Tuesday, March 17, 2015

मिसफ़िट - सुशांत सुप्रिय की कहानी



इस दुनिया के कुछ अलग दस्तूर हैं, कुछ अलग कायदे!  जो इन कायदों की राह पर चल पड़ा वही सफल कहलाता है, वरना 'मिसफिट' है!  एक ऐसे ही व्यक्ति के जीवन के इर्द-गिर्द बुनी गई है सुशांत सुप्रिय की नई कहानी 'मिसफिट', पढ़कर देखिये कहीं वो आप तो नहीं.......  


उसका सिर तेज़ दर्द से फटा जा रहा था।  उसने पटरी से कान लगा कर रेलगाड़ी की आवाज़ सुननी चाही। कहीं कुछ नहीं था । उसने जब-जब जो-जो चाहा, उसे नहीं मिला । फिर आज उसकी इच्छा कैसे पूरी हो सकती थी । पटरी  पर लेटे-लेटे उसने कलाई-घड़ी देखी । आधा घंटा ऊपर हो चुका था पर इंटरसिटी एक्सप्रेस का कोई अता-पता नहीं था । इंटरसिटी एक्सप्रेस न सही , कोई पैसेंजर गाड़ी ही सही । कोई मालगाड़ी ही सही । मरने वाले को इससे क्या लेना-देना कि वह किस गाड़ी के नीचे कट कर मरेगा ।

उसके सिर के भीतर कोई हथौड़े चला रहा था । ट्रेन उसे क्या मारेगी, यह सिर-दर्द ही उसकी जान ले लेगा -- उसने सोचा । शोर भरी गली में एक लंबे सिर-दर्द का नाम ज़िंदगी है । इस ख़्याल से ही उसके मुँह में एक कसैला स्वाद भर गया । मरने के समय मैं भी स्साला फ़िलाॅस्फ़र हो गया हूँ -- सोचकर वह पटरी पर लेटे-लेटे ही मुस्कराया ।

उसका हाथ उसके पतलून की बाईं जेब में गया । एक अंतिम सिगरेट सुलगा लूँ । हाथ विल्स का पैकेट लिए बाहर आया पर पैकेट ख़ाली था । दफ़्तर से चलने से पहले ही उसने पैकेट की अंतिम सिगरेट पी ली थी -- उसे याद आया । उसके होठों पर गाली आते-आते रह गई ।



             

 आज सुबह से ही दिन जैसे उसका बैरी हो गया था ।सुबह पहले पत्नी से खट-पट हुई । फिर किसी बात पर उसने बेटे को पीट दिया । दफ़्तर के लिए निकला तो बस छूट गई । किसी तरह दफ़्तर पहुँचा तो देर से आने पर बाॅस ने मेमो दे दिया । पे-स्लिप आई तो उसने पाया कि आधा से ज़्यादा वेतन इन्कम-टैक्स में कट गया था ।
फिर शुक्ला ने सबके सामने उसे ज़लील किया । गाली-गलौज हुई । नौबत हाथा-पाई तक पहुँची । और शुक्ला ने उसे कुर्सी दे मारी ।
                 पटरी पर लेटे-लेटे उसका बायाँ हाथ उसके दाहिने घुटने को सहलाने लगा जहाँ शुक्ला की मारी कुर्सी उसे लगी थी । दर्द फिर हरा हो गया ।
                 असल में यह नौकरी उसके लायक थी ही नहीं -- उसने सोचा । आॅफ़िस में ऊपर से नीचे तक गधे भरे हुए थे । हर सुबह बैग और टिफ़िन लिए दफ़्तर आ जाते थे । दोपहर का खाना खा कर ताश खेलते थे । काम के समय आॅफ़िस में सीट पर ऊँघते थे या सीट से ग़ायब रहते थे । दिन में कई बार कैंटीन में चाय-काॅफ़ी पीते थे । और बाक़ी बचे समय में एक-दूसरे की जड़ काटते थे । इसको उससे लड़ाना । उसको इसकी नज़रों में गिराना । इसका-उसका पत्ता काटना । बाॅस की चमचागिरी में प्रागैतिहासिक काल में पूर्वजों के पास पाई जाने वाली अपनी लुप्त पूँछ हिलाना । और महिला सहकर्मियों को देख कर लार टपकाना ।
               उसका दम यहाँ घुटता था । वह इन चीज़ों के लिए नहीं बना था । यहाँ 'टेलेंट ' की कोई क़दर नहीं थी । आपके गुण यहाँ अवगुण थे , अवगुण ही गुण थे -- उसने सोचा ।
               बचपन में माँ ने सिखाया था -- बेटा, झूठ बोलना बुरी बात होती है । पर सारी दुनिया धड़ल्ले से झूठ बोलती थी और ऐश करती थी । पिताजी कहते थे -- रिश्वत लेने और देने वाले, दोनों ही अपनी नज़रों में गिर जाते हैं ।पर यहाँ दोनों मज़े में थे । स्कूल में टीचर कहते थे -- शराब आदमी का पतन करती है । पर यहाँ दारू पीने और पिलाने वाले, दोनों का ही उत्थान होता था । पिताजी कहते थे -- दफ़्तर में चुगली-निंदा से दूर रहना , बेटा । पर यहाँ चुगली-निंदा समूचे दफ़्तर का टाॅनिक थी । दादाजी कहते थे -- मेहनती और ईमानदार आदमी का भगवान होता है । पर यहाँ भगवान मेहनती और ईमानदार को शैतान की कृपा पर छोड़कर न जाने कहाँ गुम हो गया था । आप लोगों ने मुझे यह क्या सिखाया -- उसने पटरी पर लेटे-लेटे सोचा । वह यहाँ ' मिसफ़िट ' था । दफ़्तर में ही नहीं, घर में भी ।
             वह चाहता था कि पत्नी उसका सुख-दुख बाँटे । पर पत्नी को पैसा चाहिए था और पैसे से ख़रीदे जाने वाले सभी ऐशो-आराम ।
             दत्ताजी भी तो आपके साथ काम करते हैं -- वह कहती । उनके पास टाटा-सफ़ारी है । दत्ताजी ही क्यों, शुक्लाजी , सिंह साहब , खान साहब -- सबके यहाँ गाड़ियाँ हैं । और आप ' हमारा बजाज ' से ऊपर ही नहीं उठ पाते । ऐसी ईमानदारी का मैं क्या अचार डालूँ -- वह कहती । आज की दुनिया में रिश्वत नाम की कोई चीज़ नहीं होती । गिफ़्ट्स होते हैं । लोगों का काम करो और उनसे गिफ़्ट्स लो -- उसका कहना था ।
            क्या पापा , मेरे सब दोस्त नई-नई गाड़ियों में स्कूल आते हैं । उन सबके पास उनका अपना मोबाइल फ़ोन होता है । उन्हें डेली कम-से-कम सौ रुपए जेब-ख़र्च मिलता है । इन सबके बिना स्कूल में आपके बेटे की इमेज ख़राब होती है -- बेटा शिकायत करता । उधर पत्नी ताना मारती -- इनसे कुछ नहीं होगा । ये तो राजा हरिश्चन्द्र हैं ।
           पूरी दुनिया में एक भी आदमी नहीं था जो उसे समझता । बचपन में पिताजी उसे बहुत प्यार करते थे । माँ उसे बहुत चाहती थी । वह दादाजी का लाड़ला था । स्कूल में उसके टीचर कक्षा में फ़र्स्ट आने पर हमेशा उसकी पीठ ठोकते थे । पर शायद वे सब उसे इस दुनिया के लायक नहीं बना सके -- उसने सोचा । उसने किस-किस के लिए क्या-क्या नहीं किया । पर अपना मतलब निकाल कर सब उसे ठेंगा दिखा गए ।
           शायद इसी को ' प्रैक्टिकल ' होना कहते हैं । वह आज भी ' प्रैक्टिकल ' नहीं हो पाया । के. के. कह रहा था -- ''तुम्हारी समस्या यह है कि तुम दिमाग़ से नहीं, दिल से जीते हो । इसलिए तुम यहाँ ' मिसफ़िट ' हो ।'' क्या इस दुनिया में दिल से जीना गुनाह है -- उसने सोचा । दिमाग़ से जीने वालों ने इस दुनिया को क्या बना दिया है ।लोग सुबह पीठ पीछे किसी को गाली देते थे । दोपहर में उसी के साथ ' हें-हें ' करते हुए खाना खाते थे ।लोग अपना काम निकालने के लिए गधे को बाप कहते थे । और बाप को गधा । वह ऐसा नहीं कर पाता था । इसलिए ' सीधा ' था । ' मिसफ़िट ' था । मंदिर में पुजारी भगवान के नाम पर लूटते थे । सड़कों पर भिखारी इंसानियत के नाम पर लूटते थे । आज़ाद भारत में चारों ओर अँधेरगर्दी मची थी । ईमानदार सस्पेंड होते जा रहे थे । कामचोर प्रोमोशन पा रहे थे । धर्म और जाति के नाम पर नेता देश को लूट कर खा रहे थे । हर ओर चोर और बेईमान भरे हुए थे । फ़र्क सिर्फ इतना था कि कोई सौ रुपए की चोरी कर रहा था , कोई हज़ार की , कोई लाख की और कोई करोड़ की । इन सबके बीच वह एक लुप्तप्राय अजनबी था ।
             दूर कहीं से रेलगाड़ी के इंजन की मद्धिम आवाज़ सुनाई दी । उसने पटरी से कान लगाया । पटरियों में रेलगाड़ी के पहियों का संगीत बजने लगा था ।
             तो इसे ऐसे ख़त्म होना था । जीवन को पटरियों पर । रेलगाड़ी के पहियों से कट कर । अच्छा है, इस जीवन से मुक्ति मिलेगी । हैरानी की बात यह थी कि उसका सिर-दर्द अचानक ठीक हो गया । वह रहे या न रहे , किसी को क्या फ़र्क पड़ेगा । उसकी मौत कल अख़बार के भीतरी पन्ने में एक छोटी-सी हेडलाइन होगी । या शायद वह भी नहीं -- उसने सोचा ।
            वह पैर फैला कर पटरी पर पीठ के बल लेट गया । ऊपर हाइ-टेंशन वायरों से घिरा मटमैला आकाश था । उनसे ऊपर , नीचे उड़ रही एक चील को चार-पाँच कौए सता रहे थे । इंजन की आवाज़ अब क़रीब आती जा रही थी । उसने आँखें बंद कर लीं । इंजन की आवाज़ अब बहुत पास आ गई थी । पास । और पास । पटरी और पहियों के बीच का संगीत अब कर्कश और बेसुरा लगने लगा था । उसने एक लंबी साँस ली । पल भर और । इंजन उसके ऊपर से गुज़रने वाला था । हैरानी की बात यह थी कि उसे डर नहीं लग रहा था ।
          एक पल के लिए जैसे उसका वजूद इंजन के शोर में डूब गया । सैकड़ों टन लोहा जैसे उसके ऊपर से गुज़र गया । उसकी आँखें खुल गईं । क्या मैं जीवित हूँ --
उसके दिमाग़ में कौंधा।
          उसने सिर मोड़ कर देखा -- साथ वाली पटरी पर एक अकेला इंजन उससे दूर जा रहा था। दूर...और दूर।
          एक पल के लिए उसे विश्वास नहीं हुआ । मौत उसे क़रीब से सूँघ कर जा चुकी थी । अभी उसे जीना था । कहीं कोई था जो चाहता था कि वह अभी रहे ।
          लड़खड़ाता हुआ वह पटरी से उठ खड़ा हुआ । उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रहा हो । इंजन अब क्षितिज पर एक घटता हुआ धब्बा रह गया था । मौत उसे छू कर निकल गई थी । पहली बार उसे कँपकँपी-सी महसूस हुई । उसे लगा जैसे उसके हाथ-पैरों में जान नहीं रही । संयत होने में उसे कुछ समय लग गया । आख़िर कपड़ों से धूल झाड़ कर वह घर की ओर चल दिया ।
         रास्ते में उसे कई लोग मिले । वह उन्हें बताना चाहता था कि आज उसने मौत को कितने क़रीब से देखा था । पर किसी ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया । सब अपनी दुनिया में मस्त थे । चौक पर ट्रैफ़िक-लाइट नहीं थी , और दो ट्रैफ़िक पुलिसवाले यातायात को भाग्य-भरोसे छोड़कर एक ट्रकवाले को डरा-धमका कर उससे कुछ रुपए ऐंठने में व्यस्त थे । घर के पास नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर कुछ शोहदेनुमा लड़के आती-जाती लड़कियों  को छेड़कर मज़े ले रहे थे । उसने बगल के पानवाले से एक पैकेट सिगरेट ख़रीदी और एक सिगरेट सुलगा ली । आराम मिला ।
       बड़ी जल्दी आ गए आज -- घर में घुसते ही टी. वी. पर ' सास-बहू ' सीरियल देख रही पत्नी ने व्यंग्य कसा । वह चाहता था कि पत्नी को बताए कि आज वह मरते-मरते बचा । वह उसे बाँहों में भर कर चूमना चाहता था । वह कम्प्यूटर पर ' गेम ' खेल रहे बेटे के सिर पर हाथ फेर कर उसे पुचकारना चाहता था । वह चिल्ला कर उन्हें बताना चाहता था कि आज वह बाल-बाल बचा । पर पत्नी टी. वी. सीरियल में और बेटा कम्प्यूटर-गेम में व्यस्त थे । उनकी रुचि उसके जीवन में नहीं थी ।
       खाना डाइनिंग-टेबल पर पड़ा है -- टी. वी. सीरियल में आए ब्रेक के समय पत्नी ने सूचना दी ।
       नहा-धो कर उसने खाना खाया और टी.वी. पर कोई क्राइम-सीरियल देख रही पत्नी से ' टहल कर अभी आता हूँ ' कह कर वह घर से बाहर निकल गया । उसने सिगरेट सुलगा कर कुछ गहरे कश लिए और टहलता हुआ वह एक बार फिर रेलवे-लाइन की ओर निकल पड़ा ।
       यह क्या? पटरियों के बीचों-बीच कोई बैठा हुआ था । वहाँ रोशनी कुछ कम थी ।
ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था ।
       तभी दूर से रेलगाड़ी की सीटी सुनाई दी । और इंजन का जाना-पहचाना शोर क़रीब आने लगा । उसके शरीर में एक बार फिर कँपकँपी-सी दौड़ गई । क्या कोई और उसकी तरह आत्महत्या करना चाह रहा है? वह अब क्या करे?
       अचानक वह हाथ में पकड़ी सिगरेट फेंक कर पटरियों के बीचों-बीच बैठी आकृति की ओर चिल्लाते हुए दौड़ने लगा । गाड़ी के इंजन की रोशनी क़रीब आती जा रही थी । फटे-पुराने कपड़े पहने बिखरे बालों वाली एक नारी आकृति पटरियों के बीचों-बीच सिर झुकाए बैठी थी । पटरियाँ लाँघता वह बेतहाशा दौड़ा । रेलगाड़ी और क़रीब आ गई थी। उसे लगा, वह उस युवती को नहीं बचा पाएगा । उसने पूरी जान लगा दी और इंजन के ठीक मुँह में से युवती को दूर खींच लिया । रेलगाड़ी धड़ा-धड़, धड़ा-धड़ करती हुई पटरी पर निकलती जा रही थी ।
       मरना चाहती थी ? गाड़ी गुज़र जाने के बाद उसने युवती को झकझोर कर पूछा।
       युवती के मुँह से एक अस्पष्ट-सी ध्वनि निकली । वह केवल फटी हुई आँखों से उसे देखती रही ।
       कोई भिखारन है । शायद गूँगी-बहरी -- युवती के फटे-पुराने कपड़े देख कर उसने सोचा । अब मैं क्या करूँ ?
       नारी-निकेतन वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं था । पर उसे सुबह के अख़बार के मुख-पृष्ठ पर छपी ख़बर याद आई -- " नारी-निकेतन या देह-व्यापार का अड्डा ? " और उसने युवती को नारी-निकेतन ले जाने का विचार त्याग दिया ।
        इसे पुलिस-स्टेशन ले चलूँ क्या ? उसने सोचा । पर पुलिसवाले आज तक उसमें विश्वास नहीं जगा पाए थे । वे मुझ ही से सौ तरह के सवाल पूछने लगेंगे । कहाँ मिली ? कब मिली ? तुम उस समय वहाँ क्या कर रहे थे ? वग़ैरह -- उसने सोचा । और अगर पुलिसवाले मुझ ही पर शक करने लगे तो ? मुझ ही से रिश्वत माँगने लगे तो ?
       आख़िर वह उस भिखारन को पास के पार्क में बनी एक बेंच पर बिठाकर आगे बढ़ गया । अमावस का आकाश तारों से ढँका हुआ था । बीच-बीच में कोई टूटता हुआ तारा कुछ देर चमकता और फिर ग़ायब हो जाता ।
        सड़क पर आ कर उसने राहत की साँस ली । और तब उसे ख़्याल आया कि आज दूसरी बार वह मरते-मरते बचा था । वह भिखारन उसकी कौन थी ? उसे बचाते हुए अगर वह रेलगाड़ी के नीचे आ जाता तो ?
        " तो क्या ? दुनिया में एक अदद ' मिसफ़िट ' कम हो जाता ।" उसने मुस्करा कर ज़ोर से कहा और कोई भूला हुआ गीत गुनगुनाता हुआ घर की ओर चल पड़ा ।

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परिचय
                             
 नाम : सुशांत सुप्रिय ( कवि , कथाकार व अनुवादक )
जन्म : 28 मार्च , 1968 ( पटना )
शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ : हत्यारे , हे राम ( कथा-संग्रह )
                        एक बूँद यह भी ( काव्य-संग्रह )
सम्मान : भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ पुरस्कृत ।
              कमलेश्वर - कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार ।  
अन्य प्राप्तियाँ : कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, उड़िया,असमिया, मराठी, कन्नड़ व मलयालम
                     आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित ।
                     कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल ।
                     कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल ।
                     कहानियों पर आगरा वि.वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. व गुरु नानक देव
                     वि.वि. , अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह " इन गाँधीज़ कंट्री " प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह " द फ़िफ़्थ डायरेक्शन " प्रकाशनाधीन ।
# सम्पर्क : मो - 8512070086
           ई-मेल: sushant1968@gmail.com
 

3 comments:

  1. अच्छी कहानी शायद हर इंसान की यही है कहानी रोज खुद को इस संसार में मिसफिट पाता है और जीता चला जाता है

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  2. वह आज भी ' प्रैक्टिकल ' नहीं हो पाया । के. के. कह रहा था -- ''तुम्हारी समस्या यह है कि तुम दिमाग़ से नहीं, दिल से जीते हो । इसलिए तुम यहाँ ' मिसफ़िट ' हो ।'' क्या इस दुनिया में दिल से जीना गुनाह है -- उसने सोचा । दिमाग़ से जीने वालों ने इस दुनिया को क्या बना दिया है .......sach ! warna jeena jyaada aasaan hota !

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