Thursday, February 12, 2015

निरुपमा सिनहा की कवितायें








निरुपमा सिनहा की प्रेम कवितायें हम फेसबुक पर पढ़ते रहे हैं!  चाँद उनका प्रिय विषय रहा है!  चाँद पर लिखी उनकी कई कविताओं और साझा की गईं पंक्तियों से बनी 'सुन्दर प्रेम कविताओं की कवयित्री' की छवि से ठीक इतर,  पिछले कई महीनों से नवसम में गोष्ठियों में सुनीं उनकी कविताओं ने एक संकोची किन्तु विचार प्रधान लेखिका से मिलने का अवसर दिया!  उन्हीं के शब्दों में, " बचपन में एक निर्जीव पड़े पौधे को मिट्टी में रोपते वक्त मन में यह विश्वास जगा था कि इसमें जीवन ज़रूर पनपेगा!  इसी आशा ने मेरे लेखन को शब्द दिए और मेरी पहली लघु कहानी लखनऊ आकाशवाणी से "बालसभा " कार्यक्रम में प्रसारित हुई!  आकाशवाणी गोरखपुर से भी कहानी और हास्य-व्यंग्य का प्रसारण हुआ!"  तो आज उनकी कुछ कवितायें स्वयंसिद्धा के पाठकों के लिए.……










(1)


चींटियाँ

मेरे आसपास
टहलती हैं
चींटियाँ
भूरी
लाल
और
काली ..
भूरी ...
कितनी मिलती है
विपत्तियों से
हमें डरा धमका
दबे पाँव
निकल जाती हैं
अहसास दिला
कि
निश्चिन्त न होना ..
लाल ...
चिपट काया से
निकाल लेती है
अंदर की चीखें
जिसे हमने
वर्जनाओं में लपेट रखा था
सहनशक्ति के नाम पर ...
.काली...
को
हमेशा जल्दी होती है
गन्तव्य तक
पहुँचने की
निगरानी कर
हमारी भावनावों की
चल देती चंचल सी
उन कन्दरावों में
जहाँ हमने भी
सहेजे होते हैं
सफेद ..उजले ..भविष्य
उसके अण्डों की तरह !!


(2)
तुलना


निर्बाध बहती
अपने लक्ष्य को
साधती
किसी बंधन को
नहीं मानती
कभी धीमी
कभी तेज़
छलक कर
छलका कर
अपनी चंचलता से
भिगो जाती
बिना
यह सोचे कि
बुरा लगेगा
या भला
स्वीकारती
जीवन की खुशियों को
आमन्त्रण
पा सागर का
दौड़ जाती
अबाध !!
.
..............मैं नदी !!!
खुश नहीं हूँ
यह जानकर
कि
मेरी तुलना की जाती है
स्त्री से !!







(3)
अधखुले पन्ने का सच !!


इधर से उधर
छिपता हुआ बच्चा
घर की चाहरदीवारों के बीच
सहमा सा
पिता की शोर करती
आवाज़
से
कान को ढापे हुए

इस इंतजार में
कि कब निकले
पिता घर से
और
घर उसका हो जाए

सबसे नागवार गुजरता था
उनका माँ पर चिल्लाना
दिनभर मकान को
घर बनाते
थकती थी
माँ की हिम्मत
पर नहीं हारते थे
" पिता "
अपनी आदतों से .
मन -मन तसल्ली करता था
वो मासूम सा बचपन
बड़ा होकर
नहीं चलेगा इन पदचापों पर

समय ने
छोटे से बड़ा
बड़ा से
जवान कर दिया
उसके दालान और आँगन में
दीखता हैं बचपन
पर नहीं दिखता कोई
मासूम
दौड़ कर उससे लिपटता हुआ
और
.... " पापा " प्यार से कहते हुए
न जाने
कब और कैसे
वो भी चल चुका होता है
पिता की राह पर
उसकी ऊँची आवाज़े जा टकराती है
बंद दिशाओं में
पत्नी की आँचल में
सुबकते बच्चे
आज भी करते हैं इंतजार
कि
कब हो पापा बाहर
और हम
अपने होने का उत्सव मनाये !!


(4)
मौसम


मंडराती हैं
आसपास
तमाम मधुमक्खियाँ
पैरों में
हाथों में
चेहरों पर
यहाँ तक की
दिल पर भी
ऊभरे थे
अनेक
डंक के निशाँ
उसने सीखा नहीं
स्वभाव का गेंद बन जाना
लौटा नहीं पाती थी
कोई भी दंश
.एकत्र करती जाती थी
सब कुछ
समय के अंतराल पर
आ जाते थे
व्यापारी
बटोर ले जाने
"शहद "
..
वसंत आ रहा है घबरा रहा है
उसका मन
मौसम फूलों का
बढ़ा न दे उसका दर्द






(5) 
स्मृतियाँ


मिस्र की पिरामिडों में
रखी लाशों की तरह
पूरे ज़िस्म में
सुरक्षित हैं
लेप लगाये हुए
स्मृतियाँ

संरक्षण की खोज ही
शायद
हुई होगी
इन्हीं स्मृतियों के
खो जाने के भय से

पिरामिडों के ठीक पीछे
दफ़न है
इन्हें पुनः जीवित कर देने का रहस्य

लेकिन
कोई उस कला को
सीखना नहीं चाहता
अच्छी लगती है
सबको शांत .....नीद में लेटी
मूक स्मृतियाँ
आवश्यकतानुसार
धीरे - धीरे
खुद की ओर से
खुले हुए दरवाजों से
प्रवेश करना
जहाँ से दूसरे का
दखल बंद हो !!


(6)
अधपका


मन की आँच
तन की हांडी
पकते रहे
विचारों के चावल
चैतन्यता बीच बीच में
उचकाती रही कंधे शब्दों पर
...नमक
जैसे वाक्य विन्यास पर
जाँचता रहा अर्थप्रवाह ....

किसी चीज़ का
ठीक से पक जाना ही
स्वाद की विश्वसनीयता है
यही सोच
खदबदाती रही
वाक्यों का संयोजन
निश्चिंतता के व्याकरण पर
ज्यूँ ही उतारा अपना अंतर्मन ..
..नीचे की परत पर थी
कालिमा का वर्चस्व
भूल गई थी
स्त्रियाँ !!
रचती नही कविता
..उन्हें रचना होता है परिवार .
................. जहाँ कभी कुछ अधपका नही रहता
सिवाय मन के !!

***********


परिचय

निरुपमा सिनहा
जन्म - 23अक्टूबर
स्थान - बस्ती (उ.प्र )
शिक्षा - एम .ए (हिंदी ) बी. एड
निवास स्थान - इन्द्रापुरम गाज़ियाबाद

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित!
हिंदी युग्म से प्रकाशित पुस्तक बालार्क में कविताएँ और कलकता के "प्रभात चेतना " में प्रकाशित कविता .
लखनऊ आकाशवाणी द्वारा पत्र -लेखन में पुरस्कार!


(उपरोक्त चित्र गूगल से लिए गए हैं)


Tuesday, February 10, 2015

गांव भीतर गांव - सत्यनारायण पटेल

विश्व पुस्तक मेले में जिन किताबों के आने की साहित्यप्रेमियों को प्रतीक्षा है उनमें कथाकार सत्यनारायण पटेल का पहला उपन्यास "गांव भीतर गांव" भी शामिल है!  उपन्यास आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है!  किताब तो मेले में मिलेगी पर वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने इस किताब का ब्लर्ब लिखा है जिसे आप लोगों से साझा कर रही हूँ!   इसे पढ़कर किताब के मिजाज़ का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं!  मेरी उत्सुकता बढ़ गई है, आप भी पढ़िए  ……







सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। व्यवस्था से लड़ते हुए झब्बू ने अपनी जातिगत और लिंगगत पहचान से ऊपर एक चेतन कर्मशील योद्धा की छवि गढ़ी है। अपनी सीमाओं में जकड़ी ग्रामीण समाज की अति पिछड़ी दलित स्त्रियों को आर्थिक-नैतिक-वैचारिक रूप से सक्षम बनाने की मुहिम में वह स्वयं क्रमशः व्यक्ति से संस्था बनती गई है। लेकिन अपनी पूर्ववर्ती कथाकार-पीढ़ी की तरह सत्यनारायण पटेल रोमानी आदर्शवाद से अपनी लेखनी को आक्रांत नहीं होने देते। बाज़ार जब महानगरीय संस्कृति के कंधे पर सवार होकर गांवों को मिटाने के लिए तेजी से खेतों को निगलने लगा हो, चांदी का जूता जीवन और जगत के तमाम रहस्यों को खोलने की कुंजी बन गया हो, अपमान का गरल पीकर सत्ता-सुख का अमरत्व हासिल होता हो, तब ऊर्ध्वमुखी महत्वाकांक्षा चांद के पार सूरज से होड़ लेने की लिप्सा में कब रसातल की ओर उन्मुख हो जाए, पता नहीं चलता। सत्यनारायण पटेल रोमान और आदर्शवाद दोनों से सायास पल्ला बचाकर झब्बू के जरिए जितनी विश्वसनीयता से व्यक्ति के महानायक बनने की कथा कहते हैं, उतनी ही प्रामाणिकता से महानायक के भीतरी क्षरण की जांच भी करते हैं। झब्बू का अभ्युदय और पतन कथा से बाहर निकलकर समाज में एक बड़ी संभावना के पनपने और नष्ट हो जाने की त्रासदी कहता है, जिसे घटित करने में जितनी भूमिका व्यवस्था को इशारों पर नचाती उपभोक्तावादी संस्कृति की है, उतनी ही अपने भीतर खदबदाती लिप्साओं और बर्बरताओं की भी। जाहिर है उपन्यास 'गांव भीतर गांव' पाठक को अपने इस अनपहचाने 'स्व' को देखने की आंख देता है। तब रोशनी, राधली, जग्गा, श्यामू या दामू, संतोष पटेल, ठाकुर और विधायक आदि दो खेमों में बंटे पात्र नहीं रहते, अपने ही भीतर की निरंतर द्वंद्वग्रस्त मनोवृत्तियां बन जाते हैं।
कहना न होगा कि उपन्यास में एक-दूसरे को काटती, घुलमिल कर आगे बढ़ती घटनाओं का अंतर्जाल है; पात्रों का मेला है और उसी अनुपात में अंतस्संबंधों की कई-कई बारीकियां भी। मिट्टी की सांेधी गंध से महकती बोली-बानी पात्रों को चरित्र-रूप में साक्षात् उपस्थित भी करती है और लोक-जीवन की विश्वसनीयता को भी गहराती है। कहानियों में जिस बेलौस अक्खड़ अंदाज में सत्यनारायण पटेल अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर कथा-साहित्य को एक नई रंगत और रवानगी देते हैं, उसी की सतत् निरंतरता है उपन्यास 'गांव भीतर गांव', यानी अपने वक्त का अक्स।



---रोहिणी अग्रवाल

Sunday, February 8, 2015

अकेले : माया एंजेलो





लेटे हुए, सोचती रही
कल रात
कैसे खोजूं  एक घर अपनी आत्मा के लिए
पानी जहाँ प्यासा न हो
और रोटी का निवाला पत्थर न हो
मेरे मन में आया एक ख्याल
और मैं नहीं समझती मैं गलत हूँ
कि कोई नहीं
हाँ कोई नहीं
जी सकता यहाँ अकेले

अकेले, नितांत अकेले
कोई नहीं, हाँ कोई नहीं
जी सकता यहाँ अकेले

कुछ करोड़पति हैं
उस पैसे के साथ जिसे वे इस्तेमाल नहीं कर सकते
जिनकी बीवियां भटकती हैं प्रेतात्माओं-सी
बच्चे उदासियाँ गुनगुनाते हैं
पाये हैं उन्होंने महंगे डॉक्टर
अपने पत्थर के दिल के इलाज़ के लिए
पर कोई नहीं,
नहीं, कोई नहीं
जी सकता यहाँ अकेले

अकेले, नितांत अकेले
कोई नहीं, हाँ कोई नहीं
जी सकता यहाँ अकेले

अब यदि सुनो ध्यान से

बताती हूँ तुम्हें जो है मुझे पता
एकत्र हो  रहे हैं तूफानी बादल
बस चलने ही वाली है हवा 
पीड़ा में है मानव प्रजाति
और मैं सुन सकती हूँ कराह
क्योंकि कोई नहीं
बस कोई नहीं
जी सकता यहाँ अकेले


अकेले, नितांत अकेले
कोई नहीं, हाँ कोई नहीं
जी सकता यहाँ अकेले

---माया एंजेलो

अनुवाद :  अंजू शर्मा

मेरी पसंद - अरुण कमल की कविता










उत्सव


देखो हत्यारों को मिलता राजपाट सम्मान...
जिनके मुँह में कौर मांस का उनको मगही पान

प्राइवेट बंदूकों में अब है सरकारी गोली
गली-गली फगुआ गाती है हत्यारों की टोली
देखो घेरा बाँध खड़े हैं जमींदार के गुण्डे
उनके कंधे हाथ धरे नेता बनिया मुछमुंडे
गाँव-गाँव दौड़ाते घोड़े उड़ा रहें हैं धूर
नक्सल कह-कह काटे जाते संग्रामी मजदूर
दिन दुपहर चलती है गोली रात कहीं पर धावा
धधक रहा है प्रान्त समूचा ज्यों कुम्हार का आवा
हत्या-हत्या केवल हत्या-हत्या का ही राज
अघा गए जो मांस चबाते फेंक रहें हैं गाज

प्रजातन्त्र का महामहोत्सव छप्पन विध पकवान
जिनके मुँह में कौर मांस का उनको मगही पान ।

--- अरुण कमल

Wednesday, February 4, 2015

ब्लॉग ऑफ़ द मंथ



Friday, January 30, 2015

अनिल करमेले की कवितायें


अनिल करमेले  न केवल कवितायें लिखते हैं बल्कि अच्छी कविताओं के पारखी भी हैं!  वे अपने समूह 'दस्तक' और फेसबुक पर अक्सर ढूंढ-ढूंढकर अच्छी कवितायें साझा करते रहते हैं!  कुछ समय साहित्य से दूर रहने के बाद उनकी वापसी उनकी अनुकरणीय सक्रियता और अच्छी कविताओं के साथ हुई!  अनिल करमेले की कवितायें एक जागरूक कवि की चिंताओं का ताना-बाना है जो विसंगतियों से उपजी अपनी बेचैनी को व्यक्त करते समय कवि मन की सारी कोमलता को खोल में साबुत बचे बीज की भांति बचाये रखने में सफल रहता है!  यही वजह है कि ये कवितायें जहाँ एक ओर अपने समय की जटिलता को आइना दिखाती हैं वहीं चेताती भी हैं कि यह धरती के आराम करने का समय है……




(1)
 बाकी बचे कुछ लोग 


सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका

कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा

वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख

वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें

वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है

वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है

वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है

वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं

अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है

बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं.


(2)
मुझे तो आना ही था 

(अजन्मी बेटियों के लिए)


मैंने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और मेरे रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था

भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
मैं नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में थी
मगर माँ की पीली पड़ गई आँखों में
अँधेरा भर गया था

मैंने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
मैं जानती थी पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
मगर मुझे तो आना ही था

मैं सुन रही हूं माँ की कातर कराह
और देख रही हूं कोने में खड़े उस आदमी को
जो मेरा पिता कहलाता है

उसे देखकर लगता है
जैसे वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है

मैं जानती हूँ इस आदमी को
इसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ ओंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
बस अपने तुच्छ लाभ के फेर में
चालाकी चापलूसी और मक्कारियों में उलझा रहा

यह उसके लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे पौरुष का सवाल है
जो सदियों से इनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा

उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी.




(3)

यह धरती के आराम करने का समय है

(एक)

कहीं कोई आवाज़ नहीं है
जैसे मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूँ
जैसे नवजात शिशु के रूदन स्वर से
दुनिया के तमाम संगीत
आश्चर्य के साथ थम गए हैं

मेरी देह का संतुलन बिगड़ गया है
और वह लगातार कांपती हुई
पहली बारिश में अठखेलियाँ करती
चिड़ियों की तरह लग रही है

मैं चाहता हूँ इस वक़्त
दुनिया के सारे काम रोक दिए जाएँ
यह धरती के आराम करने का समय है

न जाने कितनी जन्मों की
प्रतीक्षा के बाद
अनंत कालों को लाँघता हुआ
मुझ तक पहुँचा है यह
मैं इसके शब्दों को
छू कर महसूस करना चाहता हूँ

(दो)

तीनों लोकों में फैल गया है घोर आश्चर्य
सारे देवता हैरान परेशान
दांतो में उंगली दबाए भाव से व्याकुल
मजबूती से थामे अपनी अपनी प्रिया का हाथ
निहार रहे हैं पृथ्वी की ओर

कि जब संग संग मारे जा रहे हैं प्रेमी
लगाया जा रहा है सम्मान पर पैबंद
प्रेम करती हुई स्त्री की खाल से
पुरूष कर रहे हैं पलायन
उनकी कोख में छोड़कर बीज
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फैला है प्रेम के चहुंओर
कैसे संभव हुआ एक स्त्री के लिए
इस पृथ्वी पर प्रेम

(तीन)

एक अफवाह है जो फैलने को है
एक हादसा है जिसे घट ही जाना है
एक राह है जिस पर
अंगारे बिछाने की तैयारी है
एक घृणित कार्रवाई
बनने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो देने को व्याकुल है सारा संसार

एक चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम

वे मेरे प्रेमपत्र पढ़ने से पहले
उस स्त्री की मृत्यु चाहते हैं।


(4)

वह समय


यह वो समय था
जब निकलता था सूरज पूरब से और उसकी आँख में
डूब जाता था

हवाएँ बताती नहीं थीं
मगर आती रही होंगी उसी को छू कर
और इधर
उतर आता था वसंत

घड़ियाँ हार जाती थीं
समय बता-बता कर

जिनसे पहुँचा जा सकता था
अपने-अपने घर
रास्‍ते वे रूठ जाते थे
अंधेरे में

ठीक उसी समय
स्‍ट्रीट लाइट जलाने वाला
ले रहा होता था
अपनी प्रेयसी का आखिरी चुंबन

यह वो समय था
जब नींद
उसकी गली में चहलकदमी करती थी
और वह
किताबों दरो-दीवारों
रोटियों में

उस समय पिता हिटलर लगते थे
माँ पृथ्‍वी पर उपस्थित माँओं की तरह
बहन थी सबसे विश्‍वस्‍त मित्र

उस समय कुछ ही मित्र
मुगले आज़म के सलीम थे
बाकी हो गए थे श्रवण कुमार

यह वो समय था
जब लगती थी दुनिया
बेहद खूबसूरत
और हर आदमी को चाहने को
जी चाहता था.


(6)

मैं इस ‍तरह ‍रहूँ


मैं इस तरह  रहूँ
जैसे बची रहती है
आख़िरी उम्मीद 

मैं स्वाद की तरह रहूँ
लोगों की यादों में
रहूँ ज़रूरत बनकर
नमक की तरह 

अग्नि की तरह जला सकूँ
क्रोध
उठा सकूँ भार पृथ्वी की तरह
पानी की तरह
मिल जाऊँ घुल जाऊँ
दुखों के बाद हो सकूँ
सावन का आकाश 

लगा सकूँ ठहाका
सब की खुशी
और अपनी उदासी में भी 
रो सकूँ दूसरों के दुखों में
ज़ार-ज़ार 

मैं इस तरह रहूँ
कि मेरे रहने का अर्थ रहे 

मैं गर्भ की तरह रहूँ
और रहे पूरी दुनिया
मेरे आसपास माँ की तरह.





(7)

कस्‍बे की माधुरी 

सितंबर की तेज़ धूप में
सुबह के साढ़े ग्‍यारह बज रहे थे
वह दाखिल हुई सहमती हुई
पूरा चेहरा ढँका था स्‍कार्फ से
बस झाँक रही थीं दो गोल गोल आँखें

यह जिला मुख्‍यालय का एक होटल था
रेस्‍टॉरेंट और रहने की व्‍यवस्‍था वाला
झुकी-झुकी आँखों से
इधर उधर हिरनी की तरह देखती वह
पहली मंजिल पर थी रेस्‍टॉरेंट में
अपने प्रेमी के साथ

टेबल पर आमने-सामने बैठने का चलन
इन दिनों गायब था शहरों में
यह उसे पता नहीं था शायद
फिर भी वह बैठी थी
बीस बरस के लड़के के साथ सटकर

किसी बंद मगर औरों की उपस्थिति वाली जगह में
यह उसकी पहली आमद थी

लड़के की आँखों में वैसी ही चमक थी
जैसे शिकार को देखकर सॉंप की आँखों में होती है
और लड़की की आँखें चौंधिया गई थीं

सितंबर की तेज़ धूप में बारह बज रहे थे
जब वे दाखिए हुए होटल के कमरे में

रेस्‍टॉरेंट के आधे घंटे में
कितनी ही फिल्‍मों के चित्र
कोलाज़ की शक्‍ल में चलते रहे लड़की के दिमाग़ में
दिल की बढ़ी हुई धड़कनों के बीच
भरोसा उम्‍मीद और हौसले की
कितनी ही लहरें उठती-गिरती रहीं दोनों के दिमाग़ में
मगर लड़के के दृश्‍य में बार-बार
स्थिर हो जाती माधुरी की खुली पीठ
जहाँ एक रंगीन डोरी की डेढ़ गठान खुलने को थी आतुर

आखिर समय के हौसले के पंजे में दबी
वह कमरे में थी भरभरा कर गिरती हुई दीवार की तरह
अपने उम्र जितनी होटल की सत्रह सीढ़ियाँ
चढ़ पायी थी वह कितनी मुश्किल या आसानी से
कहना मुश्किल है

ग्‍लोबल बाज़ार की चिकनी सतह पर
चमड़ी के दलालों की भीड़ में
उसके कदम लड़खड़ाए होंगे
चेहरे से लगता तो नहीं।

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परिचय
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अनिल करमेले
मूलत: कवि.

जन्म :
2 मार्च 1965 को छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश में.

प्रकाशन : 
सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं- पहल, हंस, ज्ञानोदय, वागार्थ, वसुधा, कथादेश, जनसत्ता, शुक्रवार, पब्लिक एजेंडा, दैनिक हिन्दुस्तान, नई दुनिया, लोकमत समाचार, भास्कर आदि में कविताएँ, लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित.

"ईश्वर के नाम पर" कविता की पहली किताब प्रकाशित.

पुरस्कार :
कविता संग्रह "ईश्वर के नाम पर" के लिए मध्यप्रदेश का दुष्यंत कुमार पुरस्कार.

संप्रति :
भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अंतर्गत महलेखाकार लेखापरीक्षा कार्यालय ग्वालियर में सेवारत.

संपर्क :
58, हनुमान नगर, जाट खेड़ी, होशंगाबाद रोड,
भोपाल - 462026

मोबाइल : 09425675622

बाज-कथा : फेसबुक से

खास चालीस पार वालों या वालियों के लिए....मदनमोहन कांडवाल जी की वाल से....


 बाज लगभग ७० वर्ष जीता है,
परन्तु अपने
जीवन के ४०वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है।
उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं-
पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है व
शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं।
चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है।
पंख भारी हो जाते हैं,
और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते
हैं।
भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं।
उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे,
या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह
त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे...
या फिर स्वयं को पुनर्स्थापित करे,
आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।
जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं,
वहीं तीसरा अत्यन्त
पीड़ादायी और लम्बा।
बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है।
वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,
एकान्त में अपना घोंसला बनाता है, और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया।
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है..
अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के
लिये। तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने
की।
नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।
१५० दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा...
और तब उसे
मिलती है वही भव्य और
ऊँची उड़ान, पहले
जैसी नयी।
इस पुनर्स्थापना के बाद वह ३० साल और जीता है,
ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।
प्रकृति हमें सिखाने बैठी है-
पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की, और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं।
इच्छा परिस्थितियों पर
नियन्त्रण बनाये रखने की,
सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की,
कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने
की।
इच्छा, सक्रियता और कल्पना,
तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं,
हममें भी, चालीस तक आते आते।
हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने
लगता है, अर्धजीवन में
ही जीवन समाप्तप्राय सा लगने लगता है,
उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं।
हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं-
कुछ सरल और त्वरित,
कुछ पीड़ादायी।
हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे
अति लचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा-बाज के पंजों की तरह।
हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र
मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित
सक्रियता दिखानी होगी-बाज की चोंच की तरह।
हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के
भारीपन को त्याग कर
कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने
भरनी होंगी-बाज के
पंखों की तरह।
१५० दिन न सही, तो एक माह
ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में। जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही,
बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे, इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी।
हर दिन कुछ चिंतन किया जाए और आप ही वो व्यक्ति हे जो खुद को दूसरो से बेहतर जानते हैं।