्रथा है और वहीं से शुरू होती उन खास दिनों में उसे अलग थलग रखने की कवायद। मेरी एक तमिल सहकर्मी ने बताया था, सामान्य मन्दिर प्रवेश तो छोड़िये, रजस्वला स्त्री को किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने की अनुमति नहीं और इसमें विवाह भी शामिल है। मतलब वह ऐसी दशा में किसी के वैवाहिक आयोजन का भी हिस्सा नहीं बन सकती। बेशक़ आज चीज़ें बदल रही हैं किन्तु दक्षिण भारतीय मान्यताओं के अनुसार इन दिनों स्त्री को अलग बैठना होता था, वह किसी भी चीज़ को छू नहीं सकती थी। किन्ही खास बर्तनों में उसे खाना वहीं दे दिया जाता था। खुद मेरे परिवार में मेरी ननद के यहाँ जब तक उनकी सास जीवित रहीं इसी प्रथा का पालन किया जाता रहा। मेरी सहकर्मी ने बताया था कि औरतें इस शर्मनाक निर्वासन से बचने के लिए डॉक्टरी मदद तक लेती हैं। मने पारिवारिक आयोजन से पहले दवाइयों के सहारे उन खास तारीखों को पोस्टपोन करने की कोशिश करती हैं बाद में चाहे उन्हें इसके साइड इफेक्ट ही क्यों न झेलने पड़े।
वैसे मुझे लगता है परिवारों के सिकुड़ने का प्रभाव ऐसी तमाम अजीबोगरीब प्रथाओं पर भी पड़ा है जबकि संयुक्त परिवार ऐसी तमाम प्रथाओं,कुप्रथाओं का पोषक होता है। पापड़ों पर छाया पड़े तो वे लाल पड़ जाएंगे, तुलसी मुरझा जाएगी, अचार सड़ जाएगा और भी न जाने क्या-क्या। खुद हिंदुओं में भी ऐसे में मन्दिर प्रवेश और पूजा पाठ की मनाही होती है। जिसके विरुद्ध दबी ढकी आवाज़ें हमेशा उठती रही हैं। हमारी पीढ़ी ने तमाम छूने न छूने या अलग थलग बैठने जैसी अजीबोगरीब प्रथाओं को जमकर नकारा है, रूढ़ियों को धता बताई है, पर पूजा पाठ या मन्दिर प्रवेश हमारी पीढ़ी की प्राथमिकता कभी नहीं रहा। यही कारण रहा होगा कि इसके विरुद्ध आवाज़ें हमने बुलन्द नहीं की। जरूरत ही महसूस नहीं हुई। पर शबरीमाला में सेंसर करने के लिए मशीन लगाने जैसी बात इतनी हास्यास्पद है कि उनकी सोच पर हंसी आती है। रखिये अपने पास अपना मन्दिर, जो ईश्वर स्त्री को कमतर समझता है, जो ईश्वर अपने ही बनाए स्त्री पुरुष में भेद करता है, जो स्त्री की जीवनदायी शक्ति को उसकी कमजोरी या अशुद्धत्ता समझता है, जो ईश्वर एक को ब्राह्मण और दूसरे को दलित मानता है, ऐसा ईश्वर केवल आपका है हमारा नहीं। अव्वल तो हमें ऐसे ईश्वर की जरूरत ही नहीं, जरूरत हुई तो हम अपना ईश्वर आप गढ़ लेंगे, हमारे टाइप का बिंदास, लोकतान्त्रिक और पूर्वग्रहों से मुक्त ईश्वर.....
Upyogi lekh
ReplyDeleteसामाजिक असंगत परम्पराओं को बदलने की दिशा में सुखद
Deleteप्रयास।
शुक्रिया प्रांजल
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