Friday, January 23, 2015

पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए - तारा गांधी भट्टाचार्य



आज गोडसे को  राष्ट्रभक्त मान  महिमामंडित करने की ख़बरें हवा में विषैली गैसों की तरह घुल रही हैं!  30 जनवरी अब ज्यादा दूर नहीं है!  इतिहास  के काले पन्नों में दर्ज यह तारीख,  आने वाले दिनों में और प्रासंगिक होने जा रही है!   एक महात्मा के बरक्स एक हत्यारे को स्थापित  करने की  कवायदें अब दबी-ढकी नहीं हैं!  आप गांधीवादी नहीं भी हैं तो भी गांधी और गोडसे में से किसी एक को चुनने के इस दौर में  गांधी जी की पौत्री तारा गांधी भट्टाचार्य का यह लेख पढ़े जाने की मांग करता है जो कुछ दिन पहले ही नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था ……  






गांधीजी की हत्या जिस पिस्तौल से हुई, वह एक इतालवी शहर में खरीदी गई थी
वह मनोरम शहर आज भी शर्मिंदा है
---तारा गांधी भट्टाचार्य

गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। उसे व्यवहार में उतारने के लिए आज पिस्तौल नहीं, झाड़ू उठाने का साहस जुटाना होगा।






पिछले दिनों एक पत्रकार भाई ने फोन करके पूछा कि आज गोडसे को राष्ट्रभक्त मानकर उसके नाम से देश में मंदिर बनाया जा रहा है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? संयोग से उन्हीं दिनों मैं कुछ साल पहले की एक घटना पर लिखने को लेकर उधेड़बुन में थी। इस फोन ने मुझे लिखने को विवश कर दिया। कुछ साल पहले इटली में सत्य और अहिंसा पर एक सभा के लिए मुझे निमंत्रण मिला था। इटली के बीचोंबीच, राजधानी रोम से लगभग 300 किलोमीटर दूर सुंदर, हरियाली से भरे एक छोटे और ऐतिहासिक शहर में वह कार्यक्रम आयोजित था। वहां मेरा जबर्दस्त स्वागत हुआ। पर वातावरण में मुझे कुछ अजीब सा अहसास भी हुआ।

चारों ओर लोग मेरे सामने सिर झुकाए खड़े थे। विचित्र सन्नाटा था। एक सज्जन ने माइक के सामने आकर सब लोगों की ओर से मुझे संबोधित करते हुए धीमी पर शिष्ट आवाज़ में कहा, 'आप अवश्य ही विस्मित हो रहीं होंगी कि आज इस तरह मौन में आपका स्वागत हो रहा है! हम यहां क्षमाप्रार्थी के रूप में आए हैं।' मैं चकित हुई। फिर उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा- ' दशकों पहले की दास्तान है जिसके बारे में हम आपको पत्र में नहीं लिखना चाहते थे। आज हम आपसे माफी मांगते हुए हिंसा का वह चक्र समाप्त करते हैं, जिसके लिए इस छोटे शहर के दो नौजवान जिम्मेदार थे। .... जिस पिस्तौल से गांधी की हत्या हुई, उसकी यात्रा यहीं से आरंभ हुई थी।'

 मैं अवाक रह गई। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे एक कहानी सुनाई गई।

सन् 1944-45 की बात है। दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था। इटली के इस शहर के दो लड़के पढ़ाई छोड़कर मौज-मस्ती में रहना चाहते थे। वे कभी-कभार कुछ बेचकर किसी तरह गुजारा कर लेते थे। एक दिन एक रूसी सिपाही से उन्हें एक पिस्तौल मिली। इन नवयुवकों ने सोचा कि बिना लाइसेंस वाली इस पिस्तौल को बेचकर कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे। पर उसे बेचना आसान नहीं था। उन्होंने उसे बेचने के लिए कई तरह के प्रयास किए, अंग्रेजी तक सीखी, पर सफलता नहीं मिली। काफी दिनों बाद उन्हें अचानक एक हिंदुस्तानी मिला, जिसने इस पिस्तौल में बहुत दिलचस्पी दिखाई।

उनके गांव की नदी के ऊपर एक छोटा पुल था जिसे 'शैतान का पुल' कहते थे। उसी के ऊपर एक छोटे कमरे में पिस्तौल का सौदा हुआ। पैसे पाकर नवयुवक खुश हुए। एक दिन के खाने का इंतजाम हो गया। एक बोतल शराब और कुछ कपड़े-कंबल भी उससे मिल गए। दोनों लड़कों ने नादानी में ही पिस्तौल बेची थी। कुछ सालों बाद सन् 1948 में इंटरपोल की अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी उस पिस्तौल का इतिहास टटोलने लगी, जिससे गांधी की हत्या हुई थी। कई देशों में पूछताछ के बाद इंटरपोल के लोग पिस्तौल की जड़ तक इसी शहर में पहुंचे। ...तो इस शहर से निकलकर कहां-कहां से घूमती हुई हुई यह दिल्ली स्थित गांधी स्मृति (पुराना नाम बिड़ला हाउस) पहुंची, जहां गांधी ने सत्य और अहिंसा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।




 रोंगटे खड़े कर देने वाली यह दास्तान सुनकर मैंने उन सज्जन से पूछा, 'आपको यह सब जानकारी कब मिली?' उन्होंने कहा, 'यह भी एक अजीब कहानी है। एक सनकी, पागल से वृद्ध ने नदी के किनारे एक पत्रकार को अपनी और अपने एक दोस्त की साझा जिंदगी के बारे में बताया। बिना लाइसेंस की पिस्तौल बेचने वाले दोनों दोस्तों ने डर के मारे न पढ़ाई की और न ही कोई नौकरी। दोनों अपराधबोध में जिदंगी काटने लगे। वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते एक की मृत्यु हो गई और दूसरा पागल सा हो गया।' मैं अवाक थी। क्रोध, भय, दुःख, सब कुछ से अलग एक विचित्र सी अनुभूति मुझे हो रही थी। उस शहर के निवासियों की संवेदनशीलता और क्षमाशीलता को शब्दों में कैसे बयान करूं, समझ में नहीं आता।


दिल्ली आकर जब मैं गांधी स्मृति के अपने कार्यालय में गई तब वह कहानी मेरे दिलोदिमाग पर छाई हुई थी। ऑफिस के कोने की एक खिड़की से गांधी की शहादत का स्तंभ दिखाई देता था। उसे कुछ देर देखती रही। पिस्तौल की यात्रा के बारे में सोचती रही। इटली के मेरे मेजबानों की क्षमायाचना का दृश्य मन में था। सोचती रही कि धातु से पिस्तौल बनकर एक लंबी यात्रा के बाद, वह जानलेवा चीज कितने हाथों और स्थानों से गुजरती हुए दिल्ली के बिड़ला हाउस पहुंची थी। उसी से संत की हत्या हुई। लेकिन सत्य और अहिंसा के मूल्य विश्व भर में पुनर्जीवित हो गए।

गांधी की हत्या के लिए उन दो लड़कों को कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। उनका अपराध बस इतना था कि उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ी और बिना लाइसेंस के पिस्तौल खरीदी-बेची। इसके कारण उनका सारा जीवन प्रायश्चित में ही रह गया। जिन नागरिकों का इस सारे वृत्तांत से कोई सरोकार नहीं था, वे 60 वर्ष पहले हुई इस घटना के लिए क्षमाप्रार्थी हुए। गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। आज उसे व्यवहार में उतारने के लिए पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए। जहां तक पिस्तौल का सवाल है वह जिस धातु से बनती है उसी से हमारी चेतना को जगाने वाली घंटी भी बनती है। आवश्यकता है प्रदूषणविहीन पर्यावरण और हिंसाविहीन मानस की।

--- तारा गांधी भट्टाचार्य

(साभार : नवभारत टाइम्स)

2 comments:

  1. आज उसे व्यवहार में उतारने के लिए पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए। बढ़िया जानकारी मिली हार्दिक आभार अंजू

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  2. गांधी की विचारधारा कभी समाप्त नहीं हो सकती। आज उसे व्यवहार में उतारने के लिए पिस्तौल नहीं, झाडू उठाने का साहस चाहिए। जहां तक पिस्तौल का सवाल है वह जिस धातु से बनती है उसी से हमारी चेतना को जगाने वाली घंटी भी बनती है..achchi jankari k liye aabhar ...Anju

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