Friday, July 11, 2014

यादें -आपबीती

बेहद कम उम्र में पढ़ने की लत लग गई थी! पढ़ने को मिला भी भरपूर! स्कूल लाइब्रेरी के अतिरिक्त रोज़ दो और हर रविवार तीन-चार अखबार पढ़ने को मिल जाते थे! दरअसल बचपन के उन दिनों में पड़ोस, पड़ोस नहीं दूसरा घर हुआ करता था! ऐसे ही एक घर में एक परिचिता की परिष्कृत अध्ययन रुचि का पूरा लाभ मिला और कम उम्र में ही तमाम बाल-पत्रिकाओं चंदामामा, पराग, लोटपोट, नन्दन, सुमन सौरभ, चम्पक, टिंकल, अमर चित्रकथाएं, डायमंड कोमिक्स (कईयों के तो नाम भी अब याद नहीं) के अतिरिक्त धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और शायद रूस से आने वाली सोवियत भूमि पत्रिका की नियमित पाठक बनने का सौभाग्य मिला! बाद में इस लिस्ट में इंडिया टुडे भी शामिल हो गई!

समाचार-पत्रों में उस समय रविवार को साहित्यिक परिशिष्ट का खास इंतज़ार रहा करता था! उस दौरान धर्मयुग और अखबार (शायद हिंदुस्तान रविवारीय) में बहुत सी लाजवाब कहानियाँ पढ़ने को मिली जिनके न तो अब नाम याद हैं और न ही लेखक का नाम, बस कई बार कथानक के साथ पात्रों के नाम अब भी स्मृतियों के इधर उधर चहलकदमी करते प्रतीत होते हैं! मन करता है, कोई तो हो कोई ऐसा, जिससे पूछूं कि हिंदुस्तान में स्वयंसिद्धा नाम की वह कहानी पढ़ी थीं जिसमें लड़की अपने परिवार के लिए शादी की उम्र निकलने के बावजूद शादी नहीं करती है और फिर परिवार को लगने लगता है कि अब उसके विवाह के बारे में सोचा ही नहीं जाना चाहिए! या हिंदुस्तान में वो कहानी जिसमें पूरी कहानी में भारतभूषण जी का गीत 'तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा' टुकड़े टुकड़े कर पिरोया हुआ था या धर्मयुग की वह कहानी जिसकी मुख्य पात्र थी पंजाबी महिला -जीतो, जो अपने पति की मृत्यु के बाद अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है और जमीन पर पाँव रखने से भी डरती है कि उसके पाँव के नीचे अब जमीन कहाँ! और कहानी के अंत में एक पुरुष जो शायद उसके पति की मौत का जिम्मेदार होता है उसके पाँव के नीचे अपनी खुरदरी हथेली रख देता जिस पर पाँव रखकर वह अपनी जमीन महसूस सके!

 खैर, ऐसी ढेरों कहानियाँ है जो अतीत की यादों के भंवर में अक्सर घूमती हुई हुई टुकड़ों-टुकड़ों में सामने आकर सोच के दरवाजे पर दस्तक देती हैं और जब तक मैं पूछती हूँ - कौन? वे माज़ी की कैद में फिर से गुम हो जाती हैं!  इन कहानियों का अबोध मन पर प्रभाव कई दिन तक रहता था, पुन:पाठ संभव न होने पर इन्हे यादों में सँजोने का केवल यही एक साधन था कि इन पर मानसिक मंथन की प्रक्रिया जारी रहे और रहती भी थी!  ऐसे कई पात्र स्मृतियों में मील का पत्थर बने स्थायी हो गए! 

उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा गुलेरी






बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़िवालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएँ। 

जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर 'बचो खालसाजी।' 'हटो भाई जी।' 'ठहरना भाई जी।' 'आने दो लाला जी।' 'हटो बाछा।' -- कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं।
क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। 


यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- 'हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए।' समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।
ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
"तेरे घर कहाँ है?"
"मगरे में; और तेरे?"
" माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"
"अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।"
"मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं।"
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकराकार पूछा, "तेरी कुड़माई हो गई?"
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे-तीसरे दिन सब्ज़ीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?' और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली, "हाँ हो गई।"
"कब?"
"कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

"राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हडि्डयाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। ज़मीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।
इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।"

"लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों 'रिलीफ' आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में -- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।"
"चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े -- संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..." 

"नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?" सूबेदार हज़ारसिंह ने मुसकराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ़ बढ़ गए तो क्या होगा?"
"सूबेदार जी, सच है," लहनसिंह बोला, "पर करें क्या? हडि्डयों-हडि्डयों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।"
"उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले।" यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।"





"हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा ज़मीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।"
"लाड़ी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम..."
"चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।"
"देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।"
"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"
"अच्छा है।"
"जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।"
"मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।"

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, "क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे?"
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
क बणाया वे मज़ेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।

दोपहर रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
"क्यों बोधा भाई, क्या है?"
"पानी पिला दो।"
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" पानी पी कर बोधा बोला, "कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।"
"अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"
"और तुम?"
"मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।"
"ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..."
"हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।" यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।

"सच कहते हो?"
"और नहीं झूठ?" यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज़ आई, "सूबेदार हज़ारासिंह।"
"कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
"देखो, इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज़ियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।"
"जो हुक्म।" 

चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज़्ज़त हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, "लो तुम भी पियो।"
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, "लाओ साहब।" हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पटि्टयों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?"
शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
"क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?"
"लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"
"नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -

हाँ- हाँ -- वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे। हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया - ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?"
"हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?"
"पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ" कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
"कौन? वजीरसिंह?"
"हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने दी होती?"

"होश में आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।"
"क्या?"
"लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?"
"तो अब!"
"अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।"
"हुकुम तो यह है कि यहीं-"

"ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ।"
"पर यहाँ तो तुम आठ है।"
"आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।" 

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने...
बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आँख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला, "क्यों लपटन साहब? मिजाज़ कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं।
और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डेम' के पाँच लफ्ज़ भी नहीं बोला करते थे।"

लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
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लहनासिंह कहता गया, "चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महिने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज़ बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो..."

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।
बोधा चिल्लाया, "क्या है?" 

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया' और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पटि्टयाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पटि्टयों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया। 


इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े से मिनिटों में वे...
अचानक आवाज़ आई 'वाह गुरु जी की फतह? वाह गुरु जी का खालसा!!' और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हज़ारसिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया। 

एक किलकारी और... 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!!' और लड़ाई ख़तम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है। 

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 'दन्तवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। 

इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दार-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा, "तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।"
"और तुम?" 

"मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।"
"अच्छा, पर..."
"बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।"
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा, "तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?"
"अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।"
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।"
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्ज़ीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब 'धत्' कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, "हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू'' सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
"वजीरासिंह, पानी पिला दे।" 

पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं ७७ रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हज़ारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला, "लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।" लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाज़े पर जा कर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
मुझे पहचाना?"
"नहीं।"
''तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -''
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
''वजीरा, पानी पिला।''  'उसने कहा था।' 

स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, "मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।'' सूबेदारनी रोने लगी। ''अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।''
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
''वजीरासिंह, पानी पिला'' ... 'उसने कहा था।'
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला, "कौन! कीरतसिंह?"
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, "हाँ।"
"भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।" वजीरा ने वैसे ही किया।
"हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।"
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा... फ्रान्स और बेलजियम... ६८ वीं सूची... मैदान में घावों से मरा... नं ७७ सिख राइफल्स जमादार लहनसिंह।

(साभार अनुभूति से)


Monday, June 16, 2014

कल्पनाओं से परे का समय


यह कह पाना दरअसल उतना ही दुखद है
जितना कि ये विचार,
कि यह समय कुंद विचारों से जूझती
मानसिकताओं का है
हालांकि इसे सीमित समझ का नाम देकर
खारिज करना आसान है,
पर हमारी कल्पनाओं से परे,  बहुत परे है
आज के समय की तमाम जटिलताएँ,

पहाड़ से दुखों तले मृत्यु से जूझते हजारों शरीर
और हृदयहीनता के क्रूर मंज़र से भयभीत,
विचलित आत्माएं
आधुनिक जीवन के पर्व, उल्लास और उत्सव
और पल पल मृत संख्याओं में
बदलने को अभिशप्त जिजीविषाएं,
यदि यह दु:स्वप्न नहीं तो यह  किस युग का सच हैं
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे, 

बहुत परे है ..........

मौत अब  पल भर भी हमें ठिठकाती नहीं
और बुद्धू बक्से पर कड़वी खबरों के
हर वीभत्स दृश्य के साथ गले से निर्बाध
उतरते हैं लज़ीज़ डिनर के निवाले,
जब तब सनसनी के झटको से बोझिल
मृतप्राय संवेदनाएं
सहज ही ओढ़ लेती हैं उदासीनता का दुशाला
और सोच के वृत में
चक्कर लगाता है ये विचार
आखिर हम किस बात से चौंकते हैं,
 
सुन्न पड़ी शिराएँ,
धीमा होता रक्तचाप,
शिथिल चेतनाएं
अगर हमारा आज है तो चेत ही जाइए 
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे, 
बहुत परे है ..........

(उत्तराखंड  त्रासदी को  एक बरस बीत गया!  उस भीषण त्रासदी के बाद टीवी देखते हुए पिछले साल यह कविता जन्मी थी जो मेरे कविता-संग्रह में "यह समय हमारी कल्पनाओं से परे है" शीर्षक से संगृहीत है, बाद में मेरे कविता-संग्रह का शीर्षक भी बनी)

Thursday, May 29, 2014

डॉ. अमरजीत कौंके की कवितायें


अभी कुछ पहले ही डाक द्वारा 'प्रतिमान पंजाबी' की लेखकीय प्रति के साथ हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध कवि और संपादक डॉ अमरजीत कौंके का कविता-संग्रह 'अंतहीन दौड़' भी था!  यह डॉ. कौंके का हिन्दी में तीसरा कविता संग्रह है जो कुछ साल पहले प्रकाशित हुआ है!  इस संग्रह से गुजरना बेहद रोचक रहा और साथ ही रोचक लगी मेरे आत्मीय वरिष्ठ कवि अरुण कमल द्वारा लिखा इसका ब्लर्ब!  आप सभी के लिए उसे साझा कर रही हूँ, ताकि इन कविताओं से एक दोस्ताना रिश्ता कायम हो सके!


"पंजाबी और हिन्दी के विख्यात कवि डॉ। अमरजीत कौंके की कविताओं का यह संग्रह अपने सर्वथा अनूठे अंदाज़ और स्वाद के लिए हिन्दी पाठकों के बीच सराहा जाएगा!  यहाँ एक साथ गहरी रूमानियत है (मन की थाली में पानी बहुत तिलमिलाया) और यथार्थ का ठोसपन (खूंटे पर बंधे हुये जिद्दी घोड़े की तरह अपने पाँव तले की जमीन उखाड़ता हूँ)!  कौंके ने बिल्कुल नई निगाह से प्रकृति और जीवन को देखा है!  यहाँ 'जामुनी नदियां' हैं और 'सुर्ख पवन' है और अनुभव की बारीकी को मूर्त करता यह तीखा बिम्ब -'पर यूं रेगे साथ सदा जैसे जिस्म में खंजर घुसता'!  कौंके की कवितायें कई बार हमें भीतर से झिंझोड़ती हैं! 'जीवन जिया मैंने' एक ऐसी ही कविता है!  दुर्लभ! 
 अमरजीत कौंके की कविता जीवन की आलोचना तो है ही, एक साथ स्वयं अपनी भी यानि प्रत्येक व्यक्ति की भी आत्म आलोचना है!  कौंके कविता की खोजबत्ती को अपनी ओर भी घुमाते हैं : 'मुझे मुट्ठी भर अनाज क्या मिला कि मैं सब को मोर्चों पर लड़ता छोडकर दूर भाग आया हूँ'!  कौंके की कविता हमारी सांझी स्मृतियों की भी कविता है : 'कितने हमारे आँसू साझे, हमने एक दूसरे के पोरों से पोंछे' और भाईचारे और प्रेम की कविता, और संघर्ष करते जाने की कूबत की कविता - 'वह उन पुलों को लानत बोलती जो कहते पानी तो पुलों के नीचे से ही गुजरना'!
ये कवितायें आधुनिक जीवन के यथार्थ को यथार्थक भाषा में ही रूपायत करती हैं!  इन कविताओं में अंधी, अंतहीन दौड़ में फंसे मानव के खंडित अस्तित्व का विलाप सुना जा सकता है!  पीछे छूट चुका घर, बिक रहा गाँव, टूटते रिश्तों का दर्द, इस संग्रह की कविताओं में बार-बार प्रकट होता है!
इस संग्रह को पढ़ना एक बेचैन दिल की धड़कनों को सुनना है! यहाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की भी कुछ अद्भुत कवितायें हैं, जैसे 'पता नहीं'!  यहाँ उद्वेग है, संघर्ष है और सपने देखने का माद्दा भी - 'हमने भी उस मिट्टी में कुछ सपने बोये'!  कौंके की कविता गहन करुणा की कविता है, घर-गाँव-परिवार के लोप पर विलाप की कविता और उद्दाम आशा की कविता - 'हम यहीं रहेंगे सदा यह पृथ्वी हमारी है'!
हिन्दी पाठकों को इस संग्रह में हिन्दी भाषा का भी एक नया सम्भार मिलेगे, पंजाबियत के सांद्र रस से पेबस्त एक ख़ास मिठास!"
-- अरुण कमल (पटना)



डॉ. अमरजीत कौंके की कवितायें 

(1)

लालटेन 

कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर

कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी

तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई

इन सुलगती हुई निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ़ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं

लेकिन टिकी रात के
ख़ौफ़नाक अंधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे क़ब्रिस्तान की परिक्रमा करता।

और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
रोशन करता।


(2)


पता नहीं


पता नहीं
कितनी प्यास थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने समुद्रों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
पानी का एक छोटा-सा
क़तरा बन जाता

पता नहीं
कितनी अग्नि थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने सूरजों पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
एक छोटा-सा
जुगनू बन जाता


पता नहीं
कितना प्यार था उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी बेपनाह मोहब्बत पर
बहुत गर्व था
उसके सामने
मेरा सारा प्यार
एक तिनका-मात्र रह जाता


पता नहीं
कितनी साँस थी उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपनी लम्बी साँसों पर
बहुत गर्व था
उसके पास जाता
तो मेरी साँस टूट जाती

पता नहीं
कितने मरूस्थल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे अपने जलस्रोतों पर
बहुत गर्व था
उसकी देह में
एक छोटे से झरने की भाँति
गिरता और सूख जाता

पता नहीं
कितने गहरे पाताल थे उसके भीतर
कि मैं
जिसे बहुत बड़ा तैराक होने का भ्रम था
उसकी आँखों में देखता
तो अंतहीन गहराइयों में
डूब जाता
डूबता ही चला जाता।


(3)


उत्तर आधुनिक आलोचक 


जब मैंने
भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा

जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा

परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!



Saturday, May 17, 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं

बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंज़र दिल कचोटते हैं
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है

मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छांट दी गई उन बाहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पायी गईं

नहीं यह महज़ खब्त नहीं है
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ

कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टंगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है

मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ
अच्छे दिनों के आने का संदेश

ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुये
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट
पर कान बंद कर लेने की

कैसा समय है
कि वह एक मुस्कान के आने पर
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं.............



(शुक्रवार, 16-22, मई 2104 में प्रकाशित)

चालीस साला औरतें

इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गयी 
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक़्त
तय हुआ होगा शायद

अभी नन्ही उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नयी दास्तान,
संभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आंचल
अब बनने को ही है परचम

कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर

बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से 
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से 
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज़ की आहट के साइड एफ़ेक्ट्स से   
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है खवाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हंसी से पहरे  
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,

ये जो फैली हुई कमर का घेरा है  न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में
ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नयी दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं 
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं 
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूंटे है
जिसके कडवेपन से बंधी हैं कई अकेली रातें,   

ये उपवास के दिनों का वक़्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं 
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है 

अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूंढती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हे
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफ़ाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,
जी हाँ,  वे फ़ेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं................



(बिंदिया अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, May 14, 2014

काश ऐसा होता/लीना टिब्बी



काश ऐसा होता
कि ईश्वर
मेरे बिस्तर के पास रखे
पानी भरे गिलास के अन्दर से
बैंगनी प्रकाश पुंज-सा अचानक प्रकट हो जाता...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
शाम की अजान बन कर
हमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
आसूँ की एक बूंद बन जाता
जिसके लुढ़कने का अफ़सोस
हम मनाते रहते पूरे-पूरे दिन...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
रूप धर लेता एक ऐसे पाप का
हम कभी न थकते
जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते...

काश ऐसा होता
कि ईश्वर
शाम तक मुरझा जाने वाला गुलाब होता
तो हर नई सुबह
हम नया फूल ढूंढ कर ले आया करते...

काश ऐसा होता...

--लीना टिब्बी

मूल कविता : अरबी

अंग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेन्द्र
साभार : कविता कोश