कई चेतावनी वाली और कई "ठीक है मनोरंजक है ...लेकिन" वाली पोस्ट्स के बावजूद हम खुद को जग्गा जासूस देखने से रोक नहीं पाए। रोकते भी कैसे इसकी सो कॉल्ड रिलीज लम्बे अरसे से हमारी चिंता का विषय रही है। 'बर्फी' के बाद से ही अनुराग बासु की इस फ़िल्म की बेसब्री से प्रतीक्षा थी। रणबीर और कैटरीना की जोड़ी इससे पहले भी खूब पसंद आई है और बर्फ़ी की टीम से उम्मीदों का ज्वार सारी हदें पार कर चुका था। बेशक़ पिछले साल देखे इसके टीज़र में बर्फ़ी की छाया और लगातार की जा रही तुलना के बावजूद मुझे यकीन था कि आम कन्वेंशनल मुम्बईया फिल्मो से कुछ तो अलग है अनुराग की जग्गा जासूस। तब आई विद्या बालन की बॉबी जासूस तो इस तुलनात्मक चर्चा से कब की बाहर हो चुकी है तो देखे बिना कुछ भी कह देना फ़िल्म और टीम के साथ नाइंसाफी नज़र आई।
अब पहले इसके प्लस पॉइंट्स का जिक्र करती हूँ। डायरेक्टर और हीरो दोनों मेरे पसन्दीदा हैं। रणबीर को मैं ब्रिलिएंट एक्टर नहीं कहती पर इतना तय है वे डायरेक्टर के एक्टर है, बेहद मेहनती और जुनूनी अभिनेता है। खुशनसीब भी कि उन्हें इम्तियाज़ और अनुराग बासु जैसे हटकर ब्रिलिएंट फिल्ममेकर मिले जो जानते हैं कि सौ बातों के लिए एक एक्सप्रेशन वाले रणबीर में एक मेहनती और जुनूनी एक्टर छिपा है जो एक्शन कहते ही अपना सर्वस्व झौंक देने की कुव्वत रखता है। उनकी ऑंखें एक जिज्ञासु बच्चे की आँखे हैं जो सब कुछ सीखने के लिए आपके पैरों में गिरकर भी हासिल करेगा। कैटरीना कुछ नया नहीं करतीं, यूँ भी डायलाग डिलीवरी और एक्सप्रेशन को लेकर उनकी सीमाएं है और वे एक बंधे बंधाये फ्रेम से बाहर आने को बेताब भी नहीं दिखती। टूटी फूटी उर्फ़ बादल बागची के रोल में शाश्वत चटर्जी का किरदार फ़िल्म 'कहानी' की तरह इस बार भी छाया हुआ है। बल्कि ये कहने से मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि ये फ़िल्म रणबीर और कैटरीना नहीं, रणबीर और शाश्वत की फ़िल्म है। प्रीतम का संगीत और अमिताभ भट्टाचार्य की लिरिक्स की जुगलबन्दी बढ़िया पर रवि बर्मन की सिनेमेटोग्राफी फ़िल्म की जान है। फर्स्ट हाफ में भारत और बाद में विदेश (फ़िल्म के मुताबिक अफ्रीका) में फिल्माएं लोकेशन्स इतने शानदार है कि उनकी ताज़गी देर तक जेहन पर काबिज़ रहती है।
फ़िल्म की खामियों पर बात की जाए तो जहां कुछ गाने बेहद शानदार वहीं पूरी फ़िल्म में डायलॉग्स का म्यूजिकल होना बेहद झिलाऊ और ऊबाऊ लगता है। रणबीर के साथ हकलाने की समस्या है और टूटी फूटी के समझाने पर जब वह गाकर बोलना सीखता है तो वह दृश्य आँखों को नम कर देता है, वहीं फ़िल्म में दोनों की केमिस्ट्री भी अद्भुत है पर पूरी फ़िल्म में यह रिपिटीशन झेलना मुश्किल है। ऊपर से कैटरीना जो सूत्रधार बनी है पूरी फ़िल्म को जग्गा जासूस के कॉमिक्स की तरह पेश करती हैं। उनका भी गाकर प्रस्तुति देना रोका जा सकता था। ये वाकई संगीत का ओवरडोज़ था जिसे मेरे जैसा संगीत प्रेमी भी एक हद के बाद नहीं झेल पाया। हालाँकि यह प्रयोग सत्तर के दशक में आई "हीर राँझा" में भी किया गया था पर उसके हश्र से हम सब वाकिफ हैं। ये रिस्क लेने से काश कोई अनुराग को रोक देता।
कहानी बढ़िया ही है। 1995 के पुरलिया कांड से शुरू होकर तथाकथित हथियारों के सौदागर बशीर अलेक्ज़ेण्डर तक पहुंचती है, जिसे ब्लैकमेल करने और उससे जुडी टेप्स और डाक्यूमेंट्स मुहैया कराने का काम इंटेलिजेंस से जुड़े सौरभ शुक्ला करते हैं जो बादल बागची से ये काम लेते हैं। अपने दत्तक पिता को कैटरीना की मदद से तलाशते जग्गा के उस अंतर्राष्ट्रीय गिरोह तक पहुंचने की कहानी कई बार डायरेक्टर की पकड़ से छूटकर डुबकी लगाती है। पर कॉमेडी और इमोशन का तड़का बचा लेता है। फ़िल्म का हटकर होना इसकी सबसे बड़ी खूबी है और इसके लिये इसे पांच में से चार स्टार तो बनते हैं।
तो मेरी तरह देखकर फैसला कीजिये वरना पछतायेंगे कि खराब फिल्मों की भीड़ में एक अच्छी फ़िल्म आपसे मिस हो गई।
समीक्षा कुछ अलग ही कर दी आपने। प्रभात रंजन को भी पसंद आई थी। बाकी तो शायद सभी ने इसे कमज़ोर बताया था।
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