युवा कवि मणि मोहन मेहता ने प्रेम और संघर्ष की विश्व विख्यात कवयित्री माया एंजलो की कुछ कविताओं का सुन्दर अनुवाद हमारे पाठकों के लिए भेजा है! ये कवितायें एक असाधारण स्त्री की मूक पीड़ा की ज़बान हैं! आप भी पढ़िए और महसूस कीजिये ……
(1)
वे घर गए
वे घर गए और अपनी पत्नियों से कहा
कि अपनी पूरी ज़िन्दगी में एक बार भी
मेरे जैसी लड़की नहीं देखी
फिर भी ...वे अपने घर गए .
उन्होंने कहा के मेरा घर चमचमा रहा था
जो कुछ कहा मैंने उसमे एक भी शब्द भद्दा नहीं था
एक रहस्य था मेरे व्यक्तित्व में
फिर भी... वे अपने घर गए .
मेरी तारीफ सभी पुरुषों के लबों पर थी
उन्हें मेरी मुस्कान , मेरी हाजिरजवाबी
मेरे नितम्ब पसंद थे
उन्होंने रात गुजारी - एक , दो या फिर तीन
फिर भी ...............
(2)
सबक
मैं अपना मरना जारी रखती हूँ
शिराएं सिमट रही हैं,खुल रही हैं
सोये हुए बच्चों की
नन्हीं मुट्ठियों की तरह
पुरानी कब्रों की स्मृतियों,
सड़ता हुआ मांस और कीड़े
आश्वस्त नहीं करते मुझे
चुनौती के खिलाफ
अनगिनित वर्ष
और ठंडी पराजय
गहरे तक धंसे हुए हैं
मेरे चेहरे की लकीरों में
वे मेरी आँखों को थका रहे हैं , फिर भी
जारी है मेरा मरना,
क्योंकि मैं प्रेम करती हूँ
जिंदगी से ।
(3)
असाधारण स्त्री
खूबसूरत स्त्रियाँ आश्चर्य से भर जाती हैं
मेरे रहस्य को लेकर
मैं सुंदर नहीं हूँ और न फैशन मॉडल की तरह
मेरा जिस्म है
परन्तु जब मैं उन्हें बताना शुरू करती हूँ
वे सोचती हैं , मैं झूठ बोल रही हूँ ।
मैं कहती हूँ
यह मेरी बाँहों के बस में है
मेरे नितम्बों के आकार
मेरे क़दमों की गति
मेरे होठों की गोलाई में है ।
मैं एक स्त्री हूँ
असाधारण रूप से।
असाधारण स्त्री
यह मैं हूँ ।
मैं एक कमरे में प्रवेश करती हूँ
एकदम शांतचित्त तुम्हारी तरह
और जहां तक पुरुषों का संबंध है
वे खड़े हो जाते हैं या
घुटनों के बल बैठ जाते हैं।
फिर वे मंडराने लगते हैं मेरे चरों तरफ
जैसे मधुमक्खियों का एक छत्ता ।
मैं कहती हूँ
यह आग है मेरी आँखों में
और चमक मेरे दांतों में
मेरी कमर की लचक
और एक आनंद मेरे पैरों में
मैं एक स्त्री हूँ
असाधारण रूप से ।
असाधारण स्त्री
यह मै हूँ ।
अब तुम समझ सकते हो
मेरा सिर झुकता क्यूँ नहीं है।
मैं चीखती नहीं और न हड़बड़ी में रहती हूँ
और न तेज आवाज में बोलती हूँ ।
जब तुम मुझे कहीं से गुजरते हुए देखो
तुम्हे गर्व होना चाहिए ।
मैं कहती हूँ ,
यह मेरी सेंडिल की खटखट में है
मेरी जुल्फ़ों के पेंचोखम में है
मेरी हथेलियों में है ,
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ
असाधारण रूप से ।
असाधारण स्त्री
यह मैं हूँ ।
(4)
काम करती स्त्री
मुझे बच्चों की देखभाल करनी है
कपड़े सिलना है
पोंछा लगाना है
बाजार से सामान लाना है
फिर चिकन फ्राई करना है
पोंछना है बच्चे का गीला बदन
पूरे कुनबे को खाना खिलाना है
बगीचे से खरपतवार हटाना है
कमीजों पर इस्त्री करनी है
कनस्तर काटना है
साफ करना है यह झोंपड़ी
बीमार लोगों की देखभाल करनी है
और कपास चुनना है ।
धूप , बिखर जाओ मुझ पर
बारिश, बरस जाओ मुझ पर
ओस की बूंदों , धीरे-धीरे गिरो मुझ पर
ठंडा करो मेरे माथे को ।
तूफ़ान , उड़ा ले चलो मुझे यहाँ से
अपनी प्रचंड हवा के साथ
तैरने दो मुझे आकाश में
जब तक पूरा न हो मेरा विश्राम ।
हिम-कण , धीरे-धीरे गिरो
छा जाओ मुझ पर
भर दो मुझे सफेद शीतल चुम्बनों से
और आराम करने दो मुझे
आज की रात ।
सूर्य , बारिश , सर्पिल आकाश
पहाड़ , समुद्र , पत्तियों और पत्थर
तारों की चमक , चंद्रमा की आभा
सिर्फ तुम हो
जिन्हें मैं अपना कह सकती हूँ ।
अनुवाद : मणि मोहन मेहता
संपर्क -09425150346
(सभी चित्र साभार गूगल से)
शुक्रिया अंजू जी इन कविताओं को स्वयंसिद्धा पर साझा करने के लिए ।आभार ।
ReplyDeleteशानदार कविताओं का शानदार अनुवाद
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया वंदना गुप्ता जी ..आभार ।
Deleteशुक्रिया नवनीत जी ।
Deleteसुंदर प्रयास.
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