मृदुभाषी सरोज सिंह से परिचय फेसबुक पर ही हुआ था. खुशमिज़ाज और ऊर्जावान व्यक्तित्व की स्वामिनी सरोज अपने साथ सकारात्मक ऊर्जा का अथाह प्रवाह लिए एक दिन पुस्तक मेले में मिलीं। इसके बाद उनकी कविताओं से गुज़रना हुआ. सरोज हिंदी और भोजपुरी में लिखती हैं. उन्होंने बांग्ला भाषा से हिंदी में अनुवाद भी किया है. जहाँ तक मैं जान पाई हूँ सरोज हिंदी, अंग्रेज़ी, भोजपुरी, बांग्ला और उर्दू पर समान पकड़ रखती हैं. नवसम की गोष्ठियों में हम अक्सर सरोज की अलग-अलग मिज़ाज़ की कवितायेँ सुनते रहते हैं. दरअसल किसी एक भाषा या मुहावरे में बंधना सरोज को पसंद नही. भाषा, शिल्प और कथ्य को लेकर नए-नए प्रयोगों के माध्यम से वे इस बदलाव को अक्सर सामने लाती हैं. जल्दी ही उनका काव्य-संग्रह "तुम तो आकाश हो" हिन्द युग्म से प्रकाशित होने जा रहा है. सरोज को हार्दिक बधाई। आइये पढ़ते हैं उनकी कुछ कवितायें……
(1)
ज़ारबंद
थाने मे ...
बेंच के कोने पर
ज़ख्म से बेज़ार
गठरी बनी घायल
लड़की
सिकुड़ी,सहमी सिसकती है
घूरती नज़रें
उसके ज़ख्मों को
और भी गहरा कर
देती हैं
उसकी माँ बौख़लाई
सी
उनके, कब, कहाँ, कितने, कैसे
जैसे सवालों का
जवाब देती हुई, दर्ज़ करा देती है
उन दरिंदों के
ख़िलाफ़
ऍफ़ आई आर !
अस्पताल के ....
जनाना जनरल
वार्ड में
मुश्किल से बेड
मयस्सर हुआ है
वार्ड बॉय, नर्स और मरीज़ों में
फुसफुसाहट जारी
है
एक के बाद एक
डाक्टर
जिस्म के ज़ख्मों
का
अपने-अपने तरीके
से जांच करता
हैं
मन का जख्म
जो बेहद गहरा है
वो किसी को नहीं
दिखता
और इस तरह
तैयार हो जाती
है
बलात्कार की
मेडिकल रिपोर्ट
!
अदालत में ...
अभियोगी वकील
बे-मुरउव्वत हो
उससे सवाल पर
सवाल दागता है
कब, कहाँ, कितने, कैसे
वो घबराहट और
शर्म से
बेज़ुबान हो जाती
है
जवाब आंसुओं में
मिलता है
उसका वकील
उसके आँसू
पोंछते हुए कहता है
जनाब-ए-आली ये
सवाल ग़ैर-ज़रूरी है
अदालत वकील पर
एतराज़ कर
उसके आँसू खारिज़
कर देता है
आँसू
रिकॉर्ड-रूम में चले जाते हैं
हर पेशी तक उसकी
माँ
उम्मीद का एक
शॉल बुन लेती है
और अदालत
बर्ख़ास्त होने तलक़
वो तार-तार उधड़
जाता है
अब वो .......
खाक़ी, सफ़ेद, और काले रंग से
बेहद ख़ाहिफ़ है
विभिन्न कोणों
के पैमाने पर
उन रंगों ने उसे, लड़की से
ज्यामिति बना
दिया
जिसे केवल ...
जांचा, नापा, परखा जा सकता है
उसे अब लड़की
बनने नहीं देता
उस भयावह घटना
को
वो वक़्त की
खिड़की से
परे ढकेल देना
चाहती है
पर समाज और
हालात
उसे भूलने नहीं
देते !
अब वो स्कूल
नहीं जाती
मां के सिवा
किसी को भी
याद नहीं उसका
नाम
पीड़िता,रेप वाली लड़की, विक्टिम
कई नाम दे दिए
गए है उसे
माँ अब लोगों के
घरों में
काम करने नहीं
जाती
अब वो घर में ही
सिलती है, औरतों के पेटीकोट
और बगल में बैठी
वो
डालती जाती है
उन पेटीकोटों
में ज़ारबंद
और दांत भींच कर
कस कर लगा देती
है उनमे गांठ
जैसे कोई जल्दी
खोल ही न पाए !
वक़त उनके लिए थम
सा गया है
बस दीवार पर
टंगी केलेंडर की
तारीख़ बदलती है
बावजूद इसके
माँ अब भी
अगली पेशी के
लिए
बुन रही है
उम्मीद की इक
शॉल !!
(2)
चौखट
बकईयाँ चलने से लेकर किशोर वय तलक ...... दरवाज़े के उसपार जाने से पहले ही पीछे से इक आवाज़ उभर आती "हां.. हां ...चौउखट संभार के " जो चोट तब घुटने में लगती किशोर वय में वोही चोट दिल पर उभर आती
उफ़ !! वो चौखट
...
और उसे पार करने की सौ हिदायतें
फिर इसी चौखट को पराया करार कर देना
और किसी अजनबी चौखट पर हिदायतों का खोइंछा बाँध विदा करना और यह कहना कि "इस चौखट पर डोली उतरीं है अब अर्थी भी यही से उठेगी" चौखट के दायरे को पहाड़ बना देती
अब, माँ जब मेरी किशोर होती
बेटी की अल्हड़ता देखती है तब चिंता पूर्ण स्वर में कहती है " बेटी, अब ये बच्ची नहीं रही इसे अब कुछ सऊर सिखाओ नहीं तो कभी भी ठोकर खा जाएगी "
और मैं मुस्कुराते हुए
माँ का हाथ हौले से दबा कर कहती हूँ .. "माँ ! अबके घरों में चौखटें नहीं होती इसलिए अब वो मजे से लांघ जातीं हैं एवरेस्ट भी " और फिर माँ की गहरी चिंता, हलकी मुस्कान में बदल जाती है !! बकईयाँ=crawling खोइंछा =दुल्हन या सुहागिन को विदाई के समय शुभ-मंगल दायनी स्वरूप उनके आँचल में हल्दी,दूब.और चावल दिया जाता है !
उनके माथे का अरक़
अनाज बोया गया
दल्ले उगे
खेत सींचा गया
ख़ुदकुशी उगी
चूल्हे पे रोटी
नहीं
अक्सर,उठता रहा धुंआ
मुफलिसी की
बारिश में
सील जाता था ईधन
बच्चों के
चेहरों पर
भूख करती थी
नर्तन
उनके माथे का
अरक़
ढलता रहा
टकसालों में
सिक्के तवायफ़ से
नाचते रहे
अमीरों के पंडालों में
वक़्त अब बदल रहा
है
उनकी जमीं पर
अब अनाज नहीं
इमारते उगती हैं
उनके हाथों में
बीज और खाद नहीं
रेता बजरी के
तसले होते हैं
नहीं बदला कुछ
तो वो ये, के
अब भी उनके माथे
का अरक़
ढलता है टकसालों
में !
(4)
अल्कॉहलिक़
बोतलों में क़ैद वो हसीं, दिलक़श, माशुक़ा जब क़तरा-क़तरा दीवाने की हलक़ से ज़ेहन में उतरती है तो इक धड़कते जिस्म की खुशबु औ नर्म लम्स पाकर बन जाती वैम्पायर नशे की नुकीले दांतों से तिल-तिल काटती है उसकी सोच, उसका विश्वास फिर उसकी देह, फिर मांस कर देती है उसे अपनों से जुदा गिरवी रख देती है उसकी हर सांस तहज़ीब पर लगा देती है पहरे उसकी तिलस्मी खूबसूरती का वो इस क़दर दीवाना हो जाता है, के अपनी दुनिया, अपने लोग उसे ज़हालत लगने लगते है वो रोज़ अपनी हदें बनता है वो रोज़ उसकी हदें तोड़ देती है और जब किसी रोज़ वो हक़ीकत के आईने में उसके असली चेहरे से वाकिफ़ होता है तब वो चाहकर भी खुद को उसके चंगुल से निकल नहीं पाता तिल-तिल उसके गलने से
गलने लगते हैं
उसके अपने भी .................!!
(5)
प्रतिध्वनित स्वर
प्रतीक्षा की
शिला पर
खड़ी हो
बारम्बार
पुकारती रही
तुम्हे
वेदना की
घाटियों से
विरह स्वर का
लौटना
नियति है किन्तु,
तुम ,उन स्वरों को
शब्दों में पिरो
कर
काव्य से .....
महाकाव्य रचते
रहे
मैं मूक होती
गयी
और तुम्हारी
कवितायें वाचाल
मैं अब भी अबोध
सी
खड़ी हूँ उसी
शिला पर
कि कभी तो
प्रतिध्वनित
स्वर
मेरे मौन को
मुखरित करने
पुन: आवेंगे
!!!.
(6)
वो कौन है
वो कौन है जो
घने अँधेरे में
गुमसुम सा
ख़ामोश सदा देता
है
सिलसिला लम्हों
का
सदियों सा बना
देता है
वो कौन है जो
मेरी सहमी हुई साँसों की रास
थामे हुए चल रहा
है
उससे मिलने को
मगर
मन मचल रहा है
वो कौन है जो
अपने ना होने पर
भी
अपना वजूद थमा
देता है
हर इक अक्स पर
नक़्श अपना जमा
देता है
जाने किस सम्त
से
हवा बह कर आई है
मेरे कानो में
फुसफुसाई है
वो तो तेरी जाँ
भी नहीं
उसके मिलने का
इम्काँ भी नहीं
सुनकर, मेरे
पलकों की सलीबो
पर
झूलने लगते हैं
ख़्वाब
चांदनी नींद को
लोरी गा के सुला
देती है
रातें बिस्तर पर
कांटे उगा देती है
और नींद .....
नींद से उठकर
मुझे सुलानेआती
नहीं आती ही नहीं !
इम्काँ = संभावना
(7)
बूँदें
स्नेह की परिधि में
तुम, मुझसे विमुख किन्तु तुम्हारा मौन मेरे सन्मुख रच देता है स्नेह की परिभाषा इस नेह को निहारता सूरज समेट लेता है अपनी तीक्ष्ण किरणें और तुम ....... बादलों के कान में धीरे से कुछ कह कर बन जाते हो आकाश के तभी बूंदे बरसने लगतीं हैं और मैं मिटटी सी गल कर बन जाती हूँ धरती
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परिचय
सरोज सिंह -जन्म
:बलिया (उ .प्र .) 28-01-70 निवास : गाज़ियाबाद
नैनीताल से
भूगोल विषय से स्नातकोत्तर एवं बीएड !! गाज़ियाबाद (सीआईएसऍफ़)"के परिवार
कल्याणकेंद्र की सयुंक्त सचिव के तौर पर कार्यरत ! हिंदी व भोजपुरी भाषा में
लेखन व बँगला कविताओं का अनुवाद
!"स्त्री होकर सवाल करती है" (बोधिप्रकाशन) ,"सुनो समय जो कहता है " काव्य संग्रह और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित हैं ! निजी काव्य संग्रह "तुम तो आकाश हो
"हिंदी युग्म से प्रकाशनाधीन !
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अंजू ,आपकी इस सुन्दर प्रतिक्रया एवं साझेदारी के लिए मेरे पास शब्द नहीं है..... आप जैसे दोस्तों से ही हौसला मिलता रहा है ..... ! ..खूब सारा स्नेह एवं आभार!
ReplyDeleteसरोज के व्यक्तित्व की तरह ही है उसकी कवितायेँ... सुलझी , उर्जावान और गहराईयों को खुद में समेटे हुई ...अंजू इस पोस्ट को साँझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया रश्मि ।
Deleteसरोज की कविताएँ पढ़ते हुए हम भूल जाते हैं कि लिखा हुआ पढ़ रहे हैं बल्कि अनुभव की तरह हमारी आँखों के रूबरू दृश्य उपस्थित कर एक प्रश्न चिह्न बना जाता है .स्वयं को सजग करती सरोज की कविताएँ समाज पर अमिट छाप छोड़ने में सफल होगी . इस विश्वास के प्रति मैं आश्वस्त हूँ .
ReplyDeleteअच्छी कविताएँ !! पहली कविता पढ़कर मंटो की एक कहानी याद आ गई ...बहुत ही मार्मिक कविता . हार्दिक बधाई सरोज जी को . आभार स्वयंसिद्धा !!
ReplyDelete- कमल जीत चौधरी .
खूबसूरत यथार्थ का चित्रण, सरोज जी बहुत बहुत धन्यवाद ऐसी कविताओं के लिए...
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